श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध चतुर्थ अध्याय
श्रीमद्भागवत
महापुराण प्रथम स्कन्ध चतुर्थ अध्याय
"महर्षि व्यास का
असन्तोष"
श्रीमद्भागवतपुराणम्- स्कन्धः १ - अध्यायः ४
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥
व्यास उवाच
इति ब्रुवाणं संस्तूय मुनीनां
दीर्घसत्रिणाम् ।
वृद्धः कुलपतिः सूतं बह्वृचः
शौनकोऽब्रवीत् ॥ १॥
शौनक उवाच
सूत सूत महाभाग वद नो वदतां वर ।
कथां भागवतीं पुण्यां यदाह
भगवाञ्छुकः ॥ २॥
कस्मिन् युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा
केन हेतुना ।
कुतः सञ्चोदितः कृष्णः कृतवान्
संहितां मुनिः ॥ ३॥
तस्य पुत्रो महायोगी
समदृङ्निर्विकल्पकः ।
एकान्तमतिरुन्निद्रो गूढो मूढ
इवेयते ॥ ४॥
दृष्ट्वानुयान्तमृषिमात्मजमप्यनग्नं
देव्यो ह्रिया परिदधुर्न सुतस्य
चित्रम् ।
तद्वीक्ष्य पृच्छति मुनौ
जगदुस्तवास्ति
स्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः
॥ ५॥
कथमालक्षितः पौरैः सम्प्राप्तः
कुरुजाङ्गलान् ।
उन्मत्तमूकजडवद्विचरन् गजसाह्वये ॥
६॥
कथं वा पाण्डवेयस्य राजर्षेर्मुनिना
सह ।
संवादः समभूत्तात यत्रैषा सात्वती
श्रुतिः ॥ ७॥
स
गोदोहनमात्रं हि गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
अवेक्षते महाभागस्तीर्थीकुर्वंस्तदाश्रमम्
॥ ८॥
अभिमन्युसुतं सूत
प्राहुर्भागवतोत्तमम् ।
तस्य जन्म महाश्चर्यं कर्माणि च
गृणीहि नः ॥ ९॥
स सम्राट् कस्य वा हेतोः पाण्डूनां
मानवर्धनः ।
प्रायोपविष्टो
गङ्गायामनादृत्याधिराट् श्रियम् ॥ १०॥
नमन्ति यत्पादनिकेतमात्मनः
शिवाय हानीय धनानि शत्रवः ।
कथं स वीरः श्रियमङ्ग दुस्त्यजां
युवैषतोत्स्रष्टुमहो सहासुभिः ॥ ११॥
शिवाय लोकस्य भवाय भूतये
य उत्तमश्लोकपरायणा जनाः ।
जीवन्ति नात्मार्थमसौ पराश्रयं
मुमोच निर्विद्य कुतः कलेवरम् ॥ १२॥
तत्सर्वं नः समाचक्ष्व पृष्टो यदिह
किञ्चन ।
मन्ये त्वां विषये वाचां
स्नातमन्यत्र छान्दसात् ॥ १३॥
सूत उवाच
द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये
युगपर्यये ।
जातः पराशराद्योगी वासव्यां कलया
हरेः ॥ १४॥
स कदाचित्सरस्वत्या उपस्पृश्य जलं
शुचिः ।
विविक्तदेश आसीन उदिते रविमण्डले ॥
१५॥
परावरज्ञः
स ऋषिः कालेनाव्यक्तरंहसा ।
युगधर्मव्यतिकरं प्राप्तं भुवि युगे
युगे ॥ १६॥
भौतिकानां च भावानां शक्तिह्रासं च
तत्कृतम् ।
अश्रद्दधानान् निःसत्त्वान्
दुर्मेधान् ह्रसितायुषः ॥ १७॥
दुर्भगांश्च जनान् वीक्ष्य
मुनिर्दिव्येन चक्षुषा ।
सर्ववर्णाश्रमाणां यद्दध्यौ
हितममोघदृक् ॥ १८॥
चातुर्होत्रं कर्म शुद्धं प्रजानां
वीक्ष्य वैदिकम् ।
व्यदधाद्यज्ञसन्तत्यै वेदमेकं
चतुर्विधम् ॥ १९॥
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्या वेदाश्चत्वार
उद्धृताः ।
इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते ॥
२०॥
तत्रर्ग्वेदधरः पैलः सामगो जैमिनिः
कविः ।
वैशम्पायन एवैको निष्णातो यजुषामुत
॥ २१॥
अथर्वाङ्गिरसामासीत्सुमन्तुर्दारुणो
मुनिः ।
