श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध पञ्चम अध्याय
श्रीमद्भागवत
महापुराण प्रथम स्कन्ध पञ्चम अध्याय
"भगवान के यश-कीर्तन की महिमा
और देवर्षि नारदजी का पूर्व चरित्र"
श्रीमद्भागवतपुराणम्- स्कन्धः १ - अध्यायः ५
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
अथ तं सुखमासीन उपासीनं बृहच्छ्रवाः
।
देवर्षिः प्राह विप्रर्षिं
वीणापाणिः स्मयन्निव ॥ १॥
नारद उवाच
पाराशर्य महाभाग भवतः कच्चिदात्मना
।
परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा
॥ २॥
जिज्ञासितं सुसम्पन्नमपि ते
महदद्भुतम् ।
कृतवान् भारतं यस्त्वं
सर्वार्थपरिबृंहितम् ॥ ३॥
जिज्ञासितमधीतं च यत्तद्ब्रह्म
सनातनम् ।
अथापि शोचस्यात्मानमकृतार्थ इव
प्रभो ॥ ४॥
व्यास उवाच
अस्त्येव मे सर्वमिदं त्वयोक्तं
तथापि नात्मा परितुष्यते मे ।
तन्मूलमव्यक्तमगाधबोधं
पृच्छामहे त्वात्मभवात्मभूतम् ॥ ५॥
स वै भवान् वेद समस्तगुह्यमुपासितो
यत्पुरुषः पुराणः ।
परावरेशो मनसैव विश्वं
सृजत्यवत्यत्ति गुणैरसङ्गः ॥ ६॥
त्वं पर्यटन्नर्क इव
त्रिलोकीमन्तश्चरो
वायुरिवात्मसाक्षी ।
परावरे ब्रह्मणि धर्मतो व्रतैः
स्नातस्य मे न्यूनमलं विचक्ष्व ॥ ७॥
श्रीनारद उवाच
भवतानुदितप्रायं यशो भगवतोऽमलम् ।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तद्दर्शनं
खिलम् ॥ ८॥
यथा धर्मादयश्चार्था
मुनिवर्यानुकीर्तिताः ।
न तथा वासुदेवस्य महिमा
ह्यनुवर्णितः ॥ ९॥
न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो
जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।
तद्वायसं तीर्थमुशन्ति मानसा
न यत्र हंसा निरमन्त्युशिक्क्षयाः ॥
१०॥
तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो
यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।
नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि
यच्छृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः
॥ ११॥
नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं
न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे
न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् ॥ १२॥
अथो महाभाग भवानमोघदृक्शुचिश्रवाः
सत्यरतो
धृतव्रतः ।
उरुक्रमस्याखिलबन्धमुक्तये
समाधिनानुस्मर तद्विचेष्टितम् ॥ १३॥
ततोऽन्यथा किञ्चन यद्विवक्षतः
पृथग् दृशस्तत्कृतरूपनामभिः ।
न कुत्रचित्क्वापि च दुःस्थिता
मतिर्लभेत
वाताहतनौरिवास्पदम् ॥ १४॥
जुगुप्सितं धर्मकृतेऽनुशासतः
स्वभावरक्तस्य महान् व्यतिक्रमः ।
यद्वाक्यतो धर्म इतीतरः स्थितो
न मन्यते तस्य निवारणं जनः ॥ १५॥
विचक्षणोऽस्यार्हति वेदितुं
विभोरनन्तपारस्य निवृत्तितः सुखम् ।
प्रवर्तमानस्य गुणैरनात्मनस्ततो
भवान् दर्शय चेष्टितं विभोः ॥ १६॥
त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्बुजं
हरेर्भजन्नपक्वोऽथ पतेत्ततो यदि ।
यत्र क्व वाभद्रमभूदमुष्य किं
को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः ॥
१७॥
तस्यैव हेतोः प्रयतेत कोविदो
न लभ्यते यद्भ्रमतामुपर्यधः ।
तल्लभ्यते दुःखवदन्यतः सुखं
कालेन सर्वत्र गभीररंहसा ॥ १८॥
न वै जनो जातु कथञ्चनाव्रजे-
न्मुकुन्दसेव्यन्यवदङ्ग संसृतिम् ।
स्मरन् मुकुन्दाङ्घ्र्युपगूहनं पुन-
र्विहातुमिच्छेन्न रसग्रहो यतः ॥
१९॥
इदं हि विश्वं भगवानिवेतरो
यतो जगत्स्थाननिरोधसम्भवाः ।
तद्धि स्वयं वेद भवांस्तथापि वै
प्रादेशमात्रं भवतः प्रदर्शितम् ॥
२०॥
