श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ८                                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ८ "समुद्र से अमृत का प्रकट होना और भगवान् का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: अष्टम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ८                                                           

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः ८                                                              

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध आठवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ अष्टमोऽध्यायः - ८ ॥

श्रीशुक उवाच

पीते गरे वृषाङ्केण प्रीतास्तेऽमरदानवाः ।

ममन्थुस्तरसा सिन्धुं हविर्धानी ततोऽभवत् ॥ १॥

तामग्निहोत्रीमृषयो जगृहुर्ब्रह्मवादिनः ।

यज्ञस्य देवयानस्य मेध्याय हविषे नृप ॥ २॥

तत उच्चैःश्रवा नाम हयोऽभूच्चन्द्रपाण्डुरः ।

तस्मिन् बलिः स्पृहां चक्रे नेन्द्र ईश्वरशिक्षया ॥ ३॥

तत ऐरावतो नाम वारणेन्द्रो विनिर्गतः ।

दन्तैश्चतुर्भिः श्वेताद्रेर्हरन् भगवतो महिम् ॥ ४॥

(ऐरावणादयस्त्वष्टौ दिग्गजा अभवंस्ततः ।

अभ्रप्रभृतयोऽष्टौ च करिण्यस्त्वभवन् नृप ॥)

कौस्तुभाख्यमभूद्रत्नं पद्मरागो महोदधेः ।

तस्मिन् हरिः स्पृहां चक्रे वक्षोऽलङ्करणे मणौ ॥ ५॥

ततोऽभवत्पारिजातः सुरलोकविभूषणम् ।

पूरयत्यर्थिनो योऽर्थैः शश्वद्भुवि यथा भवान् ॥ ६॥

ततश्चाप्सरसो जाता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः ।

रमण्यः स्वर्गिणां वल्गुगतिलीलावलोकनैः ॥ ७॥

ततश्चाविरभूत्साक्षाच्छ्री रमा भगवत्परा ।

रञ्जयन्ती दिशः कान्त्या विद्युत्सौदामनी यथा ॥ ८॥

तस्यां चक्रुः स्पृहां सर्वे ससुरासुरमानवाः ।

रूपौदार्यवयोवर्णमहिमाक्षिप्तचेतसः ॥ ९॥

तस्या आसनमानिन्ये महेन्द्रो महदद्भुतम् ।

मूर्तिमत्यः सरिच्छ्रेष्ठा हेमकुम्भैर्जलं शुचि ॥ १०॥

आभिषेचनिका भूमिराहरत्सकलौषधीः ।

गावः पञ्च पवित्राणि वसन्तो मधुमाधवौ ॥ ११॥

ऋषयः कल्पयाञ्चक्रुरभिषेकं यथाविधि ।

जगुर्भद्राणि गन्धर्वा नट्यश्च ननृतुर्जगुः ॥ १२॥

मेघा मृदङ्गपणवमुरजानकगोमुखान् ।

व्यनादयन् शङ्खवेणुवीणास्तुमुलनिःस्वनान् ॥ १३॥

ततोऽभिषिषिचुर्देवीं श्रियं पद्मकरां सतीम् ।

दिगिभाः पूर्णकलशैः सूक्तवाक्यैर्द्विजेरितैः ॥ १४॥

समुद्रः पीतकौशेयवाससी समुपाहरत् ।

वरुणः स्रजं वैजयन्तीं मधुना मत्तषट्पदाम् ॥ १५॥

भूषणानि विचित्राणि विश्वकर्मा प्रजापतिः ।

हारं सरस्वती पद्ममजो नागाश्च कुण्डले ॥ १६॥

ततः कृतस्वस्त्ययनोत्पलस्रजं

नदद्द्विरेफां परिगृह्य पाणिना ।

चचाल वक्त्रं सुकपोलकुण्डलं

सव्रीडहासं दधती सुशोभनम् ॥ १७॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- इस प्रकार जब भगवान् शंकर ने विष पी लिया, तब देवता और असुरों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे फिर नये उत्साह से समुद्र मथने लगे। तब समुद्र से कामधेनु प्रकट हुई। वह अग्निहोत्र की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी। इसलिये ब्रह्मलोक तक पहुँचाने वाले यज्ञ के लिये उपयोगी पवित्र घी, दूध आदि प्राप्त करने के लिये ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण किया। उसके बाद उच्चैःश्रवा नाम का घोड़ा निकला। वह चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण का था। बलि ने उसे लेने की इच्छा प्रकट की। इन्द्र ने उसे नहीं चाहा; क्योंकि भगवान् ने उन्हें पहले से ही सिखा रखा था।

