वराहपुराण अध्याय ३
वराहपुराण के अध्याय ३ में देवर्षि
नारद द्वारा अपने पूर्वजन्म वर्णन के प्रसङ्ग में ब्रह्मपारस्तोत्र का कथन का
वर्णन है।
वराह पुराण अध्याय ३
Varah Purana chapter 3
श्रीवराहपुराणम् तृतीयोऽध्यायः
वराहपुराणम् अध्यायः ३
श्रीवराहपुराण तीसरा अध्याय
श्रीवराहपुराण तृतीय अध्याय
श्रीवराहपुराण
अध्याय ३
प्रियव्रत उवाच ।
अन्यस्मिन् भगवन् जन्मन्यासीद् यत्
तद् विचेष्टितम् ।
सर्वं कथय देवर्षे महत् कौतूहलं हि
मे ।। ३.१ ।।
प्रियव्रत बोले- भगवन्! आपके द्वारा
पूर्व- जन्मों में जो-जो कार्य सम्पन्न हुए हों, उन सबको मुझे बताने की कृपा करें, क्योंकि देवर्षे !
उन्हें सुनने की मुझे बड़ी उत्कण्ठा है।
नादरद उवाच ।
स्नातस्य मम राजेन्द्र तस्मिन्
वेदसरस्यथ ।
सावित्र्याश्च वचः श्रुत्वा तस्मिन्
जन्मसहस्त्रकम् ।
स्मरणं तत्क्षणाज्जातं श्रृणु जन्मान्तरं
मम ।। ३.२ ।।
अस्त्यवन्तीपुरं राजंस्तत्राहं
प्राग् द्विजोत्तमः ।
नाम्ना सारस्वतः पूर्वं
वेदवेदाङ्गपारगः ।। ३.३ ।।
बहुभृत्यपरीवारो बहुधान्यश्च
पार्थिव ।
अन्यस्मिन् कृतसंज्ञे तु युगे
परमबुद्धिमान् ।। ३.४ ।।
ततो ध्यातं मयैकान्ते किमनेन
करोम्यहम् ।
द्वन्द्वेन सर्वमेतद्धि न्यस्त्वा
पुत्रेषु याम्यहम् ।
तपसे धृतसंकल्पः सरः सारस्वतं
द्रुतम् ।। ३.५ ।।
एवं चिन्त्य मया इष्टः कर्मकाण्डेन
केशवः ।
श्राद्धैश्च पितरो देवा
यज्ञैश्चान्ये तथा जनाः ।। ३.६ ।।
ततोऽहं निर्गतो राजंस्तपसे धृतमानसः
।
सारस्वतं नाम सरो यदेतत् पुष्करं
स्मृतम् ।। ३.७ ।।
तत्र गत्वा मया विष्णुः पुराणः
पुरुषः शिवः ।
आराधितो मया भक्त्या जपं
नारायणात्मकम् ।। ३.८ ।।
ब्रह्मपारमयं राजन् जपता परमं
स्तवम् ।
ततो मे भगवांस्तुष्टः प्रत्यक्षत्वं
जगाम ह ।। ३.९ ।।
नारदजी ने कहा- राजेन्द्र ! कुमारी
सावित्री की बात सुनकर उस वेद-सरोवर में मैंने ज्यों ही स्नान किया,
उसी क्षण मुझे अपने हजारों जन्मों की बातें स्मरण हो आयीं । अब तुम
मेरे पूर्वजन्म की बात सुनो। अवन्ती नाम की एक पुरी है। मैं पूर्वजन्म में उसमें
निवास करनेवाला एक श्रेष्ठ ब्राह्मण था । उस जन्म में मेरा नाम सारस्वत था और सभी वेद-वेदाङ्ग
मुझे सम्यक् अभ्यस्त थे । राजन् ! यह दूसरे सत्ययुग की बात है। उस समय मेरे पास
बहुत-से सेवक थे, धन-धान्य की अटूट राशि थी, भगवान्ने उत्तम बुद्धि भी दी थी। एक बार मैं बैठकर एकान्त में विचार करने
लगा कि संसार द्वन्द्वस्वरूप है; इसमें सुख-दुःख, हानि-लाभ आदि का चक्र सदा चलता रहता है। मुझे ऐसे संसार से क्या लेना-देना
है ? अतः मुझे अब अपनी सारी सांसारिक धन-सम्पदा पुत्रों को
सौंपकर तपस्या करने के लिये तुरंत सरस्वती नदी के तट पर चल देना चाहिये। यह विचार