त्वमात्मनाऽऽत्मानमवेह्यमोघदृक्परस्य
पुंसः परमात्मनः कलाम् ।
अजं प्रजातं जगतः शिवाय
तन्महानुभावाभ्युदयोऽधिगण्यताम् ॥
२१॥
इदं हि पुंसस्तपसः श्रुतस्य वा
स्विष्टस्य सूक्तस्य च
बुद्धिदत्तयोः ।
अविच्युतोऽर्थः कविभिर्निरूपितो
यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनम् ॥ २२॥
अहं
पुरातीतभवेऽभवं मुने
दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम् ।
निरूपितो बालक एव योगिनां
शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम्
॥ २३॥
ते मय्यपेताखिलचापलेऽर्भके
दान्तेऽधृतक्रीडनकेऽनुवर्तिनि ।
चक्रुः कृपां यद्यपि तुल्यदर्शनाः
शुश्रूषमाणे मुनयोऽल्पभाषिणि ॥ २४॥
उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैः
सकृत्स्म भुञ्जे तदपास्तकिल्बिषः ।
एवं प्रवृत्तस्य
विशुद्धचेतसस्तद्धर्म
एवात्मरुचिः प्रजायते ॥ २५॥
तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायता-
मनुग्रहेणाश्रृणवं मनोहराः ।
ताः श्रद्धया मेऽनुपदं विश्रृण्वतः
प्रियश्रवस्यङ्ग ममाभवद्रुचिः ॥ २६॥
तस्मिंस्तदा लब्धरुचेर्महामुने
प्रियश्रवस्यास्खलिता मतिर्मम ।
ययाहमेतत्सदसत्स्वमायया
पश्ये मयि ब्रह्मणि कल्पितं परे ॥
२७॥
इत्थं शरत्प्रावृषिकावृतू हरेर्विश्रृण्वतो
मेऽनुसवं यशोऽमलम् ।
सङ्कीर्त्यमानं
मुनिभिर्महात्मभिर्भक्तिः
प्रवृत्ताऽऽत्मरजस्तमोऽपहा ॥ २८॥
तस्यैवं मेऽनुरक्तस्य प्रश्रितस्य
हतैनसः ।
श्रद्दधानस्य बालस्य
दान्तस्यानुचरस्य च ॥ २९॥
ज्ञानं गुह्यतमं
यत्तत्साक्षाद्भगवतोदितम् ।
अन्ववोचन् गमिष्यन्तः कृपया
दीनवत्सलाः ॥ ३०॥
येनैवाहं भगवतो वासुदेवस्य वेधसः ।
मायानुभावमविदं येन गच्छन्ति
तत्पदम् ॥ ३१॥
एतत्संसूचितं
ब्रह्मंस्तापत्रयचिकित्सितम् ।
यदीश्वरे भगवति कर्म ब्रह्मणि
भावितम् ॥ ३२॥
आमयो यश्च भूतानां जायते येन सुव्रत
।
तदेव ह्यामयं द्रव्यं न पुनाति
चिकित्सितम् ॥ ३३॥
एवं नृणां क्रियायोगाः सर्वे
संसृतिहेतवः ।
त एवात्मविनाशाय कल्पन्ते कल्पिताः
परे ॥ ३४॥
यदत्र क्रियते कर्म भगवत्परितोषणम्
।
ज्ञानं यत्तदधीनं हि
भक्तियोगसमन्वितम् ॥ ३५॥
कुर्वाणा यत्र कर्माणि
भगवच्छिक्षयासकृत् ।
गृणन्ति गुणनामानि
कृष्णस्यानुस्मरन्ति च ॥ ३६॥
नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि ।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः
सङ्कर्षणाय च ॥ ३७॥
इति मूर्त्यभिधानेन
मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम् ।
यजते यज्ञपुरुषं स सम्यग्दर्शनः
पुमान् ॥ ३८॥
इमं स्वनिगमं ब्रह्मन्नवेत्य
मदनुष्ठितम् ।
अदान्मे ज्ञानमैश्वर्यं स्वस्मिन्
भावं च केशवः ॥ ३९॥
त्वमप्यदभ्रश्रुतविश्रुतं विभोः
समाप्यते येन विदां बुभुत्सितम् ।
आख्याहि/प्रख्याहि
दुःखैर्मुहुरर्दितात्मनां
सङ्क्लेशनिर्वाणमुशन्ति नान्यथा ॥
४०॥
श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध पञ्चम अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद
सूतजी कहते हैं ;-
तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए वीणापाणि परम यशस्वी देवर्षि नारद ने
मुसकराकर अपने पास ही बैठे ब्रम्हर्षि व्यासजी से कहा ।
नारदजी ने प्रश्न किया ;-
महाभाग व्यासजी! आपके शरीर एवं मन—दोनों ही
अपने कर्म एवं चिन्तन से सन्तुष्ट हैं न ? अवश्य ही आपकी
जिज्ञासा तो भलीभाँति पूर्ण हो गयी है; क्योंकि आपने जो यह
महाभारत की रचना की है, वह बड़ी ही अद्भुत है। वह धर्म आदि
