भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय ५
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय ५ में
विवाह-संस्कार के उपक्रम में स्त्रियों के शुभ और अशुभ लक्षणों का वर्णन तथा आचरण
की श्रेष्ठता का वर्णन है। यहाँ भविष्यपुराण की मूलपाठ हिन्दी भावार्थ सहित पाठकों
के लाभार्थ दिया जा रहा है ।
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय ५
Bhavishya puran Brahma parva chapter 5
भविष्यपुराणम् पर्व ब्राह्मपर्व अध्यायः ५
भविष्यपुराणम् पर्व १ (ब्राह्मपर्व)
अध्यायः ५
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व पांचवां अध्याय
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय ५ भावार्थ सहित
अथ पञ्चमोऽध्यायः
सुमन्तु मुनि बोले –
राजन् ! गुरु के आश्रम में ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए स्नातक
को वेदाध्ययन कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिये। घर आने पर उस ब्रह्मचारी को
पहले पुष्प-माला पहनाकर, शय्या पर बिठाकर उसका मधुपर्क-विधि
से पूजन करना चाहिये। तब गुरु से आज्ञा प्राप्त कर उसे शुभ लक्षणों से युक्त
सजातीय कन्या से विवाह करना चाहिये।
राजा शतानीक पूछा –
हे मुनीश्वर ! आप प्रथम स्त्रियों के लक्षणों का वर्णन करें और यह
भी बतायें कि किन लक्षणों से युक्त कन्या शुभ होती है।
सुमन्तु मुनि बोले –
राजन् ! पूर्वकाल में ऋषियों के पूछने पर ब्रह्माजी ने स्त्रियों के
जो उत्तम लक्षण कहे हैं, उन्हें मैं संक्षेप में बतलाता हूँ,
आप ध्यान देकर सुनें।
ब्रह्माजी ने कहा —
ऋषिगणों ! जिस स्त्री के चरण लाल कमल के समान कान्ति वाले अत्यंत
कोमल तथा भूमि पर समतल-रूप से पड़ते हों, अर्थात् बीच में
ऊँचे न रहें, ये चरण उत्तम एवं सुख-भोग प्रदान करने वाले
होते हैं। जिस स्त्री के चरण रूखे, फटे हुए, मांस-रहित और नाड़ियों से युक्त हों, वह स्त्री
दरिद्रा और दुर्भगा होती है। यदि पैर की अङ्गुलियाँ परस्पर मिली हों, सीधी, गोल, स्निग्ध और सूक्ष्म
नखों से युक्त हों तो ऐसी स्त्री अत्यंत ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाली और
राज-महिषी होती है। छोटी अंगुलियाँ आयु को बढाती है, परंतु
छोटी और विरल अंगुलियाँ धन का नाश करने वाली होती हैं।
जिस स्त्री के हाथ की रेखाएँ गहरी,
स्निग्ध और रक्तवर्ण की होती हैं, वह सुख
भोगने वाली होती है, इसके विपरीत टेढ़ी और टूटी हुई हों तो वह
दरिद्र होती है। जिसके हाथ में कनिष्ठा के मूल से तर्जनी तक पूरी रेखा चली जाय तो
