श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध प्रथम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध
प्रथम अध्याय
"श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न"
श्रीमद्भागवतपुराणम्-स्कन्धः १-अध्यायः १
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतः
चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् ।
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये
मुह्यन्ति यत् सूरयः ।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र
त्रिसर्गोऽमृषा ।
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं
परं धीमहि । १ ॥
धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो
निर्मत्सराणां सतां ।
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं
तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा
परैरीश्वरः ।
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः
शुश्रूषुभिः तत् क्षणात् ॥ २ ॥
(द्रुतविलम्बित)
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं ।
शुकमुखाद् अमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत
भागवतं रसमालयं ।
मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः । ३ ॥
(अनुष्टुप्)
नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः
।
सत्रं स्वर्गायलोकाय सहस्रसममासत ॥
४ ॥
त एकदा तु मुनयः
प्रातर्हुतहुताग्नयः ।
सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुः
इदमादरात् ॥ ५ ॥
ऋषय ऊचुः ।
त्वया खलु पुराणानि सेतिहासानि चानघ
।
आख्यातान्यप्यधीतानि धर्मशास्त्राणि
यान्युत । ६ ॥
यानि वेदविदां श्रेष्ठो भगवान्
बादरायणः ।
अन्ये च मुनयः सूत परावरविदो विदुः
॥ ७ ॥
वेत्थ त्वं सौम्य तत्सर्वं तत्त्वतः
तदनुग्रहात् ।
ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो
गुह्यमप्युत ॥ ८ ॥
तत्र तत्राञ्जसाऽऽयुष्मन् भवता यद्
विनिश्चितम् ।
पुंसां एकान्ततः श्रेयः तन्नः
शंसितुमर्हसि । ०९ ॥
प्रायेणाल्पायुषः सभ्य कलौ अस्मिन्
युगे जनाः ।
मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या
ह्युपद्रुताः ॥ १० ॥
भूरीणि
भूरिकर्माणि श्रोतव्यानि विभागशः ।
अतः साधोऽत्र यत्सारं समुद्धृत्य
मनीषया ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां येनात्मा
संप्रसीदति ॥ ११ ॥
सूत जानासि भद्रं ते भगवान् सात्वतां
पतिः ।
देवक्यां वसुदेवस्य जातो यस्य
चिकीर्षया ॥ १२ ॥
तन्नः शुष्रूषमाणानां
अर्हस्यङ्गानुवर्णितुम् ।
यस्यावतारो भूतानां क्षेमाय च भवाय
च ॥ १३ ॥
आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो
गृणन् ।
ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति
स्वयं भयम् ॥ १४ ॥
यत्पादसंश्रयाः सूत मुनयः
प्रशमायनाः ।
सद्यः पुनन्त्युपस्पृष्टाः
स्वर्धुन्यापोऽनुसेवया ॥ १५ ॥
को वा भगवतस्तस्य
पुण्यश्लोकेड्यकर्मणः ।
शुद्धिकामो न श्रृणुयाद् यशः
कलिमलापहम् ॥ १६ ॥
तस्य कर्माण्युदाराणि परिगीतानि
सूरिभिः ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां लीलया दधतः
कलाः ॥ १७ ॥
अथाख्याहि हरेर्धीमन् अवतारकथाः
शुभाः ।
लीला विदधतः स्वैरं
ईश्वरस्यात्ममायया ॥ १८ ॥
वयं तु न वितृप्याम
उत्तमश्लोकविक्रमे ।
यत् श्रृण्वतां रसज्ञानां स्वादु
स्वादु पदे पदे ॥ १९ ॥
कृतवान् किल वीर्याणि सह रामेण
केशवः ।
अतिमर्त्यानि भगवान् गूढः कपटमानुषः
॥ २० ॥
कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन्
वैष्णवे वयम् ।
आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा
हरेः ॥ २१ ॥
त्वं नः संदर्शितो धात्रा दुस्तरं
निस्तितीर्षताम् ।
कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार
इवार्णवम् ॥ २२ ॥
ब्रूहि योगेश्वरे कृष्णे ब्रह्मण्ये
धर्मवर्मणि ।
स्वां
काष्ठामधुनोपेते धर्मः कं शरणं गतः ॥ २३ ॥
श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध प्रथम अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद
मंगलाचरण
जिससे इस जगत् की सृष्टि,
स्थिति और प्रलय होते हैं—क्योंकि वह सभी
सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थों से पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र
नहीं, स्वयं प्रकाश है; जो ब्रम्हा
अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही
जिसने उस वेद ज्ञान का दान दिया है; जिसके सम्बन्ध में
बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्य
रश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम
होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी
जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत्
प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयं प्रकाश ज्योति से सर्वदा और
सर्वथा माया और माया कार्य से पूर्णतः मुक्त रहने वाले परम सत्य रूप परमात्मा का
हम ध्यान करते हैं । महामुनि व्यासदेव के द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवत महापुराण
में मोक्ष पर्यन्त फल की कामना से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। इसमें
शुद्धान्तःकरण सत्पुरुषों के जानने योग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्मा का निरूपण
हुआ है, जो तीनों तापों का जड़ से नाश करने वाली और परम
कल्याण देने वाली है। अब और किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन। जिस समय भी
सुकृति पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय
अविलम्ब उनके ह्रदय में आकर बन्दी बन जाता है । रस के मर्मज्ञ भक्तजन! यह
श्रीमद्भागवत वेद रूप कल्प वृक्ष का पका हुआ फल है।
श्रीशुकदेव रूप तोते के मुख का सम्बन्ध हो जाने से यह परमानन्दमयी सुधा से
परिपूर्ण हो गया है। इस फल में छिलका, गुठली
आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मुर्तिमान् रस है। जब तक शरीर में चेतना रहे,
तब तक इस दिव्य भगवद्रस का निरन्तर बार-बार पान करते रहो। यह पृथ्वी
पर ही सुलभ है ।
"कथा प्रारम्भ"
एक बार भगवान विष्णु एवं देवताओं के
परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों ने भगवत्प्राप्ति की इच्छा से
सहस्त्र वर्षों में पूरे होने वाले एक महान् यज्ञ का अनुष्ठान किया । एक दिन उन
लोगों ने प्रातःकाल अग्निहोत्र आदि नित्यकृत्यों से निवृत्त होकर सूतजी का पूजन
किया और उन्हें ऊँचे आसन पर बैठाकर बड़े आदर से यह प्रश्न किया ।
ऋषियों ने कह ;- सूतजी! आप निष्पाप
हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्म शास्त्रों का
विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है । वेद वेत्ताओं
में श्रेष्ठ भगवान बादरायण ने एवं भगवान के सगुण-निर्गुण रूप को जानने वाले दूसरे
मुनियों ने जो कुछ जाना है—उन्हें जिन विषयों का ज्ञान है,
वह सब आप वास्तविक रूप में जानते हैं। आपका ह्रदय बड़ा ही सरल और
शुद्ध है, इसी से आप उनकी कृपा और अनुग्रह के पात्र हुए हैं।
गुरुजन अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त-से-गुप्त बात भी बता दिया करते हैं ।
आयुष्मान्! आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों, पुराणों
