श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १४
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
१४ "वृत्रासुर का पूर्व चरित्र"
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
१४
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः १४
श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध
चौदहवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ चतुर्दशोऽध्यायः - १४ ॥
परीक्षिदुवाच
रजस्तमःस्वभावस्य ब्रह्मन् वृत्रस्य
पाप्मनः ।
नारायणे भगवति कथमासीद्दृढा मतिः ॥
१॥
देवानां शुद्धसत्त्वानामृषीणां
चामलात्मनाम् ।
भक्तिर्मुकुन्दचरणे न
प्रायेणोपजायते ॥ २॥
रजोभिः समसङ्ख्याताः पार्थिवैरिह
जन्तवः ।
तेषां ये केचनेहन्ते श्रेयो वै
मनुजादयः ॥ ३॥
प्रायो मुमुक्षवस्तेषां केचनैव
द्विजोत्तम ।
मुमुक्षूणां सहस्रेषु
कश्चिन्मुच्येत सिध्यति ॥ ४॥
मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः
।
सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि
महामुने ॥ ५॥
वृत्रस्तु स कथं पापः
सर्वलोकोपतापनः ।
इत्थं दृढमतिः कृष्ण आसीत्सङ्ग्राम
उल्बणे ॥ ६॥
अत्र नः संशयो भूयाञ्छ्रोतुं
कौतूहलं प्रभो ।
यः पौरुषेण समरे सहस्राक्षमतोषयत् ॥
७॥
राजा परीक्षित ने कहा ;-
भगवन्! वृत्रासुर का स्वभाव तो बड़ा रजोगुणी-तमोगुणी था। वह देवताओं
को कष्ट पहुँचाकर पाप भी करता ही था। ऐसी स्थिति में भगवान् नारायण के चरणों में
उसकी सुदृढ़ भक्ति कैसे हुई? हम देखते हैं, प्रायः शुद्ध सत्त्वमय देवता और पवित्रहृदय ऋषि भी भगवान् की परमप्रेममयी
अनन्य भक्ति से वंचित ही रह जाते हैं। सचमुच भगवान् की भक्ति बड़ी दुर्लभ है।
भगवन्! इस जगत् के प्राणी पृथ्वी के
धूलिकणों के समान ही असंख्य हैं। उसमें से कुछ मनुष्य आदि श्रेष्ठ जीव ही अपने
कल्याण की चेष्टा करते हैं।
ब्रह्मन्! उसमें भी संसार से मुक्ति
चाहने वाले तो बिरले ही होते हैं और मोक्ष चाहने वाले हजारों में मुक्ति या सिद्धि
लाभ तो कोई-सा ही कर पाता है।
महामुने! करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त
पुरुषों में भी वैसे शान्तचित्त महापुरुष का मिलना तो बहुत ही कठिन है,
जो एकमात्र भगवान् के ही परायण हो। ऐसी अवस्था में वह वृत्रासुर,
जो सब लोगों को सताता था और बड़ा पापी था, उस
भयंकर युद्ध के अवसर पर भगवान् श्रीकृष्ण में अपनी वृत्तियों को इस प्रकार दृढ़ता
से लगा सका-इसका क्या कारण है? प्रभो! इस विषय में हमें बहुत
अधिक सन्देह है और सुनने का बड़ा कौतूहल भी है। अहो, वृत्रासुर
का बल-पौरुष कितना महान् था कि उसने रणभूमि में देवराज इन्द्र को भी सन्तुष्ट कर
दिया।
