श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ७      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ७ "दक्ष यज्ञ की पूर्ति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ७      

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः ७      

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध सातवां अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ७  श्लोक का हिन्दी अनुवाद

चतुर्थ स्कन्ध अध्याय ७

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

इत्यजेनानुनीतेन भवेन परितुष्यता ।

अभ्यधायि महाबाहो प्रहस्य श्रूयतामिति ॥ १ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- महाबाहो! विदुर जी! ब्रह्मा जी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए कहा-सुनिये।

महादेव उवाच -

नाघं प्रजेश बालानां वर्णये नानुचिन्तये ।

देवमायाभिभूतानां दण्डस्तत्र धृतो मया ॥ २ ॥

प्रजापतेर्दग्धशीर्ष्णो भवत्वजमुखं शिरः ।

मित्रस्य चक्षुषेक्षेत भागं स्वं बर्हिषो भगः ॥ ३ ॥

पूषा तु यजमानस्य दद्‌भिर्जक्षतु पिष्टभुक् ।

देवाः प्रकृतसर्वाङ्‌गा ये मे उच्छेषणं ददुः ॥ ४ ॥

बाहुभ्यां अश्विनोः पूष्णो हस्ताभ्यां कृतबाहवः ।

भवन्तु अध्वर्यवश्चान्ये बस्तश्मश्रुर्भृगुर्भवेत् ॥ ५ ॥

श्रीमहादेव जी ने कहा ;- ‘प्रजापते! भगवान् की माया से मोहित हुए दक्ष जैसे नासमझों के अपराध की न तो मैं चर्चा करता हूँ और न याद ही। मैंने तो केवल सावधान करने के लिये ही उन्हें थोड़ा-सा दण्ड दे दिया। दक्ष प्रजापति का सिर जल गया है, इसलिये उनके बकरे का सिर लगा दिया जाये; भगदेव मित्रदेवता के नेत्रों से अपना यज्ञभाग देखें। पूषा पिसा हुआ अन्न खाने वाले हैं, वे उसे यजमान के दाँतों से भक्षण करें तथा अन्य सब देवताओं के अंग-प्रत्यंग भी स्वस्थ हो जायें; क्योंकि उन्होंने यज्ञ से बचे हुए पदार्थों को मेरा भाग निश्चित किया है। अध्वर्यु आदि याज्ञिकों में से जिसकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमार की भुजाओं से और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषा के हाथों से काम करें तथा भृगु जी के बकरे की-सी दाढ़ी-मूँछ हो जाये

मैत्रेय उवाच -

तदा सर्वाणि भूतानि श्रुत्वा मीढुष्टमोदितम् ।

परितुष्टात्मभिस्तात साधु साध्वित्यथाब्रुवन् ॥ ६ ॥

ततो मीढ्वांसमामन्त्र्य शुनासीराः सहर्षिभिः ।

भूयस्तद् देवयजनं समीढ्वद्वेधसो ययुः ॥ ७ ॥

विधाय कार्त्स्न्येन च तद् यदाह भगवान्भवः ।

सन्दधुः कस्य कायेन सवनीयपशोः शिरः ॥ ८ ॥

सन्धीयमाने शिरसि दक्षो रुद्राभिवीक्षितः ।

सद्यः सुप्त इवोत्तस्थौ ददृशे चाग्रतो मृडम् ॥ ९ ॥

तदा वृषध्वजद्वेष कलिलात्मा प्रजापतिः ।

शिवावलोकाद् अभवत् शरद्ध्रद इवामलः ॥ १० ॥

भवस्तवाय कृतधीः नाशक्नोत् अनुरागतः ।

औत्कण्ठ्याद् बाष्पकलया संपरेतां सुतां स्मरन् ॥ ११ ॥

कृच्छ्रात्संस्तभ्य च मनः प्रेमविह्वलितः सुधीः ।

शशंस निर्व्यलीकेन भावेनेशं प्रजापतिः ॥ १२ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- वत्स विदुर! तब भगवान् शंकर के वचन सुनकर सब लोग प्रसन्न चित्त से धन्य! धन्य!कहने लगे। फिर सभी देवता और ऋषियों ने महादेव जी से दक्ष की यज्ञशाला में पधारने की प्रार्थना की और तब वे उन्हें तथा ब्रह्मा जी को साथ लेकर वहाँ गये। वहाँ जैसा-जैसा भगवान् शंकर ने कहा था, उसी प्रकार सब कार्य करके उन्होंने दक्ष की धड़ से यज्ञपशु का सिर जोड़ दिया। सिर जुड़ जाने पर रुद्रदेव की दृष्टि पड़ते ही दक्ष तत्काल सोकर जागने के समान जी उठे और अपने सामने भगवान् शिव को देखा। दक्ष का शंकरद्रोही की कालिमा से कलुषित हृदय उनका दर्शन करने से शरत्कालीन सरोवर के समान स्वच्छ हो गया। उन्होंने महादेव जी की स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी मरी हुई बेटी सती का स्मरण हो आने से स्नेह और उत्कण्ठा के कारण उनके नेत्रों में आँसू भर आये। उनके मुख से शब्द न निकल सका। प्रेम से विह्वल, परम बुद्धिमान् प्रजापति ने जैसे-तैसे अपने हृदय के आवेग को रोककर विशुद्धभाव से भगवान् शिव की स्तुति करनी आरम्भ की।

