नरसिंहपुराण अध्याय १३

नरसिंहपुराण अध्याय १३   

नरसिंहपुराण अध्याय १३ में पतिव्रता की शक्ति; उसके साथ एक ब्रह्मचारी का संवाद माता की रक्षा परम धर्म है, इसका उपदेश का वर्णन है।

नरसिंहपुराण अध्याय १३

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय १३   

Narasingha puran chapter 13

नरसिंह पुराण तेरहवाँ अध्याय

नरसिंहपुराण अध्याय १३     

श्रीनरसिंहपुराण त्रयोदशोऽध्यायः

॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥

श्रीशुक उवाच

विचित्रेयं कथा तात वैदिकी मे त्वयेरिता ।

अन्याः पुण्याश्चमे ब्रूहि कथाः पापप्रणाशिनीः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोले - तात ! आपने जो यह वैदिक कथा मुझे सुनायी है, बड़ी विचित्र है । अब दूसरी पापनाशक कथाओंका मेरे सम्मुख वर्णन कीजिये ॥१॥

व्यास उवाच

अहं ते कथयिष्यामि पुरावृत्तमनुत्तमम् ।

पतिव्रतायाः संवादं कस्यचिद्व्रह्यचारिणः ॥२॥

कश्यपो नीतिमान् नाम ब्राम्हणो वेदपारगः ।

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो व्याख्याने परिनिष्ठतः ॥३॥

स्वधर्मकार्यनिरतः परधर्मपराङ्मुखः ।

ऋतुकालाभिगामी च अग्निहोत्रपरायणः ॥४॥

सायंप्रातर्महाभाग हुत्वाग्निं तर्पयन् द्विजान ।

अतिथीनागतान् गेहं नरसिंहं च पूजयत् ॥५॥

तस्य पत्नी महाभागा सावित्री नाम नामतः ।

पतिव्रता महाभागा पत्युः प्रियहिते रता ॥६॥

भर्तुः शुश्रूषणेनैव दीर्घकालमनिन्दिता ।

परोक्षज्ञानमापन्ना कल्याणी गुणसम्मता ॥७॥

तया सह स धर्मात्मा मध्यदेशे महामतिः ।

नन्दिग्रामे वसन् धीमान् स्वानुष्ठानपरायणः ॥८॥

व्यासजी बोले - बेटा ! अब मैं तुमसे उस परम उत्तम प्राचीन इतिहासका वर्णन करुँगा, जो किसी ब्रह्मचारी और एक पतिव्रता स्त्रीका संवादरुप है । ( मध्यदेशमें ) एक कश्यप नामक ब्राह्मण रहते थे, जो बड़े ही नीतिज्ञ, वेद - वेदाङ्गोंके पारंगत विद्वान्, समस्त शास्त्रोंके अर्थ एवं तत्त्वके ज्ञाता, व्याख्यानमें प्रवीण, अपने धर्मके अनुकूल कार्योंमे तत्पर और परधर्मसे विमुख रहनेवाले थे । वे ऋतुकाल आनेपर ही पत्नी - समागम करते और प्रतिदिन अग्निहोत्र किया करते थे । महाभाग ! कश्यपजी नित्य सायं और प्रातःकाल अग्निमें हवन करनेके पश्चात् ब्राह्मणों तथा घरपर आये हुए अतिथियोंको तृप्त करते हुए भगवान् नृसिंहका पूजन किया करते थे । उनकी परम हुए भगवान् नृसिंहका पूजन किया करते थे । उनकी परम सौभाग्यशालिनी पत्नीका नाम सावित्री था । महाभागा सावित्री पतिव्रता होनेके कारण पतिके ही प्रिय और हितसाधनमें लगी रहती थी । अपने गुणोंके कारण उसका बड़ा सम्मान था । वह कल्याणमयी अनिन्दिता सतीसाध्वी दीर्घकालतक पतिकी शुश्रूषामें संलग्न रहनेके कारण परोक्ष - ज्ञानसे सम्पन्न हो गयी थी - परोक्षमें घटित होनेवाली घटनाओंका भी उसे ज्ञान हो जाता था । मध्यदेशके निवासी वे धर्मात्मा एवं परम बुद्धिमान् कश्यपजी अपनी उसी धर्मपत्नीके साथ नन्दिग्राममें रहते हुए स्वधर्मके अनुष्ठानमें लगे रहते थे ॥२ - ८॥

