श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ६

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ६     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ६ "ब्रह्मादि देवताओं का कैलास जाकर श्रीमहादेव जी को मनाना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ६

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ६     

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः ६     

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध छटवां अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ६ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

चतुर्थ स्कन्ध अध्याय ६

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

अथ देवगणाः सर्वे रुद्रानीकैः पराजिताः ।

शूलपट्टिशनिस्त्रिंश गदापरिघमुद्‍गरैः ॥ १ ॥

सञ्छिन्नभिन्नसर्वाङ्‌गाः सर्त्विक्सभ्या भयाकुलाः ।

स्वयम्भुवे नमस्कृत्य कार्त्स्न्येनैतन् न्यवेदयन् ॥ २ ॥

उपलभ्य पुरैवैतद् भगवान् अब्जसम्भवः ।

नारायणश्च विश्वात्मा न कस्याध्वरमीयतुः ॥ ३ ॥

तदाकर्ण्य विभुः प्राह तेजीयसि कृतागसि ।

क्षेमाय तत्र सा भूयात् नन्न प्रायेण बुभूषताम् ॥ ४ ॥

अथापि यूयं कृतकिल्बिषा भवं

     ये बर्हिषो भागभाजं परादुः ।

प्रसादयध्वं परिशुद्धचेतसा

     क्षिप्रप्रसादं प्रगृहीताङ्‌घ्रिपद्मम् ॥ ५ ॥

आशासाना जीवितमध्वरस्य

     लोकः सपालः कुपिते न यस्मिन् ।

तमाशु देवं प्रियया विहीनं

     क्षमापयध्वं हृदि विद्धं दुरुक्तैः ॥ ६ ॥

नाहं न यज्ञो न च यूयमन्ये

     ये देहभाजो मुनयश्च तत्त्वम् ।

विदुः प्रमाणं बलवीर्ययोर्वा

     यस्यात्मतन्त्रस्य क उपायं विधित्सेत् ॥ ७ ॥

स इत्थमादिश्य सुरानजस्तैः

     समन्वितः पितृभिः सप्रजेशैः ।

ययौ स्वधिष्ण्यान्निलयं पुरद्विषः

     कैलासमद्रिप्रवरं प्रियं प्रभोः ॥ ८ ॥

(अनुष्टुप्)

