नरसिंहपुराण अध्याय १२
नरसिंहपुराण अध्याय १२ में यम और
यमी का संवाद * का वर्णन है।
श्रीनरसिंहपुराण अध्याय १२
Narasingha puran
chapter 12
नरसिंह पुराण बारहवाँ अध्याय
नरसिंहपुराण अध्याय १२
श्रीनरसिंहपुराण द्वादशोऽध्यायः
॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥
सूत उवाच
श्रुत्वेमाममृतां पुण्यां
सर्वपाप्रणाशिनीम् ।
अवितृप्तः स धर्मात्मा शुको
व्यासमभाषत ॥१॥
सूतजी बोले - समस्त पापोंको नष्ट
करनेवाली और अमृतके समान मधुर इस पावन कथाको सुनकर धर्मात्मा शुकदेवजी तृप्त न हुए
- उनकी श्रवणविषयक इच्छा बढ़ती ही गयी; अतः
वे व्यासजीसे बोले ॥१॥
श्रीशुक उवाच
अहोऽतीव तपश्चर्या मार्कण्डेयस्य
धीमतः ।
येन दृष्टो हरिः साक्षाद्येन
मृत्युः पराजितः ॥२॥
न तृप्तिरस्ति मे तात श्रुत्वेमां
वैष्णवीं कथाम् ।
पुण्यां पापहरां तात तस्मादन्यत्तु
मे वद ॥३॥
नराणां दृढचित्तानामकार्यं नेह
कुर्वताम् ।
यत्पुण्यमृषिभिः प्रोक्तं तन्मे वद
महामते ॥४॥
श्रीशुकदेवजी बोले - पिताजी !
बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीकी तपस्या बड़ी भारी और अद्भुत है,
जिन्होंने साक्षात् भगवान् विष्णुका दर्शन किया और मृत्युपर विजय
पायी । तात ! पापोंको नष्ट करनेवाली इस विष्णु - सम्बन्धिनी पावन कथाको सुनकर मुझे
तृप्ति नहीं हो रही हैं; अतः अब मुझसे कोई दूसरी कथा कहिये ।
महामते ! जिनका मन सुदृढ़ है, जो इस जगतमें कभी निषिद्ध कर्म
नहीं करते, उन मनुष्योंको जिस पुण्यकी प्राप्ति ऋषियोंने
बतायी है, उसे ही आप कहिये ॥२ - ४॥
व्यास उवाच
नराणां दृढचित्तानामिह लोके परत्र च
।
पुण्यं यत् स्यान्मुनिश्रेष्ठ तन्मे
निगदतः श्रृणु ॥५॥
अत्रैवोदाहरन्तीमितिहासं पुरातनम् ।
यम्या च सह संवादं यमस्य च महात्मनः
॥६॥
विवस्वानदितेः पुत्रस्तस्य पुत्रौ
सुवर्चसौ ।
जज्ञाते स यमश्चैव यमी चापि यवीयसी
॥७॥
तौ तत्र संविवर्धेते पितुर्भवन उत्तमे
।
क्रीडमानौ स्वभावेन
स्वच्छन्दगमनावुभौ ॥८॥
यमी यमं समासाद्य स्वसा
भ्रातरमब्रवीत् ॥९॥
व्यासजी बोले - मुनिश्रेष्ठ शुकदेव
! स्थिर चित्तवाले पुरुषोंको इस लोकमें या परलोकमें जो पुण्य प्राप्त होता है,
उसे मैं बतलाता हूँ; तुम सुनो । इसी विषयमें
विद्वान् पुरुष यमीके साथ महात्मा यमके संवादरुप इस प्राचीन इतिहासका वर्णन किया
करते हैं । अदितिके पुत्र जो विवस्वान् ( सूर्य ) हैं, उनके
दो तेजस्वी संतानें हुईं । उनमें प्रथम तो ' यम ' नामक पुत्र था और दूसरी उससे छोटी ' यमी ' नामकी कन्या थी । वे दोनों अपने पिताके उत्तम भवनमें दिनोंदिन भलीभाँति
बढ़ने लगे । वे बाल - स्वभावके अनुसार साथ - साथ खेलते - कूदते और इच्छानुसार घूमते
- फिरते थे । एक दिन यमकी बहिन यमीने अपने भाई यमके पास जाकर कहा - ॥५ - ९॥