सभी पुरुषार्थों से परिपूर्ण है । सनातन ब्रम्हतत्व को भी आपने खूब विचारा है और
जान भी लिया है। फिर भी प्रभु! आप अकृतार्थ पुरुष के समान अपने विषय में शोक क्यों
कर रहे हैं ?
व्यासजी ने कह ;- आपने मेरे विषय
में जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। वैसा होने पर भी मेरा
ह्रदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका
ज्ञान अगाध है। आप साक्षात् ब्रम्हाजी के मानसपुत्र हैं। इसलिये मैं आपसे ही इसका
कारण पूछता हूँ । नारदजी! आप समस्त गोपनीय रहस्यों को जानते हैं; क्योंकि आपने उन पुराणपुरुष की उपासना की है, जो
प्रकृति-पुरुष दोनों के स्वामी हैं और असंग रहते हुए ही अपने संकल्प मात्र से
गुणों एक द्वारा संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते रहते
हैं । आप सूर्य की भाँति तीनों लोकों में भ्रमण करते रहते हैं और योगबल से प्राण
वायु के समान सबके भीतर रहकर अन्तःकरणों के साक्षी भी हैं। योगानुष्ठान और नियमों
के द्वारा परब्रम्ह और शब्द ब्रम्ह दोनों की पूर्ण प्राप्ति कर लेने पर भी मुझमें
जो बड़ी कमी है, उसे आप कृपा करके बतलाइये ।
नारदजी ने कहा ;-
व्यासजी! आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया। मेरी
ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते, वह
शास्त्र या ज्ञान अधुरा है । आपने धर्म आदि पुरुषार्थों का जैसा निरूपण किया है,
भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वैसा निरूपण नहीं किया । जिस वाणी से—चाहे रस-भाव-अलंकारादि से युक्त ही क्यों न हो—जगत्
को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंकने के स्थान के समान अपवित्र मानी जाती
हैं। मानसरोवर के कमनीय कमलवन में विरहने वाले हंसों की भाँति ब्रम्हधाम में विहार
करने वाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त कभी उसमें रमण नहीं करते । इसके
विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान के सुयश सूचक नामों से युक्त है,
वह वाणी लोगों के सारे पापों का नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणी का श्रवण, गान और
कीर्तन किया करते हैं । वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्ष की
प्राप्ति का साक्षात् साधन है, यदि भगवान की भक्ति से रहित
हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओं में सदा ही
अमंगल रूप है, वह काम्य कर्म और जो भगवान को अर्पण नहीं किया
गया है, ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता
है।
महाभाग व्यासजी! आपकी दृष्टि अमोघ
है। आपकी कीर्ति पवित्र है। आप सत्यनारायण एवं दृढ़व्रत हैं। इसलिये अब आप
सम्पूर्ण जीवों को बन्धन से मुक्त करने के लिये समाधि के द्वारा अचिन्त्य-शक्ति
भगवान की लीलाओं का स्मरण कीजिये । जो मनुष्य भगवान की लीला के अतिरिक्त और कुछ
कहने की इच्छा करता है, वह उस इच्छा से ही
निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर मीन पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेदभाव से भर
जाती है। जैसे हवा के झकोरों से डगमगाती हुई डोंगी को कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं
मिलता, वैस ही उसी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती ।
संसारी लोग स्वभाव से ही विषयों फँसे हुए हैं। धर्म के नाम पर आपने उन्हें निन्दित