दक्ष उवाच -

भूयाननुग्रह अहो भवता कृतो मे

     दण्डस्त्वया मयि भृतो यदपि प्रलब्धः ।

न ब्रह्मबन्धुषु च वां भगवन् अवज्ञा

     तुभ्यं हरेश्च कुत एव धृतव्रतेषु ॥ १३ ॥

विद्यातपो व्रतधरान् मुखतः स्म विप्रान् ।

     ब्रह्माऽऽत्मतत्त्वमवितुं प्रथमं त्वमस्राक् ।

तद्‍ब्राह्मणान् परम सर्वविपत्सु पासि ।

     पालः पशूनिव विभो प्रगृहीतदण्डः ॥ १४ ॥

योऽसौ मयाविदिततत्त्वदृशा सभायां

     क्षिप्तो दुरुक्तिविशिखैर्विगणय्य तन्माम् ।

अर्वाक् पतन्तमर्हत्तमनिन्दयापाद्

     दृष्ट्याऽऽर्द्रया स भगवान् स्वकृतेन तुष्येत् ॥ १५ ॥

दक्ष ने कहा ;- भगवन्! मैंने आपका अपराध किया था, किन्तु आपने उसके बदले में मुझे दण्ड के द्वारा शिक्षा देकर बड़ा ही अनुग्रह किया है। अहो! आप और श्रीहरि तो आचारहीन, नाममात्र के ब्राह्मणों की भी उपेक्षा नहीं करते-फिर हम-जैसे यज्ञ-यागादि करने वालों को क्यों भूलेंगे। विभो! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्व की रक्षा के लिये अपने मुख से विद्या, तप और व्रतादि के धारण करने वालों ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था। जैसे चरवाहा लाठी लेकर गौओं की रक्षा करता है, उसी प्रकार आप उन ब्राह्मणों की सब विपत्तियों से रक्षा करते हैं। मैं आपके तत्त्व को नहीं जानता था, इसी से मैंने भरी सभा में आपको अपने वाग्बाणों से बेधा था। किन्तु आपने मेरे उस अपराध का कोई विचार नहीं किया। मैं तो आप-जैसे पूज्यतम महानुभावों का अपराध करने के कारण नरकादि नीच लोकों में गिरने वाला था, परन्तु आपने अपनी करुणाभरी दृष्टि से मुझे उबार लिया। अब भी आपको प्रसन्न करने योग्य मुझमें कोई गुण नहीं हैं; बस, आप अपने ही उदारतापूर्वक बर्ताव से मुझ पर प्रसन्न हों।

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

क्षमाप्यैवं स मीढ्वांसं ब्रह्मणा चानुमंत्रितः ।

कर्म सन्तानयामास सोपाध्यायर्त्विगादिभिः ॥ १६ ॥

वैष्णवं यज्ञसन्तत्यै त्रिकपालं द्विजोत्तमाः ।

पुरोडाशं निरवपन् वीरसंसर्गशुद्धये ॥ १७ ॥

अध्वर्युणाऽऽत्त हविषा यजमानो विशाम्पते ।

धिया विशुद्धया दध्यौ तथा प्रादुरभूत् हरिः ॥ १८ ॥

तदा स्वप्रभया तेषां द्योतयन्त्या दिशो दश ।

मुष्णन् तेज उपानीतः तार्क्ष्येण स्तोत्रवाजिना ॥ १९ ॥

श्यामो हिरण्यरशनोऽर्ककिरीटजुष्टो

     नीलालक भ्रमरमण्डितकुण्डलास्यः ।

शङ्‌खाब्जचक्रशरचापगदासिचर्म

     व्यग्रैर्हिरण्मयभुजैः इव कर्णिकारः ॥ २० ॥

वक्षस्यधिश्रितवधूर्वनमाल्युदार

     हासावलोककलया रमयंश्च विश्वम् ।

पार्श्वभ्रमद्व्यजन चामरराजहंसः

     श्वेतातपत्रशशिनोपरि रज्यमानः ॥ २१ ॥

(अनुष्टुप्)

