श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ३                                                      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ३ "भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ३

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं तृतीय अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ३                                                                          

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १० पूर्वार्ध अध्यायः ३                                                                             

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध तीसरा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ३  श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥

श्रीशुक उवाच

अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः ।

यर्ह्येवाजनजन्मर्क्षं शान्तर्क्षग्रहतारकम् ॥ १॥

दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम् ।

मही मङ्गलभूयिष्ठपुरग्रामव्रजाकरा ॥ २॥

नद्यः प्रसन्नसलिला ह्रदा जलरुहश्रियः ।

द्विजालिकुलसन्नादस्तबका वनराजयः ॥ ३॥

ववौ वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः ।

अग्नयश्च द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत ॥ ४॥

मनांस्यासन् प्रसन्नानि साधूनामसुरद्रुहाम् ।

जायमानेऽजने तस्मिन् नेदुर्दुन्दुभयो दिवि ॥ ५॥

जगुः किन्नरगन्धर्वास्तुष्टुवुः सिद्धचारणाः ।

विद्याधर्यश्च ननृतुरप्सरोभिः समं तदा ॥ ६॥

मुमुचुर्मुनयो देवाः सुमनांसि मुदान्विताः ।

मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुरनुसागरम् ॥ ७॥

निशीथे तम उद्भूते जायमाने जनार्दने ।

देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः ।

आविरासीद्यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः ॥ ८॥

तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं

चतुर्भुजं शङ्खगदाद्युदायुधम् ।

श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं

पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम् ॥ ९॥

महार्हवैदूर्यकिरीटकुण्डल-

त्विषा परिष्वक्तसहस्रकुन्तलम् ।

उद्दामकाञ्च्यङ्गदकङ्कणादिभि-

र्विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत ॥ १०॥

स विस्मयोत्फुल्लविलोचनो हरिं

सुतं विलोक्यानकदुन्दुभिस्तदा ।

कृष्णावतारोत्सवसम्भ्रमोऽस्पृश-

न्मुदा द्विजेभ्योऽयुतमाप्लुतो गवाम् ॥ ११॥

अथैनमस्तौदवधार्य पूरुषं

परं नताङ्गः कृतधीः कृताञ्जलिः ।

स्वरोचिषा भारत सूतिकागृहं

विरोचयन्तं गतभीः प्रभाववित् ॥ १२॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब समस्त शुभ गुणों से युक्त बहुत सुहावना समय आया। रोहिणी नक्षत्र था। आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त-सौम्य हो रहे थे, दिशाऐं स्वच्छ, प्रसन्न थीं। निर्मल आकाश में तारे जगमगा रहे थे। पृथ्वी के बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और हीरे आदि की खानें मंगलमय हो रहीं थीं। नदियों का जल निर्मल हो गया था। रात्रि के समय भी सरोवरों में कमल खिल रहे थे। वन में वृक्षों की पत्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पों के गुच्छों से लद गयीं थीं। कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे। उस समय परम पवित्र और शीतल-मंद-सुगन्ध वायु अपने स्पर्श से लोगों को सुखदान करती हुई बह रही थी। ब्राह्मणों के अग्निहोत्र की कभी न बुझने वाली अग्नियाँ जो कंस के अत्याचार से बुझ गयीं थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं। संत पुरुष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाये। अब उनका मन सहसा प्रसन्नता से भर गया। जिस समय भगवान के आविर्भाव का अवसर आया, स्वर्ग में देवताओं की दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे। विद्याधरियाँ अप्सराओं के साथ नाचने लगीं। बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्द से भरकर पुष्पों को वर्षा करने लगे, जल से भरे हुए बादल समुद्र के पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे।

जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था निशीथ। चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था। उसी समय सबके हृदय में विराजमान भगवान विष्णु देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो गया हो। वसुदेव जी ने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है। उसके नेत्र कमल के समान कोमल और विशाल हैं। चार सुन्दर हाथों में शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए है। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न - अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है। गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है। वर्षाकालीन मेघ के समान परम सुन्दर श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है। बहुमूल्य वैदूर्यमणि के किरीट और कुण्डल की कान्ति से सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्य की किरणों के सामान चमक रहे हैं। कमर में चमचमाती करधनी की लड़ियाँ लटक रहीं हैं। बाँहों में बाजूबंद और कलाईयों में कंकण शोभायमान हो रहे हैं। इन सब आभूषणों से सुशोभित बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है।

