श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २५
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय २५ "पुरंजनोपाख्यान का प्रारम्भ"
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय २५
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४
अध्यायः २५
श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध पच्चीसवाँ
अध्याय
चतुर्थ
स्कन्ध: श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २५ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
मैत्रेय उवाच -
(अनुष्टुप्)
इति सन्दिश्य भगवान्
बार्हिषदैरभिपूजितः ।
पश्यतां राजपुत्राणां
तत्रैवान्तर्दधे हरः ॥ १ ॥
रुद्रगीतं भगवतः स्तोत्रं सर्वे
प्रचेतसः ।
जपन्तस्ते तपस्तेपुः वर्षाणां अयुतं
जले ॥ २ ॥
प्राचीनबर्हिषं क्षत्तः
कर्मस्वासक्तमानसम् ।
नारदोऽध्यात्मतत्त्वज्ञः कृपालुः
प्रत्यबोधयत् ॥ ३ ॥
श्रेयस्त्वं कतमद्राजन् कर्मणात्मन
ईहसे ।
दुःखहानिः सुखावाप्तिः
श्रेयस्तन्नेह चेष्यते ॥ ४ ॥
राजोवाच -
न जानामि महाभाग परं कर्मापविद्धधीः
।
ब्रूहि मे विमलं ज्ञानं येन मुच्येय
कर्मभिः ॥ ५ ॥
गृहेषु कूटधर्मेषु
पुत्रदारधनार्थधीः ।
न परं विन्दते मूढो भ्राम्यन्
संसारवर्त्मसु ॥ ॥ ६ ॥
नारद उवाच -
भो भोः प्रजापते राजन् पशून् पश्य
त्वयाध्वरे ।
संज्ञापिताञ्जीवसङ्घान् निर्घृणेन
सहस्रशः ॥ ७ ॥
एते त्वां सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन्तो
वैशसं तव ।
सम्परेतमयःकूटैः छिन्दति
उत्थितमन्यवः ॥ ८ ॥
अत्र ते कथयिष्येऽमुं इतिहासं पुरातनम्
।
पुरञ्जनस्य चरितं निबोध गदतो मम ॥ ९
॥
आसीत्पुरञ्जनो नाम राजा राजन्
बृहच्छ्रवाः ।
तस्याविज्ञातनामाऽऽसीत्
सखाविज्ञातचेष्टितः ॥ १० ॥
सोऽन्वेषमाणः शरणं बभ्राम पृथिवीं
प्रभुः ।
नानुरूपं यदाविन्दद् अभूत्स विमना
इव ॥ ११ ॥
न साधु मेने ताः सर्वा भूतले यावतीः
पुरः ।
कामान् कामयमानोऽसौ तस्य
तस्योपपत्तये ॥ १२ ॥
स एकदा हिमवतो दक्षिणेष्वथ सानुषु ।
ददर्श नवभिर्द्वार्भिः पुरं
लक्षितलक्षणाम् ॥ १३ ॥
प्राकारोपवनाट्टाल परिखैरक्षतोरणैः
।
स्वर्णरौप्यायसैः शृङ्गैः सङ्कुलां
सर्वतो गृहैः ॥ १४ ॥
नीलस्फटिकवैदूर्य मुक्तामरकतारुणैः
।
कॢप्तहर्म्यस्थलीं दीप्तां श्रिया
भोगवतीमिव ॥ १५ ॥
सभाचत्वर रथ्याभिः आक्रीडायतनापणैः
।
चैत्यध्वजपताकाभिः युक्तां
विद्रुमवेदिभिः ॥ १६ ॥
पुर्यास्तु बाह्योपवने
दिव्यद्रुमलताकुले ।
नदद् विहङ्गालिकुल कोलाहलजलाशये ॥
१७ ॥
हिमनिर्झरविप्रुष्मत् कुसुमाकरवायुना
।
चलत्प्रवालविटप नलिनीतटसम्पदि ॥ १८
॥
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! इस प्रकार भगवान् शंकर ने प्रचेताओं को उपदेश दिया। फिर
प्रचेताओं ने शंकर जी की बड़े भक्तिभाव से पूजा की। इसके पश्चात् वे उन राजकुमारों
के सामने ही अन्तर्धान हो गये। सब-के-सब प्रचेता जल में खड़े रहकर भगवान् रुद्र के
बताये स्तोत्र का जप करते हुए दस हजार वर्ष तक तपस्या करते रहे। इन दिनों राजा
प्राचीनबर्हि का चित्त कर्मकाण्ड में बहुत रम गया था। उन्हें
अध्यात्मविद्या-विशारद परम कृपालु नारद जी ने उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि ‘राजन्! इन कर्मों के द्वारा तुम अपना कौन-सा कल्याण करना चाहते हो?
