श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध तृतीय अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध तृतीय अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध तृतीय अध्याय

"भगवान के अवतारों का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध तृतीय अध्याय

श्रीमद्भागवतपुराणम्- स्कन्धः १ - अध्यायः ३  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ तृतीयोऽध्यायः ॥

सूत उवाच

जगृहे पौरुषं रूपं भगवान् महदादिभिः ।

सम्भूतं षोडशकलमादौ लोकसिसृक्षया ॥ १॥

यस्याम्भसि शयानस्य योगनिद्रां वितन्वतः ।

नाभिह्रदाम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजां पतिः ॥ २॥

यस्यावयवसंस्थानैः कल्पितो लोकविस्तरः ।

तद्वै भगवतो रूपं विशुद्धं सत्त्वमूर्जितम् ॥ ३॥

पश्यन्त्यदो रूपमदभ्रचक्षुषा       

सहस्रपादोरुभुजाननाद्भुतम् ।

सहस्रमूर्धश्रवणाक्षिनासिकं

सहस्रमौल्यम्बरकुण्डलोल्लसत् ॥ ४॥

एतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम् ।

यस्यांशांशेन सृज्यन्ते देवतिर्यङ्नरादयः ॥ ५॥

स एव प्रथमं देवः कौमारं सर्गमाश्रितः ।

चचार दुश्चरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखण्डितम् ॥ ६॥

द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम् ।

उद्धरिष्यन्नुपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः ॥ ७॥

तृतीयं ऋषिसर्गं च देवर्षित्वमुपेत्य सः ।

तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यतः ॥ ८॥

तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणावृषी ।

भूत्वात्मोपशमोपेतमकरोद्दुश्चरं तपः ॥ ९॥

पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् ।

प्रोवाचासुरये साङ्ख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम् ॥ १०॥

षष्ठमत्रेरपत्यत्वं वृतः प्राप्तोऽनसूयया ।

आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान् ॥ ११॥

ततः सप्तम आकूत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत ।

स यामाद्यैः सुरगणैरपात्स्वायम्भुवान्तरम् ॥ १२॥

अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः ।

दर्शयन् वर्त्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम् ॥ १३॥

ऋषिभिर्याचितो भेजे नवमं पार्थिवं वपुः ।

दुग्धेमामोषधीर्विप्रास्तेनायं स उशत्तमः ॥ १४॥           

रूपं स जगृहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसम्प्लवे ।

नाव्यारोप्य महीमय्यामपाद्वैवस्वतं मनुम् ॥ १५॥

सुरासुराणामुदधिं मथ्नतां मन्दराचलम् ।

दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः ॥ १६॥

धान्वन्तरं द्वादशमं त्रयोदशममेव च ।

अपाययत्सुरानन्यान् मोहिन्या मोहयन् स्त्रिया ॥ १७॥

चतुर्दशं नारसिंहं बिभ्रद्दैत्येन्द्रमूर्जितम् ।

ददार करजैर्वक्षस्येरकां कटकृद्यथा ॥ १८॥

पञ्चदशं वामनकं कृत्वागादध्वरं बलेः ।

पदत्रयं याचमानः प्रत्यादित्सुस्त्रिविष्टपम् ॥ १९॥

अवतारे षोडशमे पश्यन् ब्रह्मद्रुहो नृपान् ।

त्रिःसप्तकृत्वः कुपितो निःक्षत्रामकरोन्महीम् ॥ २०॥

ततः सप्तदशे जातः सत्यवत्यां पराशरात् ।

चक्रे वेदतरोः शाखा दृष्ट्वा पुंसोऽल्पमेधसः ॥ २१॥

नरदेवत्वमापन्नः सुरकार्यचिकीर्षया ।

समुद्रनिग्रहादीनि चक्रे वीर्याण्यतः परम् ॥ २२॥

एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी ।

रामकृष्णाविति भुवो भगवानहरद्भरम् ॥ २३॥

ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् ।

बुद्धो नाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति ॥ २४॥

