श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २३                     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २३ "राजा पृथु की तपस्या और परलोक गमन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २३

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २३            

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः २३               

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध तेइसवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

दृष्ट्वात्मानं प्रवयसं एकदा वैन्य आत्मवान् ।

आत्मना वर्धिताशेष स्वानुसर्गः प्रजापतिः ॥ १ ॥

जगतस्तस्थुषश्चापि वृत्तिदो धर्मभृत्सताम् ।

निष्पादितेश्वरादेशो यदर्थमिह जज्ञिवान् ॥ २ ॥

आत्मजेष्वात्मजां न्यस्य विरहाद् रुदतीमिव ।

प्रजासु विमनःस्वेकः सदारोऽगात्तपोवनम् ॥ ३ ॥

तत्राप्यदाभ्यनियमो वैखानससुसम्मते ।

आरब्ध उग्रतपसि यथा स्वविजये पुरा ॥ ४ ॥

कन्दमूलफलाहारः शुष्कपर्णाशनः क्वचित् ।

अब्भक्षः कतिचित्पक्षान् वायुभक्षस्ततः परम् ॥ ५ ॥

ग्रीष्मे पञ्चतपा वीरो वर्षास्वासारषाण्मुनिः ।

आकण्ठमग्नः शिशिरे उदके स्थण्डिलेशयः ॥ ६ ॥

तितिक्षुर्यतवाग्दान्त ऊर्ध्वरेता जितानिलः ।

आरिराधयिषुः कृष्णं अचरत् तप उत्तमम् ॥ ७ ॥

तेन क्रमानुसिद्धेन ध्वस्तकर्ममलाशयः ।

प्राणायामैः सन्निरुद्ध षड्वर्गश्छिन्नबन्धनः ॥ ८ ॥

सनत्कुमारो भगवान् यदाहाध्यात्मिकं परम् ।

योगं तेनैव पुरुषं अभजत् पुरुषर्षभः ॥ ९ ॥

भगवद्धर्मिणः साधोः श्रद्धया यततः सदा ।

भक्तिर्भगवति ब्रह्मणि अनन्यविषयाभवत् ॥ १० ॥

तस्यानया भगवतः परिकर्मशुद्ध

     सत्त्वात्मनस्तदनु संस्मरणानुपूर्त्या ।

ज्ञानं विरक्तिमदभूत् निशितेन येन

     चिच्छेद संशयपदं निजजीवकोशम् ॥ ११ ॥

छिन्नान्यधीरधिगतात्मगतिर्निरीहः

     तत्तत्यजेऽच्छिनदिदं वयुनेन येन ।

तावन्न योगगतिभिर्यतिरप्रमत्तो

     यावद्‍गदाग्रजकथासु रतिं न कुर्यात् ॥ १२ ॥

(अनुष्टुप्)

एवं स वीरप्रवरः संयोज्यात्मानमात्मनि ।

ब्रह्मभूतो दृढं काले तत्याज स्वं कलेवरम् ॥ १३ ॥

सम्पीड्य पायुं पार्ष्णिभ्यां वायुमुत्सारयन् शनैः ।

नाभ्यां कोष्ठेष्ववस्थाप्य हृदुरःकण्ठशीर्षणि ॥ १४ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- इस प्रकार महामनस्वी प्रजापति पृथु ने स्वयमेव अन्नादि तथा पुर-ग्रामदि सर्ग की व्यवस्था करके स्थावर-जगम सभी की आजीविका का सुभीता कर दिया तथा साधुजनोचित धर्मों का खूब पालन किया। मेरी अवस्था कुछ ढल गयी है और जिसके लिये मैंने इस लोक में जन्म लिया था, उस प्रजा रक्षणरूप ईश्वराज्ञा का पालन भी हो चुका है; अतः अब मुझे अन्तिम पुरुषार्थ- मोक्ष के लिये प्रयत्न करना चाहियेयह सोचकर उन्होंने अपने विरह में रोती हुई अपनी पुत्रीरूपा पृथ्वी का भार पुत्रों को सौंप दिया और सारी प्रजा को बिलखती छोड़कर वे अपनी पत्नीसहित अकेले ही तपोवन को चल दिये। वहाँ भी वे वानप्रस्थ आश्रम के नियमानुसार उसी प्रकार कठोर तपस्या में लग गये, जैसे पहले गृहस्थाश्रम में अखण्ड व्रतपूर्वक पृथ्वी को विजय करने में लगे थे।