तदनन्तर ऐरावत नाम का श्रेष्ठ हाथी निकला। उसके बड़े-बड़े चार दाँत थे, जो उज्ज्वल वर्ण कैलास की शोभा को भी मात करते थे। तत्पश्चात् कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि समुद्र से निकली। उस मणि को अपने हृदय पर धारण करने के लिये अजित भगवान् ने लेना चाहा।

परीक्षित! इसके बाद स्वर्गलोक की शोभा बढ़ाने वाला कल्पवृक्ष निकला। वह याचकों की इच्छाएँ उनकी इच्छित वस्तु देकर वैसे ही पूर्ण करता रहता है, जैसे पृथ्वी पर तुम सबकी इच्छाएँ पूर्ण करते हो। तत्पश्चात् अप्सराएँ प्रकट हुईं। वे सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित एवं गले में स्वर्णहार पहने हुए थीं। वे अपनी मनोहर चाल और विलासभरी चितवन से देवताओं को सुख पहुँचाने वाली हुईं। इसके बाद शोभा की मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं। वे भगवान् की नित्य शक्ति हैं। उनकी बिजली के समान चमकीली छटा से दिशाएँ जगमगा उठीं। उनके सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमा से सबका चित्त खिंच गया। देवता, असुर, मनुष्य- सभी ने चाहा कि ये हमें मिल जायें। स्वयं इन्द्र अपने हाथों उनके बैठने के लिये बड़ा विचित्र आसन ले आये। श्रेष्ठ नदियों ने मूर्तिमान् होकर उनके अभिषेक के लिये सोने के घड़ों में भर-भरकर पवित्र जल ला दिया। पृथ्वी ने अभिषेक के योग्य सब ओषधियाँ दीं। गौओं ने पंचगव्य और वसन्त ऋतु ने चैत्र-वैशाख होने वाले सब फूल-फल उपस्थित कर दिये। इन सामग्रियों से ऋषियों ने विधिपूर्वक उनका अभिषेक सम्पन्न किया।

गन्धर्वों ने मंगलमय संगीत की तान छेड़ दी। नर्तकियाँ नाच-नाचकर गाने लगीं। बादल सदेह होकर मृदंग, डमरू, ढोल, नगारे, नरसिंगे, शंख, वणु और वीणा बड़े जोर से बजाने लगे। तब भगवती लक्ष्मी देवी हाथ में कमल लेकर सिंहासन पर विराजमान हो गयीं। दिग्गजों ने जल से भरे कलशों से उनको स्नान कराया। उस समय ब्राह्मणगण वेद मन्त्रों का पाठ कर रहे थे। समुद्र ने पीले रेशमी वस्त्र उनको पहनने के लिये दिये। वरुण ने ऐसी वैजन्ती माला समर्पित की, जिसकी मधुमय सुगन्ध से भौंरे मतवाले हो रहे थे। प्रजापति विश्वकर्मा ने भाँति-भाँति के गहने, सरस्वती ने मोतियों का हार, ब्रह्मा जी के कमल और नागों ने दो कुण्डल समर्पित किये। इसके बाद लक्ष्मी जी ब्राह्मणों के स्वस्त्ययन-पाठ कर चुकने पर अपने हाथों में कमल की माला लेकर उसे सर्वगुणसम्पन्न पुरुष के गले में डालने चलीं। माला के आसपास उसकी सुगन्ध से मतवाले हुए भौंरें गुंजार कर रहे थे। उस समय लक्ष्मी जी के मुख की शोभा अवर्णनीय हो रही थी। सुन्दर कपोलों पर कुण्डल लटक रहे थे। लक्ष्मी जी कुछ लज्जा के साथ मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं।

