विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २०
विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय
२० में प्रल्हादकृत भगवत-स्तुति और भगवान का आविर्भाव का वर्णन है।
विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २०
Vishnu Purana first part chapter
20
विष्णुपुराणम् प्रथमांशः विशोऽध्याय:
विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः २०
श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश बीसवाँ अध्याय
श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश अध्याय २०
श्रीविष्णुपुराण
(प्रथम अंश)
अध्याय २०
श्रीपराशर उवाच
एवं सञ्चिन्तयन् विष्णुमभोदेनात्मनो
द्रिज ।
त्मयत्वमवाप्याग्रय मेने
चात्मानमच्युतम् ।। १ ।।
विसस्मार तथात्मानं नान्यत्
किञ्चिदजानत ।
अहमेवाव्ययोऽनन्तः
परमात्मेत्यचिन्तयत् ।। २ ।।
तस्य तदभावनायोगात् क्षीणापापस्य वे
क्रमात् ।
शुद्ध ऽन्तः करणो विष्णुस्तस्थौ
ज्ञानमयेऽच्युतः ।। ३ ।।
श्रीपराशरजी बोले ;–
हे द्विज ! इसप्रकार भगवान विष्णु को अपने से अभिन्न चिन्तन
करते-करते पूर्ण तन्मयता प्राप्त हो जाने से उन्होंने अपने को अच्युत रुप ही अनुभव
किया || १ || वे अपने-आपको भूल गये;
उस समय उन्हें श्रीविष्णुभगवान के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतीत न होता
था | बस, केवल यही भावना चित्त में थी
कि मैं ही अव्यय और अनंत परमात्मा हूँ ||२ || उस भावना के योग से वे क्षीण-पाप हो गये और उनके शुद्ध अंत:करण में
ज्ञानस्वरूप अच्युत श्रीविष्णुभगवान् विराजमान हुए || ३ ||
योगप्रभावात् प्रह्लादि जाते
विष्णुमयेऽसुरे ।
चलत्युरगबन्धैस्तैर्म्मैत्रय
त्रटितं क्षणात् ।। ४ ।।
भ्रान्तग्राहगणः सोर्म्मर्ययौ क्षोभ
महार्णवः ।
चचाल च मही सर्वा सशौलवनकानना ।। ५
।।
स च तं शेलमम्पातं
दैत्यैर्न्यस्तमथोपरि ।
प्रक्षिप्य तस्मात्
सलिलान्निश्चक्राम महामतिः ।। ६ ।।
दृष्ट्वा च स जगदू भूयो गगनाद्यु
पलक्षणम् ।
प्रह्लदोऽस्मीति सस्मार
पुनरात्मानमात्मना ।। ७ ।।
तुष्टाव च पुनर्धीमाननादिं
पुरुषोत्तमम् ।
एकाग्रमतिरव्यग्रो यतवाक्कायमानसः
।। ८ ।।
हे मैत्रेय ! इस प्रकार योगबल से
असुर प्रल्हादजी के विष्णुमय हो जानेपर उनके विचलित होने से वे नागपाश एक क्षणभर
में ही टूट गये || ४ || भ्रमणशील ग्राहगण और तरलतरंगों से पूर्ण सम्पूर्ण महासागर क्षुब्ध हो गया,
तथा पर्वत और वनोपवनों से पूर्ण समस्त पृथ्वी हिलने लगी || ५ || तथा महामति प्रल्हादजी अपने ऊपर दैत्योंद्वारा
लादे गये उस सम्पूर्ण पर्वत-समूह को दूर फेंककर जलसे बाहर निकल आये ||६ || तब आकाशादिरूप जगत को फिर देखकर उन्हें चित्त
में यह पुन: भान हुआ कि मैं प्रल्हाद हूँ || ७ || और उन महाबुद्धिमान ने मन, वाणी और शरीर के
संयमपूर्वक धैर्य धारणकर एकाग्र-चित्त से पुन: भगवान अनादि पुरुषोत्तम की स्तुति
की||८||
प्रह्लाद उवाच
