श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २२                   

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २२"महाराज पृथु को सनकादिका उपदेश"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २२

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २२          

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः २२             

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध बाइसवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

जनेषु प्रगृणत्स्वेवं पृथुं पृथुलविक्रमम् ।

तत्रोपजग्मुर्मुनयः चत्वारः सूर्यवर्चसः ॥ १ ॥

तांस्तु सिद्धेश्वरान् राजा व्योम्नोऽवतरतोऽर्चिषा ।

लोकानपापान् कुर्वत्या सानुगोऽचष्ट लक्षितान् ॥ २ ॥

तद्दर्शनोद्‍गतान् प्राणान् प्रत्यादित्सुरिवोत्थितः ।

ससदस्यानुगो वैन्य इन्द्रियेशो गुणानिव ॥ ३ ॥

गौरवाद्यन्त्रितः सभ्यः प्रश्रयानतकन्धरः ।

विधिवत्पूजयां चक्रे गृहीताध्यर्हणासनान् ॥ ४ ॥

तत्पादशौचसलिलैः आर्जितालकबन्धनः ।

तत्र शीलवतां वृत्तं आचरन् मानयन्निव ॥ ५ ॥

हाटकासन आसीनान् स्वधिष्ण्येष्विव पावकान् ।

श्रद्धासंयमसंयुक्तः प्रीतः प्राह भवाग्रजान् ॥ ॥ ६ ॥

पृथुरुवाच -

अहो आचरितं किं मे मङ्‌गलं मङ्‌गलायनाः ।

यस्य वो दर्शनं ह्यासीद् दुर्दर्शानां च योगिभिः ॥ ७ ॥

किं तस्य दुर्लभतरं इह लोके परत्र च ।

यस्य विप्राः प्रसीदन्ति शिवो विष्णुश्च सानुगः ॥ ८ ॥

नैव लक्षयते लोको लोकान् पर्यटतोऽपि यान् ।

यथा सर्वदृशं सर्व आत्मानं येऽस्य हेतवः ॥ ९ ॥

अधना अपि ते धन्याः साधवो गृहमेधिनः ।

यद्‍गृहा ह्यर्हवर्याम्बु तृणभूमीश्वरावराः ॥ १० ॥

व्यालालयद्रुमा वै तेऽपि अरिक्ताखिलसम्पदः ।

यद्‍गृहास्तीर्थपादीय पादतीर्थविवर्जिताः ॥ ११ ॥

स्वागतं वो द्विजश्रेष्ठा यद्व्रतानि मुमुक्षवः ।

चरन्ति श्रद्धया धीरा बाला एव बृहन्ति च ॥ १२ ॥

कच्चिन्नः कुशलं नाथा इन्द्रियार्थार्थवेदिनाम् ।

व्यसनावाप एतस्मिन् पतितानां स्वकर्मभिः ॥ १३ ॥

भवत्सु कुशलप्रश्न आत्मारामेषु नेष्यते ।

कुशलाकुशला यत्र न सन्ति मतिवृत्तयः ॥ १४ ॥

तदहं कृतविश्रम्भः सुहृदो वस्तपस्विनाम् ।

सम्पृच्छे भव एतस्मिन् क्षेमः केनाञ्जसा भवेत् ॥ १५ ॥

व्यक्तमात्मवतामात्मा भगवान् आत्मभावनः ।

स्वानां अनुग्रहायेमां सिद्धरूपी चरत्यजः ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- जिस समय प्रजाजन परमपराक्रमी पृथ्वीपाल पृथु की इस प्रकार प्रार्थना कर रहे थे, उसी समय वहाँ सूर्य के समान तेजस्वी चार मुनीश्वर आये। राजा और उनके अनुचरों ने देखा तथा पहचान लिया कि वे सिद्धेश्वर अपनी दिव्य कान्ति से सम्पूर्ण लोकों को पाप निर्मुक्त करते हुए आकाश से उतरकर आ रहे हैं। राजा के प्राण सनकादिकों का दर्शन करते ही, जैसे विषयी जीव विषयों की ओर दौड़ता है, उनकी ओर चल पड़े- मानो उन्हें रोकने के लिये ही वे अपने सदस्यों और अनुयायियों के साथ एकाएक उठकर खड़े हो गये। जब वे मुनिगण अर्ध्य स्वीकार कर आसन पर विराज गये, तब शिष्टाग्रणी पृथु ने उनके गौरव से प्रभावित हो विनयवश गरदन झुकाये हुए उनकी विधिवत् पूजा की। फिर उनके चरणोदक को अपने सिर के बालों पर छिड़का। इस प्रकार शिष्टाजनोचित आचार का आदर तथा पालन करके उन्होंने यही दिखाया कि सभी सत्पुरुषों को ऐसा व्यवहार करना चाहिये। सनकादि मुनीश्वर भगवान् शंकर के अग्रज हैं। सोने के सिंहासन पर वे ऐसे सुशोभित हुए, जैसे अपने-अपने स्थानों पर अग्नि देवता। महाराज पृथु ने बड़ी श्रद्धासंयम के साथ प्रेमपूर्वक उनसे कहा।

