श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ९
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय
९ "मोहिनी रूप से भगवान् के द्वारा अमृत बाँटा जाना"
श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: नवम अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय
९
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः ९
श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध
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श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
अष्टमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ नवमोऽध्यायः - ९ ॥
श्रीशुक उवाच
तेऽन्योन्यतोऽसुराः पात्रं
हरन्तस्त्यक्तसौहृदाः ।
क्षिपन्तो दस्युधर्माण आयान्तीं
ददृशुः स्त्रियम् ॥ १॥
अहो रूपमहो धाम अहो अस्या नवं वयः ।
इति ते तामभिद्रुत्य
पप्रच्छुर्जातहृच्छयाः ॥ २॥
का त्वं कञ्जपलाशाक्षि कुतो वा किं
चिकीर्षसि ।
कस्यासि वद वामोरु मथ्नन्तीव मनांसि
नः ॥ ३॥
न वयं त्वामरैर्दैत्यैः
सिद्धगन्धर्वचारणैः ।
नास्पृष्टपूर्वां जानीमो लोकेशैश्च
कुतो नृभिः ॥ ४॥
नूनं त्वं विधिना सुभ्रूः
प्रेषितासि शरीरिणाम् ।
सर्वेन्द्रियमनःप्रीतिं विधातुं
सघृणेन किम् ॥ ५॥
सा त्वं नः स्पर्धमानानामेकवस्तुनि
मानिनि ।
ज्ञातीनां बद्धवैराणां शं विधत्स्व
सुमध्यमे ॥ ६॥
वयं कश्यपदायादा भ्रातरः कृतपौरुषाः
।
विभजस्व यथान्यायं नैव भेदो यथा
भवेत् ॥ ७॥
इत्युपामन्त्रितो
दैत्यैर्मायायोषिद्वपुर्हरिः ।
प्रहस्य
रुचिरापाङ्गैर्निरीक्षन्निदमब्रवीत् ॥ ८॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! असुर आपस के सद्भाव और प्रेम को छोड़कर एक-दूसरे की
निन्दा कर रहे थे और डाकू की तरह एक-दूसरे के हाथ से अमृत का कलश छीन रहे थे। इसी
बीच में उन्होंने देखा कि एक बड़ी सुन्दरी स्त्री उनकी ओर चली आ रही है। वे सोचने
लगे- ‘कैसा अनुपम सौन्दर्य है। शरीर में से कितनी अद्भुत छटा
छिटक रही है! तनिक इसकी नयी उम्र तो देखो!’ बस, अब वे आपस की लाग-डाँट भूलकर उसके पास दौड़ गये। उन लोगों ने काममोहित
होकर उससे पूछा- ‘कमलनयनी! तुम कौन हो? कहाँ से आ रही हो? क्या करना चाहती हो? सुन्दरी! तुम किसकी कन्या हो? तुम्हें देखकर हमारे
मन में खलबली मच गयी है। हम समझते हैं कि अब तक देवता, दैत्य,
सिद्ध, गन्धर्व, चारण और
लोकपालों ने भी तुम्हें स्पर्श तक न किया होगा। फिर मनुष्य तो तुम्हें कैसे छू
पाते?
