विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १९

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १९         

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय १९ में प्रल्हादकृत भगवत गुण वर्णन और प्रल्हाद की रक्षा के लिये भगवान का सुदर्शनचक्र को भेजना का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १९

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १९         

Vishnu Purana first part chapter 19  

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः एकोनविंशतितमोऽध्याय:  

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः १९     

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश उन्नीसवाँ अध्याय

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश अध्याय १९

श्रीविष्णुपुराण

(प्रथम अंश)

अध्याय १९

श्रीपराशर उवाच

हिरण्यकशिपुः श्रुत्वा तां कृत्यां वितथीकृताम् ।

आहूया पुत्रं पप्रच्छं प्रभावस्यास्य कारणम् ॥१॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हिरण्यकशिपु ने कृत्या को भी विफल हुई सुन अपने पुत्र प्रल्हाद को बुलाकर उनके इस प्रभाव का कारण पूछा || ||

हिरण्यशिपुरुवाच

प्रह्लाद सुप्रभावोऽसि किमेतत्ते विचेष्टितम् ।

एतन्मन्त्रादिजनितमुताहो सहजं तव ॥२॥

हिरण्यकशिपु पूछा ;– अरे प्रल्हाद ! तू बड़ा प्रभावशाली है ! तेरी ये चेष्टाएँ मन्त्रादिजनित है या स्वाभाविक ही है||||

श्रीपराशर उवाच

एवं पृष्टस्तदा पित्रा प्रह्लादोऽसुरबालकः ।

प्रणितस्य पितुः पादाविदं वचनब्रवीत् ॥३॥

न मन्त्रादिकृतं तात न च नैसर्गिको मम ।

प्रभाव एष सामान्यो यस्य यस्याच्युतो हृदि ॥४॥

अन्येषां यो न पापानि चिन्तयत्यात्मनो यथा ।

तस्य पापागमस्तात हेत्वभावान्न विद्यते ॥५॥

कर्मणा मनासा वाचा परपीड़ा करोति यः ।

तद्वीजं जन्म फलति प्रभूतं तस्य चाशुभम् ॥६॥

सोऽहं पापमिच्छामि न करोमि वदामि वा ।

चिन्तयन्सर्वभूतस्थमात्मन्यपि च केशवम् ॥७॥

शारिरं मानसं दुःखं दैवं भूतभवं तथा ।

सर्वत्र सुभचित्तस्य तस्य मे जायते कृतः ॥८॥

एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी ।

कर्तव्या पण्डितैर्ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम् ॥९॥

श्रीपराशरजी बोले ;– पिता के इसप्रकार पूछनेपर दैत्यकुमार प्रल्हादजी ने उसके चरणों में प्रणाम कर इसप्रकार कहा || || “पिताजी ! मेरा यह प्रभाव न तो मन्त्रादिजनित है और न स्वाभाविक ही है, बल्कि जिस जिस के ह्रदय में श्रीअच्युतभगवान का निवास होता है उसके लिये यह सामान्य बात है || || जो मनुष्य अपने समान दूसरों का बुरा नही सोचता, हे तात ! कोई कारण न रहने से उसका भी कभी बुरा नहीं होता || || जो मनुष्य मन, वचन या कर्म से दूसरों को कष्ट देता है उसके इस परपीड़ारूप बीजसे ही उत्पन्न हुआ उसको अत्यंत अशुभ फल मिलता है || || अपनेसहित समस्त प्राणियों में श्रीकेशव को वर्तमान समझकर मैं न तो किसीका बुरा चाहता हूँ और न कहता या करता ही हूँ || || इसप्रकार सर्वत्र शुभचित्त होने से मुझ को शारीरिक , मानसिक, दैविक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? || || इसीप्रकार भगवान को सर्वभूतमय जानकर विद्वानों को सभी प्राणियों में अविचल भक्ति (प्रेम) करनी चाहिये “ || ||

श्रीपराशर उवाच

इति श्रुत्वा स दैत्येन्द्रः प्रासादशिखरे स्थितः ।

क्रोधान्धकारितमुखः प्राह दैतेयकिंकरान ॥१०॥

श्रीपराशरजी बोले ;– अपने महल की अट्टालिकापर बैठे हुए उस दैत्यराज ने यह सुनकर क्रोधान्ध हो अपने दैत्य-अनुचरों से कहा || १० ||