पृथु जी ने कहा ;- मंगलमूर्ति मुनीश्वरों! आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ हैं; मुझसे ऐसा क्या पुण्य बना है जिससे स्वतः आपका दर्शन प्राप्त हुआ। जिस पर ब्राह्मण अथवा अनुचरों के सहित श्रीशंकर या विष्णु भगवान् प्रसन्न हों, उसके लिये इहलोक और परलोक में कौन-सी वस्तु दुर्लभ है। इस दृश्य-प्रपंच के कारण महत्त्वादि यद्यपि सर्वगत हैं, तो भी वे सर्वसाक्षी आत्मा को नहीं सकते; इसी प्रकार यद्यपि आप समस्त लोकों में विचरते रहते हैं, तो भी अनधिकारी लोग आपको देख नहीं पाते। जिनके घरों में आप-जैसे पूज्य पुरुष उनके जल, तृण, पृथ्वी, गृहस्वामी अथवा सेवकादि किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार कर लेते हैं, वे गृहस्थ धनहीन होने पर भी धन्य हैं। जिन घरों में कभी भगवद्भक्तों के परम पवित्र चरणोदक के छींटे नहीं पड़े, वे सब प्रकार की ऋषि-सिद्धियों से भरे होने पर भी ऐसे वृक्षों के समान है कि जिन पर साँप रहते हैं।

मुनीश्वरों! आपका स्वागत है। आप लोग तो बाल्यावस्था से ही मुमुक्षुओं के मार्ग का अनुसरण करते हुए एकाग्रचित्त से ब्रह्मचर्यादि महान् व्रतों का बड़ी श्रद्धापूर्वक आचरण कर रहे हैं। स्वामियों! हम लोग अपने कर्मों के वशीभूत होकर विपत्तियों के क्षेत्ररूप इस संसार में पड़े हुए केवल इन्द्रियसम्बन्धी भोगों को ही परम पुरुषार्थ मान रहे हैं; सो क्या हमारे निस्तार का भी कोई उपाय है। आप लोगों से कुशल प्रश्न करना उचित नहीं है, क्योंकि आप निरन्तर आत्मा में रमण करते हैं। आपमें यह कुशल है और यह अकुशल है- इस प्रकार की वृत्तियाँ कभी होती ही नहीं। आप संसारानल से सन्तप्त जीवों के परम सुहृद् हैं, इसलिये आपमें विश्वास करके मैं यह पूछना चाहता हूँ कि इस संसार में मनुष्य का किस प्रकार सुगमता से कल्याण हो सकता है? यह निश्चय है कि जो आत्मवान् (धीर) पुरुषों में आत्मारूप से प्रकाशित होते हैं और उपासकों के हृदय में अपने स्वरूप को प्रकट करने वाले हैं, वे अजन्मा भगवान् नारायण ही अपने भक्तों पर कृपा करने के लिये आप-जैसे सिद्ध पुरुषों के रूप में इस पृथ्वी पर विचरा करते हैं।