दुःख के अत्यान्तिक नाश और पमानन्द की प्राप्ति का नाम कल्याण है;
वह तो कर्मों से नहीं मिलता।
राजा ने कहा ;-
महाभाग नारद जी! मेरी बुद्धि कर्म में फँसी हुई है, इसलिये मुझे परम कल्याण का कोई पता नहीं है। आप मुझे विशुद्ध ज्ञान का
उपदेश दीजिये, जिससे मैं कर्मबन्धन से छूट जाऊँ। जो पुरुष
कपटधर्ममय गृहस्थाश्रम में ही रहता हुआ पुत्र, स्त्री और धन
को ही परम पुरुषार्थ मानता है, वह अज्ञानवश संसारारण्य में
ही भटकता रहने के कारण उस परम कल्याण को प्राप्त नहीं कर सकता।
श्रीनारद जी ने कहा ;-
देखो, देखो, राजन्!
तुमने यज्ञ में निर्दयतापूर्वक जिन हजारों पशुओं की बलि दी है- उन्हें आकाश में
देखो। ये सब तुम्हारे द्वारा प्राप्त हुई पीड़ाओं को याद करते हुए बदला लेने के
लिये तुम्हारी बाट देख रहे हैं। जब तुम मरकर परलोक में जाओगे, तब ये अत्यन्त क्रोध में भरकर तुम्हें अपने लोहे के-से सींगों से छेदेंगे।
अच्छा, इस विषय में मैं तुम्हें एक प्राचीन उपाख्यान सुनाता
हूँ। वह राजा पुरंजन का चरित्र है, उसे तुम मुझसे सावधान
होकर सुनो।
राजन्! पूर्वकाल में पुरंजन नाम का
एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका अविज्ञात नामक एक मित्र था। कोई भी उसकी चेष्टाओं को
समझ नहीं सकता था। राजा पुरंजन अपने रहने योग्य स्थान की खोज में सारी पृथ्वी में
घूमा;
फिर भी जब उसे कोई अनुरूप स्थान न मिला, तब वह
कुछ उदास-सा हो गया। उसे तरह-तरह के भोगों की लालसा थी; उन्हें
भोगने के लिये उसने संसार में जितने नगर देखे, उनमें से कोई
भी उसे ठीक न जँचा।
एक दिन उसने हिमालय के दक्षिण
तटवर्ती शिखरों पर कर्मभूमि भारतखण्ड में एक नौ द्वारों का नगर देखा। वह सब प्रकार
के सुलक्षणों से सपन्न था। सब ओर से परकोटों, बगीचों,
अटारियों, खाइयों, झरोखों
और राजद्वारों से सुशोभित था और सोने, चाँदी तथा लोहे के
शिखरों वाले विशाल भवनों से खचाखच भरा था। उसके महलों की फर्शें नीलम, स्फटिक, वैदूर्य, मोती,
पन्ने और लालों की बनी हुई थीं। अपनी कान्ति के कारण वह नागों की
राजधानी भोगवतीपुरी के समान जान पड़ता था। उसमें जहाँ-तहाँ अनेकों सभा-भवन,
चौराहे, सड़कें, क्रीड़ाभवन,
बाजार, विश्राम-स्थान, ध्वजा-पताकाएँ
और मूँगे के चबूतरे सुशोभित थे। उस नगर के बाहर दिव्य वृक्ष और लताओं से पूर्ण एक
सुन्दर बाग़ था; उसके बीच में एक सरोवर सुशोभित था। उसके
आस-पास अनेकों पक्षी भाँति-भाँति की बोली बोल रहे थे तथा भौंरे गुंजार कर रहे थे।
सरोवर के तट पर जो वृक्ष थे, उनकी डालियाँ और पत्ते शीतल
झरनों के जलकणों से मिली हुई वासन्ती वायु के झरोकों से हिल रहे थे और इस प्रकार
वे तटवर्ती भूमि की शोभा बढ़ा रहे थे।
नानारण्यमृगव्रातैः अनाबाधे मुनिव्रतैः
।
आहूतं मन्यते पान्थो यत्र
कोकिलकूजितैः ॥ १९ ॥
यदृच्छयागतां तत्र ददर्श
प्रमदोत्तमाम् ।
भृत्यैर्दशभिरायान्तीं एकैकशतनायकैः
