श्रीमद्भागवत माहात्म्यम् – अध्याय २
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् का वर्णन स्कन्दपुराण खण्ड- २ (वैष्णवखण्ड)में किया गया है, जो की ४ अध्यायों में है। यहाँ इसका मूलपाठ तथा भावार्थ सहित दिया जा रहा है। श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय २ में यमुना और श्रीकृष्णपत्नियों का संवाद, कीर्तनोत्सव में उद्धवजी का प्रकट होना का वर्णन है।
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय २
स्कन्दपुराणम्/खण्डः २
(वैष्णवखण्डः)/भागवतमाहात्म्यम्/अध्यायः ०२
।।ॐ गणेशाय नमः।।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।।
।। श्रीऋषय ऊचुः ।। ।।
शांडिल्ये तौ समादिश्य परावृत्ते
स्वमाश्रमम् ।।
कि कथं चक्रतुस्तौ तु राजानौ सूत
तद्वद ।। १ ।। ।।
।। श्रीसूत उवाच ।।
ततस्तु विष्णुरातेन श्रेणीमुख्वाः
सहस्रशः ।।
इन्द्रप्रस्थात्समानाय्य
मथुरास्थानमापिताः ।। २ ।।
माथुरान्ब्राह्मणांस्तत्र वानरांश्च
पुरातनान् ।।
विज्ञाय माननीयत्वं तेषु
स्थापितवान्स्वरादट् ।। ३ ।।
वज्रस्तु तत्सहायेन
शाण्डिल्यस्याऽप्यनुग्रहात् ।।
गोविन्दगोपगोपीनां
लीलास्थानान्यनुक्रमात् ।। ४ ।।
विज्ञायाऽभिधयाऽऽस्थाप्य
ग्रामानावासयद्बहून् ।।
कुण्डकूपादिपूर्तेन शिवादिस्थापनेन
च ।। ५ ।।
गोविन्दहरिदेवादिस्वरूपाऽऽरोपणेन च
।।
कृष्णैकभक्तिं स्वे राज्यं ततान च
मुमोद ह ।। ६ ।।
प्रजास्तु मुदितास्तस्य
कृष्णकीर्तनतत्पराः।।
परमानन्दसम्पन्ना राज्यं तस्यैव
तुष्टुवुः ।। ७ ।।
एकदा कृष्णपत्न्यस्तु
श्रीकृष्णविरहातुराः ।।
कालिन्दीं मुदिता वीक्ष्य
पप्रच्छुर्गतमत्सराः ।। ८ ।।।।
।। श्रीकृष्णपत्न्य ऊचुः ।। ।।
यथा वयं कृष्णपत्न्यस्तथा त्वमपि
शोभने ।।
वयं विरहदुःखार्तास्त्वं न कालिन्दि
तद्वद ।। ९ ।।
तच्छ्रुत्वा स्मयमाना सा कालिन्दी
वाक्यमब्रवीत् ।।
सापत्न्यं वीक्ष्य तत्तासां
करुणापरमानसा ।। 2.6.2.१० ।। ।।
श्रीकालिन्द्युवाच ।। ।।
आत्मारामस्य कृष्णस्य
ध्रुवमात्मास्ति राधिका ।।
तस्या दास्यप्रभावेण विरहोऽस्मान्न
संस्पृशेत् ।। ११ ।।
तस्या एवांशविस्ताराः सर्वाः
श्रीकृष्णनायिकाः ।।
नित्यसंभोग एवास्ति तस्याः
साम्मुख्ययोगतः ।। १२ ।।
स एव सा स सैवास्ति वशी
तत्प्रेमरूपिका ।।
श्रीकृष्णनखचन्द्रालिसंगाच्चन्द्रावली
स्मृता ।। १३ ।।
रूपान्तरं च गृह्णाना तयोः
सेवातिलालसा ।।
रुक्मिण्यादिसमावेशो मयात्रैव
विलोकितः ।। १४ ।।
युष्माकमपि कृष्णेन विरहो नैव
सर्वतः ।।
किन्तु एवं न जानीथ
तस्माद्व्याकुलतामिताः ।। १५ ।।
एवमेवात्र गोपीनामक्रूरावसरे पुरा
।।
विरहाभास एवासीदुद्धवेन समाहितः ।।
१६ ।।
तेनैव भवतीनां चेद्भवेदत्र समागमः
।।
तर्हि नित्यं स्वकान्तेन विहारमपि
लप्स्यथ ।। १७ ।।
।। श्रीसूत उवाच ।। ।।
एवमुक्तास्तु ताः पत्न्यः प्रसन्नां
पुनरब्रुवन् ।।
उद्धवालोकनेनात्मप्रेष्ठसंगमलालसाः
।। १८ ।।
।। श्रीकृष्णपत्न्य ऊचुः ।। ।।
धन्यासि सखि कान्तेन यस्या नैवास्ति
विच्युतिः ।।
यतस्ते स्वार्थसंसिद्धिस्तस्या
दास्यो बभूविम ।। १९ ।।