मैत्रेय उवाच -

पृथोस्तत्सूक्तमाकर्ण्य सारं सुष्ठु मितं मधु ।

स्मयमान इव प्रीत्या कुमारः प्रत्युवाच ह ॥ १७ ॥

सनत्कुमार उवाच -

साधु पृष्टं महाराज सर्वभूतहितात्मना ।

भवता विदुषा चापि साधूनां मतिरीदृशी ॥ १८ ॥

सङ्‌गमः खलु साधूनां उभयेषां च सम्मतः ।

यत्सम्भाषणसम्प्रश्नः सर्वेषां वितनोति शम् ॥ १९ ॥

अस्त्येव राजन् भवतो मधुद्विषः

     पादारविन्दस्य गुणानुवादने ।

रतिर्दुरापा विधुनोति नैष्ठिकी

     कामं कषायं मलमन्तरात्मनः ॥ २० ॥

शास्त्रेष्वियानेव सुनिश्चितो नृणां

     क्षेमस्य सध्र्यग्विमृशेषु हेतुः ।

असङ्‌ग आत्मव्यतिरिक्त आत्मनि

     दृढा रतिर्ब्रह्मणि निर्गुणे च या ॥ २१ ॥

सा श्रद्धया भगवद्धर्मचर्यया

     जिज्ञासयाऽऽध्यात्मिकयोगनिष्ठया ।

योगेश्वरोपासनया च नित्यं

     पुण्यश्रवःकथया पुण्यया च ॥ २२ ॥

अर्थेन्द्रियारामसगोष्ठ्यतृष्णया

     तत्सम्मतानामपरिग्रहेण च ।

विविक्तरुच्या परितोष आत्मन्

     विना हरेर्गुणपीयूषपानात् ॥ २३ ॥

अहिंसया पारमहंस्यचर्यया

     स्मृत्या मुकुन्दाचरिताग्र्यसीधुना ।

यमैरकामैर्नियमैश्चाप्यनिन्दया

     निरीहया द्वन्द्वतितिक्षया च ॥ २४ ॥

हरेर्मुहुस्तत्परकर्णपूर

     गुणाभिधानेन विजृम्भमाणया ।

भक्त्या ह्यसङ्‌गः सदसत्यनात्मनि

     स्यान्निर्गुणे ब्रह्मणि चाञ्जसा रतिः ॥ २५ ॥

यदा रतिर्ब्रह्मणि नैष्ठिकी पुमान्

     आचार्यवान् ज्ञानविरागरंहसा ।

दहत्यवीर्यं हृदयं जीवकोशं

     पञ्चात्मकं योनिमिवोत्थितोऽग्निः ॥ २६ ॥

दग्धाशयो मुक्तसमस्ततद्‍गुणो

     नैवात्मनो बहिरन्तर्विचष्टे ।

परात्मनोर्यद् व्यवधानं पुरस्तात्

     स्वप्ने यथा पुरुषस्तद्विनाशे ॥ २७ ॥

(अनुष्टुप्)

आत्मानमिन्द्रियार्थं च परं यदुभयोरपि ।

सत्याशय उपाधौ वै पुमान् पश्यति नान्यदा ॥ २८ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- राजा पृथु के ये युक्तियुक्त, गम्भीर, परिमित और मधुर वचन सुनकर श्रीसनत्कुमार जी बड़े प्रसन्न हुए और कुछ मुसकराते हुए कहने लगे।

श्रीसनत्कुमार जी ने कहा ;- महाराज! आपने सब कुछ जानते हुए भी समस्त प्राणियों के कल्याण की दृष्टि से बड़ी अच्छी बात पूछी है। सच है, साधुपुरुषों की बुद्धि ऐसी ही हुआ करती है। सत्पुरुषों का समागम श्रोता और वक्ता दोनों का ही अभिमत होता है, क्योंकि उसके प्रश्नोत्तर सभी का कल्याण करते हैं।