कुछ दिन तो उन्होंने कन्द-मूल-फल खाकर बिताये, कुछ काल सूखे पत्ते खाकर रहे, फिर कुछ पखवाड़ों तक जल पर ही रहे और इसके बाद केवल वायु से ही निर्वाह करने लगे। वीरवर पृथु मुनिवृत्ति से रहते थे। गर्मियों में उन्होंने पंचाग्नियों का सेवन किया, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर अपने शरीर पर जल की धाराएँ सहीं और जाड़े में गले तक जल में खड़े रहे। वे प्रतिदिन मिट्टी की वेदी पर ही शयन करते थे। उन्होंने शीतोष्णदि सब प्रकार के द्वन्दों को सहा तथा वाणी और मन का संयम करके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्राणों को अपने अधीन किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिये उन्होंने उत्तम तप किया। इस क्रम से उनकी तपस्या बहुत पुष्ट हो गयी और उसके प्रभाव से कर्ममल नष्ट हो जाने के कारण उनका चित्त सर्वथा शुद्ध हो गया। प्राणायाम के द्वारा मन और इन्द्रियों के निरुद्ध हो जाने से उनका वासनाजनित बन्धन गया। तब, भगवान् सनत्कुमार ने उन्हें जिस परमोत्कृष्ट अध्यात्मयोग की शिक्षा दी थी, उसी के अनुसार राजा पृथु पुरुषोत्तम श्रीहरि की आराधना करने लगे। इस तरह भगवत्परायण होकर श्रद्धापूर्वक सदाचार का पालन करते हुए निरन्तर साधन करने से परब्रह्म परमात्मा में उनकी अनन्यभक्ति हो गयी।

इस प्रकार भगवदुपासना से अन्तःकरण शुद्ध-सात्त्विक हो जाने पर निरन्तर भगवच्चितन के प्रभाव के प्रभाव से प्राप्त हुई इस अनन्य भक्ति से उन्हें वैराग्यसहित प्राप्त हुई और फिर उस तीव्र ज्ञान के द्वारा उन्होंने जीव के उपाधिभूत अहंकार को नष्ट कर दिया, जो सब प्रकार के संशय-विपर्यय का आश्रय है। इसके पश्चात् देहात्मबुद्धि की निवृत्ति और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण की अनुभूति होने पर अन्य सब प्रकार की सिद्धि आदि से भी उदासीन हो जाने के कारण उन्होंने उस तत्त्वज्ञान के लिये भी प्रयत्न करना छोड़ दिया, जिसकी सहायता से पहले अपने जीवकोश का नाश किया था, क्योंकि जब तक साधन को योगमार्ग के द्वारा श्रीकृष्ण-कथामृत में अनुराग नहीं होता, तब तक केवल योगसाधना से उसका मोहजनित प्रमाद दूर नहीं होता- भ्रम नहीं मिटता। फिर जब अन्तकाल उपस्थित हुआ तो वीरवर पृथु ने अपने चित्त को दृढ़तापूर्वक परमात्मा में स्थिर कर ब्रह्मभाव में स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया। उन्होंने एड़ी से गुदा के द्वार को रोककर प्राणवायु को धीरे-धीरे मूलाधार से ऊपर की ओर उठाते हुए उसे क्रमशः नाभि, हृदय, वक्षःस्थल, कण्ठ और मस्तक में स्थित किया।