परन्तूद्धवलाभे
स्यादस्मत्सर्वार्थसाधनम् ।।
तथा वदस्व कालिन्दि तल्लाभोऽपि यथा
भवेत् ।। 2.6.2.२० ।।
।। श्रीसूत उवाच ।। ।।
एवमुक्ता तु कालिन्दी प्रत्युवाचाथ
तास्तथा ।।
स्मरन्ती कृष्णचन्द्रस्य
कलाषोडशरूपिणी ।। २१ ।।
साधनभूमिर्बदरी व्रजता कृष्णेन
मंत्रिणे प्रोक्ता ।।
तत्रास्ते स तु साक्षात्तद्वयुनं
ग्राहयँल्लोकान् ।। २२ ।।
फलभूमिर्व्रजभूमिर्दत्ता तस्मै
पुरैव सरहस्यम् ।।
फलमिह तिरोहितं सत्तदिहेदानीं स
उद्धवोऽलक्ष्यः ।। २३ ।।
गोवर्द्धनगिरिनिकटे सखीस्थले
तद्रजःकामः ।।
तत्रत्याङ्कुरवल्लीरूपेणास्ते स
उद्धवो नूनम् ।। २४ ।।
आत्मोत्सवरूपत्वं हरिणा तस्मै
समर्पितं नियतम् ।।
तस्मात्तत्र स्थित्वा
कुसुमसरःपरिसरे सवज्राभिः ।। २५ ।।
वीणावेणुमृदंगैः
कीर्तनकाव्यादिसरससंगीतैः ।।
उत्सव आरब्धव्यो हरिरतलोकान्समानाय्य
।। २६ ।।
तत्रोद्धवावलोको भविता नियतं
महोत्सवे वितते ।।
यौष्माकीणामभिमतसिद्धिं सविता स एव
सवितानाम् ।। २७ ।।
।। श्रीसूत उवाच ।। ।।
इति श्रुत्वा प्रसन्नास्ताः
कालिन्दीमभिवन्द्य तत् ।।
कथयामासुरागत्य वज्रं प्रति
परीक्षितम् ।। २८ ।।
विष्णुरातस्तु तच्छ्रुत्वा
प्रसन्नस्तद्युतस्तदा ।।
तत्रैवागत्य तत्सर्वं कारयामास
सत्वरम् ।। २९ ।।
गोवर्धनाददूरेण वृन्दारण्ये
सखीस्थले ।।
प्रवृत्तः कुसुमाम्भोधौ
कृष्णसंकीर्तनोत्सवः ।। 2.6.2.३० ।।
वृषभानुसुताकान्तविहारे
कीर्तनश्रिया ।।
साक्षादिव समावृत्ते सर्वेऽनन्यदृशोऽभवन्
।। ३१ ।।
ततः पश्यत्सु सर्वेषु
तृणगुल्मलताचयात् ।।
आजगामोद्धवः स्रग्वी श्यामः
पीताम्बरावृतः ।। ३२ ।।
गुञ्जामालाधरो गायन्बल्लवीवल्लभं
मुहुः ।।
तदागमनतो रेजे भृशं संकीर्तनोत्सवः
।। ३३ ।।
चन्द्रिकागमतो
यद्वत्स्फाटिकाट्टालभूमणिः ।।
अथ सर्वे सुखाम्भोधौ मग्नाः सर्वं
विसस्मरुः ।। ३४ ।।
क्षणेनागतविज्ञाना दृष्ट्वा
श्रीकृष्णरूपिणम् ।।
उद्धवं पूजयांचक्रुः
प्रतिलब्धमनोरथाः ।। ३५ ।।
इति श्रीस्कांदे महापुराण
एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये
गोवर्द्धनपर्वतसमीपे परीक्षिदादीनामुद्धवदर्शनवर्णनोनाम द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् –
अध्याय २ भावार्थ
दूसरा अध्याय
ऋषियों ने पूछा —
सूतजी ! अब यह बतलाइये कि परीक्षित् और वज्रनाभ को इस प्रकार आदेश
देकर जब शाण्डिल्य मुनि अपने आश्रम को लौट गये, तब उन दोनों
राजाओं ने कैसे-कैसे और कौन-कौन-सा काम किया ? ॥ १ ॥
सूतजी कहने लगे —
तदनन्तर महाराज परीक्षित् ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से हजारों
बड़े-बड़े सेठों को बुलवाकर मथुरा में रहने की जगह दी ॥ २ ॥
इनके अतिरिक्त सम्राट् परीक्षित् ने
मथुरामण्डल के ब्राह्मणों तथा प्राचीन वानरों को, जो भगवान् के बड़े ही प्रेमी थे, बुलवाया और उन्हें
आदर के योग्य समझकर मथुरानगरी में बसाया ॥ ३ ॥
इस प्रकार राजा परीक्षित् की सहायता
और महर्षि शाण्डिल्य की कृपा से वज्रनाभ ने क्रमशः उन सभी स्थानों की खोज की,
जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अपने प्रेमी गोप-गोपियों के साथ नाना प्रकार
