श्रीमद्भागवत माहात्म्यम् –
अध्याय १
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय १
स्कन्दपुराणम्/खण्डः २
(वैष्णवखण्डः)/भागवतमाहात्म्यम्/अध्यायः ०१
अथ श्रीमद्भागवतमाहात्म्यं
प्रारभ्यते ।।
।।ॐ गणेशाय नमः।।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।।
।। व्यास उवाच ।।
श्रीसच्चिदानन्दघनस्वरूपिणे कृष्णाय
चानन्तसुखाभिवर्षिणे ।।
विश्वोद्भवस्थाननिरोधहेतवे नुमो वयं
भक्तिरसाप्तयेऽनिशम् ।। १ ।।
नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम्
।।
कथामृतरसास्वादकुशला ऋषयोऽब्रुवन्
।। २ ।।
।। ऋषय ऊचुः ।। ।।
वज्रं श्रीमाथुरे देशे स्वपौत्रं
हस्तिनापुरे ।।
अभिषिच्य गते राज्ञि तौ कथं किं च
चक्रतुः ।। ३ ।।
।। सूत उवाच ।। ।।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव
नरोत्तमम् ।।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो
जयमुदीरयेत् ।। ४ ।।
महापथं गते राज्ञि
परीक्षित्पृथिवीपतिः ।।
जगाम मथुरां विप्रा
वज्रनाभदिदृक्षया ।। ५ ।।
पितृव्यमागतं ज्ञात्वा वज्रः
प्रेमपरिप्लुतः ।।
अभिगम्याभिवाद्याथ निनाय
निजमन्दिरम् ।। ६ ।।
परिष्वज्य स तं वीरः कृष्णैकगतमानसः
।।
रोहिण्याद्या हरेः
पत्नीर्ववन्दायतनागतः ।। ७ ।।
ताभिः सम्मानितोऽत्यर्थं
परीक्षित्पृथिवीपतिः ।।
विश्रान्तः सुखमासीनो वज्रनाभमुवाच
ह ।। ८ ।।
।। श्रीपरीक्षिदुवाच ।। ।।
तात
त्वत्पितृभिर्नूनमस्मत्पितृपितामहाः ।।
उद्धृता भूरिदुःखौघादहं च
परिरक्षितः ।। ९ ।।
न पारयाम्यहं तात साधु
कृत्वोपकारतः।।
त्वामतः प्रार्थयाम्यङ्ग सुखं
राज्येऽनुयुज्यताम् ।। 2.6.1.१० ।।
कोशसैन्यादिजा चिन्ता तथारिदमनादिजा
।।
मनागपि न कार्या ते सुसेव्याः
किन्तु मातरः ।। ११ ।।
निवेद्य मयि कर्तव्यं
सर्वाधिपरिवर्ज्जनम् ।।
श्रुत्वैतत्परमप्रीतो वज्रस्तं
प्रत्युवाच ह ।। १२ ।।
।। श्रीवज्रनाभ उवाच ।। ।।
राजन्नुचितमेतत्ते यदस्मासु
प्रभाषते ।।
त्वत्पित्रोपकृतश्चाहं
धनुर्विद्याप्रदानतः ।। १३ ।।
तस्मान्नाल्पापि मे चिन्ता क्षात्रं
दृढमुपेयुषः ।।
किन्त्वेका परमा चिन्ता तत्र
किञ्चिद्विचार्य्यताम् ।। १४ ।।
माथुरे त्वभिषिक्तोऽपि स्थितोऽहं
निर्जने वने ।।
क्व गता वै प्रजाऽत्रत्या यत्र
राज्यं प्ररोचते ।। १५ ।।
इत्युक्तो विष्णुरातस्तु नन्दादीनां
पुरोहितम् ।।
शांडिल्यमाजुहावाशु
वज्रसंदेहनुत्तये ।। १६ ।।
अथोटजं विहायाशु शांडिल्यः समुपागतः
।।
पूजितो वज्रनाभेन निषसादासनोत्तमे
।। १७ ।।
उपोद्घातं विष्णुरातश्चकाराशु
ततस्त्वसौ ।।
उवाच परमप्रीतस्तावुभौ
परिसान्त्वयन् ।। १८ ।।
।। श्रीशांडिल्य उवाच ।। ।।
शृणुतं दत्तचित्तौ मे रहस्यं
व्रजभूमिजम् ।।
व्रजनं व्याप्तिरित्युक्त्या
व्यापनाद्व्रज उच्यते ।। १९ ।।
गुणातीतं परं ब्रह्म व्यापकं व्रज
उच्यते ।।
सदानन्दं परं ज्योतिर्मुक्तानां
पदमव्ययम् ।। 2.6.1.२० ।।
