नरसिंहपुराण अध्याय १६

नरसिंहपुराण अध्याय १६  

नरसिंहपुराण अध्याय १६ में भगवान् विष्णु के ध्यान से मोक्ष की प्राप्ति का प्रतिपादन का वर्णन है।

नरसिंहपुराण अध्याय १६

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय १६  

Narasingha puran chapter 16

नरसिंह पुराण सोलहवाँ अध्याय

नरसिंहपुराण अध्याय १६    

श्रीनरसिंहपुराण षोडशोऽध्यायः

॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥

श्रीशुक उवाच

संसारवृक्षमारुह्य द्वन्द्वपाशशतैर्दृढैः ।

बध्यामानः सुतैश्वर्यैः पतितो योनिसागरे ॥१॥

यः कामक्रोधलोभैस्तु विषयैः परिपीडितः ।

बद्धः स्वकर्मभिर्गोणैः पुत्रदारैषणादिभिः ॥२॥

स केन निस्तरत्याशु दुस्तरं भवसागरम् ।

पृच्छामाख्याहि मे तात तस्य मुक्तिः कथं भवेत् ॥३॥

श्रीशुक्रदेवजी बोले - पिताजी ! जो संसार - वृक्षपर आरुढ़ हो; राग - द्वेषादि द्वन्द्वमय सैकड़ों सुदृढ़ पाशों तथा पुत्र और ऐश्वर्य आदिके बन्धनसे बँधकर योनि - समुद्रमें गिरा हुआ है तथा काम, क्रोध, लोभ और विषयोंसे पीड़ित होकर अपने कर्ममय मुख्य बन्धनों तथा पुत्रैषणा और दारैषणा आदि गौण बन्धनोंसे आबद्ध है, वह मनुष्य इस दुस्तर भवसागरको कैसे शीघ्र पार कर सकता है ? उसकी मुक्ति कैसे हो सकती है ? हमारे इस प्रश्नका समाधान कीजिये ॥१ - ३॥

श्रीव्यास उवाच

श्रृणु वत्स महाप्राज्ञ यञ्ञात्वा मुक्तिमाप्नुयात् ।

तच्च वक्ष्यामि ते दिव्यं नारदेन श्रुतं पुरा ॥४॥

नरके रौरवे घोरे धर्मज्ञानविवर्जिताः ।

स्वकर्मभिर्महादुःखं प्राप्ता यत्र यमालये ॥५॥

महापापकृतं घोरं सम्र्पाप्ताः पापकृज्जनाः ।

आलोक्य नारदः शीघ्रं गत्वा यत्र त्रिलोचनः ॥६॥

गङ्गाधरं महादेवं शंकरं शूलपाणिनम् ।

प्रणम्य विधिवद्देवं नारदः परिपृच्छति ॥७॥

श्रीव्यासजी बोले - महाप्राज्ञ पुत्न ! मैंने पूर्वकालमें नारदजीके मुखसे जिसका श्रवण किया था और जिसे जान लेनेपर मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है, उस दिव्य ज्ञानका मैं तुमसे वर्णन करता हूँ । यमराजके भवनमें जहाँ घोर रौरव नरकके भीतर धर्म और ज्ञानसे रहित प्राणी अपने पापकर्मोंके कारण महान् कष्ट पाते हैं, वहाँ एक बार नारदजी गये । उन्होंने देखा, पापी जीव अपने महान् पापोंके फलस्वरुप घोर संकटमें पड़े हैं । यह देखकर नारदजी शीघ्र ही उस स्थानपर गये, जहाँ त्रिलोचन महादेवजी थे । वहाँ पहुँचकर सिरपर गङ्गाजीको धारण करनेवाले महान् देवता शूलपाणि भगवान् शंकरको उन्होंने विधिवत् प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा ॥४ - ७॥