की लीलाएँ करते थे । लीलास्थानों का ठीक-ठीक निश्चय हो जाने पर उन्होंने वहाँ-वहाँ
की लीला के अनुसार उस-उस स्थान का नामकरण किया, भगवान् के लीला-विग्रहों
की स्थापना की तथा उन-उन स्थानों पर अनेकों गाँव बसाये । स्थान-स्थान पर भगवान् के
नाम से कुण्ड और कुएँ खुदवाये । कुञ्ज और बगीचे लगवाये, शिव
आदि देवताओं की स्थापना की ॥ ४-५ ॥
गोविन्ददेव,
हरिदेव आदि नामों से भवद्विग्रह स्थापित किये । इन सब शुभ कर्मों के
द्वारा वज्रनाभ ने अपने राज्य में सब ओर एकमात्र श्रीकृष्ण-भक्ति का प्रचार किया
और बड़े ही आनन्दित हुए ॥ ६ ॥
उनके प्रजाजन को भी बड़ा आनन्द था,
वे सदा भगवान् के मधुर नाम तथा लीलाओं के कीर्तन में संलग्न हो
परमानन्द के समुद्र में डूबे रहते थे और सदा ही वज्रनाभ के राज्य की प्रशंसा किया
करते थे ॥ ७ ॥
एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण की
विरह-वेदना से व्याकुल सोलह हजार रानियाँ अपने प्रियतम पतिदेव की चतुर्थ पटरानी
कालिन्दी (यमुनाजी) को आनन्दित देखकर सरलभाव से उनसे पूछने लगीं । उनके मन में
सौतियाडाह लेशमात्र भी नहीं था ॥ ८ ॥
श्रीकृष्ण की रानियों ने कहा —
‘बहिन कालिन्दी ! जैसे हम सब श्रीकृष्ण की धर्मपत्नी है, वैसे ही तुम भी तो हो । हम तो उनकी विरहाग्नि में जली जा रही हैं, उनके वियोग-दुःख से हमारा हृदय व्यथित हो रहा है; किन्तु
तुम्हारी यह स्थिति नहीं है, तुम प्रसन्न हों । इसका क्या
कारण है ? कल्याणी ! कुछ बताओ तो सही’ ॥
९ ॥
उनका प्रश्न सुनकर यमुनाजी हँस पड़ी
। साथ ही यह सोचकर कि मेरे प्रियतम की पत्नी होने के कारण ये भी मेरी ही बहिनें
हैं,
पिघल गयीं; उनका हृदय दया से द्रवित हो उठा ।
अतः वे इस प्रकार कहने लगीं ॥ १० ॥
यमुनाजी ने कहा —
‘अपनी आत्मा में ही रमण करने के कारण भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं
और उनकी आत्मा हैं — श्रीराधाजी ! मैं दासी की भाँति राधाजी
की सेवा करती रहती हूँ, उनकी सेवा का ही यह प्रभाव है कि
विरह हमारा स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ११ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण की जितनी भी
रानियां हैं, सब-की-सब श्रीराधाजी के ही अंश
का विस्तार हैं । भगवान् श्रीकृष्ण और राधा सदा एक-दुसरे के सम्मुख हैं, उनका परस्पर नित्यसंयोग हैं, इसलिये राधा के स्वरूप
में अंशतः विद्यमान जो श्रीकृष्ण की अन्य रानियाँ हैं, उनको
भी भगवान् का नित्य-संयोग प्राप्त हैं ॥ १२ ॥
श्रीकृष्ण ही राधा हैं और राधा ही
श्रीकृष्ण हैं । उन दोनों का प्रेम ही वंशी है तथा राधा की प्यारी सखी चन्द्रावली
भी श्रीकृष्ण-चरणों के नखरूपी चन्द्रमा की सेवा में आसक्त रहने के कारण ही ‘चन्द्रावली’ नाम से कही जाती हैं ॥ १३ ॥
श्रीराधा और श्रीकृष्ण की सेवा में
उसकी बड़ी लालसा, बड़ी लगन है;
इसीलिये वह कोई दूसरा स्वरूप धारण नहीं करती । मैंने यहाँ श्रीराधा
में ही रुक्मिणी आदि का समावेश देखा हैं ॥ १४ ॥