सुन्दरी! अवश्य ही विधाता ने दया
करके शरीरधारियों की सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं मन को तृप्त करने के लिये तुम्हें
यहाँ भेजा है। मानिनी! वैसे हम लोग एक ही जाति के हैं। फिर भी हम सब एक ही वस्तु
चाह रहे हैं, इसलिये हममें डाह और वैर की
गाँठ पड़ गयी है। सुन्दरी! तुम हमारा झगड़ा मिटा दो। हम सभी कश्यप जी के पुत्र
होने के नाते सगे भाई हैं। हम लोगों ने अमृत के लिये बड़ा पुरुषार्थ किया है। तुम
न्याय के अनुसार निष्पक्ष भाव से इसे बाँट दो, जिससे फिर हम
लोगों में किसी प्रकार का झगड़ा न हो’। असुरों ने जब इस
प्रकार प्रार्थना की, तब लीला से स्त्री वेष धारण करने वाले
भगवान् ने तनिक हँसकर और तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते हुए कहा-
श्रीभगवानुवाच
कथं कश्यपदायादाः पुंश्चल्यां मयि
सङ्गताः ।
विश्वासं पण्डितो जातु कामिनीषु न
याति हि ॥ ९॥
सालावृकाणां स्त्रीणां च
स्वैरिणीनां सुरद्विषः ।
सख्यान्याहुरनित्यानि नूत्नं नूत्नं
विचिन्वताम् ॥ १०॥
श्रीभगवान् ने कहा ;-
'आप लोग महर्षि कश्यप के पुत्र हैं और मैं हूँ कुलटा। आप लोग मुझ पर
न्याय का भार क्यों डाल रहे हैं? विवेकी पुरुष
स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों का कभी विश्वास नहीं करते। दैत्यों! कुत्ते और
व्यभिचारिणी स्त्रियों की मित्रता स्थायी नहीं होती। वे दोनों ही सदा नये-नये
शिकार ढूँढा करते हैं।'
श्रीशुक उवाच
इति ते क्ष्वेलितैस्तस्या
आश्वस्तमनसोऽसुराः ।
जहसुर्भावगम्भीरं ददुश्चामृतभाजनम्
॥ ११॥
ततो गृहीत्वामृतभाजनं हरि-
र्बभाष ईषत्स्मितशोभया गिरा ।
यद्यभ्युपेतं क्व च साध्वसाधु वा
कृतं मया वो विभजे सुधामिमाम् ॥ १२॥
इत्यभिव्याहृतं तस्या आकर्ण्यासुरपुङ्गवाः
।
अप्रमाणविदस्तस्यास्तत्तथेत्यन्वमंसत
॥ १३॥
अथोपोष्य कृतस्नाना हुत्वा च
हविषानलम् ।
दत्त्वा गोविप्रभूतेभ्यः
कृतस्वस्त्ययना द्विजैः ॥ १४॥
यथोपजोषं वासांसि परिधायाहतानि ते ।
कुशेषु प्राविशन् सर्वे
प्रागग्रेष्वभिभूषिताः ॥ १५॥
प्राङ्मुखेषूपविष्टेषु सुरेषु
दितिजेषु च ।
धूपामोदितशालायां जुष्टायां
माल्यदीपकैः ॥ १६॥
तस्यां नरेन्द्र करभोरुरुशद्दुकूल-
श्रोणीतटालसगतिर्मदविह्वलाक्षी ।
सा कूजती कनकनूपुरशिञ्जितेन
कुम्भस्तनी कलशपाणिरथाविवेश ॥ १७॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! मोहिनी की परिहास भरी वाणी से दैत्यों के मन में और भी
विश्वास हो गया। उन लोगों ने रहस्यपूर्ण भाव से हँसकर अमृत का कलश मोहिनी के हाथ
में दे दिया। भगवान् ने अमृत का कलश अपने हाथ में लेकर तनिक मुसकराते हुए मीठी
वाणी से कहा- ‘मैं उचित या अनुचित जो कुछ भी करूँ, वह सब यदि तुम लोगों को स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ’।
बड़े-बड़े दैत्यों ने मोहिनी की यह
मीठी बात सुनकर उसकी बारीकी नहीं समझी, इसलिये
सबने एक स्वर से कह दिया ‘स्वीकार है।’ इसका कारण यह था कि उन्हें मोहिनी के वास्तविक स्वरूप का पता नहीं था।
