श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २४                                                                      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २४"पृथु की वंश परम्परा और प्रचेताओं को भगवान् रुद्र का उपदेश"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २४

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २४           

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः २४              

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध चौबीसवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

विजिताश्वोऽधिराजासीत् पृथुपुत्रः पृथुश्रवाः ।

यवीयोभ्योऽददात्काष्ठा भ्रातृभ्यो भ्रातृवत्सलः ॥ १ ॥

हर्यक्षायादिशत्प्राचीं धूम्रकेशाय दक्षिणाम् ।

प्रतीचीं वृकसंज्ञाय तुर्यां द्रविणसे विभुः ॥ २ ॥

अन्तर्धानगतिं शक्रात् लब्ध्वान्तर्धानसंज्ञितः ।

अपत्यत्रयमाधत्त शिखण्डिन्यां सुसम्मतम् ॥ ३ ॥

पावकः पवमानश्च शुचिरित्यग्नयः पुरा ।

वसिष्ठशापात् उत्पन्नाः पुनर्योगगतिं गताः ॥ ४ ॥

अन्तर्धानो नभस्वत्यां हविर्धानमविन्दत ।

य इन्द्रं अश्वहर्तारं विद्वानपि न जघ्निवान् ॥ ५ ॥

राज्ञां वृत्तिं करादान दण्डशुल्कादिदारुणाम् ।

मन्यमानो दीर्घसत्र व्याजेन विससर्ज ह ॥ ६ ॥

तत्रापि हंसं पुरुषं परमात्मानमात्मदृक् ।

यजन् तल्लोकतामाप कुशलेन समाधिना ॥ ७ ॥

हविर्धानाद् हविर्धानी विदुरासूत षट् सुतान् ।

बर्हिषदं गयं शुक्लं कृष्णं सत्यं जितव्रतम् ॥ ८ ॥

बर्हिषत् सुमहाभागो हाविर्धानिः प्रजापतिः ।

क्रियाकाण्डेषु निष्णातो योगेषु च कुरूद्वह ॥ ९ ॥

यस्येदं देवयजनं अनु यज्ञं वितन्वतः ।

प्राचीनाग्रैः कुशैरासीद् आस्तृतं वसुधातलम् ॥ १० ॥

सामुद्रीं देवदेवोक्तां उपयेमे शतद्रुतिम् ।

यां वीक्ष्य चारुसर्वाङ्‌गीं किशोरीं सुष्ठ्वलङ्‌कृताम् ॥ ११ ॥

परिक्रमन्तीं उद्वाहे चकमेऽग्निः शुकीमिव ॥ ११ ॥

विबुधासुरगन्धर्व मुनिसिद्धनरोरगाः ।

विजिताः सूर्यया दिक्षु क्वणयन्त्यैव नूपुरैः ॥ १२ ॥

प्राचीनबर्हिषः पुत्राः शतद्रुत्यां दशाभवन् ।

तुल्यनामव्रताः सर्वे धर्मस्नाताः प्रचेतसः ॥ १३ ॥

पित्राऽऽदिष्टाः प्रजासर्गे तपसेऽर्णवमाविशन् ।

दशवर्षसहस्राणि तपसाऽऽर्चन् तपस्पतिम् ॥ १४ ॥

यदुक्तं पथि दृष्टेन गिरिशेन प्रसीदता ।

तद्ध्यायन्तो जपन्तश्च पूजयन्तश्च संयताः ॥ १५ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! महाराज पृथु के बाद उनके पुत्र परमयशस्वी विजिताश्व राजा हुए। उनका अपने छोटे भाइयों पर बड़ा स्नेह था, इसलिये उन्होंने चारों को एक-एक दिशा का अधिकार सौंप दिया। राजा विजिताश्व ने हर्यक्ष को पूर्व, धूम्रकेश को दक्षिण, वृक को पश्चिम और द्रविण को उत्तर दिशा का राज्य दिया। उन्होंने इन्द्र से अन्तर्धान होने की शक्ति प्राप्त की थी, इसलिये उन्हें अन्तर्धानभी कहते थे। उनकी पत्नी का नाम शिखण्डिनी था। उससे उनके तीन सुपुत्र हुए। उनके नाम पावक, पवमान और शुचि थे।

पूर्वकाल में वसिष्ठ जी का शाप होने से उपर्युक्त नाम के अग्नियों ने ही उनके रूप में जन्म लिया था। आगे चलकर योगमार्ग से ये फिर अग्निरूप हो गये। अन्तर्धान के नभस्वती नाम की पत्नी से एक और पुत्र-रत्न हविर्धान प्राप्त हुआ। महाराज अन्तर्धान बड़े उदार पुरुष थे। जिस समय इन्द्र उनके पिता के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा हरकर ले गये थे, उन्होंने पता लग जाने पर भी उनका वध नहीं किया था। राजा अन्तर्धान ने कर लेना, दण्ड देना, जुरमाना वसूल करना आदि कर्तव्यों को बहुत कठोर एवं दूसरों के लये कष्टदायक समझकर एक दीर्घकालीन यज्ञ में दीक्षित होने के बहाने अपना राज-काज छोड़ दिया। यज्ञकार्य में लगे रहने पर भी उन आत्मज्ञानी राजा ने भक्त भयंजन पूर्णतम परमात्मा की आराधना करके सुदृढ़ समाधि के द्वारा भगवान् के दिव्य लोक को प्राप्त किया।