तुमलोगों को भी सर्वांश में
श्रीकृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है, किन्तु
तुम इस रहस्य को इस रूप में जानती नहीं हो, इसीलिये इतनी
व्याकुल हो रही हो ॥ १५ ॥
इसी प्रकार पहले भी जब अक्रूर
श्रीकृष्ण को नन्दगाँव से मथुरा में ले आये थे, उस
अवसर पर जो गोपियों को श्रीकृष्ण से विरह की प्रतीति हुई थी, वह भी वास्तविक विरह नहीं, केवल विरह का आभास था ।
इस बात को जब तक वे नहीं जानती थीं, तब तक उन्हें बड़ा कष्ट
था; फिर जब उद्धवजी ने आकर उनका समाधान किया, तब मैं इस बात को समझ सकी ॥ १६ ॥
यदि तुम्हें भी उद्धवजी का सत्संग
प्राप्त हो जाय तो तुम सब भी अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्यविहार का सुख
प्राप्त कर लोगी ॥ १७ ॥
सूतजी कहते हैं —
ऋषिगण ! जब उन्होंने इस प्रकार समझाया, तब
श्रीकृष्ण की पत्नियाँ सदा प्रसन्न रहनेवाली यमुनाजी से पुनः बोलीं । उस समय उनके
हृदय में इस बात की बड़ी लालसा थीं कि किसी उपाय से उद्धवजी का दर्शन हों, जिससे हमें अपने प्रियतम के नित्य-संयोग का सौभाग्य प्राप्त हो सके ॥ १८ ॥
श्रीकृष्णपत्नियों ने कहा —
सखी ! तुम्हारा ही जीवन धन्य हैं; क्योंकि
तुम्हें कभी भी अपने प्राणनाथ के वियोग का दुःख नहीं भोगना पड़ता । जिन
श्रीराधिकाजी की कृपा से तुम्हारे अभीष्ट अर्थ की सिद्धि हुई है, उनकी अब हमलोग भी दासी हुई ॥ १९ ॥
किन्तु तुम अभी कह चुकी हो कि
उद्धवजी के मिलने पर ही हमारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे;
इसलिये कालिन्दी ! अब ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे
उद्धवजी भी शीघ्र ही मिल जायें ॥ २० ॥
सूतजी कहते हैं —
श्रीकृष्ण की रानियों ने जब यमुनाजी से इस प्रकार कहा, तब वे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सोलह कलाओं का चिन्तन करती हुई उनसे कहने
लगीं — ॥ २१ ॥
“जब भगवान् श्रीकृष्ण अपने परमधाम
को पधारने लगे, तब उन्होंने अपने मन्त्री उद्धव से कहा —
‘उद्धव ! साधना करने की भूमि हैं — बदरिकाश्रम,
अतः अपनी साधना पूर्ण करने के लिये तुम वहीं जाओ ।’ भगवान् की इस आज्ञा के अनुसार उद्धवजी इस समय अपने साक्षात् स्वरूप से
बदरिकाश्रम में विराजमान हैं और वहाँ जानेवाले जिज्ञासुलोगों को भगवान् के बताये
हुए ज्ञान का उपदेश करते रहते हैं ॥ २२ ॥
साधन की फलरूपा भूमि हैं —
व्रजभूमि; इसे भी इसके रहस्योंसहित भगवान् ने
पहले ही उद्भव को दे दिया था । किन्तु वह फलभूमि यहाँ से भगवान् के अन्तर्धान होने
के साथ ही स्थूल दृष्टि से परे जा चुकी है । इसीलिये इस समय यहाँ उद्धव प्रत्यक्ष
दिखायी नहीं पड़ते ॥ २३ ॥
फिर भी एक स्थान है,
जहाँ उद्धवजी का दर्शन हो सकता है । गोवर्धन पर्वत के निकट भगवान्
की लीला-सहचरी गोपियों की विहार-स्थली हैं; वहाँ की लता,
अङ्कुर और बेलों के रूप में अवश्य ही उद्धवजी वहाँ निवास करते हैं ।
लताओं के रूप में उनके रहने का यही उद्देश्य है कि भगवान् की प्रियतमा गोपियों की