तमुपागतमालक्ष्य सर्वे सुरगणादयः ।

प्रणेमुः सहसोत्थाय ब्रह्मेन्द्रत्र्यक्षनायकाः ॥ २२ ॥

तत्तेजसा हतरुचः सन्नजिह्वाः ससाध्वसाः ।

मूर्ध्ना धृताञ्जलिपुटा उपतस्थुरधोक्षजम् ॥ २३ ॥

अप्यर्वाग्वृत्तयो यस्य महि त्वात्मभुवादयः ।

यथामति गृणन्ति स्म कृतानुग्रहविग्रहम् ॥ २४ ॥

दक्षो गृहीतार्हणसादनोत्तमं

     यज्ञेश्वरं विश्वसृजां परं गुरुम् ।

सुनन्दनन्दाद्यनुगैर्वृतं मुदा

     गृणन्प्रपेदे प्रयतः कृताञ्जलिः ॥ २५ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- आशुतोष शंकर से इस प्रकार अपना अपराध क्षमा कराकर दक्ष ने ब्रह्मा जी के कहने पर उपाध्याय, ऋत्विज् आदि की सहायता से यज्ञकार्य आरम्भ किया। तब ब्राह्मणों ने यज्ञ सम्पन्न करने के उद्देश्य से रुद्रगण-सम्बन्धी भूत-पिशाचों के संसर्गजनित दोष की शान्ति के लिये तीन पात्रों में विष्णु भगवान् के लिये तैयार किये हुए पुरोडाश नाम चरु का हवन किया। विदुर जी! उस हवि को हाथ में लेकर खड़े हुए अध्वर्यु के साथ यजमान दक्ष ने ज्यों ही विशुद्ध चित्त से श्रीहरि का ध्यान किया, त्यों ही सहसा भगवान् वहाँ प्रकट हो गये।

बृहत्एवं रथन्तरनामक साम-स्तोत्र जिनके पंख हैं, गरुड़ जी के द्वारा समीप लाये हुए भगवान् ने दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई अपनी अंगकान्ति से सब देवताओं का तेज हर लिया-उनके सामने सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी। उनका श्याम वर्ण था, कमर में सुवर्ण की करधनी तथा पीताम्बर सुशोभित थे। सिर पर सूर्य के समान देदीप्यमान मुकुट था, मुखकमल भौंरों के समान नीली अलकावली और कान्तिमय कुण्डलों से शोभायमान था, उनके सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित आठ भुजाएँ थीं, जो भक्तों की रक्षा के लिये सदा उद्यत रहती हैं। आठों भुजाओं में वे शंख, पद्म, चक्र, बाण, धनुष, गदा, खड्ग और ढाल लिये हुए थे तथा इन सब आयुधों के कारण वे फूले हुए कनेर के वृक्ष के समान जान पड़ते थे। प्रभु के हृदय में श्रीवत्स का चिह्न था और सुन्दर वनमाला सुशोभित थी। वे अपने उदार हास और लीलामय कटाक्ष से सारे संसार को आनन्दमग्न कर रहे थे। पार्षदगण दोनों ओर राजहंस के समान सफ़ेद पंखे और चँवर डुला रहे थे। भगवान् के मस्तक पर चन्द्रमा के समान शुभ्र छत्र शोभा दे रहा था।

भगवान् पधारे हैं - यह देखकर इन्द्र, ब्रह्मा और महादेव जी आदि देवेश्वरों सहित समस्त देवता, गन्धर्व और ऋषि आदि ने सहसा खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया। उनके तेज से सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी, जिह्वा लड़खड़ाने लगी, वे सब-के-सब सकपका गये और मस्तक पर अंजलि बाँधकर भगवान् के सामने खड़े हो गये। यद्यपि भगवान् की महिमा तक ब्रह्मा आदि की मति भी नहीं पहुँच पाती, तो भी भक्तों पर कृपा करने के लिये दिव्यरूप में प्रकट हुए श्रीहरि की वे अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार स्तुति करने लगे। सबसे पहले प्रजापति दक्ष एक उत्तम पात्र में पूजा की सामग्री ले नन्द-सुनन्दादि पार्षदों से घिरे हुए, प्रजापतियों के परमगुरु भगवान् यज्ञेश्वर के पास गये और अति आनन्दित हो विनीतभाव से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते प्रभु के शरणापन्न हुए।

दक्ष उवाच -

शुद्धं स्वधाम्न्युपरताखिलबुद्ध्यवस्थं

     चिन्मात्रमेकमभयं प्रतिषिध्य मायाम् ।

तिष्ठन् तयैव पुरुषत्वमुपेत्य तस्याम्

     आस्ते भवानपरिशुद्ध इवात्मतंत्र ॥ २६ ॥

दक्ष ने कहा ;- भगवन्! अपने स्वरूप में आप बुद्धि की जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओं से रहित, शुद्ध, चिन्मय, भेदरहित, अतएव निर्भय हैं। आप माया का तिरस्कार करके स्वतन्त्ररूप से विराजमान हैं; तथापि जब माया से ही जीवभाव को स्वीकार कर उसी माया में स्थित हो जाते हैं, तब अज्ञानी-से दीखने लगते हैं।

