श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १५

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १५                                  

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १५"चित्रकेतु को अंगिरा और नारद जी का उपदेश"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १५

श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १५                                                      

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः १५                                                         

श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १५ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ पञ्चदशोऽध्यायः - १५ ॥

श्रीशुक उवाच

ऊचतुर्मृतकोपान्ते पतितं मृतकोपमम् ।

शोकाभिभूतं राजानं बोधयन्तौ सदुक्तिभिः ॥ १॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजा चित्रकेतु शोकग्रस्त होकर मुर्दे के समान अपने मृत पुत्र के पास ही पड़े हुए थे। अब महर्षि अंगिरा और देवर्षि नारद उन्हें सुन्दर-सुन्दर उक्तियों से समझाने लगे।

कोऽयं स्यात्तव राजेन्द्र भवान् यमनुशोचति ।

त्वं चास्य कतमः सृष्टौ पुरेदानीमतः परम् ॥ २॥

यथा प्रयान्ति संयान्ति स्रोतोवेगेन वालुकाः ।

संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तथा कालेन देहिनः ॥ ३॥

यथा धानासु वै धाना भवन्ति न भवन्ति च ।

एवं भूतेषु भूतानि चोदितानीशमायया ॥ ४॥

वयं च त्वं च ये चेमे तुल्यकालाश्चराचराः ।

जन्ममृत्योर्यथा पश्चात्प्राङ् नैवमधुनापि भोः ॥ ५॥

भूतैर्भूतानि भूतेशः सृजत्यवति हन्त्यजः ।

आत्मसृष्टैरस्वतन्त्रैरनपेक्षोऽपि बालवत् ॥ ६॥

देहेन देहिनो राजन् देहाद्देहोऽभिजायते ।

बीजादेव यथा बीजं देह्यर्थ इव शाश्वतः ॥ ७॥

देहदेहिविभागोऽयमविवेककृतः पुरा ।

जातिव्यक्तिविभागोऽयं यथा वस्तुनि कल्पितः ॥ ८॥

उन्होंने कहा ;- राजेन्द्र! जिसके लिये तुम शोक कर रहे हो, वह बालक इस जन्म और पहले के जन्मों में तुम्हारा कौन था? उसके तुम कौन थे? और अगले जन्मों में भी उसके साथ तुम्हारा क्या सम्बन्ध रहेगा? जैसे जल के वेग से बालू के कण एक-दूसरे से जुड़ते और बिछुड़ते रहते हैं, वैसे ही समय के प्रवाह में प्राणियों का भी मिलन और बिछोह होता रहता है।

राजन्! जैसे कुछ बीजों से दूसरे बीज उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही भगवान् की माया से प्रेरित होकर प्राणियों से अन्य प्राणी उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं। राजन! हम, तुम और हम लोगों के साथ इस जगत् में जितने भी चराचर प्राणी वर्तमान हैं- वे सब अपने जन्म के पहले नहीं थे और मृत्यु के पश्चात् नहीं रहेंगे। इससे सिद्ध है कि इस समय भी उनका अस्तित्व नहीं है। क्योंकि सत्य वस्तु तो सब समय एक-सी रहती है। भगवान् ही समस्त प्राणियों के अधिपति हैं। उनमें जन्म-मृत्यु इच्छा है और न अपेक्षा। वे अपने-आप परतन्त्र प्राणियों की सृष्टि कर लेते हैं और उनके द्वारा अन्य प्राणियों की रचना, पालन तथा संहार करते हैं- ठीक वैसे ही जैसे बच्चे घर-घरौंदे, खेल-खिलौने बना-बनाकर बिगाड़ते रहते हैं।

राजन! जैसे एक बीज से दूसरा बीज उत्पन्न होता है, वैसे ही पिता देह द्वारा माता की देह से पुत्र की देह उत्पन्न होती है। पिता-माता और पुत्र जीव के रूप में देही हैं और बाह्य दृष्टि से केवल शरीर। उसमें देहीजीव घट आदि कार्यों में पृथ्वी के समान नित्य है। राजन्! जैसे एक मृत्तिकारूप वस्तु में घटत्व आदि जाति और घट आदि व्यक्तियों का विभाग केवल कल्पना मात्र है, उसी प्रकार यह देही और देह का विभाग भी अनादि एवं अविद्या-कल्पित है।

श्रीशुक उवाच

एवमाश्वासितो राजा चित्रकेतुर्द्विजोक्तिभिः ।

प्रमृज्य पाणिना वक्त्रमाधिम्लानमभाषत ॥ ९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! जब महर्षि अंगिरा और देवर्षि नारद ने इस प्रकार राजा चित्रकेतु को समझाया-बुझाया, तब उन्होंने कुछ धीरज धारण करके शोक से मुरझाये हुए मुख को हाथ से पोंछा और उनसे कहा-