उत्सर्पयंस्तु तं मूर्ध्नि क्रमेणावेश्य निःस्पृहः ।

वायुं वायौ क्षितौ कायं तेजस्तेजस्ययूयुजत् ॥ १५ ॥

खान्याकाशे द्रवं तोये यथास्थानं विभागशः ।

क्षितिमम्भसि तत्तेजसि अदो वायौ नभस्यमुम् ॥ १६ ॥

इन्द्रियेषु मनस्तानि तन्मात्रेषु यथोद्‍भवम् ।

भूतादिनामून्युत्कृष्य महत्यात्मनि सन्दधे ॥ १७ ॥

तं सर्वगुणविन्यासं जीवे मायामये न्यधात् ।

तं चानुशयमात्मस्थं असावनुशयी पुमान् ।

नानवैराग्यवीर्येण स्वरूपस्थोऽजहात्प्रभुः ॥ १८ ॥

अर्चिर्नाम महाराज्ञी तत्पत्‍न्यनुगता वनम् ।

सुकुमार्यतदर्हा च यत्पद्‍भ्यां स्पर्शनं भुवः ॥ १९ ॥

अतीव भर्तुर्व्रतधर्मनिष्ठया

     शुश्रूषया चारषदेहयात्रया ।

नाविन्दतार्तिं परिकर्शितापि सा

     प्रेयस्करस्पर्शनमाननिर्वृतिः ॥ २० ॥

देहं विपन्नाखिलचेतनादिकं

     पत्युः पृथिव्या दयितस्य चात्मनः ।

आलक्ष्य किञ्चिच्च विलप्य सा सती

     चितामथारोपयदद्रिसानुनि ॥ २१ ॥

विधाय कृत्यं ह्रदिनीजलाप्लुता

     दत्त्वोदकं भर्तुरुदारकर्मणः ।

नत्वा दिविस्थांस्त्रिदशांस्त्रिः परीत्य

     विवेश वह्निं ध्यायती भर्तृपादौ ॥ २२ ॥

(अनुष्ट्प्)

विलोक्यानुगतां साध्वीं पृथुं वीरवरं पतिम् ।

तुष्टुवुर्वरदा देवैः देवपत्‍न्यः सहस्रशः ॥ २३ ॥

कुर्वत्यः कुसुमासारं तस्मिन् मन्दरसानुनि ।

नदत्स्वमरतूर्येषु गृणन्ति स्म परस्परम् ॥ २४ ॥

देव्य ऊचुः -

अहो इयं वधूर्धन्या या चैवं भूभुजां पतिम् ।

सर्वात्मना पतिं भेजे यज्ञेशं श्रीर्वधूरिव ॥ २५ ॥

सैषा नूनं व्रजत्यूर्ध्वमनु वैन्यं पतिं सती ।

पश्यतास्मानतीत्यार्चिः दुर्विभाव्येन कर्मणा ॥ २६ ॥

तेषां दुरापं किं त्वन्यन् मर्त्यानां भगवत्पदम् ।

भुवि लोलायुषो ये वै नैष्कर्म्यं साधयन्त्युत ॥ २७ ॥

स वञ्चितो बतात्मध्रुक् कृच्छ्रेण महता भुवि ।

लब्ध्वापवर्ग्यं मानुष्यं विषयेषु विषज्जते ॥ २८ ॥

फिर उसे और ऊपर की ओर ले जाते हुए क्रमशः ब्रह्मरन्ध्र में स्थिर किया। अब उन्हें किसी प्रकार के सांसारिक भोगों की लालसा नहीं रही। फिर यथास्थान विभाग करके प्राणवायु को समष्टि वायु में, पार्थिव शरीर को पृथ्वी में और शरीर के तेज को समष्टि तेज में लीन कर दिया। हृदयाकाशादि देहावच्छिन्न आकाश को महाकाश में और शरीरगत रुधिरादि जलीय अंश को समष्टि जल में लीन किया। इसी प्रकार फिर पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को आकाश में लीन किया। तदनन्तर मन को [सविकल्प ज्ञान में जिनके अधीन वह रहता है, उन] इन्द्रियों में, इन्द्रियों को उनके कारणरूप तन्मात्राओं में और सूक्ष्मभूतों (तन्मात्राओं) के कारण अहंकार के द्वारा आकाश, इन्द्रिय और तन्मात्राओं को उसी अहंकार में लीन कर, अहंकार को महत्ततत्त्व में लीन किया। फिर सम्पूर्ण गुणों की अभिव्यक्ति करने वाले उस महत्तत्त्व को मायोपाधिक जीव में स्थित किया। तदनन्तर उस मायारूप जीव की उपाधि को भी उन्होंने ज्ञान और वैराग्य के प्रभाव से अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप में स्थित होकर त्याग दिया।