जब वसुदेव जी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में स्वयं भगवान ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्द से उनकी आँखें खिल उठी। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाने की उतावली में उन्होंने उसी समय ब्राह्मणों के लिए दस हज़ार गायों का संकल्प कर दिया। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण अपनी अंगकांति से सूतिका गृह को जगमग कर रहे थे। जब वसुदेव जी को यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान का प्रभाव जान लेने से उनका सारा भय जाता रहा। अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान के चरणों में अपना सर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे।

वसुदेव उवाच

विदितोऽसि भवान् साक्षात्पुरुषः प्रकृतेः परः ।

केवलानुभवानन्दस्वरूपः सर्वबुद्धिदृक् ॥ १३॥

स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम् ।

तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे ॥ १४॥

यथेमेऽविकृता भावास्तथा ते विकृतैः सह ।

नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयन्ति हि ॥ १५॥

सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव ।

प्रागेव विद्यमानत्वान्न तेषामिह सम्भवः ॥ १६॥

एवं भवान् बुद्ध्यनुमेयलक्षणै-

र्ग्राह्यैर्गुणैः सन्नपि तद्गुणाग्रहः ।

अनावृतत्वाद्बहिरन्तरं न ते

सर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुनः ॥ १७॥

य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति

व्यवस्यते स्वव्यतिरेकतोऽबुधः ।

विनानुवादं न च तन्मनीषितं

सम्यग्यतस्त्यक्तमुपाददत्पुमान् ॥ १८॥

त्वत्तोऽस्य जन्मस्थितिसंयमान् विभो

वदन्त्यनीहादगुणादविक्रियात् ।

त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते

त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते गुणैः ॥ १९॥

स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया

बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः ।

सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं

कृष्णं च वर्णं तमसा जनात्यये ॥ २०॥

त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषु-

र्गृहेऽवतीर्णोऽसि ममाखिलेश्वर ।

राजन्यसंज्ञासुरकोटियूथपै-

र्निर्व्यूह्यमाना निहनिष्यसे चमूः ॥ २१॥

अयं त्वसभ्यस्तव जन्म नौ गृहे

श्रुत्वाग्रजांस्ते न्यवधीत्सुरेश्वर ।

स तेऽवतारं पुरुषैः समर्पितं

श्रुत्वाधुनैवाभिसरत्युदायुधः ॥ २२॥

वसुदेव जी ने कहा ;- मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात पुरुषोत्तम हैं। आपका स्वरूप है- केवल अनुभव और केवल आनन्द। आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं। आप ही सर्ग के आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत की सृष्टि करते हैं। फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं। जैसे जब तक महत्त्व आदि कारण-तत्त्व पृथक-पृथक रहते हैं तब तक उनकी शक्ति भी पृथक होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारों के साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसी में अनुप्रविष्ट-से-जान पड़ते हैं; परन्तु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते।

ऐसा होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु हैं, उनमें वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं। ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल गुणों के लक्षणों का ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा केवल गुणमय विषयों का ही ग्रहण होता है। यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणों के ग्रहण से आपका ग्रहण नहीं होता। इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं। गुणों का आवरण आपको ढक नहीं सकता। इसलिए आपमें न बाहर है न भीतर। फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे? जो अपने इन दृश्य गुणों को अपने से पृथक मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है। क्योंकि विचार करने पर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नही सिद्ध होते। विचार के द्वारा जिस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य मानने वाला पुरुष बुद्धिमान कैसे हो सकता है?

प्रभो! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारों से रहित हैं। फिर भी इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं। यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म परमात्मा आपके लिए असंगत नहीं है। क्योंकि तीनों गुणों के आश्रय आप ही हैं, इसलिए उन गुणों के कार्य आदि का आपमें ही आरोप किया जाता है। आप ही तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए अपनी माया से सत्त्वमय शुक्लवर्ण धारण करते हैं, उत्पत्ति के लिए रजःप्रधान रक्तवर्णी और प्रलय के समय तमोगुण प्रधान कृष्णवर्ण स्वीकार करते हैं।

प्रभो! आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। इस संसार की रक्षा के लिए ही आपने मेरे घर अवतार लिया है। आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियों ने राजा का नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं। आप उन सब का संहार करेंगे। देवताओं के भी आराध्यदेव प्रभो! यह कंस बड़ा दुष्ट है। इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होने वाला है, तब उसने आपके भय से आपके भाइयों को मार डाला। अभी उसके दूत आपके अवतार का समाचार उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथ में शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा।

