श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ४  

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ४  

"राजा का सृष्टि विषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ"

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ४

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः २ अध्यायः ४

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्धः चतुर्थ अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण दूसरा स्कन्ध चौथा अध्याय

द्वितीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण

                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                       【चतुर्थ अध्याय:

सूत उवाच ।

वैयासकेरिति वचः तत्त्वनिश्चयमात्मनः ।

उपधार्य मतिं कृष्णे औत्तरेयः सतीं व्यधात् ॥ १ ॥

आत्मजायासुतागार पशुद्रविणबन्धुषु ।

राज्ये चाविकले नित्यं विरूढां ममतां जहौ ॥ २ ॥

पप्रच्छ चेममेवार्थं यन्मां पृच्छथ सत्तमाः ।

कृष्णानुभावश्रवणे श्रद्दधानो महामनाः ॥ ३ ॥

संस्थां विज्ञाय सन्न्यस्य कर्म त्रैवर्गिकं च यत् ।

वासुदेवे भगवति आत्मभावं दृढं गतः ॥ ४ ॥

राजोवाच ॥

समीचीनं वचो ब्रह्मन् सर्वज्ञस्य तवानघ ।

तमो विशीर्यते मह्यं हरेः कथयतः कथाम् ॥ ५ ॥

भूय एव विवित्सामि भगवान् आत्ममायया ।

यथेदं सृजते विश्वं दुर्विभाव्यमधीश्वरैः ॥ ६ ॥

यथा गोपायति विभुः यथा संयच्छते पुनः ।

यां यां शक्तिमुपाश्रित्य पुरुशक्तिः परः पुमान् ।

आत्मानं क्रीडयन्क्रीडन् करोति विकरोति च ॥ ७ ॥

नूनं भगवतो ब्रह्मन् हरेरद्‍भुतकर्मणः ।

दुर्विभाव्यमिवाभाति कविभिश्चापि चेष्टितम् ॥ ८ ॥

यथा गुणांस्तु प्रकृतेः युगपत् क्रमशोऽपि वा ।

बिभर्ति भूरिशस्त्वेकः कुर्वन् कर्माणि जन्मभिः ॥ ९ ॥

विचिकित्सितमेतन्मे ब्रवीतु भगवान् यथा ।

शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परस्मिंश्च भवान्खलु ॥ १० ॥

सूत उवाच ।

इत्युपामंत्रितो राज्ञा गुणानुकथने हरेः ।

हृषीकेशं अनुस्मृत्य प्रतिवक्तुं प्रचक्रमे ॥ ११ ॥

श्रीशुक उवाच ।

नमः परस्मै पुरुषाय भूयसे

    सदुद्‍भवस्थाननिरोधलीलया ।

गृहीतशक्तित्रितयाय देहिनां

    अंतर्भवायानुपलक्ष्यवर्त्मने ॥ १२ ॥

भूयो नमः सद्‌वृजिनच्छिदेऽसतां

    असंभवायाखिलसत्त्वमूर्तये ।

पुंसां पुनः पारमहंस्य आश्रमे

    व्यवस्थितानामनुमृग्यदाशुषे ॥ १३ ॥

नमो नमस्तेऽस्त्वृषभाय सात्वतां

    विदूरकाष्ठाय मुहुः कुयोगिनाम् ।

निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा

    स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः ॥ १४ ॥

यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं

    यद् वंदनं यच्छ्रवणं यदर्हणम् ।

लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं

    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १५ ॥

विचक्षणा यच्चरणोपसादनात्

    सङ्गं व्युदस्योभयतोऽन्तरात्मनः ।

विन्दन्ति हि ब्रह्मगतिं गतक्लमाः

    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १६ ॥

तपस्विनो दानपरा यशस्विनो

    मनस्विनो मंत्रविदः सुमङ्गलाः ।

क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं

    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १७ ॥

किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कशा

    आभीरकङ्का यवनाः खसादयः ।

येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः

    शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥ १८ ॥

स एष आत्मात्मवतामधीश्वरः

    त्रयीमयो धर्ममयस्तपोमयः ।

गतव्यलीकैरजशङ्करादिभिः

    वितर्क्यलिङ्गो भगवान्प्रसीदताम् ॥ १९ ॥

श्रियः पतिर्यज्ञपतिः प्रजापतिः

    धियां पतिर्लोकपतिर्धरापतिः ।

पतिर्गतिश्चान्धकवृष्णिसात्वतां

    प्रसीदतां मे भगवान् सतां पतिः ॥ २० ॥

यदङ्घ्र्यभिध्यानसमाधिधौतया

    धियानुपश्यन्ति हि तत्त्वमात्मनः ।

वदन्ति चैतत् कवयो यथारुचं

    स मे मुकुंदो भगवान् प्रसीदताम् ॥ २१ ॥

प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती

    वितन्वताऽजस्य सतीं स्मृतिं हृदि ।

स्वलक्षणा प्रादुरभूत् किलास्यतः