ऋत्विज ऊचुः -

तत्त्वं न ते वयमनञ्जन रुद्रशापात्

     कर्मण्यवग्रहधियो भगवन् विदामः ।

धर्मोपलक्षणमिदं त्रिवृदध्वराख्यं

     ज्ञातं यदर्थमधिदैवमदो व्यवस्थाः ॥ २७ ॥

ऋत्विजों ने कहा ;- उपाधिरहित प्रभो! भगवान् रुद्र के प्रधान अनुचर नन्दीश्वर के शाप के कारण हमारी बुद्धि केवल कर्मकाण्ड में ही फँसी हुई है, अतएव हम आपके तत्त्व को नहीं जानते। जिसके लिये इस कर्म का यही देवता हैऐसी व्यवस्था की गयी है-उस धर्म प्रवृत्ति के प्रयोजक, वेदत्रयी से प्रतिपादित यज्ञ को ही हम आपका स्वरूप समझते हैं।

सदस्या ऊचुः -

उत्पत्त्यध्वन्यशरण उरुक्लेशदुर्गेऽन्तकोग्र

     व्यालान्विष्टे विषयमृगतृष्यात्मगेहोरुभारः ।

द्वन्द्वश्वभ्रे खलमृगभये शोकदावेऽज्ञसार्थः

     पादौकस्ते शरणद कदा याति कामोपसृष्टः ॥ २८ ॥

सदस्यों ने कहा ;- जीवों को आश्रय देने वाले प्रभो! जो अनेक प्रकार के क्लेशों के कारण अत्यन्त दुर्गम है, जिसमें कालरूप भयंकर सर्प ताक में बैठा हुआ है, द्वन्दरूप अनेकों गढ़े हैं, दुर्जनरूप जंगली जीवों का भय है तथा शोकरूप दावानल धधक रहा है-ऐसे, विश्राम-स्थल से रहित संसार मार्ग में जो अज्ञाघननी जीव कामनाओं से पीड़ित होकर विषयरूप मृगतृष्णा जल के लिये ही देह-गेह का भारी बोझा सिर पर लिये जा रहे हैं, वे भला आपके चरणकमलों की शरण में कब आने लगे।

रुद्र उवाच -

तव वरद वराङ्‌घ्रावाशिषेहाखिलार्थे

     ह्यपि मुनिभिरसक्तैरादरेणार्हणीये ।

यदि रचितधियं माविद्यलोकोऽपविद्धं

     जपति न गणये तत्त्वत्परानुग्रहेण ॥ २९ ॥

रुद्र ने कहा ;- वरदायक प्रभो! आपके उत्तम चरण इस संसार में सकाम पुरुषों को सम्पूर्ण पुरुषार्थों की प्राप्ति कराने वाले हैं; और जिन्हें किसी भी वस्तु की कामना नहीं है, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपूर्वक पूजन करते हैं। उनमें चित्त लगा रहने के कारण यदि अज्ञानी लोग मुझे आहार भ्रष्ट कहते हैं, तो कहें; आपके परम अनुग्रह से मैं उनके कहने-सुनने का कोई विचार नहीं करता।

भृगुरुवाच -

यन्मायया गहनयापहृतात्मबोधा

     ब्रह्मादयस्तनुभृतस्तमसि स्वपन्तः ।

नात्मन्श्रितं तव विदन्त्यधुनापि तत्त्वं

     सोऽयं प्रसीदतु भवान्प्रणतात्मबन्धुः ॥ ३० ॥

भृगु जी ने कहा ;- आपकी गहन माया से आत्मज्ञान लुप्त हो जाने के कारण जो अज्ञान-निद्रा में सोये हुए हैं, वे ब्रह्मादि देहधारी आत्मज्ञान में उपयोगी आपके तत्त्व को अभी तक नहीं जान सके। ऐसे होने पर भी आप अपने शरणागत भक्तों के तो आत्मा और सुहृद् हैं; अतः आप मुझ पर प्रसन्न होइये।

ब्रह्मोवाच -

नैतत्स्वरूपं भवतोऽसौ पदार्थ

     भेदग्रहैः पुरुषो यावदीक्षेत् ।

ज्ञानस्य चार्थस्य गुणस्य चाश्रयो

     मायामयाद् व्यतिरिक्तो मतस्त्वम् ॥ ३१ ॥

ब्रह्मा जी ने कहा ;- प्रभो! पृथक्-पृथक् पदार्थों जानने वाली इन्द्रियों के द्वारा पुरुष जो कुछ देखता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि आप ज्ञान शब्दादि विषय और श्रोत्रादि इन्द्रियों के अधिष्ठान हैं-ये सब आपमें अध्यस्त हैं। अतएव आप इस मायामय प्रपंच से सर्वथा अलग हैं।