ऊँ नमः परमार्थार्थ स्थूलसूक्ष्मक्षराक्षर
।
व्यक्ताव्यक्त कलातीत सकलेश
निरंञ्जन ।। ९ ।।
गुणाञ्जन गुणाधार निर्गुणात्मन्
गुणस्थिर ।
मूर्त्तामूर्त्त महामूर्त्ते
सूक्ष्ममूर्त्ते स्फुटास्फुट ।। १० ।।
करालसौम्यरूपात्मन्
विद्याविद्यालयाच्युत ।
सदसद्रूप सद्भाव सदसद्भावभावन ।। ११
।।
नित्यानित्यप्रपञ्जात्मन्
निष्प्रपञ्चामालश्रित ।
एकानिक नमस्तुभ्यं वासुदेवादिकारण
।। १२ ।।
यः स्थूलसूक्ष्मः प्रकटः प्रकाशो
यःसर्व्भूतो न च सर्व्वभूतः ।
विश्वं यतश्चैतदविश्वहेतो
र्नमोऽस्तु तस्मै पुरुषोत्तमाय ।।
१३ ।।
प्रल्हादजी कहने लगे ;–
हे परमार्थ ! हे अर्थ (दृश्यरूप ) ! हे स्थूलसूक्ष्म
(जाग्रत-स्वप्रदृश्यस्वरूप) ! हे क्षराक्षर (कार्य-कारणरूप ) हे व्यक्ताव्यक्त
(दृश्यादृश्यस्वरूप ) ! हे कलातीत ! हे सकलेश्वर ! हे निरंजन देव ! आपको नमस्कार
है || ९ || हे गुणों को अनुरंजित
करनेवाले ! हे गुणाधार ! हे निर्गुणात्मन ! हे गुणस्थित ! हे मूर्त और अमूर्तरूप
महामुर्तिमन ! हे सूक्ष्ममूर्ते ! हे प्रकाशाप्रकाशस्वरुप ! (आपको नमस्कार है ] ||१० || हे विकराल और सुंदररूप ! हे विद्या और
अविद्यामय अच्युत ! हे सदसत (कार्यकारण) रूप जगत के उद्भवस्थान और सदसज्जगत के
पालक ! ||११ || हे नित्यानित्य
(आकाशघटादिरूप ) प्रपंचात्मन ! हे प्रपंच से पृथक रहनेवाले हे ज्ञानियों के
आश्रयरूप ! हे एकानेकरूप आदिकारण वासुदेव ! || १२ || जो स्थूल-सूक्ष्मरूप और स्फुट-प्रकाशमय है, जो
अधिष्ठानरूप से सर्वभूतस्वरूप तथापि वस्तुत: सम्पूर्ण भूतादि से परे है, विश्व के कारण न होनेपर भी जिनसे यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है, उन पुरुषोत्तम भगवान को नमस्कार है ||१३ ||
श्रीपराशर उवाच
तस्य तच्चेतसो देवः स्तुतिमित्थं
प्रकूर्वतः ।
आविर्बभूव भगवान् पीताम्बरधरो हरिः
।। १४ ।।
ससम्भ्रमस्तमालोक्य
समुत्थायाकुलाक्षरम् ।
नमोऽस्तु विष्णवेत्यतद
व्याजहारासकृद द्रिज ।। १५ ।।
श्रीपराशरजी बोले ;–
उनके इस प्रकार तन्मयतापूर्वक स्तुति करनेपर पीताम्बरधारी देवाधिदेव
भगवान हरि प्रकट हुए || १४ || हे द्विज
! उन्हें सहसा प्रकट हुए देख वे खड़े हो गये और गदगद वाणी से ‘विष्णुभगवान् को नमस्कार है ! विष्णुभगवान् को नमस्कार है !’ ऐसा बारंबार कहने लगे || १५ ||
प्रह्लाद उवाच
देव प्रपन्नार्त्तिहर प्रसादं कुरु
केशव ।
अवलोकनदानेन भूयो मां पावयाच्यत ।।
१६ ।।
प्रल्हादजी बोले ;–
हे शरणागत-दुःखहारी श्रीकेशवदेव ! प्रसन्न होइये हे अच्युत ! अपने
पुण्यदर्शनों से मुझे फिर भी पवित्र कीजिये || १६ ||
श्रीभगवानुवाच
कुर्व्वतस्ते प्रसन्नोऽहं
भक्तिमव्यभिचारिणीम् ।
यथाभिलषितो मत्तः प्रह्लाद व्रियतां
वरः ।। १७ ।।
श्रीभगवान बोले ;–
हे प्रल्हाद ! मैं तेरी अनन्यभक्ति से अति प्रसन्न हूँ; तुझे जिस वर की इच्छा हो माँग ले||१७||
प्रह्लाद उवाच
नाथ योनिसहस्त्रेषु येषु येषु
व्रजाम्यहम् ।