अथ कौशलिको विप्रो यज्ञशर्मा महामतिः ।

तस्य भार्याभवत् साध्वी रोहिणी नाम नामतः ॥९॥

सर्वलक्षणसम्पन्ना पतिशुश्रूषणे रता ।

सा प्रसूता सुतं त्वेकं तस्माद्भर्तुरनिन्दिता ॥१०॥

स यायावरवृत्तिस्तु पुत्रे जाते विचक्षणः ।

जातकर्म तदा चक्रे स्नात्वा पुत्रस्य मन्त्रतः ॥११॥

द्वादशेऽहनि तस्यैव देवशर्मेति बुद्धिमान ।

पुण्याहं वाचयित्वा तु नाम चक्रे यथाविधि ॥१२॥

उपनिष्क्रमणं चैव चतुर्थे मासि यत्नतः ।

तथान्नप्राशनं षष्ठे मासि चक्रे यथाविधि ॥१३॥

उन्हीं दिनों कोशलदेशमें उत्पन्न यज्ञशर्मा नामक एक परम बुद्धिमान् ब्राह्मण थे, जिनकी सती - साध्वी स्त्रीका नाम रोहिणी था । वह समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी और पतिकी सेवामें सदा तत्पर रहती थी । उस उत्तम आचार - विचारवाली स्त्रीने अपने स्वामी यज्ञशर्मसे एक पुत्र उत्पन्न किया । पुत्रके उत्पन्न होनेपर यायावर - वृतिवाले बुद्धिमान् पण्डित यज्ञशर्माने स्नान करके मन्त्रोंद्वारा उसका जातकर्म - संस्कार किया और जन्मके बारहवें दिन उन्होंने विधिपूर्वक पुण्याहवाचन कराकर उसका ' देवशर्मा ' नाम रखा । इसी प्रकार चौथे महीनेमें यत्नपूर्वक उसका उपनिष्क्रमण हुआ अर्थात् वह घरसे बाहर लाया गया और छठे मासमें उन्होंने उस पुत्रका विधिपूर्वक अन्नप्राशन - संस्कार किया ॥९ - १३॥