॥ २० ॥
अञ्चशीर्षाहिना गुप्तां प्रतीहारेण
सर्वतः ।
अन्वेषमाणां ऋषभं अप्रौढां
कामरूपिणीम् ॥ २१ ॥
सुनासां सुदतीं बालां सुकपोलां वराननाम्
।
समविन्यस्तकर्णाभ्यां बिभ्रतीं
कुण्डलश्रियम् ॥ २२ ॥
पिशङ्गनीवीं सुश्रोणीं श्यामां
कनकमेखलाम् ।
पद्भ्यां क्वणद्भ्यां चलन्तीं
नूपुरैर्देवतामिव ॥ २३ ॥
स्तनौ व्यञ्जितकैशोरौ समवृत्तौ
निरन्तरौ ।
वस्त्रान्तेन निगूहन्तीं व्रीडया
गजगामिनीम् ॥ २४ ॥
तामाह ललितं वीरः
सव्रीडस्मितशोभनाम् ।
स्निग्धेनापाङ्गपुङ्खेन स्पृष्टः
प्रेमोद्भ्रमद्भ्रुवा ॥ २५ ॥
का त्वं कञ्जपलाशाक्षि कस्यासीह
कुतः सति ।
इमामुप पुरीं भीरु किं चिकीर्षसि
शंस मे ॥ २६ ॥
क एतेऽनुपथा ये ते एकादश महाभटाः ।
एता वा ललनाः सुभ्रु कोऽयं तेऽहिः
पुरःसरः ॥ २७ ॥
त्वं ह्रीर्भवान्यस्यथ वाग्रमा पतिं
विचिन्वती किं मुनिवद्रहो वने ।
त्वदङ्घ्रिकामाप्तसमस्तकामं
क्व पद्मकोशः पतितः कराग्रात् ॥ २८ ॥
नासां वरोर्वन्यतमा भुविस्पृक्
पुरीं इमां वीरवरेण साकम् ।
अर्हस्यलङ्कर्तुमदभ्रकर्मणा
लोकं परं श्रीरिव यज्ञपुंसा ॥ २९ ॥
यदेष मापाङ्गविखण्डितेन्द्रियं
सव्रीडभावस्मितविभ्रमद्भ्रुवा ।
त्वयोपसृष्टो भगवान् मनोभवः
प्रबाधतेऽथानुगृहाण शोभने ॥ ३० ॥
त्वदाननं सुभ्रु सुतारलोचनं
व्यालम्बिनीलालकवृन्दसंवृतम् ।
उन्नीय मे दर्शय वल्गुवाचकं
यद्व्रीडया नाभिमुखं शुचिस्मिते ॥ ३१ ॥
वहाँ के वन्य पशु भी मुनिजनोचित
अहिंसादि व्रतों का पालन करने वाले थे, इसलिये
उनसे किसी को कोई कष्ट नहीं पहुँचता था। वहाँ बार-बार जो कोकिल की कुहू-ध्वनि होती
थी, उससे मार्ग में चलने वाले बटोहियों को ऐसा भ्रम होता था,
मानो यह बगीचा विश्राम करने के लिये उन्हें बुला रहा है।
राजा पुरंजन ने उस अद्भुत वन में
घूमते-घूमते एक सुन्दरी को आते देखा, जो
अकस्मात् उधर चली आयी थी। उसके साथ दस सेवक थे, जिनमें से
प्रत्येक सौ-सौ नायिकाओं का पति था। एक पाँच फन वाला साँप उसका द्वारपाल था,
वही उसकी सब ओर से रक्षा करता था। वह सुन्दरी भोली-भाली किशोरी थी
और विवाह के लिये श्रेष्ठ-पुरुष की खोज में थी। उसकी नासिका, दन्तपंक्ति, कपोल और मुख बहुत सुन्दर थे। उसके समान
कानों में कुण्डल झिलमिला रहे थे। उसका रंग साँवला था। कटि प्रदेश सुन्दर था। वह
पीले रंग की साड़ी और सोने की करधनी पहने हुए थी तथा चलते समय चरणों से नूपुरों की
झनकार करती जाती थी। अधिक क्या, वह साक्षात् कोई देवी-सी जान
पड़ती थी। वह गजगामिनी बाला किशोरावस्था की सूचना देने वाले अपने गोल-गोल समान और
परस्पर सटे हुए स्तनों को लज्जावश बार-बार अंचल से ढकती जाती थी। उसकी प्रेम से
मटकती भौंह और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवन के बाण से घायल होकर वीर पुरंजन ने
लज्जायुक्त मुस्कान से और भी सुन्दर लगने वाली उस देवी से मधुर वाणी में कहा- ‘कमलदललोचने! मुझे बताओ तुम कौन हो, किसकी कन्या हो?