नारद उवाच

यः संसारे महाद्वन्द्वैः कामभोगैः शुभाशुभैः ।

शब्दादिविषयैर्बद्धः पीड्यमानः षडूर्मिभिः ॥८॥

कथं नु मुच्यते क्षिप्रं मृत्युसंसारसागरात् ।

भगवन् ब्रूहि मे तत्त्वं श्रोतुमिच्छामि शंकर ॥९॥

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नारदस्य त्रिलोचनः ।

उवाच तमृषिं शम्भुः प्रसन्नवदनो हरः ॥१०॥

नारदजी बोले - ' भगवन् ! जो संसारमें महान् द्वन्द्वों, शुभाशुभ कामभोगों और शब्दादि विषयोंसे बँधकर छहों ऊर्मियोंद्वारा पीड़ित हो रहा है, वह मृत्युमय संसारसागरसे किस प्रकार शीघ्र ही मुक्त हो सकता है ? कल्याणस्वरुप भगवान् शिव ! यह बात मुझे बताइये । मैं यही सुनना चाहता हूँ ।' नारदजीका वह वचन सुनकर त्रिनेत्रधारी भगवान् हरका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिल उठा । वे उन महर्षिसे बोले ॥८ - १०॥

महेश्वर उवाच

ज्ञानामृतं च गुह्यं च रहस्यमृषिसत्तम ।

वक्ष्यामि श्रृणु दुःखघ्नं सर्वबन्धभयापहम् ॥११॥

तृणादि चतुरास्यान्तं भूतग्रामं चतुर्विधम् ।

चराचरं जगत्सर्वं प्रसुप्तं यस्य मायया ॥१२॥

तस्य विष्णोः प्रसादेन यदि कश्चित् प्रबुध्यते ।

स निस्तरति संसारं देवानामपि दुस्तरम् ॥१३॥

भोगैश्वर्यमदोन्मत्तस्तत्त्वज्ञानपराङ्मुखः ।

संसारसुमहापङ्के जीर्णा गौरिव मज्जति ॥१४॥

यस्त्वात्मानं निबध्नाति कर्मभिः कोशकारवत् ।

तस्य मुक्तिं न पश्यामि जन्मकोटिशतैरपि ॥१५॥

तस्मान्नारद सर्वेशं देवानां देवमव्ययम् ।

आराधयेत्सदा सम्यग् ध्यायेद्विष्णुं समाहितः ॥१६॥

श्रीमहेश्वरने कहा - मुनिश्रेष्ठ ! सुनो; मैं सब प्रकारके बन्धनोंका भय और दुःख दूर करनेवाले गोपनीय रहस्यभूत ज्ञानामृतका वर्णन करता हूँ । तृणसे लेकर चतुरानन ब्रह्माजीतक, जो चार प्रकारका प्राणिसमुदाय है, वह अथवा समस्त चराचर जगत् जिनकी मायासे सुप्त हो रहा है, उन भगवान् विष्णुकी कृपासे यदि कोई जाग उठता है - ज्ञानवान् हो जाता है तो वही देवताओंके लिये भी दुस्तर इस संसार - सागरको पार कर जाता है । जो मनुष्य भोग और ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त और तत्त्वज्ञानसे विमुख है, वह संसाररुपी महान् पङ्कमें उस तरह डूब जाता है, जैसे कीचड़में फँसी हुई बूढ़ी गाय । जो रेशमके कीड़ेकी भाँति अपनेको कर्मोंके बन्धनसे बाँध लेता है, उसके लिये करोड़ों जन्मोंमें भी मैं मुक्तीकी सम्भावना नहीं देखता । इसलिये नारद ! सदा समाहितचित्त होकर सर्वेश्वर अविनाशी देवदेव भगवान् विष्णुका सदा भलीभाँति आराधन और ध्यान करना चाहिये ॥११ - १६॥

यस्तं विश्वमनाद्यन्तमाद्यं स्वात्मनि संस्थितम् ।

सर्वज्ञममलं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥१७॥

जो सदा उन विश्वस्वरुप, आदि- अन्त से रहित, सबके आदिकारण, आत्मनिष्ठ, अमल एवं सर्वज्ञ भगवान् विष्णु का ध्यान करता है, वह मुक्त हो जाता है ।

निर्विकल्पं निराकाशं निष्प्रपञ्चं निरामयम् ।

वासुदेवमजं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥१८॥

जो विकल्प से रहित, अवकाशशून्य, प्रपञ्च से परे, रोग- शोक से हीन एवं अजन्मा हैं, उन वासुदेव (सर्वव्यापी भगवान् ) विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला पुरुष संसार- बन्धन से मुक्त हो जाता है ।

निरञ्जनं परं शान्तमच्युतं भूतभावनम् ।

देवगर्भं विभुं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥१९॥

जो सब दोषों से रहित, परम शान्त, अच्युत, प्राणियों की सृष्टि करनेवाले तथा देवताओं के भी उत्पत्ति स्थान हैं, उन भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला पुरुष जन्म- मृत्यु के बन्धन से छुटकारा पा जाता है ।

