विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १७

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १७        

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय १७ में हिरण्यकशिपु का दिग्विजय और प्रल्हादचरित का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १७

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १७        

Vishnu Purana first part chapter 17  

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः सप्तदशोऽध्यायः  

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः १७    

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश सत्रहवाँ अध्याय

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश अध्याय १७

पाराशर उवाच ।

मैत्रेय श्रूयतां सम्यक् चरितं तस्य धीमतः ।

प्रह्लादस्य सदोदारचीरितस्य महात्मनः ।। १ ।।

दितेः पुत्रो महावीर्य्यो हिरण्यकशिपुः पुरा ।

त्रैलोक्यं वशमानिन्ये ब्रह्मणो वरदर्पितः ।। २ ।।

इन्दत्वमकरोदू दैत्यः स चासीत् सविता स्वयम् ।

वायुरग्रिरपां नाथः सोमस्चाभूनूमहासुरः ।। ३ ।।

धनानामधिपः सोऽभूत् स एवासीत् खयं यमः ।

यज्ञभागानशेषांस्तु स स्वयं बुभुजेऽसुरः ।। ४ ।।

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! उन सर्वदा उदारचरित परमबुद्धिमान महात्मा प्रल्हादजी का चरित्र तुम ध्यानपूर्वक श्रवण करो || || पूर्वकाल में दिति के पुत्र महाबली हिरण्यकशिपु ने, ब्रह्माजी के वर से गर्वयुक्त (सशक्त) होकर सम्पूर्ण त्रिलोकी को अपने वशीभूत कर लिया था || || वह दैत्य इन्द्रपद का भोग करता था | वह महान असुर स्वयं ही सूर्य, वायु, अग्नि, वरुण और चन्द्रमा बना हुआ था || || वह स्वयं ही कुबेर और यमराज भी था और वह असुर स्वयं ही सम्पूर्ण यज्ञ-भागों का भोगता था || ||

देवाः स्वर्गं परित्यज्य ततूत्रासान्मुनिसत्तम ।

विचेरुरवनौ सर्वं बिब्राणा मानुषीं तनुम् ।। ५ ।।

जिताव त्रिभुव्रनं सर्व्वं त्रैलोक्यैश्वर्य्यदर्पितः ।

उपगीयामानो गन्धर्वैर्बुभुजे विषयान् प्रियान् ।। ६ ।।

हे मुनिसत्तम ! उसके भय से देवगण स्वर्ग को छोडकर मनुष्य-शरीर धारणकर भूमंडल में विचरते रहते थे || || इसप्रकार सम्पूर्ण त्रिलोकी को जीतकर त्रिभुवन के वैभव से गर्वित हुआ और गन्धर्वों से अपनी स्तुति सुनता हुआ वह अपने अभीष्ट भोगों को भोगता था || ||

पानासक्तं महात्मानं हिरणंयकशिपु तदा ।

उपासाञ्चकिरे सर्व्वै सिद्धगन्धर्वपन्नगाः ।। ७ ।।

अवादयञ्जगुश्चान्ये जयशब्दानथापरे ।

दैत्यराजस्य पुरतश्चक्रुः सिद्धा मुदन्विताः ।। ८ ।।

तत्र प्रनृत्याप्सरसि स्फटिकाभ्रमयेऽमुरः ।

पपौ पानं मुदा युक्तः प्रासादे सुमनोहरे ।। ९ ।।

तस्य पुत्रो महाभागः प्रह्लादो नाम नामतः ।

पपाठ बालपाठयानि गुरुगेहे गतोऽर्भकः ।। १० ।।

एकदा तुस धर्म्मात्मा जगाम गुरुणा सह ।

पानासक्तस्य पुरतः पितुर्दैत्यपतेस्तदा ।। ११ ।।

पादप्रणामावनतं तमुत्थाप्य पिता सुतम् ।

हिरण्यकशिपुः प्राह प्रह्लादममितोजसम् ।। १२ ।।

उस समय उस मद्यपानासक्त महाकाय हिरण्यकशिपु की ही समस्त सिद्ध, गन्धर्व और नाग आदि उपासना करते थे || || उस दैत्यराज के सामने कोई सिद्धगण तो बाजे बजाकर उसका यशोगान करते और कोई अति प्रसन्न होकर जयजयकार करते || || तथा वह असुरराज वहाँ स्फटिक एवं अभ्र-शिलाके बने हुए मनोहर महल में, जहाँ अप्सराओं का उत्तम नृत्य हुआ करता था, प्रसन्नता के साथ मद्यपान करता रहता था || || उसका प्रल्हाद नामक महाभाग्यवान पुत्र था | वह बालक गुरु के यहाँ जाकर बालोचित पाठ पढने लगा || १० || एक दिन वह धर्मात्मा बालक गुरूजी के साथ अपने पिता दैत्यराज के पास गया जो उस समय मद्यपान में लगा हुआ था || ११ || तब, अपने चरणों में झुके हुए अपने परम तेजस्वी पुत्र प्रल्हादजी को उठाकर पिता हिरण्यकशिपु ने कहा || १२ ||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