विदुर जी! हविर्धान की पत्नी हविर्धानी ने बर्हिषद्, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य और जितव्रत नाम के छः पुत्र पैदा किये। कुरुश्रेष्ठ विदुर जी! इनमें हविर्धान के पुत्र महाभाग बर्हिषद् यज्ञादि कर्मकाण्ड और योगाभ्यास में कुशल थे। उन्होंने प्रजापति का पद प्राप्त किया। उन्होंने एक स्थान के बाद दूसरे स्थान में लगातार इतने यज्ञ किये कि यह सारी भूमि पूर्व की ओर अग्रभाग करके फैलाये हुए कुशों से पट गयी थी (इसी से आगे चलकर वे प्राचीनबर्हिनाम से विख्यात हुए)।

राजा प्राचीनबर्हि ने ब्रह्मा जी के कहने से समुद्र की कन्या शतद्रुति से विवाह किया था। सर्वांगसुन्दरी किशोरी शतद्रुति सुन्दर वस्त्राभूषणों से सज-धजकर विवाह-मण्डप में जब भाँवर देने के लिये घूमने लगी, तब स्वयं अग्निदेव भी मोहित होकर उसे वैसे ही चाहने लगे जैसे शुकी को चाहा था। नवविवाहिता शतद्रुति ने अपने नूपुरों की झनकार से ही दिशा-विदिशाओं के देवता, असुर, गन्धर्व, मुनि, सिद्ध, मनुष्य और नाग-सभी को वश में कर लिया था। शतद्रुति के गर्भ से प्राचीनबर्हि के प्रचेता नाम के दस पुत्र हुए। वे सब बड़े ही धर्मज्ञ तथा एक-से नाम और आचरण वाले थे। जब पिता ने उन्हें सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया, तब उन सब ने तपस्या करने के लिये समुद्र में प्रवेश किया। वहाँ दस हजार वर्ष तक तपस्या करते हुए उन्होंने तप का फल देने वाले श्रीहरि की आराधना की। घर से तपस्या करने के लिये जाते समय मार्ग में श्रीमहादेव जी ने उन्हें दर्शन देकर कृपापूर्वक इस जिस तत्त्व का उपदेश दिया था, उसी का वे एकाग्रतापूर्वक ध्यान, जप और पूजन करते रहे।

विदुर उवाच -

प्रचेतसां गिरित्रेण यथाऽऽसीत्पथि सङ्‌गमः ।

यदुताह हरः प्रीतः तन्नो ब्रह्मन् वदार्थवत् ॥ १६ ॥

सङ्‌गमः खलु विप्रर्षे शिवेनेह शरीरिणाम् ।

दुर्लभो मुनयो दध्युः असङ्‌गाद्यमभीप्सितम् ॥ १७ ॥

आत्मारामोऽपि यस्त्वस्य लोककल्पस्य राधसे ।

शक्त्या युक्तो विचरति घोरया भगवान् भवः ॥ १८ ॥

मैत्रेय उवाच -

प्रचेतसः पितुर्वाक्यं शिरसाऽऽदाय साधवः ।

दिशं प्रतीचीं प्रययुः तपस्यादृतचेतसः ॥ १९ ॥

ससमुद्रं उप विस्तीर्णं अपश्यन् सुहत्सरः ।

महन्मन इव स्वच्छं प्रसन्नसलिलाशयम् ॥ २० ॥

नीलरक्तोत्पलाम्भोज कह्लारेन्दीवराकरम् ।

हंससारसचक्राह्व कारण्डवनिकूजितम् ॥ २१ ॥

मत्तभ्रमरसौस्वर्य हृष्टरोमलताङ्‌घ्रिपम् ।

पद्मकोशरजो दिक्षु विक्षिपत्पवनोत्सवम् ॥ २२ ॥

तत्र गान्धर्वमाकर्ण्य दिव्यमार्गमनोहरम् ।

विसिस्म्यू राजपुत्रास्ते मृदङ्‌गपणवाद्यनु ॥ २३ ॥

तर्ह्येव सरसस्तस्मान् निष्क्रामन्तं सहानुगम् ।

उपगीयमानममर प्रवरं विबुधानुगैः ॥ २४ ॥

तप्तहेमनिकायाभं शितिकण्ठं त्रिलोचनम् ।

प्रसादसुमुखं वीक्ष्य प्रणेमुर्जातकौतुकाः ॥ २५ ॥

स तान्प्रपन्नार्तिहरो भगवान् धर्मवत्सलः ।

धर्मज्ञान् शीलसम्पन्नान् प्रीतः प्रीतानुवाच ह ॥ २६ ॥

श्रीरुद्र उवाच -

यूयं वेदिषदः पुत्रा विदितं वश्चिकीर्षितम् ।

अनुग्रहाय भद्रं व एवं मे दर्शनं कृतम् ॥ २७ ॥

यः परं रंहसः साक्षात् त्रिगुणात् जीवसंज्ञितात् ।

भगवन्तं वासुदेवं प्रपन्नः स प्रियो हि मे ॥ २८ ॥

स्वधर्मनिष्ठः शतजन्मभिः पुमान्

     विरिञ्चतामेति ततः परं हि माम् ।

अव्याकृतं भागवतोऽथ वैष्णवं

     पदं यथाहं विबुधाः कलात्यये ॥ २९ ॥

(अनुष्टुप्)