हिरण्यकशिपुरुवाच

दुरात्मा क्षिप्यतामस्मात्प्रासादाच्छतयोजनात् ।

गिरिपृष्ठे पतत्वस्मिन् शिलाभिन्नांगसंहतिः ॥११॥

ततस्तं चिक्षिपुः सर्वे बालं दैतेयदानवाः ।

पपात सोप्यधः क्षिप्तो हृदयेनोद्वहन्हरिम् ॥१२॥

पतमानं जगद्धात्री जगद्धातारि केशवे ।

भक्तियुक्तं दधारैनमुपसंगम्य मेदिनी ॥१३॥

ततो विलोक्य तं स्वस्थमविशीर्णास्थिपत्र्जरम् ।

हिरण्यकशिपुः प्राह शम्बरं मायिनां वरम् ॥१४॥

हिरण्यकशिपु बोला ;– यह बड़ा दुरात्मा है, इसे इस सौ योजन ऊँचे महल से गिरा दो, जिससे यह इस पर्वत के ऊपर गिरे और शिलाओं से इसके अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जायें || ११ || तब उन समस्त दैत्य और दानवोंने उन्हें महल से गिरा दिया और वे भी उनके ढकेलने से ह्रदयमें श्रीहरि का स्मरण करते-करते नीचे गिरे गये || १२ || जगत्कर्ता भगवान केशव के परमभक्त प्रल्हादजी के गिरते समय उन्हें जगध्दात्री पृथ्वी ने निकट जाकर अपनी गोद में ले लिया || १३ || तब बिना किसी हड्डी पसली के टूटे उन्हें स्वस्थ देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुने परममायावी शम्बरासुर से कहा|| १४ ||

हिरण्यकशिपुरुवाच

नास्माभिः शक्यते हन्तुमसौ दुर्बुद्धिबालकः ।

मायां वेत्ति भवांस्तस्मान्माययैनं निषूदय ॥१५॥

हिरण्यकशिपु बोला ;– यह दुर्बुद्धि बालक कोई ऐसी माया जानता है जिससे वह हमसे नहीं मारा जा सकता, इसलिये आप माया से ही इसे मार डालिये || १५ ||

शम्बर उवाच

सूदयाम्येव दैत्येन्द्र पश्य मायाबलं मम ।

सहस्त्रमत्र मायानां पश्य कोटिशतं तथा ॥१६॥

शम्बरासुर बोला ;– हे दैत्येन्द्र ! इस बालक को मैं अभी मारे डालता हूँ, तुम मेरी माया का बल देखो | देखो, मैं तुम्हे सैकड़ों हजारों करोड़ों मायाएँ दिखलाता हूँ || १६ ||

श्रीपराशर उवाच

ततः स ससृजे मायां प्रह्लादे शम्बरोऽसुरः ।

विनाशमिच्छन्दुर्बुद्धिः सर्वत्र समदर्शिनि ॥१७॥

समाहितमतिर्भूत्वा शम्बरेऽपि विमत्सरः ।

मैत्रेय सोऽपि प्रह्लादः सस्माद मधुसूदनम् ॥१८॥

ततो भगवता तस्य रक्षार्थ चक्रमुत्तमम् ।

आजगाम समाज्ञप्तं ज्वालामालि सुदर्शनम् ॥१९॥

तेन मायासहस्त्रं तच्छम्बरस्याशुगामिना ।

बालस्य रक्षता देहमेकैकं च विशोधितम् ॥२०॥

श्रीपराशरजी बोले ;– तब उस दुर्बुद्धि शम्बरासुर ने समदर्शी प्रल्हाद के लिये, उनके नाश की इच्छा से बहुत-सी मायाएँ रचीं || १७ || किन्तु, हे मैत्रेय ! शम्बरासुर के प्रति भी सर्वथा द्वेषहीन रहकर प्रल्हादजी सावधान चित्त से श्रीमधुसूदनभगवान का स्मरण करते रहे || १८ || उससमय भगवान की आज्ञा से उनकी रक्षा के लिये वहाँ ज्वाला-मालाओं से युक्त सुदर्शनचक्र आ गया || १९ || उस शीघ्रगामी सुदर्शनचक्र ने उस बालक की रक्षा करते हुए शम्बरासुर की सहस्त्रों मायाओं को एक एक करके नष्ट कर दिया || २० ||