सूत उवाच
परीक्षितोऽथ सम्प्रश्नं भगवान्
बादरायणिः ।
निशम्य श्रद्दधानस्य प्रतिनन्द्य
वचोऽब्रवीत् ॥ ८॥
सूत जी कहते हैं ;-
शौनकादि ऋषियों! भगवान् शुकदेव जी ने परम श्रद्धालु राजर्षि
परीक्षित का यह श्रेष्ठ प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन करते हुए यह बात कही।
श्रीशुक उवाच
श्रृणुष्वावहितो राजन्नितिहासमिमं
यथा ।
श्रुतं
द्वैपायनमुखान्नारदाद्देवलादपि ॥ ९॥
आसीद्राजा सार्वभौमः शूरसेनेषु वै
नृप ।
चित्रकेतुरिति ख्यातो
यस्यासीत्कामधुङ्मही ॥ १०॥
तस्य भार्यासहस्राणां सहस्राणि
दशाभवन् ।
सान्तानिकश्चापि नृपो न लेभे तासु
सन्ततिम् ॥ ११॥
रूपौदार्यवयोजन्मविद्यैश्वर्यश्रियादिभिः
।
सम्पन्नस्य गुणैः सर्वैश्चिन्ता
वन्ध्यापतेरभूत् ॥ १२॥
न तस्य सम्पदः सर्वा महिष्यो
वामलोचनाः ।
सार्वभौमस्य भूश्चेयमभवन्
प्रीतिहेतवः ॥ १३॥
तस्यैकदा तु भवनमङ्गिरा भगवान् ऋषिः
।
लोकाननुचरन्नेतानुपागच्छद्यदृच्छया
॥ १४॥
तं पूजयित्वा
विधिवत्प्रत्युत्थानार्हणादिभिः ।
कृतातिथ्यमुपासीदत्सुखासीनं समाहितः
॥ १५॥
महर्षिस्तमुपासीनं प्रश्रयावनतं
क्षितौ ।
प्रतिपूज्य महाराज
समाभाष्येदमब्रवीत् ॥ १६॥
श्रीशुकदेव जी ने कहा ;-
परीक्षित! तुम सावधान होकर यह इतिहास सुनो। मैंने इसे अपने पिता
व्यास जी, देवर्षि नारद और महर्षि देवल के मुँह से भी
विधिपूर्वक सुना है।
प्राचीन काल की बात है,
शूरसेन देश में चक्रवर्ती सम्राट् महाराज चित्रकेतु राज्य करते थे।
उनके राज्य में पृथ्वी स्वयं ही प्रजा के इच्छा के अनुसार अन्न-रस दे दिया करती
थी। उनके एक करोड़ रानियाँ थीं और ये स्वयं सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ भी थे।
परन्तु उन्हें उनमें से किसी के भी गर्भ से कोई सन्तान न हुई। यों महाराज
चित्रकेतु को किसी बात की कमी न थी। सुन्दरता, उदारता,
युवावस्था, कुलीनता, विद्या,
ऐश्वर्य और सम्पत्ति आदि सभी गुणों से वे सम्पन्न थे। फिर भी उनकी
पत्नियाँ बाँझ थीं, इसलिये उन्हें बड़ी चिन्ता रहती थी। वे
सारी पृथ्वी के एकछत्र सम्राट् थे, बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ
थीं तथा सारी पृथ्वी उनके वश में थी। सब प्रकार की सम्पत्तियाँ उनकी सेवा में
उपस्थित थीं, परन्तु वे सब वस्तुएँ उन्हें सुखी न कर सकीं।
एक दिन शाप और वरदान देने में समर्थ
अंगिरा ऋषि स्वच्छन्द रूप से विभिन्न लोकों में विचरते हुए राजा चित्रकेतु के महल
में पहुँच गये। राजा ने प्रत्युथान और अर्ध्य आदि से उनकी विधिपूर्वक पूजा की।
आतिथ्य-सत्कार हो जाने के बाद जब अंगिरा ऋषि सुखपूर्वक आसन पर विराज गये,
तब राजा चित्रकेतु भी शान्तभाव से उनके पास ही बैठ गये। महाराज!
