श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ८       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ८ "ध्रुव का वन-गमन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ८       

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः ८       

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध आठवां अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ८  श्लोक का हिन्दी अनुवाद

चतुर्थ स्कन्ध अध्याय ८

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

सनकाद्या नारदश्च ऋभुर्हंसोऽरुणिर्यतिः ।

नैते गृहान् ब्रह्मसुता ह्यावसउ ऊर्ध्वरेतसः ॥ १ ॥

मृषाधर्मस्य भार्यासीद् दम्भं मायां च शत्रुहन् ।

असूत मिथुनं तत्तु निर्‌ऋतिर्जगृहेऽप्रजः ॥ २ ॥

तयोः समभवल्लोभो निकृतिश्च महामते ।

ताभ्यां क्रोधश्च हिंसा च यद्दुरुक्तिः स्वसा कलिः ॥ ३ ॥

दुरुक्तौ कलिराधत्त भयं मृत्युं च सत्तम ।

तयोश्च मिथुनं जज्ञे यातना निरयस्तथा ॥ ४ ॥

सङ्‌ग्रहेण मयाऽऽख्यातः प्रतिसर्गस्तवानघ ।

त्रिः श्रुत्वैतत्पुमान् पुण्यं विधुनोत्यात्मनो मलम् ॥ ५ ॥

अथातः कीर्तये वंशं पुण्यकीर्तेः कुरूद्वह ।

स्वायम्भुवस्यापि मनोः हरेरंशांशजन्मनः ॥ ६ ॥

प्रियव्रतोत्तानपादौ शतरूपापतेः सुतौ ।

वासुदेवस्य कलया रक्षायां जगतः स्थितौ ॥ ७ ॥

जाये उत्तानपादस्य सुनीतिः सुरुचिस्तयोः ।

सुरुचिः प्रेयसी पत्युः नेतरा यत्सुतो ध्रुवः ॥ ८ ॥

एकदा सुरुचेः पुत्रं अङ्‌कमारोप्य लालयन् ।

उत्तमं नारुरुक्षन्तं ध्रुवं राजाभ्यनन्दत ॥ ९ ॥

तथा चिकीर्षमाणं तं सपत्‍न्यास्तनयं ध्रुवम् ।

सुरुचिः शृण्वतो राज्ञः सेर्ष्यमाहातिगर्विता ॥ १० ॥

न वत्स नृपतेर्धिष्ण्यं भवान् आरोढुमर्हति ।

न गृहीतो मया यत्त्वं कुक्षौ अपि नृपात्मजः ॥ ११ ॥

बालोऽसि बत नात्मानं अन्यस्त्रीगर्भसम्भृतम् ।

नूनं वेद भवान् यस्य दुर्लभेऽर्थे मनोरथः ॥ १२ ॥

तपसाऽऽराध्य पुरुषं तस्यैवानुग्रहेण मे ।

गर्भे त्वं साधयात्मानं यदीच्छसि नृपासनम् ॥ १३ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- शत्रुसूदन विदुर जी! सनकादि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति- ब्रह्माजी के इन नैष्ठिक ब्रह्मचारी पुत्रों ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया (अतः उनके कोई सन्तान नहीं हुई)। अधर्म भी ब्रह्माजी का ही पुत्र था, उसकी पत्नी का नाम था मृषा। उसके दम्भ नामक पुत्र और माया नाम की कन्या हुई। उन दोनों को निर्ऋति ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी। दम्भ और माया से लोभ और निकृति (शठता) का जन्म हुआ, उनसे क्रोध और हिंसा तथा उनसे कलि (कलह) और उसकी बहिन दुरुक्ति (गाली) उत्पन्न हुई। साधुशिरोमणे! फिर दुरुक्ति से कलि ने भय और मृत्यु को उत्पन्न किया तथा उन दोनों के संयोग से यातना और निरय (नरक) का जोड़ा उत्पन्न हुआ।

निष्पाप विदुर जी! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तुम्हें प्रलय का कारणरूप यह अधर्म का वंश सुनाया। यह अधर्म का त्याग कराकर पुण्य-सम्पादन में हेतु बनता है; अतएव इसका वर्णन तीन बार सुनकर मनुष्य अपने मन की मलिनता दूर कर देता है। कुरुनन्दन! अब मैं श्रीहरि के अंश (ब्रह्माजी) के अंश से उत्पन्न हुए पवित्रकीर्ति महाराज स्वायम्भुव मनु के पुत्रों के वंश का वर्णन करता हूँ।

महारानी शतरूपा और उनके पति स्वयाम्भुव मनु से प्रियव्रत और उत्तानपाद- ये पुत्र हुए। भगवान् वासुदेव की कला से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों संसार की रक्षा में तत्पर रहते थे। उत्तानपाद के सुनीति और सुरुचि नाम की दो पत्नियाँ थीं। उनमें सुरुचि राजा को अधिक प्रिय थी; सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, उन्हें वैसी प्रिय नहीं थी।