ऐसी स्त्री सौ वर्ष तक जीवित रहती है और यदि न्यून हो तो आयु कम होती है। जिस
स्त्री के हाथ की अंगुलियाँ गोल, लम्बी, पतली, मिलाने पर छिद्र-रहित, कोमल
तथा रक्त-वर्ण की हो, वह स्त्री अनेक सुख-भोगों को प्राप्त
करती है। जिसके नख बन्धुजीव –पुष्प के समान लाल एवं ऊँचे और
स्निग्ध हो तो वह ऐश्वर्य को प्राप्त करती है तथा रूखे, टेढ़े
अनेक प्रकार के रंगवाले अथवा श्वेत या नील-पीले नखों वाली स्त्री दुर्भाग्य और
दारिद्र्य को प्राप्त होती है। जिस स्त्री के हाथ फटे हुए, रूखे
और विषम अर्थात् ऊँचे-नीचे एवं छोटे-बड़े हों वह कष्ट भोगती है। जिस स्त्री की
अंगुलियाँ के पर्वों में समान रेखा हों अथवा यव का चिन्ह होता है, उसे अपार सुख तथा अक्षय धन-धान्य प्राप्त होता है। जिस स्त्री का मणि-बन्ध
सु-स्पष्ट तीन रेखाओं से सुशोभित होता है, वह चिरकाल तक
अक्षय भोग और दीर्घ आयु को प्राप्त करती है।
जिस स्त्री की ग्रीवा में चार
अङ्गुल के परिणाम में स्पष्ट तीन रेखाएँ हों तो वह सदा रत्नों के आभूषण धारण करने
वाली होती है। दुर्बल ग्रीवा वाली स्त्री निर्धन, दीर्घ ग्रीवा वाली बंध की, ह्रस्व ग्रीवा वाली
मृतवत्सा होती है और स्थूल ग्रीवा वाली दुःख-संताप प्राप्त करती है। जिसके दोनों
कंधे और कृकाटिका (गर्दन का उठा हुआ पिछला भाग) ऊँचे न हों, वह
स्त्री दीर्घ आयु वाली तथा उसका पति भी चिरकाल तक जीता है।
जिस स्त्री की नासिका न बहुत मोटी,
न पतली, न टेढ़ी, न अधिक
लम्बी और न ऊँची होती है वह श्रेष्ठ होती है। जिस स्त्री की भौंहें ऊँची, कोमल, सूक्ष्म तथा आपस में मिली हुई न हो, ऐसी स्त्री सुख प्राप्त करती है। धनुष के समान भौंहें सौभाग्य प्रदान करने
वाली होती है। स्त्रियों के काले, स्निग्ध, कोमल और लम्बे घुँघराले केश उत्तम होते हैं।
हंस, कोयल, वीणा, भ्रमर, मयूर तथा वेणु (वंशी) के समान स्वर वाली स्त्रियाँ अपार सुख-सम्पत्ति
प्राप्त करती है और दास-दासियों से युक्त होती है। इसके विपरीत फूटे काँसे के स्वर
के समान स्वर वाली या गर्दभ और कौवे के सदृश स्वर वाली स्त्रियाँ रोग, व्याधि, भय, शोक तथा दरिद्रता
को प्राप्त करती है। हंस, गाय, वृषभ,
चक्रवाक तथा मदमस्त हाथी के समान चाल वाली स्त्रियाँ अपने कुल को
विख्यात बनाने वाली और राजा की रानी होती है। श्वान, सियार
और कौवे के समान गतिवाली स्त्री निन्दनीय होती है। मृग के समान गतिवाली दासी तथा
द्रुतगामिनी स्त्री बन्धकी होती है। स्त्रियों का फलिनी, गोरोचन,
स्वर्ण, कुंकुम अथवा नये-नये निकले हुए