संवत्सरे ततः पूर्णे चूडाकर्म च धर्मवित् ।

कृत्वा गर्भाष्टमे वर्षे व्रतबन्धं चकार सः ॥१४॥

सोपनीतो यथान्यायं पित्रा वेदमधीतवान् ।

स्वीकृते त्वेकवेदे तु पिता स्वर्लोकमास्थितः ॥१५॥

मात्रा सहास दुःखी स पितर्युपरते सुतः ।

धैर्यमास्थाय मेधावी साधुभिः प्रेरितः पुनः ॥१६॥

प्रेतकार्याणि कृत्वा तु देवशर्मा गतः सुतः ।

गङ्गादिषु सुतीर्थेषु स्नानं कृत्वा यथाविधि ॥१७॥

तमेव प्राप्तवान् ग्रामं यत्रास्ते सा पतिव्रता ।

सम्प्राय विश्रुतः सोऽथ ब्रह्मचारी महामते ॥१८॥

भिक्षाटनं तु कृत्वासौ जपन् वेदमतन्द्रितः ।

कुर्वन्नेवाग्निकार्यं तु नन्दिग्रामे च तस्थिवान् ॥१९॥

मृते भर्तरि तन्माता पुत्रे प्रव्रजिते तु सा ।

दुःखाददुःखमनुप्राप्ता नियतं रक्षकं विना ॥२०॥

तदनन्तर एक वर्ष पूर्ण होनेपर धर्मज्ञ पिताने उसका चूडाकर्म और गर्भसे आठवें वर्षभर उनयन - संस्कार हो अध्ययन पूर्ण हो जानेपर उसके पिता । उनके पिता स्वर्गगामी हो गये । पिताकी मृत्यु होनेपर वह अपनी माताके साथ बहुत दुःखी हो गया । फिर श्रेष्ठ पुरुषोंकी आज्ञासे उस बुद्धिमान् पुत्रने धैर्य धारण करके पिताका प्रेतकार्य किया । इसके पश्चात् ब्राह्मणकुमार देवशर्मा घरसे निकल गया ( विरक्त हो गया ) वह गङ्गा आदि उत्तम तीर्थोंमे विधिपूर्वक स्नान करके घूमता हुआ वहीं जा पहुँचा । जहाँ वह पतिव्रता सावित्री निवास करती थी । महासते ! वहाँ जाकर वह ' ब्रह्मचारी ' के रुपमें विख्यात हुआ । भिक्षाटन करके जीवन - निर्वाह करता हुआ वह आलस्यरहित हो वेदके स्वाध्याय तथ अग्निहोत्रमें तत्पर रहकर उसी नन्रिग्राममे रहने लगा । इधर उस की माता अपने स्वामीके मरने और पुत्रके विरक्त होकर घरसे निकल जानेके बाद किसी नियत रक्षकके न होनेसे दुःख - पर - दुःख भोगने लगी ॥१४ - २०॥

अथ स्त्रावा तु नद्यां वै ब्रह्मचारी स्वकर्पटम् ।

क्षितौ प्रसार्य शोषार्थं जपन्नासीत वाग्यतः ॥२१॥

काको बलाका तद्वस्त्रं परिगृह्याशु जग्मतुः ।

तौ दृष्ट्वा भर्त्सयामास देवशर्मा ततो द्विजः ॥२२॥

विष्ठामुत्सृज्य वस्त्रे तु जग्मतुस्तस्य भर्त्सनात् ।

रोषेण वीक्षयामास खे यान्तौ पक्षिणौ तु सः ॥२३॥

तद्रोषवह्निना दग्धौ भूम्यां निपतितौ खगौ ।

स दृष्ट्वा तौ क्षितिं यातौ पक्षिणौ विस्मयं गतः ॥२४॥

तपसा न मया कश्चित् सदृशोऽ‍स्ति महीतले ।

इति मत्त्वा गतो भिक्षामटितुं ग्राममञ्जसा ॥२५॥

तदनन्तर एक दिन ब्रह्मचारीने नदीमें स्नान करके अपना वस्त्र सुखानेके लिये पृथ्वीपर फैला दिया और स्वयं मौन होकर जप करने लगा । इसी समय एक कौआ और बगुला - दोनों वह वस्त्र लेकर शीघ्रतासे उड़ चले । तब उन्हें इस प्रकार करते देख देवशर्मा ब्राह्मणने डाँट बतायी । उसकी डाँट सुनकर वे पक्षी उस वस्त्रपर बीट करके उसे वहीं छोड़कर चले गये । तब ब्राह्मणने आकाशमें जाते हुए उन पक्षियोंकी ओर क्रोधपूर्वक देखा । वे पक्षी उसकी क्रोधाग्रिसे भस्म होकर पृथ्वीपर गिर पड़े । उन्हें पृथ्वीपर गिरा देख ब्रह्मचारी बहुत ही विस्मित हुआ । फिर वह यह समझकर कि इस पृथ्वीपर तपस्यामें मेरी बराबरी करनेवाला कोई नहीं है, अनायास ही गाँवमें भिक्षा माँगने चला ॥२१ - २५॥