जन्मौषधितपोमन्त्र योगसिद्धैर्नरेतरैः ।

जुष्टं किन्नरगन्धर्वैः अप्सरोभिर्वृतं सदा ॥ ९ ॥

नानामणिमयैः शृङ्‌गैः नानाधातुविचित्रितैः ।

नानाद्रुमलतागुल्मैः नानामृगगणावृतैः ॥ १० ॥

नानामलप्रस्रवणैः नानाकन्दरसानुभिः ।

रमणं विहरन्तीनां रमणैः सिद्धयोषिताम् ॥ ११ ॥

मयूरकेकाभिरुतं मदान्धालिविमूर्च्छितम् ।

प्लावितै रक्तकण्ठानां कूजितैश्च पतत्त्रिणाम् ॥ १२ ॥

आह्वयन्तं इवोद्धस्तैः द्विजान् कामदुघैर्द्रुमैः ।

व्रजन्तमिव मातङ्‌गैः गृणन्तमिव निर्झरैः ॥ १३ ॥

मन्दारैः पारिजातैश्च सरलैश्चोपशोभितम् ।

तमालैः शालतालैश्च कोविदारासनार्जुनैः ॥ १४ ॥

चूतैः कदम्बैर्नीपैश्च नागपुन्नाग चम्पकैः ।

पाटलाशोकबकुलैः कुन्दैः कुरबकैरपि ॥ १५ ॥

स्वर्णार्णशतपत्रैश्च वररेणुकजातिभिः ।

कुब्जकैर्मल्लिकाभिश्च माधवीभिश्च मण्डितम् ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इस प्रकार जब रुद्र के सेवकों ने समस्त देवताओं को हरा दिया और उनके सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग भूत-प्रेतों के त्रिशूल, पट्टिश, खड्ग, गदा, परिघ और मुद्गर आदि आयुधों से छिन्न-भिन्न हो गये, तब वे ऋत्विज् और सदस्यों के सहित बहुत ही डरकर ब्रह्मा जी के पास पहुँचे और प्रणाम करके उन्हें सारा वृतान्त कह सुनाया। भगवान् ब्रह्मा जी और सर्वान्तर्यामी श्रीनारायण पहले से ही इस भावी उत्पात को जानते थे, इसी से वे दक्ष के यज्ञ में नहीं गये थे। अब देवताओं के मुख से वहाँ की सारी बात सुनकर उन्होंने कहा, ‘देवताओं! परम समर्थ तेजस्वी पुरुष से कोई दोष भी बन जाये तो भी उसके बदले में अपराध करने वाले मनुष्यों का भला नहीं हो सकता। फिर तुम लोगों ने तो यज्ञ में भगवान् शंकर का प्राप्य भाग ने देकर उनका बड़ा भारी अपराध किया है। परन्तु शंकर जी बहुत शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं, इसलिये तुम लोग शुद्ध हृदय से उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रसन्न करो-उनसे क्षमा माँगो। दक्ष के दुर्वचनरूपी बाणों से उनका हृदय तो पहले से ही बिंध रहा था, उस पर उनकी प्रिया सती जी का वियोग हो गया। इसलिये यदि तुम लोग चाहते हो कि वह यज्ञ फिर से आरम्भ होकर पूर्ण हो, तो पहले जल्दी जाकर उनसे अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगो। नहीं तो उनके कुपित होने पर लोकपालों के सहित इन समस्त लोकों का भी बचना असम्भव है। भगवान् रुद्र परम स्वतन्त्र हैं, उनके तत्त्व और शक्ति-सामर्थ्य को न तो कोई ऋषि-मुनि, देवता और यज्ञ-स्वरूप देवराज इन्द्र ही जानते हैं और न स्वयं मैं ही जानता हूँ; फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। ऐसी अवस्था में उन्हें शान्त करने का उपाय कौन कर सकता है।

देवताओं से इस प्रकार कहकर ब्रह्मा जी उनको, प्रजापतियों को और पितरों को साथ ले अपने लोक से पर्वतश्रेष्ठ कैलास को गये, जो भगवान् शंकर का प्रिय धाम है। उस कैलास पर ओषधि, तप, मन्त्र तथा योग आदि उपायों से सिद्धि को प्राप्त हुए और जन्म से ही सिद्ध देवता नित्य निवास करते हैं; किन्नर, गन्धर्व और अप्सरादि सदा वहाँ बने रहते हैं। उसके मणिमय शिखर हैं, जो नाना प्रकार की धातुओं से रंग-बिरंगे प्रतीत होते हैं। उस पर अनेक प्रकार के वृक्ष, लता और गुल्मादि छाये हुए हैं, जिनमें झुंड-के-झुंड जंगली पशु विचरते रहते हैं। वहाँ निर्मल जल के अनेकों झरने बहते हैं और बहुत-सी गहरी कन्दरा और ऊँचे शिखरों के कारण वह पर्वत अपने प्रियतमों के साथ विहार करती हुई सिद्धपत्नियों का क्रीड़ा-स्थल बना हुआ है। वह सब ओर मोरों के शोर, मदान्ध भ्रमरों के गुंजार, कोयलों की कुहू-कुहू ध्वनि तथा अन्यान्य पक्षियों के कलरव से गूँज रहा है। उसके कल्पवृक्ष अपनी ऊँची-ऊँची डालियों को हिला-हिलाकर मानो पक्षियों को बुलाते रहते हैं। तथा हाथियों के चलने-फिरने के कारण वह कैलास स्वयं चलता हुआ-सा और झरनों की कलकल-ध्वनि से बातचीत करता हुआ-सा जान पड़ता है। मन्दार, पारिजात, सरल, तमाल, शाल, ताड़, कचनार, असन और अर्जुन के वृक्षों से वह पर्वत बड़ा ही सुहावना जान पड़ता है। आम, कदम्ब, नीप, नाग, पुन्नाग, चम्पा, गुलाब, अशोक, मौलसिरी, कुन्द, कुरबक, सुनहरे शतपत्र कमल, इलायची और मालती की मनोहर लताएँ तथा कुब्जक, मोगरा और माधवी की बेलें भी उसकी शोभा बढाती हैं।