एक दिन राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में बिठाकर प्यार कर रहे थे। उसी समय ध्रुव ने भी गोद में बैठना चाहा, परन्तु राजा ने उसका स्वागत नहीं किया। उस समय घमण्ड से भरी हुई सुरुचि ने अपनी सौत के पुत्र को महराज की गोद में आने का यत्न करते देख उनके सामने ही उससे डाह भरे शब्दों में कहा। बच्चे! तू राजसिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं है। तू भी राजा का ही बेटा है, इससे क्या हुआ; तुझको मैंने तो अपनी कोख में नहीं धारण किया। तू अभी नादान है, तुझे पता नहीं है कि तूने किसी दूसरी स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है; तभी तो ऐसे दुर्लभ विषय की इच्छा कर रहा है। यदि तुझे राजसिंहासन की इच्छा है तो तपस्या करके परम पुरुष श्रीनारायण की आराधना कर और उनकी कृपा से मेरे गर्भ में आकर जन्म ले

मैत्रेय उवाच -

मातुः सपत्‍न्याः स दुरुक्तिविद्धः

     श्वसन् रुषा दण्डहतो यथाहिः ।

हित्वा मिषन्तं पितरं सन्नवाचं

     जगाम मातुः प्ररुदन् सकाशम् ॥ १४ ॥

तं निःश्वसन्तं स्फुरिताधरोष्ठं

     सुनीतिरुत्सङ्‌ग उदूह्य बालम् ।

निशम्य तत्पौरमुखान्नितान्तं

     सा विव्यथे यद्‍गदितं सपत्‍न्या ॥ १५ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! जिस प्रकार डंडे की चोट खाकर साँप फुँफकार मारने लगता है, उसी प्रकार अपनी सौतेली माँ के कठोर वचनों से घायक होकर ध्रुव क्रोध के मारे लंबी-लंबी साँस लेने लगा। उसके पिता चुपचाप यह सब देखते रहे, मुँह से एक शब्द भी नहीं बोले। तब पिता को छोड़कर ध्रुव रोता हुआ अपनी माता के पास आया। उसके दोनों होंठ फड़क रहे थे और वह सिसक-सिसककर रो रहा था। सुनीति ने बेटे को गोद में उठा लिया और जब महल के दूसरे लोगों से अपनी सौत सुरुचि की कही हुई बातें सुनी, तब उसे भी बड़ा दुःख हुआ।

सोत्सृज्य धैर्यं विललाप शोक

     दावाग्निना दावलतेव बाला ।

वाक्यं सपत्‍न्याः स्मरती सरोज

     श्रिया दृशा बाष्पकलामुवाह ॥ १६ ॥

दीर्घं श्वसन्ती वृजिनस्य पारं

     अपश्यती बालकमाह बाला ।

मामङ्‌गलं तात परेषु मंस्था

     भुङ्‌क्ते जनो यत्परदुःखदस्तत् ॥ १७ ॥

सत्यं सुरुच्याभिहितं भवान्मे

     यद् दुर्भगाया उदरे गृहीतः ।

स्तन्येन वृद्धश्च विलज्जते यां

     भार्येति वा वोढुमिडस्पतिर्माम् ॥ १८ ॥

आतिष्ठ तत्तात विमत्सरस्त्वं

     उक्तं समात्रापि यदव्यलीकम् ।

आराधयाधोक्षजपादपद्मं

     यदीच्छसेऽध्यासनमुत्तमो यथा ॥ १९ ॥

यस्याङ्‌घ्रिपद्मं परिचर्य विश्व

     विभावनायात्तगुणाभिपत्तेः ।

अजोऽध्यतिष्ठत्खलु पारमेष्ठ्यं

     पदं जितात्मश्वसनाभिवन्द्यम् ॥ २० ॥

तथा मनुर्वो भगवान्पितामहो

     यमेकमत्या पुरुदक्षिणैर्मखैः ।

इष्ट्वाभिपेदे दुरवापमन्यतो

     भौमं सुखं दिव्यमथापवर्ग्यम् ॥ २१ ॥

तमेव वत्साश्रय भृत्यवत्सलं

     मुमुक्षुभिर्मृग्यपदाब्जपद्धतिम् ।

अनन्यभावे निजधर्मभाविते

     मनस्यवस्थाप्य भजस्व पूरुषम् ॥ २२ ॥

नान्यं ततः पद्मपलाशलोचनाद्

     दुःखच्छिदं ते मृगयामि कञ्चन ।

यो मृग्यते हस्तगृहीतपद्मया

     श्रियेतरैरङ्‌ग विमृग्यमाणया ॥ २३ ॥

उसका धीरज टूट गया। वह दावानल से जली हुई बेल के समान शोक से सन्तप्त होकर मुरझा गयी तथा विलाप करने लगी। सौत की बातें याद आने से उसके कमल-सरीखे नेत्रों ने आँसू भर आये। उस बेचारी को अपने दुःखपारावार का कहीं अन्त ही नहीं दिखायी देता था। उसने गहरी साँस लेकर ध्रुव से कहा, ‘बेटा! तू दूसरों के लिये किसी प्रकार के अमंगल की कामना मत कर। जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है। सुरुचि ने जो कुछ कहा है, ठीक ही है; क्योंकि महाराज को मुझे पत्नीतो क्या, ‘दासीस्वीकार करने में भी लज्जा आती है। तूने मुझ मन्दभागिनी के गर्भ से ही जन्म लिया है और मेरे ही दूध से तू पला है।