स्तनद्वयं चातिकृशोदरी समं

निरन्तरं चन्दनकुङ्कुमोक्षितम् ।

ततस्ततो नूपुरवल्गुशिञ्जितै-

र्विसर्पती हेमलतेव सा बभौ ॥ १८॥

विलोकयन्ती निरवद्यमात्मनः

पदं ध्रुवं चाव्यभिचारिसद्गुणम् ।

गन्धर्वयक्षासुरसिद्धचारण-

त्रैविष्टपेयादिषु नान्वविन्दत ॥ १९॥

नूनं तपो यस्य न मन्युनिर्जयो

ज्ञानं क्वचित्तच्च न सङ्गवर्जितम् ।

कश्चिन्महांस्तस्य न कामनिर्जयः

स ईश्वरः किं परतो व्यपाश्रयः ॥ २०॥

धर्मः क्वचित्तत्र न भूतसौहृदं

त्यागः क्वचित्तत्र न मुक्तिकारणम् ।

वीर्यं न पुंसोऽस्त्यजवेगनिष्कृतं

न हि द्वितीयो गुणसङ्गवर्जितः ॥ २१॥

क्वचिच्चिरायुर्न हि शीलमङ्गलं

क्वचित्तदप्यस्ति न वेद्यमायुषः ।

यत्रोभयं कुत्र च सोऽप्यमङ्गलः

सुमङ्गलः कश्च न काङ्क्षते हि माम् ॥ २२॥

एवं विमृश्याव्यभिचारिसद्गुणै-

र्वरं निजैकाश्रयतागुणाश्रयम् ।

वव्रे वरं सर्वगुणैरपेक्षितं

रमा मुकुन्दं निरपेक्षमीप्सितम् ॥ २३॥

तस्यांसदेश उशतीं नवकञ्जमालां

माद्यन्मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टाम् ।

तस्थौ निधाय निकटे तदुरः स्वधाम

सव्रीडहासविकसन्नयनेन याता ॥ २४॥

तस्याः श्रियस्त्रिजगतो जनको जनन्या

वक्षोनिवासमकरोत्परमं विभूतेः ।

श्रीः स्वाः प्रजाः सकरुणेन निरीक्षणेन

यत्र स्थितैधयत साधिपतींस्त्रिलोकान् ॥ २५॥

शङ्खतूर्यमृदङ्गानां वादित्राणां पृथुः स्वनः ।

देवानुगानां सस्त्रीणां नृत्यतां गायतामभूत् ॥ २६॥

ब्रह्मरुद्राङ्गिरोमुख्याः सर्वे विश्वसृजो विभुम् ।

ईडिरेऽवितथैर्मन्त्रैस्तल्लिङ्गैः पुष्पवर्षिणः ॥ २७॥

श्रिया विलोकिता देवाः सप्रजापतयः प्रजाः ।

शीलादिगुणसम्पन्ना लेभिरे निर्वृतिं पराम् ॥ २८॥

निःसत्त्वा लोलुपा राजन् निरुद्योगा गतत्रपाः ।

यदा चोपेक्षिता लक्ष्म्या बभूवुर्दैत्यदानवाः ॥ २९॥

उनकी कमर बहुत पतली थी। दोनों स्तन बिल्कुल सटे हुए और सुन्दर थे। उन पर चन्दन और केसर का लेप किया हुआ था। जब वे इधर-उधर चलती थीं, तब उनके पायजेब से बड़ी मधुर झनकार निकलती थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई सोने की लता इधर-उधर घूम-फिर रही है। वे चाहती थीं कि मुझे कोई निर्दोष और समस्त उत्तम गुणों से नित्ययुक्त अविनाशी पुरुष मिले तो मैं उसे अपना आश्रय बनाऊँ, वरण करूँ। परन्तु गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, चारण, देवता आदि में कोई भी वैसा पुरुष उन्हें न मिला। (वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि) कोई तपस्वी तो हैं, परन्तु उन्होंने क्रोध पर विजय नहीं प्राप्त की है। किन्हीं में ज्ञान तो है, परन्तु वे पूरे अनासक्त नहीं हैं। कोई-कोई