सर्वपापविनिर्मुक्तमप्रमेयमलक्षणम् ।

निर्वाणमनघं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२०॥

जो सम्पूर्ण पापों से शून्य, प्रमाणरहित, लक्षणहीन, शान्त तथा निष्पाप हैं, उन भगवान् विष्णु का सदा चिन्तन करनेवाला मनुष्य कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है ।

अमृतं परमानन्दं सर्वपापविवर्जितम् ।

ब्रह्मण्यं शंकरं विष्णुं सदा संकीर्त्य मुच्यते ॥२१॥

जो अमृतमय, परमानन्दस्वरुप, सब पापों से रहित, ब्राह्मणप्रिय तथा सबका कल्याण करनेवाले हैं, उन भगवान् विष्णु का निरन्तर नामकीर्तन करने से मनुष्य संसार- बन्धन से मुक्त हो जाता है ।

योगेश्वरं पुराणाख्यमशरीरं गुहाशयम् ।

अमात्रमव्ययं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२२॥

जो योगों के ईश्वर, पुराण, प्राकृत देहहीन, बुद्धिरुप गुहा में शयन करनेवाले, विषयों के सम्पर्क से शून्य और अविनाशी हैं, उन भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला पुरुष जन्म- मृत्यु के बन्धन से छुटकारा पा जाता है।

शुभाशुभविनिर्मुक्तमूर्षिषटकपरं विभुम् ।

अचिन्त्यममलं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२३॥

जो शुभ और अशुभ के बन्धन से रहित, छः ऊर्मियों से परे, सर्वव्यापी, अचिन्तनीय तथा निर्मल हैं, उन भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य संसार से मुक्त हो जाता है ।

सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तं सर्वदुःखविवर्जितम् ।

अप्रतर्क्यमजं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२४॥

जो समस्त द्वन्द्वों से मुक्त और सब दुःखों से रहित हैं, उन तर्क के अविषय, अजन्मा भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करता हुआ पुरुष मुक्त हो जाता है ।

अनामगोत्रमद्वैतं चतुर्थं परमं पदम् ।

तं सर्वहद्रतं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२५॥

जो नामगोत्र से शून्य, अद्वितीय और जाग्रत आदि तीनों अवस्थाओं से परे तुरीय परमपद हैं, समस्त भूतों के हदय – मन्दिर में विद्यमान उन भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला पुरुष मुक्त हो जाता है ।

अरुपं सत्यसंकल्पं शुद्धमाकाशवत्परम् ।

एकाग्रमनसा विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२६॥

जो रुपरहित, सत्यसंकल्प और आकाश के समान परम शुद्ध हैं, उन भगवान् विष्णु का सदा एकाग्रचित्त से चिन्तन करनेवाला मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है ।

सर्वात्मकं स्वभावस्थमात्मचैतन्यरुपकम् ।

शुभ्रमेकाक्षरं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२७॥

जो सर्वरुप, स्वभावनिष्ठ और आत्मचैतन्यरुप हैं, उन प्रकाशमान एकाक्षर (प्रणवमय) भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य मुक्त हो जाता है ।

अनिर्वाच्यमविज्ञेयमक्षरादिमसम्भवम् ।

एकं नूत्नं सदा विष्णूं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२८॥

जो अनिर्वचनीय, ज्ञानातीत, प्रणवस्वरूप और जन्म- रहित हैं, उन एकमात्र नित्यनूतन भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य मुक्त हो जाता है।

विश्वाद्यं विश्वगोप्तारं विश्वादं सर्वकामदम् ।

स्थानत्रयातिगं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२९॥

जो विश्व के आदिकारण, विश्व के रक्षक, विश्व का भक्षण (संहार) करनेवाले तथा सम्पूर्ण काम्य वस्तुओं के दाता हैं, तीनों अवस्थाओं से अतीत उन भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य मुक्त हो जाता है ।

सर्वदुःखक्षयकरं सर्वशान्तिकरं हरिम् ।

सर्वपापहरं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥३०॥

समस्त दुःखों के नाशक, सबको शान्ति प्रदान करनेवाले और सम्पूर्ण पापों को हर लेनेवाले भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य संसार- बन्धन से मुक्त हो जाता है ।

