विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २२

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २२          

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय २२ में विष्णु भगवान् की विभूति और जगत की व्यवस्था का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २२

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २२          

Vishnu Purana first part chapter 22  

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः द्वाविशोऽध्याय:       

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः २२      

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश बाईसवाँ अध्याय

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश अध्याय २२  

श्रीविष्णुपुराण

(प्रथम अंश)

अध्याय २२   

श्रीपराशर उवाच

यदाभिषिक्तः स पृथुः पूर्वं राज्ये महर्षिभिः ।

ततः क्रमेण राज्यानि ददौ लोकपितामहः ॥ १,२२.१ ॥

नक्षत्रग्रहविप्राणां वीरुधां चाप्यशेषतः ।

सोमं राज्ये दधद्ब्रह्मा यज्ञानां तपसामपि ॥ १,२२.२ ॥

राज्ञां वैश्रवणं राज्ये जलानां वरुणं तथा ।

आदित्यानां पतिं विष्णुं वसूनामथ पावकम् ॥ १,२२.३ ॥

प्रजापतीनां दक्षं तु वासवं मरुतामपि ।

दैत्यानां दानवानां च प्रह्लादमधिपं ददौ ॥ १,२२.४ ॥

पितॄणां धर्मराजानं यमं राज्येऽभ्यषेचयत् ।

ऐरावतं गर्जेद्राणामशेषाणां पतिं ददौ ॥ १,२२.५ ॥

पतत्रिणां तु गरुडं देवानामपि वासवम् ।

उच्चैःश्रवसमश्वानां वृषभं तु गवामपि ॥ १,२२.६ ॥

मृगाणां चैव सर्वेषां राज्ये सिंहं ददौ प्रभुः ।

शेषं तु दन्दशूकानामकरोत्पतिमव्ययः ॥ १,२२.७ ॥

हिमालयं स्थावराणां मुनीनां कपिलं मुनिम् ।

नखिनां दंष्ट्रिणां चैव मृगाणां व्याघ्रमीश्वरम् ॥ १,२२.८ ॥

वनस्पतीनां राजानां प्लक्षमैवाभ्यषेचयत् ।

एवमेवान्यजातीनां प्राधान्येनाकरोत्प्रभून् ॥ १,२२.९ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– पूर्वकाल में महर्षियों ने जब महाराज पृथु को राज्यपदपर अभिषिक्त किया तो लोक-पितामह श्रीब्रह्माजी ने भी क्रम से राज्यों का बँटवारा किया || || ब्रह्माजी नक्षत्र, ग्रह, ब्राह्मण, सम्पूर्ण वनस्पति और यज्ञ तथा तप आदि के राज्यपर चन्द्रमा को नियुक्त किया || || इसी प्रकार विश्रवा के पुत्र कुबेरजी को राजाओं का , वरुण को जलों का, विष्णु को आदित्यों का और अग्नि को वसुगणों का अधिपति बनाया || || दक्ष को प्रजापतियों का , इंद्र को मरुद्गण का तथा प्रल्हादजी को दैत्य और दानवों का आधिपत्य दिया || || पितृगण के राज्यपदपर धर्मराज यम को अभिषिक्त किया और सम्पूर्ण गजराजों का स्वामित्व ऐरावत को दिया || || गरुड को पक्षियों का, इंद्र को देवताओं का, उच्चै:श्रवा को घोड़ों का और वृषभ को गौओं का अधिपति बनाया || || प्रभु ब्रह्माजीने समस्त मृगों (वन्यपशुओं) का राज्य सिंह को दिया और सर्पों का स्वामी शेषनाग को बनाया || || स्थावरों का स्वामी हिमालय को, मुनिजनों का कपिलदेवजी को और नख तथा दाढ़वाले मृगगण का राजा व्याघ्र )बाघ) को बनाया || || तथा प्लक्ष (पाकर) को वनस्पतियों का राजा किया | इसी प्रकार ब्रह्माजी ने और और जातियों के प्राधान्य की भी व्यवस्था की || ||