पनसोदुम्बराश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोधहिङ्‌गुभिः ।

भूर्जैरोषधिभिः पूगै राजपूगैश्च जम्बुभिः ॥ १७ ॥

खर्जूराम्रातकाम्राद्यैः प्रियाल मधुकेङ्‌गुदैः ।

द्रुमजातिभिरन्यैश्च राजितं वेणुकीचकैः ॥ १८ ॥

कुमुदोत्पलकह्लार शतपत्रवनर्द्धिभिः ।

नलिनीषु कलं कूजत् खगवृन्दोपशोभितम् ॥ १९ ॥

मृगैः शाखामृगैः क्रोडैः मृगेन्द्रैः ऋक्षशल्यकैः ।

गवयैः शरभैर्व्याघ्रै रुरुभिर्महिषादिभिः ॥ २० ॥

कर्णान्त्रैकपदाश्वास्यैः निर्जुष्टं वृकनाभिभिः ।

कदलीखण्डसंरुद्ध नलिनीपुलिनश्रियम् ॥ २१ ॥

पर्यस्तं नन्दया सत्याः स्नानपुण्यतरोदया ।

विलोक्य भूतेशगिरिं विबुधा विस्मयं ययुः ॥ २२ ॥

ददृशुस्तत्र ते रम्यां अलकां नाम वै पुरीम् ।

वनं सौगन्धिकं चापि यत्र तन्नाम पङ्‌कजम् ॥ २३ ॥

नन्दा च अलकनन्दा च सरितौ बाह्यतः पुरः ।

तीर्थपादपदाम्भोज रजसातीव पावने ॥ २४ ॥

ययोः सुरस्त्रियः क्षत्तः अवरुह्य स्वधिष्ण्यतः ।

क्रीडन्ति पुंसः सिञ्चन्त्यो विगाह्य रतिकर्शिताः ॥ २५ ॥

ययोः तत्स्नानविभ्रष्ट नवकुङ्‌कुमपिञ्जरम् ।

वितृषोऽपि पिबन्त्यम्भः पाययन्तो गजा गजीः ॥ २ ॥

तारहेम महारत्‍न विमानशतसङ्‌कुलाम् ।

जुष्टां पुण्यजनस्त्रीभिः यथा खं सतडिद्‍घनम् ॥ २७ ॥

हित्वा यक्षेश्वरपुरीं वनं सौगन्धिकं च तत् ।

द्रुमैः कामदुघैर्हृद्यं चित्रमाल्यफलच्छदैः ॥ २८ ॥

रक्तकण्ठखगानीक स्वरमण्डितषट्पदम् ।

कलहंसकुलप्रेष्ठं खरदण्डजलाशयम् ॥ २९ ॥

वनकुञ्जर सङ्‌घृष्ट हरिचन्दनवायुना ।

अधि पुण्यजनस्त्रीणां मुहुरुन्मथयन्मनः ॥ ३० ॥

वैदूर्यकृतसोपाना वाप्य उत्पलमालिनीः ।

प्राप्तं किम्पुरुषैर्दृष्ट्वा ते आराद् ददृशुर्वटम् ॥ ३१ ॥

स योजनशतोत्सेधः पादोनविटपायतः ।

पर्यक्कृताचलच्छायो निर्नीडस्तापवर्जितः ॥ ३२ ॥

तस्मिन् महायोगमये मुमुक्षुशरणे सुराः ।

ददृशुः शिवमासीनं त्यक्तामर्षमिवान्तकम् ॥ ३३ ॥

कटहल, गूलर, पीपल, बड़, गूगल, भोजवृक्ष, ओषध जाति के पेड़ (केले आदि, जो फल आने के बाद काट दिये जाते हैं), सुपारी, राजपूग, जामुन, खजूर, आमड़ा, आम, पियाल, महुआ और लिसौड़ा आदि विभिन्न प्रकार के वृक्षों तथा पोले और ठोस बाँस के झुरमुटों से वह पर्वत बड़ा ही मनोहर मालूम होता है। उसके सरोवरों में कुमुद, उत्पल, कल्हार और शतपत्र आदि अनेक जाति के कमल खिले रहते हैं। उनकी शोभा से मुग्ध होकर कलरव करते हुए झुंड-के-झुंड पक्षियों से वह बड़ा ही भला लगता है। वहाँ जहाँ-तहाँ हरिन, वानर, सूअर, सिंह, रीछ, साही, नीलगाय, शरभ, बाघ, कृष्णमृग, भैंसे, कर्णान्त्र, एकपद, अश्वमुख, भेड़िये और कस्तूरी-मृग घूमते रहते हैं तथा वहाँ के सरोवरों के तट केलों की पंक्तियों से घिरे होने के कारण बड़ी शोभा पाते हैं। उसके चारों ओर नन्दा नाम की नदी बहती है, जिसका पवित्र जल देवी सती के स्नान करने से और भी पवित्र एवं सुगन्धित हो गया है।