अथ भागवता यूयं प्रियाः स्थ भगवान् यथा ।

न मद्‍भागवतानां च प्रेयानन्योऽस्ति कर्हिचित् ॥ ३० ॥

इदं विविक्तं जप्तव्यं पवित्रं मङ्‌गलं परम् ।

निःश्रेयसकरं चापि श्रूयतां तद्वदामि वः ॥ ३१ ॥

विदुर जी ने पूछा ;- ब्रह्मन्! मार्ग में प्रचेताओं का श्रीमहादेव जी के साथ किस प्रकार समागम हुआ और उन पर प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उन्हें क्या उपदेश किया, वह सारयुक्त बात आप कृपा करके मुझसे कहिये। ब्रह्मर्षे! शिव जी के साथ समागम होना तो देहधारियों के लिय बहुत कठिन है। औरों की तो बात ही क्या है-मुनिजन भी सब प्रकार की आसक्ति छोड़कर उन्हें पाने के लिये उनका निरन्तर ध्यान ही किया करते हैं, किन्तु सहज में पाते नहीं। यद्यपि भगवान् शंकर आत्माराम हैं, उन्हें अपने लिये न कुछ करना है, न पाना, तो भी इस लोकसृष्टि की रक्षा के लिये वे अपनी घोररूपा शक्ति (शिवा) के साथ सर्वत्र विचरते रहते हैं।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! साधुस्वभाव प्रचेतागण पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर तपस्या में चित्त लगा पश्चिम की ओर चल दिये। चलते-चलते उन्होंने समुद्र के समान विशाल एक सरोवर देखा। वह महापुरुषों के चित्त के समान बड़ा ही स्वच्छ था तथा उसमें रहने वाले मत्स्यादि जलजीव भी प्रसन्न जान पड़ते थे। उसमें नीलकमल, लालकमल, रात में, दिन में और सायंकाल में खिलने वाले कमल तथा इन्दीवर आदि अन्य कई प्रकार के कमल सुशोभित थे। उसके तटों पर हंस, सारस, चकवा और कारण्डव आदि जलपक्षी चहक रहे थे। उसके चारों ओर तरह-तरह के वृक्ष और लताएँ थीं, उन पर मतवाले भौंरे गूँज रहे थे। उसकी मधुर ध्वनि से हर्षित होकर मानो उन्हें रोमांच हो रहा था। कमलकोश के परागपुंज वायु के झरोकों से चारों ओर उड़ रहे थे। मानो वहाँ कोई उत्सव हो रहा है। वहाँ मृदंग, पणव आदि बाजों के साथ अनेकों दिव्य राग-रागिनियों के क्रम से गायन की मधुर ध्वनि सुनकर उन राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। इतने में ही उन्होंने देखा कि देवाधिदेव भगवान् शंकर अपने अनुचरों के सहित उस सरोवर से बाहर आ रहे हैं। उनका शरीर तपी हुई सुवर्णराशि के समान कान्तिमान् है, कण्ठ नीलवर्ण है तथा तीन विशाल नेत्र हैं। वे अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये उद्यत हैं। अनेकों गन्धर्व उनका सुयश गा रहे हैं। उनका सहसा दर्शन पाकर प्रचेताओं को बड़ा कुतूहल हुआ और उन्होंने शंकर जी के चरणों में प्रणाम किया। तब शरणागत भयहारी धर्मवत्सल भगवान् शंकर ने अपने दर्शन से प्रसन्न हुए उन धर्मज्ञ और शीलसम्पन्न राजकुमारों से प्रसन्न होकर कहा।

श्रीमहादेव जी बोले ;- तुम लोग राजा प्राचीनबर्हि के पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वह भी मुझे मालूम है। इस समय तुम लोगों पर कृपा करने के लिये ही मैंने तुम्हें इस प्रकार दर्शन दिया है। जो व्यक्ति अव्यक्त प्रकृति तथा जीवसंज्ञकपुरुष-इन दोनों के नियामक भगवान् वासुदेव की साक्षात् शरण लेता है, वह मुझे परम प्रिय है। अपने वर्णाश्रम धर्म का भलीभाँति पालन करने वाला पुरुष सौ जन्म के बाद ब्रह्मा के पद को प्राप्त होता है और इससे भी अधिक पुण्य होने पर वह मुझे प्राप्त होता है। परन्तु जो भगवान् का अनन्य भक्त है, वह तो मृत्यु के बाद ही सीधे भगवान् विष्णु के उस सर्वप्रपंचातीत परमपद को प्राप्त हो जाता है, जिसे रुद्ररूप में स्थित मैं तथा अन्य आधिकारिक देवता अपने-अपने अधिकार की समाप्ति के बाद प्राप्त करेंगे। तुम लोग भगवद्भक्त होने के नाते मुझे भगवान् के समान ही प्यारे हो। इसी प्रकार भगवान् के भक्तों को भी मुझसे बढ़कर और कोई कभी प्रिय नहीं होता। अब मैं तुम्हें एक बड़ा ही पवित्र, मंगलमय और कल्याणकारी स्तोत्र सुनाता हूँ। इसका तुम लोग शुद्धभाव से जप करना।