(पशु हिंसा युक्त) सकाम कर्म करने की भी आज्ञा दे दी है। यह बहुत उलटी बात हुई;
क्योंकि मूर्ख लोग आपके वचनों से पूर्वोक्त निन्दित कर्म को ही धर्म
मानकर—‘यही मुख्य धर्म है’ ऐसा निश्चय
करके उसका निषेध करने वाले वचनों को ठीक नहीं मानते । भगवान अनन्त हैं। कोई
विचारवान् ज्ञानी पुरुष ही संसार की ओर से निवृत्त होकर उनके स्वरुप भूत परमानन्द
का अनुभव कर सकता है। अतः जो लोग पारमार्थिक बुद्धि से रहित हैं और गुणों के
द्वारा नचाये जा रहे हैं, उनके कल्याण के लिये ही आप भगवान
की लीलाओं सर्वसाधारण के हित की दृष्टि से वर्णन कीजिये । जो मनुष्य अपने धर्म का
परित्याग करके भगवान के चरणकमलों का भजन-सेवन करता है—भजन
परिपक्व हो जाने पर तो बात ही क्या है—यदि इससे पूर्व ही
उसका भजन छूट जाय तो क्या कहीं भी उसका कोई अमंगल हो सकता है ? परन्तु जो भगवान का भजन नहीं करते और केवल स्वधर्म का पालन करते हैं,
उन्हें कौन-सा लाभ मिलता है । बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि वह उसी
वस्तु की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करे, जो तिनके से लेकर
ब्रम्हापर्यन्त समस्त ऊँची-नीची योनियों में कर्मों के फलस्वरूप आने-जाने पर भी
स्वयं प्राप्त नहीं होती। संसार के विषय सुख तो, जैसे बिना
चेष्टा के दुःख मिलते हैं वैसे ही, कर्म के फलरूप में
अचिन्त्य गति समय के फेर से सबको सर्वत्र स्वभाव से ही मिल जाते हैं । व्यासजी! जो
भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का सेवक है वह भजन न करने वाले कर्मी मनुष्यों के
समान दैवात् कभी बुरा भाव हो जाने पर भी जन्म-मृत्युमय संसार में नहीं आता। वह
भगवान के चरणकमलों के आलिंगन का स्मरण करके फिर उसे छोड़ना नहीं चाहता; उसे रस का चसका जो लोग चुका है । जिनसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं, वे भगवान ही इस विश्व के
रूप में भी हैं। ऐसा होने पर भी वे इससे विलक्षण हैं। इस बात को आप स्वयं जानते
हैं, तथापि मैंने आपको संकेतमात्र कर दिया है ।
व्यासजी! आपकी दृष्टि अमोघ है;
आप इस बात को जानिये कि आप पुरुषोत्तम-भगवान के कलावतार हैं। आपने
अजन्मा होकर भी जगत् के कल्याण के लिये जन्म ग्रहण किया है। इसलिये आप विशेष रूप
से भगवान की लीलाओं का कीर्तन कीजिये । विद्वानों ने इस बात का निरूपण किया है कि मनुष्य
की तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान,
स्वाध्याय, ज्ञान और दान का एकमात्र प्रयोजन
यही है कि पुण्यकीर्ति श्रीकृष्ण के गुणों और लीलाओं का वर्णन किया जाय ।
मुने! पिछले कल्प में अपने
पूर्वजीवन में मैं वेदवादी ब्राम्हणों की एक दासी का लड़का था। वे योगी वर्षा ऋतु
में एक स्थान पर चातुर्मास्य कर रहे थे। बचपन में ही मैं उनकी सेवा में नियुक्त कर
दिया गया था । मैं यद्यपि बालक था, फिर
भी किसी प्रकार की चंचलता नहीं करता था, जितेन्द्रिय था,
खेल-कूद से दूर रहता था और आज्ञानुसार उनकी सेवा करता था। मैं बोलता
भी बहुत कम था। मेरे इस शील-स्वभाव को देखकर समदर्शी मुनियों ने मुझ सेवक पर
अत्यन्त अनुग्रह किया । उनकी अनुमति प्राप्त करके बरतनों में लगा हुआ प्रसाद मैं
एक बार खा लिया करता था। इससे मेरे सारे पाप धुल गये। इस प्रकार उनकी सेवा
करते-करते मेरा ह्रदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसी में मेरी भी रूचि हो गयी । प्यारे व्यासजी! उस सत्संग में उन लीला गान