भगवान् भूतनाथ के निवास स्थान उस कैलास पर्वत की ऐसी रमणीयता देखकर देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ। वहाँ उन्होंने अलका नाम की एक सुरम्य पुरी और सौगान्धिक वन देखा, जिसमें सर्वत्र सुगन्ध फैलाने वाले सौगन्धिक नाम के कमल खिले हुए थे। उस नगर के बाहर की ओर नन्दा और अलकनन्दा नाम की दो नदियाँ हैं; वे तीर्थपाद श्रीहरि की चरण-रज के संयोग से अत्यन्त पवित्र हो गयी हैं। विदुर जी! उन नदियों में रतिविलास से थकी हुई देवांगनाएँ अपने-अपने निवास स्थान से आकर जलक्रीड़ा करती हैं और उसमें प्रवेश कर अपने प्रियतमों पर जल उलीचती हैं। स्नान के समय उनका तुरंत का लगाया हुआ कुचकुंकुम धुल जाने से जल पीला हो जाता है। उस कुंकुममिश्रित जल को हाथी प्यास न होने पर भी गन्ध के लोभ से स्वयं पीते और अपनी हथिनियों को पिलाते हैं।

अलकापुरी पर चाँदी, सोने और बहुमूल्य मणियों के सैकड़ों विमान छाये हुए थे, जिनमें अनेकों यक्षपत्नियाँ निवास करती थीं। इनके कारण वह विशाल नगरी बिजली और बादलों से छाये हुए आकाश के समान जान पड़ती थी। यक्षराज कुबेर की राजधानी उस अलकापुरी को पीछे छोड़कर देवगण सौगन्धिक वन में आये। वह वन रंग-बिरंगे फल, फूल और पत्तों वाले अनेकों कल्पवृक्षों से सुशोभित था। उसमें कोकिल आदि पक्षियों का कलरव और भौरों का गुंजार हो रहा था तथा राजहंसों के परमप्रिय कमलकुसुमों से सुशोभित अनेकों सरोवरों थे। वह वन जंगली हाथियों के शरीर की रगड़ लगने से घिसे हुए हरिचन्दन वृक्षों का स्पर्श करके चलने वाली सुगन्धित वायु के द्वारा यक्षपत्नियों के मन को विशेषरूप से मथे डालता था। बावलियों की सीढ़ियाँ वैदूर्य मणि की बनी हुई थीं। उसमें बहुत-से कमल खिले रहते थे। वहाँ अनेकों किम्पुरुष जी बहलाने के लिये आये हुए थे। इस प्रकार उस वन की शोभा निहारते जब देवगण कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें पास ही एक वट वृक्ष दिखलायी दिया। वह वृक्ष सौ योजन ऊँचा था तथा शाखाएँ पचहत्तर योजन तक फैली हुई थीं। उसके चारों ओर सर्वदा अविचल छाया बनी रहती थी, इसलिये घाम का कष्ट कभी नहीं होता था; तथा उसमे कोई घोंसला भी न था। उस महायोगमय और मुमुक्षों के आश्रयभूत वृक्ष के नीचे देवताओं ने भगवान् शंकर को विराजमान देखा। वे साक्षात् क्रोधहीन काल के समान जान पड़ते थे।