    स मे ऋषीणां ऋषभः प्रसीदताम् ॥ २२ ॥

भूतैर्महद्‌भिर्य इमाः पुरो विभुः

    निर्माय शेते यदमूषु पूरुषः ।

भुङ्क्ते गुणान् षोडश षोडशात्मकः

    सोऽलङ्कृषीष्ट भगवान् वचांसि मे ॥ २३ ॥

नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय वेधसे ।

पपुर्ज्ञानमयं सौम्या यन्मुखाम्बुरुहासवम् ॥ २४ ॥

एतद् एवात्मभू राजन् नारदाय विपृच्छते ।

वेदगर्भोऽभ्यधात् साक्षाद् यदाह हरिरात्मनः ॥ २५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

द्वितीयस्कंधे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध चतुर्थ अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

सूतजी कहते हैं ;- शुकदेवजी के वचन भगवतत्व का निश्चय कराने वाले थे। उत्तरानन्दन राजा परीक्षित् ने उन्हें सुनकर अपनी शुद्ध बुद्धि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य भाव से समर्पित कर दी । शरीर, पत्नी, पुत्र, महल, पशु, धन, भाई-बन्धु और निष्कण्टक राज्य में नित्य के अभ्यास के कारण उनकी दृढ़ ममता हो गयी थी। एक क्षण में ही उन्होंने उस ममता का त्याग कर दिया । शौनकादि ऋषियों! महामनस्वी परीक्षित् ने अपनी मृत्यु का निश्चित समय जान लिया था। इसलिये उन्होंने धर्म, अर्थ और काम से सम्बन्ध रखने वाले जितने भी कर्म थे, उसका संन्यास कर दिया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण में सुदृढ़ आत्मभाव को प्राप्त होकर बड़ी श्रद्धा से भगवान श्रीकृष्ण की महिमा सुनने के लिये उन्होंने श्रीशुकदेवजी से यही प्रश्न किया, जिसे आप-लोग मुझसे पूछ रहे हैं ।

परीक्षित् ने पूछा ;- भगवत्स्वरूप मुनिवर! आप परम पवित्र और सर्वज्ञ हैं। आपने जो कुछ कहा है, वह सत्य एवं उचित है। आप ज्यों-ज्यों भगवान की कथा कहते जा रहे हैं, त्यों-त्यों मेरे अज्ञान का परदा फटता जा रहा है । मैं आपसे फिर भी यह जानना चाहता हूँ कि भगवान अपनी माया से इस संसार की सृष्टि कैसे करते हैं। इस संसार की रचना तो इतनी रहस्यमयी है कि ब्रम्हादि समर्थ लोकपाल भी इसके समझने में भूल कर बैठते हैं । भगवान कैसे इस विश्व की रक्षा और फिर संहार करते हैं ? अनन्त शक्ति परमात्मा किन-किन शक्तियों का आश्रय लेकर अपने-आपको ही खिलौने बनाकर खेलते हैं ? वे बच्चों के बनाये हुए घरौंदों की तरह ब्रम्हाण्डो को कैसे बनाते हैं और फिर किस प्रकार बात-की-बात में मिटा देते हैं ?

भगवान श्रीहरि की लीलाएँ बड़ी ही अद्भुतअचिन्त्य हैं। इसमें संदेह नहीं कि बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी उनकी लीला का रहस्य समझना अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है । भगवान तो अकेले ही हैं। वे बहुत-से कर्म करने के लिये पुरुष रूप से प्रकृति के विभिन्न गुणों को एक साथ ही धारण करते हैं अथवा अनेकों अवतार ग्रहण करके उन्हें क्रमश धारण करते हैं । मुनिवर! आप वेद और ब्रम्हतत्व दोनों के पूर्ण मर्मज्ञ हैं, इसलिये मेरे इस सन्देह का निवारण कीजिये ।

सूतजी कहते हैं ;- जब राजा परीक्षित् ने भगवान के गुणों का वर्णन करने के लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजी ने भगवान श्रीकृष्ण का बार-बार स्मरण करके अपना प्रवचन प्रारम्भ किया ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- उन पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों में मेरे कोटि-कोटि प्रणाम हैं, जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करने एक लिये सत्व, रज तथा तमोगुण रूप तीन शक्तियों को स्वीकार कर ब्रम्हा, विष्णु और शंकर का रूप धारण करते हैं; जो समस्त चर-अचर प्राणियों के ह्रदय में अन्तर्यामी रूप से विराजमान हैं, जिसका स्वरुप और उसकी उपलब्धि का मार्ग बुद्धि के विषय नहीं है; जो स्वयं अनन्त हैं तथा जिनकी महिमा भी अनन्त है । हम पुनः बार-बार उनके चरणों में नमस्कार करते हैं, जो सत्पुरुषों का दुःख मिटाकर उन्हें अपने प्रेम का दान करते हैं, दुष्टों की सांसारिक बढ़ती रोककर उन्हें मुक्ति देते हैं तथा जो लोग परमहंस आश्रम में स्थित हैं, उन्हें उनकी भी अभीष्ट वस्तु का दान करते हैं। क्योंकि चर-अचर समस्त प्राणी उन्हीं की मूर्ति हैं, इसलिये किसी से भी उनका पक्षपात नहीं है ।