बेटा! सुरुचि ने तेरी सौतेली माँ होने पर भी बात बिलकुल ठीक कही है; अतः यदि राजकुमार उत्तम के समान राजसिंहासन पर बैठना चाहता है तो द्वेषभाव छोड़कर उसी का पालन कर। बस, श्रीअधोयक्षज भगवान् के चरणकमलों की आराधना में लग जा। संसार का पालन करने के लिये सत्त्वगुण को अंगीकार करने वाले उन श्रीहरि के चरणों की आराधना करने से ही तेरे परदादा श्रीब्रह्माजी को वह सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त हुआ है, जो मन और प्राणों को जीतने वाले मुनियों के द्वारा भी वन्दनीय है। इसी प्रकार तेरे दादा स्वयंभुव मनु ने भी बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों के द्वारा अनन्यभाव से उन्हीं भगवान् की आराधना की थी; तभी उन्हें दूसरों के लिये अति दुर्लभ लौकिक, अलौकिक तथा मोक्षसुख की प्राप्ति हुई। बेटा! तू भी उन भक्तवत्सल श्रीभगवान् का ही आश्रय ले। जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटने की इच्छा करने वाले मुमुक्ष लोग निरन्तर उन्हीं के चरणकमलों के मार्ग की खोज किया करते हैं। तू स्वधर्मपालन से पवित्र हुए अपने चित्त में श्रीपुरुषोत्तम भगवान् को बैठा ले तथा अन्य सबका चिन्तन छोड़कर केवल उन्हीं का भजन कर। बेटा! उन कमल-दल-लोचन श्रीहरि को छोड़कर मुझे तो तेरे दुःख को दूर करने वाला और कोई दिखायी नहीं देता। देख, जिन्हें प्रसन्न करने के लिये ब्रह्मा आदि अन्य सब देवता ढूँढ़ते रहते हैं, वे श्रीलक्ष्मी जी भी दीपक की भाँति हाथ में कमल किये निरन्तर उन्हीं श्रीहरि की खोज किया करती हैं

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

एवं सञ्जल्पितं मातुः आकर्ण्यार्थागमं वचः ।

सन्नियम्यात्मनाऽऽत्मानं निश्चक्राम पितुः पुरात् ॥ २४ ॥

नारदस्तदुपाकर्ण्य ज्ञात्वा तस्य चिकीर्षितम् ।

स्पृष्ट्वा मूर्धन्यघघ्नेन पाणिना प्राह विस्मितः ॥ २५ ॥

अहो तेजः क्षत्रियाणां मानभङ्‌गममृष्यताम् ।

बालोऽप्ययं हृदा धत्ते यत्समातुरसद्वचः ॥ २६ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- माता सुनीति ने जो वचन कहे, वे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का मार्ग दिखलाने वाले थे। अतः उन्हें सुनकर ध्रुव ने बुद्धि द्वारा अपने चित्त का समाधान किया। इसके बाद वे पिता के नगर से निकल पड़े। यह सब समाचार सुनकर और ध्रुव क्या करना चाहता है, इस बात को जानकर नारद जी वहाँ आये। उन्होंने ध्रुव के मस्तक पर अपना पापनाशक कर-कमल फेरते हुए मन-ही-मन विस्मित होकर कहा। अहो! क्षत्रियों का कैसा अद्भुत तेज है, वे थोड़ा-सा भी मान-भंग नहीं सह सकते। देखो, अभी तो यह नन्हा-सा बच्चा है; तो भी इसके हृदय में सौतेली माता के कटु वचन घर कर गये हैं

नारद उवाच -

नाधुनाप्यवमानं ते सम्मानं वापि पुत्रक ।

लक्षयामः कुमारस्य सक्तस्य क्रीडनादिषु ॥ २७ ॥

विकल्पे विद्यमानेऽपि न ह्यसन्तोषहेतवः ।

पुंसो मोहमृते भिन्ना यल्लोके निजकर्मभिः ॥ २८ ॥

परितुष्येत् ततस्तात तावन्मात्रेण पूरुषः ।

दैवोपसादितं यावद् वीक्ष्येश्वरगतिं बुधः ॥ २९ ॥

अथ मात्रोपदिष्टेन योगेनावरुरुत्ससि ।

यत्प्रसादं स वै पुंसां दुराराध्यो मतो मम ॥ ३० ॥

मुनयः पदवीं यस्य निःसङ्‌गेनोरुजन्मभिः ।

न विदुर्मृगयन्तोऽपि तीव्रयोगसमाधिना ॥ ३१ ॥

अतो निवर्ततामेष निर्बन्धस्तव निष्फलः ।

यतिष्यति भवान् काले श्रेयसां समुपस्थिते ॥ ३२ ॥

यस्य यद् दैवविहितं स तेन सुखदुःखयोः ।

आत्मानं तोषयन् देही तमसः पारमृच्छति ॥ ३३ ॥

गुणाधिकान्मुदं लिप्सेद् अनुक्रोशं गुणाधमात् ।

मैत्रीं समानादन्विच्छेत् न तापैरभिभूयते ॥ ३४ ॥

तत्पश्चात् नारद जी ने ध्रुव से कहा ;- बेटा! अभी तो तू बच्चा है, खेल-कूद में ही मस्त रहता है; हम नहीं समझते कि इस उम्र में किसी बात से तेरा सम्मान या अपमान हो सकता है।