श्रीशुक उवाच

अथैनमात्मजं वीक्ष्य महापुरुषलक्षणम् ।

देवकी तमुपाधावत्कंसाद्भीता शुचिस्मिता ॥ २३॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्र में तो पुरुषोत्तम भगवान के सभी लक्षण मौजूद हैं। पहले तो उन्हें कंस से कुछ भय मालूम हुआ, परन्तु फिर वे बड़े पवित्र भाव से मुस्कराती हुई स्तुति करने लगीं।

देवक्युवाच

रूपं यत्तत्प्राहुरव्यक्तमाद्यं

ब्रह्म ज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम् ।

सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं

स त्वं साक्षाद्विष्णुरध्यात्मदीपः ॥ २४॥

नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने

महाभूतेष्वादिभूतं गतेषु ।

व्यक्तेऽव्यक्तं कालवेगेन याते

भवानेकः शिष्यते शेषसंज्ञः ॥ २५॥

योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबन्धो

चेष्टामाहुश्चेष्टते येन विश्वम् ।

निमेषादिर्वत्सरान्तो महीयां-

स्तं त्वेशानं क्षेमधाम प्रपद्ये ॥ २६॥

मर्त्यो मृत्युव्यालभीतः पलायन्

लोकान् सर्वान्निर्भयं नाध्यगच्छत् ।

त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाद्य

स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति ॥ २७॥

स त्वं घोरादुग्रसेनात्मजान्न-

स्त्राहि त्रस्तान् भृत्यवित्रासहासि ।

रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यं

मा प्रत्यक्षं मांसदृशां कृषीष्ठाः ॥ २८॥

जन्म ते मय्यसौ पापो मा विद्यान्मधुसूदन ।

समुद्विजे भवद्धेतोः कंसादहमधीरधीः ॥ २९॥

उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम् ।

शङ्खचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम् ॥ ३०॥

विश्वं यदेतत्स्वतनौ निशान्ते

यथावकाशं पुरुषः परो भवान् ।

बिभर्ति सोऽयं मम गर्भगोऽभू-

दहो नृलोकस्य विडम्बनं हि तत् ॥ ३१॥

माता देवकी ने कहा ;- प्रभो! वेदों ने आपके जिस रूप को अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योतिस्वरूप, समस्त गुणों से रहित और विकारहीन हैं, जिसे विशेषणरहित - अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ता के रूप में कहा गया है - वही बुद्धि आदि के प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं। जिस समय ब्रह्मा की पूरी आयु - दो परार्थ समाप्त हो जाते हैं, काल शक्ति के प्रभाव से सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पंच महाभूत अहंकार में, अहंकार महत्तत्त्व में और महत्तत्त्व प्रकृति में लीन हो जाता है, उस समय एकमात्र आप ही शेष रह जाते हैं, इसी से आपका एक नाम शेषभी है। प्रकृति के एकमात्र सहायक प्रभो! निमेष से लेकर वर्षपर्यंत अनेक विभागों में विभक्त जो काल है, जिसकी चेष्टा से यह सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह आपकी लीला मात्र है। आप सर्वशक्तिमान और परम कल्याण के आश्रय हैं। मैं आपकी शरण लेती हूँ।

प्रभो! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा है। यह मृत्युरूप कराल व्याल से भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों में भटकता रहा है; परन्तु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह निर्भय होकर रहे। आज बड़े भाग्य से इसे आपके चरणारविन्दों की शरण मिल गयी। अतः अब यह स्वस्थ होकर सुख की नींद सो रहा है। औरों की बात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है।

प्रभो! आप हैं भक्त्तभयहारी। और हम लोग इस दुष्ट कंस से बहुत ही भयभीत हैं। अतः आप हमारी रक्षा कीजिये। आपका यह चतुर्भुज दिव्यरूप ध्यान की वस्तु है। इसे केवल मांस-मज्जामय शरीर पर ही दृष्टि रखने वाले देहाभिमानी पुरुषों के सामने प्रकट मत कीजिये। मधुसूदन! इस पापी कंस को यह बात मालूम न हो कि आपका जन्म मेरे गर्भ से हो रहा है। मेरा धैर्य टूट रहा है। आपके लिए मैं कंस से बहुत डर रही हूँ। विश्वात्मन! आपका यह रूप अलौकिक है। आप शंख, चक्र, गदा और कमल की शोभा से युक्त अपना यह चतुर्भुज रूप छिपा लीजिये। प्रलय के समय आप इस सम्पूर्ण विश्व को अपने शरीर में वैसे ही स्वाभाविक रूप से धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीर में रहने वाले छिद्ररूप आकाश को। वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद्भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या?