चरण-रज उन पर पड़ती रहे ॥ २४ ॥
उद्धवजी के सम्बन्ध में एक निश्चित
बात यह भी है कि उन्हें भगवान् अपना उत्सव-स्वरूप प्रदान किया है । भगवान् का
उत्सव उद्धवजी का अंग है, वे उससे अलग नहीं
रह सकते; इसलिये अब तुम लोग वज्रनाभ को साथ लेकर वहाँ जाओ और
कुसुम-सरोवर के पास ठहरो ॥ २५ ॥
भगवद्भक्तों की मण्डली एकत्र करके
वीणा,
वेणु और मृदङ्ग आदि बाजों के साथ भगवान् के नाम और लीला के कीर्तन,
भगवत्सम्बन्धी काव्य-कथाओं के श्रवण तथा भगवद्गुणगान से युक्त सरस
संगीतों द्वारा महान् उत्सव आरम्भ करो ॥ २६ ॥
इस प्रकार जब उस महान् उत्सव का
विस्तार होगा, तब निश्चय है कि वहाँ उद्धवजी
का दर्शन मिलेगा वे ही भली-भांति तुम सब लोगों के मनोरथ पूर्ण करेंगे” ॥ २७ ॥
सूतजी कहते हैं —
‘यमुनाजी की बतायी हुई बातें सुनकर श्रीकृष्ण की रानियाँ बहुत
प्रसन्न हुई । उन्होंने यमुनाजी को प्रणाम किया और वहाँ से लौटकर वज्रनाभ तथा
परीक्षित् से वे सारी बातें कह सुनायीं ॥ २८ ॥
सब बातें सुनकर परीक्षित् को बड़ी
प्रसन्नता हुई और उन्होंने वज्रनाभ तथा श्रीकृष्णपत्नियों को उसी समय साथ ले उस
स्थान पर पहुँचकर तत्काल वह सब कार्य आरम्भ करवा दिया,
जो कि यमुनाजी ने बताया था ॥ २९ ॥
गोवर्धन के निकट वृन्दावन के भीतर
कुसुमसरोवर पर जो सखियों की विहारस्थली है, वहाँ
ही श्रीकृष्ण-कीर्तन का उत्सव आरम्भ हुआ ॥ ३० ॥
वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी तथा उनके
प्रियतम् श्रीकृष्ण की वह लीला-भूमि जब साक्षात् सङ्कीर्तन की शोभा से सम्पन्न हो
गयी,
उस समय वहाँ रहनेवाले सभी भक्तजन एकाग्र हो गये; उनकी दृष्टि उनके मन की वृत्ति कहीं अन्यत्र न जाती थी ॥ ३१ ॥
तदनन्तर सबके देखते-देखते वहाँ फैले
हुए तृण,
गुल्म और लताओं के समूह से प्रकट होकर श्रीउद्धवजी सबके सामने आये ।
उनका शरीर श्यामवर्ण था, उस पर पीताम्बर शोभा पा रहा था । वे
गले में वनमाला और गुंजा की माला धारण किये हुए थे तथा मुख से बारंबार गोपीवल्लभ
श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं का गान कर रहे थे । उद्धवजी के आगमन से उस
सङ्कीर्तनोत्सव की शोभा कई गुनी बढ़ गयी । जैसे स्फटिकमणि की बनी हुई अट्टालिका की
छत पर चाँदनी छिटकने से उसकी शोभा बहुत बढ़ जाती हैं । उस समय सभी लोग आनन्द के
समुद्र में निमग्न हो अपना सब कुछ भूल गये, सुध-बुध खो बैठे
॥ ३२-३४ ॥
थोड़ी देर बाद जब उनकी चेतना दिव्य
लोक से नीचे आयी, अर्थात् जब उन्हें
होश हुआ, तब उद्धवजी को भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप में
उपस्थित देख, अपना मनोरथ पूर्ण हो जाने के कारण प्रसन्न हों,
वे उनकी पूजा करने लगे ॥ ३५ ॥
॥ श्रीस्कान्दे महापुराणे
एकाशीतिसाहस्र्यां संहिताया द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये
गोवर्धनपर्वतसमीपे परीक्षितदादीनामुद्धव दर्शनवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥
आगे ............
No comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box