विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १८

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १८        

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय १८ में प्रल्हाद को मारने के लिये विष, शस्त्र और अग्नि आदि का प्रयोग एवं प्रल्हादकृत भगवत स्तुति का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १८

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १८        

Vishnu Purana first part chapter 18  

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः अष्टोदशोऽध्यायः  

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः १८    

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश अठारहवाँ अध्याय

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश अध्याय १८

श्रीविष्णु पुराण

अध्याय १८

श्रीपराशर उवाच

तस्यैतां दनावाश्चेष्टां दृष्टा दैत्यपतेर्भयात् ।

आचचख्युः स चोवाच सूदानाहूय सत्वरः ॥१॥

श्रीपराशरजी बोले ;– उनकी ऐसी चेष्टा देख दैत्यों ने दैत्यराज हिरण्यकशिपु से डरकर उससे सारा वृतांत कह सुनाया, और उसने भी तुरंत अपने रसोइयों को बुलाकर कहा || ||

हिरण्यकशिपुरुवाच

हे सूदा मम पुत्रोऽसावन्यषामपि दुर्मतिः ।

कुमार्गदेशिको दुष्टो हन्यतामविलम्बितम् ॥२॥

हालाहलं विषं तस्य सर्वभक्षेषु दीयताम् ।

अविज्ञातमसौ पापो हन्यतां मा विचार्यताम् ॥३॥

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे सुदगण ! मेरा यह दुष्ट और दुर्मति पुत्र औरों को भी कुमार्ग का उपदेश देता है, अत: तुम शीघ्र ही इसे मार डालो || || तुम उसे उसके बिना जाने समस्त खाद्यपदार्थों में हलाहल विष मिलाकर दो और किसी प्रकार का शोच विचार न कर उस पापी को मार डालो || ||

श्रीपराशर उवाच

ते तथैव ततश्चक्रुः प्रह्लादाय महात्मने ।

विषदानं यथाज्ञत्पं पित्रा तस्य महात्मनः ॥४॥

हालहलं विषं घोरमनन्तोच्चारणेन सः ।

अभिमन्त्र्य सहान्नेन मैत्रेय बुभुजे तदा ॥५॥

अविकारं स तद्भुक्त्वा प्रह्लादः स्वस्थमानसः ।

अनन्तख्यातिनिर्वीर्य जरयामास तद्विषम् ॥६॥

ततः सूदा भयत्रस्ता जीर्णा दृष्टवा महद्विषम् ।

दैत्येश्वरमुपागम्य प्रणिपत्येदमब्रुवन् ॥७॥

श्रीपराशरजी बोले ;– तब उन रसोइयों ने महात्मा प्रल्हाद को, जैसी कि उनके पिताने आज्ञा दि थी उसी के अनुसार विष दे दिया || || हे मैत्रेय ! तब वे उस घोर हलाहल विष को भगवान्नाम के उच्चारण से अभिमंत्रित कर अन्नके साथ खा गये || || तथा भगवन्नाम के प्रभाव से निस्तेज हुए उस विष को खाकर उसे बिना किसी विकार के पचाकर स्वस्थ चित्तसे स्थित रहे || || उस महान विष को पचा हुआ देख रसोइयों ने भय से व्याकुल हो हिरण्यकशिपुके पास जा उसे प्रणाम करके कहा || ||

सूदा ऊचुः

दैत्यराज विषं दत्तमस्माभिरतिभीषणम् ।

जीर्णं तेन सहान्नेन प्रह्लादेन सुतेन ते ॥८॥

सूदगण बोले ;– हे दैत्यराज ! हमने आपकी आज्ञासे अत्यंत तीक्ष्ण विष दिया था, तथापि आपके पुत्र प्रल्हाद ने उसे अन्नके साथ पचा लिया || ||

हिरण्यकशिपुरुवाच

त्वर्यतां त्वर्यतां हे हे सद्यो दैत्यपुरोहिताः ।

कृत्यां तस्य विनाशाय उप्तादयत मा चिरम् ॥९॥

हिरण्यकशिपु बोला ;– हे पुरोहितगण ! शीघ्रता करो, शीघ्रता करो ! उसे नष्ट करने के लिये अब कृत्या उत्पन्न करो; और देरी न करो || ||