महर्षि अंगिरा ने देखा कि यह राजा बहुत विनयी है और मेरे पास पृथ्वी पर बैठकर मेरी
भक्ति कर रहा है। तब उन्होंने चित्रकेतु को सम्बोधित करके उसे आदर देते हुए यह बात
कही।
अङ्गिरा उवाच
अपि तेऽनामयं स्वस्ति प्रकृतीनां
तथाऽऽत्मनः ।
यथा प्रकृतिभिर्गुप्तः पुमान्
राजापि सप्तभिः ॥ १७॥
आत्मानं प्रकृतिष्वद्धा निधाय श्रेय
आप्नुयात् ।
राज्ञा तथा प्रकृतयो नरदेवाहिताधयः
॥ १८॥
अपि दाराः प्रजामात्या भृत्याः
श्रेण्योऽथ मन्त्रिणः ।
पौरा जानपदा भूपा आत्मजा वशवर्तिनः
॥ १९॥
यस्यात्मानुवशश्चेत्स्यात्सर्वे
तद्वशगा इमे ।
लोकाः सपाला यच्छन्ति सर्वे
बलिमतन्द्रिताः ॥ २०॥
आत्मनः प्रीयते नात्मा परतः स्वत एव
वा ।
लक्षयेऽलब्धकामं त्वां चिन्तया शबलं
मुखम् ॥ २१॥
एवं विकल्पितो राजन् विदुषा
मुनिनापि सः ।
प्रश्रयावनतोऽभ्याह प्रजाकामस्ततो
मुनिम् ॥ २२॥
अंगिरा ऋषि ने कहा ;-
राजन! तुम अपनी प्रकृतियों-गुरु, मन्त्री,
राष्ट्र, दुर्ग, कोष,
सेना और मित्र के साथ सकुशल तो हो न? जैसे जीव
महत्तत्त्वादि सात आवरणों से घिरा रहता है, वैसे ही राजा भी
इन सात प्रकृतियों से घिरा रहता है। उनके कुशल से ही राजा की कुशल है। नरेन्द्र!
जिस प्रकार राजा अपनी उपर्युक्त प्रकृतियों के अनुकूल रहने पर ही राज्य सुख भोग
सकता है, वैसे ही प्रकृतियाँ भी अपनी रक्षा का भार राजा पर
छोड़कर सुख और समृद्धि लाभ कर सकती हैं।
राजन! तुम्हारी रानियाँ,
प्रजा, मन्त्री (सलाहकार), सेवक, व्यापारी, अमात्य
(दीवान), नागरिक, देशवासी, मण्डलेश्वर राजा और पुत्र तुम्हारे वश में तो हैं न? सच्ची बात तो यह है कि जिसका मन अपने वश में है, उसके
ये सभी वश में होते हैं। इतना ही नहीं, सभी लोक और लोकपाल भी
बड़ी सावधानी से उसे भेंट देकर उसकी प्रसन्नता चाहते हैं। परन्तु मैं देख रहा हूँ
कि तुम स्वयं सतुष्ट नहीं हो। तुम्हारी कोई कामना अपूर्ण है। तुम्हारे मुँह पर
किसी आन्तरिक चिन्ता के चिह्न झलक रहे हैं। तुम्हारे इस असन्तोष का कारण कोई और है
या स्वयं तुम्हीं हो?
परीक्षित! महर्षि अंगिरा यह जानते
थे कि राजा के मन में किस बात की चिन्ता है। फिर भी उन्होंने उनसे चिन्ता के
सम्बन्ध में अनेकों प्रश्न पूछे। चित्रकेतु को सन्तान की कामना थी। अतः महर्षि के
पूछने पर उन्होंने विनय से झुककर निवेदन किया।
चित्रकेतुरुवाच
भगवन् किं न विदितं
तपोज्ञानसमाधिभिः ।
योगिनां ध्वस्तपापानां बहिरन्तः
शरीरिषु ॥ २३॥
तथापि पृच्छतो ब्रूयां
ब्रह्मन्नात्मनि चिन्तितम् ।
भवतो विदुषश्चापि
चोदितस्त्वदनुज्ञया ॥ २४॥
लोकपालैरपि प्रार्थ्याः
साम्राज्यैश्वर्यसम्पदः ।
न नन्दयन्त्यप्रजं मां
क्षुत्तृट्काममिवापरे ॥ २५॥
ततः पाहि महाभाग पूर्वैः सह गतं तमः
।
यथा तरेम दुस्तारं प्रजया तद्विधेहि
नः ॥ २६॥
सम्राट् चित्रकेतु ने कहा ;-