तस्मिन्नन्दात्मजः कृष्णः
सदानन्दांगविग्रहः ।।
आत्मारामश्चाप्तकामः
प्रेमाक्तैरनुभूयते ।। २१ ।।
आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ
।।
आत्मारामतया प्राज्ञैः प्रोच्यते
गूढवेदिभिः ।। २२ ।।
कामास्तु वाञ्छितास्तस्य गावो
गोपाश्च गोपिकाः ।।
नित्याः सर्वे विहाराद्या
आप्तकामस्ततस्त्वयम् ।। २३ ।।
रहस्यं त्विदमेतस्य प्रकृतेः परमुच्यते
।।
प्रकृत्या खेलतस्तस्य लीलाऽन्यैरनुभूयते ।। २४ ।।
सर्गस्थित्यप्यया यत्र
रजःसत्त्वतमोगुणैः ।।
लीलैवं द्विविधा तस्य वास्तवी
व्यावहारिकी ।। २५ ।।
वास्तवी तत्स्वसंवेद्या जीवानां
व्यावहारिकी ।।
आद्यां विना द्वितीया न द्वितीया
नाद्यगा क्वचित् ।। २६ ।।
आवयोर्गोचरेयं तु तल्लीला
व्यावहारिकी ।।
यत्र भूरादयो लोका भुवि
माथुरमण्डलम् ।। २७ ।।
अत्रैव व्रजभूमिः सा यत्र तत्त्वं
सुगोपितम् ।।
भासते प्रेमपूर्णानां कदाचिदपि
सर्वतः ।। ।। २८ ।।
कदाचिद्द्वापरस्यान्ते
रहोलीलाधिकारिणः ।।
समवेता यदाऽत्र स्युर्यथेदानीं तदा हरिः
।। २९ ।।
स्वैः सहावतरेत्स्वेषु
समावेशार्थमीप्सिताः ।।
तदा देवादयोऽप्यन्येऽवतरन्ति
समन्ततः ।। 2.6.1.३० ।।
सर्वेषां वाञ्छितं कृत्वा
हरिरन्तर्हितोऽभवत् ।।
तेनात्र त्रिविधा लोकाः स्थिताः
पूर्वं न संशयः ।। ३१ ।।
नित्यास्तल्लिप्सवश्चैव
देवाद्याश्चेति भेदतः ।।
देवाद्यास्तेषु कृष्णेन द्वारिकां
प्रापिताः पुरा ।। ३२ ।।
पुनर्मौशलमार्गेण स्वाधिकारेषु
चापिताः ।।
तल्लिप्सूंश्च सदा कृष्णः
प्रेमानन्दैकरूपिणः ।। ३३ ।।
विधाय स्वीयनित्येषु
समावेशितवांस्तदा ।।
नित्याः सर्वेऽप्ययोग्येषु
दर्शनाभावतां गताः ।। ३४ ।।
व्यावहारिकलीलास्थास्तत्र
यन्नाधिकारिणः ।।
पश्यन्त्यत्रागतास्तस्मान्निर्ज्जनत्वं
समन्ततः ।। ३५ ।।
तस्माच्चिन्ता न ते कार्या वज्रनाभ
मदाज्ञया ।।
वासयात्र बहून्ग्रामान्संसिद्धिस्ते
भविष्यति ।। ३६ ।।
कृष्णलीलानुसारेण कृत्वा नामानि
सर्वतः ।।
त्वया वासय ता ग्रामान्संसेव्या
भूरियं परा ।। ३७ ।।
गोवर्द्धने दीर्घपुरे मथुरायां
महावने ।।
नन्दिग्रामे बृहत्सानौ कार्या
राज्यस्थितिस्त्वया ।। ३८ ।।
नद्यद्रिद्रोणिकुण्डादिकुञ्जान्संसेवतस्तव
।।
राज्ये प्रजाः सुसंपन्नास्त्वं च
प्रीतो भविष्यसि ।। ३९ ।।
सच्चिदानन्दभूरेषा त्वया सेव्या प्रयत्नतः
।।
तव कृष्णस्थलान्यत्र स्फुरन्तु
मदनुग्रहात् ।। 2.6.1.४० ।।
वज्र संसेवनादस्या उद्धवस्त्वां
मिलिष्यति ।।
ततो रहस्यमेतस्मात्प्राप्स्यसि त्वं
समातृकः ।।४१।।
एवमुक्त्वा तु शाण्डिल्यो गतः
कृष्णमनुस्मरन् ।।
विष्णुरातोऽथ वज्रश्च परां
प्रीतिमवापतुः ।। ४२ ।।
इति श्रीस्कान्दे महापुराण
एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये
शाडिल्योपदिष्टव्रजभूमिमाहात्म्यवर्णनंनाम प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् –
अध्याय १ भावार्थ
पहला अध्याय
महर्षि व्यास कहते हैं —