श्रीपराशर उवाच

सकाशमागम्य ततः प्रह्लादस्य पुरोहिताः ।

सामपूर्वमथोचुस्ते प्रह्लादं विनयान्वितम् ॥१०॥

श्रीपराशरजी बोले ;– तब पुरोहितों ने अति विनीत प्रल्हाद से, उसके पास जाकर शान्तिपूर्वक कहा || १० ||

पुरोहित ऊचुः

जातस्त्रैलोक्यविख्यात आयुष्मन्ब्रह्मणःकुले ।

दैत्यराजस्य तनयो हिरण्यकशिपोर्भवान् ॥११॥

किं देवैः किमनन्तेन किमन्येन तवाश्रयः ।

पिता ते सर्वलोकानां त्वं तथैव भविष्यसि ॥१२॥

तस्मात्परित्यजैनां त्वं विपक्षस्तवसंहिताम् ।

श्‍लाध्यः पिता समस्तानां गुरुणां परमो गुरुः ॥१३॥

पुरोहित बोले ;– हे आयुष्मन ! तुम त्रिलोकी में विख्यात ब्रह्माजी के कुल में उत्पन्न हुए हो और दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र हो || ११ || तुम्हे देवता अनंत अथवा और भी किसीसे क्या प्रयोजन है ? तुम्हारे पिता तुम्हारे तथा सम्पूर्ण लोकों के आश्रय है और तुम भी ऐसे ही होंगे || १२ || इसलिये तुम यह विपक्ष की स्तुति करना छोड़ दो | तुम्हारे पिता सब प्रकार प्रशंसनीय है और वे ही समस्त गुरुओं में परम गुरु है || १३ ||

प्रह्लाद उवाच

एवमेतन्महाभागाः श्‍लाघ्यमेतन्महाकुलम् ।

मरीचेः सकलेऽप्यस्मिन् त्रैलोक्ये नान्यथा वदेत् ॥१४॥

पिता च मम सर्वस्मित्र्जगत्युत्कृष्तचेष्टितः ।

एतदप्यवगच्छमि सत्यमत्रापि नानृतम् ॥१५॥

गुरूणामपि सर्वषं पिता परमको गुरुः ।

यदुक्तं भ्रान्तिस्तत्रापि स्वल्पापि हि न विद्यते ॥१६॥

पिता गुरुर्न सन्देहः पूजनीयः प्रयत्नतः ।

तत्रापि नापराध्यामीत्येवं मनसि मे स्थितम् ॥१७॥

यत्त्वेतत्किमनन्तेनेत्युक्तं युष्माभिरीदृशम् ।

को ब्रवीति यथान्याय्यं किं तु नैतद्वचोऽर्थवत् ॥१८॥

प्रल्हादजी बोले ;– हे महाभागगण ! यह ठीक ही है | इस सम्पूर्ण त्रिलोकी में भगवान मरीचि का यह महान कुल अवश्य ही प्रशंसनीय है | इसमें कोई कुछ भी अन्यथा नही कह सकता || १४ || और मेरे पिताजी भी सम्पूर्ण जगत में बहुत बड़े पराक्रमी है; यह भी मैं जानता हूँ | यह बात भी बिलकुल ठीक है, अन्यथा नहीं || १५ || और आपने जो कहा कि समस्त गुरुओं में पिता ही परम गुरु है इसमें भी मुझे लेशमात्र संदेह नही है || १६ || पिताजी परम गुरु है और प्रयन्तपूर्वक पूजनीय है इसमें कोई संदेह नहीं | और मेरे चित्त में भी यही विचार स्थित है कि मैं उनका कोई अपराध नही करूँगा || १७ || किन्तु आपने जो यह कहा कि तुझे अनंत से क्या प्रयोजन है ?’ सो ऐसी बातको भला कौन न्यायोचित कह सकता है ? आपका यह कथन किसी भी तरह ठीक नहीं है || १८ ||

