सतीखण्ड अध्याय ३
शिवमहापुराण
के द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीयखण्ड सतीखण्ड के अध्याय ३ में कामदेव को विविध
नामों एवं वरों की प्राप्ति, काम के प्रभाव
से ब्रह्मा तथा ऋषिगणों का मुग्ध होना, धर्म द्वारा स्तुति
करने पर भगवान् शिव का प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियों को समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियों से अग्निष्वात्त आदि पितृगणों की उत्पत्ति, ब्रह्मा द्वारा काम को शाप की प्राप्ति तथा निवारण का उपाय का वर्णन किया
गया है।
रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय ३
Sati
khand chapter 3
शिवपुराणम् संहिता २ (रुद्रसंहिता) खण्डः २ (सतीखण्डः) अध्यायः ३
शिवपुराणम्
रुद्रसंहिता सतीखण्डः तृतीयोऽध्यायः
शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता द्वितीय-सतीखण्ड तीसरा अध्याय
शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय
3
ब्रह्मोवाच ।।
ततस्ते मुनयः सर्वे
तदाभिप्रायवेदिनः ।।
चक्रुस्तदुचितं नाम
मरीचिप्रमुखास्सुताः ।। १ ।।
मुखावलोकनादेव ज्ञात्वा
वृत्तांतमन्यतः ।।
दक्षादयश्च स्रष्टारः स्थानं पत्नीं
च ते ददुः ।।२।।
ततो निश्चित्य नामानि मरीचिप्रमुखा
द्विजाः ।।
ऊचुस्संगतमेतस्मै पुरुषाय ममात्मजाः
।। ३ ।।
ब्रह्माजी बोले —
तब मेरे अभिप्राय को जाननेवाले मेरे पुत्र मरीचि आदि मुनियों ने
उसके उचित नाम रखे ॥ १ ॥ उन सृष्टिकर्ता दक्ष आदि ने उसका मुख देखते ही तथा [उसकी
अन्य चेष्टाओं से] उसके समस्त चरित्र को जानकर उसे रहने का स्थान दिया तथा पत्नी
भी दे दी ॥ २ ॥ मेरे पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने एकत्रित होकर नामों का निश्चय करके
उस पुरुष को नाम भी बता दिये ॥ ३ ॥
ऋषय ऊचुः ।।
यस्मात्प्रमथसे तत्त्वं जातोस्माकं
यथा विधेः ।।
तस्मान्मन्मथनामा त्वं लोके ख्यातो
भविष्यसि ।।४।।
जगत्सु कामरूपस्त्वं त्वत्समो न हि
विद्यते।।
अतस्त्वं कामनामापि ख्यातो भव मनोभव
।।५।।
मदनान्मदनाख्यस्त्वं जातो
दर्पात्सदर्पकः ।।
तस्मात्कंदर्पनामापि लोके ख्यातो
भविष्यसि ।।६।।
त्वत्समं सर्वदेवानां यद्वीर्यं न
भविष्यति ।।
ततः स्थानानि सर्वाणि सर्वव्यापी
भवांस्ततः ।।७।।
दक्षोयं भवते पत्नी स्वयं दास्यति
कामिनीम् ।।
आद्यः प्रजापतिर्यो हि यथेष्टं
पुरुषोत्तमः ।।८।।
एषा च कन्यका चारुरूपा ब्रह्ममनोभवा
।।
संध्या नाम्नेति विख्याता सर्वलोके
भविष्यति ।। ९ ।।
ब्रह्मणो ध्यायतो यस्मात्सम्यग्जाता
वरांगना ।।
अतस्संध्येति विख्याता क्रांताभा
तुल्यमल्लिका ।। १० ।।
ऋषिगण बोले —
तुमने ब्रह्माजी से उत्पन्न होते ही हमलोगों के मन को मथ डाला है,
इसलिये तुम लोक में ‘मन्मथ’ नाम से प्रसिद्ध होओगे ॥ ४ ॥ सभी लोकों में तुम सुन्दर रूपवाले हो,
तुम्हारे समान कोई भी सुन्दर नहीं है, इसलिये