राजन्! श्रीमधुसूदन भगवान् के चरणकमलों के गुणानुवाद में अवश्य ही आपकी अविचल प्रीति है। हर किसी को इसका प्राप्त होना बहुत कठिन है और प्राप्त हो जाने पर यह हृदय के भीतर रहने वाले उस वासनारूप मल को सर्वथा नष्ट कर देती है, जो और किसी उपाय से जल्दी नहीं छुटता। शास्त्र जीवों के कल्याण के लिये भलीभाँति विचार करने वाले हैं; उनमें आत्मा से भिन्न देहादि के प्रति वैराग्य तथा अपने आत्मस्वरूप निर्गुण ब्रह्म में सुदृढ़ अनुराग होना- यही कल्याण का साधन निश्चित किया गया है। शास्त्रों का यह भी कहना है कि गुरु और शास्त्रों के वचनों में विश्वास रखने से, भागवत धर्मों का आचरण करने से, तत्त्वजिज्ञासा से, ज्ञानयोग की निष्ठा से, योगेश्वर श्रीहरि की उपासना से, नित्यप्रति पुण्यकीर्ति श्रीभगवान् की पावन कथाओं को सुनने से, जो लोग धन और इन्द्रियों के भोगों में ही रत हैं उनकी गोष्ठी में प्रेम न रखने से, उन्हें प्रिय लगने वाले पदार्थों का आसक्तिपूर्वक संग्रह न करने से, भगवद्पुराणमृत का पान करने के सिवा अन्य समय आत्मा में ही सन्तुष्ट रहते हुए एकान्तसेवन में प्रेम रखने से, किसी भी जीव को कष्ट न देने से, निवृत्तिनिष्ठा से, आत्महित का अनुसन्धान करते रहने से, श्रीहरि के पवित्र चरित्ररूप श्रेष्ठ अमृत का आस्वादन करने से, निष्कामभाव से यम-नियमों का पालन करने से, कभी किसी की निन्दा न करने से, योगक्षेम के लिये प्रयत्न न करने से, शीतोष्णदि द्वन्दों को सहन करने से, भक्तजनों के कानों को सुख देने वाले श्रीहरि के गुणों का बार-बार वर्णन करने से और बढ़ते हुए भक्तिभाव से मनुष्य का कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण जड़ प्रपंच से वैराग्य हो जाता है और आत्मस्वरूप निर्गुण परब्रह्म में अनायास ही उसकी प्रीति हो जाती है।

परब्रह्म में सुदृढ़ प्रीति हो जाने पर पुरुष सद्गुरु की शरण लेता है; फिर ज्ञान और वैराग्य के प्रबल वेग के कारण वासनाशून्य हुए अपने अविद्यादि पाँच प्रकार के क्लेशों से युक्त अहंकारात्मक अपने लिंग शरीर को वह उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे अग्नि लकड़ी से प्रकट होकर फिर उसी को जला डालती है। इस प्रकार लिंग देह का नाश हो जाने पर वह उसके कर्तृत्वादि सभी गुणों से मुक्त हो जाता है। फिर तो जैसे स्वप्नावस्था में तरह-तरह के पदार्थ देखने पर भी उससे जग पड़ने पर उनमें से कोई चीज दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार वह पुरुष शरीर के बाहर दिखायी देने वाले घट-पटादि और भीतर अनुभव होने वाले सुख-दुःखादि को भी नहीं देखता। इस स्थिति के प्राप्त होने से पहले ये पदार्थ ही जीवात्मा और परमात्मा के बीच में रहकर उनका भेद कर रहे थे। जब तक अन्तःकरणरूप उपाधि रहती है, तभी तक पुरुष को जीवात्मा, इन्द्रियों के विषय और इन दोनों का सम्बन्ध कराने वाले अहंकार का अनुभव होता है; इसके बाद नहीं।