साध्वी! इस समय आ कहाँ से रही हो,
भीरु! इस पुरी के समीप तुम क्या करना चाहती हो? सुभ्रु! तुम्हारे साथ इस ग्यारहवें महान् शुरवीर से संचालित ये दस सेवक
कौन हैं और ये सहेलियाँ तथा तुम्हारे आगे चलने वाला यह सर्प कौन है? सुन्दरि! तुम साक्षात् लज्जादेवी हो अथवा उमा, रमा
और ब्राह्मणी में से कोई हो? यहाँ वन में मुनियों की तरह
एकान्तवास करके क्या अपने पतिदेव को खोज रही हो? तुम्हारे
प्राणनाथ तो ‘तुम उनके चरणों की कामना करती हो’, इतने से ही पूर्णकाम हो जायेंगे। अच्छा, यदि तुम
साक्षात् कमलादेवी हो, तुम तुम्हारे हाथ का कीड़ाकमल कहाँ
गिर गया।
सुभगे! तुम इनमें से कोई हो नहीं;
क्योंकि तुम्हारे चरण पृथ्वी का स्पर्श कर रहे हैं। अच्छा, यदि तुम कोई मानवी ही हो, तो लक्ष्मी जी जिस प्रकार
भगवान् विष्णु के साथ वैकुण्ठ की शोभा बढाती हैं, उसी प्रकार
तुम मेरे साथ इस श्रेष्ठ पुरी को अलंकृत करो। देखो, मैं बड़ा
ही वीर और पराक्रमी हूँ। परंतु आज तुम्हारे कटाक्षों ने मेरे मन को बेकाबू कर दिया
है। तुम्हारी लजीली और रतिकाम से भरी मुस्कान के साथ भौंहों के संकेत पाकर यह
शक्तिशाली कामदेव मुझे पीड़ित कर रहा है। इसलिये सुन्दरि! अब तुम्हें मुझ पर कृपा
करनी चाहिये। शुचिस्मिते! सुन्दर भौहें और सुघड़ नेत्रों से सुशोभित तुम्हारा
मुखारविन्द इन लंबी-लंबी काली अलकावलियों से घिरा हुआ है; तुम्हारे
मुख से निकले हुए वाक्य बड़े ही मीठे और मन हरने वाले हैं, परंतु
वह मुख तो लाज के मारे मेरी ओर होता ही नहीं। जरा ऊँचा करके अपने उस सुन्दर मुखड़े
का मुझे दर्शन तो कराओ’।
नारद उवाच -
(अनुष्टुप्)
इत्थं पुरञ्जनं नारी याचमानमधीरवत्
।
अभ्यनन्दत तं वीरं हसन्ती वीर
मोहिता ॥ ३२ ॥
न विदाम वयं सम्यक् कर्तारं
पुरुषर्षभ ।
आत्मनश्च परस्यापि गोत्रं नाम च
यत्कृतम् ॥ ३३ ॥
इहाद्य सन्तमात्मानं विदाम न ततः
परम् ।
येनेयं निर्मिता वीर पुरी
शरणमात्मनः ॥ ३४ ॥
एते सखायः सख्यो मे नरा नार्यश्च
मानद ।
सुप्तायां मयि जागर्ति नागोऽयं
पालयन् पुरीम् ॥ ३५ ॥
दिष्ट्याऽऽगतोऽसि भद्रं ते
ग्राम्यान् कामानभीप्ससे ।
उद्वहिष्यामि तांस्तेऽहं
स्वबन्धुभिः अरिन्दम ॥ ३६ ॥
इमां त्वं अधितिष्ठस्व पुरीं
नवमुखीं विभो ।
मयोपनीतान् गृह्णानः कामभोगान् शतं
समाः ॥ ३७ ॥
कं नु त्वदन्यं रमये
