वराहपुराण अध्याय ६
वराहपुराण के अध्याय ६ में पुण्डरीकाक्षपार
- स्तोत्र, राजा वसु के जन्मान्तर का
प्रसङ्ग तथा उनका भगवान् श्रीहरि में लय होने का वर्णन है।
वराह पुराण अध्याय ६
Varah Purana chapter 6
श्रीवराहपुराणम् षष्ठोऽध्यायः
वराहपुराणम् अध्यायः ६
श्रीवराहपुराण छटवाँ अध्याय
श्रीवराहपुराण षष्ठ
अध्याय
श्रीवराहपुराण
अध्याय ६
धरण्युवाच ।
स वसुः संशयच्छेदं प्राप्य रैभ्यश्च
सत्तमः ।
उभौ किं चक्रतुर्देव श्रुत्वा
चाङ्गिरसं वचः ।। ६.१ ।।
पृथ्वी बोली- भगवन् ! जब बृहस्पति की
बात सुनकर राजा वसु और महाभाग रैभ्य का संदेह दूर हो गया,
तब उन लोगों ने फिर कौन-सा कार्य किया ?
श्रीवराह उवाच ।
स वसुः सर्वधर्मज्ञः स्वराज्यं
प्रतिपालयन् ।
अयजद्
बहुभिर्यज्ञैर्महद्भिर्भूरिदक्षिणैः ।। ६.२ ।।
कर्मकाण्डेन देवेशं हरिं नारायणं
प्रभुम् ।
तोषयामास राजेन्द्रस्तमभेदेन
चिन्तयन् ।। ६.३ ।।
ततः कालेन महता तस्य राज्ञो मतिः
किल ।
निवृत्तराज्यभोगस्य
द्न्द्वस्यान्तमुपेयुषी ।। ६.४ ।।
ततः पुत्रं विवस्वन्तं श्रेष्ठं
भ्रातृशतस्य ह ।
अभिषिच्य स्वके राज्ये
तपोवनमुपागमत् ।। ६.५ ।।
पुष्करं नाम तीर्थानां प्रवरं यत्र
केशवः ।
पुण्डरीकाक्षनामा तु पूज्यते
तत्परायणैः ।। ६.६ ।।
तत्र गत्वा स राजर्षिः
काश्मीराधिपतिर्वसुः ।
अतितीव्रेण तपसा स्वशरीरमशोषयत् ।।
६.७ ।।
पुण्डरीकाक्षपारं तु स्तवं भक्त्या
जपन् बुधः ।
आरिराधयिषुर्देवं नारायणमकल्मषम् ।
स्तोत्रान्ते तल्लयं प्राप्तः स
राजा राजसत्तमः ।। ६.८ ।।
भगवान् वराह कहते हैं - पृथ्वि !
राजा वसु ने अपने राज्य का पालन करते हुए पुष्कल दक्षिणावाले अनेक विशाल यज्ञों द्वारा
भगवान् श्रीहरि का यजन किया। उन्होंने देवदेवेश्वर भगवान् नारायण को यज्ञादि
कर्मों के अनुष्ठान द्वारा तथा सभी प्राणियों में अभेद – दर्शन की साधना करके
प्रसन्न कर लिया। इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर राजा वसु के मन में राज्य का
उपभोग करने की इच्छा निवृत्त हो गयी और उनके मन में इस द्वन्द्वमय संसार से मुक्त
होने की कामना जाग उठी; अतः उन्होंने अपने
सौ पुत्रों में सबसे बड़े राजकुमार विवस्वान् को राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया
और स्वयं तपस्या करने के विचार से वन में चले गये। वे सभी तीर्थों में श्रेष्ठ
पुष्कर तीर्थ में जा पहुँचे, जहाँ भगवत्परायण पुरुषों द्वारा
पुण्डरीकाक्ष भगवान् केशव की सदा उपासना होती रहती है। वहाँ जाकर काश्मीर-नरेश
राजर्षि वसु ने कठिन तपस्या द्वारा अपने शरीर को सुखाना प्रारम्भ कर दिया। उन परम
बुद्धिमान् राजर्षि का मन शुद्धस्वरूप भगवान् नारायण की आराधना के लिये अत्यन्त
उत्सुक था; अतः वे परम अनुरागपूर्वक 'पुण्डरीकाक्षपार'
नामक स्तोत्र का जप करने में संलग्न हो गये । दीर्घ कालतक उस
स्तोत्र का जप करके महाराज वसु पुण्डरीकाक्ष भगवान् श्रीहरि में विलीन हो गये ।
धरण्युवाच ।
पुण्डरीकाक्षपारं तु स्तोत्रं देव
कथं स्मृतम् ।
कीदृशं तन्ममाचक्ष्व परमेश्वर
तत्त्वतः ।। ६.९ ।।
पृथ्वी ने पूछा- देव ! इस 'पुण्डरीकाक्षपार'- स्तोत्र का स्वरूप क्या है ?