भगवन्! जिन योगियों के तपस्या, ज्ञान, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा सारे पाप नष्ट हो
चुके हैं-उनके लिये प्राणियों के बाहर या भीतर की ऐसी कौन-सी बात है, जिसे वे न जानते हों। ऐसा होने पर भी जब आप सब कुछ जान-बूझकर मुझसे मेरे
मन की चिन्ता पूछ रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा और प्रेरणा से
अपनी चिन्ता आपके चरणों में निवेदन करता हूँ। मुझे पृथ्वी का साम्राज्य, ऐश्वर्य और सम्पत्तियाँ, जिनके लिये लोकपाल भी
लालायित रहते हैं, प्राप्त हैं। परन्तु सन्तान न होने के
कारण मुझे इन सुख भोगों से उसी प्रकार तनिक भी शान्ति नहीं मिल रही है, जैसे भूखे-प्यासे प्राणी को अन्न-जल के सिवा दूसरे भोगों से। महाभाग्यवान्
महर्षे! मैं तो दुःखी हूँ ही, पिण्डदान न मिलने की आशंका से
मेरे पितर भी दुःखी हो रहे हैं। अब आप हमें सन्तान-दान करके परलोक में प्राप्त
होने वाले घोर नरक से उबारिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये कि मैं लोक-परलोक के सब
दुःखों से छुटकारा पा लूँ।
श्रीशुक उवाच
इत्यर्थितः स भगवान्
कृपालुर्ब्रह्मणः सुतः ।
श्रपयित्वा चरुं त्वाष्ट्रं
त्वष्टारमयजद्विभुः ॥ २७॥
ज्येष्ठा श्रेष्ठा च या राज्ञो
महिषीणां च भारत ।
नाम्ना कृतद्युतिस्तस्यै
यज्ञोच्छिष्टमदाद्द्विजः ॥ २८॥
अथाह नृपतिं राजन् भवितैकस्तवात्मजः
।
हर्षशोकप्रदस्तुभ्यमिति ब्रह्मसुतो
ययौ ॥ २९॥
सापि तत्प्राशनादेव
चित्रकेतोरधारयत् ।
गर्भं कृतद्युतिर्देवी
कृत्तिकाग्नेरिवात्मजम् ॥ ३०॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! जब राजा चित्रकेतु ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वसमर्थ एवं परमकृपालु ब्रह्मपुत्र भगवान् अंगिरा ने त्वष्टा देवता
के योग्य चरु निर्माण करके उससे उनका यजन किया। परीक्षित! राजा चित्रकेतु की
रानियों में सबसे बड़ी और सद्गुणवती महारानी कृतद्युति थीं। महर्षि अंगिरा ने
उन्हीं को यज्ञ का अवशेष प्रसाद दिया और राजा चित्रकेतु से कहा- ‘राजन्! तुम्हारी पत्नी के गर्भ से एक पुत्र होगा, जो
तुम्हें हर्ष और शोक दोनों ही देगा।’ यों कहकर अंगिरा ऋषि
चले गये। उस यज्ञाशेष प्रसाद के खाने से ही महारानी कृतद्युति ने महाराज चित्रकेतु
के द्वारा गर्भ धारण किया, जैसे कृत्तिका ने अपने गर्भ में
अग्नि कुमार को धारण किया था।
तस्या अनुदिनं गर्भः शुक्लपक्ष इवोडुपः
।
ववृधे शूरसेनेशतेजसा शनकैर्नृप ॥
३१॥
अथ काल उपावृत्ते कुमारः समजायत ।
जनयन् शूरसेनानां श्रृण्वतां परमां
मुदम् ॥ ३२॥
हृष्टो राजा कुमारस्य स्नातः
शुचिरलङ्कृतः ।
वाचयित्वाऽऽशिषो विप्रैः कारयामास
जातकम् ॥ ३३॥
तेभ्यो हिरण्यं रजतं
वासांस्याभरणानि च ।
ग्रामान् हयान् गजान्
प्रादाद्धेनूनामर्बुदानि षट् ॥ ३४॥