इसके बाद एक दिन का उपवास करके सबने स्नान किया। हविष्य से अग्नि में हवन किया। गौ,
ब्राह्मण और समस्त प्राणियों को घास-चारा, अन्न-धनादि
का यथायोग्य दान दिया तथा ब्राह्मणों से स्वस्त्ययन कराया। अपनी-अपनी रुचि के
अनुसार सबने नये-नये वस्त्र धारण किये और इसके बाद सुन्दर-सुन्दर आभूषण धारण करके
सब-के-सब उन कुशासनों पर बैठ गये, जिनका अगला हिस्सा पूर्व
की ओर था। जब देवता और दैत्य दोनों ही धूप से सुगन्धित, मालाओं
और दीपकों से सजे-सजाये भव्य भवन में पूर्व की ओर मुँह करके बैठ गये, तब हाथ में अमृत का कलश लेकर मोहिनी सभामण्डप में आयी। वह एक बड़ी सुन्दर
साड़ी पहने हुए थी। नितम्बों के भार के कारण वह धीरे-धीरे चल रही थी। आँखें मद से
विह्वल हो रही थीं। कलश के समान स्तन और गजशावक की सूँड़ के समान जंघाएँ थीं। उसके
स्वर्ण नूपुर अपनी झनकार से सभा भवन को मुखरित कर रहे थे।
तां श्रीसखीं कनककुण्डलचारुकर्ण-
नासाकपोलवदनां परदेवताख्याम् ।
संवीक्ष्य
सम्मुमुहुरुत्स्मितवीक्षणेन
देवासुरा विगलितस्तनपट्टिकान्ताम् ॥
१८॥
असुराणां सुधादानं सर्पाणामिव
दुर्नयम् ।
मत्वा जातिनृशंसानां न तां
व्यभजदच्युतः ॥ १९॥
कल्पयित्वा पृथक् पङ्क्तीरुभयेषां
जगत्पतिः ।
तांश्चोपवेशयामास स्वेषु स्वेषु च
पङ्क्तिषु ॥ २०॥
दैत्यान् गृहीतकलशो
वञ्चयन्नुपसञ्चरैः ।
दूरस्थान् पाययामास जरामृत्युहरां
सुधाम् ॥ २१॥
ते पालयन्तः समयमसुराः स्वकृतं नृप
।
तूष्णीमासन् कृतस्नेहाः
स्त्रीविवादजुगुप्सया ॥ २२॥
तस्यां कृतातिप्रणयाः
प्रणयापायकातराः ।
बहुमानेन चाबद्धा नोचुः किञ्चन
विप्रियम् ॥ २३॥
देवलिङ्गप्रतिच्छन्नः
स्वर्भानुर्देवसंसदि ।
प्रविष्टः
सोममपिबच्चन्द्रार्काभ्यां च सूचितः ॥ २४॥
चक्रेण क्षुरधारेण जहार पिबतः शिरः
।
हरिस्तस्य कबन्धस्तु
सुधयाऽऽप्लावितोऽपतत् ॥ २५॥
शिरस्त्वमरतां नीतमजो ग्रहमचीकॢपत्
।
यस्तु पर्वणि चन्द्रार्कावभिधावति
वैरधीः ॥ २६॥
पीतप्रायेऽमृते देवैर्भगवान्
लोकभावनः ।
पश्यतामसुरेन्द्राणां स्वं रूपं
जगृहे हरिः ॥ २७॥
एवं सुरासुरगणाः समदेशकाल-
हेत्वर्थकर्ममतयोऽपि फले विकल्पाः ।
तत्रामृतं सुरगणाः फलमञ्जसाऽऽपु-
र्यत्पादपङ्कजरजःश्रयणान्न दैत्याः
॥ २८॥
यद्युज्यतेऽसुवसुकर्ममनोवचोभि-
र्देहात्मजादिषु
नृभिस्तदसत्पृथक्त्वात् ।
तैरेव सद्भवति
यत्क्रियतेऽपृथक्त्वात्
सर्वस्य तद्भवति मूलनिषेचनं यत् ॥
२९॥
सुन्दर कानों में सोने के कुण्डल थे
और उसकी नासिका, कपोल तथा मुख बड़े ही सुन्दर
थे। स्वयं परदेवता भगवान् मोहिनी के रूप में ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मी जी की
कोई श्रेष्ठ सखी वहाँ आ गयी हो। मोहिनी ने अपनी मुस्कान भरी चितवन से देवता और
दैत्यों की ओर देखा, तो वे सब-के-सब मोहित हो गये। उस समय
उनके स्तनों पर से अंचल कुछ खिसक गया था। भगवान् ने मोहिनी रूप में यह विचार किया
कि असुर तो जन्म से ही क्रूर स्वभाव वाले हैं। इनको अमृत पिलाना सर्पों को दूध
पिलाने के समान बड़ा अन्याय होगा। इसलिये उन्होंने असुरों को अमृत में भाग नहीं