इन्द्र उवाच -

इदमप्यच्युत विश्वभावनं

     वपुरानन्दकरं मनोदृशाम् ।

सुरविद्विट्क्षपणैरुदायुधैः

     भुजदण्डैरुपपन्नमष्टभिः ॥ ३२ ॥

इन्द्र ने कहा ;- अच्युत! आपका यह जगत् को प्रकाशित करने वाला रूप देवद्रोहियों का संहार करने वाली आठ भुजाओं से सुशोभित है, जिनमें आप सदा ही नाना प्रकार के आयुध धारण किये रहते हैं। यह रूप हमारे मन और नेत्रों को परम आनन्द देने वाला है।

पत्‍न्य ऊचुः -

यज्ञोऽयं तव यजनाय केन सृष्टो

     विध्वस्तः पशुपतिनाद्य दक्षकोपात् ।

तं नस्त्वं शवशयनाभशान्तमेधं

     यज्ञात्मन्नलिनरुचा दृशा पुनीहि ॥ ३३ ॥

याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा ;- भगवन्! ब्रह्मा जी ने आपके पूजन के लिये ही इस यज्ञ की रचना की थी; परन्तु दक्ष पर कुपित होने के कारण इसे भगवान् पशुपति ने अब नष्ट कर दिया है। यज्ञमूर्ते! श्मशानभूमि के समान उत्सवहीन हुए हमारे उस यज्ञ को आप नील कमल की-सी कान्तिवाले अपने नेत्रों से निराहार पवित्र कीजिये।

ऋषय ऊचुः -

अनन्वितं ते भगवन् विचेष्टितं

     यदात्मना चरसि हि कर्म नाज्यसे ।

विभूतये यत उपसेदुरीश्वरीं

     न मन्यते स्वयमनुवर्ततीं भवान् ॥ ३४ ॥

ऋषियों ने कहा ;- भगवन्! आपकी लीला बड़ी ही अनोखी है; क्योंकि आप कर्म करते हुए भी उनसे निर्लेप रहते हैं। दूसरे लोग वैभव की भूख से जिन लक्ष्मी जी की उपासना करते हैं, वे स्वयं आपकी सेवा में लगी रहती हैं; तो भी आप उनका मान नहीं करते, उनसे निःस्पृह रहते हैं।

सिद्धा ऊचुः -

अयं त्वत्कथामृष्टपीयूषनद्यां

     मनोवारणः क्लेशदावाग्निदग्धः ।

तृषार्तोऽवगाढो न सस्मार दावं

     न निष्क्रामति ब्रह्मसम्पन्नवन्नः ॥ ३५ ॥

सिद्धों ने कहा ;- प्रभो! यह हमारा मनरूप हाथी नाना प्रकार के क्लेश रूप दावानल से दग्ध एवं अत्यन्त तृषित होकर आपकी कथा रूप विशुद्ध अमृतमयी सरिता में घुसकर गोता लगाये बैठा है। वहाँ ब्रह्मानन्द में लीन-सा हो जाने के कारण उसे न तो संसाररूप दावानल का ही स्मरण है और न वह उस नदी से बाहर ही निकलता है।

यजमान्युवाच -

स्वागतं ते प्रसीदेश तुभ्यं नमः

     श्रीनिवास श्रिया कान्तया त्राहि नः ।

त्वामृतेऽधीश नाङ्‌गैर्मखः शोभते

     शीर्षहीनः कबन्धो यथा पुरुषः ॥ ३६ ॥

यजमानपत्नी ने कहा ;- सर्वसमर्थ परमेश्वर! आपका स्वागत है। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप मुझ पर प्रसन्न होइये। लक्ष्मीपते! अपनी प्रिय लक्ष्मी जी के सहित आप हमारी रक्षा कीजिये। यज्ञेश्वर! जिस प्रकार सिर के बिना मनुष्य का धड़ अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार अन्य अंगों से पूर्ण होने पर भी आपके बिना यज्ञ की शोभा नहीं होती।

लोकपाला ऊचुः -

दृष्टः किं नो दृग्भिरसद्‍ग्रहैस्त्वं

     प्रत्यग्द्रष्टा दृश्यते येन विश्वम् ।

माया ह्येषा भवदीया हि भूमन्

     यस्त्वं षष्ठः पञ्चभिर्भासि भूतैः ॥ ३७ ॥

लोकपालों ने कहा ;- अनन्त परमात्मन्! आप समस्त अन्तःकरण के साक्षी हैं, यह सारा जगत् आपके ही द्वारा देखा जाता है। तो क्या मायिक पदार्थों को ग्रहण करने वाली हमारी इन नेत्र आदि इन्द्रियों से कभी आप प्रत्यक्ष हो सके हैं? वस्तुतः आप हैं तो पंचभूतों से पृथक्; फिर भी पांचभौतिक शरीरों के साथ जो आपका सम्बन्ध प्रतीत होता है, यह आपकी माया ही है।