संशाषकं तथा वायूं दैत्यन्द्रस्त्विदमब्रवीत् ।

शीघ्रमेष ममादेशद्दुरात्मा नीयतां क्षयम् ॥२१॥

तथेत्युक्त्वा तु सोऽप्येनं विवेश पवनो लघु ।

शीतोऽतिरूक्षः शोषाय तद्देहस्यातिदुःसह ॥२२॥

तेनाविष्टमथात्मानं स बुद्‌ध्वा दैत्यबालकः ।

हृदयेन माहात्मानं दधार धरणीधरम् ॥२३॥

हृदयस्थस्ततस्तस्य तं वायुमतिभीषणम् ।

पपौ जनार्दन क्रुद्धः स ययौ पवनः क्षयम् ॥२४॥

तब दैत्यराज ने सबको सुखा डालनेवाले वायुसे कहा कि मेरी आज्ञा से तुम शीघ्र ही इस दुरात्मा को नष्ट कर दो || २१ || अत: उस अति तीव्र शीतल और रुक्ष वायुने, जो अति असहनीय था जो आज्ञाकह उनके शरीर को सुखाने के लिये उसमें प्रवेश किया || २२ || अपने शरीर में वायु का आवेश हुआ ज्ञान दैत्यकुमार प्रल्हाद ने भगवान धरणीधर को ह्रदय में धारण किया || २३ || उनके ह्रदय में स्थित हुए श्रीजनार्दन ने क्रुद्ध होकर उस भीषण वायु को पी लिया, इससे वह क्षीण हो गया || २४ ||

क्षीणासु सर्वमायासु पवने च क्षयं गते ।

जगाम सोऽपि भवनं गुरोरेव महामतिः ॥२५॥

अहन्यहन्यथाचार्यो नीतिं राज्यफलप्रदाम् ।

ग्राहयामास तं भलं राज्ञामुशनसा कृताम् ॥२६॥

गृहीतनीतिशास्त्रं तं विनीतं च यदा गुरुः ।

मेने तदैनं तप्तित्रे कथयामास शिक्षितम् ॥२७॥

इसप्रकार पवन और सम्पूर्ण मायाओं के क्षीण हो जानेपर महामति प्रल्हादजी अपने गुरु के घर चले गये || २५ || तदनन्तर गुरूजी उन्हें नित्यप्रति शुक्राचार्यजी की बनायी हुई राज्यफलप्रदायिनी राजनीति का अध्ययन कराने लगे || २६ || जब गुरूजी ने उन्हें नीतिशास्त्र में निपुण और विनयसम्पन्न देखा तो उनके पितासे कहा – ‘अब यह सुशिक्षित हो गया है’ || २७ ||

आचार्या उवाच

गृहितनीतिशास्त्रस्ते पुत्रो दैत्यपते कृतः ।

प्रह्लादस्तत्त्वतो वेत्ति भार्गवेण यदीरितम् ॥२८॥

आचार्य बोले ;– हे दैत्यराज ! अब हमने तुम्हारे पुत्र को नीतिशास्त्र में पूर्णतया निपुण कर दिया है, भृगुनन्दन शुक्राचार्यजी ने जो कुछ कहा है उसे प्रल्हाद तत्त्वत: जानता ही || २८ ||

हिरण्यकशिपुरुवाच

मित्रषु वर्तेत कथमरिवर्गेषु भूपतिः ।

प्रह्लाद त्रिषु लोकेषु मध्यस्थेषु कथं चरेत् ॥२९॥

कथं मन्त्रिष्वमात्येष ब्राहोष्वाभ्यन्तरेषु च ।

चारेषु पौरवर्गेषु शंकितेषइतषु च ॥३०॥

कृताकृत्यविधानत्र्च दुर्गाटविकसाधनम् ।

प्रह्लाद कथ्यतां सम्यक् तथा कण्टकशोधनम् ॥३१॥

एतद्च्चान्यच्च सकलमधीतं भवता यथा ।

तथा मे कथ्यतां ज्ञातुं तवेच्छामि मनोगतम् ॥३२॥

हिरण्यकशिपु बोला ;– प्रल्हाद ! राजा को मित्रों से कैसा बर्ताव करना चाहिये ? और शत्रुओं से कैसा ? ततः त्रिलोकी में जो मध्यस्थ हों, उनसे किस प्रकार आचरण करे ? || २९ || मंत्रियों, अमात्यों, बाह्य और अंतपुर के सेवकों, गुप्तचरों, पुरवासियों, शंकितों तथा अन्यान्य जनोंके प्रति किसप्रकार व्यवहार करना चाहिये ? || ३० || हे प्रल्हाद ! यह ठीक-ठीक बता कि करने और न करनेयोग्य कार्यों का विधान किसप्रकार करे, दुर्ग और आदविक (जंगली मनुष्य) आदिको किसप्रकार वशीभूत करे और गुप्त शत्रुरूप कटिको कैसे निकाले ? || ३१ || यह सब तथा और भी जो कुछ तूने पढ़ा हो वह सब मुझे सुना, मैं तेरे मनके भावों को जानने के लिये बहुत उत्सुक हूँ || ३२ ||