अथासौ युगसन्ध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु ।

जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः ॥ २५॥

अवतारा ह्यसङ्ख्येया हरेः सत्त्वनिधेर्द्विजाः ।

यथाविदासिनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः ॥ २६॥

ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः ।

कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयस्तथा ॥ २७॥

एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।

इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ २८॥

जन्म गुह्यं भगवतो य एतत्प्रयतो नरः ।

सायं प्रातर्गृणन् भक्त्या दुःखग्रामाद्विमुच्यते ॥ २९॥

एतद्रूपं भगवतो ह्यरूपस्य चिदात्मनः ।

मायागुणैर्विरचितं महदादिभिरात्मनि ॥ ३०॥

यथा नभसि मेघौघो रेणुर्वा पार्थिवोऽनिले ।

एवं द्रष्टरि दृश्यत्वमारोपितमबुद्धिभिः ॥ ३१॥

अतः परं यदव्यक्तमव्यूढगुणव्यूहितम् ।

अदृष्टाश्रुतवस्तुत्वात्स जीवो यत्पुनर्भवः ॥ ३२॥

यत्रेमे सदसद्रूपे प्रतिषिद्धे स्वसंविदा ।

अविद्ययाऽऽत्मनि कृते इति तद्ब्रह्मदर्शनम् ॥ ३३॥

यद्येषोपरता देवी माया वैशारदी मतिः ।

सम्पन्न एवेति विदुर्महिम्नि स्वे महीयते ॥ ३४॥

एवं जन्मानि कर्माणि ह्यकर्तुरजनस्य च ।

वर्णयन्ति स्म कवयो वेदगुह्यानि हृत्पतेः ॥ ३५॥

स वा इदं विश्वममोघलीलः

सृजत्यवत्यत्ति न सज्जतेऽस्मिन् ।

भूतेषु चान्तर्हित आत्मतन्त्रः  

षाड्वर्गिकं जिघ्रति षड्गुणेशः ॥ ३६॥

न चास्य कश्चिन्निपुणेन धातुरवैति

जन्तुः कुमनीष ऊतीः ।

नामानि रूपाणि मनोवचोभिः

सन्तन्वतो नटचर्यामिवाज्ञः ॥ ३७॥

स वेद धातुः पदवीं परस्य

दुरन्तवीर्यस्य रथाङ्गपाणेः ।

योऽमायया सन्ततयानुवृत्त्या

भजेत तत्पादसरोजगन्धम् ॥ ३८॥

अथेह धन्या भगवन्त इत्थं

यद्वासुदेवेऽखिललोकनाथे ।

कुर्वन्ति सर्वात्मकमात्मभावं

न यत्र भूयः परिवर्त उग्रः ॥ ३९॥

इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।

उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवान् ऋषिः ॥ ४०॥

निःश्रेयसाय लोकस्य धन्यं स्वस्त्ययनं महत् ।

तदिदं ग्राहयामास सुतमात्मवतां वरम् ॥ ४१॥

सर्ववेदेतिहासानां सारं सारं समुद्धृतम् ।

स तु संश्रावयामास महाराजं परीक्षितम् ॥ ४२॥

प्रायोपविष्टं गङ्गायां परीतं परमर्षिभिः ।

कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह ॥ ४३॥

कलौ नष्टदृशामेष पुराणार्कोऽधुनोदितः ।

तत्र कीर्तयतो विप्रा विप्रर्षेर्भूरितेजसः ॥ ४४॥

अहं चाध्यगमं तत्र निविष्टस्तदनुग्रहात् ।

सोऽहं वः श्रावयिष्यामि यथाधीतं यथामति ॥ ४५॥

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध तृतीय अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

श्रीसूतजी कहते हैं ;- सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महतत्व आदि से निष्पन्न पुरुष रूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूतये सोलह कलाएँ थीं ।  उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रम्हाजी उत्पन्न हुए । भगवान के उस विराट् रूप के अंग-प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान का विशुद्ध सत्वमय श्रेष्ठ रूप है । योगी लोग दिव्यदृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण है; उसमें सहस्त्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से वह उल्लसित रहता है । भगवान का यही पुरुष रूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष हैइसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है ।