दुर्वांकुर के सदृश रंग उत्तम होता है। जिन स्त्रियों के शरीर तथा अङ्ग-कोमल,
रोम और पसीने से रहित तथा सुगन्धित होते हैं, वे
स्त्रियाँ पूज्य होती हैं।
कपिल-वर्ण वाली,
अधिकाङ्गी, रोगिणी, रोमों
से रहित, अंत्यत छोटी (बौनी), वाचाल
तथा पिंगल वर्ण वाली कन्या से विवाह नहीं करना चाहिये। नक्षत्र, वृक्ष, नदी, म्लेच्छ, पर्वत, पक्षी, साँप आदि और
दासी के नाम पर जिसका नाम हो तथा डरावने नाम वाली कन्या से विवाह नही करना चाहिये।
जिसके सब अङ्ग ठीक हो, सुंदर नाम हो, हंस
या हाथीकी-सी गति हो, जो सूक्ष्म रोम, केश
और दाँतों वाली तथा कोमलाङ्गी हो, ऐसी कन्या से विवाह करना
उत्तम होता है। गौ तथा धन-धान्यादि से अत्यधिक समृद्ध होने पर भी इस दस कुलों में
विवाह का सम्बन्ध स्थापित नही करना चाहिये – जो संस्कारों से
रहित हो, जिनमें पुरुष-संतति न होती हो, जो वेद के पठन-पाठन से रहित हो, जिनमे
स्त्री-पुरुषों के शरीरों पर बहुत लम्बे केश हो, जिनमें अर्श
(बवासीर), क्षय (राजयक्ष्मा), मन्दाग्नि,
मिरगी, श्वेत दाग और कुष्ठ – जैसे रोग होते हों।
ब्रह्माजी ने ऋषियों से पुनः कहा —
ये सब उत्तम लक्षण जिस कन्या में हों और जिसका आचरण भी अच्छा हो उस
कन्या से विवाह करना चाहिये। स्त्री के लक्षणों की अपेक्षा उसके सदाचार को ही अधिक
प्रशस्त कहा गया है। जो स्त्री सुंदर शरीर तथा शुभ लक्षणों से युक्त भी है,
किंतु यदि वह सदाचार-सम्पन्न (उत्तम आचरण युक्त) नहीं है तो वह
प्रशस्त नहीं मानी गयी है। अतः स्त्रियों में आचरण की मर्यादा को अवश्य देखना
चाहिये।
लक्षणेभ्यः प्रशस्तं तु स्त्रीणां
सद्वृत्तमुच्यते ।
सद्वृत्तयुक्ता या स्त्री सा
प्रशस्ता न च लक्षणैः ॥ (ब्राह्मपर्व
५।११०)
ऐसे सल्लक्षणों तथा सदाचार से
सम्पन्न सुकन्या से विवाह करने पर ऋद्धि, वृद्धि
तथा सत्कीर्ती प्राप्त होती है।
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय ५ सम्पूर्ण।
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व पञ्चमोऽध्यायः
स्त्रीणां शुभाशुभलक्षणवर्णनम्
सुमन्तुरुवाच
षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्यं गुरौ
त्रैवेदिकं व्रतम् ।
तदर्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव
च । । १
वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि
नृपोत्तम ।
अविप्लुतब्रह्मचर्यो
गृहस्थाश्रममावसेत् । । २
तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं
पितुः ।
स्रग्विणं तल्प आसीनमर्हयेत्प्रथमं
गवा । । ३
गुरुणा समनुज्ञातः समावृत्तौ