हैं तो बड़े महत्त्वशाली, परन्तु वे काम को नहीं जीत सके हैं। किन्हीं में ऐश्वर्य भी बहुत हैं; परन्तु वह ऐश्वर्य ही किस काम का, जब उन्हें दूसरों का आश्रय लेना पड़ता है। किन्हीं में धर्माचरण तो है; परन्तु प्राणियों के प्रति वे प्रेम का पूरा बर्ताव नहीं करते। त्याग तो है, परन्तु केवल त्याग ही तो मुक्ति का कारण नहीं है। किन्हीं-किन्हीं में वीरता तो अवश्य है, परन्तु वे भी काल के पंजे से बाहर नहीं हैं। अवश्य ही कुछ महात्माओं में विषयासक्ति नहीं है, परन्तु वे तो निरन्तर अद्वैत-समाधि में ही तल्लीन रहते हैं। किसी-किसी ऋषि ने आयु तो बहुत लंबी प्राप्त कर ली है, परन्तु उनका शील-मंगल भी मेरे योग्य नहीं है। किन्हीं में शील-मंगल भी है परन्तु उनकी आयु का कुछ ठिकाना नहीं। अवश्य ही किन्हीं में दोनों ही बातें हैं, परन्तु वे अमंगल-वेष में रहते हैं। रहे एक भगवान् विष्णु उनमें सभी मंगलमय गुण नित्य निवास करते हैं, परन्तु वे मुझे चाहते ही नहीं।

इस प्रकार सोच-विचारकर अन्त में श्रीलक्ष्मी जी ने अपने चिर-अभीष्ट भगवान् को ही वर के रूप में चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परन्तु वे किसी की भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तव में लक्ष्मी जी की एकमात्र आश्रय भगवान् ही हैं। इसी से उन्होंने उन्हीं को वरण किया। लक्ष्मी जी ने भगवान् के गले में वह नवीन कमलों की सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे थे। इसके बाद लज्जापूर्ण मुस्कान और प्रेमपूर्ण चितवन से अपने निवास स्थान उनके वक्षःस्थल को देखती ही वे उनके पास ही खड़ी हो गयीं।

जगत्पिता भगवान् ने जगज्जननी, समस्त सम्पत्तियों की अधिष्ठातृ देवता श्रीलक्ष्मी जी को अपने वक्षःस्थल पर ही सर्वदा निवास करने का स्थान दिया। लक्ष्मी जी ने वहाँ विराजमान होकर अपनी करुणा भरी चितवन से तीनों लोक, लोकपति और अपनी प्यारी प्रजा की अभिवृद्धि की। उस समय शंख, तुरही, मृदंग आदि बाजे बजने लगे। गन्धर्व, अप्सराओं के साथ नाचने-गाने लगे। इससे बड़ा भारी शब्द होने लगा। ब्रह्मा, रुद्र, अंगिरा आदि सब प्रजापति पुष्पवर्षा करते हुए भगवान् के गुण, स्वरूप और लीला आदि के यथार्थ वर्णन करने वाले मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे। देवता, प्रजापति और प्रजा-सभी लक्ष्मी जी की कृपा दृष्टि से शील आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न होकर बहुत सुखी हो गये।

परीक्षित! इधर जब लक्ष्मी जी ने दैत्य और दानवों की उपेक्षा कर दी, तब वे लोग निर्बल, उद्योगरहित, निर्लज्ज और लोभी हो गये।