योगेश्वरा ऊचुः -

प्रेयान्न तेऽन्योऽस्त्यमुतस्त्वयि प्रभो

     विश्वात्मनीक्षेन्न पृथग्य आत्मनः ।

अथापि भक्त्येश तयोपधावतां

     अनन्यवृत्त्यानुगृहाण वत्सल ॥ ३८ ॥

जगदुद्‍भवस्थितिलयेषु दैवतो

     बहुभिद्यमानगुणयाऽऽत्ममायया ।

रचितात्मभेदमतये स्वसंस्थया

     विनिवर्तितभ्रमगुणात्मने नमः ॥ ३९ ॥

योगेश्वरों ने कहा ;- प्रभो! जो पुरुष सम्पूर्ण विश्व के आत्मा आपमें और अपने में कोई भेद नहीं देखता, उससे अधिक प्यारा आपको कोई नहीं है। तथापि भक्तवत्सल! जो लोग आपमें स्वामिभाव रखकर अनन्य भक्ति से आपकी सेवा करते हैं, उन पर भी आप कृपा कीजिये। जीवों के अदृष्टवश जिसके सत्त्वादि गुणों में बड़ी विभिन्नता आ जाती है, उस अपनी माया के द्वारा जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये ब्रह्मादि विभिन्न रूप धारण करके आप भेदबुद्धि पैदा कर देते हैं; किन्तु अपनी स्वरूप-स्थिति से आप उस भेदज्ञान और उसके कारण सत्त्वादि गुणों से सर्वथा दूर हैं। ऐसे आपको हमारा नमस्कार है।

ब्रह्मोवाच -

(अनुष्टुप्)

नमस्ते श्रितसत्त्वाय धर्मादीनां च सूतये ।

निर्गुणाय च यत्काष्ठां नाहं वेदापरेऽपि च ॥ ४० ॥

ब्रह्मस्वरूप वेद ने कहा ;- आप ही धर्मादि की उत्पत्ति के लिये शुद्ध सत्त्व को स्वीकार करते हैं, साथ ही आप निर्गुण भी हैं। अतएव आपका तत्त्व न तो मैं जानता हूँ और न ब्रह्मादि कोई और ही जानते हैं; आपको नमस्कार है।

अग्निरुवाच -

यत्तेजसाहं सुसमिद्धतेजा

     हव्यं वहे स्वध्वर आज्यसिक्तम् ।

तं यज्ञियं पञ्चविधं च पञ्चभिः

     स्विष्टं यजुर्भिः प्रणतोऽस्मि यज्ञम् ॥ ४१ ॥

अग्निदेव ने कहा ;- भगवन्! आपके ही तेज से प्रज्वलित होकर मैं श्रेष्ठ यज्ञों में देवताओं के पास घृतमिश्रित हवि पहुँचाता हूँ। आप साक्षात् यज्ञपुरुष एवं यज्ञ की रक्षा करने वाले हैं। अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और पशु-सोम- ये पाँच प्रकार के यज्ञ आपके ही स्वरूप हैं तथा आश्रावय’, अस्तु श्रौषट्’, ‘यजे’, ‘ये यजामहेऔर वषट्’- इन पाँच प्रकार के यजुर्मन्त्रों से आपका ही पूजन होता है। मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

देवा ऊचुः -

पुरा कल्पापाये स्वकृतमुदरीकृत्य विकृतं

     त्वमेवाद्यस्तस्मिन् सलिल उरगेन्द्राधिशयने ।

पुमान् शेषे सिद्धैर्हृदि विमृशिताध्यात्मपदविः

     स एवाद्याक्ष्णोर्यः पथि चरसि भृत्यानवसि नः ॥ ४२ ॥

देवताओ ने कहा ;- देव! आप आदिपुरुष हैं। पूर्वकल्प का अन्त होने पर अपने कार्यरूप इस प्रपंच को उदर में लीन कर आपने ही प्रलयकालीन जल के भीतर शेषनाग की उत्तम शय्या पर शयन किया था। आपके अध्यात्मिक स्वरूप का जनलोकादिवासी सिद्धगण भी अपने हृदय में चिन्तन करते हैं। अहो! वही आप आज हमारे नेत्रों के विषय होकर अपने भक्तों की रक्षा कर रहे हैं।

गन्धर्वा ऊचुः -

अंशांशास्ते देव मरीच्यादय एते

     ब्रह्मेन्द्राद्या देवगणा रुद्रपुरोगाः ।

क्रीडाभाण्डं विश्वमिदं यस्य विभूमन्

     तस्मै नित्यं नाथ नमस्ते करवाम ॥ ४३ ॥

गन्धर्वों ने कहा ;- देव! मरीचि आदि ऋषि और ये ब्रह्मा, इन्द्र तथा रुद्रादि देवतागण आपके अंश के भी अंश हैं। महत्तम! यह सम्पूर्ण विश्व आपके खेल की सामग्री है। नाथ! ऐसे आपको हम सर्वदा प्रणाम करते हैं।