यथाविधि ।
उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां
लक्षणान्विताम् । । ४
शतानीक उवाच
लक्षणं द्विजशार्दूल स्त्रीणां वद
महामुने ।
कीदृग्लक्षणसंयुक्ता कन्या
स्यात्सुखदा नृप । । ५
सुमन्तुरुवाच
यदुक्तं ब्राह्मणा पूर्वं
स्त्रीलक्षणमनुत्तमम् ।
श्रेयसे सर्वलोकानां
शुभाशुभफलप्रदम् । । ६
तत्ते वच्मि महाबाहो शृणुष्वैकमना
नृप ।
श्रुतेन येन जानीषे कन्यां
शोभनलक्षणाम् । । ७
सुखासीनं सुरश्रेष्ठमभिगम्य महर्षयः
।
पप्रच्छुर्लक्षणं स्त्रीणां
यत्पृष्टोऽहं त्वयाधुना । । ८
प्रणम्य शिरसा देवमिदं वचनमब्रुवन्
।
भगवन्ब्रूहि नः सर्वं स्त्रीणां
लक्षणमुत्तमम् । । ९
श्रेयसे सर्वलोकानां
शुभाशुभफलप्रदम् ।
प्रशस्तामप्रशास्तां च जानीमो येन
कन्यकाम् । । १०
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा विरिञ्चो
वाक्यमब्रवीत् ।
शृणुध्वं द्विजशार्दूला वच्मि
युष्मास्वशेषतः । । ११
प्रतिष्ठिततलौ
सम्यग्रताम्भोजसमप्रभौ ।
ईदृशौ चरणौ धन्यौ योषितां भोगवर्धनौ
। । १२
करालैरतिनिर्मासै
रूक्षैरर्धशिरान्वितैः ।
दारिद्र्यं दुर्भगत्वं च
प्राप्नुवन्ति न संशयः । । १३
अङ्गुल्यः संहता वृत्ताः स्निग्(?)धाः सूक्ष्मनखास्तथा ।
कुर्वन्त्यत्यन्तमैश्वर्यं राजभावं
च योषितः । । १४
ह्रस्वाः सुजीवितं ह्रस्वा विरला
वित्तहानये ।
दारिद्र्यं मूलमग्नासु प्रेष्यं च
पृथुलासु च । । १५
परस्परसमारूढैस्तनुभिर्वृत्तपर्वभिः
।
बहूनपि पतीन्हत्वा दासी भवति वै
द्विजाः । । १६
अङ्गुष्ठोन्नतपर्वाणस्तुङ्गाग्राः
कोमलान्विताः ।
रत्नकाञ्चनलाभाय विपरीता विपत्तये ।
। १७
सुभगत्वं नखैः स्निग्धैराताम्रैश्च
धनाद् यता ।
पुत्राः स्युरुन्नतैरेभिः
सुसूक्ष्मैश्चापि राजता । । १८
पाण्डुरैः स्फुटितै
रूक्षैर्नीलैर्धूम्रैस्तथा खरैः ।
निःस्वता भवति स्त्रीणां
पीतैश्चाभक्ष्यभक्षणम् । । १९
गुल्फाः स्निग्धाश्च वृत्ताश्च
समारूढशिरास्तथा ।
यदि
स्युर्नूपुरान्दध्युर्बान्धवाद्यैः समाप्नुयुः । । २०
अशिरा शरकाण्डाभाः
सुवृत्ताल्पतनूरुहाः ।
जङ्घा कुर्वन्ति सौभाग्यं यानं च
गजवाजिभिः । । २१
क्लिश्यते रोमजङ्घा स्त्री
भ्रमत्युद्धतपिण्डिका ।
काकजङ्घा पतिं हन्ति वाचाटा कपिला च
याः । । २२
जानुभिश्चैव
मार्जारसिंहजान्वनुकारिभिः ।
श्रियमाप्य सुभाग्यत्वं
प्राप्नुवन्ति सुतांस्तथा । । २३
घटाभैरध्वगा नार्यो निर्मांसैः
कुलटा स्त्रियः ।
शिरालैरपि हिंस्राः
स्युर्विश्लिष्टैर्धनवर्जिताः । । २४
अत्यन्तकुटिलै रूक्षैः
स्फुटिताग्रैर्गुडप्रभैः ।
अनेकजैस्तथा रोमैः केशैश्चापि
तथाविधैः । । २५