एवं विभज्य राज्यानि दिशां पालाननन्तरम् ।

प्रजापतिपतिर्ब्रह्मा स्थापयामास सर्वतः ॥ १,२२.१० ॥

पूर्वस्यां दिशि राजानं वैराजस्य प्रजापतेः ।

दिशापालं सुधन्वानं सुतं वै सोऽभ्यषेचयत् ॥ १,२२.११ ॥

दक्षिणस्यां दिशि तथा कर्दमस्य प्रजापतेः ।

पुत्रं शङ्खपदं नाम राजानं सोऽभ्यषेचयत् ॥ १,२२.१२ ॥

पश्चिमस्यां दिशि तथा रजसः पुत्रमच्युतम् ।

केतुमन्तं महात्मानं राजानं सोऽभ्यषेचयत् ॥ १,२२.१३ ॥

तथा हिरण्यरोमाणं पर्जन्यस्य प्रजापतेः ।

उदीच्यां दिशि दुर्धर्षं राजानमभ्यषेचयत् ॥ १,२२.१४ ॥

तैरियं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपत्तना ।

यथाप्रदेशमद्यापि धर्मतः परिपाल्यते ॥ १,२२.१५ ॥

इस प्रकार राज्यों का विभाग करने के अनन्तर प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी ने सब ओर दिक्पालों की स्थापना की || १० || उन्होंने पूर्व-दिशामें वैराज प्रजापति के पुत्र राजा सुधन्वा को दिक्पालपद पर अभिषिक्त किया || ११ || तथा दक्षिण- दिशामें कर्दम प्रजापति के पुत्र राजा शंखपद की नियुक्ति की || १२ || कभी च्युत न होनेवाले रजसपुत्र महात्मा केतुमान को उन्होंने पश्चिम दिशामे स्थापित किया || १३ || और पर्जन्य प्रजापति के पुत्र अति दुर्द्भर्ष राजा हिरण्यरोमा को उत्तर दिशामे अभिषिक्त किया || १४ || वे आजतक सात द्वीप और अनेकों नगरों से युक्त इस सम्पूर्ण पृथ्वी का अपने अपने विभागानुसार धर्मपूर्वक पालन करते है || १५ ||

एते सर्वे प्रवृत्तस्य स्थितौ विष्णोर्महात्मनः ।

विभूतिभूता राजानो ये चान्ये मुनिसत्तम ॥ १,२२.१६ ॥

ये भविष्यन्ति ये भूताः सर्वे भूतेश्वरा द्विज ।

ते सर्वे सर्वभूतस्य विष्णोरंशा द्विजोत्तम ॥ १,२२.१७ ॥

ये तु देवाधिपतयो ये च दैत्याधिपास्तथा ।

दानवानां च ये नाथा ये नाथाः पिशिताशिनाम् ॥ १,२२.१८ ॥

पशूनां ये च पतयः पतयो ये च पक्षिणाम् ।

मनुष्याणां च सर्पाणां नागानामधिपाश्च ये ॥ १,२२.१९ ॥

वृक्षाणां पर्वतानां च ग्रहाणां चापि येऽधिपाः ।

अतीता वर्तमानाश्च ये भविष्यन्ति चापरे ।

ते सर्वे सर्वभूतस्य विष्णोरंशसमुद्भवाः ॥ १,२२.२० ॥

न हि पालनसामर्थ्यमृते सर्वेश्वरं हरिम् ।

स्थितं स्थितौ महाप्राज्ञ भवत्यन्यस्य कस्यचित् ॥ १,२२.२१ ॥

सृजत्येष जगत्सृष्टौ स्थितौ पाति सनातनः ।

हन्ति चैवान्तकत्वेन रजःसत्त्वादिसंश्रयः ॥ १,२२.२२ ॥

हे मुनिसत्तम ! ये तथा अन्य भी जो सम्पूर्ण राजालोग है वे सभी विश्व के पालन में प्रवृत्त परमात्मा श्रीविष्णुभगवान के विभूतिरूप है || १६ || हे द्विजोत्तम ! जो- जो भूताधिपति पहले हो गये है और जो जो आगे होंगे वे सभी सर्वभूत भगवान विष्णु के अंश हे || १७ || जो जो भी देवताओं, दैत्यों, दानवों और मांसभोजियों के अधिपति है, जो जो पशुओं, पक्षियों, मनुष्यों, सर्पो और नागों के अधिनायक है, जो जो वृक्षों, पर्वतों और ग्रहों के स्वामी है तथा और भी भूत, भविष्यात एवं वर्तमानकालीन जितने भूतेश्वर हैं वे सभी सर्वभूत भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए है || १८ २० || हे महाप्राज्ञ ! सृष्टि के पालन-कार्य में प्रवृत्त सर्वेश्वर श्रीहरि को छोडकर और किसीमे भी पालन करने की शक्ति नहीं है || २१ || रज: और सत्त्वादि गुणों के आश्रय से वे सनातन प्रभु ही जगत की रचना के समय रचना करते हैं, स्थिति के समय पालन करते है और अंतसमय में कालरूप से संहार करते है || २२ ||