अथासीद्वारुणी देवी कन्या कमललोचना ।

असुरा जगृहुस्तां वै हरेरनुमतेन ते ॥ ३०॥

अथोदधेर्मथ्यमानात्काश्यपैरमृतार्थिभिः ।

उदतिष्ठन्महाराज पुरुषः परमाद्भुतः ॥ ३१॥

दीर्घपीवरदोर्दण्डः कम्बुग्रीवोऽरुणेक्षणः ।

श्यामलस्तरुणः स्रग्वी सर्वाभरणभूषितः ॥ ३२॥

पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डलः ।

स्निग्धकुञ्चितकेशान्तः सुभगः सिंहविक्रमः ॥ ३३॥

अमृतापूर्णकलशं बिभ्रद्वलयभूषितः ।

स वै भगवतः साक्षाद्विष्णोरंशांशसम्भवः ॥ ३४॥

धन्वन्तरिरिति ख्यात आयुर्वेददृगिज्यभाक् ।

तमालोक्यासुराः सर्वे कलशं चामृताभृतम् ॥ ३५॥

लिप्सन्तः सर्ववस्तूनि कलशं तरसाहरन् ।

नीयमानेऽसुरैस्तस्मिन् कलशेऽमृतभाजने ॥ ३६॥

विषण्णमनसो देवा हरिं शरणमाययुः ।

इति तद्दैन्यमालोक्य भगवान् भृत्यकामकृत् ।

मा खिद्यत मिथोऽर्थं वः साधयिष्ये स्वमायया ॥ ३७॥

मिथः कलिरभूत्तेषां तदर्थे तर्षचेतसाम् ।

अहं पूर्वमहं पूर्वं न त्वं न त्वमिति प्रभो ॥ ३८॥

देवाः स्वं भागमर्हन्ति ये तुल्यायासहेतवः ।

सत्रयाग इवैतस्मिन्नेष धर्मः सनातनः ॥ ३९॥

इति स्वान् प्रत्यषेधन् वै दैतेया जातमत्सराः ।

दुर्बलाः प्रबलान् राजन् गृहीतकलशान् मुहुः ॥ ४०॥

एतस्मिन्नन्तरे विष्णुः सर्वोपायविदीश्वरः ।

योषिद्रूपमनिर्देश्यं दधार परमाद्भुतम् ॥ ४१॥

प्रेक्षणीयोत्पलश्यामं सर्वावयवसुन्दरम् ।

समानकर्णाभरणं सुकपोलोन्नसाननम् ॥ ४२॥

नवयौवननिर्वृत्तस्तनभारकृशोदरम् ।

मुखामोदानुरक्तालि झङ्कारोद्विग्नलोचनम् ॥ ४३॥

बिभ्रत्स्वकेशभारेण मालामुत्फुल्लमल्लिकाम् ।

सुग्रीवकण्ठाभरणं सुभुजाङ्गदभूषितम् ॥ ४४॥

विरजाम्बरसंवीतनितम्बद्वीपशोभया ।

काञ्च्या प्रविलसद्वल्गुचलच्चरणनूपुरम् ॥ ४५॥

सव्रीडस्मितविक्षिप्तभ्रूविलासावलोकनैः ।

दैत्ययूथपचेतःसु काममुद्दीपयन् मुहुः ॥ ४६॥

इसके बाद समुद्र मन्थन करने पर कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुईं। भगवान् की अनुमति से दैत्यों ने उसे ले लिया। तदनन्तर महाराज! देवता और असुरों ने अमृत की इच्छा से जब और भी समुद्र मन्थन किया, तब उसमें से एक अत्यन्त अलौकिक पुरुष प्रकट हुआ। उसकी भुजाएँ लंबी एवं मोटी थीं। उसका गला शंख के समान उतार-चढ़ाव वाला था और आँखों में लालिमा थी। शरीर का रंग बड़ा सुन्दर साँवला-साँवला था। गले में माला, अंग-अंग सब प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित, शरीर पर पीताम्बर, कानों में चमकीले मणियों के कुण्डल, चौड़ी छाती, तरुण अवस्था, सिंह के समान पराक्रम, अनुपम सौन्दर्य, चिकने और घुँघराले बाल लहराते हुए उस पुरुष की छबि बड़ी अनोखी थी। उसके हाथों में कंगन और अमृत से भरा हुआ कलश था। वह साक्षात् विष्णु भगवान् के अंशांश अवतार थे। ये ही आयुर्वेद के प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता धन्वन्तरि के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। 