यदि तुझे मानापमान का विचार ही हो, तो बेटा! असल में मनुष्य के असन्तोष का कारण मोह के सिवा और कुछ नहीं है। संसार में मनुष्य अपने कर्मानुसार ही मान-अपमान या सुख-दुःख आदि को प्राप्त होता है। तात! भगवान् की गति बड़ी विचित्र है! इसलिये उस पर विचार करके बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि दैववश उसे जैसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, उसी में सन्तुष्ट रहे। अब, माता के उपदेश से तू योग साधन द्वारा जिन भगवान् की कृपा प्राप्त करने चला है-मेरे विचार से साधारण पुरुषों के लिये उन्हें प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है। योगी लोग अनेकों जन्मों तक अनासक्त रहकर समाधियोग के द्वारा बड़ी-बड़ी कठोर साधनाएँ करते रहते हैं, परन्तु भगवान् के मार्ग का पता नहीं पाते। इसलिये तू यह व्यर्थ का हठ छोड़ दे और घर लौट जा; बड़ा होने पर जब परमार्थ-साधन का समय आवे, तब उसके लिये प्रयत्न कर लेना। विधाता के विधान के अनुसार सुख-दुःख जो कुछ भी प्राप्त हो, उसी में चित्त की सन्तुष्ट रखना चाहिये। यों करने वाला पुरुष मोहमय संसार से पार हो जाता है। मनुष्य को चाहिये कि अपने से अधिक गुणवान् को देखकर प्रसन्न हो; जो कम गुणवाला हो, उस पर दया करे और जो अपने समान गुण वाला हो, उससे मित्रता का भाव रखे। यों करने से उसे दुःख कभी नहीं दबा सकते।

ध्रुव उवाच -

सोऽयं शमो भगवता सुखदुःखहतात्मनाम् ।

दर्शितः कृपया पुंसां दुर्दर्शोऽस्मद्विधैस्तु यः ॥ ३५ ॥

अथापि मेऽविनीतस्य क्षात्त्रं घोरमुपेयुषः ।

सुरुच्या दुर्वचोबाणैः न भिन्ने श्रयते हृदि ॥ ३६ ॥

पदं त्रिभुवनोत्कृष्टं जिगीषोः साधु वर्त्म मे ।

ब्रूहि अस्मत् पितृभिर्ब्रह्मन् अन्यैरप्यनधिष्ठितम् ॥ ३७ ॥

नूनं भवान् भगवतो योऽङ्‌गजः परमेष्ठिनः ।

वितुदन्नटते वीणां हिताय जगतोऽर्कवत् ॥ ३८ ॥

ध्रुव ने कहा ;- भगवन्! सुख-दुःख से जिनका चित्त चंचल हो जाता है, उन लोगों के लिये आपने कृपा करके शान्ति का यह बहुत अच्छा उपाय बतलाया। परन्तु मुझ-जैसे अज्ञानियों की दृष्टि यहाँ तक नहीं पहुँच पाती। इसके सिवा, मुझे घोर क्षत्रिय स्वभाव प्राप्त हुआ है, अतएव मुझमें विनय का प्रायः अभाव है; सुरुचि ने अपने कटुवचनरूपी बाणों से मेरे हृदय को विदीर्ण कर डाला है; इसलिये उसमें आपका यह उपदेश नहीं ठहर पाता। ब्रह्मन्! मैं उस पद पर अधिकार करना चाहता हूँ, जो त्रिलोकी में सबसे श्रेष्ठ है तथा जिस पर मेरे बाप-दादे और दूसरे कोई भी आरूढ़ नहीं हो सके हैं। आप मुझे उसी की प्राप्ति का कोई अच्छा-सा मार्ग बतलाइये। आप भगवान् ब्रह्माजी के पुत्र हैं और संसार के कल्याण के लिये ही वीणा बजाते सूर्य की भाँति त्रिलोकी में विचरा करते हैं।

मैत्रेय उवाच -

इत्युदाहृतमाकर्ण्य भगवान् नारदस्तदा ।

प्रीतः प्रत्याह तं बालं सद्वाक्यं अनुकम्पया ॥ ३९ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- ध्रुव की बात सुनकर भगवान् नारद जी बड़े प्रसन्न हुए और उस पर कृपा करके इस प्रकार सदुपदेश देने लगे।