परमेश्वर ! आप इसे मुझे बताने की कृपा करें।
पुण्डरीकाक्षपार स्तोत्र
भगवान् वराह कहते हैं - पृथ्वि !
(राजा वसु के द्वारा अनुष्ठित पुण्डरीकाक्षपार-स्तोत्र इस प्रकार है —
)
श्रीवराह उवाच ।
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते मधुसूदन
।
नमस्ते सर्वलोकेश नमस्ते
तिग्मचक्रिणे ।। ६.१० ।।
पुण्डरीकाक्ष ! आपको नमस्कार है।
मधुसूदन ! आपको नमस्कार है । सर्वलोकमहेश्वर ! आपको नमस्कार है। तीक्ष्ण
सुदर्शनचक्र धारण करनेवाले श्रीहरि को मेरा बारंबार नमस्कार है।
विश्वमूर्तिं महाबाहुं वरदं
सर्वतेजसम् ।
नमामि पुण्डरीकाक्षं
विद्याऽविद्यात्मकं विभुम् ।। ६.११ ।।
महाबाहो ! आप विश्वरूप हैं,
आप भक्तों को वर देनेवाले और सर्वव्यापक हैं, आप
असीम तेजोराशि के निधान हैं, विद्या और अविद्या- इन दोनों में
आपकी ही सत्ता विलसित होती है, ऐसे आप कमलनयन भगवान् श्रीहरि
को मैं प्रणाम करता हूँ ।
आदिदेवं महादेवं वेदवेदाङ्गपारगम् ।
गम्भीरं सर्वदेवानां नमामि
मधुसूदनम् ।। ६.१२ ।।
प्रभो! आप आदिदेव एवं देवताओं के भी
देवता हैं। आप वेद-वेदाङ्ग में पारङ्गत, समस्त
देवताओं में सबसे गहन एवं गम्भीर हैं। कमल के समान नेत्रोंवाले आप श्रीहरि को मैं
नमस्कार करता हूँ।
विश्वमूर्तिं महामूर्तिं
विद्यामूर्तिं त्रिमूर्तिकम् ।
कवचं सर्वदेवानां नमस्ये
वारिजेक्षणम् ।। ६.१३ ।।
सहस्त्रशीर्षिणं देवं सहस्त्राक्षं
महाभुजम् ।
जगत्संव्याप्य तिष्ठन्तं नमस्ये
परमेश्वरम् ।। ६.१४ ।।
भगवन्! आपके हजारों मस्तक हैं,
हजारों नेत्र हैं और अनन्त भुजाएँ हैं । आप सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त
करके स्थित हैं, ऐसे आप परम प्रभु की मैं वन्दना करता हूँ।
शरण्यं शरणं देवं विष्णुं जिष्णुं
सनातनम् ।
नीलमेघप्रतीकाशं नमस्ये चक्रपाणिनम्
।। ६.१५ ।।
जो सबके आश्रय और एकमात्र शरण लेने
योग्य हैं, जो व्यापक होने से विष्णु एवं
सर्वत्र जयशील होने से जिष्णु कहे जाते हैं, नीले मेघ के
समान जिनकी कान्ति है, उन चक्रपाणि सनातन देवेश्वर श्रीहरि को
मैं प्रणाम करता हूँ।
शुद्धं सर्वगतं नित्यं व्योमरूपं
सनातनम् ।
भावाभावविनिर्मुक्तं मस्ये सर्वगं
हरिम् ।। ६.१६ ।।
जो शुद्धस्वरूप,
सर्वव्यापी, अविनाशी, आकाश
के समान सूक्ष्म, सनातन तथा जन्म-मरण से रहित हैं, उन सर्वगत श्रीहरि का मैं अभिवादन करता हूँ।
नान्यत् किंचित् प्रपश्यामि
व्यतिरिक्तं त्वयाऽच्युत ।
त्वन्मयं च प्रपश्यामि
सर्वमेतच्चराचरम् ।। ६.१७ ।।
अच्युत! आपके अतिरिक्त मुझे कोई भी
वस्तु प्रतीत नहीं हो रही है । यह सम्पूर्ण चराचर जगत् मुझे आपका ही स्वरूप
दिखलायी पड़ रहा है।
एवं तु वदतस्तस्य मूर्त्तिमान्
पुरुषः किल ।
निर्गत्य देहान्नीलाभो घनचण्डो
भयंकरः ।। ६.१८ ।।
रक्ताक्षो ह्रस्वकायस्तु दग्धस्थूणासमप्रभः
।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा किं करोमि
नराधिप ।। ६.१९ ।।
( भगवान् वराह कहते हैं -) राजा वसु इस प्रकार स्तोत्रपाठ कर ही रहे थे कि
एक नीलवर्ण पुरुष मूर्तिमान् होकर उनके शरीर के बाहर निकल आया, जो देखने में अत्यन्त प्रचण्ड एवं भयंकर प्रतीत होता था । उसके नेत्र लाल
थे और वह ह्रस्वकाय पुरुष ऐसा प्रतीत होता था, मानो कोई जलता
हुआ अंगार हो । वह दोनों हाथ जोड़कर बोला- 'राजन् ! मैं क्या
करूँ ?"