इतिहासपुराणानां पिता मे रोमहर्षणः
॥ २२॥
त एत ऋषयो वेदं स्वं स्वं
व्यस्यन्ननेकधा ।
शिष्यैः
प्रशिष्यैस्तच्छिष्यैर्वेदास्ते शाखिनोऽभवन् ॥ २३॥
त एव वेदा दुर्मेधैर्धार्यन्ते
पुरुषैर्यथा ।
एवं चकार भगवान् व्यासः कृपणवत्सलः
॥ २४॥
स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न
श्रुतिगोचरा ।
कर्मश्रेयसि मूढानां श्रेय एवं
भवेदिह ।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना
कृतम् ॥ २५॥
एवं प्रवृत्तस्य सदा भूतानां
श्रेयसि द्विजाः ।
सर्वात्मकेनापि यदा नातुष्यद्धृदयं
ततः ॥ २६॥
नातिप्रसीदद्धृदयः सरस्वत्यास्तटे
शुचौ ।
वितर्कयन् विविक्तस्थ इदं चोवाच
धर्मवित् ॥ २७॥
धृतव्रतेन हि मया छन्दांसि
गुरवोऽग्नयः ।
मानिता निर्व्यलीकेन गृहीतं
चानुशासनम् ॥ २८॥
भारतव्यपदेशेन ह्याम्नायार्थश्च
दर्शितः ।
दृश्यते यत्र धर्मादि
स्त्रीशूद्रादिभिरप्युत ॥ २९॥
तथापि बत मे दैह्यो ह्यात्मा
चैवात्मना विभुः ।
असम्पन्न इवाभाति
ब्रह्मवर्चस्यसत्तमः ॥ ३०॥
किं वा भागवता धर्मा न प्रायेण
निरूपिताः ।
प्रियाः परमहंसानां त एव
ह्यच्युतप्रियाः ॥ ३१॥
तस्यैवं खिलमात्मानं मन्यमानस्य
खिद्यतः ।
कृष्णस्य नारदोऽभ्यागादाश्रमं
प्रागुदाहृतम् ॥ ३२॥
तमभिज्ञाय सहसा प्रत्युत्थायागतं
मुनिः ।
पूजयामास विधिवन्नारदं सुरपूजितम् ॥
३३॥
श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध चतुर्थ अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद
व्यासजी कहते हैं ;-
उस दीर्घकालीन सत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्यावयोवृद्ध
कुलपति ऋग्वेदी शौनकजी ने सूतजी की पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा ।
शौनकजी बोले ;-
सूतजी! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं, जो कथा भगवान श्रीशुकदेवजी ने कही थी, वही भगवान की
पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये ।वह कथा किस युग में, किस स्थान पर और किस कारण से हुई थी ? मुनिवर
श्रीकृष्णद्वैपायन ने किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिता का निर्माण किया था
। उनके पुत्र शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी, भेद भावरहित, संसार निद्रा से एवं निरन्तर एकमात्र
परमात्मा में ही स्थिर रहते हैं। वे छिपे रहने के कारण मूढ़-से प्रतीत होते हैं ।
व्यासजी जब संन्यास के लिये वन की ओर जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे,
उस समय जल में स्नान करने वाली स्त्रियों ने नगें शुकदेव को देखकर
तो वस्त्र धारण नहीं किया, परंतु वस्त्र पहने हुए व्यासजी को
देखकर लज्जा से कपड़े पहन किये थे। इस आश्चर्य को देखकर जब व्यासजी ने उन
स्त्रियों से इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है, परंतु आपके पुत्र की शुद्धि दृष्टि में यह भेद नहीं है’ कुरुजांगल देश में पहुँचकर हस्तिनापुर में वे पागल, गूँगे
तथा जड़ के समान विचरते होंगे। नगरवासियों ने उन्हें कैसे पहचाना ?