ववर्ष काममन्येषां पर्जन्य इव
देहिनाम् ।
धन्यं यशस्यमायुष्यं कुमारस्य
महामनाः ॥ ३५॥
कृच्छ्रलब्धेऽथ
राजर्षेस्तनयेऽनुदिनं पितुः ।
यथा निःस्वस्य कृच्छ्राप्ते धने
स्नेहोऽन्ववर्धत ॥ ३६॥
मातुस्त्वतितरां पुत्रे स्नेहो
मोहसमुद्भवः ।
कृतद्युतेः सपत्नीनां
प्रजाकामज्वरोऽभवत् ॥ ३७॥
चित्रकेतोरतिप्रीतिर्यथा दारे
प्रजावति ।
न तथान्येषु सञ्जज्ञे बालं
लालयतोऽन्वहम् ॥ ३८॥
ताः पर्यतप्यन्नात्मानं
गर्हयन्त्योऽभ्यसूयया ।
आनपत्येन दुःखेन राज्ञोऽनादरेण च ॥
३९॥
धिगप्रजां स्त्रियं पापां
पत्युश्चागृहसम्मताम् ।
सुप्रजाभिः सपत्नीभिर्दासीमिव
तिरस्कृताम् ॥ ४०॥
दासीनां को नु सन्तापः स्वामिनः
परिचर्यया ।
अभीक्ष्णं लब्धमानानां दास्या दासीव
दुर्भगाः ॥ ४१॥
एवं सन्दह्यमानानां सपत्न्याः
पुत्रसम्पदा ।
राज्ञोऽसम्मतवृत्तीनां विद्वेषो
बलवानभूत् ॥ ४२॥
विद्वेषनष्टमतयः स्त्रियो
दारुणचेतसः ।
गरं ददुः कुमाराय दुर्मर्षा नृपतिं
प्रति ॥ ४३॥
कृतद्युतिरजानन्ती सपत्नीनामघं महत्
।
सुप्त एवेति सञ्चिन्त्य निरीक्ष्य
व्यचरद्गृहे ॥ ४४॥
शयानं सुचिरं बालमुपधार्य मनीषिणी ।
पुत्रमानय मे भद्रे इति
धात्रीमचोदयत् ॥ ४५॥
राजन्! शूरसेन देश के राजा
चित्रकेतु के तेज से कृतद्युति का गर्भ शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान दिनोंदिन
क्रमशः बढ़ने लगा।
तदनन्तर समय आने पर महारानी
कृतद्युति के गर्भ से एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ। उसके जन्म का समाचार पाकर
शूरसेन देश की प्रजा बहुत ही आनन्दित हुई। सम्राट् चित्रकेतु के आनन्द का तो कहना
ही क्या था। वे स्नान करके पवित्र हुए। फिर उन्होंने वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो,
ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर और आशीर्वाद लेकर पुत्र का
जातकर्म-संस्कार करवाया। उन्होंने उन ब्राह्मणों को सोना, चाँदी,
वस्त्र, आभूषण, गाँव,
घोड़े, हाथी और छः अर्बुद गौएँ दान कीं।
उदारशिरोमणि राजा चित्रकेतु ने पुत्र के धन, यश और आयु की
वृद्धि के लिये दूसरे लोगों को भी मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं-ठीक उसी प्रकार जैसे मेघ
सभी जीवों का मनोरथ पूर्ण करता है।
परीक्षित! जैसे यदि किसी कंगाल को
बड़ी कठिनाई से कुछ धन मिल जाता है तो उसमें उसकी आसक्ति हो जाती है,
वैसे ही बहुत कठिनाई से प्राप्त हुए उस पुत्र में राजर्षि चित्रकेतु
का स्नेहबन्धन दिनोंदिन दृढ़ होने लगा। माता कृतद्युति को भी अपने पुत्र पर मोह के
कारण बहुत ही स्नेह था। परन्तु उनकी सौत रानियों के मन में पुत्र की कामना से और
भी जलन होने लगी। प्रतिदिन बालक का लाड़-प्यार करते रहने के कारण सम्राट्
चित्रकेतु का जितना प्रेम बच्चे की माँ कृतद्युति में था, उतना