करने के पश्चात्, क्या यह तत्काल करना उचित होगा, इस जिज्ञासा को लेकर मैंने भगवान् से प्रार्थना की। फिर भगवान् के
आज्ञानुसार मैंने श्राद्ध द्वारा पितरों को, यज्ञ द्वारा
देवताओं को तथा दान द्वारा अन्य लोगों को भी संतुष्ट किया। राजन् ! तत्पश्चात् सभी
ओर से निश्चिन्त होकर मैं सारस्वत नामक सरोवर पर, जो इस समय
पुष्करतीर्थ के नाम से विख्यात है, चला गया। वहाँ जाकर परम
मङ्गलमय पुराणपुरुष भगवान् विष्णु के नारायणमन्त्र ( ॐ नमो नारायणाय ) - का
जप एवं ब्रह्मपार नामक उत्तम स्तोत्र का पाठ करता हुआ मैं भक्तिपूर्वक आराधना करने
लगा। तब परम प्रसन्न होकर स्वयं भगवान् श्रीहरि मेरे सम्मुख प्रत्यक्ष रूप से प्रकट
हो गये ।
प्रियव्रत उवाच ।
कीदृशं ब्रह्मपारं तु
श्रोतुमिच्छामि सत्तम ।
कथयस्व प्रसादेन देवर्षे
सुप्रसन्नधीः ।। ३.१० ।।
प्रियव्रत बोले- महाभाग देवर्षे !
ब्रह्मपारस्तोत्र कैसा है ? इसे मैं सुनना चाहता
हूँ। आप मुझपर सदा प्रसन्न रहते हैं, अतएव कृपापूर्वक मुझे
इसका उपदेश करें।
ब्रह्मपारस्तोत्र
नारद उवाच ।
परं पराणाममृतं पुराणं
पारं परं विष्णुमनन्तवीर्यम् ।
नमामि नित्यं पुरुषं पुराणं
परायणं पारगतं पराणाम् ।। ३.११ ।।
नारदजी ने कहा- जो परात्पर,
अमृतस्वरूप, सनातन, अपार
शक्तिशाली एवं जगत्के परम आश्रय हैं, उन पुराणपुरुष भगवान्
महाविष्णु को मैं निरन्तर नमस्कार करता हूँ।
पुरातनं त्वप्रतिमं पुराणं
परापरं पारगमुग्रतेजसम् ।
गम्भीरगम्भीरधियां प्रधानं
नतोऽस्मि देवं हरिमीशितारम् ।। ३.१२
।।
जो पुरातन,
अतुलनीय, श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ एवं प्रचण्ड
तेजस्वी हैं, जो गहन - गम्भीर बुद्धि-विचार करनेवालों में
प्रधान तथा जगत्के शासक हैं, उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता
हूँ।
परात्परं चापरमं प्रधानं
परास्पदं शुद्धपदं विशालम् ।
परात्परेशं पुरुषं पुराणं
नारायणं स्तौमि विशुद्धभावः ।। ३.१३
।।
जो पर से भी पर हैं,
जिनसे परे दूसरा कोई है ही नहीं, जो दूसरों को
आश्रय देनेवाले एवं महान् पुरुष हैं, जिनका धाम विशुद्ध एवं
विशाल है, ऐसे पुराणपुरुष भगवान् नारायण की परम शुद्धभाव से
मैं स्तुति करता हूँ।
पुरा पुरं शून्यमिदं ससर्ज्ज
तदा स्थितत्वात् पुरुषः प्रधानः ।
जने प्रसिद्धः शरणं ममास्तु
नारायणो वीतमलः पुराणः ।। ३.१४ ।।
सृष्टि के पूर्व जब केवल शून्यमात्र
था,
उस समय पुरुषरूप से जिन्होंने प्रकृति की रचना की, वे भक्तजनों में प्रसिद्ध, शुद्धस्वरूप पुराणपुरुष
भगवान् नारायण मेरे लिये शरण हों।
पारं परं विष्णुमपाररूपं
पुरातनं नीतिमतां प्रधानम् ।