श्रीभगवानुवाच

त्वमेव पूर्वसर्गेऽभूः पृश्निः स्वायम्भुवे सति ।

तदायं सुतपा नाम प्रजापतिरकल्मषः ॥ ३२॥

युवां वै ब्रह्मणाऽऽदिष्टौ प्रजासर्गे यदा ततः ।

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तेपाथे परमं तपः ॥ ३३॥

वर्षवातातपहिमघर्मकालगुणाननु ।

सहमानौ श्वासरोधविनिर्धूतमनोमलौ ॥ ३४॥

शीर्णपर्णानिलाहारावुपशान्तेन चेतसा ।

मत्तः कामानभीप्सन्तौ मदाराधनमीहतुः ॥ ३५॥

एवं वां तप्यतोस्तीव्रं तपः परमदुष्करम् ।

दिव्यवर्षसहस्राणि द्वादशेयुर्मदात्मनोः ॥ ३६॥

तदा वां परितुष्टोऽहममुना वपुषानघे ।

तपसा श्रद्धया नित्यं भक्त्या च हृदि भावितः ॥ ३७॥

प्रादुरासं वरदराड् युवयोः कामदित्सया ।

व्रियतां वर इत्युक्ते मादृशो वां वृतः सुतः ॥ ३८॥

अजुष्टग्राम्यविषयावनपत्यौ च दम्पती ।

न वव्राथेऽपवर्गं मे मोहितौ मम मायया ॥ ३९॥

गते मयि युवां लब्ध्वा वरं मत्सदृशं सुतम् ।

ग्राम्यान् भोगानभुञ्जाथां युवां प्राप्तमनोरथौ ॥ ४०॥

अदृष्ट्वान्यतमं लोके शीलौदार्यगुणैः समम् ।

अहं सुतो वामभवं पृश्निगर्भ इति श्रुतः ॥ ४१॥

तयोर्वां पुनरेवाहमदित्यामास कश्यपात् ।

उपेन्द्र इति विख्यातो वामनत्वाच्च वामनः ॥ ४२॥

तृतीयेऽस्मिन् भवेऽहं वै तेनैव वपुषाथ वाम् ।

जातो भूयस्तयोरेव सत्यं मे व्याहृतं सति ॥ ४३॥

एतद्वां दर्शितं रूपं प्राग्जन्मस्मरणाय मे ।

नान्यथा मद्भवं ज्ञानं मर्त्यलिङ्गेन जायते ॥ ४४॥

युवां मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन चासकृत् ।

चिन्तयन्तौ कृतस्नेहौ यास्येथे मद्गतिं पराम् ॥ ४५॥

श्री भगवान ने कहा ;- देवि! स्वायम्भुव मन्वन्तर में जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्र्नि और ये वसुदेव सुतपा नाम के प्रजापति थे। तुम दोनों के हृदय बड़े शुद्ध थे। जब ब्रह्मा जी ने तुम दोनों को संतान उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब तुम लोगों ने इन्द्रियों का दमन करके उत्कृष्ट तपस्या की। तुम दोनों ने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि काल के विभिन्न गुणों को सहन किया और प्राणायाम के द्वारा अपने मन के मैल धो डाले। तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते। तुम्हारा चित्त बड़ा शांत था। इस प्रकार तुम लोगों ने मुझ से अभीष्ट वस्तु प्राप्त करने की इच्छा से मेरी आराधना की। मुझ में चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओं के बारह हज़ार वर्ष बीत गये।

'पुण्यमयी देवि! उस समय मैं तुम दोनों पर प्रसन्न हुआ। क्योंकि तुम दोनों ने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्ति से अपने हृदय में नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी। उस समय तुम दोनों की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए वर देने वालों का राजा मैं इसी रूप से तुम्हारे सामने प्रकट हुआ। जब मैंने कहा कि तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनों ने मेरे जैसा पुत्र माँगा। उस समय तक विषय-भोगों से तुम लोगों का कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था। तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी। इसलिए मेरी माया से मोहित होकर तुम दोनों ने मुझ से मोक्ष नहीं माँगा। तुम्हें मेरे जैसा पुत्र होने का वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँ से चला गया। अब सफल मनोरथ होकर तुम लोग विषयों का भोग करने लगे। मैंने देखा कि संसार में शील-स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणों में मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिए मैं ही तुम दोनों का पुत्र हुआ और उस समय मैं पृश्र्निगर्भके नाम से विख्यात हुआ।