चतुर्विभागः संसृष्टौ चतुर्धा संस्थितः स्थितौ ।

प्रलयं च करोत्यन्ते चतुर्भेदो जनार्दनः ॥ १,२२.२३ ॥

एकेनांशेन ब्रह्मसौ भवत्यव्यक्तमूर्तिमान् ।

मरीचिमिश्राः पतयः प्रजानाञ्चान्यभागशः ॥ १,२२.२४ ॥

कालस्तृतीयस्तस्यांशः सर्वभूतानि चापरः ।

इत्थं चतुर्धा संसृष्टौ वर्ततेसौ रजोगुणः ॥ १,२२.२५ ॥

एकांशेनास्थितो विष्णुः करोति प्रतिपालनम् ।

मन्वादिरूपश्चान्येन कालरूपोऽपरोण च ॥ १,२२.२६ ॥

सर्वभूतेषु चान्येन संश्थितः कुरुते स्थितिम् ।

सत्त्वं गुणं समाश्रित्य जगतः पुरुषोत्तमः ॥ १,२२.२७ ॥

आश्रित्य तमसो वृत्तिमन्तकाले तथा पुनः ।

रुद्रस्वरूपो भगवानेकांशेन भवत्यजः ॥ १,२२.२८ ॥

अग्न्यन्तकादिरूपेण भागेनान्येन वर्तते ।

कालस्वरूपो भागो यःसर्वभूतानि चापरः ॥ १,२२.२९ ॥

विनाशं कुर्वतस्तस्य चतुर्धैवं महात्मनः ।

विभागकल्पना ब्रह्मन् कथ्यते सार्वकालिकी ॥ १,२२.३० ॥

ब्रह्म दक्षादयः कालस्तथै वाखिलजन्तवः ।

विभूतयो हरेरेता जगतः सृष्टिहेतवः ॥ १,२२.३१ ॥

वे जनार्दन चार विभाग से सृष्टि के और चार विभागसे ही स्थिति के समय रहते है तथा चार रूप धारण करके ही अंत में प्रलय करते है || २३ || एक अंश से वे अव्यक्तस्वरूप ब्रह्मा होते है, दूसरे अंशसे मरीचि आदि प्रजापति होते है, उनका तीसरा अंश काल है और चौथा सम्पूर्ण प्राणी | इसप्रकार वे रजोगुण विशिष्ट होकर चार प्रकार से सृष्टि के समय स्थित होते है || २४ -२५ || फिर वे पुरुषोत्तम सत्त्वगुण का आश्रय लेकर जगत की स्थिति करते है | उस समय वे एक अंश से विष्णु होकर पालन करते है, दूसरे अंश से मनु आदि होते है तथा तीसरे अंश से काल और चौथे से सर्वभूतों में स्थित होते है || २६ २७ || तथा अन्तकाल में वे अजन्मा भगवान तमोंगुण की वृत्तिका आश्रय ले एक अंश से रुद्ररूप, दूसरे भागसे अग्नि और अन्तकादि रूप, तीसरे से कालरूप और चौथे से सम्पूर्ण भूतस्वरूप हो जाते है || २८ २९ || हे ब्रह्मन ! विनाश करने के लिये उन महात्मा की यह चार प्रकार की सार्वकालिक विभागकल्पना कही जाती है || ३० || ब्रह्मा, दक्ष आदि प्रजापतिगण, काल तथा समस्त प्राणी ये श्रीहरि की विभूतियाँ जगतकी सृष्टि की कारण है || ३१ ||

विष्णुर्मन्वादयः कालः सर्वभूतानि च द्विज ।

स्थितेर्निमित्तभूतस्य विष्णोरेता विभूतयः ॥ १,२२.३२ ॥

रुद्रः कालान्तकाद्याश्च समस्ताश्चैव जन्तवः ।

चतुर्धा प्रलायायैता जनार्दनविभूतयः ॥ १,२२.३३ ॥

हे द्विज ! विष्णु, मनु आदि, काल और समस्त भूतगण ये जगत की स्थिति के कारणरूप भगवान विष्णु की विभूतियाँ है || ३२ || तथा रूद्र, काल, अन्तकादि और सकल जीव श्रीजनार्दनकी ये चार विभूतियाँ प्रलय की कारणरूप है||३३||