हे मनोभव ! ‘काम’ नाम से भी तुम
विख्यात होओगे ॥ ५ ॥ तुम सभी को मदोन्मत्त करने के कारण ‘मदन’
कहे जाओगे । अहंकारयुक्त होकर दर्प से उत्पन्न हुए हो, इसलिये तुम ‘कन्दर्प’ नाम से
भी संसार में प्रसिद्ध होओगे ॥ ६ ॥ तुम्हारे समान किसी भी देवता का पराक्रम नहीं
होगा, अतः तुम्हारे लिये सभी स्थान होंगे और तुम सर्वव्यापी
होओगे ॥ ७ ॥ ये जो आदिप्रजापति पुरुषोत्तम दक्ष हैं, वे
स्वयं ही तुमको योग्य पत्नी के रूप में सुन्दर स्त्री प्रदान करेंगे ॥ ८ ॥ ब्रह्मा
के मन से उत्पन्न हुई यह सुन्दर रूपवाली कन्या सन्ध्या नाम से सभी लोकों में
विख्यात होगी ॥ ९ ॥ अच्छी प्रकार से ध्यान करते हुए ब्रह्माजी के हृदय से उत्पन्न
होने के कारण तेज आभावाली तथा मल्लिकापुष्प के सदृश यह कन्या सन्ध्या — इस नाम से विख्यात होगी ॥ १० ॥
।। ब्रह्मोवाच ।।
कौसुमानि तथास्त्राणि पंचादाय
मनोभवः ।।
प्रच्छन्नरूपी तत्रैव चिंतयामास
निश्चयम् ।। ११ ।।
हर्षणं रोचनाख्यं च मोहनं शोषणं तथा
।।
मारणं चेति प्रोक्तानि
मुनेर्मोहकराण्यपि ।। १२ ।।
ब्रह्मणा मम यत्कर्म समुद्दिष्टं
सनातनम् ।।
तदिहैव करिष्यामि मुनीनां सन्निधौ
विधे ।। १३ ।।
तिष्ठंति मुनयश्चात्र स्वयं चापि
प्रजापतिः ।।
एतेषां साक्षिभूतं मे भविष्यंत्यद्य
निश्चयम् ।।१४।।
संध्यापि ब्रह्मणा प्रोक्ता चेदानीं
प्रेषयेद्वचः ।।
इह कर्म परीक्ष्यैव
प्रयोगान्मोहयाम्यहम् ।। १५ ।।
ब्रह्माजी बोले —
इस प्रकार कामदेव अपने पाँच पुष्प-आयुधों को लेकर वहीं पर गुप्त रूप
से स्थित होकर विचार करने लगा — ॥ ११ ॥ हर्षण, रोचन, मोहन, शोषण तथा मारण
नामक ये [मेरे] पाँच अस्त्र मुनियों को भी मोहित करनेवाले कहे गये हैं ॥ १२ ॥
ब्रह्माजी ने मुझे जिस सनातन कर्म को करने के लिये आदेश दिया है, उसे मैं यहाँ मुनियों और ब्रह्माजी के सन्निकट ही करूँगा ॥ १३ ॥ यहाँ
बहुत-से मुनिगण तथा स्वयं प्रजापति ब्रह्माजी भी उपस्थित हैं । ये लोग साक्षीरूप
से विद्यमान हैं, इसलिये मेरे कर्म की सत्यता का आरम्भ भी हो
जायगा ॥ १४ ॥ यह ब्रह्माजी के द्वारा सन्ध्या नाम से कही गयी यह कन्या भी मेरे वचन
का समर्थन करेगी । मैं इसी स्थान पर अपने कर्म की परीक्षा करके ही प्रयोग द्वारा
सबको मोहित करूँगा ॥ १५ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
इति संचित्य मनसा निश्चित्य च
मनोभवः ।।
पुष्पजं पुष्पजातस्य योजयामास
मार्गणैः ।। १६ ।।
आलीढस्थानमासाद्य धनुराकृष्य यत्नतः
।।
चकार वलयाकारं कामो धन्विवरस्तदा ।।
१७ ।।
संहिते तेन कोदंडे मारुताश्च
सुगंधयः ।।
ववुस्तत्र मुनिश्रेष्ठ
सम्यगाह्लादकारिणः ।। १८ ।।
ततस्तानपि धात्रादीन् सर्वानेव च
मानसान् ।।
पृथक् पुष्पशरैस्तीक्ष्णैर्मोहयामास
मोहनः ।।१९।।
ततस्ते मुनयस्सर्वे मोहिताश्चाप्यहं
मुने ।।
सहितो मनसा कंचिद्विकारं
प्रापुरादितः ।। २० ।।
संध्यां सर्वे निरीक्षंतस्सविकारं
मुहुर्मुहुः ।।