फिर दूसरे जन्म में तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। मेरा नाम था उपेन्द्र। शरीर छोटा होने के कारण लोग मुझे वामनभी कहते थे। सती देवकी! तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप से फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ । मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है।

मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाय। यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीर से मेरे अवतार की पहचान नहीं हो पाती। तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना। इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तन के द्वारा तुम्हें मेरे परम पद की प्राप्ति होगी।'

श्रीशुक उवाच

इत्युक्त्वाऽऽसीद्धरिस्तूष्णीं भगवानात्ममायया ।

पित्रोः सम्पश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः ॥ ४६॥

ततश्च शौरिर्भगवत्प्रचोदितः

सुतं समादाय स सूतिका गृहात् ।

यदा बहिर्गन्तुमियेष तर्ह्यजा

या योगमायाजनि नन्दजायया ॥ ४७॥

तया हृतप्रत्ययसर्ववृत्तिषु

द्वाःस्थेषु पौरेष्वपि शायितेष्वथ ।

द्वारस्तु सर्वाः पिहिता दुरत्यया

बृहत्कपाटायसकीलशृङ्खलैः ॥ ४८॥

ताः कृष्णवाहे वसुदेव आगते

स्वयं व्यवर्यन्त यथा तमो रवेः ।

ववर्ष पर्जन्य उपांशुगर्जितः

शेषोऽन्वगाद्वारि निवारयन् फणैः ॥ ४९॥

मघोनि वर्षत्यसकृद्यमानुजा

गम्भीरतोयौघजवोर्मिफेनिला ।

भयानकावर्तशताकुला नदी

मार्गं ददौ सिन्धुरिव श्रियः पतेः ॥ ५०॥

नन्दव्रजं शौरिरुपेत्य तत्र तान्

गोपान् प्रसुप्तानुपलभ्य निद्रया ।

सुतं यशोदाशयने निधाय तत्

सुतामुपादाय पुनर्गृहानगात् ॥ ५१॥

देवक्याः शयने न्यस्य वसुदेवोऽथ दारिकाम् ।

प्रतिमुच्य पदोर्लोहमास्ते पूर्ववदावृतः ॥ ५२॥

यशोदा नन्दपत्नी च जातं परमबुध्यत ।

न तल्लिङ्गं परिश्रान्ता निद्रयापगतस्मृतिः ॥ ५३॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- भगवान इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया। तब वसुदेव जी ने भगवान की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिका गृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म-रहित है। उसी योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रिय वृत्तियों की चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गए।

बंदीगृह के सभी दरवाजे बंद थे। उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहे की जंजीरें और ताले जड़े हुए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेव जी भगवान श्रीकृष्ण को गोद में लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गए । ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है। उस समय बादल धीरे-धीरे गरज कर जल की फुहारें छोड़ रहे थे। इसलिए शेषजी अपने फनों से जल को रोकते हुए भगवान के पीछे-पीछे चलने लगे ।

उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इस से यमुना जी बहुत बढ़ गयी थीं। उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंगों के कारण जल पर फेन-ही-फेन हो रहा था। सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीतापति भगवान श्रीराम जी को समुद्र ने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुना जी ने भगवान को मार्ग दे दिया।

वसुदेव जी ने नन्दबाबा के गोकुल में जाकर देखा कि सब-के-सब गोप नींद में अचेत पड़े हुए हैं। उन्होंने अपने पुत्र को यशोदा जी की शैय्या पर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृह में लौट आये। जेल में पहुँचकर वसुदेव जी ने उस कन्या को देवकी की शैय्या पर सुला दिया और अपने पैरों में बेड़ियाँ डाल लीं तथा पहले की तरह वे बंदीगृह में बंद हो गये।

उधर नन्दपत्नी यशोदा जी को इतना तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परन्तु वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री। क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे योगमाया ने उन्हें अचेत कर दिया था ।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कृष्णजन्मनि तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 4 

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