निमित्ते सति सर्वत्र जलादौ अपि पूरुषः ।

आत्मनश्च परस्यापि भिदां पश्यति नान्यदा ॥ २९ ॥

इन्द्रियैर्विषयाकृष्टैः आक्षिप्तं ध्यायतां मनः ।

चेतनां हरते बुद्धेः स्तम्बस्तोयमिव ह्रदात् ॥ ३० ॥

भ्रश्यत्यनु स्मृतिश्चित्तं ज्ञानभ्रंशः स्मृतिक्षये ।

तद्रोधं कवयः प्राहुः आत्मापह्नवमात्मनः ॥ ३१ ॥

नातः परतरो लोके पुंसः स्वार्थव्यतिक्रमः ।

यदध्यन्यस्य प्रेयस्त्वं आत्मनः स्वव्यतिक्रमात् ॥ ३२ ॥

अर्थेन्द्रियार्थाभिध्यानं सर्वार्थापह्नवो नृणाम् ।

भ्रंशितो ज्ञानविज्ञानाद् येनाविशति मुख्यताम् ॥ ३३ ॥

न कुर्यात्कर्हिचित्सङ्‌गं तमस्तीव्रं तितीरिषुः ।

धर्मार्थकाममोक्षाणां यदत्यन्तविघातकम् ॥ ३४ ॥

तत्रापि मोक्ष एवार्थ आत्यन्तिकतयेष्यते ।

त्रैवर्ग्योऽर्थो यतो नित्यं कृतान्तभयसंयुतः ॥ ३५ ॥

परेऽवरे च ये भावा गुणव्यतिकरादनु ।

न तेषां विद्यते क्षेमं ईशविध्वंसिताशिषाम् ॥ ३ ॥ ६ ॥

तत्त्वं नरेन्द्र जगतामथ तस्थूषां च

     देहेन्द्रियासुधिषणात्मभिरावृतानाम् ।

यः क्षेत्रवित्तपतया हृदि विश्वगाविः

     प्रत्यक् चकास्ति भगवान् तमवेहि सोऽस्मि ॥ ३७ ॥

यस्मिन्निदं सदसदात्मतया विभाति

     माया विवेकविधुति स्रजि वाहिबुद्धिः ।

तं नित्यमुक्तपरिशुद्धविशुद्धतत्त्वं

     प्रत्यूढकर्मकलिलप्रकृतिं प्रपद्ये ॥ ३८ ॥

यत्पादपङ्‌कजपलाशविलासभक्त्या

     कर्माशयं ग्रथितमुद्‍ग्रथयन्ति सन्तः ।

तद्वन्न रिक्तमतयो यतयोऽपि रुद्ध

     स्रोतोगणास्तमरणं भज वासुदेवम् ॥ ३९ ॥

कृच्छ्रो महानिह भवार्णवमप्लवेशां

     षड्वर्गनक्रमसुखेन तितीर्षन्ति ।

तत्त्वं हरेर्भगवतो भजनीयमङ्‌घ्रिं

     कृत्वोडुपं व्यसनमुत्तर दुस्तरार्णम् ॥ ४० ॥

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्ट्प्)

स एवं ब्रह्मपुत्रेण कुमारेणात्ममेधसा ।

दर्शितात्मगतिः सम्यक् प्रशस्योवाच तं नृपः ॥ ४१ ॥

बाह्य जगत् में भी देखा जाता है कि जल, दर्पण आदि निमित्तों के रहने पर ही अपने बिम्ब और प्रतिबिम्ब का भेद दिखायी देता है, अन्य समय नहीं। जो लोग विषयचिन्तन में लगे रहते हैं, उनकी इन्द्रियाँ विषयों में फँस जाती हैं तथा मन को भी उन्हीं की ओर खींच ले जाती हैं। फिर तो जैसे जलाशय के तीर पर उगे हुए कुशादि अपनी जड़ों से उसका जल खींचते रहते हैं, उसी प्रकार वह इन्द्रियासक्त मन बुद्धि की विचारशक्ति को क्रमशः हर लेता है। विचारशक्ति के नष्ट हो जाने पर पूर्वापर की स्मृति जाती रहती है और स्मृति का नाश हो जाने पर ज्ञान नहीं रहता। इस ज्ञान के नाश को ही पण्डितजन अपने-आप अपना नाश करनाकहते हैं। जिसके उद्देश्य से अन्य सब पदार्थों में प्रियता का बोध होता है- उस आत्मा का अपने द्वारा ही नाश होने से जो स्वार्थ हानि होती है, उससे बढ़कर लोक में जीव की और कोई हानि नहीं है।

धन और इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करना मनुष्य के सभी पुरुषार्थों का नाश करने वाला हैं; क्योंकि इनकी चिन्ता से वह ज्ञान और विज्ञान से भ्रष्ट होकर वृक्षादि स्थावर योनियों में जन्म पता है। इसलिये जिसे अज्ञानान्धकार से पार होने की इच्छा हो, उस पुरुष को विषयों में आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रप्ति में बड़ी बाधक है। इन चार पुरुषार्थों में भी सबसे श्रेष्ठ मोक्ष ही माना जाता है; क्योंकि अन्य तीन पुरुषार्थों में सर्वदा काल का भय लगा रहता है। प्रकृति में गुणक्षोभ होने के बाद जितने भी उत्तम और अधम भाव- पदार्थ प्रकट हुए हैं, उनमें कुशल से रह सके ऐसा कोई भी नहीं है। काल भगवान् उन सभी के कुशालों को कुचलते रहते हैं।