जिनका स्वरूप है सच्चिदानन्दघन, जो अपने
सौन्दर्य और माधुर्यादि गुणों से सबका मन अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं और
सदा-सर्वदा अनन्त सुख की वर्षा करते रहते हैं, जिनकी ही
शक्ति से इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं —
उन भगवान् श्रीकृष्ण को हम भक्तिरस का आस्वादन करने के लिये
नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं ॥ १ ॥
नैमिषारण्यक्षेत्र में श्रीसूतजी
स्वस्थ चित्त से अपने आसन पर बैठे हुए थे । उस समय भगवान् की अमृतमय लीलाकथा के
रसिक,
उसके रसास्वादन में अत्यन्त कुशल शौनकादि ऋषियों ने सूतजी को प्रणाम
करके उनसे यह प्रश्न किया ॥ २ ॥
ऋषियों ने पूछा —
सूतजी ! धर्मराज युधिष्ठिर जब श्रीमथुरामण्डल में अनिरुनन्दन वज्र
का और हस्तिनापुर में अपने पौत्र परीक्षित् का राज्याभिषेक करके हिमालय पर चले गये,
तब राजा वज्र और परीक्षित् ने कैसे-कैसे कौन-कौन-सा कार्य किया ॥ ३
॥
सूतजी ने कहा —
भगवान् नारायण, नरोत्तम नर, देवी सरस्वती और महर्षि व्यास को नमस्कार करके शुद्धचित्त होकर भगवतत्त्व
को प्रकाशित करनेवाले इतिहासपुराणरूप ‘जय’ का उच्चारण करना चाहिये ॥ ४ ॥
शौनकादि ब्रह्मर्षियो ! जब धर्मराज
युधिष्ठिर आदि पाण्डवगण स्वर्गारोहण के लिये हिमालय चले गये,
तब सम्राट् परीक्षित् एक दिन मथुरा गये । उनकी इस यात्रा का
उद्देश्य इतना ही था कि वहाँ चलकर वज्रनाभ से मिल-जुल आयें ॥ ५ ॥
जब वज्रनाभ को यह समाचार मालूम हुआ
कि मेरे पितातुल्य परीक्षित् मुझसे मिलने के लिये आ रहे हैं,
तब उनका हृदय प्रेम से भर गया । उन्होंने नगर से आगे बढ़कर उनकी
अगवानी की, चरणों में प्रणाम किया और बड़े प्रेम से उन्हें
अपने महल में ले आये ॥ ६ ॥
वीर परीक्षित् भगवान् श्रीकृष्ण परम
प्रेमी भक्त थे । उनका मन नित्य-निरन्तर आनन्दघन श्रीकृष्णचन्द्र में ही रमता रहता
था । उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ का बड़े प्रेम से आलिङ्गन
किया । इसके बाद अन्तःपुर में जाकर भगवान् श्रीकृष्ण की रोहिणी आदि पत्नियों को
नमस्कार किया ॥ ७ ॥
रोहिणी आदि श्रीकृष्ण-पत्नियों ने
भी सम्राट् परीक्षित् का अत्यन्त सम्मान किया । वे विश्राम करके जब आराम से बैठ
गये,
तब उन्होंने वज्रनाभ से यह बात कही ॥ ८ ॥
राजा परीक्षित् ने कहा —
‘हे तात ! तुम्हारे पिता और पितामहों ने मेरे पिता-पितामह को
बड़े-बड़े सङ्कटों से बचाया हैं । मेरी रक्षा भी उन्होंने ही की है ॥ ९ ॥
प्रिय वज्रनाभ ! यदि मैं उनके
उपकारों का बदला चुकाना चाहूँ तो किसी प्रकार नहीं चुका सकता । इसलिये मैं तुमसे
प्रार्थना करता हूँ कि तुम सुखपूर्वक अपने राजकाज में लगे रहो ॥ १० ॥
तुम्हें अपने खजाने की,
सेना की तथा शत्रुओं को दबाने आदि की तनिक भी चिन्ता न करनी चाहिये