आसन् प्रवृद्धमदनाः स्त्री
यस्मान्मदनैधिनी ।। २१ ।।
ततः सर्वान्स मदनो मोहयित्वा
पुनःपुनः ।।
यथेन्द्रियविकारं त
प्रापुस्तानकरोत्तथा ।।२२।।
उदीरितेंद्रियो धाता वीक्ष्याहं स
यदा च ताम् ।।
तदैव चोनपंचाशद्भावा जाताश्शरीरतः
।। २३ ।।
सापि तैर्वीक्ष्यमाणाथ
कंदर्पशरपातनात् ।।
चक्रे मुहुर्मुहुर्भावान्कटाक्षावरणादिकान्
।। २४ ।।
निसर्गसुंदरी संध्या तान्भावान्
मानसोद्भवान् ।।
कुर्वंत्यतितरां रेजे स्वर्णदीव
तनूर्मिभिः ।। २५ ।।
अथ भावयुतां संध्यां वीक्ष्याकार्षं
प्रजापतिः ।।
धर्माभिपूरित तनुरभिलाषमहं मुने ।।२६।।
ततस्ते मुनयस्सर्वे मरीच्यत्रिमुखा
अपि ।।
दक्षाद्याश्च द्विजश्रेष्ठ
प्रापुर्वेकारिकेन्द्रियम् ।। २७ ।।
दृष्ट्वा तथाविधा
दक्षमरीचिप्रमुखाश्च माम् ।।
संध्यां च कर्मणि निजे श्रद्दधे
मदनस्तदा ।।२८।।
यदिदं ब्रह्मणा कर्म ममोद्दिष्टं
मयापि तत् ।।
कर्तुं शक्यमिति ह्यद्धा भावितं
स्वभुवा तदा।।२९।।
इत्थं पापगतिं वीक्ष्य भ्रातॄणां च
पितुस्तथा ।।
धर्मस्सस्मार शंभुं वै तदा धर्मावनं
प्रभुम् ।। ३० ।।
संस्मरन्मनसा धर्मं शंकरं
धर्मपालकम् ।।
तुष्टाव विविधैर्वाक्यैर्दीनो
भूत्वाजसंभवः ।। ३१ ।।
ब्रह्माजी बोले —
इस प्रकार विचार करने के अनन्तर मन में निश्चय करके वह अपने पुष्प
के धनुष पर पुष्प के बाणों को चढ़ाने लगा । श्रेष्ठ धनुर्धारी कामदेव ने धनुष
खींचने की मुद्रा में स्थित होकर यत्नपूर्वक धनुष चढ़ाकर उसे मण्डलाकार किया ॥
१६-१७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! जब इस प्रकार के धनुष पर कामदेव ने अपना बाण चढ़ाया,
तो उसी समय [मनको] आह्लादित करनेवाली सुगन्धित वायु बहने लगी ॥ १८ ॥
उस समय कामदेव ने तीक्ष्ण पुष्पबाणों से मुझ ब्रह्मा को तथा सभी मानसपुत्रों को
मोहित कर लिया ॥ १९ ॥ हे मुने ! तत्पश्चात् सभी मुनिगण और मैं भी मोहित हो गया,
सभी के मन में कामविकार उत्पन्न हो गया ॥ २० ॥ विकार से युक्त होने
के कारण सभी लोग सन्ध्या की ओर बार-बार देखने लगे । सभी के मन में काम का उद्रेक
हो गया; क्योंकि स्त्री काम को बढ़ानेवाली होती है ॥ २१ ॥ उस
कामदेव ने सभी को बार-बार मोहित करके जिस किसी भी तरह से वे कामविकार को प्राप्त
हों, वैसा उन सबको कर दिया ॥ २२ ॥ उस स्त्री को देखकर जब मैं
ब्रह्मा उन्मत्त इन्द्रियोंवाला हो गया, उस समय मेरे शरीर से
उनचास भाव उत्पन्न हो गये ॥ २३ ॥ कामबाण के प्रहार से उन सभी के द्वारा देखी जाती
हुई वह सन्ध्या भी अपने कटाक्षों के आवरण से अनेक प्रकार के भाव प्रकट करने लगी ॥
२४ ॥ स्वभाव से सुन्दरी वह सन्ध्या मन से उत्पन्न उन भावों को प्रकट करती हुई
छोटी-छोटी लहरों से युक्त गंगा की तरह शोभित होने लगी ॥ २५ ॥ हे मुने ! इस प्रकार
के भावों से युक्त सन्ध्या को देखकर काम से परिपूर्ण शरीरवाला मैं ब्रह्मा उसकी