जगदादौ तथा मध्ये सृष्टिराप्रलया द्विज ।

धात्रा मरीचिमिश्रैश्च क्रियते जन्तुभिस्तथा ॥ १,२२.३४ ॥

ब्रह्म सृजत्यादिकाले मरीचिप्रमुखास्ततः ।

उत्पादयन्त्यपत्यानि जन्तवश्च प्रतिक्षणम् ॥ १,२२.३५ ॥

कालेन न विना ब्रह्म सृष्टिनिष्पादको द्विज ।

न प्रजापतयः सर्वे न चैवाखिलजन्तवः ॥ १,२२.३६ ॥

एवमेव विभागोयं स्तितावप्युपदिश्यति ।

चतुर्दा तस्य देवस्य मैत्रेय प्रलये तथा ॥ १,२२.३७ ॥

यत्किञ्चित्सृज्यते येन सत्त्वजातेन वै द्विज ।

तस्य सृज्यस्य सम्भूतो तत्सर्वं वै हरेस्तनुः ॥ १,२२.३८ ॥

हन्ति यावच्च यत्किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।

जनार्दनस्य तद्रौद्रं मैत्रेयान्तकरं वपुः ॥ १,२२.३९ ॥

एवमेष जगत्स्त्रष्टा जगत्पाता तथा जगत् ।

जगद्भक्षयिता देवः समस्तस्य जनार्दनः ॥ १,२२.४० ॥

सृष्टिस्थित्यन्तकालेषु त्रिधैवं संप्रवर्तते ।

गुणप्रवृत्या परमं पदं तस्यागुणं महत् ॥ १,२२.४१ ॥

तच्च ज्ञानमयं व्यापि स्वसंवेद्यमनौपमम् ।

चतुष्प्रकारं तदपि स्वरूपं परमात्मनः ॥ १,२२.४२ ॥

हे द्विज ! जगत के आदि और मध्य में तथा प्रलयपर्यन्त भी ब्रह्मा, मरीचि आदि तथा भिन्न भिन्न जीवों से ही सृष्टि हुआ करती है || ३४ || सृष्टि के आरम्भ में पहले ब्रह्माजी रचना करते है, फिर मरीचि आदि प्रजापतिगण और तदनन्तर समस्त जीव क्षण- क्षणमें सन्तान उत्पन्न करते रहते है || ३५ || हे द्विज ! काल के बिना ब्रह्मा, प्रजापति एवं अन्य समस्त प्राणी भी सृष्टि-रचना नहीं कर सकते [अत: भगवान कालरूप विष्णु ही सर्वदा सृष्टि के कारण है ] || ३६ || हे मैत्रेय ! इसी प्रकार जगत की स्थिति और प्रलय में भी उन देवदेव के चार-चार विभाग बताये जाते है || ३७ || हे द्विज ! जिस किसी जीवद्वारा जो कुछ भी रचना की जाती है उस उत्पन्न हुए जीव की उत्पत्ति में सर्वथा श्रीहरि का शरीर ही कारण है || ३८ || हे मैत्रेय ! इसीप्रकार जो कोई स्थावर जंगम भूतोंमें से किसी को नष्ट करता है, वह नाश करनेवाला भी श्रीजनार्दन का अंतकारक रौद्ररूप ही है || ३९ || इसप्रकार वे जनार्दनदेव ही समस्त संसार के रचयिता, पालनकर्ता और संहारक है तथा वे ही स्वयं जगत-रूप भी है || ४० || जगत की उत्पत्ति, स्थिति और अंत के समय वे इसी प्रकार तीनों गुणों को प्रेरणा से प्रवृत्त होते है, तथापि उनका परमपद महान निर्गुण है || ४१ || परमत्मा का वह स्वरूप ज्ञानमय, व्यापक, स्वसंवेद्य (स्वयं-प्रकाश) और अनुपम है तथा वह भी चार प्रकार का ही है || ४२ ||

श्रीमैत्रेय उवाच

चतुःप्रकारतां तस्य ब्रह्मभूतस्य हे मुने ।

ममाचक्ष्व यथान्यायं यदुक्तं परमं पदम् ॥ १,२२.४३ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे मुने ! आपने जो भगवान का परम पद कहा, वह चार प्रकार का कैसे है ? यह आप मुझसे विधिपूर्वक कहिये || ४३ ||

श्रीपराशर उवाच

मैत्रेय कारणं प्रोक्तं साधनं सर्ववस्तुषु ।

साध्यं च वस्त्वभिमतं यत्साधयितुमात्मनः ॥ १,२२.४४ ॥

योगिनो मुक्तिकामस्य प्राणायामादिसाधनम् ।

साध्यं च परमं ब्रह्म पुनर्नावर्तते यतः ॥ १,२२.४५ ॥

साधनालम्बनं ज्ञानं मुक्तये योगिनां हि यत् ।

स भेदः प्रथमस्तस्य ब्रह्मभूतस्य वै मुने ॥ १,२२.४६ ॥

युञ्जतः क्लेशमुक्त्यर्थं साध्यं यद्ब्रह्म योगिनः ।

तदालम्बनविज्ञानं द्वितीयोंऽशो महामुने ॥ १,२२.४७ ॥

उभयोस्त्वविभागेन साध्यसाधनयोर्हि यत् ।

विज्ञानमद्वैतमयं तद्भागोन्यो मयोदितः ॥ १,२२.४८ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! सब वस्तुओं का जो कारण होता है वही उनका साधन भी होता है और जिस अपनी अभिमत वस्तुकी सिद्धि की जाती है वही साध्य कहलाती है || ४४ || मुक्ति की इच्छावाले योगिजनों के लिये प्राणायाम आदि साधन है और परब्रह्म ही साध्य है, जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता || ४५ || हे मुने ! जो योगी की मुक्ति का कारण है, वह साधनालम्बन ज्ञानही उस ब्रह्मभूत परमपद का प्रथम भेद है || ४६ || क्लेश-बंधन से मुक्त होने के लिये योगाभ्यासी योगी का साध्यरूप जो ब्रह्म है, हे महामुने ! उसका ज्ञान ही आलम्बन-विज्ञाननामक दूसरा भेद है || ४७ || इन दोनों साध्य-साधनों का अभेद्पुर्वक जो अद्वैतमय ज्ञानहै उसीको मैं तीसरा भेद कहता हूँ || ४८ ||