ह्यरतिज्ञमकोविदम् ।
असम्परायाभिमुखं अश्वस्तनविदं पशुम्
॥ ३८ ॥
धर्मो ह्यत्रार्थकामौ च
प्रजानन्दोऽमृतं यशः ।
लोका विशोका विरजा यान्न केवलिनो
विदुः ॥ ३९ ॥
पितृदेवर्षिमर्त्यानां भूतानां
आत्मनश्च ह ।
क्षेम्यं वदन्ति शरणं भवेऽस्मिन्
यद्गृहाश्रमः ॥ ४० ॥
का नाम वीर विख्यातं वदान्यं
प्रियदर्शनम् ।
न वृणीत प्रियं प्राप्तं मादृशी
त्वादृशं पतिम् ॥ ४१ ॥
कस्या मनस्ते भुवि भोगिभोगयोः
स्त्रिया न सज्जेद्भुजयोर्महाभुज ।
योऽनाथवर्गाधिमलं घृणोद्धत
स्मितावलोकेन चरत्यपोहितुम् ॥ ४२ ॥
नारद उवाच -
(अनुष्टुप्)
इति तौ दम्पती तत्र समुद्य समयं
मिथः ।
तां प्रविश्य पुरीं राजन् मुमुदाते
शतं समाः ॥ ४३ ॥
उपगीयमानो ललितं तत्र तत्र च गायकैः
।
क्रीडन् परिवृतः स्त्रीभिः ह्रदिनीं
आविशत् शुचौ ॥ ४४ ॥
सप्तोपरि कृता द्वारः
पुरस्तस्यास्तु द्वे अधः ।
पृथग् विषयगत्यर्थं तस्यां यः
कश्चनेश्वरः ॥ ४५ ॥
पञ्च द्वारस्तु पौरस्त्या दक्षिणैका
तथोत्तरा ।
पश्चिमे द्वे अमूषां ते नामानि नृप
वर्णये ॥ ४६ ॥
खद्योताऽऽविर्मुखी च प्राग्
द्वारावेकत्र निर्मिते ।
विभ्राजितं जनपदं याति ताभ्यां
द्युमत्सखः ॥ ४७ ॥
श्रीनारद जी कहा ;-
वीरवर! जब राजा पुरंजन ने अधीर-से होकर इस प्रकार याचना की, तब उस बाला ने भी हँसते हुए उसका अनुमोदन किया। वह भी राजा को देखकर मोहित
हो चुकी थी। वह कहने लगी, ‘नरश्रेष्ठ! हमें अपने उत्पन्न करने
वाले का ठीक-ठीक पता नहीं है और न हम अपने या किसी दूसरे के नाम या गोत्र को ही
जानती हैं। वीरवर! आज हम सब इस पुरी में हैं- इसके सिवा मैं और कुछ नहीं जानती;
मुझे इसका भी पता नहीं है कि हमारे रहने के लिये यह पुरी किसने
बनायी है।
प्रियवर! ये पुरुष मेरे सखा और
स्त्रियाँ मेरी सहेलियाँ हैं तथा जिस समय मैं सो जाती हूँ,
यह सर्प जागता हुआ इस पुरी की रक्षा करता रहता है। शत्रुदमन! आप
यहाँ पधारे, यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। आपका मंगल हो।
आपको विषय-भोगों-की इच्छा है, उसकी पूर्ति के लिये मैं अपने
साथियों सहित सभी प्रकार के भोग प्रस्तुत करती रहूँगी। प्रभो! इस नौ द्वारों वाली
पुरी में मेरे प्रस्तुत किये हुए इच्छित भोगों को भोगते हुए आप सैकड़ों वर्षों तक
निवास कीजिये। भला, आपको छोड़कर मैं और किसके साथ रमण करुँगी?