विद्याधरा ऊचुः -

त्वन्माययार्थमभिपद्य कलेवरेऽस्मिन्

     कृत्वा ममाहमिति दुर्मतिरुत्पथैः स्वैः ।

क्षिप्तोऽप्यसद्विषयलालस आत्ममोहं

     युष्मत्कथामृतनिषेवक उद्व्युदस्येत् ॥ ४४ ॥

विद्याधरों ने कहा ;- प्रभो! परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के साधनरूप इस मानवदेह को पाकर भी जीव आपकी माया से मोहित होकर इसमें मैं-मेरेपन का अभिमान कर लेता है। फिर वह दुर्बुद्धि अपने आत्मीयों से तिरस्कृत होने पर भी असत् विषयों की ही लालसा करता रहता है। किन्तु ऐसी अवस्था में भी जो आपके कथामृत का सेवन करता है, वह इस अन्तःकरण के मोह को सर्वथा त्याग देता है।

ब्राह्मणा ऊचुः -

त्वं क्रतुस्त्वं हविस्त्वं हुताशः स्वयं

     त्वं हि मंत्रः समिद् दर्भपात्राणि च ।

त्वं सदस्यर्त्विजो दम्पती देवता

     अग्निहोत्रं स्वधा सोम आज्यं पशुः ॥ ४५ ॥

ब्राह्मणों ने कहा ;- भगवन्! आप ही यज्ञ हैं, आप ही हवि हैं, आप ही अग्नि हैं, स्वयं आप ही मन्त्र हैं; आप ही समिधा, कुशा और यज्ञपात्र हैं तथा आप ही सदस्य, ऋत्विज्, यजमान एवं उसकी धर्मपत्नी, देवता, अग्निहोत्र, स्वधा, सोमरस, घृत और पशु हैं।

त्वं पुरा गां रसाया महासूकरो

     दंष्ट्रया पद्मिनीं वारणेन्द्रो यथा ।

स्तूयमानो नदन् लीलया योगिभिः

     व्युज्जहर्थ त्रयीगात्र यज्ञक्रतुः ॥ ४६ ॥

स प्रसीद त्वमस्माकं आकाङ्‌क्षतां

     दर्शनं ते परिभ्रष्टसत्कर्मणाम् ।

कीर्त्यमाने नृभिर्नाम्नि यज्ञेश ते

     यज्ञविघ्नाः क्षयं यान्ति तस्मै नमः ॥ ४७ ॥

वेदमूर्ते! यज्ञ और उसका संकल्प दोनों आप ही हैं। पूर्वकाल में आप ही अति विशाल वराहरूप धारणकर रसातल में डूबी हुई पृथ्वी को लीला से ही अपनी दाढ़ों पर उठाकर इस प्रकार निकाल लाये थे, जैसे कोई गजराज कमलिनी को उठा लाये। उस समय आप धीरे-धीरे गरज रहे थे और योगिगण आपका यह अलौकिक पुरुषार्थ देखकर आपकी स्तुति करते जाते थे। यज्ञेश्वर! जब लोग आपके नाम का कीर्तन करते हैं, तब यज्ञ के सारे विघ्न नष्ट हो जाते हैं। हमारा यह यज्ञस्वरूप सत्कर्म नष्ट हो गया था, अतः हम आपके दर्शनों की इच्छा कर रहे थे। अब आप हम पर प्रसन्न होइये। आपको नमस्कार है।

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

इति दक्षः कविर्यज्ञं भद्र रुद्राभिमर्शितम् ।

कीर्त्यमाने हृषीकेशे सन्निन्ये यज्ञभावने ॥ ४८ ॥

भगवान् स्वेन भागेन सर्वात्मा सर्वभागभुक् ।

दक्षं बभाष आभाष्य प्रीयमाण इवानघ ॥ ४९ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- भैया विदुर! जब इस प्रकार सब लोग यज्ञरक्षक भगवान हृषीकेश की स्तुति करने लगे, तब परम चतुर दक्ष ने रुद्र पार्षद वीरभद्र के ध्वंस किये हुए यज्ञ को फिर आरम्भ कर दिया। सर्वान्तर्यामी श्रीहरि यों तो सभी के भोगों के भोक्ता हैं; तथापि त्रिकपाल-पुरोडाशरूप अपने भाग से और भी प्रसन्न होकर उन्होंने दक्ष को सम्बोधन करके कहा।

श्रीभगवानुवाच -

अहं ब्रह्मा च शर्वश्च जगतः कारणं परम् ।

आत्मेश्वर उपद्रष्टा स्वयं दृगविशेषणः ॥ ५० ॥

आत्ममायां समाविश्य सोऽहं गुणमयीं द्विज ।

सृजन् रक्षन् हरन् विश्वं दध्रे संज्ञां क्रियोचिताम् ॥ ५१ ॥

तस्मिन् ब्रह्मण्यद्वितीये केवले परमात्मनि ।

ब्रह्मरुद्रौ च भूतानि भेदेनाज्ञोऽनुपश्यति ॥ ५२ ॥

यथा पुमान्न स्वाङ्‌गेषु शिरःपाण्यादिषु क्वचित् ।

पारक्यबुद्धिं कुरुते एवं भूतेषु मत्परः ॥ ५३ ॥

त्रयाणां एकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम् ।

सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन् स शान्तिं अधिगच्छति ॥ ५४ ॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- जगत् का परम कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ; मैं सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयंप्रकाश और उपाधिशून्य हूँ।