अटन् ब्राह्मणगेहेषु ब्रह्मचारी तपः स्मयी ।

प्रविष्टस्तदगृहं वत्स गृहे यत्र पतिव्रता ॥२६॥

तं दृष्ट्वा याच्यमानापि तेन भिक्षां पतिव्रता ।

वाग्यता पूर्वं विज्ञाय भर्तुः कृत्वानुशासनम् ॥२७॥

क्षालयामास तत्पादौ भूय उष्णेन वारिणा ।

आश्वास्य स्वपतिं सा तु भिक्षां दातुं प्रचक्रमे ॥२८॥

ततः क्रोधेन रक्ताक्षो ब्रह्मचारी पतिव्रताम् ।

दग्धुकामस्तपोवीर्यात् पुनः पुनरुदैक्षत ।

सावित्री तु निरीक्ष्यैवं हसन्ती सा तमब्रवीत् ॥२९॥

न काको न बलाकाहं त्वत्क्रोधेन तु यौ मृतौ ।

नदीतीरेऽद्य कोपात्मन् भिक्षां मत्तो यदीच्छसि ॥३०॥

वत्स ! तपस्याका अभिमान रखनेवाला वह ब्रह्मचारी ब्राह्मणोंके घरोंमें भीख माँगता हुआ उस घरमें गया, जहाँ वह पतिव्रता सावित्री रहती थी । पतिव्रताने उसे देखा, ब्रह्मचारीने भिक्षाके लिये उससे याचना की, तो भी वह मौन ही रही । पहले उसने अपने स्वामीके आदेशकी ओर ध्यान दे उसीका पालन किया; फिर गरम जलसे पतिके चरण धोये - इस प्रकार स्वामीको आराम देकर वह भिक्षा देनेको उद्यत हुई । तब ब्रह्मचारी क्रोधसे लाल आँखें करके अपने तपोबलके द्वारा पतिव्रताको जला देनेकी इच्छासे उसकी ओर बारंबार देखने लगा । सावित्री उसे यों करते देख हँसती हुई बोली - ' ऐ क्रोधी ब्राह्मण ! मैं कौआ और बगुला नहीं हूँ, जो आज नदीके तटपर तुम्हारे कोपसे जलकर भस्म हो गये थे । मुझसे यदि भीख चाहते हो, तो चुपचाप ले लो ' ॥२६ - ३०॥

तयैवमुक्तः सावित्र्या भिक्षामादाय सोऽग्रतः ।

चिन्तयन् मनसा तस्याः शक्तिं दूरार्थवेदिनीम् ॥३१॥

एत्याश्रमे मठे स्थाप्य भिक्षापात्रं प्रयत्नतः ।

पतिव्रतायां भुक्तायां गृहस्थे निर्गते पतौ ॥३२॥

पुनरागम्य तद्गेहं तामुवाच पतिव्रताम् ।

सावित्रीके यों कहनेपर उससे भिक्षा लेकर वह आगे चला और उसकी दूरवर्ती घटनाको जान लेनेवाली शक्तिका मन - ही - मन चिन्तन करता हुआ अपने आश्रमपर पहुँचा । वहाँ भिक्षापात्रको यत्नपूर्वक मठमें रखकर जब पतिव्रता भोजनसे निवृत्त हो गयी और जब उसका गृहस्थ पति घरसे बाहर चला गया, तब वह पुनः उसके घर आया और उस पतिव्रतासे बोला ॥३१ - ३२१/२॥

ब्रह्मचार्युवाच

प्रबूह्येतन्महाभागे पृच्छतो मे यथार्थतः ॥३३॥

विप्रकृष्टार्थविज्ञानं कथमाशु तवाभवत् ।

ब्रह्मचारीने कहा - महाभागे ! मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ, तुम मुझे यथार्थरुपसे बताओ, तुम्हें दूरकी घटनाका ज्ञान इतना शीघ्र कैसे हो गया ? ॥३३१/२॥

इत्युक्ता तेन सा साध्वी सावित्री तु पतिव्रता ॥३४॥

तं ब्रह्मचारिणं प्राह पृच्छन्तं गृहमेत्य वै ।

श्रृणुष्वावहितो ब्रह्मन् यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥३५॥

तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि स्वधर्मपरिबृंहितम् ।

स्त्रीणां तु पतिशुश्रूषा धर्म एषः परिस्थितः ॥३६॥

तमेवाहं सदा कुर्यां नान्यमस्मि महामते ।

दिवारात्रमसंदिग्धं श्रद्धया परितोषणम् ॥३७॥

कुर्वन्त्या मम सम्भूतं विप्रकृष्टार्थदर्शनम् ।

अन्यच्च ते प्रवक्ष्यामि निबोध त्वं यदीच्छसि ॥३८॥

पिता यायावरः शुद्धस्तस्माद्वेदमधीत्य वै ।

मृते पितरि कृत्वा तु प्रेतकार्यमिहागतः ॥३९॥

उत्सृज्य मातरं द्रष्टुं वृद्धां दीनां तपस्विनीम् ।

अनाथां विधवामत्र नित्यं स्वोदरपोषकः ॥४०॥

यया गर्भे धृतः पूर्वं पालितो लालितस्तथा ।

तां त्यक्त्वा विपिने धर्मं चरन् विप्र न लज्जसे ॥४१॥

यया तव कृतं ब्रह्मन् बाल्ये मलानिकृन्तनम् ।

दुःखितां तां गृहे त्यक्त्वा किं भवेद्विपिनेऽटतः ॥४२॥

मातृदुःखेन ते वक्त्रं पूतिगन्धमिदं भवेत् ।

पित्रैव संस्कृतो यस्मात् तस्माच्छक्तिरभूदियम् ॥४३॥

पक्षी दग्धः सुदुर्बुद्धे पापात्मन् साम्प्रतं वृथा ।

वृथा स्नानं वृथा तीर्थं वृथा हुतम् ॥४४॥

स जीवति वृथा ब्रह्मन् यस्य माता सुदुःखिता ।

यो रक्षेत् सततं भक्त्या मातरं मातृवत्सलः ॥४५॥

तस्येहानुष्ठितं सर्वं फलं चामुत्र चेह हि ।

मातुश्च वचनं ब्रह्मन् पालितं यैर्नरोत्तमैः ॥४६॥

ते मान्यास्ते नमस्कार्या इह लोके परत्र च ।

अतस्त्वं तत्र गत्वाद्य यत्र माता व्यवस्थिता ॥४७॥

तां त्वं रक्षय जीवन्तीं तद्रक्षा ते परं तपः ।

क्रोधं परित्यजैनं त्वं दृष्टादृष्टविघातकम् ॥४८॥

तयोः कुरु वधे शुद्धिं पक्षिणोरात्मशुद्धये ।

याथातथ्येन कथितमेतत्सर्वं मया तव ॥४९॥

ब्रह्मचारिन् कुरुष्व त्वं यदीच्छसि सतां गतिम् ।

उसके यों कहनेपर वह साध्वी पतिव्रता सावित्री घर आकर प्रश्न करनेवाले उस ब्रह्मचारीसे यों बोली - ' ब्रह्मन् ! तुम मुझसे जो कुछ पूछते हो, उसे सावधान होकर सुनो स्वधर्म - पालनसे बढ़े हुए अपने परोक्षज्ञानके विषयमें मैं तुमसे भलीभाँति बताऊँगी । पतिकी सेवा करना ही स्त्रियोंका सुनिश्चित परम धर्म है । महामते ! मैं सदा उसी धर्मका पालन करती हूँ, किसी अन्य धर्म नहीं । निस्संदेह मैं दिन - रात श्रद्धापूर्वक पतिको संतुष्ट करती रहती हूँ, इसीलिये मुझे दूर होनेवाली घटनाका भी ज्ञान हो जाता है । मैं तुम्हें कुछ और भी बताऊँगी; तुम्हारी इच्छा हो, तो सुनो - ' तुम्हारे पिता यज्ञशर्मा यायावर - वृत्तिके शुद्ध ब्राह्मण थे । उनसे ही तुमने वेदाध्ययन किया था । पिताके मर जानेपर उनका प्रेतकार्य करके तुम यहाँ चले आये । दीन - अवस्थामें पड़कर कष्ट भोगती हुई उस अनाथ विधवा वृद्धा माताकी देख - भाल करना छोड़कर तुम यहाँ रोज अपना ही पेट भरनेमें लगे हुए हो । ब्राह्मण ! जिसने पहले तुम्हें गर्भसें धारण किया और जन्मके बाद तुम्हारा लालन - पालन किया, उसे असहायावस्थामें छोड़कर वनमें धर्माचरण करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती ? ब्रह्मन ! जिसने बाल्यावस्थामें तुम्हारा मल - मूत्र साफ किया था, उस दुखिया माताको घरमें अकेली छोड़कर वनमें घूमनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा ? माताके कष्टसे तुम्हारा मुँह दुर्गन्धयुक्त हो जायगा । तुम्हारे पिताने ही तुम्हारा उत्तम संस्कार कर दिया था, जिससे तुम्हें यह शक्ति प्राप्त हुई है । दुर्बुद्धि पापात्मन ! तुमने व्यर्थ ही पक्षियोंको जलाया । इस समय तुम्हारा किया हुआ स्नान, तीर्थसेवन, जप और होम - सब व्यर्थ है । ब्रह्मन् ! जिसकी माता अत्यन्त दुःखमें पड़ी हो, वह व्यर्थ ही जीवन धारण करता है । जो पुत्र मातापर दया करके भक्तिपूर्वक निरन्तर उसकी रक्षा करता है, उसका किया हुआ सब कर्म यहाँ और परलोकमें भी फलप्रद होता है । ब्रह्मन् ! जिन उत्तम पुरुषोंने माताके वचनका पालन किया है, वे इस लोक और परलोकमें भी माननीय तथा नमस्कारके योग्य हैं । अतः जहाँ तुम्हारी माता है, वहाँ जाकर उसके जीते - जी उसीकी रक्षा करो । उसकी रक्षा करना ही तुम्हारे लिये परम तपस्या है । इस क्रोधको त्याग दो; क्योंकि यह तुम्हारे दृष्ट और अदृष्ट सभी कर्मोंको नष्ट करनेवाला है । उन पक्षियोंकी हत्याके पापसे अपनी शुद्धिके लिये तुम प्रायश्चित करो । यह सब मैंने तुमसे यथार्थ बातें कही है । ब्रह्मचारिन् ! यदि तुम सत्पुरुषोंकी गतिको प्राप्त करना चाहते हो तो मेरे कहे अनुसार करो ' ॥३४ - ४९१/२॥