ज्ञानत्रयस्य वै तस्य विशेषो यो महामुने ।

तन्निराकरणद्वारा दर्शितात्मस्वरूपवत् ॥ १,२२.४९ ॥

निर्व्यापारमनाख्येयं व्याप्तिमात्रमनूपमम् ।

आत्मसम्बोधविषयं सत्तामात्रमलक्षणम् ॥ १,२२.५० ॥

प्रशान्तमभयं शुद्धं दुर्विभाव्यमसंश्रयम् ।

विष्णोर्ज्ञानमयस्योक्तं तज्ज्ञानं ब्रह्मसंज्ञितम् ॥ १,२२.५१ ॥

तत्र ज्ञाननिरोधेन योगिनो यान्ति ये लयम् ।

संसारकर्षणोप्तौ ते यान्ति निर्बीजतां द्विजा ॥ १,२२.५२ ॥

एवंप्रकारममलं नित्यं व्यापकमक्षयम् ।

समस्तहेयरहितं विष्ण्वाख्यं परमं पदम् ॥ १,२२.५३ ॥

तद्ब्रह्म परमं योगी यतो नावर्तते पुनः ।

श्रयत्यपुण्योपरमे क्षीणक्लेशेऽतिनिर्मले ॥ १,२२.५४ ॥

और हे महामुने ! उक्त तीनों प्रकार के ज्ञान की विशेषता का निराकरण करनेपर अनुभव हुए आत्मस्वरूप के समान ज्ञानस्वरूप भगवान विष्णु का जो निर्व्यापार अनिर्वचनीय, व्याप्तिमात्र, अनुपम, आत्मबोधस्वरुप, सत्तामन्न, अलक्षण, शांत, अभय, शुद्ध, भावनातीत और आश्रयहीन रूप है, वह ब्रह्मनामक ज्ञान [ उसका चौथा भेद] है || ४९ ५१ || हे द्विज ! जो योगीजन अन्य ज्ञानों का निरोधकर इस (चौथे भेद ) में ही लीन हो जाते है वे इस संसार-क्षेत्र के भीतर बीजारोपणरूप कर्म करने में निर्बीज (वासनारहित) होते है || ५२ || इसप्रकार का वह निर्मल, नित्य, व्यापक, अक्षय और समस्त हेय गुणों से रहित विष्णु नामक परमपद है || ५३ || पुण्य-पापका क्षय और क्लेशों की निवृत्ति होनेपर जो अत्यंत निर्मल हो जाता है वही योगी उस परब्रह्म का आश्रय लेता है जहाँ से वह फिर नहीं लौटता || ५४ ||