अभिलाषा करने लगा ॥ २६ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! तब मरीचि, अत्रि
आदि सभी मुनि तथा दक्ष प्रजापति आदि विकृत इन्द्रियोंवाले हो गये । दक्ष-मरीचि आदि
ऋषियों तथा मुझे और सन्ध्या को भी कामविकार से युक्त देखकर कामदेव को अपने कार्य
पर विश्वास हो गया ॥ २७-२८ ॥ अब कामदेव के मन में यह विश्वास हो गया कि ब्रह्मा ने
मुझे जिस कार्य के लिये आदेश दिया है, मैं वह कार्य करने में
पूर्ण रूप से सक्षम हूँ ॥ २९ ॥ [ब्रह्माजी के पुत्र] धर्म ने अपने पिता तथा भाइयों
की ऐसी दशा देखकर धर्म की रक्षा करनेवाले भगवान् सदाशिव का स्मरण किया ॥ ३० ॥ धर्म
ने धर्मपालक शिवजी का मन से स्मरणकर दीनभावना से युक्त होकर अनेक प्रकार के
वाक्यों से उनकी इस प्रकार स्तुति की — ॥ ३१ ॥
धर्मकृत शिव स्तुति
धर्म उवाच ।।
देवदेव महादेव धर्मपाल नमोस्तु ते
।।
सृष्टिस्थितिविनाशानां कर्ता शंभो
त्वमेव हि ।। ३२ ।।
सृष्टौ ब्रह्मा स्थितौ विष्णुः
प्रलये हररूपधृक् ।।
रजस्सत्त्वतमोभिश्च त्रिगुणैरगुणः
प्रभो ।। ३३ ।।
निस्त्रैगुण्यः शिवः
साक्षात्तुर्यश्च प्रकृतेः परः ।।
निर्गुणो निर्विकारी त्वं
नानालीलाविशारदः ।। ३४ ।।
रक्षरक्ष महादेव पापान्मां
दुस्तरादितः ।।
मत्पितायं तथा चेमे भ्रातरः
पापबुद्धयः ।। ३५ ।।
धर्म बोला —
हे देवाधिदेव ! हे महादेव ! हे धर्मपाल ! आपको नमस्कार है । हे
शम्भो ! सृष्टि, पालन तथा विनाश करनेवाले आप ही हैं ॥ ३२ ॥
हे प्रभो ! आपने निर्गुण होकर भी रज, सत्त्व तथा तमोगुण से
सृष्टिकार्य के लिये ब्रह्मा, पालन के लिये विष्णु तथा प्रलय
के लिये रुद्रस्वरूप धारण किया है ॥ ३३ ॥ [हे प्रभो !] आप शिव तीनों गुणों से रहित,
प्रकृति से परे, तुरीयावस्था में स्थित,
निर्गुण, निर्विकार तथा अनेक प्रकार की लीलाओं
में प्रवीण हैं ॥ ३४ ॥ हे महादेव ! इस भयंकर पाप से मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये, इस समय मेरे पिता तथा मेरे भाई
पापबुद्धिवाले हो गये हैं ॥३५॥
ब्रह्मोवाच।।
इति स्तुतो महेशानो धर्मेणैव परः
प्रभुः ।।
तत्राजगाम शीघ्रं वै रक्षितुं
धर्ममात्मभूः ।। ३६ ।।
जातो वियद्गतश्शंभुर्विधिं दृष्ट्वा
तथाविधम्।।
मां दक्षाद्यांश्च मनसा जहासोपजहास
च ।। ३७ ।।
स साधुवादं तान् सर्वान्विहस्य च
पुनः पुनः ।।
उवाचेदं मुनिश्रेष्ठ लज्जयन्
वृषभध्वजः ।। ३८ ।।
ब्रह्माजी बोले —
धर्म के द्वारा परमात्मा प्रभु की जब इस प्रकार स्तुति की गयी,
तब वे आत्मभू शिव धर्म की रक्षा करने के लिये वहीं प्रकट हो गये ॥
३६ ॥ वे शम्भु आकाश में स्थित होकर मुझ ब्रह्मा तथा दक्ष आदि को इस प्रकार से
मोहित देखकर मन-ही-मन हँसने लगे । हे मुनिश्रेष्ठ ! उन सबको साधुवाद देकर और
बार-बार हँसकर मुझे लज्जित करते हुए वे वृषभध्वज यह कहने लगे — ॥ ३७-३८ ॥
शिव उवाच ।।
अहो ब्रह्मंस्तव कथं
कामभावस्समुद्गतः ।।
दृष्ट्वा च तनयां नैव योग्यं
वेदानुसारिणाम् ।।३९।।