मैत्रेय उवाच -

इत्यनुक्रोशहृदयो भगवानाह ताञ्छिवः ।

बद्धाञ्जलीन्राजपुत्रान् नारायणपरो वचः ॥ ३२ ॥

श्रीरुद्र उवाच -

जितं ते आत्मविद्‌धुर्य स्वस्तये स्वस्तिरस्तु मे ।

भवताराधसा राद्धं सर्वस्मा आत्मने नमः ॥ ३३ ॥

नमः पङ्‌कजनाभाय भूतसूक्ष्मेन्द्रियात्मने ।

वासुदेवाय शान्ताय कूटस्थाय स्वरोचिषे ॥ ३४ ॥

सङ्‌कर्षणाय सूक्ष्माय दुरन्तायान्तकाय च ।

नमो विश्वप्रबोधाय प्रद्युम्नायान्तरात्मने ॥ ३५ ॥

नमो नमोऽनिरुद्धाय हृषीकेशेन्द्रियात्मने ।

नमः परमहंसाय पूर्णाय निभृतात्मने ॥ ३६ ॥

स्वर्गापवर्गद्वाराय नित्यं शुचिषदे नमः ।

नमो हिरण्यवीर्याय चातुर्होत्राय तन्तवे ॥ ३७ ॥

नम ऊर्ज इषे त्रय्याः पतये यज्ञरेतसे ।

तृप्तिदाय च जीवानां नमः सर्वरसात्मने ॥ ३८ ॥

सर्वसत्त्वात्मदेहाय विशेषाय स्थवीयसे ।

नमस्त्रैलोक्यपालाय सह ओजोबलाय च ॥ ३९ ॥

अर्थलिङ्‌गाय नभसे नमोऽन्तर्बहिरात्मने ।

नमः पुण्याय लोकाय अमुष्मै भूरिवर्चसे ॥ ४० ॥

प्रवृत्ताय निवृत्ताय पितृदेवाय कर्मणे ।

नमोऽधर्मविपाकाय मृत्यवे दुःखदाय च ॥ ४१ ॥

नमस्ते आशिषामीश मनवे कारणात्मने ।

नमो धर्माय बृहते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

पुरुषाय पुराणाय साङ्‌ख्ययोगेश्वराय च ॥ ४२ ॥

शक्तित्रयसमेताय मीढुषेऽहङ्‌कृतात्मने ।

चेतआकूतिरूपाय नमो वाचो विभूतये ॥ ४३ ॥

दर्शनं नो दिदृक्षूणां देहि भागवतार्चितम् ।

रूपं प्रियतमं स्वानां सर्वेन्द्रियगुणाञ्जनम् ॥ ४४ ॥

स्निग्धप्रावृड्घनश्यामं सर्वसौन्दर्यसङ्‌ग्रहम् ।

चार्वायतचतुर्बाहुं सुजातरुचिराननम् ॥ ४५ ॥

पद्मकोशपलाशाक्षं सुन्दरभ्रु सुनासिकम् ।

सुद्विजं सुकपोलास्यं समकर्णविभूषणम् ॥ ४६ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- तब नारायणपरायण करुणार्द्रहृदय भगवान् शिव ने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उन राजपुत्रों को यह स्तोत्र सुनाया।

भगवान् रुद्र स्तुति करने लगे ;- भगवन्! आपका उत्कर्ष उच्चकोटि के आत्मज्ञानियों के कल्याण के लिये-निजानन्द लाभ के लिये है, उससे मेरा भी कल्याण हो। आप सर्वदा अपने निरतिशय परमानन्दस्वरूप में ही स्थित रहते हैं, ऐसे सर्वात्मक आत्मस्वरूप आपको नमस्कार है। आप पद्मनाभ (समस्त लोकों के आदिकारण) हैं; भूतसूक्ष्म (तन्मात्र) और इन्द्रियों के नियन्ता, शान्त, एकरस और स्वयंप्रकाश वासुदेव (चित्त के अधिष्ठाता) भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। आप ही सूक्ष्म (अव्यक्त), अनन्त और मुखाग्नि के द्वारा सम्पूर्ण लोकों का संहार करने वाले अहंकार के अधिष्ठाता संकर्षण तथा जगत् के प्रकृष्ट ज्ञान के उद्गमस्थान बुद्धि के अधिष्ठाता प्रद्युम्न हैं; आपको नमस्कार है। आप ही इन्द्रियों के स्वामी, मनस्तत्त्व के अधिष्ठाता भगवान् अनिरुद्ध हैं; आपको बार-बार नमस्कार है। आप अपने तेज से जगत् को व्याप्त करने वाले सूर्यदेव हैं, पूर्ण होने के कारण आपमें वृद्धि और क्षय नहीं होता; आपको नमस्कार है।