दूसरे लोग तो न रति सुख को जानते हैं, न विहित
भोगों को ही भोगते हैं, न परलोक का ही विचार करते हैं और न
कल क्या होगा- इसका ही ध्यान रखते हैं, अतएव पशुतुल्य हैं।
अहो! इस लोक में गृहस्थाश्रम में ही धर्म, अर्थ, काम, सन्तान-सुख, मोक्ष,
सुयश और स्वर्गादि दिव्य लोकों की प्राप्ति हो सकती है। संसारत्यागी
यतिजन तो इन सबकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
महापुरुषों का कथन है कि इस लोक में
पितर,
देव, ऋषि, मनुष्य तथा
सम्पूर्ण प्राणियों के और अपने भी कल्याण का आश्रय एकमात्र गृहस्थाश्रम ही है।
वीरशिरोमणे! लोक में मेरी-जैसी कौन स्त्री होगी, जो स्वयं
प्राप्त हुए आप-जैसे सुप्रसिद्ध, उदारचित्त और सुन्दर पति को
वरण न करेगी। महाबाहो! इस पृथ्वी पर आपकी साँप-जैसी गोलाकार सुकोमल भुजाओं में
स्थान पाने के लिये किस कामिनी का चित्त न ललचावेगा? आप तो
अपनी मधुर मुसकानमयी करुणापूर्ण दृष्टि से हम-जैसी अनाथाओं के मानसिक सन्ताप को
शान्त करने के लिये ही पृथ्वी में विचर रहे हैं’।
श्रीनारद जी कहते हैं ;-
राजन्! उन स्त्री-पुरुषों ने इस प्रकार एक-दूसरे की बात का समर्थन
कर फिर सौ वर्षों तक उस पुरी में रहकर आनन्द भोगा। गायक लोग सुमधुर स्वर में
जहाँ-तहाँ राजा पुरंजन की कीर्ति गाया करते थे। जब ग्रीष्म-ऋतु आती, तब वह अनेकों स्त्रियों के साथ सरोवर में घुसकर जलक्रीड़ा करता। उस नगर
में जो नौ द्वार थे, उनमें से सात नगरी के ऊपर और दो नीचे
थे। उस नगर का जो कोई राजा होता, उसके पृथक्-पृथक् देशों में
जाने के लिये ये द्वार बनाये गये थे। राजन्! इनमें से पाँच पूर्व, एक दक्षिण, एक उत्तर और दो पश्चिम की ओर थे। उनके
नामों का वर्णन करता हूँ। पूर्व की ओर खाद्योत और आविर्मुखी नाम के दो द्वार एक ही
जगह बनाये गये थे। उनमें होकर राजा पुरंजन अपने मित्र द्युमान् के साथ विभ्राजित
नामक देश को जाया करता था।
नलिनी नालिनी च प्राग् द्वारौ एकत्र
निर्मिते ।
अवधूतसखस्ताभ्यां विषयं याति सौरभम्
॥ ४८ ॥
मुख्या नाम पुरस्ताद् द्वाः
तयाऽऽपणबहूदनौ ।
विषयौ याति पुरराड्
रसज्ञविपणान्वितः ॥ ४९ ॥
पितृहूर्नृप पुर्या द्वाः दक्षिणेन
पुरञ्जनः ।
राष्ट्रं दक्षिणपञ्चालं याति
श्रुतधरान्वितः ॥ ५० ॥
देवहूर्नाम पुर्या द्वा उत्तरेण
पुरञ्जनः ।
राष्ट्रं उत्तरपञ्चालं याति
श्रुतधरान्वितः ॥ ५१ ॥
आसुरी नाम पश्चाद् द्वाः तया याति
पुरञ्जनः ।
ग्रामकं नाम विषयं दुर्मदेन
समन्वितः ॥ ५२ ॥
निर्ऋतिर्नाम पश्चाद् द्वाः तया
याति पुरञ्जनः ।
वैशसं नाम विषयं लुब्धकेन समन्वितः
॥ ५३ ॥
अन्धावमीषां पौराणां निर्वाक्
पेशस्कृतावुभौ ।
अक्षण्वतामधिपतिः ताभ्यां याति
करोति च ॥ ५४ ॥
स यर्ह्यन्तःपुरगतो विषूचीनसमन्वितः
।
मोहं प्रसादं हर्षं वा याति
जायात्मजोद्भवम् ॥ ५५ ॥
एवं कर्मसु संसक्तः कामात्मा
वञ्चितोऽबुधः ।
महिषी यद् यद् ईहेत तत्तद् एवान्ववर्तत
॥ ५६ ॥
क्वचित्पिबन्त्यां पिबति मदिरां
मदविह्वलः ।
अश्नन्त्यां क्वचिदश्नाति जक्षत्यां
सह जक्षिति ॥ ५७ ॥
क्वचिद्गायति गायन्त्यां रुदत्यां
रुदति क्वचित् ।
क्वचिद् हसन्त्यां हसति
जल्पन्त्यामनु जल्पति ॥ ५८ ॥
क्वचिद् धावति धावन्त्यां
तिष्ठन्त्यामनु तिष्ठति ।
अनु शेते शयानायां अन्वास्ते