यथा माता च भगिनी भ्रातृपत्नी तथा
सुता ।।
एतः कुदृष्ट्या द्रष्टव्या न कदापि
विपश्चिता ।। ४० ।।
एष वै वेदमार्गस्य
निश्चयस्त्वन्मुखे स्थितः ।।
कथं तु काममात्रेण स ते विस्मारितो
विधे ।। ४१ ।।
धैर्ये जागरितं ब्रह्मन्मनस्ते
चतुरानन ।।
कथं क्षुद्रेण कामेन रंतुं विगटितं
विधे ।। । ४२ ।।
एकांतयोगिनस्तस्मात्सर्वदादित्यदर्शिनः
।।
कथं दक्षमरीच्याद्या लोलुपाः
स्त्रीषु मानसाः ।। ४३ ।।
कथं कामोपि मंदात्मा
प्राबल्यात्सोधुनैव हि ।।
विकृतान्बाणैः
कृतवानकालज्ञोल्पचेतनः ।।४४।।
धिक्तं श्रुतं सदा तस्य यस्य कांता
मनोहरत् ।।
धैर्यादाकृष्य लौल्येषु मज्जयत्यपि
मानसम् ।।४५।।
शिवजी बोले —
हे ब्रह्मन् ! अपनी कन्या को देखकर आपको कामभाव कैसे उत्पन्न हो गया
? वेदों का अनुसरण करनेवालों के लिये यह उचित नहीं है ॥ ३९ ॥
बुद्धिमान् को चाहिये कि माता, भगिनी, भ्रातृपत्नी
तथा कन्या को समान भाव से देखे । इन्हें कदापि कुदृष्टि से न देखे ॥ ४० ॥ वेदमार्ग
का यह सिद्धान्त तो आपके मुख में स्थित है । हे विधे ! आपने काम के उत्पन्न होते
ही उसे कैसे विस्मृत कर दिया ! ॥ ४१ ॥ हे चतुरानन ! आपके मन में धैर्य जागरूक रहना
चाहिये । आश्चर्य है कि आपने इस काम के वशीभूत हो कन्या से रमण करने के लिये इस
प्रकार अपने धैर्य को नष्ट कर दिया ॥ ४२ ॥ एकान्त-योगी तथा सर्वदा सूर्य का दर्शन
करनेवाले दक्ष, मरीचि आदि भी स्त्री में आसक्त चित्तवाले हो
गये ॥ ४३ ॥ देश-काल का ज्ञान न रखनेवाले, मन्दात्मा तथा अल्प
बुद्धिवाले कामदेव ने भी अपनी प्रबलता से कामबाणों द्वारा आपलोगों को विकारयुक्त
कैसे बना दिया ? ॥ ४४ ॥ उस पुरुष को तथा उसके वेद, शास्त्र आदि के ज्ञान को धिक्कार है, जिसके मन को
स्त्री हर लेती है और धैर्य से विचलित करके मन को लोलुपता में डुबा देती है ॥ ४५ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
इति तस्य वचः श्रुत्वा लोके सोहं
शिवस्य च ।।
व्रीडया
द्विगुणीभूतस्स्वेदार्द्रस्त्वभवं क्षणात् ।।४६।।
ततो निगृह्यैंद्रियकं विकारं
चात्यजं मुने ।।
जिघृक्षुरपि तद्भीत्या तां संध्यां
कामरूपिणीम् ।।४७।।
मच्छरीरात्तु घर्मांभो यत्पपात
द्विजोत्तम ।।
धर्मांभो अग्निष्वात्ताः पितृगणा
जाताः पितृगणास्ततः ।।४८।।
भिन्नांजननिभास्सर्वे
फुल्लराजीवलोचनाः ।।
नितांतयतयः पुण्यास्संसारविमुखाः
परे ।।४९।।
सहस्राणां चतुःषष्टिरग्निष्वात्ताः
प्रकीर्तिता ।।
षडशीतिसहस्राणि तथा बर्हिषदो मुने
।। ५० ।।
घर्मांभः पतितं भूमौ तदा दक्षशरीरतः
।।
समस्तगुणसंपन्ना तस्माज्जाता
वरांगना ।।५१।।
तन्वंगी सममध्या च तनुरोमावली
श्रुता ।।
मृद्वंगी चारुदशना नवकांचनसुप्रभा
।।५२।।
सर्वावयवरम्या च
पूर्णचन्द्राननाम्बुजा ।।
नाम्ना रतिरिति ख्याता मुनीनामपि
मोहिनी ।।५३।।
मरीचिप्रमुखा षड् वै
निगृहीतेन्द्रियक्रियाः ।।
ऋते क्रतुं वसिष्ठं च
पुलस्त्यांगिरसौ तथा ।।।। ५४ ।।