। तुम्हारे लिये कोई कर्तव्य है तो केवल एक ही; वह यह कि
तुम्हें अपनी इन माताओं की खूब प्रेम से भली-भाँति सेवा करते रहना चाहिये ॥ १५ ॥
यदि कभी तुम्हारे ऊपर कोई
आपत्ति-विपत्ति आये अथवा किसी कारणवश तुम्हारे हृदय में अधिक क्लेश का अनुभव हो,
तो मुझसे बताकर निश्चित हो जाना; मैं तुम्हारी
सारी चिन्ताएँ दूर कर दूँगा ।’ सम्राट् परीक्षित् की यह बात
सुनकर वज्रनाभ को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने राजा परीक्षित् से कहा — ॥ १२ ॥
वज्रनाभ ने कहा —
‘महाराज! आप मुझसे जो कुछ कह रहे हैं, वह
सर्वथा आपके अनुरूप हैं । आपके पिता ने भी मुझे धनुर्वेद की शिक्षा देकर मेरा
महान् उपकार किया है ॥ १३ ॥
इसलिये मुझे किसी बात की तनिक भी
चिन्ता नहीं है, क्योंकि उनकी कृपा से मैं
क्षत्रियोचित शूरवीरता से भली-भाँति सम्पन्न हूँ । मुझे केवल एक बात की बहुत बड़ी
चिन्ता है, आप उसके सम्बन्ध में कुछ विचार कीजिये ॥ १४ ॥
यद्यपि मैं मथुरामण्डल के राज्य पर
अभिषिक्त हूँ, तथापि मैं यहाँ निर्जन वन में
ही रहता हूँ । इस बात का मुझे कुछ भी पता नहीं है कि यहाँ की प्रजा कहाँ चली गयी;
क्योंकि राज्य का सुख तो तभी हैं, जब प्रजा
रहे ॥ १५ ॥
जब वज्रनाभ ने परीक्षित् से यह बात
कही,
तब उन्होंने वज्रनाभ का सन्देह मिटाने के लिये महर्षि शाण्डिल्य को
बुलवाया । ये ही महर्षि शाण्डिल्य पहले नन्द आदि गोपों के पुरोहित थे ॥ १६ ॥
परीक्षित् का सन्देश पाते ही महर्षि
शाण्डिल्य अपनी कुटी छोड़कर वहाँ आ पहुँचे । वज्रनाभ ने विधिपूर्वक उनका
स्वागत-सत्कार किया और वे एक ऊँचे आसन पर विराजमान हुए ॥ १७ ॥
राजा परीक्षित् ने वज्रनाभ की बात उन्हें कह सुनायी । इसके बाद महर्षि शाण्डिल्य बड़ी प्रसन्नता से उनको सान्त्वना देते हुए कहने लगे —॥ १८ ॥
शाण्डिल्यजी ने कहा —
‘प्रिय परीक्षित् और वज्रनाभ ! मैं तुमलोगों से व्रजभूमि का रहस्य
बतलाता हूँ । तुम दत्तचित होकर सुनो । ‘व्रज’ शब्द का अर्थ है व्याप्ति । इस वृद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण ही
इस भूमि का नाम ‘व्रज’ पड़ा है ॥ १९ ॥
सत्त्व,
रज, तम — इन तीन गुणों
से अतीत जो परब्रह्म है, वही व्यापक हैं । इसलिये उसे ‘व्रज’ कहते हैं । वह सदानन्दस्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी हैं । जीवन्मुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं
॥ २० ॥
इस परब्रह्मस्वरूप व्रजधाम में
नन्दनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण का निवास है । उनका एक-एक अंग सच्चिदानन्दस्वरूप हैं ।
वे आत्माराम और आप्तकाम है । प्रेमरस में डूबे हुए रसिकजन ही उनका अनुभव करते हैं
॥ २१ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण की आत्मा हैं —
राधिका; उनसे रमण करने के कारण ही रहस्य-रस के
मर्मज्ञ ज्ञानी पुरूष उन्हें ‘आत्माराम’ कहते हैं ॥ २२ ॥