पठयतां भवता वत्स ! सारभूतं सुभाषितम् ।

कालेनैतावता यत् ते सदोद्यु क्तने शिक्षितम् ।। १३ ।।

हिरण्यकशिपु बोला ;– वत्स ! अबतक अध्ययन में निरंतर तत्पर रहकर तुमने जो कुछ पढ़ा है उसका सारभूत शुभ भाषण हमें सुनाओ || १३ ||

प्रह्लाद उवाच ।

श्रूयतां तात ! वक्ष्यामि सारभूतं तवाज्ञया ।

समाहितमना भूत्वा यन्मे चेतस्यवस्थितम् ।। १४ ।।

अनादिमध्यान्तमजमवृद्धिक्षयमच्युतम् ।

प्रणातोऽस्मि महात्मानं सर्व्वकारणकारणम् ।। १५ ।।

प्रल्हाद जी बोले ;– पिताजी ! मेरे मन में जो सबके सारांशरूप से स्थित है वह मैं आपकी आज्ञानुसार सुनाता हूँ, सावधान होकर सुनिये || १४ || जो आदि, मध्य और अंत से रहित, अजन्मा, वृद्धि क्षय शून्य और अच्युत है, समस्त कारणों के कारण तथा जगत के स्थिति और अंतकर्ता उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ || १५ ||

पाराशर उवाच ।

एवं निशम्य दैन्येन्द्रः क्रोधसंरक्तलोचनः ।

विलोक्य तदूगुरुं प्राह स्फुरिताधरपल्लवः ।। १६ ।।

श्रीपराशरजी बोले ;– यह सुन दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने क्रोध से नेत्र लाल कर प्रल्हाद के गुरु की ओर देखकर काँपते हुए ओठोंसे कहा || १६ ||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

ब्रह्मबन्धो ! किमेतत् ते विपक्षस्तुतिसहितम् ।

असारं ग्राहितो बालो मामवज्ञाय दुर्मते ! ।। १७ ।।

हिरण्यकशिपु बोला ;– रे दुर्बुद्धि ब्राह्मणाधम ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा कर इस बालक को मेरे विपक्षी की स्तुति से युक्त असार शिक्षा दी है || १७ ||

गुरु उवाच ।

दैत्येश्वर ! न कोपस्य वशमागन्तुमर्हसि ।

ममोपदेशजनितं नायं वदति ते सुतः ।। १८ ।।

गुरूजी ने कहा ;– दैत्यराज ! आपको क्रोध के वशीभूत न होना चाहिये | आपका यह पुत्र मेरी सिखायी हुई बात नहीं कह रहा है || १८ ||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

अनुशास्तोसि केनेदृगु वत्स ! प्रह्लाद कथ्यताम् ।

ममोपदिष्ट नेत्येष प्रब्रवीति गुरुस्तव ।। १९ ।।

हिरण्यकशिपु बोला ;– बेटा प्रल्हाद ! बताओं तो तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरुजो कहते है कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया नही है || १९ ||

प्रह्लाद उवाच ।

शास्ता विष्णुरशेषस्य जगतो यो ह्टदि स्थितः ।

तमृते परमात्मानं तात ! कः केन शास्यते ।। २० ।।

प्रल्हादजी बोले ;– पिताजी ! ह्रदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत के उपदेशक है | उन परमात्मा को छोडकर और कौन किसीको कुछ सिखा सकता है ? || २० ||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

कोऽय विष्णुः सुदुर्बुद्ध ! यं ब्रवीषि पुनः पुनः ।

जगतामीश्वरस्येह पुरतः प्रसभं मम ।। २१ ।।

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे मुर्ख ! जिस विष्णु का तू मुझ जगदीश्वर के सामने धृष्टतापूर्वक निश्शंक होकर बारंबार वर्णन करता है, वह कौन है ? || २१ ||

प्रह्लाद उवाच ।

न शह्दगोचरे यस्य योगिध्येयं परं पदम् ।

यतो यश्व स्वयं विश्वं स विष्णुः परमेश्वरः ।। २२ ।।

प्रल्हादजी बोले ;– योगियों के ध्यान करनेयोग्य जिसका परमपद वाणी का विषय नहीं हो सकता तथा जिससे विश्व प्रकट हुआ है और जो स्वयं विश्वरूप है वह परमेश्वर ही विष्णु है || २२ ||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

परमेश्वरसंज्ञोऽज्ञ ! किमन्यो मययवस्थिते ।

तवास्ति मर्त्तुकामस्त्व प्रब्रवीषि पुनः पुनः ।। २३ ।।

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे मूढ़ ! मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू मौत के मुख में जाने की इच्छा से बारंबार ऐसा बक रहा है || २३ ||

प्रह्लाद उवाच ।

न केवलं तात ! मम प्रजानां स ब्रह्मभूतो भवतश्व विष्णुः ।

धाता विधाता परमेश्वरश्च प्रसीद कोपं कुरुषे किमर्थम ।। २४ ।।

प्रल्हादजी बोले ;– हे तात ! वह ब्रह्मभूत विष्णु तो केवल मेरा ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रजा और आपका भी कर्त्ता, नियंता और परमेश्वर है | आप प्रसन्न होइये, व्यर्थ क्रोध क्यों करते है || २४ ||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

