विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २१

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २१          

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय २१ में कश्यपजी की अन्य स्त्रियों के वंश एवं मरुद्गण की उत्पत्ति का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २१

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २१          

Vishnu Purana first part chapter 21  

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः एकविशोऽध्याय:     

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः २१      

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश इक्कीसवाँ अध्याय

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश अध्याय २१ 

श्रीविष्णुपुराण

(प्रथम अंश)

अध्याय २१  

श्रीपराशर उवाच

प्रह्लादपुत्र आयुष्माञ्छिबिर्बाष्कल एव च

विरोचनस्तु प्राह्लादिर्बलिर्जज्ञे विरोचनात् ।।१।।

बलेः पुत्रशतं त्वासीद्बाणज्येष्ठं महामुने

हिरण्याक्षसुताश्चासन्सर्व एव महा बलाः ।।२।।

झर्झरः शकुनिश्चैव भूतसन्तापनस्तथा

महानाभो महाबाहुः कालनाभस्तथापरः ।।३।।

श्रीपराशरजी बोले ;– संह्राद के पुत्र आयुष्मान शिवि और बाष्कल थे तथा प्रल्हाद के पुत्र विरोचन थे और विरोचन से बलि का जन्म हुआ || || हे महामुने ! बलि के सौ पुत्र थे जिनमें बाणासुर सबसे बढ़ा था | हिरण्याक्ष के पुत्र उत्कुर, शकुनि, भूतसंतापन, महानाभ, महाबाहू तथा कालनाभ आदि सभी महाबलवान थे ।। २-३ ।।

अभवन्दनुपूत्राश्च द्विमूर्द्धा शंबरस्तथा

अयोमुखः शंकुशिराः कपिलः शंकरस्तथा ।।४।।

एकचक्रो महाबाहुस्तारकश्च महाबलः

स्वर्भानुर्वृषपर्वा च पुलोम च महाबलः ।।५।।

एते दनोः सुताः ख्याता विप्रचित्तिश्च वीर्यवान् ।।६।।

स्वर्भानोस्तु प्रभा कन्या शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी

उपदानी हयशिराः प्रख्याता वरकन्यकाः ।।७।।

वैश्वानरसुते चोभे पुलोमा कालका तथा

उभे सुते महाभागे मारीचेस्तु परिग्रहः ।।८।।

ताभ्यां पुत्रसहस्राणि षष्टिर्दानवसत्तमाः

पौलोमाः कालकेयाश्च मारीचतनयाः स्मृताः ।।९।।

ततोऽपरेमहावीर्या दारुणास्त्वतिनिर्घृणाः

सिंहिकायामथोत्पन्ना विप्रचित्तेः सुतास्तथा ।।१०।।

त्र्! यंशः शल्यश्च बलवान् नभश्चैव महाबलः

वातापी नमुचिश्चैव इल्वलः खसृमस्तथा ।।११।।

आन्धको नरकश्चैव कालनाभस्तथैव च

स्वर्भानुश्च महावीर्यो वक्त्रयोधी महासुरः ।।१२।।

एते वै दानवाः श्रेष्ठा दनुवंशविवर्द्धनाः

एतेषां पुत्रपौत्राश्च शतशोऽथ सहस्रशः ।।१३।।

प्रह्लादस्य तु दैत्यस्य निवातकवचाः कुले

समुत्पन्नाः सुमहता तपसा भावितात्मनः ।।१४।।

दनु के पुत्र द्विमुर्धा, शम्बर, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहू, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और परमपराक्रमी विप्रचिति थे | ये सब दनु के पुत्र विख्यात है || || स्वर्भानु की कन्या प्रभा थी तथा शर्मिष्ठा, उपदानी और हयशिरा ये वृषपर्वा की परम सुन्दरी कन्याएँ विख्यात है || || वैश्वानर की पुलोमा और कालका दो पुत्रियाँ थीं | हे महाभाग ! वे दोनों कन्याएँ मरीचिनन्दन कश्यपजी की भार्या हुई || || उनके पुत्र साथ हजार दानव-श्रेष्ठ हुए | मरीचिनन्दन कश्यपजी के वे सभी पुत्र पौलोम और कालकेय कहलाये || || इनके सिवा विप्रचित्ति के सिंहिका के गर्भ से और भी बहुत से महाबलवान, भयंकर और अतिक्रूर पुत्र उत्पन्न हुए || १० || वे व्यंश, शल्य, बलवान नभ, महाबली वातापी, नमुचि, इल्वल, खसृम, अंधक, नरक, कालनाभ, महावीर, स्वर्भानु और महादैत्य वक्त्र योधी थे || ११ १२ || ये सब दानवश्रेष्ठ दनु के वंश को बढ़ानेवाले थे | इनके और भी सैकड़ो हजारों पुत्र पौत्रादि हुए || १३ || महान तपस्याद्वारा आत्मज्ञानसम्पन्न दैत्यवर प्रल्हादजी के कुल में निवातकवच नामक दैत्य उत्पन्न हुए || १४ ||

षट् सुताः सुमहासत्त्वास्ताम्रायाः परिकीर्त्तिताः

शुकी श्येनी च भासी च सुग्रीवी शुचिगृद्ध्रका ।।१५।।

कश्यपजी की स्त्री ताम्रा की शुकी, श्येनी, भासी, सुग्रीवी, शुचि और गृदध्रिका ये छ: अति प्रभावशालीनी कन्याएँ कही जाती है ।।१५।।