आप स्वर्ग और मोक्ष के द्वार तथा निरन्तर पवित्र हृदय में रहने वाले हैं, आपको नमस्कार है। आप ही सुवर्णरूप वीर्य से युक्त और चातुर्होत्र कर्म के साधन तथा विस्तार करने वाले अग्निदेव हैं; आपको नमस्कार है। आप पितर और देवताओं के पोषक सोम हैं तथा तीनों वेदों के अधिष्ठाता हैं; हम आपको नमस्कार करते हैं, आप ही समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाले सर्वरस (जल) रूप हैं; आपको नमस्कार है। आप समस्त प्राणियों के देह, पृथ्वी और विराट्स्वरूप हैं तथा त्रिलोकी की रक्षा करने वाले मानसिक, एन्द्रियिक और शारीरिक शक्तिस्वरूप वायु (प्राण) हैं; आपको नमस्कार है। आप ही अपने गुण शब्द के द्वारा-समस्त पदार्थों का ज्ञान कराने वाले तथा बाहर-भीतर का भेद करने वाले आकाश हैं तथा आप ही महान् पुण्यों से प्राप्त होने वाले परम तेजोमय स्वर्ग-वैकुण्ठादि लोक हैं; आपको पुनः-पुनः नमस्कार है। आप पितृलोक की प्राप्ति कराने वाले प्रवृत्ति-कर्मरूप और देवलोक की प्राप्ति के साधन निवृत्ति-कर्मरूप हैं तथा आप ही अधर्म के फलस्वरूप दुःखदायक मृत्यु हैं; आपको नमस्कार है।

नाथ! आप ही पुराणपुरुष तथा सांख्य और योग के अधीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं; आप सब प्रकार की कामनाओं की पूर्ति के कारण, साक्षात् मन्त्रमूर्ति और महान् धर्मस्वरूप हैं; आपकी ज्ञानशक्ति किसी भी प्रकार कुण्ठित होने वाली नहीं है; आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आप ही कर्ता, करण और कर्म- तीनों शक्तियों के एकमात्र आश्रय हैं; आप ही अहंकार के अधिष्ठाता रुद्र हैं; आप ही ज्ञान और क्रियास्वरूप हैं तथा आपसे ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी-चार प्रकार की वाणी की अभिव्यक्ति होती है; आपको नमस्कार है।

प्रभो! हमें आपके दर्शनों की अभिलाषा है; अतः आपके भक्तजन जिसका पूजन करते हैं और जो आपके निजजनों को अत्यन्त प्रिय है, अपने उस अनूप रूप की आप हमें झाँकी कराइये। आपका वह रूप अपने गुणों से समस्त इन्द्रियों को तृप्त करने वाला है। वह वर्षाकालीन मेघ के समान स्निग्ध श्याम और सम्पूर्ण सौन्दर्यों का सार-सर्वस्व है। सुन्दर चार विशाल भुजाएँ, महामनोहर मुखारविन्द, कमलदल के समान नेत्र, सुन्दर भौंहें, सुघड़ नासिका, मनमोहिनी दन्तपंक्ति, अमोल कपोलयुक्त मनोहर मुखमण्डल और शोभावाली समान कर्ण-युगल हैं।

प्रीतिप्रहसितापाङ्‌गं अलकै रूपशोभितम् ।

लसत्पङ्‌कजकिञ्जल्क दुकूलं मृष्टकुण्डलम् ॥ ४७ ॥

स्फुरत्किरीटवलय हारनूपुरमेखलम् ।

शङ्‌खचक्रगदापद्म मालामण्युत्तमर्द्धिमत् ॥ ४८ ॥

सिंहस्कन्धत्विषो बिभ्रत् सौभग ग्रीवकौस्तुभम् ।

श्रियानपायिन्या क्षिप्त निकषाश्मोरसोल्लसत् ॥ ४९ ॥

पूररेचकसंविग्न वलिवल्गुदलोदरम् ।

प्रतिसङ्‌क्रामयद् विश्वं नाभ्यावर्तगभीरया ॥ ५० ॥

श्यामश्रोण्यधिरोचिष्णु दुकूलस्वर्णमेखलम् ।

समचार्वङ्‌घ्रिजङ्‌घोरु निम्नजानुसुदर्शनम् ॥ ५१ ॥

पदा शरत्पद्मपलाशरोचिषा

     नखद्युभिर्नोऽन्तरघं विधुन्वता ।

प्रदर्शय स्वीयमपास्तसाध्वसं

     पदं गुरो मार्गगुरुस्तमोजुषाम् ॥ ५२ ॥

(अनुष्टुप्)