यम्युवाच
न भ्राता भगिनीं योग्यां कामयन्तीं
च कामयेत् ।
भ्रातृभूतेन किं तस्य स्वसुर्यो न
पतिर्भवेत् ॥१०॥
अभूत इव स ज्ञेयो न तु भूतः कथञ्चन
।
अनाथां नाथमिच्छन्तीं स्वसारं यो न
नाथति ॥११॥
काङ्क्षन्तीं भ्रातरं नाथं भर्तारं
यस्तु नेच्छति ।
भ्रातेति नोच्यते लोके स पुमान्
मुनिसत्तमः ॥१२॥
स्याद्वान्यतनया तस्य भार्या भवति
किं तया ।
ईक्षतस्तु स्वसा भ्रातुः कामेन
परिदह्यते ॥१३॥
यत्कार्यमहमिच्छामि त्वमेवेच्छ तदेव
हि ।
अन्यथाहं मरिष्यामि त्वामिच्छन्ती
विचेतना ॥१४॥
कामदुः खमसह्यं नु भ्रातः किं त्वं
न चेच्छसि ।
कामाग्निना भृशं तप्ता
प्रलीयाम्यङ्ग मा चिरम् ॥१५॥
कामार्तायाः स्त्रियाः कान्त वशगो
भव मा चिरम् ।
स्वेन कायेन मे कायं
संयोजयितुमर्हसि ॥१६॥
यमी बोली - जो भाई अपनी योग्य
बहिनको उसके चाहनेपर भी न चाहे, जो बहिनका पति
न हो सके, उसके भाई होनेसे क्या लाभ ? जो
स्वामीकी इच्छा रखनेवाली अपनी कुमारी बहिनका स्वामी नहीं बनता, उस भ्राताको ऐसा समझना चाहिये कि वह पैदा ही नहीं हुआ । किसी तरह भी उसका
उत्पन्न होना नहीं माना जा सकता । भैया ! यदि बहिन अपने भाईको ही अपना स्वामी -
अपना पति बनाना चाहती है, इस दशामें जो बहिनको नहीं चाहता,
वह पुरुष मुनिशिरोमणि ही क्यों न हो, इस
संसारमें भ्राता नहीं कहा जा सकता । यदि किसी दूसरेकी ही कन्या उसकी पत्नी हो तो
भी उससे क्या लाभ, यदि उस भाईकी अपनी बहिन उसके देखते -
देखते कामसे दग्ध हो रही है । मेरे होश, इस समय अपने ठिकाने
नहीं हैं । मेरे होश, इस समय अपने ठिकाने नहीं हैं । मैं इस
समय जो काम करना चाहती हूँ, तुम भी उसीकी इच्छा करो; नहीं तो मैं तुम्हारी ही चाह लेकर प्राण त्याग दूँगी, मर जाऊँगी । भाई ! कामकी वेदना असह्य होती है । तुम मुझे क्यों नहीं चाहते
? प्यारे भैया ! कामाग्निसे अत्यन्त संतप्त होकर मैं मरी जा
रही हूँ; अब देर न करो । कान्त ! मैं कामपीड़िता स्त्री हूँ ।
तुम शीघ्र ही मेरे अधीन हो जाओ । अपने शरीरसे मेरे शरीरका संयोग होने दो ॥१० - १६॥
यम उवाच
किमिदं लोकविद्विष्टं धर्मं भगिनि
भाषसे ।
अकार्यमिह कः कुर्यात् पुमान् भद्रे
सुचेतनः ॥१७॥
न ते संयोजयिष्यामि कायं कायेन
भामिनि ।
न भ्राता मदनार्तायाः स्वसुः कामं
प्रयच्छति ॥१८॥
महापातकमित्याहुः स्वसारं
योऽधिगच्छति ।
पशूनामेष धर्मः स्यात्
तिर्यग्योनिवतां शुभे ॥१९॥
यम बोले - बहिन ! सारा संसार जिसकी
निन्दा करता है, उसी इस पापकर्मको तू धर्म कैसे
बता रही है ? भद्रे ! भला कौन सचेत पुरुष यह न करने योग्य
पापकर्म कर सकता है ? भामिनि ! मैं अपने शरीरसे तुम्हारे
शरीरका संयोग न होने दूँगा । कोई भी भाई अपनी कामपीड़िता बहिनकी इच्छा नहीं पूरी कर
सकता । जो बहिनके साथ समागम करता है, उसके इस कर्मको महापातक