इत्युक्त्वा सोऽभवन्मौनी तेषां गौरवयन्त्नितः ।

प्रहस्य च पुनः प्राह किननन्तेन साध्विति ॥१९॥

साधु भो किमनन्तेन साधु भो गुरवो मम ।

श्रुयतां यदनन्तेन यदि खेदं न यास्यथ ॥२०॥

धर्मार्थकाममोक्षाश्च पुरुषार्था उदाहृताः ।

चतुष्टयमिदं यस्मात्तस्मात्किं किमिदं वचः ॥२१॥

मरिचिमिश्रैर्दक्षाद्यैस्तथैवान्यैरनन्ततः ।

धर्मः प्राप्तस्तथा चार्न्यैरर्थः कामस्तथाऽपरैः ॥२२॥

तत्तत्त्ववेदिनो भूत्वा ज्ञानध्यानसमाधिभिः ।

अवापुर्मुक्तिमपरे पुरुषा ध्वस्तबन्धनाः ॥२३॥

सम्पदैश्वर्यमाहात्म्यज्ञानसन्ततिकर्मणाम् ।

विमुक्तेश्चैकतो लभ्यं मूलमाराधनं हरे ॥२४॥

यतो धर्मार्थकमाख्यं मुक्तिश्चापि फलं द्विजाः ।

तेनापि किं किमित्येवमनन्तेन किमुच्यते ॥२५॥

किं चापि बहुनोक्तेन भवन्तो गुरवो मम ।

वदन्तु साधु वासाधु विवेकोऽस्माकमल्पकः ॥२६॥

बहुनात्र किमुक्तेन स एव जगतः पतिः ।

स कर्त्ता च विकर्त्ता च संहर्ता च हृदि स्थितः ॥२७॥

स भोक्ता भोज्यमप्येवं स एवं जगदीश्वरः ।

भवद्भिरेतत्क्षन्तव्यं बाल्यादुक्तं तु यन्मया ॥२८॥

ऐसा कहकर वे उनका गौरव रखने के लिये चुप हो गये और फिर हँसकर कहने लगे – ‘तुझे अनंत में क्या प्रयोजन है ? इस विचार को धन्यवाद है || १९ || हे मेरे गुरुगण ! आप कहते है कि तुझे अनंत से क्या प्रयोजन है ? धन्यवाद है आपके इस विचारको | अच्छा, यदि आपको बुरा न लगे तो मुझे अनंत से जो प्रयोजन है सो सुनिये || २० || धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ कहे जाते है | ये चारों ही जिनसे सिद्ध होते है, उनसे क्या प्रयोजन ? – आपके इस कथन को क्या कहा जाय ! || २१ || उन अनंत से ही दक्ष और मरीचि आदि तथा अन्यान्य ऋषिश्वरों को धर्म, किन्ही अन्य मुनीश्वरों को अर्थ एवं अन्य किन्हीं को काम की प्राप्ति हुई है || २२ || किन्हीं अन्य महापुरुषों ने ज्ञान, ध्यान और समाधि के द्वारा उन्हीं के तत्त्व को जानकर अपने संसार-बंधन को काटकर मोक्षपद प्राप्त किया है || २३ || अत: सम्पत्ति, ऐश्वर्य, माहात्म्य, ज्ञान, सन्तति और कर्म तथा मोक्ष इन सबकी एकमात्र मूल श्रीहरि की आराधना ही उपार्जनीय है || २४ || हे द्विजगण ! इसप्रकार, जिनसे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ये चारों ही फल प्राप्त होते है उनके लिये भी आप ऐसा क्यों कहते है कि अनंत से तुझे क्या प्रयोजन है ? ‘ || २५ || और बहुत कहने से क्या लाभ ? आपलोग तो मेरे गुरु है; उचित-अनुचित सभी कुछ कह सकते है | और मुझे तो विचार भी बहुत ही कम है || २६ || इस विषय में अधिक क्या कहा जाय ? सबके अंत:करणों में स्थित एकमात्र वे ही संसार के स्वामी तथा उसके रचयिता, पालक और संहारक है || २७ || वे ही भोक्ता और भोज्य तथा वे ही एकमात्र जगदीश्वर है | हे गुरुगण ! मैंने बाल्यभाव से यदि कुछ अनुचित कहा हो तो आप क्षमा करने’ || २८ ||