राजोवाच ।
कोऽसि किं कार्यमिह ते
कस्मादागतवानसि ।
एतन्मे कथय व्याध एतदिच्छामि
वेदितुम् ।। ६.२० ।।
राजा वसु बोले- अरे ! तुम कौन हो और
तुम्हारा क्या काम है? तुम कहाँ से आये हो
? व्याध ! मुझे बताओ, मैं ये सब बातें
जानना चाहता हूँ ।
व्याध उवाच ।
पूर्वं कलियुगे राजन् राजा त्वं
दक्षिणापथे ।
पूर्णधर्मोद्भवः श्रीमाञ्जनस्थाने
विचक्षणः ।। ६.२१ ।।
स कदाचिद् भवान् वीर तुरगैः
परिवारितः ।
अरण्यमागतो हन्तुं श्वापदानि
विशेषतः ।। ६.२२ ।।
तत्र त्वयाऽन्यकामेन मृगवेषधरो
मुनिः ।
दण्डयुग्मेन दूरे तु पातितो धरणीतले
।। ६.२३ ।।
सद्यो मृतश्च विप्रेन्द्रस्त्वं च
राजन् मुदा युतः ।
हरिणोऽयं हत इति यावत् पश्यसि
पार्थिव ।
तावन्मृगवपुर्विप्रो मृतः
प्रस्त्रवणे गिरौ ।। ६.२४ ।।
तं दृष्ट्वा त्वं महाराज
क्षुभितेन्द्रियमानसः ।
गृहं गतस्ततोऽन्यस्य कस्यचित् कथितं
त्वया ।। ६.२५ ।।
व्याध ने कहा- राजन् ! प्राचीन काल की
बात है;
कलियुग के समय तुम दक्षिण दिशा में जनस्थान नामक प्रदेश के राजा थे।
वीरवर ! एक समय तुम वन्य पशुओं का शिकार करने के लिये जंगल में गये थे। उस समय
तुम्हारे पास बहुत-से घोड़े थे । यद्यपि तुम्हारा उद्देश्य हिंस्र जन्तुओं का वध
करना मात्र ही था, किंतु मृग का रूप धारण कर वन में विचरण
करनेवाले एक मुनि तुम्हारे न चाहते हुए भी बाणों के शिकार होकर भूमि पर गिर पड़े
और गिरते ही चल बसे। तुम्हारे मन में यह सोचकर बड़ा हर्ष हुआ कि एक हरिण मारा गया।
किंतु जब तुमने पास जाकर देखा तो मृगरूप धारण करनेवाले वे मृतक ब्राह्मण दिखलायी
पड़े। यह घटना प्रस्रवण पर्वत पर घटित हुई थी । महाराज ! उस समय ब्राह्मण को मृत
देखकर तुम्हारी इन्द्रियाँ और मन सब-के-सब क्षुब्ध हो उठे। तुम वहाँ से घर लौट
आये। तुमने यह घटना किसी और को भी बतला दी।
ततः कतिपयाहस्य त्वया रात्रौ
नरेश्वर ।
ब्रह्महत्याभयाद्भीतचितेनैतद्
विचिन्तितम् ।
कृत्यं करोमि शान्त्यर्थं मुच्यते
येन पातकात् ।। ६.२६ ।।
ततस्त्वया महाराज सकृन्नारायणं
प्रभुम् ।
संचिन्त्य द्वादशी शुद्धा त्वया
राजन्नुपोषिता ।। ६.२७ ।।
नारायणो मे सुप्रीत इति प्रोक्त्वा
शुभेऽहनि ।
गौर्दत्ता विधिना सद्यो
मृतोऽस्युदरशूलतः ।। ६.२८ ।।
अभुक्तो द्वादशीधर्मे यत् तत्रापि च
कारणम् ।
कथयामि भवत्पत्नी नाम्ना नारायणी
शुभा ।। ६.२९ ।।
सा कण्ठगेन प्राणेन व्याहृता तेन ते
गतिः ।
कल्पमेकं महाराज जाता विष्णुपुरे तव
।। ६.३० ।।
राजन्! कुछ समय बीत जाने पर सहसा एक
रात को ब्रह्महत्या के भय से तुम आतङ्कित हो उठे; अतः तुमने विचार किया कि इस ब्रह्महत्या की शान्ति के लिये मैं कोई ऐसा