अत्यन्तपिङ्गला नारी विषतुल्येति
निश्चितम् ।
सप्ताहाभ्यन्तरे पापा पतिं हन्यान्न
संशयः । । २६
हस्तिहस्तनिभैर्वृतै रम्भाभैः
करभोपमैः ।
प्राप्नुवन्त्यूरुभिः
शश्वत्स्त्रियः सुखमनङ्गजम् । । २७
दौर्भाग्यं बद्धमांसैश्च बन्धनं
रोमशोरुभिः ।
तनुभिर्वधमित्याहुर्मध्यच्छिद्रेष्वनीशता
। । २८
सन्ध्यावर्णं समं चारु
सूक्ष्मरोमान्वितं पृथु ।
जघनं शस्यते स्त्रीणां रतिसौख्यकरं
द्विज । । २९
अरोमको भगो यस्याः समः
सुश्लिष्टसंस्थितः ।
अपि नीचकुलोत्पन्न राजपत्नी भवत्यसौ
। । ३०
अश्वत्थपत्रसदृशः
कूर्मपृष्ठोन्नतस्तथा ।
शशिबिम्बनिभश्चापि तथैव कलशाकृतिः ।
।
भगः शस्ततमः स्त्रीणां
रतिसौभाग्यवर्धनः । । ३१
तिलपुष्पनिभो यश्च यद्यग्रे
खुरसन्निभः ।
द्वावप्येतौ परप्रेष्यं कुर्वाते च
दरिद्रताम् । । ३२
उलूखलनिभैः शोकं मरणं विवृताननैः ।
विरूपैः
पूतिनिर्मांसैर्गजसन्निभरोमभिः । ।
दौःशील्यं दुर्भगत्वं च
दारिद्र्यमधिगच्छति । । ३३
कपित्थफलसंकाशः पीनो वलिविवर्जितः ।
स्फीताः प्रशस्यते स्त्रीणां
निन्दितभ्रान्यथा द्विजाः । । ३४
पयोधरभरानम्रप्रचलत्त्रिवलीगुरुः ।
मध्यः शुभावहः स्त्रीणां
रोमराजीविभूषितः । । ३५
पणवाभैर्मृदङ्गाभैस्तथा मध्ये
यवोपमैः ।
प्राप्नुवन्ति
भयावासक्लेशदौःशील्यमीदृशैः । । ३६
अवक्रानुल्बणं पृष्ठमरोमशमगर्हितम्
।
नानास्तरणपर्यङ्करतिसौख्यकरं परम् ।
। ३७
कुब्जमद्रोणिकं पृष्ठं रोमशं यदि
योषितः ।
स्वप्नान्तरे सुखं तस्या नास्ति
हन्यात्पतिं च सा । । ३८
विपुलैः सुकुमारैश्च कुक्षिभिः
सुबहुप्रजाः ।
मण्डूककुक्षिर्या नारी राजानं सा
प्रसूयते । । ३९
उन्नतैर्बलिभिर्वध्याः सुवृत्तैः
कुलटा स्त्रियः ।
२जारकर्मरतास्ताः स्युः प्रव्रज्यां
च समाप्नुयुः । । ४०
उन्नता च नतैः क्षुद्रा
विषमैर्विषमाशया ।
आयुरैश्वर्यसम्पन्ना वनिता हृदयैः
समैः । । ४१
सुवृत्तमुन्नतं पीनमदूरोन्नतमायतम्
।
स्तनयुग्ममिदं शस्तमतोऽन्यदसुखावहम्
। । ४२
उन्नतिः प्रथमे गर्भे द्वयोरेकस्य
भूयसी ।
वामे तु जायते कन्या दक्षिणे तु
भवेत्सुतः । । ४३
दीर्घे तु चूचुके यस्याः सा स्त्री
धूर्ता रतिप्रिया ।
सुवृत्ते तु पुनर्यस्या द्वेष्टि सा
पुरुषं सदा । । ४४
स्तनैः सर्पफणाकारैः
श्वजिह्वाकृतिभिस्तथा ।
दारिद्र्यमधिगच्छन्ति स्त्रियः
पुरुषचेष्टिताः । ।
अवष्टब्धघटीतुल्या भवन्ति हि तथा
द्विजाः । । ४५
सुसमं मांसलं चारु शिरो
रोमविवर्जितम् ।
वक्षो यस्या भवेन्नार्या
भोगान्भुक्ते यथेप्सितान् । । ४६
हिंस्रा भवति वक्रेण दौःशील्यं
रोमशेन तु ।
निर्मांसेन तु वैधव्यं विस्तीर्णे
कलहप्रिया । । ४७