श्रीपराशर उवाच

प्रणिपत्य पितुः पादो तदा प्रश्चभूषणः ।

प्रह्लादः प्राह दैत्यैन्द्रं कृताज्त्रलिपुस्तथा ॥३३॥

श्रीपराशरजी बोले ;– तब विनयभूषण प्रल्हादजी ने पिता के चरणों में प्रणाम कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु से हाथ जोडकर कहा || ३३ ||

प्रह्लाद उवाच

ममोपदिष्टं सकलं गुरुणां नात्र संशयः ।

गृहीतन्तु मया किन्तु न सदेतन्मतं मम ॥३४॥

साम चोपप्रदानं च भेददण्डौ तथापरौ ।

उपायाः कथिताः सर्वे मित्रादीनां च साधने ॥३५॥

तानेवाहं न पश्यामि मित्रादींस्तात मा क्रुधः ।

साध्याभावे महाबाहो साधनेः किं प्रजोजनम् ॥३६॥

सर्वभूतात्मके तात जगन्नाथे जगन्मये ।

परमात्मनि गोविन्दे मित्रामित्रकथा कृतः ॥३७॥

त्वय्यस्तिअ भगवान् विष्णुर्मयि चान्यत्र चास्ति सः ।

यतस्ततोऽयं मित्रं मे शत्रुश्चेति पृथक्कुतः ॥३८॥

तदेभिरलामत्यर्थ दुष्टारम्भोक्तिविस्तरैः ।

अविद्यान्तर्गतैर्यत्नः कर्त्तव्यस्तात शोभने ॥३९॥

विद्याबुद्धिरविद्यायामज्ञानात्तात जायते ।

बालोऽग्निं किं न खद्योतमसुरेश्वर मन्यते ॥४०॥

तक्तर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये ।

आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम् ॥४१॥

प्रल्हादजी बोले ;– पिताजी ! इसमें संदेह नही, गुरूजी ने तो मुझे इन सभी विषयों की शिक्षा दी है, और मैं उन्हें समझ भी गया हूँ; परन्तु मेरा विचार है कि वे नीतियाँ अच्छी नही है || ३४ || साम, दान तथा दंड और भेद ये सब उपाय मित्रादि के साधने के लिये बतलाये गये है || ३५ || किन्तु, पिताजी ! आप क्रोध न करें, मुझे तो कोई शत्रु-मित्र आदि दिखायी ही नहीं देते; और हे महाबाहो ! जब कोई साध्य ही नहीं है तो इन साधनों से लेना ही क्या है ? || ३६ || हे तात ! सर्वभूतात्मक जगन्नाथ जगन्मय परमात्मा गोविन्द में भला शत्रु-मित्र की बात ही कहाँ है ? || ३७ || श्रीविष्णुभगवान तो आपमें, मुझ में और अन्यत्र भी सभी जगह वर्तमान है, फिर यह मेरा मित्र है और यह शत्रु हैऐसे भेदभाव को स्थान ही कहाँ है ? || ३८ || इसलिये, हे तात ! अविद्याजन्य दुष्कर्मो में प्रवृत्त करनेवाले इस वाग्जाल को सर्वथा छोडकर अपने शुभ के लिये ही यत्न करना चाहिये || ३९ || हे दैत्यराज ! अज्ञान के कारण की मनुष्यों की अविद्या में विद्या बुद्धि होती है | बालक क्या अज्ञानवश स्वद्योतको ही अग्नि नही समझ लेता ? || ४० || कर्म वही है जो बंधन का कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्ति की साधिका हो | इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशलमात्र ही है || ४१ ||