पाण्डव नन्दन राजर्षि परीक्षित् का इन मौनी
शुकदेवजी के साथ संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह
भागवत संहिता कही गयी ? महाभाग श्रीशुकदेवजी तो गृहस्थों के
घरों को तीर्थस्वरुप बना देने के लिये उतनी ही देर उनके दरवाजे पर रहते हैं,
जितनी देर में एक गाय दुही जाती है । सूतजी! हमने सुना है कि
अभिमन्यु नन्दन परीक्षित् भगवान के बड़े प्रेमी भक्त थे। उनके अत्यन्त आश्चर्यमय
जन्म और कर्मों का भी वर्णन कीजिये । वे तो पाण्डववंश के गौरव बढ़ाने वाले सम्राट्
थे। वे भला, किस कारण से साम्राज्य लक्ष्मी का परित्याग करके
गंगा तट पर मृत्यु पर्यन्त अनशन का व्रत लेकर बैठे थे ? शत्रुगण
अपने भले के लिये बहुत-सा धन लाकर उनके चरण रखने की चौकी को नमस्कार करते थे। वे
एक वीर युवक थे। उन्होंने उस दुस्त्यज लक्ष्मी को, अपने
प्राणों के साथ भला, क्यों त्याग देने की इच्छा की । जिन
लोगों का जीवन भगवान के आश्रित है, वे तो संसार के परम
कल्याण, अभ्युदय और समृद्धि के लिये ही जीवन धारण करते हैं।
उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। उनका शरीर तो दूसरों के हित के लिये था,
उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया । वेदवाणी को छोड़कर
अन्य समस्त शास्त्रों के आप पारदर्शी विद्वान् हैं। सूतजी! इसलिये इस समय जो कुछ
हमने आपसे पूछा है, वह सब कृपा करके हैं कहिये । सूतजी कहते
हैं—इस वर्तमान चतुर्युगी के तीसरे युग द्वापर में महर्षि
पराशर के द्वारा वसुकन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान के कलावतार योगिराज व्यासजी का
जन्म हुआ । एक दिन वे सूर्योदय के समय सरस्वती के पवित्र जल में स्नानादि करके
एकान्त पवित्र स्थान पर बैठे हुए थे ।
महर्षि भूत और भविष्य को जानते थे।
उनकी दृष्टि अचूक थी। उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते,
ऐसे समय के फेर से प्रत्येक युग में धर्म संकरता और उसके प्रभाव से
भौतिक वस्तुओं की भी शक्ति का ह्रास होता रहता है। संसार के लोग श्रद्धाहीन और
शक्तिरहित हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और
आयु भी कम हो जाती है। लोगों की इस भाग्यहीनता को देखकर उन मुनीश्वर ने अपनी दिव्य
दृष्टि से समस्त वर्णों और आश्रमों का हित कैसे हो, इस पर
विचार किया । उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुर्होत्र कर्म लोगों का ह्रदय शुद्ध
करने वाला है। इस दृष्टि से यज्ञों का विस्तार करने के लिये उन्होंने एक ही वेद के
चार विभाग कर दिये ।
व्यासजी के द्वारा ऋक्, यजुः, साम और अथर्व—इन चार वेदों का उद्धार (पृथक्करण)
हुआ। इतिहास और पुराणों को पाँचवाँ वेद कहा जाता है । उनमें से ऋग्वेद के पैल,
सामगान के विद्वान् जैमिनि एवं यजुर्वेद के एकमात्र स्नातक
वैशम्पायन हुए । अथर्ववेद में प्रवीण हुए दरुणनन्दन सुमन्तु मुनि। इतिहास और
पुराणों के स्नातक मेरे पिता रोमहर्षण थे । इन पूर्वोक्त ऋषियों ने अपनी-अपनी शाखा
को और भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार शिष्य, प्रशिष्य
और उनके शिष्यों द्वारा वेदों की बहुत-सी शाखाएँ बन गयीं । कम समझने वाले पुरुषों
पर कृपा करके भगवान वेदव्यास ने इसलिये ऐसा विभाग कर दिया कि जिन लोगों को स्मरण
शक्ति नहीं है या कम है, वे भी वेदों को धारण कर सकें ।
स्त्री, शूद्र और पतित द्विजाति—तीनों
ही वेद-श्रवण के अधिकारी नहीं हैं। इसलिये वे कल्याणकारी शास्त्रोक्त कर्मों के
आचरण में भूल कर बैठते हैं। अब इसके द्वारा उनका भी कल्याण हो जाय, यह सोचकर महामुनि व्यासजी ने बड़ी कृपा करके महाभारत इतिहास रचना की ।
शौनकादि ऋषियों! यद्यपि व्याजी इस प्रकार अपनी पूरी शक्ति से सदा-सर्वदा प्राणियों
के कल्याण में ही लगे रहे, तथापि उनके ह्रदय को सन्तोष नहीं
हुआ। उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया। सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकान्त में बैठकर
धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे—‘मैंने निष्कपट भाव से ब्रम्ह्चर्यादी व्रतों का पालन करते हुए वेद,
गुरुजन और अग्नियों का सम्मान किया है और उनकी आज्ञा का पालन किया
है । महाभारत की रचना के बहाने मैंने वेद के अर्थ को खोल दिया है—जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने-अपने धर्म-कर्म का
ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं । यद्यपि मैं ब्रम्हतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ,
तथापि मेरा ह्रदय कुछ अपूर्णकाम-सा जान पड़ता है । अवश्य ही अब तक
मैंने भगवान को प्राप्त कराने वाले धर्मों का प्रायः निरूपण नहीं किया है। वे ही
धर्म परमहंसों को प्रिय हैं और वे ही भगवान को भी प्रिय हैं (हो-न-हो मेरी
अपूर्णता का यही कारण है)’। श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास इस
प्रकार अपने को अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय
पूर्वोक्त आश्रम पर देवर्षि नारदजी आ पहुँचे । उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े
हो गये। उन्होंने देवताओं के द्वारा सम्मानित देवर्षि नारद की विधिपूर्वक पूजा की
।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
नैमिषीयोपाख्याने चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
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