शुकी शुकानजनयदुलूकप्रत्युलूकिकान्

श्येनी श्येनांस्तथा भासी भासान्गृद्धांश्च गृद्ध्र्यपि ।।१६।।

शुच्यौदकान्पक्षिगणान्सुग्रीवी तु व्यजायत

अश्वानुष्ट्रान्गर्दभांश्च ताम्रावंशः प्रकीर्त्तितः ।।१७।।

विनतायास्तु द्वौ पुत्रौ विरतौ गरुडारुणौ

सुपर्णः पततां श्रेष्ठो दारुणः पन्नगाशनः ।।१८।।

सुरसायां सहस्रं तु सर्पाणाममितौजसाम्

अनेकशिरसां ब्रह्मन् खेचराणां महात्मनाम् ।।१९।।

काद्र वेयास्तु बलिनः सहस्रममितौजसः

सुपर्णवशगा ब्रह्मन् जज्ञिरे नैकमस्तकाः ।।२०।।

तेषां प्रधानभूतास्तु श्षोवासुकितक्षकाः

शंखश्वेतो महापद्मः कम्बलाश्वतरौ तथा ।।२१।।

एलापुत्रस्तथा नागः कर्कोटकधनञ्जयौ

एते चान्ये च बहवो दन्दशूका विषोल्बणाः ।।२२।।

गणं क्रोधवशं विद्धि तस्याः सर्वे च दंष्ट्रिणः

स्थलजाः पक्षिणोब्जाश्च दारुणाः पिशिताशनाः ।।२३।।

क्रोधात्तु पिशाचांश्च जनयामास महाबलान्

गास्तु वै जनयामास सुरभीर्महिषीस्तथा

इरावृक्षलतावल्लीस्तृणजातीश्च सर्वशः ।।२४।।

स्वसा तु यक्षरक्षांसि मुनिरप्सरसस्तथा

अरिष्टा तु महासत्त्वान् गन्धर्वान्समजीजनत् ।।२५।।

एते कश्यपदायादाः कीर्त्तिताः स्थाणुजङ्गमाः

तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च शतशोथ सहस्रशः ।।२६।।

एष मन्वन्तरे सर्गो ब्रह्मन्स्वारोचिषे स्मृतः ।।२७।।

वैवस्वते च महति वारुणे वितते कृतौ

जुह्वानस्य ब्रह्मणो वै प्रजासर्ग इहोच्यते ।।२८।।

शुकीसे शुक, उलूक एवं उलुकों के प्रतिपक्षी काक आदि उत्पन्न हुए तथा श्येनी से श्येन (बाज), भासी से भास् और गृदध्रिका से गृद्धो का जन्म हुआ || १६ || शुचि से जल के एक्षिगण और सुग्रीव्री से अश्व, उष्ट्र और गर्दभों की उत्पत्ति हुई | इसप्रकार यह ताम्रा का वंश कहा जाता है || १७ || विनता के गरुड और अरुण ये दो पुत्र विख्यात है | इनमें पक्षियों में श्रेष्ठ सुपर्ण (गरुडजी ) अति भयंकर और सर्पों को खानेवाले है || १८ || हे ब्रह्मन ! सुरसा से सहस्त्रो सर्प उत्पन्न हुए जो बड़े ही प्रभावशाली, आकाश में विचरनेवाले, अनेक शिरोंवाले और बड़े विशालकाय थे || १९ || और कद्रू के पुत्र भी महाबली और अमित तेजस्वी अनेक सिरवाले सहस्त्रों सर्प ही हुए जी गरूडजी के वशवर्ती थे || २० || उनमें से शेष, वासुकि, तक्षक शंखश्वेत, महापद्म, कम्बल, अश्वतर, एलापुत्र, नाग, कर्कोटक, धनजंय तथा और भी अनेकों उग्र विषधर एवं काटनेवाले सर्प प्रधान है || २१ २२ || क्रोधवशा के पुत्र क्रोधवशगण हैं | वे सभी बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले, भयंकर और कच्चा मांस खानेवाले जलचर, स्थलचर एवं पक्षिगण है || २३ || महाबली पिशाचों को भी क्रोधाने ही जन्म दिया है | सुरभि से गौ और महिष आदि की उत्पत्ति हुई तथा इशसे वृक्ष, लता, बेल और सब प्रकार के तृण उत्पन्न हुए है || २४ || खसाने यक्ष और राक्षसों को, मुनिने अप्सराओं को तथा अरिष्टाने अति समर्थ गन्धर्वो को जन्म दिया || २५ || हे ब्रह्मन ! यह खारोचिष मन्वन्तर की सृष्टि का वर्णन कहा जाता है || २७ || वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में महान वारुण यज्ञ हुआ, उसमें ब्रह्माजी होता थे, अब मैं उनकी प्रजाका वर्णन करता हूँ || २८ ||

पूर्वं यत्र तु सप्तर्षिनुत्पन्नान्सप्तमानसान्

पुत्रत्वे कल्पयामास स्वयमेव पितामहः

गन्धर्वभोगिदेवानां दानवानां च सत्तम ।।२९।।

दितिर्विनष्टपुत्रा वै तोषयामास काश्यपम्

तया चाराधितः सम्यक्काश्यपस्तपतां वरः ।।३०।।

वरेण च्छन्दयामास सा च वव्रे ततो वरम्

पुत्रमिन्द्र वधार्थाय समर्थममितौजसम् ।।३१।।

हे साधूश्रेष्ठ ! पूर्व मन्वन्तर में जो सप्तर्षिगण स्वयं ब्रह्माजी के मानसपुत्ररूप से उत्पन्न हुए थे, उन्हींको ब्रह्माजी ने इस कल्प में गन्धर्व, नाग, देव और दानवादि के पितृरूप से निश्चित किया || २९ || पुत्रों के नष्ट हो जानेपर दिति ने कश्यपजी को प्रसन्न किया | उसकी सम्यक आराधना से संतुष्ट हो तपस्वियों में श्रेष्ठ कश्यपजी ने उसे वर देकर प्रसन्न किया | उस समय उसने इंद्र के वध करने में समर्थ एक अति तेजस्वी पुत्र का वर माँगा || ३० ३१ ||