तदेतदवगम्याहमसारं सारमुत्तमम् ।

निशामय महाभाग प्रणिपत्य ब्रवीमि ते ॥४२॥

न चिन्तयति को राज्यं को धनं नाभिवात्र्छति ।

तथापि भाव्यमेवैतदुभयं प्राप्यते नरैः ॥४३॥

सर्व एव महाभाग महत्त्वं प्रति सोद्यमाः ।

तथापि पूसां भाग्यानि नोद्यमा भूतिहेतवः ॥४४॥

जडानामविवेकानामशुराणामपि प्रभो ।

भाग्यभोज्यानि राज्यानि सन्त्यनीतिमतामपि ॥४५॥

तस्माद्यतेत पुण्येषु य इच्छेन्महतीं श्रियम् ।

यतितव्यं समत्वे च निर्वाणमपि चेच्छता ॥४६॥

देवा मनुष्याः पशवः पक्षिवृक्षसरिसृपाः ।

रूपमेतदनन्तस्य विष्णोर्भिन्नमिव स्थितम ॥४७॥

एतद्विजानता सर्वं जगत्स्थावरजंगमम् ।

द्रष्टव्यमात्मद्विष्णुर्यंतोऽयं विश्वरूपधृक् ॥४८॥

एवं ज्ञाते स भगवाननादिः परमेश्वरः ।

प्रसीदत्यच्युतस्तस्मिन्प्रसन्ने क्लेशसंक्षयः ॥४९॥

हे महाभाग ! इसप्रकार इन सबको असार समझकर अब आपको प्रणाम कर मैं उत्तम सार बतलाता हूँ, आप श्रवण कीजिये || ४२ || राज्य पानेकी चिंता किसे नहीं होती और धन की अभिलाषा भी किसको नहीं है ? तथापि ये दोनों मिलते उन्हीं को है जिन्हें मिलनेवाले होते है || ४३ || हे महाभाग ! महत्त्व-प्राप्ति के लिये सभी यत्न करते है, तथापि वैभव का कारण तो मनुष्य का भाग्य ही है , उद्यम नही || ४४ || हे प्रभो ! जड, अविवेकी, निर्वल और अनितिज्ञों को भी भाग्यवश नाना प्रकार के भोग और राज्यादि प्राप्त होते है || ४५ || इसलिये जिसे महान वैभव की इच्छा हो उसे केवल पुण्यसंचय का ही यत्न करना चाहिये; और जिसे मोक्ष की इच्छा हो उसे भी समत्वलाभका ही प्रयत्न करना चाहिये || ४६ || देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और सरीसृप ये सब भगवान विष्णु से भिन्न-से स्थित हुए भी वास्तव में श्रीअनंत के ही रूप है || ४७ || इस बात को जाननेवाला पुरुष सम्पूर्ण चराचर जगत को आत्मवत देखे, क्योंकि यह सब विश्वरूपधारी भगवान विष्णु ही है || ४८ || ऐसा जान लेनेपर वे अनादि परमेश्वर भगवान अच्युत प्रसन्न होते है और उनके प्रसन्न होनेपर सभी क्लेश क्षीण हो जाते है || ४९ ||

श्रीपराशर उवाच

एतच्छुत्वा तु कोपेन समुत्थाय वरासनात् ।

हिरण्यकशिपुः पुत्रं पदा वक्षस्यताडयत् ॥५०॥

उवाच च स कोपेन सामर्षः प्रज्वलन्निव ।

निष्पिव्य पाणिना पाणिं हन्तुकामो जगद्यथा ॥५१॥

श्रीपराशरजी बोले ;– यह सुनकर हिरण्यकशिपुने क्रोधपूर्वक अपने राजसिंहासन से उठकर पुत्र प्रल्हाद के वक्ष:स्थल में लात मारी || ५० || और क्रोध तथा अमर्ष से जलते हुए मानो सम्पूर्ण संसार को मार डालेगा इसप्रकार हाथ मलता हुआ बोला || ५१ ||

हिरण्यकशिपुरुवाच

हे विप्रिचित्ते हे राहो हे बलैष महार्णवे ।

नागपाशैर्दृढैर्बद्‌ध्वा क्षिप्यतां मा विलम्ब्यताम् ॥५२॥

अन्यथा सकला लोकास्तथा दैतेयदानवाः ।

अनुयास्यन्ति मूढस्य मतमस्य दुरात्मनः ॥५३॥

बहुशो वारितोऽस्माभिरयं पापस्तथाप्यरेः ।

स्तुतिं करोति दुष्टानां वध एवोपकारकः ॥५४॥

हिरण्यकशिपुने कहा ;– हे विप्रचित्ते ! हे राहो ! हे बल ! तुमलोग इसे भली प्रकार नागपाश से बाँधकर महासागर में डाल दो, देरी मत करो || ५२ || नहीं तो सम्पूर्ण लोक और दैत्य-दानव आदि भी इस मूढ़ दुरात्मा के मतका ही अनुगमन करेंगे [ अर्थात इसकी तरह व् भी विष्णुभक्त हो जायेंगे] || ५३ || हमने इसे बहुतेरा रोका, तथापि यह दुष्ट शत्रु की ही स्तुति किये जाता है | ठीक है, दुष्टों को तो मार देना ही लाभदायक होता है || ५४ ||