क्रत्वादीनां चतुर्णां च बीजं भूमौ
पपात च ।।
तेभ्यः पितृगणा जाता अपरे
मुनिसत्तम।।५५।।
सोमपा आज्यपा नाम्ना तथैवान्ये
सुकालिनः ।।
हविष्मंतस्तु तास्सर्वे कव्यवाहाः
प्रकीर्तिताः ।। ५६ ।।
क्रतोस्तु सोमपाः पुत्रा
वसिष्ठात्कालिनस्तथा ।।
आज्यपाख्याः पुलस्त्यस्य
हविष्मंतोंगिरस्सुताः ।।५७।।
जातेषु तेषु विप्रेन्द्र
अग्निष्वात्तादिकेष्वथ।।
लोकानां पितृवर्गेषु कव्यवाह स
समंततः ।। ५८ ।।
संध्या पितृप्रसूर्भूत्वा
तदुद्देशयुताऽभवत् ।।
निर्दोषा शंभुसंदृष्टा धर्मकर्मपरायणा
।। ५९ ।।
एतस्मिन्नंतरे
शम्भुरनुगृह्याखिलान्द्विजान् ।।
धर्मं संरक्ष्य विधिवदंतर्धानं गतो
द्रुतम् ।। ६० ।।
अथ शंकरवाक्येन लज्जितोहं पितामहः
।।
कंदर्प्पायाकोपिंत हि
भ्रुकुटीकुटिलाननः ।। ६१ ।।
दृष्ट्वा मुखमभिप्रायं विदित्वा
सोपि मन्मथः ।।
स्वबाणान्संजहाराशु भीतः
पशुपतेर्मुने ।। ६२ ।।
ततः कोपसमायुक्तः पद्मयोनिरहं मुने
।।
अज्वलं चातिबलवान् दिधक्षुरिव पावकः
।। ६३ ।।
भवनेत्राग्निनिर्दग्धः कंदर्पो
दर्पमोहितः ।।
भविष्यति महादेवे कृत्वा कर्मं
सुदुष्करम् ।। ६४ ।।
इति वेधास्त्वहं काममक्षयं द्विजसत्तम
।।
समक्षं पितृसंघस्य मुनीनां च
यतात्मनाम् ।। ६५ ।।
इति भीतो
रतिपतिस्तत्क्षणात्त्यक्तमार्गणः ।।
प्रादुर्बभूव प्रत्यक्षं शापं
श्रुत्वातिदारुणम् ।। ६६ ।।
ब्रह्माणं मामुवाचेदं स दक्षादिसुतं
मुने ।।
शृण्वतां पितृसंघानां संध्यायाश्च
विगर्वधीः ।। ६७ ।।
ब्रह्माजी बोले —
इस प्रकार सदाशिव के वचन को सुनकर मैं दुगुनी लज्जा में पड़ गया,
उस समय मेरा शरीर पसीने से पानी-पानी हो उठा ॥ ४६ ॥ हे मुने !
तत्पश्चात् कामरूपिणी सन्ध्या को ग्रहण करने की इच्छा करते हुए भी मैंने शिवजी के
भय से इन्द्रियों को वश में करके कामविकार को दूर कर दिया ॥ ४७ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ
! उस समय मेरे शरीर से [लज्जा के कारण] जो पसीना गिरा, उसी
से अग्निष्वात्त तथा बर्हिषद् नामक पितृगणों की उत्पत्ति हुई । अंजन के समान
कृष्णवर्णवाले और विकसित कमल के समान नेत्रवाले वे पितर महायोगी, पुण्यशील तथा संसार से विमुख रहनेवाले हैं ॥ ४८-४९ ॥ हे मुने ! चौंसठ हजार
अग्निष्वात्त पितर और छियासी हजार बर्हिषद् पितर कहे गये हैं ॥ ५० ॥ उसी समय दक्ष
के शरीर से भी स्वेद निकलकर पृथ्वी पर गिरा, उससे समस्त
गुणसम्पन्न परम मनोहर एक स्त्री की उत्पत्ति हुई ॥ ५१ ॥ उसका शरीर सूक्ष्म था,
कटिप्रदेश सम था, शरीर की रोमावली अत्यन्त
सूक्ष्म थी, उसके अंग कोमल तथा दाँत परम सुन्दर थे और वह तपे
हुए सोने के समान कान्ति से देदीप्यमान हो रही थी ॥ ५२ ॥ वह अपने शरीर के समस्त
अवयवों से बड़ी मनोहर प्रतीत हो रही थी तथा उसका मुखकमल पूर्ण चन्द्रमा के समान था
। उसका नाम रति था, जो मुनियों के भी मन को मोहित करनेवाली
थी ॥ ५३ ॥ क्रतु, वसिष्ठ, पुलस्त्य तथा