तेषु तेष्वच्युता भक्तिरच्युतास्तु
सदा त्वयि ।। १८ ।।
या प्रीतिरविवेकानां
विषयेष्वनपायिनी ।
त्वामनुस्मरतः सा मे
ह्टदयान्माऽपसर्पतु ।। १९ ।।
प्रल्हादजी बोले ;–
हे नाथ ! सहस्त्रों योनियों में से मैं जिस-जिसमें भी जाऊँ उसी –उसीमें, हे अच्युत ! आपमें मेरी सर्वदा अक्षुण्ण
भक्ति रहे || १८ || अविवेकी पुरुषों की
विषयों में जैसी अविचल प्रीति होती है वैसी ही आपको स्मरण करते हुए मेरे ह्रदय से
कभी दूर न हो || १९ ||
श्रीभगवानुवाच
मयि भक्तिस्तवास्त्येव भूयोऽप्येवं
भविष्यति ।
वरस्तु मत्तः प्रह्लाद व्रियतां
यस्तवेप्सितः ।। २० ।।
श्रीभगवान बोले ;–
हे प्रल्हाद ! मुझमें तो तेरी भक्ति है ही और आगे भी ऐसी ही रहेगी;
किन्तु इसके अतिरिक्त भी तुझे और जिस वर की इच्छा हो मुझसे माँग ले ||
२० ||
प्रह्लाद उवाच
मयि द्र षानुबन्धोऽभूत्
संस्तूतावुद्यते तव ।
मतूपितुस्तत्कृतं पापं देव तस्य
प्रणश्यतु ।। २१ ।।
शस्त्राणि पातितान्यङ्ग क्षिप्तो
यज्वाग्रिसंहतौ ।
दंशितश्चोरगैर्दृत्तं यद्रिषं मम
भोजने ।। २२ ।।
बद्ध्वा समुद्र यत् क्षिप्तो
यज्वितोऽस्मि शलोच्चयाः ।
अन्यानि चाप्यसाधूनि यानि यानि
कृतानि मे ।। २३ ।।
त्वयि भक्तिमतो द्रेषादघं
तत्सम्भवञ्च यत् ।
त्वतूप्रसादात् प्रभो सद्यस्तेन
मुच्येत मेपिता ।। २४ ।।
प्रल्हादजी बोले ;–
हे देव ! आपकी स्तुति में प्रवृत्त होने से मेरे पिता के चित्त में
मेरे प्रति जो द्वेष हुआ है उन्हें उससे जो पाप लगा है वह नष्ट हो जाय || २१ || इसके अतिरिक्त मेरे शरीरपर जो शस्त्राघात किये
गये – मुझे अग्निसमूह में डाला गया, सर्पों
से कटवाया गया, भोजन में विष दिया गया, बाँधकर समुद्र में डाला गया, शिलाओं से दबाया गया
तथा और भी जो-जो दुर्व्यवहार पिताजी ने मेरे साथ किये है, वे
सब आपमें भक्ति रखनेवाले पुरुष के प्रति द्वेष होने से, उन्हें
उनके कारण जो पाप लगा है, हे प्रभो ! आपकी कृपासे मेरे पिता
उससे शीघ्र ही मुक्त हो जाये || २२- २४ ||
श्रीभगवानुवाच
प्रह्लाद सर्व्वमेतत् ते
मत्प्रसादादू भविष्यति ।
अन्यञ्च ते वरं दह्मि
व्रियतामसुरात्मज ।। २५ ।।
श्रीभगवान बोले ;–
हे प्रल्हाद ! मेरी कृपासे तुम्हारी ये सब इच्छाएँ पूर्ण होगी |
हे असुरकुमार ! मैं तुम को एक वर और भी देता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो || २५ ||
प्रह्लाद उवाच
कृतकृत्योऽस्मि भगवन् वरेणानेन यत्
त्वयि ।
भवित्री त्वत्प्रसादेन भक्तिरव्यभिचारिणी
।। २६ ।।
धर्म्मर्थकामैः किं तस्य
मुक्तिस्तस्य करो स्थिता ।
समस्तजगतां मूले यस्य भक्तिः स्थिरा
त्वयि ।। २७ ।।
प्रल्हादजी बोले ;–
हे भगवन ! मैं तो आपके इस वर से ही कृतकृत्य हो गया कि आपकी कृपासे
आप में मेरी निरंतर अविचल भक्ति रहेगी || २६ || हे प्रभो ! सम्पूर्ण जगत के कारणरूप आप में जिसकी निश्चल भक्ति है,
मुक्ति भी उसकी मुट्ठी में रहती है, फिर धर्म,
अर्थ, काम से तो उसे लेना ही क्या है ?