धृतक्षमं शान्तिधरं क्षितीशं
शुभं सदा स्तौमि महानुभावम् ।। ३.१५
।।
जो परात्पर,
अपारस्वरूप, पुरातन, नीतिज्ञों
में श्रेष्ठ, क्षमाशील, शान्ति के आगार
तथा जगत् के शासक हैं, उन कल्याणस्वरूप भगवान् नारायण की मैं
सदा स्तुति करता हूँ ।
सहस्त्रमूर्धानमनन्तपाद-
मनेकबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
क्षराक्षरं क्षीरसमुद्रनिद्रं
नारायणं स्तौम्यमृतं परेशम् ।। ३.१६
।।
जिनके हजारों मस्तक हैं,
असंख्य चरण और भुजाएँ हैं, चन्द्रमा और सूर्य
जिनके नेत्र हैं, क्षीरसागर में जो शयन करते हैं, उन अविनाशी सत्यस्वरूप परम प्रभु भगवान् नारायण की मैं स्तुति करता हूँ।
त्रिवेदगम्यं त्रिनवैकमूर्तिं
त्रिशुक्लसंस्थं त्रिहुताशभेदम् ।
त्रितत्त्वलक्ष्यं त्रियुगं
त्रिनेत्रं
नमामि नारायणमप्रमेयम् ।। ३.१७ ।।
जो वेदत्रयी के अवलम्बन द्वारा जाने
जाते हैं,
जो परब्रह्मरूप एक मूर्ति से द्वादश आदित्यरूप बारह मूर्तियों में
अभिव्यक्त होते हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु
और महेशरूप तीन परमोज्ज्वल मूर्तियों में स्थित हैं, जो
अग्निरूप में दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय - इन तीन
भेदों में विभक्त होते हैं, जो स्थूल, सूक्ष्म
तथा कारण- इन तीन तत्त्वों के अवलम्बन द्वारा लक्षित होते हैं, जो भूत, वर्तमान और भविष्यरूप से त्रिकालात्मक हैं
तथा सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्निरूप तीन नेत्रों से युक्त हैं,
उन अप्रमेयस्वरूप भगवान् नारायण को मैं प्रणाम करता हूँ।
कृते सितं रक्ततनुं तथा च
त्रेतायुगे पूततनुं पुराणम् ।
तथा हरिं द्वापरतः कलौ च
कृष्णीकृतात्मानमथो नमामि ।। ३.१८
।।
जो अपने श्रीविग्रह को सत्ययुग में
शुक्ल,
त्रेता में रक्त, द्वापर में पीतवर्ण से
अनुरञ्जित और कलियुग में कृष्णवर्ण में प्रकाशित करते हैं, उन
पुराणपुरुष श्रीहरि को मैं नमस्कार करता हूँ ।
ससर्ज यो वक्त्रत एव विप्रान्
भुजान्तरे क्षत्रमथोरुयुग्मे ।
विशः पदाग्रेषु तथैव शूद्रान्
नमामि तं विश्वतनुं पुराणम् ।। ३.१९
।।
जिन्होंने अपने मुख से ब्राह्मणों का,
भुजाओं से क्षत्रियों का, दोनों जङ्घाओं से
वैश्यों का एवं चरणों के अग्रभाग से शूद्रों का सृजन किया है, उन विश्वरूप पुराणपुरुष भगवान् नारायण को मैं प्रणाम करता हूँ।
परात्परं पारगतं प्रमेयं
युधांपतिं कार्यत एव कृष्णम्।
गदासिचर्मण्यभृतोत्थपाणिं
नमामि नारायणमप्रमेयम् ।। ३.२० ।।
जो परे से भी परे,
सर्वशास्त्रपारंगत, अप्रमेय और योद्धाओं में
श्रेष्ठ हैं, साधुओं के परित्राणरूप कार्य के निमित्त
जिन्होंने श्रीकृष्ण अवतार धारण किया है तथा जिनके हाथ ढाल, तलवार,