जो बड़े ही भक्तवत्सल हैं और हठपूर्वक भक्तिहीन साधन करने वाले लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते; जिनके समान भी किसी का ऐश्वर्य नहीं है; फिर उससे अधिक तो हो ही कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वर्य से युक्त होकर जो निरन्तर ब्रम्हस्वरुप अपने धाम में विहार करते रहते हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ । जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन जीवों के पापों को तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण को बार-बार नमस्कार है । विवेकी पुरुष जिनके चरणकमलों की शरण लेकर अपने हृदय से इस लोक और परलोक की आसक्ति निकाल डालते हैं और बिना किसी परिश्रम के ही ब्रम्हपद को प्राप्त कर लेते हैं, उन मंगलमय कीर्ति वाले भगवान श्रीकृष्ण को अनेक बार नमस्कार है । बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, सदाचारी और मन्त्रवेत्ता जब तक अपनी साधनाओं को तथा अपने-आपको उनके चरणों में समर्पित नहीं कर देते, तब तक उन्हें कल्याण की प्राप्ति नहीं होती। जिनके प्रति आत्म समर्पण की ऐसी महिमा है, उन कल्याणमयी कीर्ति वाले भगवान को बार-बार नमस्कार है ।

किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आदि नीच जातियाँ तथा दूसरे पापी जिनके शरणागत भक्तों की शरण ग्रहण करने से ही पवित्र हो जाते हैं, उन सर्वशक्तिमान् भगवान को बार-बार नमस्कार है । वे ही भगवान ज्ञानियों के आत्मा हैं, भक्तों के स्वमी हैं, कर्मकाण्डियों के लिये वेदमूर्ति हैं, धार्मिकों के लिये धर्ममूर्ति हैं और तपस्वियों के लिये तपःस्थल हैं। ब्रम्हा, शंकर आदि बड़े-बड़े देवता भी अपने शुद्ध ह्रदय से उनके स्वरुप का चिन्तन करते और आश्चर्यचकित होकर देखते रहते हैं। वे मुझ पर अपने अनुग्रह कीप्रसाद की वर्षा करें । जो समस्त सम्पत्तियों की स्वामिनी लक्ष्मीदेवी के पति हैं, समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं फलदाता हैं, प्रजा के रक्षक हैं, सबके अन्तर्यामी और समस्त लोकों के पालनकर्ता हैं तथा पृथ्वी देवी के स्वामी हैं, जिन्होंने यदुवंश में प्रकट होकर अन्धक, वृष्णि एवं यदुवंश के लोगों की रक्षा की है तथा जो उन लोगों के एकमात्र आश्रय रहे हैंवे भक्तवत्सल, संतजनों के सर्वस्व श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों । विद्वान् पुरुष जिनके चरणकमलों के चिन्तन रूप समाधि से शुद्ध हुई बुद्धि के द्वारा आत्म तत्व का साक्षात्कार करते हैं तथा उनके दर्शन के अनन्तर अपनी-अपनी मति और रूचि के अनुसार जिनके स्वरुप का वर्णन करते रहते हैं, वे प्रेम और मुक्ति के लुटाने वाले भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों । जिन्होंने सृष्टि के समय ब्रम्हा के ह्रदय में पूर्वकल्प की स्मृति जागरित करने के लिये ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी को प्रेरित किया और वे अपने अंगों के सहित वेद के रुप में उनके मुख से प्रकट हुईं, वे ज्ञान के मूल कारण भगवान मुझ पर कृपा करें, मेरे ह्रदय में प्रकट हों । भगवान ही पंचमहाभूतों से इन शरीरों का निर्माण करके इनमें जीव रूप से शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मनइन सोलह कलाओं से युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयों का भोग करते हैं। वे सर्वभूतमय भगवान मेरी वाणी को अपने गुणों से अलंकृत कर दें । संत पुरुष जिनके मुखकमल से मकरन्द के समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधा का पान करते रहते हैं उन वासुदेवावतर सर्वज्ञ भगवान व्यास के चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार है । परीक्षित्! वेद गर्भ स्वयम्भू ब्रम्हा ने नारद के प्रश्न करने पर यही बात कही थी, जिसका स्वयं भगवान नारायण ने उन्हें उपदेश किया था (और वही मैं तुमसे कर रहा हूँ) ।

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का  पारमहंस्या संहिताया द्वितीय स्कन्ध चतुर्थ अध्याय समाप्त हुआ ॥ ४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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