दूसरी रानियों में न रहा। इस प्रकार एक तो वे रानियाँ सन्तान न होने के कारण ही
दुःखी थीं, दूसरे राजा चित्रकेतु ने उनकी उपेक्षा कर दी। अतः
वे डाह से अपने को धिक्कारने और मन-ही-मन जलने लगीं।
वे आपस में कहने लगीं ;-
‘अरी बहिनों! पुत्रहीन स्त्री बहुत ही अभागिनी होती है। पुत्र वाली
सौतें तो दासी के समान उसका तिरस्कार करती हैं। और तो और, स्वयं
पतिदेव ही उसे पत्नी करके नहीं मानते। सचमुच पुत्रहीन स्त्री धिक्कार के योग्य है।
भला, दासियों को क्या दुःख है? वे तो
अपने स्वामी की सेवा करके निरन्तर सम्मान पाती रहती हैं। परन्तु हम अभागिनी तो इस
समय उनसे भी गयी-बीती हो रही हैं और दासियों की दासी के समान बार-बार तिरस्कार पा
रही हैं।
परीक्षित! इस प्रकार वे रानियाँ
अपनी सौत की गोद भरी देखकर जलती रहती थीं और राजा भी उनकी ओर से उदासीन हो गये थे।
फलतः उनके मन में कृतद्युति के प्रति बहुत द्वेष हो गया। द्वेष के कारण रानियों की
बुद्धि मारी गयी। उनके चित्त में क्रूरता छा गयी। उन्हें अपने पति चित्रकेतु का
पुत्र-स्नेह सहन न हुआ। इसलिये उन्होंने चिढ़कर नन्हे से राजकुमार को विष दे दिया।
महारानी कृतद्युति को सौतों की इस घोर पापमयी करतूत का कुछ भी पता न था। उन्होंने
दूर से देखकर समझ लिया कि बच्चा सो रहा है। इसलिये वे महल में इधर-उधर डोलती रहीं।
बुद्धिमती रानी ने यह देखकर कि बच्चा बहुत देर से सो रहा है,
धाय से कहा- ‘कल्याणि! मेरे लाल को ले आ’।
सा शयानमुपव्रज्य दृष्ट्वा
चोत्तारलोचनम् ।
प्राणेन्द्रियात्मभिस्त्यक्तं
हतास्मीत्यपतद्भुवि ॥ ४६॥
तस्यास्तदाकर्ण्य भृशातुरं स्वरं
घ्नन्त्याः कराभ्यामुर उच्चकैरपि ।
प्रविश्य राज्ञी
त्वरयाऽऽत्मजान्तिकं
ददर्श बालं सहसा मृतं सुतम् ॥ ४७॥
पपात भूमौ परिवृद्धया शुचा
मुमोह विभ्रष्टशिरोरुहाम्बरा ॥ ४८॥
ततो नृपान्तःपुरवर्तिनो जना
नराश्च नार्यश्च निशम्य रोदनम् ।
आगत्य तुल्यव्यसनाः सुदुःखिता-
स्ताश्च व्यलीकं रुरुदुः कृतागसः ॥
४९॥
श्रुत्वा मृतं पुत्रमलक्षितान्तकं
विनष्टदृष्टिः प्रपतन् स्खलन् पथि ।
स्नेहानुबन्धैधितया शुचा भृशं
विमूर्च्छितोऽनुप्रकृतिर्द्विजैर्वृतः
॥ ५०॥
पपात बालस्य स पादमूले
मृतस्य विस्रस्तशिरोरुहाम्बरः ।
दीर्घं श्वसन् बाष्पकलोपरोधतो
निरुद्धकण्ठो न शशाक भाषितुम् ॥ ५१॥
पतिं निरीक्ष्योरुशुचार्पितं तदा
मृतं च बालं सुतमेकसन्ततिम् ।
जनस्य राज्ञी प्रकृतेश्च हृद्रुजं
सती दधाना विललाप चित्रधा ॥ ५२॥
स्तनद्वयं कुङ्कुमगन्धमण्डितं
निषिञ्चती साञ्जनबाष्पबिन्दुभिः ।
विकीर्य केशान् विगलत्स्रजः सुतं
शुशोच चित्रं कुररीव सुस्वरम् ॥ ५३॥
अहो विधातस्त्वमतीव बालिशो
यस्त्वात्मसृष्ट्यप्रतिरूपमीहसे ।
परे नु जीवत्यपरस्य या मृति-
र्विपर्ययश्चेत्त्वमसि ध्रुवः परः ॥
५४॥
न हि क्रमश्चेदिह मृत्युजन्मनोः
शरीरिणामस्तु तदात्मकर्मभिः ।