परायण महात्माओं के अनुग्रह से मैं प्रतिदिन श्रीकृष्ण की मनोहर कथाएँ सुना करता।
श्रद्धापूर्वक एक-एक पद श्रवण करते-करते प्रियकीर्ति भगवान में मेरी रूचि हो गयी ।
महामुने! जब भगवान में मेरी रूचि हो गयी, तब उन मनोहर कीर्ति
प्रभु में मेरी बुद्धि भी निश्चल हो गयी। उस बुद्धि से मैं इस सम्पूर्ण सत् और
असत्-रूप जगत् को अपने परब्रम्ह स्वरुप आत्मा में माया से कल्पित देखने लगा ।
इस प्रकार शरद् और वर्षा—इन दो ऋतुओं में तीनों समय उन महात्मा मुनियों ने श्रीहरि के निर्मल यश का
संकीर्तन किया और मैं प्रेम से प्रत्येक बात सुनता रहा। अब चित्त के रजोगुण और
तमोगुण के नाश करने वाली भक्ति का मेरे ह्रदय में प्रादुर्भाव हो गया । मैं उनका
बड़ा ही अनुरागी था, विनयी था; उन
लोगों की सेवा से मेरे पाप नष्ट हो चुके थे। मेरे ह्रदय में श्रद्धा थी, इन्द्रियों में संयम था एवं शरीर, वाणी और मन से मैं
उनका आज्ञाकारी था । उन दीनवत्स महत्माओं ने जाते समय कृपा करके मुझे उस गुह्तम
ज्ञान का उपदेश किया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान ने अपने
श्रीमुख से किया है । उस उपदेश से ही जगत् के निर्माता भगवान श्रीकृष्ण की माया के
प्रभाव को मैं जान सका, जिसके जान लेने पर उनके परमपद की
प्राप्ति हो जाती है । सत्यसंकल्प व्यासजी! पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति
समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ही संसार के तीनों तापों की एकमात्र ओषधि है,
यह बात मैंने आपको बतला दी । प्राणियों को जिस पदार्थ के सेवन से जो
रोग हो जाता है, वही पदार्थ चिकित्सा विधि के अनुसार प्रयोग
करने पर क्या उस रोग को दूर नहीं करता ? इसी प्रकार यद्यपि
सभी कर्म मनुष्यों को जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्र में डालने वाले हैं, तथापि जब वे भगवान को समर्पित कर दिये जाते हैं, तब
उनका कर्मपना ही नष्ट हो जाता है । इस लोक में जो शास्त्रविहित कर्म भगवान की
प्रसन्नता के लिये किये जाते हैं, उन्हीं से पराभक्ति युक्त
ज्ञान की प्राप्ति होती है । उस भगवदर्थ कर्म के मार्ग में भगवान के आज्ञानुसार
आचरण करते हुए लोग बार-बार भगवान श्रीकृष्ण के गुण और नामों का कीर्तन तथा स्मरण
करते हैं।
‘प्रभो! आप भगवान श्रीवासुदेव को नमस्कार है। हम आपका ध्यान करते हैं।
प्रदुम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण को भी नमस्कार है’। इस प्रकार जो पुरुष चतुर्व्यूह रूपी भगवन्मूर्तियों के नाम द्वारा
प्राकृत मूर्ति रहित अप्राकृत मन्त्रमूर्ति भगवान यज्ञपरुष का पूजन करता है,
उसी का ज्ञान पूर्ण एवं यथार्थ है। ब्रम्हन्! जब मैंने भगवान की
आज्ञा का इस प्रकार पालन किया, तब इस बात को जानकर भगवान
श्रीकृष्ण ने मुझे आत्मज्ञान, ऐश्वर्य और अपनी भावरुपा
प्रेमाभक्ति का दान किया । व्यासजी! आपका ज्ञान पूर्ण है; आप
भगवान की ही कीर्ति का—उनकी प्रेममयी लीला का वर्णन कीजिये।
उसी से बड़े-बड़े ज्ञानियों की भी जिज्ञासा पूर्ण होती है। जो लोग दुःखों के
द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं, उनके दुःख की शान्ति इसी
से हो सकती है और कोई उपाय नहीं है ।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
व्यासनारदसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
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