अंगिरा को छोड़कर मरीचि आदि छः ऋषियों ने अपनी इन्द्रियों का निग्रह कर लिया । हे
मुनिश्रेष्ठ ! इन क्रतु आदि चार ऋषियों का वीर्य पृथ्वी पर गिरा, उन्हीं से दूसरे पितृगणों की उत्पत्ति हुई ॥ ५४-५५ ॥ इन पितरों में सोमपा,
आज्यपा, सुकालिन् तथा हविष्मान् मुख्य हैं ।
ये सभी पुत्र कव्य को धारण करनेवाले कहे गये हैं ॥ ५६ ॥ क्रतु के पुत्र सोमपा नामक
पितर, वसिष्ठ के पुत्र सुकालिन् नामक पितर, पुलस्त्य के पुत्र आज्यपा तथा अंगिरा के पुत्र हविष्मान् नामक पितर के रूप
में उत्पन्न हुए ॥ ५७ ॥ हे विप्रेन्द्र ! इस प्रकार अग्निष्वात्त आदि पितरों के
उत्पन्न हो जाने पर पितरों के मध्य वे सभी कव्य का वहन करनेवाले कव्यवाट् हुए ॥ ५८
॥ इस प्रकार सन्ध्या पितरों को उत्पन्न करनेवाली बनकर उनकी उद्देश्यसिद्धि में लगी
रहती थी । यह शिव के द्वारा देख लिये जाने के कारण दोषों से रहित तथा धर्म-कर्म
में परायण रहती थी ॥ ५९ ॥ इसी बीच सदाशिव समस्त महर्षियों पर अनुग्रह करके तथा
विधिपूर्वक धर्म की रक्षाकर शीघ्र ही अन्तर्धान हो गये ॥ ६० ॥ उसके बाद शम्भु सदाशिव
के वाक्यों से मैं पितामह लज्जित हुआ । मैंने अपनी भुकुटि चढ़ा ली और कामदेव पर
बड़ा क्रुद्ध हुआ ॥ ६१ ॥ हे मुने ! मेरे मुख को देखकर और मेरा अभिप्राय समझकर
रुद्र से भयभीत उस कामदेव ने अपने बाणों को लौटा लिया ॥ ६२ ॥ हे मुने ! तब मैं
पद्मयोनि ब्रह्मा कोपयुक्त होकर इस प्रकार जलने लगा, जिस
प्रकार भस्म करने की इच्छावाली अति बलवान् अग्नि प्रज्वलित हो उठती है ॥ ६३ ॥
[मैंने क्रोध में भरकर उसे यह शाप दे दिया] अहंकार से मोहित हुआ यह कन्दर्प शिवजी
के प्रति दुष्कर कर्म करके उनकी नेत्राग्नि से भस्म हो जायगा ॥ ६४ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ
! इस प्रकार मुझ ब्रह्मा ने पितृसमूहों के तथा जितेन्द्रिय मुनियों के सामने इस
काम को यह अमित शाप दिया ॥ ६५ ॥ मेरे शाप को सुनकर भयभीत हुआ कामदेव उसी क्षण अपने
बाणों को त्यागकर सबके सामने प्रकट हो गया ॥ ६६ ॥ हे मुने ! उसका सारा गर्व नष्ट
हो गया । तब वह दक्ष आदि मेरे पुत्रों, [अग्निष्वात्तादि]
पितरों, सन्ध्या एवं मुझ ब्रह्मा के सामने ही सबको सुनाते
हुए यह कहने लगा — ॥ ६७ ॥
काम उवाच ।।
किमर्थं भवता ब्रह्मञ् शप्तोहमिति
दारुणम् ।।
अनागास्तव लोकेश
न्याय्यमार्गानुसारिणः ।। ६८ ।।
त्वया चोक्तं नु मत्कर्म यत्तद्ब्रह्मन्
कृतं मया ।।
तत्र योग्यो न शापो मे यतो
नान्यत्कृतं मया ।। ६९ ।।
अहं विष्णुस्तथा शंभुः सर्वे त्वच्छ
रगोचराः ।।
इति यद्भवता प्रोक्तं तन्मयापि
परीक्षितम् ।। ७० ।।
नापराधो ममाप्यत्र ब्रह्मन् मयि
निरागसि ।।
दारुणः समयश्चैव शापो देव जगत्पते
।। ७१ ।।
काम बोला —
हे ब्रह्मन् ! आप तो न्यायमार्ग का अनुसरण करनेवाले हैं, हे लोकेश ! तब मुझ निरपराध को आपने इस प्रकार दारुण शाप क्यों दे दिया ?