प्रविचष्टः कोऽस्य ह्टदये दुर्बुद्धेरतिपापकृत् ।

येनेदृशान्यसाधूनि वदत्याविष्टमानसः ।। २५ ।।

हिरण्यकशिपु बोले ;– अरे कौन पापी इस दुर्बुद्धि बालक के ह्रदय में घुस बैठा है जिससे आविष्टचित्त होकर यह ऐसे अमंगल वचन बोलता है ? || २५ ||

प्रह्लाद उवाच ।

न केवलं मदूह्टदयं स विष्णु--राक्रम्य लोकान् सकलानवस्थितः ।

स मां त्वदादींश्च पितः ! समस्तान् समस्तचेष्टासु युनक्ति सर्वगः ।। २६ ।।

प्रल्हादजी बोले ;– पिताजी ! वे विष्णुभगवान तो मेरे ही ह्रदय में नही, बल्कि सम्पूर्ण लोकों में स्थित है | वे सर्वगामी तो मुझको, आप सबको और समस्त प्राणियों को अपनी-अपनी चेष्टाओं में प्रवृत्त करते है || २६ ||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

निष्काम्यतामयं दुष्टः शास्यताञ्च गुरोगृ हे ।

योजितो दुर्म्मतिः केन विपक्षवितथस्तुतौ ।। २७ ।।

हिरण्यकशिपु बोला ;– इस पापीको यहाँ से निकालो और गुरु के यहाँ ले जाकर इसका भली प्रकार शासन करो | इस दुर्मति को न जाने किसने मेरे विपक्षी की प्रशंसा में नियुक्त कर दिया है || २७ ||

पाराशर उवाच ।

इत्युक्तोऽसौ तदा दैत्यैर्नीतो गुरुगृहं पुनः ।

जग्राह विद्यामनिशं गुरुशुश्वू षणोद्यतः ।। २८ ।।

कालेऽतीते च महति प्रह्लादमसुरेश्वरः ।

समाहूयाब्रवीत् पुत्र ! गाध काचित् प्रगीयताम् ।। २९ ।।

श्रीपराशरजी बोले ;– उसके ऐसा कहनेपर दैत्यगण उस बालक को फिर गुरूजी के यहाँ ले गये और वे वहाँ गुरूजी की रात-दिन भली प्रकार सेवा-शुश्रूषा करते हुए विद्याध्ययन करने लगे || २८ || बहुत काल व्यतीत हो जानेपर दैत्यराज ने प्रल्हादजी को फिर बुलाया और कहा – ‘बेटा ! आज कोई गाथा (कथा) सुनाओ’ || २९ ||

प्रह्लाद उवाच ।

यतः प्रधानपुरुषौ यतश्चैतज्वराचरम् ।

कारणां सकलस्यास्य स नो विष्णुः प्रसीदतु ।। ३० ।।

प्रल्हादजी बोले ;– जिनसे प्रधान, पुरुष और यह चराचर जगत उत्पन्न हुआ है वे सकल प्रपंच के कारण श्रीविष्णुभगवान हमपर प्रसन्न हो || ३० ||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

दुरात्मा वध्यतामेष ननिनार्थोऽस्ति जीवता ।

खपक्षहानिकर्त्तृ त्वाद यः कुलाङ्गारतां गतः ।। ३१ ।।

हिरण्यकशिपु बोले ;– अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है ! इसको मार डालो; अब इसके जीने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि स्वपक्ष की हानि करनेवाला होने से यह तो अपने कुल के लिये अंगाररूप हो गया है || ३१ ||

पाराशर उवाच ।

इत्याज्ञप्तास्ततस्तेन प्रगृहीतमहायुधाः ।

उद्यतास्तस्य नाशाय दैत्याः शतसहस्त्रशः ।। ३२ ।।

श्रीपराशरजी बोले ;– उसकी ऐसी आज्ञा होनेपर सैकड़ो-हजारों दैत्यगण बड़े-बड़े अस्त्र शस्त्र लेकर उन्हें मारने के लिये तैयार हुए || ३२ ||

प्रह्लाद उवाच ।

विष्णूः शस्त्रेषु युष्माकं मयि चासौ यथा स्थितः ।

दैतेयास्तेन सत्येन मा क्रामन्त्वायुधानि मे ।। ३३ ।।

प्रल्हादजी बोले ;– अरे दैत्यों ! भगवान विष्णु तो शस्त्रों में, तुमलोगों में और मुझमें सर्वत्र ही स्थित है | इस सत्य के प्रभाव से इन अस्त्र-शस्त्रों का मेरी ऊपर कोई प्रभाव न हो || ३३ ||

पाराशर उवाच ।

ततस्तैः शतशो धैत्यैः सस्त्रौघैराहतोऽपि सन् ।

नावाप वेदनामल्पामभूज्व वै पुनर्नवः ।। ३४ ।।

श्रीपराशरजी ने कहा ;– तब तो उन सैकड़ो दैत्यों के शस्त्र-समूह का आघात होनेपर भी उनको तनिक-सी भी वेदना न हुई, वे फिर भी ज्यों- के त्यों नवीन बल-सम्पन्न ही रहे || ३४ ||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

दुर्बुद्ध ! विनिवर्त्तस्व वैरिपक्षस्तवादतः ।

अभयं ते प्रयच्छामि मातिमूढ़मतिर्भव ।। ३५ ।।

हिरण्यकशिपु बोला ;– रे दुर्बुद्धे ! अब तू विपक्षी की स्तुति करना छोड़ दें; जा, मैं तुझे अभय-दान देता हूँ, अब और अधिक नादान मत हो || ३५ ||