पुरोहिता ऊचुः

दह्यामानस्त्वमस्माभिरग्निना बाल रक्षितः ।

भूयो न वक्ष्यसीत्येवं नैव ज्ञातोऽस्यबुद्धिमान् ॥२९॥

यदास्मद्वचनान्मोहग्राहं न त्यक्ष्यते भवात् ।

ततः कृत्यां विनाशाय तव स्त्रक्ष्याम दुर्मते ॥३०॥

पुरोहितगण बोले ;– अरे बालक ! हमने तो यह समझकर कि तू फिर ऐसी बात न कहेगा तुझे अग्नि में जलने से बचाया है | हम यह नही जानते थे कि तू ऐसा बुद्धिहीन है ? || २९ || रे दुर्मते ! यदि तू हमारे कहने से अपने इस मोहमय आग्रह को नही छोड़ेगा तो हम तुझे नष्ट करने के लिये कृत्या उत्पन्न करेंगे || ३० ||

प्रह्लाद उवाच

कः केन हन्यते जन्तुर्जन्तुः कः केन रक्ष्यते ।

हन्ति रक्षति चैवात्मा ह्यास्यत्साधु समाचरन् ॥३१॥

कर्मणा जायते सर्व कर्मैव गतिसाधनम् ।

तस्मत्सर्वप्रयत्नेन साधुकर्म समाचरेत् ॥३२॥

प्रल्हादजी बोले ;– कौन जीव किससे मारा जाता है और कौन किससे रक्षित होता है ? शुभ और अशुभ आचरणों के द्वारा आत्मा स्वयं ही अपनी रक्षा और नाश करता है || ३१ || कर्मों के कारण ही सब उत्पन्न होते है और कर्म ही उनकी शुभाशुभ गतियों के साधन है | इसलिये प्रयत्नपूर्वक शुभकर्मों का ही आचरण करना चाहिये || ३२ ||

श्रीपराशरजी उवाच

इत्युक्तास्तेन ते क्रुद्धा दैत्यराजपुरोहिताः ।

कृत्यामृत्पादयामासुर्ज्वालामालोज्ज्वलाकृतिम् ॥३३॥

अतिभीमा समागम्य पादन्यासक्षतक्षितिः ।

शूलेन साधु संकुद्धा तं जलानाशु वक्षासि ॥३४॥

तत्तस्य हृदयं प्राप्यं शूलं बालस्य दीप्तिमत् ।

जगाम खण्डितं भूमौ तत्रापि शतधा गतम् ॥३५॥

यत्रानपायी भगवान् हृद्यास्ते हरिरीश्वरः ।

भंगो भवति वज्रस्य तत्र शूलस्य का कथा ॥३६॥

श्रीपराशरजी बोले ;– उनके ऐसा कहनेपर उन दैत्यराज के पुरोहितों ने क्रोधित होकर अग्निशिखा के समान प्रज्वलित शरीरवाली कृत्या उत्पन्न कर दि || ३३ || उस अति भयंकरी ने अपने पादाघात से पृथ्वी को कम्पित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोध से प्रल्हादजी की छाती में त्रिशूल से प्रहार किया || ३४ || किन्तु उस बालक के वक्ष:स्थल में लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर पृथ्वीपर गिर पड़ा और वहाँ गिरने से भी उसके सैकड़ों टुकड़े हो गये || ३५ || जिस ह्रदय से निरंतर अक्षुण्णभाव से श्रीहरिभगवान् विराजते हैं उसमें लगने से तो वज्र के भी टूक टूक हो जाते है, त्रिशूल की तो बात ही क्या है ? || ३६ ||