अतः राजन्! जो भगवान् देह, इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि और अहंकार से आवृत्त सभी स्थावर-जंगम प्राणियों के हृदयों में जीव के नियामक अन्तर्यामी आत्मारूप से सर्वत्र साक्षात् प्रकाशित हो रहे हैं- उन्हें तुम वह मैं ही हूँऐसा जानो। जिस प्रकार माला का ज्ञान हो जाने पर उसमें सर्पबुद्धि नहीं रहती, उसी प्रकार विवेक होने पर जिसका कहीं पता नहीं लगता, ऐसा यह मायामय प्रपंच जिसमें कार्य-कारणरूप से प्रतीत हो रहा है और जो स्वयं कर्मफल कलुषित प्रकृति से परे है, उस नित्यमुक्त, निर्मल और ज्ञानस्वरूप परमात्मा को मैं प्राप्त हो रहा हूँ। संत-महात्मा जिनके चरणकमलों के अंगुलिदल हृदयग्रन्थि को, जो कर्मों से गठित है, इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर डालते हैं कि समस्त इन्द्रियों का प्रत्याहार करके अपने अन्तःकरण को निर्विषय करने वाले संन्यासी भी वैसा नहीं कर पाते। तुम उन सर्वाश्रय भगवान् वासुदेव का भजन करो। जो लोग मन और इन्द्रियरूप मगरों से भरे हुए इस संसार सागर को योगादि दुष्कर साधनों से पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुँचना कठिन ही है; क्योंकि उन्हें कर्णधाररूप श्रीहरि का आश्रय नहीं है। अतः तुम तो भगवान् के आराधनीय चरणकमलों को नौका बनाकर अनायास ही इस दुस्तर समुद्र को पार कर लो।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! ब्रह्मा जी के पुत्र आत्मज्ञानी सनत्कुमार जी से इस प्रकार आत्मतत्त्व का उपदेश पाकर महाराज पृथु ने उनकी बहुत प्रशंसा करते हुए कहा।

राजोवाच -

कृतो मेऽनुग्रहः पूर्वं हरिणाऽऽर्तानुकम्पिना ।

तमापादयितुं ब्रह्मन् भगवन् यूयमागताः ॥ ४२ ॥

निष्पादितश्च कार्त्स्न्येन भगवद्‌भिः घृणालुभिः ।

साधूच्छिष्टं हि मे सर्वं आत्मना सह किं ददे ॥ ४३ ॥

प्राणा दाराः सुता ब्रह्मन् गुहाश्च सपरिच्छदाः ।

राज्यं बलं मही कोश इति सर्वं निवेदितम् ॥ ४४ ॥

सैनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च ।

सर्व लोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ॥ ४५ ॥

स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्‌क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च ।