पराशर उवाच।

ततस्ते सत्वरा दैत्या बद्धा तं नागबन्धनैः ।

भर्तुराज्ञां पुरस्कृत्य चिक्षिपुः सलिलार्णवे ॥५५ ॥

ततश्चचाल चलता प्रह्लादेन महार्णवः ।

उद्वेलोभूत्परं क्षोभमुपेत्य च समन्ततः ॥५६ ॥

भूर्लोकमखिलं दृष्ट्वा प्लाव्यमानं महाम्भसा ।

हिरण्यकशिपुर्दैत्यानिदमाह महामते ॥५७ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– तब उन दैत्यों ने अपने स्वामीकी आज्ञा को शिरोधार्य कर तुरंत ही उन्हें नागपाश से बाँधकर समुद्र में डाल दिया || ५५ || उससमय प्रल्हादजी के हिलने-डुलने से सम्पूर्ण महासागर में हलचल मच गयी और अत्यंत क्षोम के कारण उसमें सब ओर ऊँची ऊँची लहरे उठने लगीं || ५६ || हे महामते ! उस महान जल-पूर से सम्पूर्ण पृथ्वी को डूबती देख हिरण्यकशिपुने दैत्यों से इसप्रकार कहा || ५७ ||

हिरण्यकशिपुरुवाच

दैतेयाः सकलैः शलैरत्रैव वरुणालये ।

निश्छिद्रैः सर्वशः सर्वैश्चीयतामेष दुर्मतिः ॥५८॥

नाग्निर्दहति नैवायं शस्त्रैरिछत्रो न चोरगैः ।

क्षयं नीतो न वातेन न विषेण न कृत्यया ॥५९॥

न मायाभिर्न चैवोत्र्चात्पातितो न च दिग्गजैः ।

बालोऽतिदुष्टचित्तोऽयं नानेनार्थोऽस्ति जीवता ॥६०॥

तदेष तोयमध्ये तु समान्कान्तो महीधरैः ।

तिष्ठत्वब्दसहस्त्रान्तं प्राणान्हास्याति दुर्मतिः ॥६१॥

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे दैत्यों ! तुम इस दुर्मति को इस समुद्र के भीतर ही किसी ओरसे खुला न रखकर सब ओरसे सम्पूर्ण पर्वतों से दबा दो || ५८ || देखो, इसे न तो अग्नि ने जलाया, न यह शस्त्रों से कटा, न सर्पों से नष्ट हुआ और न वायु, विष और कृत्यासे ही क्षीण हुआ, तथा न यह मायाओं से, ऊपरसे गिराने से अथवा दिग्गजों से ही मारा गया | यह बालक अत्यंत दुष्ट-चित्त है, अब इसके जीवन का कोई प्रयोजन नहीं है || ५९ ६० || अत: अब यह पर्वतों से लदा हुआ हजारों वर्षतक जलमें ही पड़ा रहे, इससे यह दुर्मति स्वयं ही प्राण छोड़ देगा ||६१||

ततो दैत्या दानवाश्च पर्वतैस्तं महोदधी ।

आक्रम्य चयनं चक्रुर्योजनानि सहस्त्रशः ॥६२॥

स चित्तः पर्वतैरन्तः समुद्रस्य महामतिः ।

तुष्टावाह्निकवेलायामेकाग्रमतिरच्युतम् ॥६३॥

तब दैत्य और दानवों ने उसे समुद्र में ही पर्वतों से ढँककर उसके ऊपर हजारों योजन का ढेर कर दिया || ६२ || उन महामति ने समुद्र से पर्वतों से लाद दिये जानेपर अपने नित्यकर्मों के समय एकाग्र चित्तसे श्रीअच्युतभगवान की इसप्रकार स्तुति की || ६३ ||

प्रह्लाद उवाच

नमस्ते पुण्डरीकक्ष नमस्ते पुरुषोत्तम ।

नमस्ते सर्वलोकात्मन्नमस्ते तिग्मचक्रिणे ॥६४॥

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।

जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥६५॥

प्रल्हादजी बोले ;– हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है | हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है | हे सर्वलोकात्मन ! आपको नमस्कार है | हे तीक्ष्णचक्रधारी प्रभो ! आपको बारंबार नमस्कार है || ६४ || गो-ब्राह्मण-हितकारी ब्रह्मण्यदेव भगवान कृष्ण को नमस्कार है | जगत-हितकारी श्रीगोविंद को बारंबार नमस्कार है || ६५ ||