एतद् रूपमनुध्येयं आत्मशुद्धिमभीप्सताम् ।

यद्‍भक्तियोगोऽभयदः स्वधर्ममनुतिष्ठताम् ॥ ५३ ॥

भवान् भक्तिमता लभ्यो दुर्लभः सर्वदेहिनाम् ।

स्वाराज्यस्याप्यभिमत एकान्तेनात्मविद्‍गतिः ॥ ५४ ॥

तं दुराराध्यमाराध्य सतामपि दुरापया ।

एकान्तभक्त्या को वाञ्छेत् पादमूलं विना बहिः ॥ ५५ ॥

यत्र निर्विष्टमरणं कृतान्तो नाभिमन्यते ।

विश्वं विध्वंसयन् वीर्य शौर्यविस्फूर्जितभ्रुवा ॥ ५६ ॥

क्षणार्धेनापि तुलये न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।

भगवत् सङ्‌गिसङ्‌गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ ५७ ॥

अथानघाङ्‌घ्रेस्तव कीर्तितीर्थयोः

     अन्तर्बहिःस्नानविधूतपाप्मनाम् ।

भूतेष्वनुक्रोशसुसत्त्वशीलिनां

     स्यात्सङ्‌गमोऽनुग्रह एष नस्तव ॥ ५८ ॥

न यस्य चित्तं बहिरर्थविभ्रमं

     तमोगुहायां च विशुद्धमाविशत् ।

यद्‍भक्तियोगानुगृहीतमञ्जसा

     मुनिर्विचष्टे ननु तत्र ते गतिम् ॥ ५९ ॥

प्रीतिपूर्ण उन्मुक्त हास्य, तिरछी चितवन, काली-काली घुँघराली अलकें, कमलकुसुम की केसर के समान फहराता हुआ पीताम्बर, झिलमिलाते हुए कुण्डल, चमचमाते हुए मुकुट, कंकण, हार, नूपुर और मेखला आदि विचित्र आभूषण तथा शंख, चक्र, गदा, पद्म, वनमाला और कौस्तुभ मणि के कारण उसकी अपूर्व शोभा है। उसके सिंह के समान स्थूल कंधे हैं-जिन पर हार, केयूर एवं कुण्डलादि की कान्ति झिलमिलाती रहती है-तथा कौस्तुभ मणि की कान्ति से सुशोभित मनोहर ग्रीवा है। उसका श्यामल वक्षःस्थल श्रीवत्स-चिह्न के रूप में लक्ष्मी जी का नित्य निवास होने के कारण कसौटी की शोभा को भी मात करता है। उसका त्रिवली से सुशोभित, पीपल के पत्ते के समान सुडौल उदर श्वास के आने-जाने से हिलता हुआ बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है। उसमें जो भँवर के समान चक्करदार नाभि है, वह इतनी गहरी है कि उससे उत्पन्न हुआ यह विश्व मानो फिर उसी में लीन होना चाहता है। श्यामवर्ण कटिभाग में पीताम्बर और सुवर्ण की मेखला शोभायमान है। समान और सुन्दर चरण, पिंडली, जाँघ और घुटनों के कारण आपका दिव्य विग्रह बड़ा ही सुघड़ जान पड़ता है।

आपके चरणकमलों की शोभा शरद्-ऋतु के कमल-दल की कान्ति का भी तिरस्कार करती है। उनके नखों से जो प्रकाश निकलता है, वह जीवों के हृदयान्धकार को तत्काल नष्ट कर देता है। हमें आप कृपा करके भक्तों के भयहारी एवं आश्रयस्वरूप उसी रूप का दर्शन कराइये। जगद्गुरो! हम अज्ञानवृत प्राणियों को अपनी प्राप्ति का मार्ग बतलाने वाले आप ही हमारे गुरु हैं।

प्रभो! चित्तशुद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को आपके इस रूप का निरन्तर ध्यान करना चाहिये; इसकी भक्ति ही स्वधर्म का पालन करने वाले पुरुष को अभय करने वाले पुरुष को अभय करने वाली है। स्वर्ग का शासन करने वाला इन्द्र भी आपको ही पाना चाहता है तथा विशुद्ध आत्मज्ञानियों की गति भी आप ही हैं। इस प्रकार आप सभी देहधारियों के लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं; केवल भक्तिमान् पुरुष ही आपको पा सकते हैं। सत्पुरुषों के लिये भी दुर्लभ अनन्य भक्ति से भगवान् को प्रसन्न करके, जिनकी प्रसन्नता किसी अन्य साधना से दुःसाध्य है, ऐसा कौन होगा जो उनके चरणतल के अतिरिक्त और कुछ चाहेगा।

जो काल अपने अदम्य उत्साह और पराक्रम से फड़कती हुए भौह के इशारे से सारे संसार को संहार कर डालता है, वह भी आपके चरणों की शरण में गये हुए प्राणी पर अपना अधिकार नहीं मानता। ऐसे भगवान् के प्रेमी भक्तों का यदि आधे क्षण के लिये भी समागम हो जाये तो उसके सामने मैं स्वर्ग और मोक्ष को कुछ नहीं समझता; फिर मर्त्यलोक के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है। प्रभो! आपके चरण सम्पूर्ण पापराशि को हर लेने वाले हैं। हम तो केवल यही चाहते हैं कि जिन लोगों ने आपकी कीर्ति और तीर्थ (गंगाजी) में आन्तरिक और बाह्य स्नान करके मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार के पापों को धो डाला है तथा जो जीवों के प्रति दया, राग-द्वेषरहित चित्त तथा सरलता आदि गुणों से युक्त हैं, उन आपके भक्तजनों का संग हमें सदा प्राप्त होता रहे। यही हम पर आपकी बड़ी कृपा होगी। जिस साधक का चित्त भक्तियोग से अनुगृहीत एवं विशुद्ध होकर न तो बाह्य विषयों में भटकता है और न अज्ञान-गुहरूप प्रकृति में ही लीन होता है, वह अनायास ही आपके स्वरूप का दर्शन पा जाता है।

(अनुष्टुप्)