बताया गया है - शुभे ! यह तिर्यग् - योनिमें पड़े हुए पशुओंका धर्म हैं - देवता या
मनुष्यका नहीं ॥१७ - १९॥
यम्युवाच
एकस्थाने यथा पूर्वं संयोगो नौ न
दुष्यति ।
मातृगर्भे तथैवायं संयोगो नौ न
दुष्यति ॥२०॥
किं भ्रातरप्यनाथां त्वं मा नेच्छसि
शोभनम् ।
स्वसारं निऋती रक्षः संगच्छति च
नित्यशः ॥२१॥
यमी बोली - भैया ! हम दोनों जुड़वी
संतानें हैं और माताके गर्भमें एक साथ रहे हैं । पहले माताके गर्भमें एक ही
स्थानपर हम दोनोंका जो संयोग हुआ था, वह
जैसे दूषित नहीं हो सकता । भाई ! अभीतक मुझे पतिकी प्राप्ति नहीं हुई है । तुम
मेरा भला करना क्यों नहीं चाहते ? ' निऋति ' नामक राक्षस तो अपनी बहिनके साथ नित्य ही समागम करता है ॥२० - २१॥
यम उवाच
स्वयम्भुवापि निन्द्येत लोकवृत्तं
जुगुप्सितम् ।
प्रधानपुरुषाचीर्णं लोकोऽयमनुवर्तते
॥२२॥
तस्मादनिन्दितं धर्मं
प्रधानपुरुषश्चरेत् ।
निन्दितं वर्जयेद्यत्नादेतद्धर्मस्य
लक्षणम् ॥२३॥
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेत्तरो
जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते
॥२४॥
अतिपापमहं मन्ये सुभगे वचनं तव ।
विरुद्धं सर्वधर्मेषु लोकेषु च
विशेषतः ॥२५॥
मत्तोऽन्यो यो भवेद्यो वै विशिष्टो
रुपशीलतः ।
तेन सार्धं प्रमोदस्व न ते भर्ता
भवाम्यहम् ॥२६॥
नाहं स्पृशामि तन्वा ते तनुं भद्रे
दृढव्रतः ।
मुनयः पापमाहुस्तं यः स्वसारं
निगृह्णति ॥२७॥
यम बोले - बहिन ! कुत्सित
लोकव्यवहारकी निन्दा ब्रह्माजीने भी की है । इस संसारके लोग श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा
आचरित धर्मका ही अनुसरण करते हैं । इसलिये श्रेष्ठ पुरुषको चाहिये कि वह उत्तम
धर्मका ही आचरण करे और निन्दित कर्मको यत्नपूर्वक त्याग दे - यही धर्मका लक्षण है
। श्रेष्ठ पुरुष जिस - जिस कर्मका आचरण करता है, उसीको अन्य लोग भी आचरणमें लाते हैं और वह जिसे प्रमाणित कर देता है,
लोग उसीका अनुसरण करते हैं । सुभगे ! मैं तो तुम्हारे इस वचनको
अत्यन्त पापपूर्ण समझता हूँ । इतना ही नहीं, मैं इसे सब
धर्मो और विशेषतः समस्त लोकोंके विपरीत मानता हूँ । मुझसे अन्य जो कोई भी रुप और
शीलमें विशिष्ट हो, उसके साथ तुम आनन्दपूर्वक रहो; मैं तुम्हारा पति नहीं हो सकता । भद्रे ! मैं दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका
पालन करनेवाला हूँ, अतः अपने शरीरसे तुम्हारे शरीरका स्पर्श
नहीं करुँगा । जो बहिनको ग्रहण करता है, उसे मुनियोंने '
पापी ' कहा है ॥२२ - २७॥
यम्युवाच
दुर्लभं चैव पश्यामि लोके
रुपमिहेदृशम् ।
यत्र रुपं वयश्चैव पृथिव्यां क्व
प्रतिष्ठितम् ॥२८॥
न विजानामि ते चित्तं कुत एतत्
प्रतिष्ठितम् ।
आत्मरुपगुणोपेतां न कामयसि मोहिताम्