प्रह्लाद उवाच ।

भयं भयानामपहारिणि स्थिते मनस्यनन्ते मम कुत्र तिष्ठति ।

यस्मिन् स्मते जन्मजरान्तकादिभयानि सर्व्वाणयपयान्ति तात ।। ३६ ।।

प्रल्हादजी बोले ;– हे तात ! जिनके स्मरणमात्र से जन्म, जरा और मृत्यु आदि के समस्त भय दूर हो जाते है, उन सकल-भयहारी अनंत के ह्रदय के स्थित रहते मुझे भय कहाँ रह सकता है || ३६ ||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

भोभोः सर्पा ! दुराचारमेनमत्यन्तदुर्मतिम् ।

विषज्वालाकुलैर्व्वक्तूः सद्यो नयत संक्षयम् ।। ३७ ।।

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे सर्पो ! इस अत्यंत दुर्बुद्धि और दुराचारी को अपने विषाग्नि-संतप्त मुखों से काटकर शीघ्र ही नष्ट कर दो || ३७ ||

पाराशर उवाच ।

इत्युक्तास्तेन ते सर्पाः कुहकास्तक्षकान्धकाः ।

अदशन्त समस्तेषु गात्रेष्वतिविषोल्वणाः ।। ३८ ।।

स त्वासक्तमतिः कृष्णो दश्यमानो महोरगैः ।

न विवेदात्मनो गात्रं तत्स्मृत्याह्लादसंस्थितः ।। ३९ ।।

श्रीपराशरजी बोले ;– ऐसी आज्ञा होनेपर अतिक्रूर और विषधर तक्षक आदि सर्पों ने उनके समस्त अंगों में काटा || ३८|| किन्तु उन्हें तो श्रीकृष्णचन्द्र में आसक्त-चित्त रहने के कारण भगवत्स्मरण के परमानंद में डूबे रहने से उन महासर्पों के काटनेपर भी अपने शरीर की कोई सूचि नहीं हुई || ३९ ||

सर्प: उवाच ।

दंष्ट्रा विशीर्णा मणयः स्फुटन्ति फणेषु तापो हृदयेषु कम्पः ।

नास्य त्वचः स्वल्पमपीह भिन्न प्रशाधि दैत्येश्वर कार्य्यमन्यत् ।। ४० ।।

सर्प बोले ;– हे दैत्यराज ! देखो, हमारी दाधें टूट गयी, मणियाँ चटखने लगी, फणों में पीड़ा होने लगी और ह्रदय काँपने लगा, तथापि इसकी त्वचा तो जरा भी नही कटी | इसलिये अब आप हमें कोई और कार्य बताइये ||४०||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

हे दिग्गजाः ! सङ्कटदन्तमिशाव ! ध्नतैनमस्मद्रिपुपक्षभिन्नम् ।

तज्जा विनाशाय भवन्ति तस्य यथारणोः प्रज्वलितो हुताशाः ।। ४१ ।।

हिरण्यकशिपु बोला ;– हे दिग्गजों ! तुम सब अपने संकीर्ण दाँतों को मिलाकर मेरे शत्रु-पक्षद्वारा मुझसे विमुख किये हुए इस बालक को मार डालो | देखो, जैसे अरणी से उत्पन्न हुआ अग्नि उसी को जला डालता है उसीप्रकार कोई-कोई जिससे उत्पन्न होते है उसी के नाश करनेवाले हो जाते हैं || ४१ ||

पाराशर उवाच ।

ततः स दिग्गजैर्बालो भूभृच्छिखरसन्निभैः ।

पातितो धरणीपृष्ठ विषाणैरवपीड़ितः ।। ४२ ।।

स्मरतस्तस्य गोविन्दमिभदन्ताः सहस्त्रशः ।

शीर्णा वक्षःस्थलं प्राप्य स प्राह पितरं ततः ।। ४३ ।।

दन्ता गजानां कुलिशाग्रनिष्ठुराः शीर्णा यदेते न बलं ममैतत् ।

महाविपत्पापविनाशनोऽयं जनार्दनानुस्मरणानुभावः ।। ४४ ।।

श्रीपराशरजी बोले ;– तब पर्वत-शिखर के समान विशालकाय दिग्गजों ने उस बालक को पृथ्वीपर पटककर अपने दाँतों से खूब रौंदा || ४२ || किन्तु श्रीगोविंद का स्मरण करते रहेने से हाथियों के हजारों दाँत उनके वक्ष:स्थल से टकराकर टूट गये; तब उन्होंने पिता हिरण्यकशिपु से कहा || ४३ || ‘ये जो हाथियों के वज्र के समान कठोर दाँत टूट गये है इसमें मेरा कोई बल नहीं है, यह तो श्रीजनार्दनभगवान के महाविपत्ति और क्लेशों के नष्ट करनेवाले स्मरणका ही प्रभाव है’||४४||