नारद उवाच -

जनन्याभिहितः पन्थाः स वै निःश्रेयसस्य ते ।

भगवान् वासुदेवस्तं भज तं प्रवणात्मना ॥ ४० ॥

धर्मार्थकाममोक्षाख्यं य इच्छेत् श्रेय आत्मनः ।

एकं ह्येव हरेस्तत्र कारणं पादसेवनम् ॥ ४१ ॥

तत्तात गच्छ भद्रं ते यमुनायास्तटं शुचि ।

पुण्यं मधुवनं यत्र सान्निध्यं नित्यदा हरेः ॥ ४२ ॥

स्नात्वानुसवनं तस्मिन् कालिन्द्याः सलिले शिवे ।

कृत्वोचितानि निवसन् आत्मनः कल्पितासनः ॥ ४३ ॥

प्राणायामेन त्रिवृता प्राणेन्द्रियमनोमलम् ।

शनैर्व्युदस्याभिध्यायेन् मनसा गुरुणा गुरुम् ॥ ४४ ॥

श्रीनारद जी ने कहा ;- बेटा! तेरी माता सुनीति ने तुझे जो कुछ बताया है, वही तेरे लिये परम कल्याण का मार्ग है। भगवान् वासुदेव ही वह उपाय हैं, इसलिये तू चित्त लगाकर उन्हीं का भजन कर। जिस पुरुष को अपने लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ की अभिलाषा हो, उसके लिये उनकी प्राप्ति का उपाय एकमात्र श्रीहरि के चरणों का सेवन ही है। बेटा! तेरा कल्याण होगा, अब तू श्रीयमुना जी के तटवर्ती परमपवित्र मधुवन को जा। वहाँ श्रीहरि का नित्य-निवास है। वह श्रीकालिन्दी के निर्मल जल में तीनों समय स्नान करके नित्यकर्म से निवृत्त हो यथाविधि आसन बिछाकर स्थिरभाव से बैठना। फिर रेचक, पूरक और कुम्भक- तीन प्रकार के प्राणायाम से धीरे-धीरे प्राण, मन और इन्द्रिय के दोषों को दूरकर धैर्ययुक्त मन से परमगुरु श्रीभगवान् का इस प्रकार ध्यान करना।

प्रसादाभिमुखं शश्वत् प्रसन्नवदनेक्षणम् ।

सुनासं सुभ्रुवं चारु कपोलं सुरसुन्दरम् ॥ ४५ ॥

तरुणं रमणीयाङ्‌गं अरुणोष्ठेक्षणाधरम् ।

प्रणताश्रयणं नृम्णं शरण्यं करुणार्णवम् ॥ ४६ ॥

श्रीवत्साङ्‌कं घनश्यामं पुरुषं वनमालिनम् ।

शङ्‌खचक्रगदापद्मैः अभिव्यक्तचतुर्भुजम् ॥ ४७ ॥

किरीटिनं कुण्डलिनं केयूरवलयान्वितम् ।

कौस्तुभाभरणग्रीवं पीतकौशेयवाससम् ॥ ४८ ॥

काञ्चीकलापपर्यस्तं लसत्काञ्चन नूपुरम् ।

दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयनवर्धनम् ॥ ४९ ॥

पद्‍भ्यां नखमणिश्रेण्या विलसद्‍भ्यां समर्चताम् ।

हृत्पद्मकर्णिकाधिष्ण्यं आक्रम्यात् मन्यवस्थितम् ॥ ५० ॥

स्मयमानं अभिध्यायेत् सानुरागावलोकनम् ।

नियतेनैकभूतेन मनसा वरदर्षभम् ॥ ५१ ॥

एवं भगवतो रूपं सुभद्रं ध्यायतो मनः ।

निर्वृत्या परया तूर्णं सम्पन्नं न निवर्तते ॥ ५२ ॥

जपश्च परमो गुह्यः श्रूयतां मे नृपात्मज ।

यं सप्तरात्रं प्रपठन् पुमान् पश्यति खेचरान् ॥ ५३ ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