स च तस्मै वरं प्रादाद्भार्यायै मुनिसत्तमः

दत्त्वा च वरमत्युग्रं कश्यपस्तामुवाच ह ।।३२।।

शक्रं पुत्रो निहन्ता ते यदि गर्भं शरच्छतम्

समाहितातिप्रयता शौचिनी धारयिष्यसि ।।३३।।

इत्येवमुक्त्वा तां देवीं संगतः कश्यपो मुनिः

दधार सा च तं गर्भं सम्यक्छोचसमन्विता ।।३४।।

मुनिश्रेष्ठ कश्यपजी ने अपनी भार्या दिति को वह वर दिया और उस अति उग्र वर को देते हुए वे उससे बोले || ३२ || ‘यदि तुम भगवान के ध्यान में तत्पर रहकर अपना गर्भ शौच [ हे सुन्दरी ! गर्भिणी स्त्री को चाहिये कि सायंकाल में भोजन न करें, वृक्षों के नीचे न जाय और न वहाँ ठहरे ही तथा लोगों के साथ कलह और अँगड़ाई लेना छोड़ दे, कभी केश खुला न रखे और न अपवित्र ही रहे | ] और संयमपूर्वक सौ वर्षतक धारण कर सकोगी तो तुम्हारा पुत्र इंद्र को मारनेवाला होगा’ | || ३३ || ऐसा कहकर मुनि कश्यपजी ने उस देवी से संगमन किया और उसने बड़े शौचपूर्वक रहते हुए वह गर्भ धारण किया || ३४ ||

गर्भमात्मवधार्थाय ज्ञात्वा तं मघवानपि

शुश्रूषुस्तामथागच्छद्विनयादमराधिपः ।।३५।।

तस्याश्चैवान्तरप्रेप्सुरतिष्ठत्पाकशासनः

ऊने वर्षशते चास्या ददर्शान्तरमात्मना ।।३६।।

अकृत्वा पादयोः शौचं दितिः शयनमाविशत्

निद्रां! चाहारयामास तस्याः कुक्षिं प्रविश्य सः ।।३७।।

वज्रपाणिर्महागर्भं चिच्छेदाथ स सप्तधा

सम्पीड्यमानो वज्रेण स रुरोदातिदारुणम् ।।३८।।

मा रोदीरिति तं शक्रः पुनःपुनरभाषत

सोऽभवत्सप्तधा गर्भस्तमिंद्रः! कुपितः पुनः ।।३९।।

एकैकं सप्तधा चक्रे वज्रेणारिविदारिणा

मरुतो नाम देवास्ते बभूवुरतिवेगिनः ।।४०।।

यदुक्तं वै भगवता तेनैव मरुतोऽभवन्

देवा एकोनपञ्चाशत्सहाया वज्रपाणिनः ।।४१।।

उस गर्भ को अपने वधका कारण जान देवराज इंद्र भी विनयपूर्वक उसकी सेवा करने के लिये आ गये || ३५ || उसके शौचादि में कभी कोई अंतर पड़े यही देखने की इच्छासे इंद्र वहाँ हर समय उपस्थित रहते थे | अंत में सौ वर्षमे कुछ ही कमी रहनेपर उन्होंने एक अंतर देख ही लिया || ३६ || एक दिन दिति बिना चरण शुद्धि किये ही अपनी शय्यापर लेट गयी | उससमय निद्रा ने उसे घेर लिया | तब इंद्र हाथ में वज्र लेकर उसकी कुक्षि में घुस गये और उस महागर्भ के सात टुकड़े कर डाले | इसप्रकार वज्र से पीड़ित होने से वह गर्भ जोर-जोर से रोने लगा || ३७ -३८ || इंद्र ने उससे पुन: पुन: कहा कि मत रो’ | किन्तु जब वह गर्भ सात भागों में विभक्त हो गया तो इंद्र ने अत्यंत कुपित हो अपने शत्रु विनाशक वज्र से एक एक के सात सात टुकड़े और कर दिये | वे ही अति वेगवान मरुत नामक देवता हुए || ३९ ४० || भगवान इंद्र ने जो उससे कहा था कि मा रोदी:’ (मत रो) इसीलिये वे मरुत कहलाये | ये उनचास मरुद्गण इंद्र के सहायक देवता हुए || ४१ ||

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे एकविशोऽध्याय ।। २१ ।।

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 22  

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