‘काम’ शब्द
का अर्थ है कामना — अभिलाषा । व्रज में भगवान् श्रीकृष्ण के
वाञ्छित पदार्थ हैं — गौएँ, ग्वालबाल,
गोपियाँ और उनके साथ लीला-विहार आदि; वे
सब-के-सब यहाँ नित्य प्राप्त हैं । इसी से श्रीकृष्ण को ‘आप्तकाम’
कहा गया हैं ॥ २३ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण की यह रहस्य-लीला
प्रकृति से परे हैं । वे जिस समय प्रकृति के साथ खेलने लगते हैं,
उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीला का अनुभव करते हैं ॥ २४ ॥
प्रकृति के साथ होनेवाली लीला में
ही रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के द्वारा
सृष्टि, स्थिति और प्रलय की प्रतीति होती है । इस प्रकार यह
निश्चय होता है कि भगवान् की लीला दो प्रकार की है — एक
वास्तवी और दूसरी व्यावहारिकी ॥ २५ ॥
वास्तवी लीला स्वसंवेद्य है —
उसे स्वयं भगवान् और उनके रसिक भक्तजन ही जानते हैं । जीवों के
सामने जो लीला होती हैं, वह व्यावहारिकी लीला हैं । वास्तवी
लीला के बिना व्यावहारिकी लीला नहीं हो सकती; परन्तु
व्यावहारिकी लीला का वास्तविक लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता ॥ २६ ॥
तुम दोनों भगवान् की जिस लीला को
देख रहे हो, यह व्यावहारिकी लीला है । यह
पृथ्वी और स्वर्ग आदि लोक इसी लीला के अन्तर्गत हैं । इसी पृथ्वी पर यह मथुरामण्डल
है ॥ २५ ॥
यही वह व्रजभूमि हैं,
जिसमें भगवान् की वह वास्तवी रहस्य-लीला गुप्तरूप से होती रहती हैं
। वह कभी-कभी प्रेमपूर्ण हृदयवाले रसिक भक्तों को सब ओर दीखने लगती हैं ॥ २८ ॥
कभी अट्ठाईसवें द्वापर के अन्त में
जब भगवान् की रहस्य-लीला के अधिकारी भक्तजन यहाँ एकत्र होते हैं,
जैसा कि इस समय भी कुछ काल पहले हुए थे, उस
समय भगवान् अपने अन्तरङ्ग प्रेमियों के साथ अवतार लेते हैं । उनके अवतार का यह
प्रयोजन होता हैं कि रहस्य-लीला के अधिकारी भक्तजन भी अन्तरङ्ग परिकरों के साथ
सम्मिलित होकर लीला-रस का आस्वादन कर सकें । इस प्रकार जब भगवान् अवतार ग्रहण करते
हैं, उस समय भगवान् के अभिमत प्रेमी देवता और ऋषि आदि भी सब
ओर अवतार लेते हैं ॥ २१-३० ॥
अभी-अभी जो अवतार हुआ था,
उसमें भगवान् अपने सभी प्रेमियों की अभिलाषाएँ पूर्ण करके अब
अन्तर्धान हो चुके हैं । इससे यह निश्चय हुआ कि यहाँ पहले तीन प्रकार के भक्तजन
उपस्थित थे । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३१ ॥
उन तीनों में प्रथम तो उनकी श्रेणी
है,
जो भगवान् के नित्य ‘अन्तरङ्ग’ पार्षद हैं — जिनको भगवान् से कभी वियोग होता ही
नहीं । दूसरे वे हैं, जो एकमात्र भगवान् को पाने की इच्छा
रखते हैं — उनकी अन्तरङ्गलीला में अपना प्रवेश चाहते हैं ।
तीसरी श्रेणी में देवता आदि हैं । इनमें से जो देवता आदि के अंश से अवतीर्ण हुए थे,