मन्त्रेणानेन देवस्य कुर्याद् द्रव्यमयीं बुधः ।

सपर्यां विविधैर्द्रव्यैः देशकालविभागवित् ॥ ५४ ॥

सलिलैः शुचिभिर्माल्यैः वन्यैर्मूलफलादिभिः ।

शस्ताङ्‌कुरांशुकैश्चार्चेत् तुलस्या प्रियया प्रभुम् ॥ ५५ ॥

लब्ध्वा द्रव्यमयीमर्चां क्षित्यम्ब्वादिषु वार्चयेत् ।

आभृतात्मा मुनिः शान्तो यतवाङ्‌मितवन्यभुक् ॥ ५६ ॥

स्वेच्छावतारचरितैः अचिन्त्यनिजमायया ।

करिष्यति उत्तमश्लोकः तद् ध्यायेद् हृदयङ्‌गमम् ॥ ५७ ॥

परिचर्या भगवतो यावत्यः पूर्वसेविताः ।

ता मंत्रहृदयेनैव प्रयुञ्ज्यान् मंत्रमूर्तये ॥ ५८ ॥

एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् ।

परिचर्यमाणो भगवान् भक्तिमत्परिचर्यया ॥ ५९ ॥

पुंसां अमायिनां सम्यक् भजतां भाववर्धनः ।

श्रेयो दिशत्यभिमतं यद्धर्मादिषु देहिनाम् । ॥ ६० ॥

भगवान् के नेत्र और मुख निरन्तर प्रसन्न रहते हैं; उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि वे प्रसन्नतापूर्वक भक्त को वर देने के लिये उद्यत हैं। उनकी नासिका, भौंहें और कपोल बड़े ही सुहावने हैं; वे सभी देवताओं में परम सुन्दर हैं। उनकी तरुण अवस्था है; सभी अंग बड़े सुडौल हैं; लाल-लाल होठ और रतनारे नेत्र हैं। वे प्रणतजनों को आश्रय देने वाले, अपार सुखदायक, शरणागतवत्सल और दया के समुद्र हैं। उनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिह्न है; उनका शरीर सजल जलधर के समान श्यामवर्ण है; वे परमपुरुष श्यामसुन्दर गले में वनमाला धारण किये हुए हैं और उनकी चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म सुशोभित हैं। उनके अंग-प्रत्यंग किरीट, कुण्डल, केयूर और कंकणादि आभूषणों से विभूषित हैं; गला कौस्तुभ मणि की भी शोभा बढ़ा रहा है तथा शरीर में रेशमी पीताम्बर है। उनके कटिप्रदेश में कांचन की करधनी और चरणों में सुवर्णमय नूपुर (पैजनी) सुशोभित हैं।

भगवान् का स्वरूप बड़ा ही दर्शनीय, शान्त तथा मन और नयनों को आनन्दित करने वाला है। जो लोग नयनों को आनन्दित करने वाला है। जो लोग प्रभु का मानस-पूजन करते हैं, उनके अन्तःकरण में वे हृदयकमल की कर्णिका पर अपने नख-मणिमण्डित मनोहर पादारविन्दों को स्थापित करके विराजते हैं। इस प्रकार धारणा करते-करते जब चित्त स्थिर और एकाग्र हो जाये, तब उन वरदायक प्रभु का मन-ही-मन इस प्रकार ध्यान करे कि वह मेरी ओर अनुरागभरी दृष्टि से निहारते हुए मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं। भगवान् की मंगलमयी मूर्ति का इस प्रकार निरन्तर ध्यान करने से मन शीघ्र ही परमानन्द में डूबकर तल्लीन हो जाता है और फिर वहाँ से लौटता नहीं।

राजकुमार! इस ध्यान के साथ जिस परम गुह्य मन्त्र का जप करना चाहिये, वह भी बतलाता हूँ-सुन। इसका सात रात जप करने से मनुष्य आकाश में विचरने वाले सिद्धों का दर्शन कर सकता है। वह मन्त्र हैं- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। किस देश और किस काल में कौन वस्तु उपयोगी है-इसका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष को इस मन्त्र के द्वारा तरह-तरह की सामग्रियों से भगवान् की द्रव्यमयी पूजा करनी चाहिये। प्रभु का पूजन विशुद्ध जल, पुष्पमाला, जंगली मूल और फलादि, पूजा में विहित दुर्वादि अंकुर, वन में ही प्राप्त होने वाले वल्कल वस्त्र और उनकी प्रेयसी तुलसी से करना चाहिये। यदि शिला आदि की मूर्ति मिल सके तो उसमें, नहीं तो पृथ्वी या जल आदि में ही भगवान् की पूजा करे। सर्वदा संयमचित्त, मननशील, शान्त और मौन रहे तथा जंगली फल-मूलादि का परिमित आहार करे। इसके सिवा पुण्यकीर्ति श्रीहरि अपनी अनिर्वचनीया माया के द्वारा अपनी ही इच्छा से अवतार लेकर जो-जो मनोहर चरित्र करने वाले हैं, उनका मन-ही-मन चिन्तन करता रहे। प्रभु की पूजा के लिये जिन-जिन उपचारों का विधान किया गया है, उन्हें मन्त्रमूर्ति श्रीहरि को द्वादशाक्षर मन्त्र के द्वारा ही अर्पण करे। इस प्रकार जब हृदयस्थित हरि का मन, वाणी और शरीर से भक्तिपूर्वक पूजन किया जाता है, तब वे निश्छलभाव से भलीभाँति भजन करने वाले अपने भक्तों के भाव को बढ़ा देते हैं और उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षरूप कल्याण प्रदान करते हैं।

विरक्तश्चेन्द्रियरतौ भक्तियोगेन भूयसा ।

तं निरन्तरभावेन भजेताद्धा विमुक्तये । ॥ ६१ ॥

इत्युक्तस्तं परिक्रम्य प्रणम्य च नृपार्भकः ।

ययौ मधुवनं पुण्यं हरेश्चरणचर्चितम् । ॥ ६२ ॥

तपोवनं गते तस्मिन् प्रविष्टोऽन्तःपुरं मुनिः ।

अर्हितार्हणको राज्ञा सुखासीन उवाच तम् । ॥ ६३ ॥

यदि उपासक को इन्द्रियसम्बन्धी भोगों से वैराग्य हो गया हो तो वह मोक्ष प्राप्ति के लिये अत्यन्त भक्तिपूर्वक अविच्छिन्नभाव से भगवान् का भजन करे।