द्वे रूपे ब्रह्मणस्तस्य मूर्तं चामूर्तमेव च ।

क्षराक्षरास्वरूपे ते सर्वभूतेष्ववस्थिते ॥ १,२२.५५ ॥

अक्षरं तत्परं ब्रह्म क्षरं सर्वमिदं जगत् ।

एकदेशस्थितस्याग्नेर्ज्योत्स्त्रा विस्तारिणि यथा ।

परस्य ब्रह्मणः शक्तिस्तथोदमखिलं जगत् ॥ १,२२.५६ ॥

तत्राप्यासन्नदूरत्वाद्बहुत्वस्वल्पतामयः ।

ज्योत्स्नाभेदोस्ति तच्छक्तेस्तद्वन्मैत्रेय विद्यते ॥ १,२२.५७ ॥

ब्रह्मविष्णुशिवा ब्रह्मन्प्रधाना ब्रह्मशक्तयः ।

ततश्च देवा मैत्रेय न्यूना दक्षादयस्ततः ॥ १,२२.५८ ॥

ततो मनुष्याः पशवौ मृगपक्षिसरीसृपाः ।

न्यूनान्यूनतराश्चैव वृक्षगुल्मादयस्तथा ॥ १,२२.५९ ॥

तदेतदक्षरं नित्यं जगन्मुनिवराखितम् ।

आविर्भावतिरोभावजन्मनाशविकल्पवत् ॥ १,२२.६० ॥

उस ब्रह्म के मूर्त और अमूर्त दो रूप है, जो क्षर और अक्षररूप से समस्त प्राणियों से स्थित है || ५५ || अक्षर ही वह परब्रह्म है और क्षर सम्पूर्ण जगत है | जिसप्रकार एकदेशीय अग्निका प्रकाश सर्वत्र फैला रहता है उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत परब्रह्म की ही शक्ति है || ५६ || हे मैत्रेय ! अग्नि की निकटता और दूरता के भेद से जिसप्रकार उसके प्रकाश में भी अधिकता और न्यूनता का भेद रहता है उसी प्रकार ब्रह्म की शक्ति में भी तारतम्य है || ५७ || हे ब्रह्मन ! ब्रह्मा, विष्णु और शिव ब्रह्म की प्रधान शक्तियाँ है, उनसे न्यून देवगण है तथा उनके अनन्तर दक्ष आदि प्रजापतिगण है || ५८ || उनसे भी न्यून मनुष्य, पशु, पक्षी, मृग और सरीसृपादि है तथा उनसे भी अत्यंत न्यून वृक्ष, गुल्म और लता आदि है || ५९ || अत: हे मुनिवर ! आविर्भाव (उत्पन्न होना) तिरोभाव (छिपा जाना) जन्म और नाश आदि विकल्पयुक्त भी यह सम्पूर्ण जगत वास्तव में नित्य और अक्षय ही है || ६० ||

सर्वशक्ति मयो विष्णुः स्वरूपं ब्रह्मणः परम् ।

मूर्तं यद्योगिभिः पूर्वं योगारम्भेषु चिन्त्यते ॥ १,२२.६१ ॥

सालम्बनो महायोगः सबीजो यत्रसंस्थितः ।

मनस्यव्याहते सम्यग्युञ्जतां जायते मुने ॥ १,२२.६२ ॥

स परः परशक्तीनां ब्रह्मणः समनन्तरम् ।

मूर्तं ब्रह्म महाभाग सर्वब्रह्ममयो हरिः ॥ १,२२.६३ ॥

यत्र सर्वमिदं प्रोतमोतं चैवाखितं जगत् ।

ततो जगज्जगत्यस्मिन्स जगच्चखिलं मुने ॥ १,२२.६४ ॥

क्षराक्षरमयो विष्णुर्बिभर्त्यखिलमीश्वरः ।

पुरुषाव्याकृतमयं भूषणास्त्रस्वरूपवत् ॥ १,२२.६५ ॥

सर्वशक्तिमय विष्णु ही ब्रह्म के पर-स्वरूप तथा मूर्तरूप है जिनका योगिजन योगारम्बके पूर्व चिन्तन करते है || ६१ || हे मुने ! जिनमें मन को सम्यक प्रकार से निरंतर एकाग्र करनेवालों को आलम्बनयुक्त सबीज (सम्प्रज्ञात) महायोगकी प्राप्ति होती है, हे महाभाग ! हे सर्वब्रह्ममय श्रीविष्णुभगवान समस्त परा शक्तियों में प्रधान और ब्रह्म के अत्यंत निकटवर्ती मूर्त-ब्रह्मस्वरूप है || ६२ ६३ || हे मुने ! उन्हीं में यह सम्पूर्ण जगत ओतप्रोत है, उन्हींसे उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है और स्वयं वे ही समस्त जगत है || ६४ || क्षराक्षरमय (कार्यकारण-रूप) ईश्वर विष्णु ही इस पुरुष प्रकृतिमय सम्पूर्ण जगत की अपने आभूषण और आयुधरूप से धारण करते है || ६५ |

श्रीमैत्रेय उवाच

भूषणास्त्रस्वरूपस्थं यच्चैतदखिलं जगत् ।

बिभर्ति भगवान्विष्णुस्तन्ममाख्यातुमर्हसि ॥ १,२२.६६ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– भगवान विष्णु इस संसार को भूषण और आयुधरूप से किसप्रकार धारण करते है यह आप मुझसे कहिये || ६६ ||