उन्हें भगवान् ने व्रजभूमि से हटाकर पहले ही द्वारका पहुँचा दिया था
॥ ३२ ॥
फिर भगवान् ने ब्राह्मण के शाप से
उत्पन्न मूसल को निमित्त बनाकर यदुकुल में अवतीर्ण देवताओं को स्वर्ग में भेज दिया
और पुनः अपने-अपने अधिकार पर स्थापित कर दिया तथा जिन्हें एकमात्र भगवान् को ही
पाने की इच्छा थी, उन्हें
प्रेमानन्दस्वरूप बनाकर श्रीकृष्ण ने सदा के लिये अपने नित्य अन्तरङ्ग पार्षदों
में सम्मिलित कर लिया । जो नित्य पार्षद हैं, वे यद्यपि यहाँ
गुप्तरूप से होनेवाली नित्यलीला में सदा ही रहते हैं, परन्तु
जो उनके दर्शन के अधिकारी नहीं हैं, ऐसे पुरुषों के लिये वे
भी अदृश्य हो गये हैं ॥ ३३-३४ ॥
जो लोग व्यावहारिक लीला में स्थित
हैं,
वे नित्यलीला का दर्शन पाने के अधिकारी नहीं हैं, इसलिये यहाँ आनेवालों को सब ओर निर्जन वन — सूना-ही-सूना
दिखायी देता हैं; क्योंकि वे वास्तविक लीला में स्थित भक्तजन
को देख नहीं सकते ॥ ३५ ॥
इसलिये वज्रनाभ ! तुम्हें तनिक भी
चिन्ता नहीं करनी चाहिये । तुम मेरी आज्ञा से यहाँ बहुत-से गाँव बसाओ;
इससे निश्चय ही तुम्हारे मनोरथों की सिद्धि होगी ॥ ३६ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने जहाँ जैसी लीला
की है,
उसके अनुसार उस स्थान का नाम रखकर तुम अनेकों गाँव बसाओ और इस
प्रकार दिव्य व्रजभूमि का भली-भाँति सेवन करते रहो ॥ ३७ ॥
गोवर्धन,
दीर्घपुर (डीग), मथुरा, महावन
(गोकुल), नन्दिग्राम (नन्दगाँव) और बृहत्सानु (बरसाना) आदि
में तुम्हें अपने लिये छावनी बनवानी चाहिये ॥ ३८ ॥
उन-उन स्थानों में रहकर भगवान् की
लीला के स्थल नदी, पर्वत, घाटी, सरोवर और कुण्ड तथा कुञ्ज-वन आदि का सेवन करते
रहना चाहिये । ऐसा करने से तुम्हारे राज्य में प्रजा बहुत ही सम्पन्न होगी और तुम
भी अत्यन्त प्रसन्न रहोगे ॥ ३९ ॥
यह व्रजभूमि सच्चिदानन्दमयी है,
अतः तुम्हें प्रयत्नपूर्वक इस भूमि का सेवन करना चाहिये । मैं
आशीर्वाद देता हूँ, मेरी कृपा से भगवान् की लीला के जितने भी
स्थल हैं, सबकी तुम्हें ठीक-ठीक पहचान हो जायगी ॥ ४० ॥
वज्रनाभ ! इस व्रजभूमि का सेवन करते
रहने से तुम्हें किसी दिन उद्धवजी मिल जायेंगे । फिर तो अपनी माताओं सहित तुम
उन्हीं से इस भूमि का तथा भगवान् की लीला का रहस्य भी जान लोगे ॥ ४१ ॥
मुनिवर शाण्डिल्यजी उन दोनों को इस
प्रकार समझा-बुझाकर भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए अपने आश्रम पर चले गये ।
उनकी बातें सुनकर राजा परीक्षित् और वज्रनाभ दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए ॥ ४२ ॥
॥ श्रीस्कान्दे महापुराणे एकाशीतिसाहस्र्यां संहिताया द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये शाण्डिल्योपदिष्टव्रजभूमिमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥
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