इत्युक्त्वा विररामाथ द्विजपुत्रं पतिव्रता ॥५०॥

सोऽपि तामाह भूयोऽपि सावित्रीं तु क्षमापयन् ।

अज्ञानात्कृतपापस्य क्षमस्व वरवर्णिनि ॥५१॥

मया तवाहितं यच्च कृतं क्रोधनिरीक्षणम् ।

तत् क्षमस्व महाभागे हितमुक्तं पतिव्रते ॥५२॥

तत्र गत्वा मया यानि कर्माणि तु शुभव्रते ।

कार्याणि तानि मे ब्रूहि यथा मे सुगतिर्भवेत् ॥५३॥

ब्राह्मणकुमारसे यों कहकर वह पतिव्रता चुप हो गयी । तब ब्रह्मचारी भी पुनः अपने अपराधके लिये क्षमा माँगता हुआ सावित्रीसे बोला - ' वरवर्णिनि ! अनजानमें किये हुए मेरे इस पापको क्षमा करो । महाभागे ! पतिव्रते ! तुमने मेरे हितकी ही बात कही है । मैंने जो क्रोधपूर्वक तुम्हारी ओर देखकर तुम्हारा अपराध किया था, उसे क्षमा कर दो । शुभव्रते ! अब मुझे माताके पास जाकर जिन कर्तव्योंका पालन करना चाहिये, उन्हें बताओ, जिनके करनेसे मेरी शुभगति हो ' ॥५० - ५३॥