सनन्दनाद्यैर्महासिद्धैः शान्तैः संशान्तविग्रहम् ।

उपास्यमानं सख्या च भर्त्रा गुह्यकरक्षसाम् ॥ ३४ ॥

विद्यातपोयोगपथं आस्थितं तमधीश्वरम् ।

चरन्तं विश्वसुहृदं वात्सल्यात् लोकमङ्‌गलम् ॥ ३५ ॥

लिङ्‌गं च तापसाभीष्टं भस्मदण्डजटाजिनम् ।

अङ्‌गेन सन्ध्याभ्ररुचा चन्द्रलेखां च बिभ्रतम् ॥ ३६ ॥

उपविष्टं दर्भमय्यां बृस्यां ब्रह्म सनातनम् ।

नारदाय प्रवोचन्तं पृच्छते शृण्वतां सताम् ॥ ३७ ॥

कृत्वोरौ दक्षिणे सव्यं पादपद्मं च जानुनि ।

बाहुं प्रकोष्ठेऽक्षमालां आसीनं तर्कमुद्रया ॥ ३८ ॥

तं ब्रह्मनिर्वाणसमाधिमाश्रितं

     व्युपाश्रितं गिरिशं योगकक्षाम् ।

सलोकपाला मुनयो मनूनां

     आद्यं मनुं प्राञ्जलयः प्रणेमुः ॥ ३९ ॥

स तूपलभ्यागतमात्मयोनिं

     सुरासुरेशैरभिवन्दिताङ्‌घ्रिः ।

उत्थाय चक्रे शिरसाभिवन्दन

     मर्हत्तमः कस्य यथैव विष्णुः ॥ ४० ॥

तथापरे सिद्धगणा महर्षिभिः

     ये वै समन्तादनु नीललोहितम् ।

नमस्कृतः प्राह शशाङ्‌कशेखरं

     कृतप्रणामं प्रहसन्निवात्मभूः ॥ ४१ ॥

भगवान् भूतनाथ का श्रीअंग बड़ा ही शान्त था। सनन्दनादि शान्त सिद्धगण और सखा-यक्ष-राक्षसों के स्वामी कुबेर उनकी सेवा कर रहे थे। जगत्पति महादेव जी सारे संसार के सुहृद् हैं, स्नेहवश सबका कल्याण करने वाले हैं; वे लोकहित के लिये ही उपासना, चित्त की एकाग्रता और समाधि आदि साधकों का आचरण करते रहते हैं। सन्ध्याकालीन मेघ की-सी कान्ति वाले शरीर पर वे तपस्वियों के अभीष्ट चिह्न-भस्म, दण्ड, जटा और मृगचर्म एवं मस्तक पर चन्द्रकला धारण किये हुए थे। वे एक कुशासन पर बैठे थे और अनेकों साधु श्रोताओं के बीच में श्रीनारद जी के पूछने पर वे सनातन ब्रह्म का उपदेश कर रहे थे। उनका बायाँ चरण दायीं जाँघ पर रखा था। वे बायाँ हाथ बायें घुटने पर रखे, कलाई में रुद्राक्ष की माला डाले तर्कमुद्रा से विराजमान थे।