श्रीपराशर उवाच

नमस्कृत्वाप्रमेयाय विष्णवे प्रभविष्णवे ।

कथयामि यथाख्यातं वसिष्ठेन ममा भवत् ॥ १,२२.६७ ॥

आत्मानमस्य जगतो निर्लेपमगुणामलम् ।

बिभर्ति कौस्तुभमणिस्वरूपं भगवान्हरिः ॥ १,२२.६८ ॥

श्रीवत्ससंस्थानधरमनन्तेन समाश्रितम् ।

प्रधानं बुद्धिरप्यास्ते गदारूपेण माधवे ॥ १,२२.६९ ॥

भूतादिमिन्द्रियादिं च द्विधाहङ्कारमीश्वरः ।

बिभर्ति शंखरूपेण शार्ङ्गरूपेण च स्थितम् ॥ १,२२.७० ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मुने ! जगत का पालन करनेवाले अप्रेमय श्रीविष्णुभगवान को नमस्कार कर अब मैं, जिसप्रकार वसिष्ठजी ने मुझसे कहा था वह तुम्हे सुनाता हूँ || ६७ || इस जगत के निर्लेप तथा निर्गुण और निर्मल आत्मा को अर्थात शुद्ध क्षेत्रज्ञ स्वरूप को श्रीहरि कौस्तुभमणिरूप से धारण करते है || ६८ || श्रिअनन्त ने प्रधान को श्रीवत्सरूप से आश्रय दिया है और बुद्धि श्रीमाधव की गदारूप से स्थित है || ६९ || भूतों के कारण तामस अहंकार और इन्द्रियों के कारण राजस अहंकार इन दोनों को वे शंख और शांक धनुषरूप से धारण करते है || ७० ||

चलत्स्वरूपमत्यन्तं जवेनान्तारितानिलम् ।

चक्रस्वरूपं च मनो धत्ते विष्णुकरे स्थितम् ॥ १,२२.७१ ॥

पञ्चरूपा तु या माला वैजयन्ती गदाभृतः ।

सा भूतहेतुसंघाता भूतमाला च वै द्विज ॥ १,२२.७२ ॥

यानीन्द्रियाण्यशेषाणि बुद्धिकर्मात्मकानि वै ।

शररूपाण्यशेषाणि तानि धत्ते जनार्दनः ॥ १,२२.७३ ॥

बिभर्ति यच्चासिरत्नमच्युतोत्यन्तनिर्मलम् ।

विद्यामय तु तज्ज्ञानमविद्याकोशसंस्थितम् ॥ १,२२.७४ ॥

इत्थं पुमान्प्रधानं च बुद्ध्यहङ्कारमेव च ।

भूतानि च हृषीकेशे मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।

विद्याविद्ये च मैत्रेय सर्वमेतत्समाश्रितम् ॥ १,२२.७५ ॥

अस्त्रभूषणसंस्थानस्वरूपं रूपवर्जितः ।

बिभार्ति मायारूपोसौ श्रेयसे प्राणिनां हरिः ॥ १,२२.७६ ॥

सविकारं प्रधानं च पुमांश्चैवाखिलं जगत् ।

बिभर्ति पुण्डहीकाक्षस्तदेवं परमेश्वरः ॥ १,२२.७७ ॥

या विद्या या तथाविद्या यत्सद्यच्चासदव्ययम् ।

तत्सर्वं सर्वभूतेशे मैत्रेय मधुसूदने ॥ १,२२.७८ ॥

कलाकाष्ठानिमेषादिदिनर्त्वयनहायनैः ।

कालस्वरूपो भगवानपापो हरिरव्ययः ॥ १,२२.७९ ॥

अपने वेगसे पवन को भी पराजित करनेवाला अत्यंत चंचल, सात्त्विक अहंकाररूप मन श्रीविष्णु भगवान के कर-कमलों में स्थित चक्र का रूप धारण करता है || ७१ || हे द्विज ! भगवान गदाधर की जो [मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील और हीरकमयी ] पंचरूपा वैजयन्ती माला है वह पंचतन्मात्राओं और पंचभूतों का ही संघात है || ७२ || जो ज्ञान और कर्ममयी इन्द्रियाँ है उन सबको श्रीजनार्दन भगवान बाणरूपसे धारण करते है || ७३ || भगवान अच्युत जो अत्यंत निर्मल खड्ग धारण करते है वह अविद्यामय कोशसे आच्छादित विद्यामय ज्ञान ही है || ७४ || हे मैत्रेय ! इसप्रकार पुरुष, प्रधान, बुद्धि, अहंकार, मन, पंचभूत, इन्द्रियाँ तथा विद्या और अविद्या सभी श्रीऋषिकेश में आश्रित है || ७५ || श्रीहरि रूपरहित होकर भी मायामयरूप से प्राणियों के कल्याण के लिये इन सबको अस्त्र और भूषणरूप से धारण करते है || ७६ || इसप्रकार वे कमलनयन परमेश्वर सविकार प्रधान (निर्विकार), पुरुष तथा सम्पूर्ण जगत को धारण करते है || ७७ || जो कुछ भी विद्या अविद्या, सत-असत तथा अव्ययरूप है, हे मैत्रेय ! वह सब सर्वभुतेश्वर श्रीमधुसुदन में ही स्थित है || ७८ || कला, काष्ठा, निमेष, दिन, ऋतू, अयन और वर्षरूप से वे कालस्वरूप निष्पाप अव्यय श्रीहरि ही विराजमान है || ७९ ||