महाराज पृथु की पत्नी महारानी अर्चि भी उनके साथ वन को गयी थीं। वे बड़ी सुकुमारी थीं, पैरों से भूमि का स्पर्श करने योग्य भी नहीं थीं। फिर भी उन्होंने अपने स्वामी के व्रत और नियमादि का पालन करते हुए उनकी खूब सेवा की और मुनिवृत्ति के अनुसार कन्द-मूल आदि से निर्वाह किया। इससे यद्यपि वे बहुत दुर्बल हो गयी थीं, तो भी प्रियतम के करस्पर्श से सम्मानित होकर उसी में आनन्द मानने के कारण उन्हें किसी प्रकार कष्ट नहीं होता था।

अब पृथ्वी के स्वामी और अपने प्रियतम महाराज पृथु कि देह को जीवन के चेतना आदि सभी धर्मों से रहित देख उस सती ने कुछ देर विलाप किया। फिर पर्वत के ऊपर चिता बनाकर उसे उस चिता पर रख दिया। इसके बाद उस समय के सारे कृत्य कर नदी के जल में स्नान किया। अपने परम पराक्रमी पति को जलांजलि दे आकाशस्थित देवताओं की वन्दना की तथा तीन बार चिता की परिक्रमा कर पतिदेव के चरणों का ध्यान करती हुई अग्नि में प्रवेश कर गयी। परमसाध्वी अर्चि को इस प्रकार अपने पति वीरवर पृथु का अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी देवियों ने अपने-अपने पतियों के साथ उनकी स्तुति की। वहाँ देवताओं के बाजे बजने लगे। उस समय उस मन्दराचल के शिखर पर वे देवांगनाएँ पुष्पों की वर्षा करती हुई आपस में इस प्रकार कहने लगीं।

देवियों ने कहा ;- अहो! यह स्त्री धन्य है! इसने अपने पति राजराजेश्वर पृथु की मन-वाणी-शरीर से ठीक उसी प्रकार सेवा की है, जैसे श्रीलक्ष्मी जी यज्ञेश्वर भगवान् विष्णु की करती हैं। अवश्य ही अपने अचिन्त्य कर्म के प्रभाव से यह सती हमें भी लाँघकर अपने पति के साथ उच्चतर लोकों को जा रही है। इस लोक में कुछ ही दिनों का जीवन होने पर भी जो लोग भगवान् के परमपद की प्राप्ति कराने वाला आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिये संसार में कौन पदार्थ है। अतः जो पुरुष बड़ी कठिनता से भूलोक में मोक्ष का साधनस्वरूप मनुष्य-शरीर पाकर भी विषयों में आसक्त रहता है, वह निश्चय ही आत्मघाती है; हाय! हाय! वह ठगा गया।