जब दैत्यों की दृष्टि उन पर तथा उनके हाथ में अमृत से भरे हुए कलश पर पड़ी, तब उन्होंने शीघ्रता से बलात् उस अमृत के कलश को छीन लिया। वे तो पहले से ही इस ताक में थे कि किसी तरह समुद्र मन्थन से निकली हुई सभी वस्तुएँ हमें मिल जायें। जब असुर उस अमृत से भरे कलश को छीन ले गये, तब देवताओं का मन विषाद से भर गया। अब वे भगवान् कि शरण में आये। उनकी दीन दशा देखकर भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान् ने कहा- देवताओं! तुम लोग खेद मत करो। मैं अपनी माया से उनमें आपस की फूट डालकर अभी तुम्हारा काम बना देता हूँ

परीक्षित! अमृतलोलुप दैत्यों में उसके लिये आपस में झगड़ा खड़ा हो गया। सभी कहने लगे पहले मैं पीऊँगा, पहले मैं; तुम नहीं, तुम नहीं। उनमें जो दुर्बल थे, वे उन बलवान् दैत्यों का विरोध करने लगे, जिन्होंने कलश छीनकर अपने हाथ में कर लिया था, वे ईर्ष्यावश धर्म की दुहाई देकर उनको रोकने और बार-बार कहने लगे कि भाई! देवताओं ने भी हमारे बराबर ही परिश्रम किया है, उनको भी यज्ञ भाग के समान इसका भाग मिलना ही चाहिये। यही सनातन धर्म है। इस प्रकार इधर दैत्यों में तू-तू, मैं-मैंहो रही थी और उधर सभी उपाय जानने वालों के स्वामी चतुरशिरोमणि भगवान् ने अत्यन्त अद्भुत और अवरणनीय स्त्री का रूप ग्रहण किया।

शरीर का रंग नील कमल के समान श्याम एवं देखने ही योग्य था। अंग-प्रत्यंग बड़े ही आकर्षक थे। दोनों कान बराबर और कर्णफूल से सुशोभित थे। सुन्दर कपोल, ऊँची नासिका और रमणीय मुख। नयी जवानी के कारण स्तन उभरे हुए थे और उन्हीं के भार से कमर पतली हो गयी थी। मुख से निकलती हुई सुगन्ध के प्रेम से गुनगुनाते हुए भौंरे उस पर टूटे पड़ते थे, जिससे नेत्रों में कुछ घबराहट का भाव आ जाता था। अपने लंबे केशपाशों में उन्होंने खिले हुए बेले के पुष्पों की माला गूँथ रखी थी। सुन्दर गले में कण्ठ के आभूषण और सुन्दर भुजाओं में बाजूबंद सुशोभित थे। इनके चरणों के नूपुर मधुर ध्वनि से रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे और स्वच्छ साड़ी से ढके नितम्ब द्वीप पर शोभायमान करधनी अपनी अनूठी छटा छिटका रही थी। अपनी सलज्ज मुसकान, नाचती हुई तिरछी भौंहें और विलास भरी चितवन से मोहिनी-रूपधारी भगवान् दैत्य सेनापतियों के चित्त में बार-बार कामोद्दीपन करने लगे।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे भगवन्मायोपलम्भनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: नवमोऽध्यायः

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