हिरण्यकशिपु उवाच ।

ज्वाल्यतामसुरा ! वह्निरपसर्पत दिग्गजाः ।

वायो समेधयाग्निं त्वं दह्मतामेष पापकृत्

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे दिग्गजों ! तुम हट जाओ | दैत्यगण ! तुम अग्नि जलाओ, और हे वायु ! तुम अग्नि को प्रज्वलित करो जिससे इस पापी को जला डाला जाय || ४५ ||

पाराशर उवाच ।

महाकाष्ठच्छन्नमसुरेन्द्रसुतं ततः ।

प्रज्वाल्य दानवा वह्नि ददहुः खामिनोदिताः ।। ४६ ।।

श्रीपराशरजी बोले ;– तब अपने स्वामी की आज्ञा से दानवगण काष्ठ के एक बड़े ढेर में स्थित उस असुर राजकुमार को अग्नि प्रज्वलित करके जलाने लगे || ४६ ||

प्रह्लाद उवाच ।

तातैष वह्निः पवनेरितोऽपि न मां दहत्यत्र समन्ततोऽहम् ।

पश्यामि पह्मास्तरणास्तृतानि शीतानि सर्व्वाणि दिशां मुखानि ।। ४७ ।।

प्रल्हादजी बोले ;– हे तात ! पवन से प्रेरित हुआ भी यह अग्नि मुझे नही जलाता | मुझ को तो सभी दिशाएँ ऐसी शीतल प्रतीत होती है मानो मेरे चारों और कमल बिछे हुए हो || ४७ ||

पाराशर उवाच ।

अथ दैत्येश्वरं प्रोचुर्भार्गवस्यात्मजाद्रिजाः ।

पुरोहिता महात्मानः साचम्ना संस्तूय वाग्मिनः ।। ४८ ।।

श्रीपराशरजी बोले ;– तदनन्तर शुक्रजी के पुत्र बड़े वाग्मी महात्मा [ षंडामर्क आदि ] पुरोहितगण सामनीति से दैत्यराज की बड़ाई करते हुए बोले || ४८ ||

पुरोहित: उवाच ।

राजन् ! नियम्यतां कोपो बालेऽत्र तनयेऽनुजे ।

कोपो देवनिकायेषु यत्र ते सफलो यतः ।। ४९ ।।

तथा तथैनं बालं ते शासितारो भविष्यति ।। ५० ।।

बालत्वं सर्व्वदोषाणां दैत्यराजास्पदं यतः ।

ततोऽत्र कोपमत्यर्थं योक्तुमर्हसि नार्भके ।। ५१ ।।

न त्यक्ष्यति हरेः पक्षमस्माकं वचनाद् यदि ।

ततः कृत्यां वधायास्य करिष्यामो निवर्त्तिनीम् ।। ५२ ।।

पुरोहित बोले ;– हे राजन ! अपने इस बालक पुत्र के प्रति अपना क्रोध शांत कीजिये; आपको तो देवताओंपर ही क्रोध करना चाहिये, क्योंकि उसकी सफलता तो वही है || ४९ || हे राजन ! हम आपके इस बालक को ऐसी शिक्षा देंगे जिससे यह विपक्ष के नाश का कारण होकर आपके प्रति अति विनीत हो जायगा || ५० || हे दैत्यराज ! बाल्यावस्था तो सब प्रकार के दोषों का आश्रय होती ही है, इसलिये आपको इस बालकपर अत्यंत क्रोध का प्रयोग नही करना चाहिये || ५१ || यदि हमारे कहने से भी यह विष्णु का पक्ष नहीं छोड़ेगा तो हम इसको नष्ट करने के लिये किसी प्रकार न टलनेवाली कृत्या उत्पन्न करेंगे || ५२ ||

पाराशर उवाच ।

एवमभ्यर्थितस्तैस्तु दैत्यराजः पुरोहितैः ।

दैत्यैर्निष्काशयामास पुत्रं पावकसञ्चयात् ।। ५३ ।।

तो गुरुगृहे बालः सवसन् बालदानवान् ।

अध्यापयामास मुहुरुपदेशान्तरे गुरोः ।। ५४ ।।

श्रीपराशरजी कहा ;– पुरोहितों के इसप्रकार प्रार्थना करनेपर दैत्यराज ने दैत्योंद्वारा प्रल्हाद को अग्निसमूह से बाहर निकलवाया || ५३ || फिर प्रल्हादजी, गुरूजी के यहाँ रहते हुए उनके पढ़ा चुकनेपर अन्य दानवकुमारों को बार-बार उपदेश देने लगे || ५४ ||