दिया। भगवान् ने देवता और असुरों की अलग-अलग पंक्तियाँ बना दीं और फिर दोनों को
कतार बाँधकर अपने-अपने दल में बैठा दिया। इसके बाद अमृत का कलश हाथ में लेकर
भगवान् दैत्यों के पास चले गये। उन्हें हाव-भाव और कटाक्ष से मोहित करके दूर बैठे
हुए देवताओं के पास आ गये तथा उन्हें वह अमृत पिलाने लगे, जिसे
पी लेने पर बुढ़ापे और मृत्यु का नाश हो जाता है।
परीक्षित! असुर अपनी की हुई
प्रतिज्ञा का पालन कर रहे थे। उनका स्नेह भी हो गया था और वे स्त्री से झगड़ने में
अपनी निन्दा भी समझते थे। इसलिये वे चुपचाप बैठे रहे। मोहिनी में उनका अत्यन्त
प्रेम हो गया था। वे डर रहे थे कि उससे हमारा प्रेम सम्बन्ध टूट न जाये। मोहिनी ने
भी पहले उन लोगों का बड़ा सम्मान किया था, इससे
वे और भी बँध गये थे। यही कारण है कि उन्होंने मोहिनी को कोई अप्रिय बात नहीं कही।
जिस समय भगवान् देवताओं को अमृत
पिला रहे थे, उसी समय राहु दैत्य देवताओं का
वेष बनाकर उनके बीच में आ बैठा और देवताओं के साथ उसने भी अमृत पी लिया। परन्तु
तत्क्षण चन्द्रमा और सूर्य ने उसकी पोल खोल दी। अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान् ने
अपने तीखी धार वाले चक्र से उसका सिर काट डाला। अमृत का संसर्ग न होने से उसका धड़
नीचे गिर गया, परन्तु सिर अमर हो गया और ब्रह्मा जी ने उसे ‘ग्रह’ बना दिया। वही राहु पर्व के दिन (पूर्णिमा और
अमावस्या को) वैर-भाव से बदला लेने के लिये चन्द्रमा तथा सूर्य पर आक्रमण किया
करता है। जब देवताओं ने अमृत पी लिया, तब समस्त लोकों को
जीवनदान करने वाले भगवान् ने बड़े-बड़े दैत्यों के सामने ही मोहिनी रूप त्यागकर
अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया।
परीक्षित! देखो- देवता और दैत्य
दोनों ने एक ही समय एक स्थान पर एक प्रयोजन तथा एक वस्तु के लिये एक विचार से एक
ही कर्म किया था, परन्तु फल में बड़ा
भेद हो गया। उनमें से देवताओं ने बड़ी सुगमता से अपने परिश्रम का फल-अमृत प्राप्त
कर लिया, क्योंकि उन्होंने भगवान् के चरणकमलों की रज का
आश्रय लिया था। परन्तु उससे विमुख होने के कारण परिश्रम करने पर भी असुरगण अमृत से
वंचित ही रहे।
मनुष्य अपने प्राण,
धन, कर्म, मन और वाणी
आदि से शरीर एवं पुत्र आदि के लिये जो कुछ करता है-वह व्यर्थ ही होता है; क्योंकि उसके मूल में भेद बुद्धि बनी रहती है। परन्तु उन्हीं प्राण आदि
वस्तुओं के द्वारा भगवान् के लिये जो कुछ किया जाता है, वह
सब भेदभाव से रहित होने के कारण अपने शरीर, पुत्र और समस्त
संसार के लिये सफल हो जाता है। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने से उसका तना,
टहनियाँ और पत्ते-सब-के-सब सिंच जाते हैं, वैसे
ही भगवान् के लिये कर्म करने से वे सबके लिये हो जाते हैं।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे अमृतमथने नवमोऽध्यायः ॥ ९॥
जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: दशमोऽध्यायः
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