भूर्लोकोथ भुवर्लोकः स्वर्लोको मुनिसत्तम ।

महर्जनस्तपः सत्यं सप्त लोका इमे विभुः ॥ १,२२.८० ॥

लोकात्ममूर्तिः सर्वेषां पूर्वेषामपि पूर्वजः ।

आधारः सर्वविद्यानां स्वयमेव हरिः स्थितः ॥ १,२२.८१ ॥

देवमानुषपश्वादिश्वरूपैर्बहुभिः स्थितः ।

ततः सर्वेश्वरोऽनन्तो भूतमूर्तिरमूर्तिमान् ॥ १,२२.८२ ॥

ऋचो यजूंषि सामानि तथैवाथर्वाणानि वै ।

इतिहासोपवेदाश्च वेदान्तेषु तथोक्तयः ॥ १,२२.८३ ॥

वेदाङ्गानि समस्तानि मन्वादिगदितानि च ।

शास्त्राण्यशेषाण्याख्यानान्यनुवाकाश्च ये क्वचित् ॥ १,२२.८४ ॥

काव्यालापाश्च ये केचिद्रीतकान्यखिलानि च ।

शब्दमूर्तिधरस्यैतद्वपुर्विष्णोर्महात्मनः ॥ १,२२.८५ ॥

यानि मूर्तान्यमूर्तानि यान्यत्रान्यत्र वा क्वचित् ।

सन्ति वै वस्तुजातानि तानि सर्वाणि तद्वपुः ॥ १,२२.८६ ॥

अहं हरिः सर्वमिदं जनार्दनो नान्यत्ततः कारणकार्यजातम् ।

ईदृङ्मनो यस्य न तस्यट भूयो भवोद्भावा द्वन्द्वगदा भवन्ति ॥ १,२२.८७ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक तथा मह, जन, तप और सत्य आदि सातों लोक भी सर्वव्यापक भगवान ही है || ८० || सभी पूर्वजों के पूर्वज तथा समस्त विद्याओं के आधार श्रीहरि ही स्वयं लोकमयस्वरूप से स्थित है || ८१ || निराकार और सर्वेश्वर श्रीअनंत ही भूतस्वरूप होकर देव, मनुष्य और पशु आदि नानारूपों से स्थित है || ८२ || ऋक, यजु:, साम और अर्थववेद, इतिहास (महाभारतादि), उपवेद (आयुर्वेदादि), वेदान्तवाक्य, समस्त वेदांग, मनु आदि कथित समस्त धर्मशास्त्र, पुराणादि सकल शास्त्र, आख्यान, अनुवाक (कल्पसूत्र) तथा समस्त काव्य-चर्चा और रागरागिनी आदि जो कुछ भी है वे सब शब्दमुर्तिधारी परमात्मा विष्णु का ही शरीर है || ८३ ८५ || इस लोक में अथवा कहीं और भी जितने मूर्त, अमूर्त पदार्थ है, वे सब उन्हींका शरीर है || ८६ || ‘मैं तथा यह सम्पूर्ण जगत जनार्दन श्रीहरि ही है; उनसे भिन्न और कुछ भी कार्य-कारणादि नहीं है’ – जिसके चित्त में ऐसी भावना है उसे फिर देहजन्य राग-द्वेषादि द्वन्दरूप रोग की प्राप्ति नहीं होती || ८७ ||

इत्यैष तेंशः प्रथमः पुराणस्यास्य वै द्विज ।

यथावत्कथितो यस्मिन्धृते पापैः प्रमुच्यते ॥ १,२२.८८ ॥

कार्त्तिक्यां पुष्करस्नाने द्वादशाब्देन यत्फलम् ।

तदस्य श्रवणात्सव मैत्रेयाप्नोति मानवः ॥ १,२२.८९ ॥

देवर्षिपितृगन्धर्वयक्षादिनां च सम्भवम् ।

भवन्ति शृण्वतः पुंसो देवाद्य वरदा मुने ॥ १,२२.९० ॥

हे द्विज ! इसप्रकार तुमसे उस पुराण के पहले अंशका यथावत वर्णन किया | इसका श्रवण करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है || ८८ || हे मैत्रेय ! बारह वर्षतक कार्तिक मास में पुष्करक्षेत्र में स्नान करने से जो फल होता है, वह सब मनुष्य को इसके श्रवणमात्र से मिल जाता है || ८९ || हे मुने ! देव, ऋषि, गन्धर्व, पितृ और यक्ष आदिकी उत्पत्ति का श्रवण करनेवाले पुरुष की वे देवादि वरदायक हो जाते है ।।९०।।

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे द्वाविशोऽध्याय ॥ २२ ॥

।। इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णु-महापुराणे प्रथमोऽश: समाप्त ।। 

विष्णु पुराण का प्रथम अंश समाप्त ।

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश  

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