प्रह्लाद उवाच ।

श्रूयतां परमार्थो मे दैतेया दितिजात्मजाः ।

न चान्यथैतन्मन्तव्यं नात्र लोभादिकारणम् ।। ५५ ।।

जन्म बाल्यं ततः सर्वो जन्तुः प्राप्नोति यौवनम् ।

अव्याहतैव भवति ततोऽनुदिवसं जरा ।। ५६ ।।

ततश्यच मृत्युमभ्येति जन्तुर्दैत्येश्वरात्मजाः ।

प्रत्यक्षं दृश्यते चैतदस्माकं भवतां तथा ।। ५७ ।।

मृतस्य च पुनर्जन्म भवत्येतज्व नान्यथा ।

आगमोऽयं तथा तत्र नोपादानं विनोद्भवः ।। ५८ ।।

गर्भवासादि यावत् तु पुनर्जन्मोपपादनम् ।

समस्तावस्थकं तावदू दुः खमेवावगम्यताम् ।।५९ ।।

क्षुतूतृषअमोपशमं तदूच्छीताद्यु पशमं सुखम् ।

मन्यते बालबुद्धित्वादू दुः खमेव हि तत् पुनः ।। ६० ।।

अत्यन्तस्तिमिताङ्गानां व्यायामेन सुखैषिणाम् ।

भ्रान्तिज्ञानावृताक्षाणां प्रहारोऽपि सूखायते ।। ६१ ।।

क शरीरमशेषाणां श्लैष्मादीनां महाचयः ।

क कान्ति-शोभा-शौरभ्य-कमनीयादयो गुणाः ।। ६२ ।।

मांसाऽसृकूपूयविणूमूत्रस्नायुमज्जाऽस्थिसंहतौ ।

देहे चेत् प्रीतिमान् मूढ़ो नरके भवितापि सः ।। ६३ ।।

अग्नेः शीतेन तोयस्य तषा भक्तस्य च क्षुधा ।

क्रियते सुखकर्त्तृ त्वं तदू विलोमस्य चेतदरैः ।। ६४ ।।

प्रल्हादजी बोले ;– हे दैत्यकुलोत्पन्न असुर-बालको ! सुनो, मैं तुम्हें परमार्थ का उपदेश करता हूँ, तुम इसे अन्यथा न समझना, क्योंकि मेरे ऐसा कहने में किसी प्रकार का लोभादि कारण नहीं है || ५५ || सभी जीव जन्म, बाल्यावस्था और फिर यौवन प्राप्त करते हैं, तत्पश्चात दिन-दिन वृद्धावस्थाकी प्राप्ति भी अनिवार्य ही है || ५६ || और हे दैत्यराजकुमारो ! फिर यह जीव मृत्यु के मुख में चला जाता है, यह हम और तुम सभी प्रत्यक्ष देखते है || ५७ || मरनेपर पुनर्जन्म होता है, यह नियम भी कभी नहीं टलता | इस विषय में [ श्रुति-स्मृतिरूप ] आगम भी प्रमाण है कि बिना उपादान के कोई वस्तु उत्पन्न नही होती || ५८ || पुनर्जन्म प्राप्त करानेवाली गर्भवास आदि जितनी अवस्थाएँ है उन सबको दुःखरूप ही जानो || ५९ || मनुष्य मुर्खतावश क्षुधा, तृष्णा और शीतादिकी शान्ति को सुख मानते है, परन्तु वास्तव में तो वे दुःखमात्र ही है || ६० || जिनका शरीर [ वातादि दोष से ] अत्यंत शिथिल हो जाता है उन्हें जिसप्रकार व्यायाम सुखप्रद प्रतीत होता है उसीप्रकार जिनकी दृष्टि भ्रान्तिज्ञान से ढँकी हुई है उन्हें दुःख ही सुखरूप जान पड़ता है || ६१ || अहो ! कहाँ तो कफ आदि महाघृणित पदार्थों का समूहरूप शरीर और कहाँ कान्ति, शोभा, सौन्दर्य एवं रमणीयता आदि दिव्य गुण ? || ६२ || यदि किसी मूढ़ पुरुष की मांस, रुधिर, पीब, विष्ठा, मूत्र, स्नायु, मज्जा और अस्थियों के समूहरूप इस शरीर में प्रीति हो सकती है तो उसे नरक भी प्रिय लग सकता है || ६३ || अग्नि, जल और भात शीत, तृषा और क्षुधा के कारण ही सुखकारी होते है और इनके प्रतियोगी जल आदि भी अपने से भिन्न अग्नि आदि के कारण ही सुख के हेतु होते है || ६४ ||