यत्रेदं व्यज्यते विश्वं विश्वस्मिन् अवभाति यत् ।

तत्त्वं ब्रह्म परं ज्योतिः आकाशमिव विस्तृतम् । ॥ ६० ॥

यो माययेदं पुरुरूपयासृजद्

     बिभर्ति भूयः क्षपयत्यविक्रियः ।

यद्‍भेदबुद्धिः सदिवात्मदुःस्थया

     त्वमात्मतन्त्रं भगवन्प्रतीमहि । ॥ ६१ ॥

क्रियाकलापैरिदमेव योगिनः

     श्रद्धान्विताः साधु यजन्ति सिद्धये ।

भूतेन्द्रियान्तःकरणोपलक्षितं

     वेदे च तन्त्रे च ते एव कोविदाः । ॥ ६२ ॥

त्वमेक आद्यः पुरुषः सुप्तशक्तिः

     तया रजःसत्त्वतमो विभिद्यते ।

महानहं खं मरुदग्निवार्धराः

     सुरर्षयो भूतगणा इदं यतः । ॥ ६३ ॥

सृष्टं स्वशक्त्येदमनुप्रविष्टः

     चतुर्विधं पुरमात्मांशकेन ।

अथो विदुस्तं पुरुषं सन्तमन्तः

     भुङ्‌क्ते हृषीकैर्मधु सारघं यः । ॥ ६४ ॥

स एष लोकानतिचण्डवेगो

     विकर्षसि त्वं खलु कालयानः ।

भूतानि भूतैरनुमेयतत्त्वो

     घनावलीर्वायुरिवाविषह्यः । ॥ ६५ ॥

प्रमत्तमुच्चैरिति कृत्यचिन्तया

     प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम् ।

त्वमप्रमत्तः सहसाभिपद्यसे

     क्षुल्लेलिहानोऽहिरिवाखुमन्तकः । ॥ ६६ ॥

कस्त्वत्पदाब्जं विजहाति पण्डितो

     यस्तेऽवमानव्ययमानकेतनः ।

विशङ्‌कयास्मद्‍गुरुरर्चति स्म यद्

     विनोपपत्तिं मनवश्चतुर्दश । ॥ ६७ ॥

(अनुष्टुप्)

अथ त्वमसि नो ब्रह्मन् परमात्मन् विपश्चिताम् ।

विश्वं रुद्रभयध्वस्तं अकुतश्चिद्‍भया गतिः । ॥ ६८ ॥

जिसमें यह सारा जगत् दिखायी देता है और जो स्वयं सम्पूर्ण जगत् में भास रहा है, वह आकाश के समान विस्तृत और परम प्रकाशमय ब्रह्मतत्त्व आप ही हैं।

भगवन्! आपकी माया अनेक प्रकार के रूप धारण करती है। इसी के द्वारा आप इस प्रकार जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं जैसे यह कोई सद्वस्तु हो। किन्तु इससे आपमें किसी प्रकार का विकार नहीं आता। माया के कारण दूसरे लोगों में ही भेदबुद्धि उत्पन्न होती है, आप परमात्मा पर वह अपना प्रभाव डालने में असमर्थ होती है। आपको तो हम परम स्वतन्त्र ही समझते हैं। आपका स्वरूप पंचभूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण के प्रेरकरूप से उपलक्षित होता है।

जो कर्मयोगी पुरुष सिद्धि प्राप्त करने के लिये तरह-तरह के कर्मों द्वारा आपके इस सगुण साकार स्वरूप का श्रद्धापूर्वक भलीभाँति पूजन करते हैं, वे ही वेद और शास्त्रों के सच्चे मर्मज्ञ हैं। प्रभो! आप ही अद्वितीय आदि पुरुष हैं। सृष्टि के पूर्व आपकी मायाशक्ति सोयी रहती है। फिर उसी के द्वारा सत्त्व, रज और तमरूप गुणों का भेद होता है और इसके बाद उन्हीं गुणों से महत्तत्त्व, अहकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, देवता, ऋषि और समस्त प्राणियों से युक्त इस जगत् की उत्पत्ति होती है। फिर आप अपनी ही मायाशक्ति से रचे हुए इन जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के शरीरों में अंशरूप से प्रवेश कर जाते हैं और जिस प्रकार मधुमक्खियाँ अपने ही उत्पन्न किये हुए मधु का आस्वादन करती हैं, उसी प्रकार वह आपका अंश उन शरीरों में रहकर इन्द्रियों के द्वारा तुच्छ विषयों को भोगता है। आपके उस अंश को ही पुरुष जीव कहते हैं।

प्रभो! आपका तत्त्वज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं अनुमान से होता है। प्रलयकाल उपस्थित होने पर कालस्वरूप आप ही अपने प्रचण्ड एवं असह्य वेग से पृथ्वी आदि भूतों को अन्य भूतों से विचलित कराकर समस्त लोकों का संहार कर देते हैं-जैसे वायु अपने असहनी एवं प्रचण्ड झोंकों से मेघों के द्वारा ही मेघों को तितर-बितर करके नष्ट कर डालती है।

भगवन्! यह मोहग्रस्त जीव प्रमादवश हर समय इसी चिन्ता में रहता है कि अमुक कार्य करना है। इसका लोभ बढ़ गया है और इसे विषयों की ही लालसा बनी रहती है। किन्तु आप सदा ही सजग रहते हैं; भूख से जीभ लपलपाता हुआ सर्प जैसे चूहे को चट कर जाता है, उसी प्रकार अपने कालस्वरूप से उसे सहसा लील जाते हैं। आपकी अवहेलना करने के कारण अपनी आयु को व्यर्थ मानने वाला ऐसा कौन विद्वान् होगा, जो आपके चरणकमलों को बिसारेगा? इसकी पूजा तो काल की आशंका से ही हमारे पिता ब्रह्मा जी और स्वयाम्भुव आदि चौदह मनुओं ने भी बिना कोई विचार किये केवल श्रद्धा से ही की थी। ब्रह्मन्! इस प्रकार सारा जगत् रुद्ररूप काल के भय से व्याकुल है। अतः परमात्मन्! इस तत्त्व को जानने वाले हम लोगों के तो इस समय आप ही सर्वथा भयशून्य आश्रय हैं।