     उन्हीं प्रभु ने पहले कौमार सर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमारइन चार ब्राम्हणों के रूप में अवतार ग्रहण अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रम्हचर्य का पालन किया।

दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिये समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान ने ही रसातल में गयी हुई पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सुकर रूप ग्रहण किया ।

 ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्र का (जिसे नारद-पांचरात्रकहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्म बन्धन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ।

धर्म पत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होंने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतार में उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की ।

 पाँचवें अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए और तत्वों का निर्णय करने वाले सांख्य-शास्त्र का, जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राम्हण को उपदेश किया ।अनसूया के वर माँगने पर छठे अवतार में वे अत्रि की सन्तानदत्तात्रेय हुए। इस अवतार में उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदि को ब्रम्हज्ञान का उपदेश किया।

सातवीं बार रूचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की ।

राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूप में उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग, जो सभी आश्रमियों के लिये वन्दनीय है, दिखाया ।

ऋषियों की प्रार्थना से नवीं बार वे राजा पृथु के रूप में अवतीर्ण हुए। शौनकादि ऋषियों! इस अवतार में उन्होंने पृथ्वी से समस्त ओषधियों का दोहन किया था, इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ ।

चाक्षुस मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वी रूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की ।

जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया ।

बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया ।

   चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त भगवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है ।

पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी ।

सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राम्हणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया ।

इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रुप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति का देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं ।

अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं ।

उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा ।

उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार)में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्र रूप में आपका बुद्धावतार होगा ।

इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे ही जायँगे, तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राम्हण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे ।

शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं । ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं । ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं । भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीयरहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियम पूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है । प्राकृत स्वरुपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महतत्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है । जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसर पने का वायु में आरोप करते हैंवैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्य रूप जगत् का आरोप करते हैं ।

 इस स्थूल रूप से परे भगवान का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप हैजो न तो स्थूल की तरह आकारादि गुणों वाला है और न देखने, सुनने में ही आ सकता है; वही सूक्ष्म शरीर है। आत्मा का आरोप या प्रवेश होने से यही जीव कहलाता है और इसी का बार-बार जन्म होता है । उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्या से ही आत्मा में आरोपित हैं। जिस अवस्था में आत्मस्वरुप के ज्ञान से यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रम्ह का साक्षात्कार होता है । तत्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वर की माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरुप-महिमा में प्रतिष्ठित होता है ।

   वास्तव में जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान के अप्राकृत जन्म और कर्मों का तत्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदों के अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं । भगवान की लीला अमोघ है। वे लीला सही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते। प्राणियों के अन्तःकरण में छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मन के नियन्ता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैंये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते । जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैस ही अपने अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत-सी तर्क-युक्तियों के द्वारा नहीं पहचान सकता । चक्रपाणि भगवान की शक्ति औरर पराक्रम अनन्त हैउनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत् के निर्माता होने पर भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरुप को अथवा उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भाव से उनके चरणकमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता हैसेवा भाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है ।

     शौनकादि ऋषियों! आप लोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवन में और विघ्न-बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरण रूप संसार के भयंकर चक्र में नहीं पड़ना होता । भगवान वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नाम का पुराण बनाया है । उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराण को लोगों के परम कल्याण के लिये अपने आत्मज्ञान शिरोमणि पुत्र को ग्रहण कराया । इसमें सारे वेद और इतिहासों का सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित् को यह सुनाया । उस समय वे परमर्षियों से घिरे हुए आमरण अनशन का व्रत लेकर गंगा तट पर बैठे हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदि के साथ अपने परम धाम को पधार गये, तब इस कलियुग में जो लोग अज्ञान रूपी अन्धकार से अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराण रूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियों! जब महातेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराण की कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपा पूर्ण अनुमति से इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धि ने जितना जिस प्रकार ग्रहण किया है, उसी के अनुसार इसे मैं आप लोगों को सुनाउँगा ।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे

 नैमिषीयोपाख्याने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥

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