प्रयत्न करूँ, जिसके परिणामस्वरूप इस पाप से मुक्त हो जाऊँ।
महाराज ! तदनन्तर समय आने पर भगवान् नारायण का अनवरत चिन्तन करते हुए तुमने परम
पवित्र द्वादशीपर्यन्त व्याप्त शुद्ध एकादशी का उपवासपूर्वक व्रत किया। फिर दूसरे
दिन तुमने 'भगवान् नारायण मुझ पर प्रसन्न हों', इस संकल्प के साथ विधिपूर्वक गोदान किया। इसके बाद किसी दिन उदर शूल की
असह्य पीड़ा से तुम्हारे प्राण पखेरू उड़ गये। किंतु द्वादशीव्रत – पुण्य के होते
हुए भी तुमको मुक्ति प्राप्त न हो सकी। इसका कारण मैं बताता हूँ, सुनो। तुम्हारी सौभाग्यवती रानी का नाम नारायणी था । मृत्यु के समय जब
तुम्हारे प्राण कण्ठ में आ गये थे, उस समय तुम्हारे मुख से
उसके नाम का उच्चारण हुआ, उसी से तुम्हें उत्तम गति की
प्राप्ति हुई और तुमको एक कल्पपर्यन्त विष्णुलोक में निवास प्राप्त हुआ । *
* उक्त
प्रकरण से यह शङ्का होनी स्वाभाविक है कि क्या विष्णुलोक में गमन के पश्चात् इस
जन्म - मृत्युमय संसार में लौटकर पुनः आना पड़ता है ? क्योंकि
भगवद्गीता में स्वयं श्रीभगवान्ने – 'यद्गत्वा न निवर्तन्ते
तद्धाम परमं मम' कहकर अपने परमधाम को प्राप्त होने पर जीव का
इस संसार में पुनरागमन न होने की घोषणा की है। इस विषय में प्रमाणभूत ग्रन्थों का आश्रय
लेकर विचार करने से निम्नाङ्कित बातें प्रतीत होती हैं-
श्रीभगवान्के परम विशुद्ध
वैकुण्ठधाम के भी कई स्तर हैं। यद्यपि ये सभी स्तर प्राकृत-प्रपञ्च से अतीत हैं, फिर भी प्रलयकाल में इसके बाह्य अंशका प्रलय होता है,
जब कि आभ्यन्तर भाग उस समय अन्तर्हित हो जाता है। राजा वसु का
कल्पपर्यन्त विष्णुलोक में निवास वैकुण्ठ के किसी बाह्य स्तर पर कल्पान्तजीवी
पुरुषों का निवास होने की ओर संकेत करता है । श्रीमद्भागवत से भी इसकी पुष्टि होती
है-
किमन्यैः कालनिर्धूतैः कल्पान्ते
वैष्णवादिभिः । ( ७।३।१)
इसी कल्पान्तपर्यन्त
आयुवाले लोक के ऊपर ध्रुव की स्थिति मानी गयी है। इसी ग्रन्थ में श्रीभगवान्
नारायण ध्रुव को वर देते समय कहते हैं-
नान्यैरधिष्ठितं भद्र
यद्भ्राजिष्णु ध्रुवक्षिति ।
यत्र ग्रहर्क्षताराणां
ज्योतिषां चक्रमाहितम् ॥
मेढ्यां
गोचक्रवत्स्थास्नु परस्तात्कल्पवासिनाम्। (४।९।२० )
भद्र! जिस तेजोमय अविनाशी
लोक को आजतक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागण एवं
ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटते रहते हैं, जिस प्रकार
स्थिर मेढ़ी के चारों ओर तँवरी के बैल घूमते रहते हैं । अवान्तर कल्पपर्यन्त जीवन
धारण करनेवालों के लोक से परे उसकी स्थिति है।
इसी प्रकार सनकादि