राजोवाच

कौ युवां ज्ञानसम्पन्नौ महिष्ठौ च महीयसाम् ।

अवधूतेन वेषेण गूढाविह समागतौ ॥ १०॥

चरन्ति ह्यवनौ कामं ब्राह्मणा भगवत्प्रियाः ।

मादृशां ग्राम्यबुद्धीनां बोधायोन्मत्तलिङ्गिनः ॥ ११॥

कुमारो नारद ऋभुरङ्गिरा देवलोऽसितः ।

अपान्तरतमो व्यासो मार्कण्डेयोऽथ गौतमः ॥ १२॥

वसिष्ठो भगवान् रामः कपिलो बादरायणिः ।

दुर्वासा याज्ञवल्क्यश्च जातूकर्ण्यस्तथारुणिः ॥ १३॥

रोमशश्च्यवनो दत्त आसुरिः सपतञ्जलिः ।

ऋषिर्वेदशिरा बोध्यः मुनिः पञ्चशिरास्तथा ॥ १४॥

हिरण्यनाभः कौसल्यः श्रुतदेव ऋतध्वजः ।

एते परे च सिद्धेशाश्चरन्ति ज्ञानहेतवः ॥ १५॥

तस्माद्युवां ग्राम्यपशोर्मम मूढधियः प्रभू ।

अन्धे तमसि मग्नस्य ज्ञानदीप उदीर्यताम् ॥ १६॥ राजा चित्रकेतु बोले ;- आप दोनों परम ज्ञानवान् और महान् से भी महान् जान पड़ते हैं तथा अपने को अवधूतवेष में छिपाकर यहाँ आये हैं। कृपा करके बतलाइये, आप लोग हैं कौन? मैं जानता हूँ कि बहुत-से भगवान् के प्यारे ब्रह्मवेत्ता मेरे-जैसे विषयासक्त प्राणियों को उपदेश करने के लिये उन्मत्त का-सा वेष बनाकर पृथ्वी पर स्वच्छन्द विचरण करते हैं। सनत्कुमार, नारद, ऋभु, अंगिरा, देवल, असित, अपान्तरतम व्यास, मार्कण्डेय, गौतम, वसिष्ठ, भगवान् परशुराम, कपिलदेव, शुकदेव, दुर्वासा, याज्ञवल्क्य, जातूकर्ण्य, आरुणि, रोमश, च्यवन, दत्तात्रेय, आसुरि, पंतजलि, वेदशिरा, बोध्यमुनि, पंचशिरा, हिरण्यनाभ, कौसल्य, श्रुतदेव और ऋतध्वज- ये सब तथा दूसरे सिद्धेश्वर ऋषि-मुनि ज्ञानदान करने के लिये पृथ्वी पर विचरते रहते हैं। स्वामियों! मैं विषय भोगों में फँसा हुआ, मूढ़बुद्धि ग्राम्य पशु हूँ और अज्ञान के घोर अन्धकार में डूब रहा हूँ। आप लोग मुझे ज्ञान की ज्योति से प्रकाश केन्द्र में लाइये।