और गुरुजनों के उपदेशों में कलियुगी जीवों के परम कल्याण का सहस साधन आपने क्या
निश्चय किया है ।
आप संत-समाज के भूषण हैं। इस कलियुग में प्रायः
लोगों की आयु कम हो गयी हैं। साधन करने में लोगों की रूचि और प्रवृत्ति भी नहीं
है। लोग आलसी हो गये हैं। उनका भाग्य तो मन्द है ही, समझ भी थोड़ी है। इसके साथ ही वे नाना प्रकार की विघ्न-बाधाओं से घिरे हुए
भी रहते हैं । शास्त्र भी बहुत-से हैं। परन्तु उनमें एक निश्चित साधन नहीं,
अनेक प्रकार के कर्मों का वर्णन है। साथ ही वे इतने बड़े हैं कि
उनका एक अंश सुनना भी कठिन है। आप परोपकारी हैं। अपनी बुद्धि से उनका सार निकालकर
प्राणियों के परम कल्याण के लिये हम श्रद्धालुओं को सुनाइये, जिससे हमारे अन्तःकरण की शुद्धि प्राप्त हो । प्यारे सूतजी! आपका कल्याण
हो। आप तो जानते ही हैं कि यदुवंशियों के रक्षक भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण वसुदेव
की धर्मपत्नी देवकी के गर्भ से क्या करने की इच्छा से अवतीर्ण हुए थे । हम उसे
सुनना चाहते हैं। आप कृपा करके हमारे लिये उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि भगवान का अवतार जीवों के परम कल्याण और उनकी भगवत्प्रेममयी
समृद्धि के लिये ही होता है । यह जीव जन्म-मृत्यु के घोर चक्र में पड़ा हुआ है—इस स्थिति में भी यदि वह कभी भगवान के मंगलमय नाम का उच्चारण कर ले तो उसी
क्षण उससे मुक्त हो जाय; क्योंकि स्वयं भय भी भगवान से डरता
रहता है । सूतजी! परम विरक्त और परम शान्त मुनिजन भगवान के श्रीचरणों की शरण में
रहते हैं, अतएव उनके स्पर्ष मात्र से संसार के जीव तुरंन्त
पवित्र हो जाते हैं। इधर गंगाजी के जल का बहुत दिनों तक सेवन किया जाय, तब कहीं पवित्रता प्राप्त होती है । ऐसे पुण्यात्मा भक्त जिनकी लीलाओं का
गान करते रहते हैं, उन भगवान का कलिमलहारी पवित्र यश भला
आत्मशुद्धि की इच्छा वाला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो श्रवण न
करे । वे लीला से ही अवतार धारण करते हैं। नारदादि महात्माओं ने उनके उदार कर्मों
का गान किया है। हम श्रद्धालुओं के प्रति आप उनका वर्णन कीजिये । बुद्धिमान सूतजी!
सर्वसमर्थ प्रभु अपनी योगमाया से स्वच्छन्द लीला करते हैं। आप उन श्रीहरि की
मंगलमयी अवतार-कथाओं का अब वर्णन कीजिये । पुण्यकीर्ति भगवान की लीला सुनने से
हमें कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि रसज्ञ श्रोताओं को
पद-पद पर भगवान की लीलाओं में नये-नये रस का अनुभव होता है । भगवान श्रीकृष्ण अपने
को छिपाये हुए थे, लोगों के सामने ऐसी चेष्टा करते थे मानो
कोई मनुष्य हों। परन्तु उन्होंने बलरामजी के साथ ऐसी लीलाएँ भी की हैं, ऐसा पराक्रम भी प्रकट किया है, जो मनुष्य नहीं कर
सकते । कलियुग को आया जानकर इस वैष्णव क्षेत्र में हम दीर्घकालीन सत्र का संकल्प
करके बैठे हैं। श्रीहरि की कथा सुनने के लिये हमें अवकाश प्राप्त है । यह कलियुग
अन्तःकरण की पवित्रता और शक्ति का नाश करने वाला है। इससे पार पाना कठिन है। जैसे
समुद्र से पार जाने वालों को कर्णधार मिल जाय, उसी प्रकार
इससे पार पाने की इच्छा रखने वाले हम लोगों से ब्रम्हा ने आपको मिलाया है । धर्म
रक्षक, ब्राम्हण भक्त, योगेश्वर भगवान
श्रीकृष्ण के अपने धाम में पधार जाने पर धर्म ने अब किसकी शरण ली है—यह बताइये ।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाखाने प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
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