॥२९॥
लतेव पादपे लग्ना कामं त्वच्छरणं
गता ।
बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य निवसामि
शुचिस्मिता ॥३०॥
यम बोली - मैं देखती हूँ,
इस संसारमें ऐसा ( तुम्हारे समान ) रुप दुर्लभ हैं । भला, पृथ्वीपर ऐसा स्थान कहाँ है, जहाँ रुप और समान
अवस्था - दोनों एकत्र वर्तमान हों । मैं नहीं समझती, तुम्हारा
यह चित्त इतना स्थिर कैसे है, जिसके कारण तुम अपने समान रुप
और गुणसे युक्त होनेपर भी मुझ मोहिता स्त्रीकी इच्छा नहीं करते हो । वृक्षमें
संलग्न हुई लताके समान मैं स्वेच्छानुसार तुम्हारी शरणमें आयी हूँ । मेरे मुखपर
पवित्र मुसकान शोभा पाती है । अब मैं अपनी दोनों भुजाओंसे तुम्हारा आलिङ्गन करके
ही रहूँगी ॥२८ - ३०॥
यम उवाच
अन्यं श्रयस्व सुश्रोणि देवं
देव्यसितेक्षणे ।
यस्तु ते काममोहेन चेतसा विभ्रमं
गतः ।
तस्य देवस्य देवी त्वं भवेथा
वरवर्णिनि ॥३१॥
ईप्सितां सर्वभूतानां वर्यां
शंसन्ति मानवाः ।
सुभद्रां चारुसर्वाङ्गीं संस्कृतां
परिचक्षते ॥३२॥
तत्कृतेऽपि सुविद्वांसो न
करिष्यन्ति दूषणम् ।
परितापं महाप्राज्ञे न करिष्ये
दृढव्रतः ॥३३॥
चित्तं मे निर्मलं भद्रे विष्णौ
रुद्रे च संस्थितम् ।
अतः पापं नु नेच्छामि धर्मचित्तो
दृढव्रतः ॥३४॥
यम बोले - श्यामलोचने ! सुश्रोणि !
मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करनेमें असमर्थ हूँ । तुम किसी दूसरे देवताका आश्रय लो ।
वरवर्णिनि ! तुम्हें देखकर काममोहसे जिसका चित्त विभ्रान्त हो उठे,
उसी देवताकी तुम देवी हो जाओ । जिसे समस्त प्राणी कहते है, मानवगण जिसे वरणीय बतलाते हैं, कल्याणमयी, सर्वाङ्गसुन्दरी और सुसंस्कृता कहते हैं, उसके लिये
भी विद्वान् पुरुष कभी दूषित कर्म नहीं करेंगे । महाप्राज्ञे ! मेरा व्रत अटल है ।
मैं यह पश्चात्तापजनक पाप कदापि नहीं करुँगा । भद्रे ! मेरा चित्त निर्मल है,
भगवान् विष्णु और शिवके चिन्तनमें लगा हुआ है । इसलिये मैं
दृढ़संकल्प एवं धर्मात्मा होकर निश्चय ही यह पापकर्म नहीं करना चाहता ॥३१ - ३४॥
व्यास उवाच
असकृत् प्रोच्यमानोऽपि तया चैवं
दृढव्रतः ।
कृतवान् न यमः कार्यं तेन
देवत्वमाप्तवान् ॥३५॥
नराणां दृढचित्तानामेवं
पापमकुर्वताम् ।
अनन्तं फलमित्याहुस्तेषां स्वर्गफलं
भवेत् ॥३६॥
एतत्तु यम्युपाख्यानं पूर्ववृत्तं
सनातनम् ।
सर्वापापहरं पुण्यं श्रोतव्यमनसूयया
॥३७॥
यश्चैतत् पठते नित्यं हव्यकव्येषु
ब्राह्मणः ।
संतृप्ताः पितरस्तस्य न विशन्ति
यमालयम् ॥३८॥
यश्चैतत् पठते नित्यं पितृणामनृणो
भवेत् ।
वैवस्वतीभ्यस्तीव्राभ्यो यातनाभ्यः
प्रमुच्यते ॥३९॥
पुत्रैतदाख्यानमनुत्तमं मया तवोदितं
वेदपदार्थनिश्चितम् ।
पुरातनं पापहरं सदा नृणां
किमन्यदद्यैव वदामि शंस मे ॥४०॥
श्रीव्यासजी कहते हैं - शुकदेव !