अपापे तत्र पापैश्च पातिता दैत्ययाजकैः ।

तानेव सा जघानाशु कृत्या नाशं जगाम च ॥३७॥

कृत्यया दह्ममानांस्तान्विलोक्य स महामतिः ।

त्राहि कृष्णेत्यनन्तेति वदन्नभवपद्यत ॥३८॥

उन पापी पुरोहितों ने उस निष्पाप बालकपर कृत्या का प्रयोग किया था; इसलिये तुरंत ही उसने उनपर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गयी || ३७ || अपने गुरुओं को कृत्याद्वारा जलाये जाते देख महामति प्रल्हाद हे कृष्ण ! रक्षा करो ! हे अनंत ! बचाओ !ऐसा कहते हुए उनकी ओर दौड़े || ३८ ||

प्रह्लाद उवाच

सर्वव्यापिन जगद्रूप जगत्स्त्रष्टर्जनार्दन ।

पाहि विप्रानिमनस्मादृःसहान्मन्त्रपावकात् ॥३९॥

यथा सर्वेषु भूतेषु सर्वव्यापी जगदगुरुः ।

विष्णुरेव तथा सर्वे जीवन्त्वेते पुरोहोताः ॥४०॥

यथा सर्वगतं विष्णुं मन्यमानोऽनपायिनम् ।

चिन्तयाम्यरिपक्षेऽपिं जीवन्त्वेते पुरोहिताः ॥४१॥

ये हन्तुमागता दत्तं यैर्विंषं यैर्हुताशनः ।

यैर्दिग्गजैरहं क्षुण्णो दष्टः सर्पैश्च यैरपि ॥४२॥

तेष्वहं मित्रभावेन समः पापोऽस्मि न क्वचित् ।

यथा तेनाद्य सत्येन जीवन्त्वसुरयाजकाः ॥४३॥

प्रल्हादजी कहने लगे ;– हे सर्वव्यापी, विश्वरूप, विश्वस्त्रष्टा जनार्दन ! इन ब्राह्मणों की इस मंत्राग्निरूप दु:सह दुःख से रक्षा करो || ३९ || ‘सर्वव्यापी जगद्गुरु भगवान विष्णु सभी प्राणियों में व्याप्त है’ – इस सत्य के प्रभाव से ये पुरोहितगण जीवित हो जायें || ४० || यदि मैं सर्वव्यापी और अक्षय श्रीविष्णुभगवान को अपने विपक्षियों में भी देखता हूँ तो ये पुरोहितगण जीवित हो जायँ || ४१ || जो लोग मुझे मारने के लिये आये, जिन्होंने मुझे विष दिया, जिन्होंने आग में जलाया, जिन्होंने दिग्गजों से पीड़ित कराया और सर्पों से डँसाया उन सबके प्रति यदि मैं समान मित्रभाव से रहा हूँ और मेरी कभी पापबुद्धि नहीं हुई तो उस सत्य के प्रभाव से ये दैत्यपुरोहित जी उठे || ४२ ४३ ||

श्रीपराशर उवाच

इत्युक्तास्तेन ते सर्वे संस्पृष्टाश्च निरामयाः ।

समुत्तस्थुर्द्विजा भूयस्तमूचुः प्रश्चयान्वितम् ॥४४॥

श्रीपराशरजी बोले ;– ऐसा कहकर उनके स्पर्श करते ही वे ब्राह्मण स्वस्थ होकर उठ बैठे और इस विनयावनत बालक से कहने लगे || ४४ ||

पुरोहिता ऊचुः

दीर्घायुरप्रतिहतो बलवीर्यसमन्वितः ।

पुत्रपौत्रधनैश्वर्यैर्युक्तो वत्स भवोत्तमः ॥४५॥

पुरोहितगण बोले ;– हे वत्स ! तू बड़ा श्रेष्ठ है | तू दीर्घायु, निर्द्वन्द, बल-वीर्यसम्पन्न तथा पुत्र, पौत्र एवं धन-ऐश्वर्यादि से सम्पन्न हो || ४५ ||

श्रीपराशरजी उवाच

इत्युक्त्वा तं ततो गत्वा यथावृत्तं पुरोहिताः ।

दैत्यराजाय सकलमाचचख्युर्महामुने ॥४६॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे महामुने ! ऐसा कह पुरोहितों ने दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पास जा उसे सारा समाचार ज्यों-का-त्यों सुना दिया || ४६ ||

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे अष्टोदशोऽध्याय ।।१८।।

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 19  

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