महर्षियों के वैकुण्ठलोक-गमन के समय वैकुण्ठ के छः स्तरों को पार करके सप्तम स्तर पर
उन्हें जय-विजय आदि भगवत्पार्षदों के दर्शन होते हैं-
तस्मिन्नतीत्य मुनयः
षडसज्जमानाः कक्षाः समानवयसावथ सप्तमायाम् ।
देवावचक्षत गृहीतगदौ
परार्ध्यकेयूरकुण्डलकिरीटविटङ्कवेषौ ॥ (श्रीमद्भा० ३ | १५ | २७)
भगवद्दर्शन की लालसा से
अन्य दर्शनीय सामग्री की उपेक्षा करते हुए वैकुण्ठधाम की छः ड्योढ़ियाँ पार करके
जब वे सातवीं पर पहुँचे तो वहाँ उन्हें हाथ में गदा लिये दो समान आयुवाले
देवश्रेष्ठ दिखलायी दिये जो बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेकों अमूल्य आभूषणों से अलंकृत थे ।
वैकुण्ठलोक के स्तरभेद के
समान मुक्ति के भी स्तर भेद हैं। मृत्यु के साथ ही भगवान् के परमधाम में प्रवेश
किया जाता है अथवा मृत्यु के बाद कई स्तरों में होते हुए भी वहाँ पहुँचा जाता है।
यह दूसरे प्रकार की गति भी परमा गति ही है। कारण, इस स्तर से अधोगति नहीं होती, क्रमशः
ऊर्ध्वगति ही होती है और अन्त में परमपद की प्राप्ति हो जाती है। तथापि यह परमा
गति होने पर भी है अपेक्षाकृत निम्न अधिकारी के लिये ही ।
राजा वसु को भी वासनाक्षय
न होने के कारण सद्योमुक्ति नहीं प्राप्त हुई। उनके द्वारा प्राण त्याग के समय
रानी नारायणी का नामोच्चारण होने से उसके फलस्वरूप उनको कल्पपर्यन्त विष्णुलोक में
वास प्राप्त होकर जन्मान्तर में वासना एवं तज्जनित पापक्षय के द्वारा परम ज्योति में
लीन होने का वर्णन उनकी क्रममुक्ति प्राप्त होने की सूचना देता है।
अहं च तव देहस्थः सर्वं जानामि
चाक्षयम् ।
ब्रह्मग्रहो महाघोरः पीडयामीति मे
मतिः ।। ६.३१ ।।
तावद्विष्णोस्तु पुरुषैः
किङ्करैर्मुसलैरहम् ।
प्रहतः संक्षयं यातस्ततस्ते
रोमकूपतः ।
स्वर्गस्थस्यापि राजेन्द्र
स्थितोऽहं स्वेन तेजसा ।। ६.३२ ।।
ततोऽहःकल्पनिर्वृत्ते रात्रिकल्पे च
सत्तम ।
इदानीमादिसृष्टौ तु कृते नृपतिसत्तम
।। ६.३३ ।।
संभूतस्त्वं महाराज राज्ञः सुमनसो
गृहे ।
काश्मीरदेशाधिपतेरहं चाङ्गरुहैस्तव
।। ६.३४ ।।
यज्ञैरिष्टं
त्वयानेकैर्बहुभिश्चाप्तदक्षिणैः ।
न चाहं तैरपहतो विष्णुस्मरणवर्जितैः
।। ६.३५ ।।
विष्णुलोक में गमन करने के पूर्व
मैं तुम्हारे शरीर में स्थित था । अतः ये सब बातें मैं जानता हूँ। मैं उस समय एक
भयंकर ब्रह्मराक्षस के रूप में था और तुमको अपार कष्ट देना चाहता था। इतने में
भगवान् विष्णु के पार्षद आ गये और उन्होंने मूसलों से मुझे मारा,
जिससे मैं संक्षीण होकर तुम्हारे रोमकूपों के मार्ग से निकलकर बाहर
गिर पड़ा। महाभाग ! इसके पश्चात् ब्रह्मा का एक अहोरात्र – कल्प की अवधि समाप्त