चतस्रो रक्तगम्भीरा रेखाः स्निग्धाः
करे स्त्रियाः ।
यदि स्युः सुखमाप्नोति
विच्छिन्नाभिरनीशता । । ४८
रेखाः कनिष्ठिकामूलाद्यस्याः
प्राप्ताः प्रदेशिनीम् ।
शतमायुर्भवेत्तस्यास्त्रयाणामुन्नतौ
क्रमात् । । ४९
संवृत्ताः समपर्वाणस्तीक्ष्णाग्राः
कोमलत्वचः ।
समा ह्यंगुलयो यस्याः सा नारी
भोगवर्धिनी । । ५०
बन्धुजीवारुणैस्तुंगैर्नखैरैश्वर्यमाप्नुयात्
।
खरैर्वक्रैर्विवर्णाभैः
श्वेतप्रीतैरनीशता । । ५१
रक्तैर्मृदुभिरैश्वर्यं
निश्छिद्राङ्गुलिभिर्द्विजाः ।
स्फुटितैर्विषमै रूक्षैः क्लेशं
पाणिभिराप्नुयुः । । ५२
समरेखा यवा
यासाङ्गुष्ठाङ्गुलिपर्वसु ।
तासां हि विपुलं सौख्यं धनं धान्यं
तथाऽक्षयम् । । ५३
मणिबन्धोऽव्यवच्छिन्नो
रेखात्रयविभूषितः ।
ददाति न चिरादेव भोगमायुस्तथाक्षयम्
। । ५४
श्रीवत्सध्वजपद्माक्षगजवाजिनिवेशनैः
।
चक्रस्वस्तिकवज्रासिपूर्णकुम्भनिभाङ्कुशैः
। । ५५
प्रासादच्छत्रमुकुटैर्हारकेयूरकुण्डलैः
।
शङ्खतोरणनिर्व्यूहैर्हस्तन्यस्तैर्नृपस्त्रियः
। । ५६
यस्याः पाणितले रक्ता यूपकुम्भाश्च
कुण्डिकाः ।
दृश्यन्ते चरणे यस्या यज्ञपली
भवत्यसौ । । ५७
वीथ्यापणतुलामानैस्तथा मुद्रादिभिः
स्त्रियः ।
भवन्ति वणिजां पत्न्यो
रत्नकाञ्चनशालिनाम् । । ५८
दात्रयोक्त्रयुगाबन्धफलोलूखललाङ्गलैः
।
भवन्ति धनधान्याढ्या
कृषीवलजनाङ्गनाः । ५९
अनुन्नतशिरासन्धि पीनं
रोमविवर्जितम् ।
गोपुच्छाकृति नारीणां भुजयोर्युगुलं
शुभम् । । ६०
निगूढग्रन्थयो यस्याः कूर्परौ
रोमवर्जितौ ।
बाहू वै ललितौ यस्याः प्रशस्तौ
वृत्तकोमलौ । । ६१
उन्नतावनतौ चैव नातिस्थूलौ न रोमशौ
।
सुखदौ तु सदा स्त्रीणां
सौभाग्यारोग्यवर्धनौ । । ६२
स्थूले स्कन्धे वहेद्भारं रोमशे
व्याधिता भवेत् ।
वक्रस्कन्धे भवेद्वन्ध्या कुलटा
चोन्नतानने । । ६३
स्पष्टं रेखात्रयं यस्या ग्रीवायां
चतुरङ्गुलम् ।
मणिकाञ्चनमुक्ताढ्यं सा दधाति
विभूषणम् । । ६४
अधना स्त्री कृशग्रीवा दीर्घग्रीवा
च .बन्धकी ।
हस्वग्रीवा मृतापत्या स्थूलग्रीवा च
दुःखिता । । ६५
अनुन्नता समांसा च समा यस्याः
कृकाटिका ।
सुदीर्घमायुस्त्वस्यास्तु चिरं
भर्ता च जीवति । । ६६
निर्मांसा बहुमांसा च शिराला रोमशा
तथा ।
कुटिला विकटा चैव विस्तीर्णा न च
शस्यते । । ६७
न स्थूलो न कृशोऽत्यर्थं न वक्रो न
च रोमशः ।
हनुरेवंविधः श्रेयांस्ततोऽन्यो न
प्रशस्यते । । ६८
चतुरस्रमुखी धूर्ता मण्डलास्या शिवा
भवेत् ।
अप्रजा वाजिवक्रा स्त्री महावक्रा च
दुर्भगा । । ६९
श्ववराहवृकोलूकमर्कटास्याश्च याः
स्त्रियः ।
कूरास्ताः पापकर्मिण्यः
प्रजाबान्धववर्जिताः । । ७०