गदा और अमृतमय कमल से सुशोभित हैं, उन
अप्रमेय-स्वरूप भगवान् नारायण को मैं प्रणाम करता हूँ ।
इति स्तुतो देववरः प्रसन्नो
जगाद मां नीरदतुल्यघोषः ।
वरं वृणीष्वेत्यसकृत् ततोऽहं
तस्यैव देहे लयमिष्टवांश्च ।। ३.२१
।।
इति श्रुत्वा वचो मह्यं देवदेवः
सनातनः ।
उवाच प्रकृतिं विप्र
संसरस्वाक्षयामिमाम् ।। ३.२२ ।।
ब्रह्मणो युगसाहस्त्रं तत्ते
तस्मात् समुद्भवः ।
भविता ते तथा नाम दास्यते
संप्रयोजनम् ।। ३.२३ ।।
राजन् ! इस प्रकार स्तुति करने पर
देवाधिदेव भगवान् नारायण प्रसन्न होकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में मुझसे बोले - '
वर माँगो ।' तब मैंने उन प्रभु के शरीर में लय
होने की इच्छा व्यक्त की। मेरी बात सुनकर उन सनातन देवेश्वर ने मुझसे कहा - 'ब्रह्मन् ! अभी तुम शरीर धारण करो, क्योंकि इसकी
आवश्यकता है।
नारं पानीयमित्युक्तं तं पितॄणां
सदा भवान् ।
ददाति तेन ते नाम नारदेति भविष्यति
।। ३.२४ ।।
तुमने अभी जो तपस्या प्रारम्भ करने के
पूर्व पितरों को नार (जल) दान किया है, अतः
अब से तुम्हारा नाम नारद होगा।'
एवमुक्त्वा गतो देवः
सद्योऽदर्शनमुच्चकैः ।
अहं कलेवरं त्यक्त्वा कालेन तपसा
तदा ।। ३.२५ ।।
ब्रह्मणोऽङ्गे लयं
प्राप्तस्तदोत्पत्तिं च पार्थिव ।
दिवसे तु पुनः सृष्टो दशभिस्तनयैः
सह ।। ३.२६ ।।
दिनादिर्यो हि देवस्य ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः
।
स सृष्ट्यादिः समस्तानां देवादीनां
न संशयः ।। ३.२७ ।।
सर्वस्य जगतः सृष्टिरेषैव
प्रभुधर्मतः ।
एतन्मे प्राकृतं जन्म यन्मां
पृच्छसि पार्थिव ।। ३.२८ ।।
तस्मान्नारायणं ध्यात्वा
प्राप्तोऽस्मि परतो नृप ।
तस्मात् त्वमपि राजेन्द्र भव
विष्णुपरायणः ।। ३.२९ ।।
ऐसा कहकर भगवान् नारायण तुरंत ही
मेरी आँखों से ओझल हो गये। समय आने पर मैंने वह शरीर छोड़ दिया। तपस्या के प्रभाव से
मृत्यु के पश्चात् मुझे ब्रह्मलोक की प्राप्ति हुई। राजन् ! तदनन्तर ब्रह्माजी के
प्रथम दिवस का आरम्भ होने पर मेरी भी उनके दस मानस पुत्रों में उत्पत्ति हुई ।
सम्पूर्ण देवताओं की भी सृष्टि का वह प्रथम दिन है – इसमें कोई संशय नहीं। इसी प्रकार भगवद्धर्मानुसार सारे जगत्की सृष्टि होती
है । राजन् ! यह मेरे प्राकृत जन्म का प्रसङ्ग है, जिसके
विषय में तुमने प्रश्न किया था। राजेन्द्र ! भगवान् नारायण का ध्यान करने से ही
मुझे लोकगुरु का पद प्राप्त हुआ, अतएव तुम भी उन श्रीहरि के
परायण हो जाओ ।
।। इति श्रीवराहपुराणे
भगवच्छास्त्रे तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।।
आगे जारी........ श्रीवराहपुराण अध्याय 4
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