करोति हे दैत्यसुता ! यावन्मात्रं परिग्रहम् ।

तावन्मात्रं, स एवास्य दुः स्वं चेतसि यच्छति ।। ६५ ।।

यावतः कुरुते जन्तुः सम्बन्धान् मनसः प्रियान् ।

तावन्तोऽस्य निखन्यन्ते ह्टदये शोकशङ्गवः ।। ६६ ।।

यदू यदू गृहे तन्मनसि यत्र तत्रावतिष्ठतः ।

नाशदाहापहरणां तत्र तस्यैव तिष्ठति ।। ६७ ।।

जन्मन्यत्र महदू दुःखं म्रियमाणस्य चापि तत् ।

यातनासु यमस्योग्र गर्भसंक्रमणेषु च । ६८ ।।

गर्भै च सुखलेशोऽपि भवद्भिरनुमीयते ।

यदि तत् कथ्यतामेवं सर्वं दुः खमयं जगत् ।। ६९ ।।

तदेवमतिदुः खानामास्पदेऽत्र भवार्णावे ।

बवतां कथ्यते सत्यं विष्णुरेकः परायणम् ।। ७० ।।

हे दैत्यकुमारो ! विषयों का जितना-जितना संग्रह किया जाता है उतना उतना ही वे मनुष्य के चित्त में दुःख बढाते है || ६५ || जीव अपने मन को प्रिय लगनेवाले जितने ही सम्बन्धों को बढाता जाता है उतने ही उसके ह्रदय में शोकरुपी शल्य स्थिर होते जाते है || ६६ || घर में जो कुछ धन-धान्यादि होते है मनुष्य के जहाँ-तहाँ रहनेपर भी वे पदार्थ उसके चित्त में बने रहते है और उनके नाश और दाह आदि की सामग्री भी उसी में मौजूद रहती है || ६७ || इस प्रकार जीते-जी तो यहाँ महान दुःख होता ही है, मरनेपर भी यम-यातनाओं का और गर्भ-प्रवेश का उग्र कष्ट भोगना पड़ता है || ६८ || यदि तुम्हे गर्भवास में लेशमात्र भी सुखका अनुमान होता हो तो कहो | सारा संसार इसी प्रकार अत्यंत दुःखमय है || ६९ || इसलिये दु:खों के परम आश्रय इस संसार-समुद्र में एकमात्र विष्णुभगवान ही आप लोगों की परमगति है यह मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ || ७० ||

मा जानीत वयं बाला देही देहेषु शाशवतः ।

जरा-यौवन-जन्माद्या धर्म्मा देहस्य नात्मनः ।। ७१ ।।

बालोऽहं तावदिच्छातो यतिष्ये श्रेयसे युवा ।

युवाहं वार्द्धके प्राप्त करिष्याम्यात्मनो हितम् ।। ७२ ।।

वृद्धोऽहं मम कर्म्माणि समस्तानि न गोचरे ।

किं करिष्यामि मन्दात्मा समर्थेन न यत् कृतम् ।। ७३ ।।

एवं दुराशायक्षिप्तमानसः पुरुषः सदा ।

श्रेयसोऽभिमुखं याति न कदाचित् पिपसितः ।। ७४ ।।

बाल्ये क्रीड़नकासक्ता यौवने विषयोन्मुखाः ।

अज्ञा नयन्त्यशत्तया च वार्द्ध कं समुपस्थितम् ।। ७५ ।।

तस्माद् बाल्ये विवेकात्मा यतेत श्रेयस् सदा ।

बाल्य-यौवन-वृद्धाद्यर्दैहभावैरसंयुतः ।। ७६ ।।

ऐसा मत समझो कि हम तो अभी बालक है, क्योंकि जरा, यौवन और जन्म आदि अवस्थाएँ तो देह के ही धर्म है, शरीरका अधिष्ठाता आत्मा तो नित्य है, उसमें यह कोई धर्म नहीं है || ७१ || जो मनुष्य ऐसी दुराशाओं से विक्षिप्तचित्त रहता है कि अभी मैं बालक हूँ इसलिये इच्छानुसार खेल-कूद लूँ, युवावस्था प्राप्त होनेपर कल्याण-साधन का यत्न करूँगा |’ [ फिर युवा होंनेपर कहता है कि ] अभी तो मैं युवा हूँ, बुढापे में आत्मकल्याण कर लूँगा |’ और [वृद्ध होनेपर सोचता है कि ] अब मैं बुढा हो गया, अब तो मेरी इन्द्रियाँ अपने कर्मों में प्रवृत्त ही नही होती, शरीर के शिथिल हो जानेपर अब मैं क्या कर सकता हूँ ? सामर्थ्य रहते तो मैंने कुछ किया ही नही |’ वह अपने कल्याण-पथपर कभी अग्रसर नही होता; केवल भोग-तृष्णा में ही व्याकुल रहता है || ७२ ७४ || मुर्खलोग अपनी बाल्यावस्था में खेल कूद में लगे रहते है, युवावस्था में विषयों में फँस जाते है और बुढापा आनेपर उसे असमर्थता के कारण व्यर्थ ही काटते हैं || ७५ || इसलिये विवेकी पुरुष को चाहिये कि देह की बाल्य, यौवन और वृद्ध आदि अवस्थाओं की अपेक्षा न करके बाल्यावस्था में ही अपने कल्याण का यत्न करें || ७६ ||

तदेतदू वो मयाख्यातं यदि जानीत नानृतम् ।

तदस्मत्प्रीतये विष्णाः स्मर्य्यतां बन्धमुक्तिदः ।। ७७ ।।

आयासः स्मरणो कोऽस्य स्मृतो यच्छति शोभनम्

पापक्षयश्च भवति स्मरतां तमपनिंशम् ।। ७८ ।।

सर्व्वभूतस्थिते तस्मिन् मतिर्मैत्री दिवानिशम् ।

बवतां जायतामेवं सर्वक्ल शोन् प्रहास्यथ ।। ७९ ।।

मैंने तुम लोगों से जो कुछ कहा है उसे यदि तुम मिथ्या नही समझते तो मेरी प्रसन्नता के लिये ही बंधन को छुटानेवाले श्रीविष्णुभगवान का स्मरण करो || ७७ || उनका स्मरण करने में परिश्रम भी क्या है ? और स्मरणमात्र से ही वे अति शुभ फल देते है तथा रात-दिन उन्हीं का स्मरण करनेवालों का पाप भी नष्ट हो जाता है ||७८ || उन सर्वभूतस्थ प्रभु में तुम्हारी बुद्धि अहर्निश लगी रहे और उनमें निरंतर तुम्हारा प्रेम बढ़े; इसप्रकार तुम्हारे समस्त क्लेश दूर हो जायँगे||७९||