मालतीबकुलाम्भोजनीलोत्पलसुगन्धि यत्
।
वदनं मुच्यते नैतत्पानताम्बूलभोजनैः
। । ७१
ताम्राभः किञ्चिदालम्भः
स्थौल्यकार्श्यविवर्जितः ।
अधरो यदि तुङ्गश्च नारीणां भोजदः
सदा । । ७२
स्थूले कलहशीला स्याद्विवर्णे चातिदुःखिता
।
उत्तरोष्ठेन तीक्ष्णेन वनिता
चातिकोपना । । ७३
जिह्वा तनुतरा वक्रा ताम्रा दीर्घा
च शस्यते ।
स्थूला ह्रस्वा विवर्णा या वक्रा
भिन्ना च निन्दिता । । ७४
शङ्खकुन्देन्दुधवलं
स्निग्धैस्तुङ्गैरसन्धिभिः ।
मिष्टान्नपानमाप्नोति
दन्तैरेभिरनुन्नतैः । । ७५
सूक्ष्मैरतिकृशैर्ह्रस्वैः
स्फुटितैर्विरलैस्तथा ।
रूक्षश्च दुःखिता नित्यं
विकटैर्भामिनी भवेत् । । ७६
सुमृष्टदर्पणाम्भोजपूर्णबिम्बेन्दुसन्निभम्
।
वदनं वरनारीणामभीष्टफलदं स्मृतम् ।
। ७७
न स्थूला न कृशा वक्रा नातिदीर्घा
समुन्नता ।
ईदृशी नासिका यस्याः सा धन्या तु शुभङ्करी
। । ७८
उन्नता मृदुला या च रेखा शुद्धा न
सङ्गन्ता ।
भ्रूर्वक्रतुल्या सूक्ष्मा च
योषितां सा सुखावहा । । ७९
धनुस्तुल्याभिः सौभाग्यं वन्ध्या
स्याद्दीर्घरोमभिः ।
पिङ्गलासङ्गता ह्रस्वा दारिद्र्याय
न संशयः । । ८०
नीलोत्पलदलप्रख्यैराताम्रैश्चारुपक्ष्मभिः
।
वनिता नयनैरेभिर्भोगसौभाग्यभागिनी ।
। ८१
खञ्जनाक्षी मृगाक्षी च वराहाक्षी
वराङ्गना ।
यत्रयत्र समुत्पन्ना महान्तं
भोगमश्नुते । । ८२
अगम्भीरैरसंश्लिष्टैर्बहुरेखाविभूषितैः
।
राजपन्त्यो भवन्तीह
नयनैर्मधुपिङ्गलैः । । ८३
वायसाकृतिनेत्राणि दीर्घापाङ्गानि
योषिताम् ।
अनाविलानि चारूणि भवन्ति हि विभूतये
। । ८४
गम्भीरैः पिङ्गलैश्चैव दुःखिताः
स्युश्चिरायुषः ।
वयोमध्ये त्यजेत्प्राणानुन्नताक्षी
तु याङ्गना । । ८५
रक्ताक्षी विषमाक्षी च धूम्राक्षी
प्रेतलोचना ।
वर्जनीया सदा नारी श्वनेत्रा चैव
दूरतः । । ८६
उद्भ्रान्तकैः
करैश्चित्रैर्नयनस्त्वंगनास्त्विह ।
मद्यमांसप्रिया नित्यं चपलाश्चैव
सर्वतः । । ८७
करालाकृतयः कर्णा नभःशब्दास्तु
संस्थिताः ।
वहन्ति विकसत्कान्तिं
हेमरत्नविभूषणम् । । ८८
खरोष्ट्रनकुलोलूककपिलश्रवणाः
स्त्रियः ।
प्राप्नुवन्ति महद्दुःखं प्रायशः
प्रव्रजन्ति च । । ८९
ईषदापाण्डुगण्डा या सुवृत्ता पर्वणि
त्विह ।
प्रशस्ता निन्दिता त्वन्या
रोमकूपकदूषिता । । ९०
अर्धेन्दुप्रतिमाभोगमरोम तु समाहितम
।
भोगारोग्यकरं श्रेष्ठं ललाटं
वरयोषिताम् । । ९१
द्विगुणं परिणाहेन ललाटं विहितं च
यत् ।
शिरः प्रशस्तं नारीणामधन्या
हस्तिमस्तका । । ९२
सूक्ष्माः कृष्णा मृदुस्निग्धाः
कुञ्जिताग्राः शिरोरुहाः ।
भवन्ति श्रेयसे स्त्रीणामन्ये स्युः
क्लेशशोकदाः । । ९३
हंसकोकिलवीणालिशिखिवेणुस्वराः