वे योगपट्ट (काठ की बनी हुई टेकनी) का सहारा लिये एकाग्रचित्त से ब्रह्मानन्द का अनुभव कर रहे थे। लोकपालों के सहित समस्त मुनियों ने मननशील में सर्वश्रेष्ठ भगवान् शंकर को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। यद्यपि समस्त देवता और दैत्यों के अधिपति भी श्रीमहादेव जी के चरणकमलों की वन्दना करते हैं, तथापि वे श्रीब्रह्मा जी को अपने स्थान पर आया देख तुरंत खड़े हो गये और जैसे वामनवातार में परमपूज्य विष्णु भगवान् कश्यप जी की वन्दना करते हैं, उसी प्रकार सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। इसी प्रकार शंकर जी के चारों ओर जो महर्षि सहित अन्यान्य सिद्धगण बैठे थे, उन्होंने भी ब्रह्मा जी को प्रणाम किया। सबके नमस्कार कर चुकने पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमौलि भगवान् से, जो अब तक प्रणाम की मुद्रा में ही खड़े थे, हँसते हुए कहा।

ब्रह्मोवाच -

(अनुष्टुप्)

जाने त्वामीशं विश्वस्य जगतो योनिबीजयोः ।

शक्तेः शिवस्य च परं यत्तद्‍ब्रह्मा निरन्तरम् ॥ ४२ ॥

त्वमेव भगवन् एतत् शिवशक्त्योः स्वरूपयोः ।

विश्वं सृजसि पास्यत्सि क्रीडन् ऊर्णपटो यथा ॥ ४३ ॥

त्वमेव धर्मार्थदुघाभिपत्तये

     दक्षेण सूत्रेण ससर्जिथाध्वरम् ।

त्वयैव लोकेऽवसिताश्च सेतवो

     यान्ब्राह्मणाः श्रद्दधते धृतव्रताः ॥ ४४ ॥

त्वं कर्मणां मङ्‌गल मङ्‌गलानां

     कर्तुः स्वलोकं तनुषे स्वः परं वा ।

अमङ्‌गलानां च तमिस्रमुल्बणं

     विपर्ययः केन तदेव कस्यचित् ॥ ४५ ॥

श्रीब्रह्मा जी ने कहा ;- देव! मैं जनता हूँ, आप सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं; क्योंकि विश्व की योनि शक्ति (प्रकृति) और उसके बीज शिव (पुरुष) से परे जो एकरस परब्रह्म है, वह आप ही हैं। भगवन्! आप मकड़ी के समान ही अपने स्वरूपभूत शिव-शक्ति के रूप में क्रीड़ा करते हुए लीला से ही संसार की रचना, पालन और संहार करते रहते हैं। आपने ही धर्म और अर्थ की प्राप्ति कराने वाले वेद की रक्षा के लिये दक्ष को निमित्त बनाकर यज्ञ को प्रकट किया है। आपकी ही बाँधी हुई ये वर्णाश्रम की मर्यादाएँ हैं, जिसका नियमनिष्ठ ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं।

मंगलमय महेश्वर! आप शुभ कर्म करने वालों को स्वर्गलोक अथवा मोक्षपद प्रदान करते हैं तथा पापकर्म करने वालों को घोर नरकों में डालते हैं। फिर भी किसी-किसी व्यक्ति के लिये इन कर्मों का फल उलटा कैसे हो जाता है?

न वै सतां त्वत् चरणार्पितात्मनां

     भूतेषु सर्वेष्वभिपश्यतां तव ।

भूतानि चात्मन्यपृथग्दिदृक्षतां

     प्रायेण रोषोऽभिभवेद्यथा पशुम् ॥ ४६ ॥

पृथग्धियः कर्मदृशो दुराशयाः

     परोदयेनार्पितहृद्रुजोऽनिशम् ।

परान् दुरुक्तैर्वितुदन्त्यरुन्तुदाः

     तान्मावधीद् दैववधान् भवद्विधः ॥ ४७ ॥

यस्मिन्यदा पुष्करनाभमायया

     दुरन्तया स्पृष्टधियः पृथग्दृशः ।

कुर्वन्ति तत्र ह्यनुकम्पया कृपां

     न साधवो दैवबलात्कृते क्रमम् ॥ ४८ ॥

भवांस्तु पुंसः परमस्य मायया

     दुरन्तयास्पृष्टमतिः समस्तदृक् ।

तया हतात्मस्वनुकर्मचेतः

     स्वनुग्रहं कर्तुमिहार्हसि प्रभो ॥ ४९ ॥

कुर्वध्वरस्योद्धरणं हतस्य भोः

     त्वयासमाप्तस्य मनो प्रजापतेः ।

न यत्र भागं तव भागिनो ददुः

     कुयाजिनो येन मखो निनीयते ॥ ५० ॥

(अनुष्टुप्)