श्रीनारद जी से इस प्रकार उपदेश पाकर राजकुमार ध्रुव ने परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर उन्होंने भगवान् के चरणचिह्नों से अंकित परमपवित्र मधुवन की यात्रा की। ध्रुव के तपोवन की ओर चले जाने पर नारद जी महाराज उत्तानपाद के महल में पहुँचे। राजा ने उनकी यथायोग्य उपचारों से पूजा की; तब उन्होंने आराम से आसन पर बैठकर राजा से पूछा।

नारद उवाच -

राजन् किं ध्यायसे दीर्घं मुखेन परिशुष्यता ।

किं वा न रिष्यते कामो धर्मो वार्थेन संयुतः । ॥ ६४ ॥

श्रीनारद जी ने कहा ;- राजन्! तुम्हारा मुख सूखा हुआ है, तुम बड़ी देर से किस सोच-विचार में पड़े हो? तुम्हारे धर्म, अर्थ और काम में से किसी में कोई कमी तो नहीं आ गयी?

राजोवाच -

सुतो मे बालको ब्रह्मन् स्त्रैणेना-करुणात्मना ।

निर्वासितः पञ्चवर्षः सह मात्रा महान्कविः । ॥ ६५ ॥

अप्यनाथं वने ब्रह्मन् मा स्मादन्त्यर्भकं वृकाः ।

श्रान्तं शयानं क्षुधितं परिम्लानमुखाम्बुजम् ॥ ६६ ॥

अहो मे बत दौरात्म्यं स्त्रीजितस्योपधारय ।

योऽङ्‌कं प्रेम्णाऽऽरुरुक्षन्तं नाभ्यनन्दमसत्तमः । ॥ ६७ ॥

राजा ने कहा ;- ब्रह्मन्! मैं बड़ा ही स्त्रैण और निर्दय हूँ। हाय, मैंने अपने पाँच वर्ष के नन्हे-से बच्चे को उसकी माता के साथ घर से निकाल दिया। मुनिवर! वह बड़ा ही बुद्धिमान् था। उसका कमल-सा मुख भूख से कुम्हला गया होगा, वह थककर कहीं रास्ते में पड़ गया होगा। ब्रह्मन्! उस असहाय बच्चे को वन में कहीं भेड़िये न खा जायें। अहो! मैं कैसा स्त्री का गुलाम हूँ! मेरी कुटिलता तो देखिये- वह बालक प्रेमवश मेरी गोद में चढ़ना चाहता था, किन्तु मुझ दुष्ट ने उसका तनिक भी आदर नहीं किया।

नारद उवाच -

मा मा शुचः स्वतनयं देवगुप्तं विशाम्पते ।

तत्प्रभावं अविज्ञाय प्रावृङ्‌क्ते यद्यशो जगत् । ॥ ६८ ॥

सुदुष्करं कर्म कृत्वा लोकपालैरपि प्रभुः ।

ऐष्यत्यचिरतो राजन् यशो विपुलयंस्तव । ॥ ६९ ॥

श्रीनारद जी ने कहा ;- राजन्! तुम अपने बालक की चिन्ता मत करो। उसके रक्षक भगवान् हैं। तुम्हें उसके प्रभाव का पता नहीं है, उसका यश सारे जगत् में फैल रहा है। वह बालक बड़ा समर्थ है। जिस काम को बड़े-बड़े लोकपाल भी नहीं कर सके, उसे पूरा करके वह शीघ्र ही तम्हारे पास लौट आयेगा। उसके कारण तुम्हारा यश भी बहुत बढ़ेगा।

मैत्रेय उवाच -

इति देवर्षिणा प्रोक्तं विश्रुत्य जगतीपतिः ।

राजलक्ष्मीमनादृत्य पुत्रं एवान्वचिन्तयत् ॥ ७० ॥

तत्राभिषिक्तः प्रयतः तां उपोष्य विभावरीम् ।

समाहितः पर्यचर दृष्यादेशेन पूरुषम् ॥ ७१ ॥

त्रिरात्रान्ते त्रिरात्रान्ते कपित्थबदराशनः ।

आत्मवृत्त्यनुसारेण मासं निन्येऽर्चयन् हरिम् ॥ ७२ ॥

द्वितीयं च तथा मासं षष्ठे षष्ठेऽर्भको दिने ।

तृणपर्णादिभिः शीर्णैः कृतान्नोऽभ्यर्चयन् विभुम् ॥ ७३ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- देवर्षि नारद जी की बात सुनकर महाराज उत्तानपाद राजपाट की ओर से उदासीन होकर निरन्तर पुत्र की ही चिन्ता में रहने लगे। इधर ध्रुव जी ने मधुवन में पहुँचकर यमुना जी में स्नान किया और उस रात पवित्रतापूर्वक उपवास करके श्रीनारद जी के उपदेशानुसार एकाग्रचित्त से परमपुरुष श्रीनारायण की उपासना आरम्भ कर दी। उन्होंने तीन-तीन रात्रि के अन्तर से शरीर निर्वाह के लिये केवल कैथ और बेर के फल खाकर श्रीहरि की उपासना करते हुए एक मास व्यतीत किया। दूसरे महीने में उन्होंने छः-छः दिन के पीछे सूखे घास और पत्ते खाकर भगवान् का भजन किया।