यमीके बारंबार कहनेपर भी दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले यमने वह पाप -
कर्म नहीं किया; इसलिये वे देवत्वको प्राप्त हुए
। इस प्रकार स्थिरचित्त होकर पाप न करनेवाले मनुष्योंके लिये अनन्त पुण्यफलकी
प्राप्ति बतलायी गयी हैं । ऐसे लोगोंको स्वर्गरुप फल उपलब्ध होता है । यह यमीका
उपाख्यान, जो प्राचीन एवं सनातन इतिहास है, सब पापोंको दूर करनेवाला और पवित्र है । असूया त्यागकर इसका श्रवण करना
चाहिये । जो ब्राह्मण देवयाग और पितृयागमें सदा इसका पाठ करता है, उसके पितृगण पूर्णतः तृप्त होते हैं । उन्हें कभी यमराजके भवनमें प्रवेश
नहीं करना पड़ता । जो इसका नित्य पाठ करता है, वह पितृऋणसे
मुक्त हो जाता है तथा उसे तीव्र यम - यातनाओंसे छुटकारा मिल जाता है । बेटा शुकदेव
! मैंने तुमसे यह सर्वोत्तम एवं पुरातन उपाख्यान कह सुनाया, जो
वेदके पदों तथा अर्थोंद्वारा निश्चित है । इसका पाठ करनेपर यह सदा ही मनुष्योंका
पाप हर लेता है । मुझे बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ ?
॥३५ - ४०॥
* यह यम यमी-संवाद' ऋग्वेद के एक सूक्त पर आधारित है। वहाँ प्रसंग यह है
कि यम और यमी, जो परस्पर भाई और बहन हैं. कुमारावस्था में
बालोचित खेल से मन बहला रहे थे। उनके सामने एक ऐसा दृश्य आया, जिसमें कोई वर बाजे-गाजे के साथ विवाह के लिये जा रहा था। यमी ने पूछा-
भैया यह क्या है? यम ने उसे बताया कि 'यह
बारात है। इसमें वर- वेषधारी पुरुष किसी कुमारी स्त्री के साथ विवाह करेगा। फिर वे
दोनों पति-पत्नी होकर गृहस्थ जीवन व्यतीत करेंगे।' यमी बालोचित
सरलता के साथ प्रस्ताव कर बैठी- 'भैया आओ, हम और तुम भी परस्पर विवाह कर लें। यम ने उसे समझाया कि भाई के साथ बहन का
विवाह नहीं होता। तुम्हें मुझसे भिन्न किसी दूसरे श्रेष्ठ पुरुष को अपना पति चुनना
होगा - अन्यं वृणुष्व सुभगे पतिं मत् ।'
इसी वैदिक उपाख्यान को
यहाँ इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है मानो यमी कामवेदना से पीड़ित हो यम से यह
प्रार्थना कर रही है कि- वे उसे अपनी पत्नी बनाकर उसकी इच्छा पूर्ण करें। इसमें
यमी का विकारोत्पादक चित्र प्रस्तुत किया गया है और विकारहेतौ सति विक्रियन्ते
येषां न चेतांसि त एव धीराः।' (विकार का कारण उपस्थित होने पर भी जिनके चित्त में विकार नहीं होता,
वे ही पुरुष धीर- ज्ञानी और संयमी है) इस उक्ति के "अनुसार यम की
जितेन्द्रियता, उनकी धर्मविषयक अविचल नियम, धैर्य और विवेक को लोक के समक्ष प्रकाश में लाया गया। जैसे सोना आग में
तपकर खरा उतरता है, उसी प्रकार यम यमी की अग्नि परीक्षा
उत्तीर्ण हो सुदृढ़ धर्मात्मा संयमी और विवेकी सिद्ध हुए हैं। यम के उज्ज्वल
चरित्र को और भी चमत्कारी रूप में सामने लाना इस कथा का उद्देश्य है। इससे
प्रत्येक भाई तथा नवयुवक को सदाचारी, संयमी तथा धर्म अविचल
भाव स्थित रहने की शिक्षा और प्रेरणा मिलती है। यमी के चरित्र से यह शिक्षा
प्राप्त होती है कि प्रत्येक कुमारी का विवाह योग्य अवस्था होने पर अविलम्ब किसी
योग्य वर के साथ विवाह कर देना चाहिये। वास्तव में यम और यमी दोनों ही सूर्यदेव की
दिव्य संताने हैं। उनमें किसी प्रकार के विकार की लेशमात्र भी सम्भावना नहीं है।
लोगों को सदाचार और संयम की शिक्षा देने के लिये ही व्यासजी ने उस वैदिक उपाख्यान को
यहाँ इस प्रकार चित्रित किया है।
इति श्रीनरसिंहपुराणे यमीयमसंवादो
नाम द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें 'यमी - यम - संवाद' नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥१२॥
आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 13
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