ब्रह्मात्वे सृजते विश्वं स्थितौ पालयते पुनः ।

रुद्ररूपाय कल्पान्ते नमस्तुभ्यं त्रिमूर्तये ॥६६॥

देवा यक्षासुराः सिद्धा नागा गन्धर्वकिन्नराः ।

पिशाचा राक्षसाश्चैव मनुष्याः पशवस्तथा ॥६७॥

पक्षिणः स्थावरश्चैव पिपीलिकसरीसृपाः ।

भूम्यापोऽग्निर्नभो वायुः शब्दः स्पर्शस्तथा रसः ॥६८॥

रूपं गन्धो मनो बुद्धिरात्मा कालस्तथा गुणाः ।

एतेषां परमार्थाश्च सर्वमेतत्त्वमच्युत ॥६९॥

विद्याविद्ये भवान्सत्यमसत्यं त्वं विषामृते ।

प्रवृत्तं च निवृत्तं च कर्म वेदोदितं भवान् ॥७०॥

समस्तकर्मभोक्ता च कर्मोपकरणानि च ।

त्वमेव विष्णो सर्वाणि सर्वकर्मफलं च यत् ॥७१॥

मय्यन्यत्र तथान्येषु भूतेषु भुवनेषु च ।

तवैव व्याप्तिरैश्वर्यगुणसंसूचिकी प्रभो ॥७२॥

त्वां योगिनाश्चिन्तयन्ति त्वां यजन्ति च याजकाः ।

हव्यकव्यभुगेकस्त्वं पितृदेवस्वरूपधृक् ॥७३॥

आप ब्रह्मारूप से विश्व की रचना करते है, फिर उसके स्थित हो जानेपर विष्णुरूप से पालन करते है और अंत में रुद्ररूप से संहार करते है ऐसे त्रिमूर्तिधारी आपको नमस्कार है || ६६ || हे अच्युत ! देव, यक्ष, असुर, सिद्ध, नाग, गन्धर्व, किन्नर, पिशाच, राक्षस, मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर, पिपीलिका (चींटी ), सरीसृप, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, मन, बुद्धि, आत्मा, काल और गुज- इन सबके पारमार्थिक रूप आप ही है, वास्तव में आप ही ये सब है || ६७ ६९ || आप ही विद्या और अविद्या, सत्य और असत्य तथा विष और अमृत है तथा आप ही वेदोक्त प्रवृत्त और निवृत्त कर्म है || ७० || हे विष्णो ! आप ही समस्त कर्मों के भोक्ता और उनकी सामग्री है तथा सर्व कर्मों के जितने भी फल है वे सब भी आप ही है || ७१ || हे प्रभो ! मुझमें तथा अन्यत्र समस्त भूतों और भुवनों में आपही के गुण और ऐश्वर्य की सूचिका व्याप्ति हो रही है || ७२ || योगिगण आपही का ध्यान करते है और याज्ञिकगण आपही का यजन करते है, तथा पितृगण और देवगण के रूप से एक आप ही हव्य और कव्य के भोक्ता है || ७३ ||

रूपं महत्ते स्थितमत्र विश्वं ततश्च सूक्ष्म जगदेतदीश ।

रूपाणि सर्वाणि च भूतभेदास्तेष्वन्तरात्माख्यमतीव सूक्ष्मम् ॥७४॥

हे ईश ! यह निखिल ब्रह्माण्ड ही आपका स्थूलरप है, उससे सूक्ष्म यह संसार (पृथ्वीमंडल) है, उससे भी सूक्ष्म ये भिन्न-भिन्न रूपधारी समस्त प्राणी है; उनमें भी जो अंतरात्मा है वह और भी अत्यंत सूक्ष्म है || ७४ ||