अङ्गिरा उवाच

अहं ते पुत्रकामस्य पुत्रदोऽस्म्यङ्गिरा नृप ।

एष ब्रह्मसुतः साक्षान्नारदो भगवान् ऋषिः ॥ १७॥

इत्थं त्वां पुत्रशोकेन मग्नं तमसि दुस्तरे ।

अतदर्हमनुस्मृत्य महापुरुषगोचरम् ॥ १८॥

अनुग्रहाय भवतः प्राप्तावावामिह प्रभो ।

ब्रह्मण्यो भगवद्भक्तो नावसीदितुमर्हति ॥ १९॥

तदैव ते परं ज्ञानं ददामि गृहमागतः ।

ज्ञात्वान्याभिनिवेशं ते पुत्रमेव ददावहम् ॥ २०॥

अधुना पुत्रिणां तापो भवतैवानुभूयते ।

एवं दारा गृहा रायो विविधैश्वर्यसम्पदः ॥ २१॥

शब्दादयश्च विषयाश्चला राज्यविभूतयः ।

मही राज्यं बलं कोशो भृत्यामात्यसुहृज्जनाः ॥ २२॥

सर्वेऽपि शूरसेनेमे शोकमोहभयार्तिदाः ।

गन्धर्वनगरप्रख्याः स्वप्नमायामनोरथाः ॥ २३॥

दृश्यमाना विनार्थेन न दृश्यन्ते मनोभवाः ।

कर्मभिर्ध्यायतो नानाकर्माणि मनसोऽभवन् ॥ २४॥

अयं हि देहिनो देहो द्रव्यज्ञानक्रियात्मकः ।

देहिनो विविधक्लेशसन्तापकृदुदाहृतः ॥ २५॥

तस्मात्स्वस्थेन मनसा विमृश्य गतिमात्मनः ।

द्वैते ध्रुवार्थविश्रम्भं त्यजोपशममाविश ॥ २६॥

महर्षि अंगिरा ने कहा ;- राजन्! जिस समय तुम पुत्र के लिये बहुत लालायित थे, तब मैंने ही तुम्हें पुत्र दिया था। मैं अंगिरा हूँ। ये जो तुम्हारे सामने खड़े हैं, स्वयं ब्रह्मा जी के पुत्र सर्वसमर्थ देवर्षि नारद हैं। जब हम लोगों ने देखा कि तुम पुत्र शोक के कारण बहुत ही घने अज्ञानान्धकार में डूब रहे हो, तब सोचा कि तुम भगवान् के भक्त हो, शोक करने योग्य नहीं हो। अतः तुम पर अनुग्रह करने के लिये ही हम दोनों यहाँ आये हैं।

राजन्! सच्ची बात तो यह है कि जो भगवान् और ब्राह्मणों का भक्त है, उसे किसी अवस्था में शोक नहीं करना चाहिये। जिस समय पहले-पहल मैं तुम्हारे घर आया था, उसी समय मैं तुम्हें परमज्ञान का उपदेश देता; परन्तु मैंने देखा कि अभी जो तुम्हारे हृदय में पुत्र की उत्कट लालसा है, इसलिये उस समय तुम्हें ज्ञान न देकर मैंने पुत्र ही दिया। अब तुम स्वयं अनुभव कर रहे हो कि पुत्रवानों को कितना दुःख होता है। यही बात स्त्री, घर, धन, विविध प्रकार के ऐश्वर्य, सम्पत्तियाँ, शब्द-रूप-रस आदि विषय, राज्यवैभव, पृथ्वी, राज्य, सेना, खजाना, सेवक, अमात्य, सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मित्र सबके लिये हैं; क्योंकि ये सब-के-सब अनित्य हैं।

शूरसेन! अतएव ये सभी शोक, मोह, भय और दुःख के कारण हैं, मन के खेल-खिलौने हैं, सर्वथा कल्पित और मिथ्या हैं; क्योंकि ये न होने पर भी दिखायी पड़ रहे हैं। यही कारण है कि ये एक क्षण दीखने पर भी दूसरे क्षण लुप्त हो जाते हैं। ये गन्धर्व नगर, स्वप्न, जादू और मनोरथ की वस्तुओं के समान सर्वथा असत्य हैं। जो लोग कर्म-वासनाओं से प्रेरित होकर विषयों का चिन्तन करते रहते हैं; उन्हीं का मन अकेल प्रकार के कर्मों की सृष्टि करता है। जीवात्मा का यह देह-जो पंचभूत, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों का संघात है-जीव को विविध प्रकार के क्लेश और सन्ताप देने वाली कही जाती है। इसलिये तुम अपने मन को विषयों में भटकने से रोककर शान्त करो, स्वस्थ करो और फिर उस मन के द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप का विचार करो तथा इस द्वैत-भ्रम से नित्यत्व की बुद्धि छोड़कर परमशान्तिस्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाओ।

नारद उवाच

एतां मन्त्रोपनिषदं प्रतीच्छ प्रयतो मम ।

यां धारयन् सप्तरात्राद्द्रष्टा सङ्कर्षणं प्रभुम् ॥ २७॥

यत्पादमूलमुपसृत्य नरेन्द्र पूर्वे

शर्वादयो भ्रममिमं द्वितयं विसृज्य ।

सद्यस्तदीयमतुलानधिकं महित्वं

प्रापुर्भवानपि परं न चिरादुपैति ॥ २८॥

देवर्षि नारद ने कहा ;- राजन्! तुम एकाग्रचित्त से मुझसे यह मन्त्रोपनिषद् ग्रहण करो। इसे धारण करने से सात रात में ही तुम्हें भगवान् संकर्षण का दर्शन होगा।

नरेन्द्र! प्राचीन काल में भगवान् शंकर आदि ने श्रीसंकर्षणदेव के ही चरणकमलों का आश्रय लिया था। इससे उन्होंने द्वैतभ्रम का परित्याग कर दिया और उनकी उस महिमा को प्राप्त हुए, जिससे बढ़कर तो कोई है ही नहीं, समान भी नहीं है। तुम भी बहुत शीघ्र ही भगवान् के उसी परम पद को प्राप्त कर लोगे।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चित्रकेतुसान्त्वनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box