इदं जपत भद्रं वो विशुद्धा नृपनन्दनाः ।

स्वधर्ममनुतिष्ठन्तो भगवति अर्पिताशयाः । ॥ ६९ ॥

तमेवात्मानमात्मस्थं सर्वभूतेष्ववस्थितम् ।

पूजयध्वं गृणन्तश्च ध्यायन्तश्चासकृद्धरिम् ॥ ७० ॥

योगादेशमुपासाद्य धारयन्तो मुनिव्रताः ।

समाहितधियः सर्व एतदभ्यसतादृताः ॥ ७१ ॥

इदमाह पुरास्माकं भगवान्विश्वसृक्पतिः ।

भृग्वादीनां आत्मजानां सिसृक्षुः संसिसृक्षताम् ॥ ७२ ॥

ते वयं नोदिताः सर्वे प्रजासर्गे प्रजेश्वराः ।

अनेन ध्वस्ततमसः सिसृक्ष्मो विविधाः प्रजाः ॥ ७३ ॥

अथेदं नित्यदा युक्तो जपन् अवहितः पुमान् ।

अचिरात् श्रेय आप्नोति वासुदेवपरायणः ॥ ७४ ॥

श्रेयसामिह सर्वेषां ज्ञानं निःश्रेयसं परम् ।

सुखं तरति दुष्पारं ज्ञाननौर्व्यसनार्णवम् ॥ ७५ ॥

य इमं श्रद्धया युक्तो मद्‍गीतं भगवत्स्तवम् ।

अधीयानो दुराराध्यं हरिं आराधयत्यसौ ॥ ७६ ॥

विन्दते पुरुषोऽमुष्माद् यद्यद् इच्छत्यसत्वरम् ।

मद्‍गीतगीतात्सुप्रीतात् श्रेयसामेकवल्लभात् ॥ ७७ ॥

इदं यः कल्य उत्थाय प्राञ्जलिः श्रद्धयान्वितः ।

शृणुयात् श्रावयेन्मर्त्यो मुच्यते कर्मबन्धनैः ॥ ७८ ॥

गीतं मयेदं नरदेवनन्दनाः

     परस्य पुंसः परमात्मनः स्तवम् ।

जपन्त एकाग्रधियस्तपो महत्

     चरध्वमन्ते तत आप्स्यथेप्सितम् ॥ ७९ ॥

राजकुमारों! तुम लोग विशुद्ध भाव से स्वधर्म का आचरण करते हुए भगवान् में चित्त लगाकर मेरे कहे हुए इस स्तोत्र का जप करते रहो; भगवान् तुम्हारा मंगल करेंगे। तुम लोग अपने अन्तःकरण में स्थित उन सर्वभूतान्तर्यामी परमात्मा श्रीहरि का ही बार-बार स्तवन और चिन्तन करते हुए पूजन करो।

मैंने तुम्हें यह योगादेश नाम का स्तोत्र सुनाया है। तुम लोग इसे मन से धारण कर मुनिव्रत का आचरण करते हुए इसका एकाग्रता से आदरपूर्वक अभ्यास करो। यह स्तोत्र पूर्वकाल में जगद्विस्तार के इच्छुक प्रजापतियों के पति भगवान् ब्रह्मा जी ने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा वाले हम भृगु आदि अपने पुत्रो को सुनाया था। जब हम प्रजापतियों को प्रजा का विस्तार करने की आज्ञा हुई, तब इसी के द्वारा हमने अपना अज्ञान निवृत्त करके अनेक प्रकार की प्रजा उत्पन्न की थी। अब भी जो भगवत्परायण पुरुष इसका एकाग्रचित्त से नित्यप्रति जप करेगा, उसका शीघ्र ही कल्याण हो जायेगा।

इस लोक में सब प्रकार के कल्याण-साधनों में मोक्षदायक ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ है। ज्ञान-नौका पर चढ़ा हुआ पुरुष अनायास ही इस दुस्तर संसार सागर को पार कर लेता है। यद्यपि भगवान् की आराधना बहुत कठिन है-किन्तु मेरे कहे हुए इस स्तोत्र का जो श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, वह सुगमता से ही उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेगा। भगवान् ही सम्पूर्ण कल्याण साधनों के एकमात्र प्यारे-प्राप्तव्य हैं। अतः मेरे गाये हुए इस स्तोत्र के गान से उन्हें प्रसन्न करके वह स्थिरचित्त होकर उनसे जो कुछ चाहेगा, प्राप्त कर लेगा। जो पुरुष उषःकाल में उठकर इसे श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर सुनता या सुनाता है, वह सब प्रकार के कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है।

राजकुमारों! मैंने तुम्हें जो यह परमपुरुष परमात्मा का स्तोत्र सुनाया है, इसे एकाग्रचित्त से जपते हुए तुम महान् तपस्या करो। तपस्या पूर्ण होने पर इसी से तुम्हें अभीष्ट फल प्राप्त हो जायेगा।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे रुद्रगीतं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय २४ समाप्त हुआ ॥ २४ ॥

आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय २५

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