॥ ६८ ॥ हे ब्रह्मन् ! आपने मेरे लिये जो कहा था, मैंने तो वही कार्य किया । आपको मुझे शाप देना ठीक नहीं है; क्योंकि मैंने [आपकी आज्ञा के विरुद्ध] कोई अन्य कार्य नहीं किया है ॥ ६९
॥ [हे ब्रह्मन् !] मैं [ब्रह्मा], विष्णु तथा शिव — ये सब भी तुम्हारे बाणों के वशीभूत होकर रहेंगे — ऐसा
जो आपने कहा था, उसी के अनुसार ही मैंने परीक्षा ली थी ॥ ७०
॥ अतः हे ब्रह्मन् ! इसमें मेरा अपराध नहीं है । हे देव ! हे जगत्पते ! यदि आपने
मुझ निरपराध को यह दारुण शाप दे ही दिया, तो इसका कोई समय भी
निश्चित कर दीजिये ॥ ७१ ॥
ब्रह्मोवाच।।
इति तस्य वचः श्रुत्वा ब्रह्माहं
जगतां पतिः ।।
प्रत्यवोचं यतात्मानं मदनं
दमयन्मुहुः।। ।। ७२ ।।
ब्रह्माजी बोले —
[हे नारद!] तब मैं जगत्पति ब्रह्मा उसकी यह बात सुनकर चित्त को वश
में करनेवाले काम को बार-बार डाँटता हुआ इस प्रकार बोला — ॥
७२ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
आत्मजा मम संध्येयं यस्मादेतत्स
कामतः ।।
लक्ष्यीकृतोहं भवता ततश्शापो मया
कृतः ।। ७३ ।।
अधुना शांतरोषोहं त्वां वदामि मनोभव
।।
शृणुष्व गतसंदेहस्सुखी भव भयं त्यज
।।७४।।
त्वं भस्म भूत्वा मदन
भर्गलोचनवह्निना ।।
तथैवाशु समं पश्चाच्छरीरं
प्रापयिष्यसि ।। ७५ ।।
यदा करिष्यति हरोंजसा दारपरिग्रहम्
।।
तदा स एव भवतश्शरीरं प्रापयिष्यति
।। ७६ ।।
ब्रह्माजी बोले —
[हे काम !] यह सन्ध्या मेरी
कन्या है, तुमने इसकी ओर सकाम करने के लिये मुझे [अपने
कामका] लक्ष्य बनाया । इसलिये मैंने तुम्हें शाप दिया ॥ ७३ ॥ हे मनोभव ! अब मेरा
क्रोध शान्त हो गया है, अतः मैं तुमसे कह रहा हूँ, उसे सुनो । तुम सन्देहरहित होकर सुखी हो जाओ और भय छोड़ो ॥ ७४ ॥ हे मदन ! तुम
महादेवजी की नेत्राग्नि से भस्म होकर बाद में शीघ्र ही इसीके समान शरीर प्राप्त
करोगे ॥ ७५ ॥ जब शंकरजी विवाह करेंगे, तब वे अनायास ही
तुम्हें शरीर प्रदान करेंगे ॥ ७६ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
एवमुक्त्वाथ मदनमहं लोकपितामहः ।।
अंतर्गतो मुनीन्द्राणां मानसानां
प्रपश्यताम् ।।७७।।
इत्येवं मे वचश्श्रुत्वा मदनस्तेपि
मानसाः ।।
संबभूवुस्सुतास्सर्वे सुखिनोऽरं
गृहं गताः ।।७८।।
ब्रह्माजी बोले —
[हे नारद!] काम से इस प्रकार कहकर मैं लोकपितामह उन मानसपुत्र
मुनिवरों के देखते-देखते ही अन्तर्धान हो गया ॥ ७७ ॥ इस प्रकार मेरे वचन को सुनकर
कामदेव तथा मेरे वे सभी मानसपुत्र प्रसन्न हो गये और शीघ्रता से अपने-अपने घरों को
चले गये ॥ ७८ ॥
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां द्वितीये सतीखंडे कामशापानुग्रहो नाम तृतीयोऽध्यायः ।।३।।
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के
अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में कामशापानुग्रहवर्णन नामक
तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥
शेष जारी .............. शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय 4
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