तापत्रयेणाभिहतं यदेतदखिलं जगत् ।

तदा शोच्येषु भूतेषु द्रे षं प्राज्ञः करोति कः ।। ८०।।

अथ भद्राणि भूतानि हीनशक्तिरहं परम् ।

मुदं तथापि कुर्व्वीत् हानिर्द्रेषफलं यतः ।। ८१ ।।

बद्धवैराणि भूतानि द्र षं कुर्व्वन्ति चेत् ततः ।

शोच्यान्यहोऽतिमोहेन व्याप्तानीति मनीषिणा ।। ८२ ।।

जब कि यह सभी संसार तापत्रय से दग्ध हो रहा है तो इन बेचारे शोचनीय जीवों से कौन बुद्धिमान द्वेष करेगा ? || ८० || यदि और जीव तो आनंद में है, मैं ही परम शक्तिहीन हूँतब भी प्रसन्न ही होना चाहिये, क्योंकि द्वेष का फल तो दुःखरूप ही है || ८१ || यदि कोई प्राणी वैरभाव से द्वेष भी करें तो विचारवानों के लिये तो वे अहो ! ये महामोह से व्याप्त है |’ इसप्रकार अत्यंत शोचनीय ही है || ८२ ||

एते बिन्नदृशा दैत्या विकल्पाः कथिता मया ।

कृत्वाभ्युपगमं तत्र संक्षेपः श्वूयतां मम ।। ८३ ।।

विस्तारः सर्व्वभूतस्य विष्णोर्विश्वमिदं जगत् ।

द्रष्टव्यमात्मवत् तस्मादभेदेन विचक्षणौः ।। ८४ ।।

समुत्सृज्यासुरं भावं तस्मादे यूयं तथा वयम् ।

तथा यत्ना करिष्यामोयथाप्राप्स्याम निर्वृतिम् ।। ८५ ।।

या नाग्निना न वार्केण नेन्दुना नैव वायुना ।

पर्ज्जन्यवरुणाभ्यां वा न सिद्धर्न च राक्षसेः ।। ८६ ।।

न यक्षैर्न च दैत्येन्द्रैर्नोरगैर्न च किन्नरैः ।

न मनुष्यैर्न पशुभिर्दोषैर्नैवात्मसम्भवेः ।। ८७ ।।

ज्वराक्षिरोगाऽतीसारःप्लीह-गुल्मादिकैस्तथा ।

दूषेर्ष्यामतूसराद्यैर्वा रागलोभादिभिः क्षयम् ।। ८८ ।।

न चान्यैर्नीयते कैश्विन्नित्या ह्मत्यन्तनिर्म्मला ।

तामाप्नोति मलं त्यक्ता केशवे ह्टदि संस्थिते ।। ८९ ।।

हे दैत्यगण ! ये मैंने भिन्न=भिन्न दृष्टिवालों के विकल्प कहे | अब उनका समन्वयपूर्वक संक्षिप्त विचार सुनो || ८३ || यह सम्पूर्ण जगत सर्वभूतमय भगवान विष्णु का विस्तार है, अत: विचक्षण पुरुषों को इसे आत्मा के समान अभेदरूप से देखना चाहिये || ८४ || इसलिये दैत्यभाव को छोडकर हम और तुम ऐसा यत्न करें जिससे शान्ति लाभ कर सके || ८५ || जो अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, मेघ, वरुण, सिद्ध, राक्षस, यक्ष, दैत्यराज, सर्प, किन्नर,मनुष्य, पशु और अपने दोषों से तथा ज्वर, नेत्ररोग, अतिसार, प्लीहा और गुल्म आदि रोगों से एवं द्वेष, ईर्ष्या, मत्सर, राग, लोभ और किसी अन्य भावसे भी कभी क्षीण नहीं होती, और जो सर्वदा अत्यंत निर्मल है उसे मनुष्य अमलस्वरूप श्रीकेशव में मनोंनिवेश करने से प्राप्त कर लेता है || ८६ ८९ ||

असारससारविवर्त्तनेषु मा यात तोषं प्रसभं ब्रवीमि ।

सर्व्वत्र दैत्याः समतामुपेत समत्वमाराधनमच्युतस्य ।। ९० ।।

तस्मिन् प्रसन्ने किमिहास्त्यलभ्यं धर्म्मर्थकामैरलमल्पकास्ते ।

समाश्वितादू ब्रह्मतरोरनन्तान्निसं शयं प्राप्स्यथ वै महत् फलम् ।। ९१ ।।

हे दैत्यों ! मैं आग्रहपूर्वक कहता हूँ, तुम इस असार संसार के विषयों में कभी संतुष्ट मत होना | तुम सर्वत्र समदृष्टि करो, क्योंकि समता ही श्रीअच्युत की आराधना है || ९० || उन अच्युत के प्रसन्न होनेपर फिर संसार में दुर्लभ ही क्या है ? तुम धर्म, अर्थ और काम की इच्छा कभी न करना; वे तो अत्यंत तुच्छ है | उसे ब्रह्मरूप महावृक्षका आश्रय लेनेपर तो नि:संदेह [ मोक्षरूप ] महाफल प्राप्त कर लोगे || ९१ ||

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे सप्तदशोऽध्याय ।। १७ ।।

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 18  

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