जीवताद् यजमानोऽयं प्रपद्येताक्षिणी भगः ।

भृगोः श्मश्रूणि रोहन्तु पूष्णो दन्ताश्च पूर्ववत् ॥ ५१ ॥

देवानां भग्नगात्राणां ऋत्विजां चायुधाश्मभिः ।

भवतानुगृहीतानां आशु मन्योऽस्त्वनातुरम् ॥ ५२ ॥

एष ते रुद्र भागोऽस्तु यदुच्छिष्टोऽध्वरस्य वै ।

यज्ञस्ते रुद्र भागेन कल्पतां अद्य यज्ञहन् ॥ ५३ ॥

जो महानुभाव आपके चरणों में अपने को समर्पित कर देते हैं, जो समस्त प्राणियों में आपकी ही झाँकी करते हैं और समस्त जीवों को अभेद दृष्टि से आत्मा में ही देखते हैं, वे पशुओं के समान प्रायः क्रोध के अधीन नहीं होते। जो लोग भेदबुद्धि होने के कारण कर्मों में ही आसक्त हैं, जिनकी नीयत अच्छी नहीं है, दूसरों की उन्नति देखकर जिनका चित्त रात-दिन कुढ़ा करता है और जो मर्मभेदी अज्ञानी अपने दुर्वचनों से दूसरों का चित्त दु:खाया करते हैं, आप-जैसे महापुरुषों के लिये उन्हें भी मारना उचित नहीं हैं; क्योंकि वे बेचारे तो विधाता के ही मारे हुए हैं।

देवदेव! भगवान् कमलनाभ की प्रबल माया से मोहित हो जाने के कारण यदि किसी पुरुष की कभी किसी स्थान में भेदबुद्धि होती है, तो भी साधु पुरुष अपने परदुःखकातर स्वभाव के कारण उस पर कृपा ही करते हैं; दैववश जो कुछ हो जाता है, वे उसे रोकने का प्रयत्न नहीं करते।

प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं, परम पुरुष भगवान् की दुस्तर माया ने आपकी बुद्धि का स्पर्श भी नहीं किया है। अतः जिनका चित्त उसके वशीभूत होकर कर्ममार्ग में आसक्त हो रहा है, उनके द्वारा अपराध बन जाये, तो भी उन पर आपको कृपा ही करनी चाहिये।

भगवन्! आप सबके मूल हैं। आप ही सम्पूर्ण यज्ञों को पूर्ण करने वाले हैं। यज्ञभाग पाने का भी आपको पूरा अधिकार है। फिर भी इस दक्षयज्ञ के बुद्धिहीन याजकों ने आपको यज्ञभाग नहीं दिया। इसी से यह आपके द्वारा विध्वंस हुआ। अब आप इस अपूर्ण यज्ञ का पुनरुद्धार करने की कृपा करें। प्रभो! ऐसा कीजिये, जिससे यजमान दक्ष फिर जी उठे, भगदेवता को नेत्र मिल जायें, भृगु के दाढ़ी-मूँछ आ जायें और पूषा के पहले के ही समान दाँत निकल आयें। रुद्रदेव! अस्त्र-शस्त्र और पत्थरों की बौछार से जिन देवता और ऋत्विजों के अंग-प्रत्यंग घायल हो गये हैं, आपकी कृपा से वे फिर ठीक हो जायें। यज्ञ सम्पूर्ण होने पर जो कुछ शेष रहे, वह सब आपका भाग होगा। यज्ञविध्वंसक! आज यह यज्ञ आपके ही भाग से पूर्ण हो।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे रुद्रसान्त्वनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box