विप्रवर! अपनी त्रिगुणात्मिका माया को स्वीकार करके मैं ही जगत् की रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन कर्मों के अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर- ये नाम धारण किये हैं। ऐसा जो भेदरहित विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप मैं हूँ, उसी में अज्ञानी पुरुष ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य समस्त जीवों को विभिन्न रूप से देखता है। जिस प्रकार मनुष्य अपने सिर, हाथ आदि अंगों में ये मुझसे भिन्न हैंऐसी बुद्धि कभी नहीं करता, उसी प्रकार मेरा भक्त प्राणिमात्र को मुझसे भिन्न नहीं देखता। ब्रह्मन्! हम- ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर- तीनों स्वरूपतः एक ही हैं और हम ही सम्पूर्ण जीव रूप हैं; अतः जो हममें कुछ भी भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है।

मैत्रेय उवाच -

एवं भगवतादिष्टः प्रजापतिपतिर्हरिम् ।

अर्चित्वा क्रतुना स्वेन देवान् उभयतोऽयजत् ॥ ५५ ॥

रुद्रं च स्वेन भागेन ह्युपाधावत्समाहितः ।

कर्मणोदवसानेन सोमपानितरानपि ।

उदवस्य सहर्त्विग्भिः सस्नाववभृथं ततः ॥ ५६ ॥

तस्मा अप्यनुभावेन स्वेनैवावाप्तराधसे ।

धर्म एव मतिं दत्त्वा त्रिदशास्ते दिवं ययुः ॥ ५७ ॥

एवं दाक्षायणी हित्वा सती पूर्वकलेवरम् ।

जज्ञे हिमवतः क्षेत्रे मेनायामिति शुश्रुम ॥ ५८ ॥

तमेव दयितं भूय आवृङ्‌क्ते पतिमम्बिका ।

अनन्यभावैकगतिं शक्तिः सुप्तेव पूरुषम् ॥ ५९ ॥

एतद्‍भगवतः शम्भोः कर्म दक्षाध्वरद्रुहः ।

श्रुतं भागवतात् शिष्याद् उद्धवान्मे बृहस्पतेः । ॥ ६० ॥

इदं पवित्रं परमीशचेष्टितं

     यशस्यमायुष्यमघौघमर्षणम् ।

यो नित्यदाऽऽकर्ण्य नरोऽनुकीर्तयेद्

     धुनोत्यघं कौरव भक्तिभावतः । ॥ ६१ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- भगवान् के इस प्रकार आज्ञा देने पर प्रजापतियों के नायक दक्ष ने उनका त्रिकपाल-यज्ञ के द्वारा पूजन करके फिर अंगभूत और प्रधान दोनों प्रकार के यज्ञों से अन्य सब देवताओं का अर्चन किया। फिर एकाग्रचित्त हो भगवान् शंकर का यज्ञशेषरूप उनके भाग से यजन किया तथा समाप्ति में किये जाने वाले उदवसान नामक कर्म से अन्य सोमपायी एवं दूसरे देवताओं का यजन कर यज्ञ का उपसंहार किया और अन्त में ऋत्वियों के सहित अवभृथ-स्नान किया। फिर जिन्हें अपने पुरुषार्थ से ही सब प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त थीं, उन दक्ष प्रजापति को तुम्हारी सदा धर्म में बुद्धि रहेऐसा आशीर्वाद देकर सब देवता स्वर्गलोक को चले गये।

विदुर जी! सुना है कि दक्षसुता सतीजी ने इस प्रकार अपना पूर्व शरीर त्याकर फिर हिमालय की पत्नी मेना के गर्भ से जन्म लिया था। जिस प्रकार प्रलयकाल में लीन हुई शक्ति सृष्टि के आरम्भ में फिर ईश्वर का ही आश्रय लेती है, उसी प्रकार अनन्यपरायणा श्रीअम्बिका जी ने उस जन्म में भी अपने एकमात्र आश्रय और प्रियतम भगवान् शंकर को ही वरण किया। विदुर जी! दक्ष-यज्ञ का विध्वंस करने वाले भगवान् शिव का चरित्र मैंने बृहस्पति जी के शिष्य परम भागवत उद्धव जी के मुख से सुना था। कुरुनन्दन! श्रीमहादेव जी का यह पावन चरित्र यश और आयु को बढ़ाने वाला तथा पापपुंज को नष्ट करने वाला है। जो पुरुष भक्तिभाव से इसका नित्यप्रति श्रवण और कीर्तन करता है, वह अपनी पापराशि का नाश कर देता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे दक्षयज्ञसंधान सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

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