क्वचिदासतीम् ॥ ५९ ॥
क्वचित् श्रृणोति श्रृण्वन्त्यां
पश्यन्त्यामनु पश्यति ।
क्वचित् जिघ्रति जिघ्रन्त्यां
स्पृशन्त्यां स्पृशति क्वचित् । ॥ ६० ॥
क्वचिच्च शोचतीं जायां अनु शोचति
दीनवत् ।
अनु हृष्यति हृष्यन्त्यां मुदितामनु
मोदते । ॥ ६१ ॥
विप्रलब्धो महिष्यैवं
सर्वप्रकृतिवञ्चितः ।
नेच्छन् अनुकरोत्यज्ञः क्लैब्यात्
क्रीडामृगो यथा । ॥ ६२ ॥
इसी प्रकार उस ओर नलिनी और नालिनी
नाम के द्वार और भी एक ही जगह बनाये गये थे। उनसे होकर वह अवधूत के साथ सौरभ नामक
देश को जाता था। पूर्व दिशा की ओर मुख्या नाम का जो पाँचवाँ द्वार था,
उसमें होकर वह रसज्ञ और विपन के साथ क्रमशः बहूदन और आपण नाम के
देशों को जाता था। पुरी के दक्षिण की ओर जो पितृहू नाम का द्वार था, उसमें होकर राजा पुरंजन श्रुतधर के साथ दक्षिण पांचाल देश को जाता था।
उत्तर की ओर जो देवहू नाम का द्वार था, उससे श्रुतधर के ही
साथ वह उत्तर पांचाल देश को जाता था। पश्चिम दिशा में आसुरि नाम का दरवाजा था,
उसमें होकर वह दुर्मद के साथ ग्रामक देश को जाता था तथा निर्ऋति नाम
का जो दूसरा पश्चिम द्वार था, उससे लुब्धक के साथ वह वैशस
नाम के देश को जाता था। इस नगर के निवासियों में निर्वाक् और पेशस्कृत्-ये दो
नागरिक अन्धे थे। राजा पुरंजन आँख वाले नागरिकों का अधिपति होने पर भी इन्हीं की
सहायता से जहाँ-तहाँ जाता और सब प्रकार के कार्य करता था।
जब कभी अपने प्रधान सेवक विषूचीन के
साथ अन्तःपुर में जाता, तब उसे स्त्री और
पुत्रों के कारण होने वाले मोह, प्रसन्नता एवं हर्ष आदि
विकारों का अनुभव होता। उसका चित्त तरह-तरह के कर्मों में फँसा हुआ था और काम-परवश
होने के कारण वह मूढ़ रमणी के द्वारा ठगा गया था। उसकी रानी जो-जो काम करती थी,
वही वह भी करने लगता था। वह जब मद्यपान करती, तब
वह भी मदिरा पीता और मद से उन्मत्त हो जाता था; जब वह भोजन
करती, तब आप भी वही वस्तु चबाने लगता था। इसी प्रकार कभी
उसके गाने पर गाने लगता, रोने पर रोने लगता, हँसने पर हँसने लगता और बोलने पर बोलने लगता। वह दौड़ती तो आप भी दौड़ने
लगता, खड़ी होती तो आप भी खड़ा हो जाता, सोती तो आप भी उसी के साथ सो जाता और बैठती तो आप भी बैठ जाता। कभी वह
सुनने लगती तो आप भी सुनने लगता, देखती तो देखने लगता,
सूँघती तो सूँघने लगता और किसी चीज को छूती तो आप भी छूने लगता। कभी
उसकी प्रिया शोकाकुल होती तो आप भी अत्यन्त दीन के समान व्याकुल हो जाता; जब वह प्रसन्न होती, आप भी प्रसन्न हो जाता और उसके
आनन्दित होने पर आप भी आनन्दित हो जाता। (इस प्रकार) राजा पुरंजन अपनी सुन्दरी
रानी के द्वारा ठगा गया। सारा प्रकृतिवर्ग-परिकर ही उसको धोखा देने लगा। वह मूर्ख
विवश होकर इच्छा न होने पर भी खेल के लिए घर पर पाले हुए बंदर के समान अनुकरण करता
रहता।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पुरंजनोपाख्याने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण का
परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय २५ समाप्त हुआ ॥ २५ ॥
आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय २६
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