तस्यैवानुग्रहेणान्नं भुञ्जते क्षत्रियादयः ॥ ४६ ॥

यैरीदृशी भगवतो गतिरात्मवादे

     एकान्ततो निगमिभिः प्रतिपादिता नः ।

तुष्यन्त्वदभ्रकरुणाः स्वकृतेन नित्यं

     को नाम तत्प्रतिकरोति विनोदपात्रम् ॥ ४७ ॥

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

ते आत्मयोगपतय आदिराजेन पूजिताः ।

शीलं तदीयं शंसन्तः खेऽभूवन् मिषतां नृणाम् ॥ ४८ ॥

वैन्यस्तु धुर्यो महतां संस्थित्याध्यात्मशिक्षया ।

आप्तकामं इवात्मानं मेन आत्मन्यवस्थितः ॥ ४९ ॥

कर्माणि च यथाकालं यथादेशं यथाबलम् ।

यथोचितं यथावित्तं अकरोद्‍ब्रह्मसात्कृतम् ॥ ५० ॥

फलं ब्रह्मणि विन्यस्य निर्विषङ्‌गः समाहितः ।

कर्माध्यक्षं च मन्वान आत्मानं प्रकृतेः परम् ॥ ५१ ॥

गृहेषु वर्तमानोऽपि स साम्राज्यश्रियान्वितः ।

नासज्जतेन्द्रियार्थेषु निरहंमतिरर्कवत् ॥ ५२ ॥

एवं अध्यात्मयोगेन कर्माणि अनुसमाचरन् ।

पुत्रान् उत्पादयामास पञ्चार्चिष्यात्मसम्मतान् ॥ ५३ ॥

विजिताश्वं धूम्रकेशं हर्यक्षं द्रविणं वृकम् ।

सर्वेषां लोकपालानां दधारैकः पृथुर्गुणान् ॥ ५४ ॥

गोपीथाय जगत्सृष्टेः काले स्वे स्वेऽच्युतात्मकः ।

मनोवाग् वृत्तिभिः सौम्यैः गुणैः संरञ्जयन् प्रजाः ॥ ५५ ॥

राजेत्यधान् नामधेयं सोमराज इवापरः ।

सूर्यवद्विसृजन्गृह्णन् प्रतपंश्च भुवो वसु ॥ ५६ ॥

दुर्धर्षस्तेजसेवाग्निः महेन्द्र इव दुर्जयः ।

तितिक्षया धरित्रीव द्यौरिवाभीष्टदो नृणाम् ॥ ५७ ॥

वर्षति स्म यथाकामं पर्जन्य इव तर्पयन् ।

समुद्र इव दुर्बोधः सत्त्वेनाचलराडिव ॥ ५८ ॥

धर्मराडिव शिक्षायां आश्चर्ये हिमवानिव ।

कुवेर इव कोशाढ्यो गुप्तार्थो वरुणो यथा ॥ ५९ ॥

मातरिश्वेव सर्वात्मा बलेन महसौजसा ।

अविषह्यतया देवो भगवान् भूतराडिव । ॥ ६० ॥

कन्दर्प इव सौन्दर्ये मनस्वी मृगराडिव ।

वात्सल्ये मनुवन्नॄणां प्रभुत्वे भगवानजः । ॥ ६१ ॥

बृहस्पतिर्ब्रह्मवादे आत्मवत्त्वे स्वयं हरिः ।

भक्त्या गोगुरुविप्रेषु विष्वक्सेनानुवर्तिषु । ॥ ६२ ॥

ह्रिया प्रश्रयशीलाभ्यां आत्मतुल्यः परोद्यमे । ॥ ६२ ॥

कीर्त्योर्ध्वगीतया पुम्भिः त्रैलोक्ये तत्र तत्र ह ।

प्रविष्टः कर्णरन्ध्रेषु स्त्रीणां रामः सतामिव । ॥ ६३ ॥

राजा पृथु ने कहा ;- भगवन्! दीनदयाल श्रीहरि ने मुझ पर पहले कृपा की थी, उसी को पूर्ण करने के लिये आप लोग पधारे हैं। आप लोग बड़े ही दयालु हैं। जिस कार्य के लिये आप लोग पधारे थे, उसे आप लोगों ने अच्छी तरह सम्पन्न कर दिया। अब, इसके बदले में मैं आप लोगों को क्या दूँ ? मेरे पास तो शरीर और इसके साथ जो कुछ है, वह सब महापुरुषों का ही प्रसाद है।

ब्रह्मन्! प्राण, स्त्री, पुत्र सब प्रकार की सामग्रियों से भरा हुआ भवन, राज्य, सेना, पृथ्वी और कोश- यह सब कुछ आप ही लोगों का है, अतः आपके ही श्रीचरणों में अर्पित है। वास्तव में तो सेनापतित्व, राज्य, दण्डविधान और सम्पूर्ण लोकों के शासन का अधिकार वेद-शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों को ही है। ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपनी ही वस्तु दान देता है। दूसरे- क्षत्रिय आदि तो उसी की कृपा से अन्न खाने को पाते हैं। आप लोग वेद के पारगामी हैं, आपने अध्यात्मतत्त्व का विचार करके हमें निश्चित रूप से समझा दिया है कि भगवान् के प्रति इस प्रकार की अभेद-शक्ति ही उनकी उपलब्धि का प्रधान साधन है। आप लोग परम कृपालु हैं। अतः अपने इस दीनोद्धाररूप कर्म से ही सर्वदा सन्तुष्ट रहें। आपके इस उपकार का बदला कोई क्या दे सकता है? उसके लिये प्रयत्न करना भी अपनी हँसी कराना ही है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! फिर आदिराज पृथु ने आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ सनकादि की पूजा की और वे उनके शील ही प्रशंसा करते हुए सब लोगों के सामने ही आकाशमार्ग से चले गये। महात्माओं में अग्रगण्य महाराज पृथु उनके आत्मोपदेश पाकर चित्त की एकाग्रता से आत्मा में ही स्थित रहने के कारण अपने को कृतकृत्य-सा अनुभव करने लगे। वे ब्रह्मार्पण-बुद्धि से समय, स्थान, शक्ति, न्याय और धन के अनुसार सभी कर्म करते थे। इस प्रकार एकाग्रचित्त से समस्त कर्मों का फल परमात्मा को अर्पण करके आत्मा को कर्मों का साक्षी एवं प्रकृति से अतीत देखने के कारण वे सर्वथा निर्लिप्त रहे। जिस प्रकार सूर्यदेव सर्वत्र प्रकाश करने पर भी वस्तुओं के गुण-दोष से निर्लेप रहते हैं, उसी प्रकार सार्वभौम साम्राज्य लक्ष्मी से सम्पन्न और गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी अहंकारशून्य होने के कारण वे इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं हुए।