होने पर महाप्रलय हो गया। तदनन्तर सृष्टि के आरम्भ होने पर इस कल्प में तुम
काश्मीर के राजा सुमना के पुत्ररूप में उत्पन्न हुए हो। इस जन्म में भी मैं
तुम्हारे शरीर में रोमकूपों के मार्ग से पुनः प्रविष्ट हो गया। तुमने इस जन्म में
भी प्रभूत दक्षिणावाले अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया; किंतु
ये सभी यज्ञजनित पुण्य मुझे तुम्हारे शरीर से बाहर निकालने में असमर्थ रहे;
क्योंकि इनमें भगवान् विष्णु के नाम का उच्चारण नहीं हुआ था।
इदानीं यत् त्वया स्तोत्रं
पुण्डरीकाक्षपारकम् ।
पठितं तत्प्रभावेन विहायाङ्गरुहाण्यहम्
।
एकीभूतः पुनर्जातो व्याधरूपो
नृपोत्तम ।। ६.३६ ।।
अहं भगवतः स्तोत्रं श्रुत्वा
प्राक्पापमूर्त्तिना ।
मुक्तोऽस्मि धर्मबुद्धिर्मे
वर्त्तते साम्प्रतं विभो ।। ६.३७ ।।
अब जो तुमने इस पुण्डरीकाक्षपार –
स्तोत्र का पाठरूप अनुष्ठान किया है, इसके
प्रभाव से तुम्हारे शरीर से मैं रोमकूपों के मार्ग से बाहर आ गया हूँ। राजेन्द्र !
मैं वही ब्रह्मराक्षस अब व्याध बनकर पुनः प्रकट हुआ हूँ। पुण्डरीकाक्ष भगवान्
नारायण के इस स्तोत्र के सुनने के प्रभाव से पहले जो मेरी पापमयी मूर्ति थी,
वह अब समाप्त हो गयी। मैं उससे अब मुक्त हो गया । राजन्! अब मेरी
बुद्धि में धर्म का उदय हो गया है।
एतच्छ्रुत्वा वचो राजा परं
विस्मयमागतः ।
वरेण छन्दयामास तं व्याधं राजसत्तमः
।। ६.३८ ।।
यह प्रसङ्ग सुनकर महाराज वसु के मन में
आश्चर्य की सीमा न रही। फिर तो बड़े आदर के साथ वे उस व्याध से बात करने लगे ।
राजोवाच ।
स्मारितोऽस्मि यथा व्याध त्वया
जन्मान्तरं गतम् ।
तथा त्वं मत्प्रसादेन धर्मव्याधो
भविष्यसि ।। ६.३९ ।।
यश्चैतत् पुण्डरीकाक्षपारगं
श्रृणुयात् परम् ।
तस्य पुष्करयात्रायां विधिस्नानफलं
भवेत् ।। ६.४० ।।
राजा वसु ने कहा- व्याध ! जैसे तुम्हारी
कृपा से आज मुझे अपने पूर्वजन्म की बात याद आ गयी, वैसे ही तुम भी मेरे प्रभाव से अब व्याध न कहलाकर धर्मव्याध के नाम से
प्रसिद्ध होओगे । जो पुरुष इस 'पुण्डरीकाक्षपार' नामक उत्तम स्तोत्र का श्रवण करेगा, उसे भी पुष्कर
क्षेत्र में विधिपूर्वक स्नान करने का फल सुलभ होगा।
श्रीवराह उवाच ।
एवमुक्त्वा ततो राजा
विमानवरमास्थितः ।
परेण तेजसा योगमवापाशेषधारिणि ।।
६.४१ ।।
भगवान् वराह कहते हैं—
जगद्धात्रि पृथ्वि ! राजा वसु धर्मव्याध से इस प्रकार कहकर एक परम
उत्तम विमान पर आरूढ़ हुए और भगवान् नारायण के लोक में जाकर उनकी अनन्त तेजोराशि में
विलीन हो गये ।
।। इति श्रीवराहपुराणे षष्ठोऽध्यायः
।। ६ ।।
आगे जारी........ श्रीवराहपुराण अध्याय 7
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