तृतीयं चानयन् मासं नवमे नवमेऽहनि ।

अब्भक्ष उत्तमश्लोकं उपाधावत्समाधिना ॥ ७४ ॥

चतुर्थमपि वै मासं द्वादशे द्वादशेऽहनि ।

वायुभक्षो जितश्वासो ध्यायन् देवमधारयत् ॥ ७५ ॥

पञ्चमे मास्यनुप्राप्ते जितश्वासो नृपात्मजः ।

ध्यायन् ब्रह्म पदैकेन तस्थौ स्थाणुरिवाचलः ॥ ७६ ॥

सर्वतो मन आकृष्य हृदि भूतेन्द्रियाशयम् ।

ध्यायन् भगवतो रूपं नाद्राक्षीत् किंचनापरम् ॥ ७७ ॥

आधारं महदादीनां प्रधानपुरुषेश्वरम् ।

ब्रह्म धारयमाणस्य त्रयो लोकाश्चकम्पिरे ॥ ७८ ॥

यदैकपादेन स पार्थिवार्भकः

     तस्थौ तदङ्‌गुष्ठनिपीडिता मही ।

ननाम तत्रार्धमिभेन्द्रधिष्ठिता

     तरीव सव्येतरतः पदे पदे ॥ ७९ ॥

तस्मिन् अभिध्यायति विश्वमात्मनो

     द्वारं निरुध्यासमनन्यया धिया ।

लोका निरुच्छ्वासनिपीडिता भृशं

     सलोकपालाः शरणं ययुर्हरिम् ॥ ८० ॥

तीसरा महीना नौ-नौ दिन पर केवल जल पीकर समाधियोग के द्वारा श्रीहरि की आराधना करते हुए बिताया। चौथे महींने में उन्होंने श्वास को जीतकर बारह-बारह दिन के बाद केवल वायु पीकर ध्यानयोग द्वारा भगवान् आराधना की।

पाँचवाँ मास लगने पर राजकुमार ध्रुव श्वास को जीतकर परब्रह्म का चिन्तन करते हुए एक पैर से खंभे के समान निश्चल भाव से खड़े हो गये। उस समय उन्होंने शब्दादि विषय और इन्द्रियों के नियामक अपने मन को सब ओर से खींच लिया तथा हृदयस्थित हरि के स्वरूप का चिन्तन करते हुए चित्त को किसी दूसरी ओर न जाने दिया। जिस समय उन्होंने महदादि सम्पूर्ण तत्त्वों के आधार तथा प्रकृति और पुरुष के भी अधीश्वर परब्रह्म की धारणा की, उस समय (उनके तेज को न सह सकने के कारण) तीनों लोक काँप उठे।

जब राजकुमार ध्रुव एक पैर से खड़े हुए, तब उनके अँगूठे से दबकर आधी पृथ्वी इस प्रकार झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर नाव झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर पद-पद पर दायीं-बायीं ओर डगमगाने लगती है। ध्रुव जी अपने इन्द्रियद्वार तथा प्राणों को रोककर अनन्य बुद्धि से विश्वात्मा श्रीहरि का ध्यान करने लगे। इस प्रकार उनकी समष्टि प्राण से अभिन्नता हो जाने के कारण सभी जीवों का श्वास-प्रश्वास रुक गया। इससे समस्त लोक और लोकपालों को बड़ी पीड़ा हुई और वे सब घबराकर श्रीहरि की शरण में गये।

देवा ऊचुः -

नैवं विदामो भगवन् प्राणरोधं

     चराचरस्याखिलसत्त्वधाम्नः ।

विधेहि तन्नो वृजिनाद्विमोक्षं

     प्राप्ता वयं त्वां शरणं शरण्यम् ॥ ८१ ॥

देवताओं ने कहा ;- भगवन्! समस्त स्थावर-जंगम जीवों के शरीरों का प्राण एक साथ ही रुक गया है, ऐसा तो हमने पहले कभी अनुभव नहीं किया। आप शरणागतों की रक्षा करने वाले हैं, अपनी शरण में आये हुए हम लोगों को इस दुःख से छुड़ाइये।

श्रीभगवानुवाच -

मा भैष्ट बालं तपसो दुरत्ययान्

     निवर्तयिष्ये प्रतियात स्वधाम ।

यतो हि वः प्राणनिरोध आसीत्

     औत्तानपादिर्मयि सङ्‌गतात्मा ॥ ८२ ॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- दवताओं! तुम डरो मत। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने अपने चित्त को मुझ विश्वात्मा में लीन कर दिया है, इस समय मेरे साथ उसकी अभेद धारणा सिद्ध हो गयी है, इसी से उसके प्राणनिरोध से तुम सबका प्राण भी रुक गया है। अब तुम अपने-अपने लोकों को जाओ, मैं उस बालक को इस दुष्कर तप से निवृत्त कर दूँगा।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवचरिते अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

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