स्त्रियः ।
प्राप्नुवन्ति
बहून्भोगान्भृत्यानाज्ञापयन्ति च । । ९४
भिन्नकांस्यस्वरा नारी खरकाकस्वरा च
या ।
रोगं व्याधिं भयं शोकं दारिद्र्यं
चाधिगच्छति । । ९५
हंसगोवृषचक्राह्वमत्तमातङ्गगामिनी ।
स्वकुलं द्योतयेन्नारी महिषी
पार्थिवस्य च । । ९६
श्वशृगालगतिर्निन्द्या या च
वायसवद्व्रजेत् ।
दासी मृगगतिर्नारी द्रुतगामी च
बन्धकी । । ९७
फलिनी रोचना हेमकुङ्कुमप्रभ एव च ।
वर्णः शुभकरः स्त्रीणां यश्च
दूर्वाङ्कुरोपमः । । ९८
मृदूनि मृदुरोमाणि
नात्यन्तस्वेदकानि च ।
सुरभीणि च गात्राणि यासां ताः
पूजिताः स्त्रियः । । ९९
नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाधिकाङ्गीं
न रोगिणीम् ।
नालोमिकां नातिह्रस्वां न वाचाटां न
पिङ्गलाम् । । १००
नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीं
नान्त्यपर्वतनामिकाम् ।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च
भीषणनामिकाम् । । १०१
अव्यङ्गाङ्गीं सौम्यनाम्नीं
हंसवारणगामिनीम् ।
तनुलोमकेशदशनां
मृदङ्गीमुद्वहेत्स्त्रियम् । । १०२
महान्त्यपि समृद्धानि
गोजाविधनधान्यतः ।
स्त्रीसम्बन्धे दशैतानि कुलानि
परिवर्जयेत् । । १०३
हीनक्रियं निष्पुरुषं
निश्छन्दोरोमशार्शसम् ।
क्षयामयाव्यपस्मारिश्वित्रकुष्ठिकुलानि
च । । १०४
पादौ सुगुल्फौ प्रथमं प्रतिष्ठौ
जङ्घे द्वितीयं च सुजानुचक्रे ।
मेढ्रोरुगुह्यं च ततस्तृतीयं नाभिः
कटिश्चेति चतुर्थमाहुः । । १०५
उदरं कथयन्ति पञ्चमं हृदयं षष्ठमथ
स्तनान्वितम् ।
अथ सप्तममंसजत्रुणी
कथयन्त्यष्टममोष्ठकन्धरे । । १०६
नवमं नयने च सभ्रुणी सललाटं दशमं
शिरस्तथा ।
अशुभेष्वशुभं दशाफलं चरणं
चरणाद्यशुभेषु शोभनम् । । १०७
इदं महात्मा स महानुभावः
शचीनिमित्तं गुरुरब्रवीद्द्विजाः ।
शक्रेण पृष्टः सविशेषमुत्तमं
संलक्ष्यमुक्तं वरयोषलक्षणम् । । १०८
मत्सकाशात्पुनः श्रुत्वा लक्षणं
पुरुषस्य च ।
यथाधुना भवद्भिस्तु श्रुतं मत्तो
द्विजोत्तमाः । । १०९
लक्षणेभ्यः प्रशस्तं तु स्त्रीणां
सद्वृत्तमुच्यते ।
सद्वृत्तमुक्त्वा या स्त्री सा
प्रशस्ता न च लक्षणैः । । ११०
ईदृग्लक्षणसम्पन्नां
सुकन्यामुद्वहेत्तु यः ।
ऋद्धिर्वृद्धिस्तथा कीर्तिस्तत्र
तिष्ठति नित्यशः । । १११
इति श्रीभविष्ये महापुराणे
शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि स्त्रीलक्षणवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः
। ५ ।
आगे जारी- भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय 6
0 Comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box