तस्माच्च सूक्ष्मादिवेशेषणानामगोचरे यत्परमात्मरूपम् ।

किमप्यचिन्त्यं तव रूपमस्ति तस्मै नमस्ते पुरुषोत्तमाय ॥७५॥

सर्वभूतेषु सर्वात्मन्या शक्तिरपरा तव ।

गुणाश्रया नमस्तस्यै शाश्वतायै सुरेश्वर ॥७६॥

यातीतगोचरा वाचां मनसां चाविशेषणा ।

ज्ञानिज्ञानपरिच्छेद्या तां वन्दे स्वेश्चरीं पराम् ॥७७॥

ॐ नमो वासुदेवाय तस्मै भगवते सदा ।

व्यतिरिक्तं न यस्यास्ति व्यतिरिक्तोऽखिलस्य यः ॥७८॥

नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै महात्मने ।

नाम रूपं न यस्यैको योऽस्तित्वेनोपलभ्यते ॥७९॥

यस्यावताररूपाणि समर्चन्ति दिवौकसः ।

अपश्यन्तः परं रूपं नमस्तस्मै महात्मने ॥८०॥

योऽन्तस्तिष्ठन्नशेषस्य पश्यतीशः शुभाशुभम् ।

तं सर्वसाक्षिणं विश्वं नमस्ये परेश्वरम् ॥८१॥

उससे भी परे जो सूक्ष्म आदि विशेषणों का अविषम आपका कोई अचिन्त्य परमात्मस्वरूप है उन पुरुषोत्तमरूप आपको नमस्कार है || ७५ || हे सर्वात्मन ! समस्त भूतों में आपकी जो गुणाश्रया पराशक्ति है, हे सुरेश्वर ! उस नित्यस्वरूपिणी को नमस्कार है || ७६ || जो वाणी और मन के परे है, विशेषरहित तथा ज्ञानियों के ज्ञान से परिच्छेद्य है उस स्वतंत्रा पराशक्ति की मैं वन्दना करता हूँ || ७७ || ॐ उन भगवान् वासुदेव को सदा नमस्कार है, जिनसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है तथा जो स्वयं सबसे अतिरिक्त (असंग) है || ७८ || जिनका कोई भी नाम अथवा रूप नहीं है और जो अपनी सत्तामात्र से ही उपलब्ध होते है उन महात्माको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है || ७९ || जिनके पर-स्वरूप को न जानते हुए ही देवतागण उनके अवतार-शरीर को सम्यक अर्चन करते है उन महात्मा को नमस्कार है || ८० || जो ईश्वर सबके अंत:करणों में स्थित होकर उनके शुभाशुभ कर्मों को देखते है उन सर्वसाक्षी विश्वरूप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ || ८१ ||

नमोऽस्तु विष्णवे तस्मै यस्याभिन्नमिदं जगत् ।

ध्येयः स जगतामाद्यः स प्रसीदतु मेऽव्ययः ॥८२॥

यत्रोतमेतत्प्रोतं च विश्वमक्षरमव्ययम् ।

आधारभूतः सर्वस्य स प्रसीदतु मे हरिः ॥८३॥

ॐ नमो विष्णवे तस्मै नमस्तस्मै पुनः पुनः ।

यत्र सर्वं यतः सर्वं यः सर्वं सर्वसंश्रयः ॥८४॥

सर्वगत्वादनन्तस्य स एवाहमवस्थितः ।

मत्तः सर्वमहं सर्वं मयि सर्वं सनातने ॥८५॥

अहमेवाक्षयो नित्यः परमात्मात्मसंश्रयः ।

ब्रह्मसंज्ञोऽहमेवाग्रे तथान्ते च परः पुमान् ॥८६॥

जिनसे यह जगत सर्वथा अभिन्न है उन श्रीविष्णुभगवान् को नमस्कार है वे जगत के आदिकारण और योगियों के ध्येय अव्यय हरि मुझपर प्रसन्न हो || ८२ || जिनमे यह सम्पूर्ण विश्व ओतप्रोत है वे अक्षर, अव्यय और सबके आधारभूत हरि मुझपर प्रसन्न हो || ८३ || ॐ जीनमे सब कुछ स्थित है, जिनसे सब उत्पन्न हुआ है और जो स्वयं सब कुछ तथा सबके आधार है, उन श्रीविष्णुभगवान को नमस्कार है, उन्हें बारंबार नमस्कार है || ८४ || भगवान अनंत सर्वगामी है; अत: वे ही मेरे रूपसे स्थित है, इसलिये यह सम्पूर्ण जगत मुझही से हुआ है, मैं ही यह सब कुछ हूँ और मुझ सनातन में ही यह सब स्थित है || ८५ || मैं ही अक्षय, नित्य और आत्माधार परमात्मा हूँ; तथा मैं ही जगत के आदि के अंत में स्थित ब्रह्मसंज्ञक परमपुरुष हूँ || ८६ ||

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे एकोनविंशतितमोऽध्याय ॥१९ ॥

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 20 

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