|| २७ ||
श्रीभगवानुवाच
यथा ते निश्चलं चेतो मयि
भक्तिसमन्वितम ।
तथा त्वं मत्प्रसादेन निव्वाणा
परमाप्स्यसि ।। २८ ।।
श्रीभगवान बोले ;–
हे प्रल्हाद ! मेरी भक्ति से युक्त तेरा चित्त जैसा निश्चल है उसके
कारण तू मेरी कृपा से परम निर्वाणपद प्राप्त करेगा || २८ ||
श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वान्तर्दृ धे विष्णुस्तस्य
मैत्रेय ! पश्यतः ।
स चापि पुनरागम्य ववन्दे चरणौ पितुः
।। २९ ।।
तं पिता मूद्ध न्युपाघ्राय
परिष्वज्य च पीडिताम् ।
जीवसीत्याह वत्सेति बाष्पार्द्र
नयनो द्रिज ।। ३० ।।
प्रीतिमांस्वाभवत् तस्मिन्ननुतापी
महासुरः ।
गुरुपित्रोश्वकारैवं शुश्वूषां
सोऽपि धर्म्मवित् ।। ३१ ।।
पितर्य्युपरतिं नीते
नरसिंहस्वरूपिणा ।
विष्णुना सोऽपिदैत्यानां
मैत्रयाभूत् परिस्ततः ।। ३२ ।।
ततो राज्यद्यु तिं प्राप्य
कर्म्मशुद्धिकरीं द्रिज ।
पुत्रपौत्रांश्व
सुबहुनवाप्यैश्वय्येमेव च ।। ३३ ।।
क्षीणाधिकारःस यदा
पुण्यपापविवर्जितः ।
तदासौ भगवदूध्यानात् परं
निर्व्वणमाप्तवान ।। ३४ ।।
श्रीपराशरजी बोले ;–
हे मैत्रेय ! ऐसा कह भगवान उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये;
और उन्होंने भी फिर आकर अपने पिता के चरणों की वन्दना की || २९ || हे द्विज ! तब पिता हिरण्यकशिपुने, जिसे नाना प्रकार से पीड़ित किया था उस पुत्रका सिर सूँघकर, आँखों में आँसू भरकर कहा – ‘बेटा, जीता तो हा !’ || ३० || वह
महान असुर अपने कियेपर पछताकर फिर प्रल्हाद्से प्रेम करने लगा और इसीप्रकार
धर्मज्ञ प्रल्हादजी भी अपने गुरु और माता-पिता की सेवा-सुश्रुषा करने लगे ||
३१ || हे मैत्रेय ! तदनन्तर नृसिंहरूपधारी
भगवान विष्णुद्वारा पिता के मारे जानेपर वे दैत्यों के राजा हुए || ३२ || हे द्विज ! फिर प्रारब्धक्षयकारिणी
राज्यलक्ष्मी, बहुत से पुत्र पौत्रादि तथा परम ऐश्वर्य पाकर,
कर्माधिकार के क्षीण होनेपर पुण्य-पापसे रहित हो भगवान का ध्यान
करते हुए उन्होंने परम निर्वाणपद प्राप्त किया || ३३-३४ ||
एवम्प्रभावो दैत्योऽसौ मैत्रेयासीनूमहामतिः
।
प्रह्लादो भगवदूभक्तो यं त्वं
मामनुपृच्छसि ।। ३५ ।।
यस्त्वेतच्चरितं तस्य प्रह्लादस्य
महात्मनः ।
श्वृणोति त्सय पापानि सद्या
गच्छन्ति संक्षयम् ।। ३६ ।।
अहोरात्रकृतं पापं प्रह्लादचरितं
नरः ।
श्वृणवन् पठंश्व मैत्रेय व्यपोहति न
संशयः ।। ३७ ।।
पौर्णामास्याममावस्यामष्टम्यामथवा
पठन् ।
द्रादश्यां वा तदाप्नोति
गोप्रदानफलं द्रिज ।। ३८ ।।
प्रह्लादं सकलापत्सु यथा रक्षितवान्
हरिः ।
तथा रक्षति यस्तस्य श्वृणोति चरितं
सदा ।। ३९ ।।
हे मैत्रेय ! जिनके विषय में तुमने
पूछा था वे परम भगवद्भक्त महामति दैत्यप्रवर प्रल्हादजी ऐसे प्रभावशाली हुए ||
३५ || उन महात्मा प्रल्हादजी के इस चरित्र को
जो पुरुष सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते है || ३६ ||
हे मैत्रेय ! इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य प्रल्हाद-चरित्र के सुनने
या पढने से दिन-रात के (निरंतर) किये हुए पापसे अवश्य छुट जाता है || ३७ || हे द्विज ! पूर्णिमा, अमावास्या,
अष्टमी अथवा द्वादशी को इसे पढने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है
|| ३८ || जिसप्रकार भगवान ने
प्रल्हादजी की सम्पूर्ण आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी
रक्षा क्र्नते है जो उनका चरित्र सुनता है || ३९ ||
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे
विशोऽध्याय ।। २० ।।
आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 21
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