तेनैवमुक्ता साप्याह तं पृच्छन्तं पतिव्रता ।

यानि कार्याणि वक्ष्यामि त्वया कर्माणि मे श्रृणु ॥५४॥

पोष्या माता त्वया तत्र निश्चयं भैक्षवृत्तिना ।

अन्न वा तत्र वा ब्रह्मन् प्रायश्चित्तं च पक्षिणोः ॥५५॥

यज्ञशर्मसुता कन्या भार्या तव भविष्यति ।

तां गृह्णीष्व च धर्मेण गते त्वयि स दास्यति ॥५६॥

पुत्रस्ते भविता तस्यामेकः संततिवर्धनः ।

यायावरधनादवृत्तिः पितृवत्ते भविष्यति ॥५७॥

पुनर्मृतायां भार्यायां भविता त्वं त्रिदण्डकः ।

स यत्याश्रमधर्मेण यथोक्त्यानुष्ठितेन च ।

नरसिंहप्रसादेन वैष्णवं पदमाप्स्यासि ॥५८॥

भाव्यमेतत्तु कथितं मया तव हि पृच्छतः ।

मन्यसे नानृतं त्वेतत् कुरु सर्वं हि मे वचः ॥५९॥

उसके इस प्रकार कहनेपर उस पूछनेवाले ब्राह्मणसे पतिव्रता सावित्री पुनः बोली - '' ब्रह्मन् ! वहाँ तुमको जो कर्म करने चाहिये, उन्हें बतलाती हूँ; सुनो - ' तुम्हे भिक्षावृत्तिसे जीवननिर्वाह करते हुए वहाँ माताका निश्चय ही पोषण करना चाहिये और पक्षियोंकी हत्याका प्रायश्चित यहाँ अथवा वहाँ अवश्य करना चाहिये । यज्ञशर्माकी पुत्री तुम्हारी पत्नी होगी । उसे ही तुम धर्मपूर्वक ग्रहण करो । तुम्हारे जानेपर यज्ञशर्मा अपनी कन्या तुम्हें दे देंगे । उसके गर्भसे तुम्हारी वंश - परम्पराको बढ़ानेवाला एक पुत्र होगा । पिताकी भाँति यायावरवृत्तिसे प्राप्त हुए धनसे ही तुम अपनी जीविका चलाओगे । फिर तुम अपनी पत्नीकी मृत्युके बाद त्रिदण्डी ( संन्यासी ) हो जाओंगे । वहाँ संन्यासाश्रमके लिये शास्त्रविहित धर्मका यथावत् रुपसे पालन करनेपर भगवान् नरसिंहकी प्रसन्नतासे तुम विष्णुपदको प्राप्त कर लोगे । ' तुम्हारे पूछनेपर मैंने ये भविष्यमें होनेवाली बातें तुमसे बताला दी हैं । यदि तुम इन्हें असत्य नहीं मानते, तो मेरे सब वचनोंका पालन करो '' ॥५४ - ५९॥

ब्राह्मण उवाच

गच्छामि मातृरक्षार्थमद्यैवाहं पतिव्रते ।

करिष्ये त्वद्वचः सर्वं तत्र गत्वा शुभेक्षणे ॥६०॥

ब्राह्मण बोला - पतिव्रते ! मैं माताकी रक्षाके लिये आज ही जाता हूँ । शुभेक्षणे ! वहाँ जाकर तुम्हारी सब बातोंका मैं पालन करुँगा ॥६०॥

इत्युक्त्वा गतवान् ब्रह्मन् देवशर्मा ततस्त्वरन् ।

संरक्ष्य मातरं यत्नात् क्रोधमोहविवर्जितः ॥६१॥

कृत्वा विवाहमुत्पाद्य पुत्रं वंशकरं शुभम् ।

मृतभार्यश्च संन्यस्य समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।

नरसिंहप्रसादेन परां सिद्धिमवाप्तवान् ॥६२॥

पतिव्रताशक्तिरियं तवेरिता धर्मश्च मातुः परिरक्षणं परम् ।

संसारवृक्षं च निहत्य बन्धनं छित्त्वा च विष्णोः पदमेति मानवः ॥६३॥

ब्रह्मन् ! यों कहकर देवशर्मा वहाँसे शीघ्रतापूर्वक चला गया और क्रोध तथा मोहसे रहित होकर उसने यत्नपूर्वक माताकी रक्षा की । फिर विवाह करके एक सुन्दर वंशवर्धक पुत्र उत्पन्न किया और कुछ कालके बाद पत्नीकी मृत्यु हो जानेपर संन्यासी होकर ढेले और मिट्टीको बराबर समझते हुए उसने भगवान् नृसिंहकी कृपासे परमसिद्धि ( मोक्ष ) प्राप्त कर ली । यह मैंने तुमसे पतिव्रताकी शक्ति बतायी और यह भी बतलाया कि माताकी रक्षा करना परम धर्म है । संसारवृक्षका उच्छेद करके सब बन्धनोंको तोड़ देनेपर मनुष्य विष्णुपदको प्राप्त करता है ॥६१ - ६३॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे ब्रह्मचारिसंवादो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें 'पतिव्रता और ब्रह्मचारी का संवाद' विषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१३॥

आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 14 

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