मैत्रेय उवाच -

स्तुवतीष्वमरस्त्रीषु पतिलोकं गता वधूः ।

यं वा आत्मविदां धुर्यो वैन्यः प्रापाच्युताश्रयः ॥ २९ ॥

इत्थम्भूतानुभावोऽसौ पृथुः स भगवत्तमः ।

कीर्तितं तस्य चरितं उद्दामचरितस्य ते ॥ ३० ॥

य इदं सुमहत्पुण्यं श्रद्धयावहितः पठेत् ।

श्रावयेत् श्रुणुयाद्वापि स पृथोः पदवीमियात् ॥ ३१ ॥

ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चस्वी राजन्यो जगतीपतिः ।

वैश्यः पठन् विट्पतिः स्यात् शूद्रः सत्तमतामियात् ॥ ३२ ॥

त्रिकृत्व इदमाकर्ण्य नरो नार्यथवाऽऽदृता ।

अप्रजः सुप्रजतमो निर्धनो धनवत्तमः ॥ ३३ ॥

अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः ।

इदं स्वस्त्ययनं पुंसां अमङ्‌गल्यनिवारणम् ॥ ३४ ॥

धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं कलिमलापहम् ।

धर्मार्थकाममोक्षाणां सम्यक् सिद्धिमभीप्सुभिः ॥ ३५ ॥

श्रद्धयैतदनुश्राव्यं चतुर्णां कारणं परम् ॥ ३५ ॥

विजयाभिमुखो राजा श्रुत्वैतदभियाति यान् ।

बलिं तस्मै हरन्त्यग्रे राजानः पृथवे यथा ॥ ३६ ॥

मुक्तान्यसङ्‌गो भगवति अमलां भक्तिमुद्वहन् ।

वैन्यस्य चरितं पुण्यं श्रृणुयात् श्रावयेत्पठेत् ॥ ३७ ॥

वैचित्रवीर्याभिहितं महन्माहात्म्यसूचकम् ।

अस्मिन्कृतमतिमर्त्यं पार्थवीं गतिमाप्नुयात् ॥ ३८ ॥

अनुदिनमिदमादरेण श्रृण्वन्

     पृथुचरितं प्रथयन् विमुक्तसङ्‌गः ।

भगवति भवसिन्धुपोतपादे

     स च निपुणां लभते रतिं मनुष्यः ॥ ३९ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! जिस समय देवांगनाएँ इस प्रकार स्तुति कर रही थीं, भगवान् के जिस परमधाम को आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवत्प्राण महाराज पृथु गये, महारानी अर्चि भी उसी पतिलोक को गयीं। परम भागवत पृथु जी ऐसे ही प्रभावशाली थे। उनके चरित बड़े उदार हैं, मैंने तुम्हारे सामने उनका वर्णन किया।

जो पुरुष इस परम पवित्र चरित्र को श्रद्धापूर्वक (निष्काम भाव से) एकाग्रचित्त से पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता है-वह भी महाराज पृथु के पद-भगवान् के परमधाम को प्राप्त होता है। इसका सकाम भाव से पाठ करने से ब्राह्मण ब्रह्मतेज प्राप्त करता है, क्षत्रिय पृथ्वीपति हो जाता है, वैश्य व्यापारियों में प्रधान हो जाता है और शूद्र में साधुता आ जाती है। स्त्री हो अथवा पुरुष-जो कोई उसे आदरपूर्वक तीन बार सुनता है, वह सन्तानहीन हो तो पुत्रवान्, धनहीन हो तो महाधनी, कीर्तिहीन हो तो यशस्वी और मूर्ख हो तो पण्डित हो जाता है। यह चरित मनुष्यमात्र का कल्याण करने वाला और अमंगल को दूर करने वाला है।

यह धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला, स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला और कलियुग के दोषों का नाश करने वाला है। यह धर्मादि चतुर्वर्ग की प्राप्ति में भी बड़ा सहायक है; इसलिये जो लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भलीभाँति सिद्ध करना चाहते हों, उन्हें इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिये। जो राजा विजय के लिये प्रस्थान करते समय इसे सुनकर जाता है, उसके आगे आ-आकर राजा लोग उसी प्रकार भेंटें रखते हैं, जैसे पृथु के सामने रखते थे। मनुष्य को चाहिये कि अन्य सब प्रकार कि आसक्ति छोड़कर भगवान् में विशुद्ध निष्काम भक्ति-भाव रखते हुए महाराज पृथु के इस निर्मल चरित को सुने, सुनावे और पढ़े।

विदुर जी! मैंने भगवान् के माहात्म्य को प्रकट करने वाला यह पवित्र चरित्र तुम्हें सुना दिया। इसमें प्रेम करने वाला पुरुष महाराज पृथु की-सी गति पाता है। जो पुरुष इस पृथु-चरित का प्रतिदिन आदरपूर्वक निष्काम भाव से श्रवण और कीर्तन करता है; उसका जिनके चरण संसार सागर को पार करने के लिये नौका के समान हैं, उन श्रीहरि में सुदृढ़ अनुराग हो जाता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुचरिते त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय २३ समाप्त हुआ ॥ २३ ॥

आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय २४

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