इस प्रकार आत्मनिष्ठा में स्थित होकर सभी कर्तव्यकर्मों का यथोचित रीति से अनुष्ठान करते हुए उन्होंने अपनी भार्या अर्चि के गर्भ से अपने अनुरूप पाँच पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और वृक थे। महाराज पृथु भगवान् के अंश थे। वे समय-समय पर, जब-जब आवश्यक होता था, जगत् के प्राणियों की रक्षा के लिये अकेले ही समस्त लोकपालों के गुण धारण कर लिया करते थे। अपने उदार मन, प्रिय और हितकर वचन, मनोहर मूर्ति और सौम्य गुणों के द्वारा प्रजा का रंजन करते रहने से दूसरे चन्द्रमा के समान उनका राजायह नाम सार्थक हुआ। सूर्य जिस प्रकार गरमी में पृथ्वी का जल खींचकर वर्षाकाल में उसे पुनः पृथ्वी पर बरसा देता है तथा अपनी किरणों से सबको ताप पहुँचाता है, उसी प्रकार वे कररूप से प्रजा का धन लेकर उसे दुष्कालादि के समय मुक्तहस्त से प्रजा के हित में लगा देते थे तथा सब पर अपना प्रभाव जमाये रखते थे। वे तेज में अग्नि के समान दुर्धर्ष, इन्द्र के समान अजेय, पृथ्वी के समान क्षमाशील और स्वर्ग के समान मनुष्यों की समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाले थे। समय-समय पर प्रजाजनों को तृप्त करने के लिये वे मेघ के समान उनके अभीष्ट अर्थों को खुले हाथ से लुटाते रहते थे। वे समुद्र के समान गम्भीर और पर्वतराज सुमेरु के समान धैर्यवान् भी थे।

महाराज पृथु दुष्टों का दमन करने में यमराज के समान, आश्चर्यपूर्ण वस्तुओं के संग्रह में हिमालय के समान, कोश की समृद्धि करने में कुबेर के समान और धन को छिपाने में वरुण के समान थे। शारीरिक बल, इन्द्रियों की पटुता तथा पराक्रम में सर्वत्र गतिशील वायु के समान और तेज की असह्ता में भगवान् शंकर के समान थे। सौन्दर्य में कामदेव के समान, उत्साह में सिंह के समान, वात्सल्य में मनु के समान और मनुष्यों के आधिपत्य में सर्वसमर्थ ब्रह्मा जी के समान थे। ब्रह्मविचार में बृहस्पति, इन्द्रियजय में साक्षात् श्रीहरि तथा गौ, ब्राह्मण, गुरुजन एवं भगवद्भक्तों की भक्ति, लज्जा, विनय, शील एवं परोपकार आदि गुणों में अपने ही समान (अनुपम) थे। लोग त्रिलोकी में सर्वत्र उच्च स्वर से उनकी कीर्ति का गान करते थे, इससे वे स्त्रियों तक के कानों में वैसे ही प्रवेश पाये हुए थे, जैसे सत्पुरुषों के हृदय में श्रीराम।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुचरिते द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय २२ समाप्त हुआ ॥ २२ ॥

आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय २३  

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