ब्रह्मादिदेवगन्धर्वैर्मुनिभिः सिद्धचारणैः ।

योगिभिः सेवितं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥३१॥

ब्रह्मा आदि देवता, गन्धर्व, मुनि, सिद्ध, चारण और योगियों द्वारा सेवित भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला पुरुष पाप- ताप से मुक्त हो जाता है ।

विष्णौ प्रतिष्ठितं विश्वं विष्णुर्विश्वे प्रतिष्ठितः ।

विश्वेश्वरमजं विष्णुं कीर्तयन्नेव मुच्यते ॥३२॥

यह विश्व भगवान् विष्णु में स्थित है और भगवान् विष्णु इस विश्व में प्रतिष्ठित हैं । सम्पूर्ण विश्व के स्वामी, अजन्मा भगवान् विष्णु का कीर्तन करनेमात्र से मनुष्य मुक्त हो जाता है ।

संसारबन्धनान्मुक्तिमिच्छन् काममशेषतः ।

भक्त्यैव वरदं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥३३॥

जो संसार- बन्धन से मुक्ति तथा सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति चाहता है, वह यदि भक्तिपूर्वक वरदायक भगवान् विष्णु का ध्यान करे तो सफल मनोरथ होकर संसार- बन्धन से मुक्त हो जाता है ।

व्यास उवाच

नारदेन पुरा पृष्ट एवं स वृषभध्वजः ।

यदुवाच तदा तस्मै तन्मया कथितं तव ॥३४॥

तमेव सततं ध्याहि निर्बीजं ब्रह्म केवलम् ।

अवाप्यसि ध्रुवं तात शाश्वतं पदमव्ययम् ॥३५॥

श्रीव्यासजी कहते हैं - बेटा ! इस प्रकार पूर्वकालमें देवर्षि नारदजीके पूछनेपर उन वृषभचिह्नित ध्वजावाले भगवान् शंकरने उस समय उनके प्रति जो कुछ कहा था, वह सब मैंने तुमसे कह सुनाया । तात ! निर्बीज ब्रह्मरुप उन अद्वितीय विष्णुका ही निरन्तर ध्यान करो; इससे तुम अवश्य ही सनातन अविनाशी पदको प्राप्त करोगे ॥३४ - ३५॥

श्रुत्वा सुरऋषिर्विष्णोः प्राधान्यमिदमीश्वरात् ।

स विष्णुं सम्यगाराध्य परां सिद्धिमवाप्तवान् ॥३६॥

यश्चैनं पठते चैव नृसिंहकृतमानसः ।

शतजन्मकृतं पापमपि तस्य प्रणश्यति ॥३७॥

विष्णोः स्तवमिदं पुण्यं महादेवेन कीर्तितम् ।

प्रातः स्नात्वा पठेन्नित्यममृतत्वं स गच्छति ॥३८॥

ध्यायन्ति ये नित्यमनन्तमच्युतं

हत्पद्ममध्येष्वथ कीर्तयन्ति ये ।

उपासकानां प्रभुमीश्वरं परं

ते यान्ति सिद्धिं परमां तु वैष्णवीम् ॥३९॥

देवर्षि नारदने शंकरजीके मुखसे इस प्रकार भगवान् विष्णुकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन सुनकर उनकी भलीभाँति आराधना करके उत्तम सिद्धि प्राप्त कर ली । जो भगवान् नृसिंहमें चित्त लगाकर इस प्रसंगका नित्य पाठ करता है, उसका सौ जन्मोंमें किया हुआ पाप भी नष्ट हो जाता है । महादेवजीके द्वारा कथित भगवान् विष्णुके इस पावन स्तोत्रका जो प्रतिदिन प्रातः काल स्नान करके पाठ करता है, वह अमृतपद ( मोक्ष ) को प्राप्त कर लेता है । जो लोग अपने हदय - कमलके मध्यमें विराजमान अनन्त भगवान् अच्युतका सदा ध्यान करते हैं और उपासकोंके प्रभु उन परमेश्वर भगवान् विष्णुका कीर्तन करते हैं, वे परम उत्तम वैष्णवी सिद्धि ( विष्णु - सायुज्य ) प्राप्त कर लेते हैं ॥३६ - ३९॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे विष्णोः स्तवराजनिरुपणे षोडशोऽध्यायः ॥१६॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' श्रीविष्णुस्तवराजनिरुपण ' विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१६॥

आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 17

0 Comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box