यः स्नेहपाशो निजसर्गवृद्धये
स्वयं कृतस्ते तमिमं विवृश्चसि ॥
५५॥
धाय ने सोते हुए बालक के पास जाकर
देखा कि उसके नेत्रों की पुतलियाँ उलट गयी हैं। प्राण,
इन्द्रिय और जीवात्मा ने भी उसके शरीर से विदा ले ली है। यह देखते
ही ‘हाय रे! मैं मारी गयी!’ इस प्रकार
कहकर वह धरती पर गिर पड़ी।
धाय अपने दोनों हाथों से छाती
पीट-पीटकर बड़े आर्तस्वर में जोर-जोर से रोने लगी। उसका रोना सुनकर महारानी
कृतद्युति जल्दी-जल्दी अपने पुत्र के शयनगृह में पहुँचीं और उन्होंने देखा कि मेरा
छोटा-सा बच्चा अकस्मात् मर गया है। तब वे अत्यन्त शोक के कारण मुर्च्छित होकर
पृथ्वी पर गिर पड़ीं। उनके सिर के बाल बिखर गये और शरीर पर के वस्त्र अस्त-व्यस्त
हो गये। तदनन्तर महारानी का रुदन सुनकर रनिवास के सभी स्त्री-पुरुष वहाँ दौड़ आये
और सहानुभूतिवश अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगे। वे हत्यारी रानियाँ भी वहाँ आकर
झूठमूठ रोने का ढोंग करने लगीं।
जब राजा चित्रकेतु को पता लगा कि
मेरे पुत्र की अकारण ही मृत्यु हो गयी है, तब
अत्यन्त स्नेह के कारण शोक के आवेग से उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वे
धीरे-धीरे अपने मन्त्रियों और ब्राह्मणों के साथ मार्ग में गिरते-पड़ते मृत बालक
के पास पहुँचे और मुर्च्छित होकर उसके पैरों के पास गिर पड़े। उनके केश और वस्त्र
इधर-उधर बिखर गये। वे लंबी-लंबी साँस लेने लगे। आँसुओं की अधिकता से उनका गला रूँध
गया और वे कुछ भी बोल न सके। पतिप्राणा रानी कृतद्युति अपने पति चित्रकेतु को
अत्यन्त शोकाकुल और इकलौते नन्हें-से बच्चे को मरा हुआ देख भाँति-भाँति से विलाप
करने लगीं। उनका यह दुःख देखकर मन्त्री आदि सभी उपस्थित मनुष्य शोकग्रस्त हो गये।
महारानी के नेत्रों से इतने आँसू बह
रहे थे कि वे उनकी आँखों का अंजन लेकर केसर और चन्दन से चर्चित वक्षःस्थल को
भिगोने लगे। उनके बाल बिखर रहे थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिर रहे थे। इस प्रकार
वे पुत्र के लिये कुररी पक्षी के समान उच्च स्वर में विवध प्रकार से विलाप कर रही
थीं। वे कहने लगीं- ‘अरे विधाता! सचमुच
तू बड़ा मूर्ख है, जो अपनी सृष्टि के प्रतिकूल चेष्टा करता
है। बड़े आश्चर्य की बात है कि बूढ़े-बूढ़े तो जीते रहें और बालक मर जायें। यदि
वास्तव में तेरे स्वभाव में ऐसी ही विपरीतता है, तब तो तू
जीवों का अमर शत्रु है। यदि संसार में प्राणियों के जीवन-मरण का कोई क्रम न रहे,
तो वे अपने प्रारब्ध के अनुसार जन्मते-मरते रहेंगे। फिर तेरी
आवश्यकता ही क्या है। तूने सम्बन्धियों में स्नेह-बन्धन तो इसीलिये डाल रखा है कि
वे तेरी सृष्टि को बढ़ायें? परन्तु तू इस प्रकार बच्चों को
मारकर अपने किये-कराये पर अपने हाथों पानी फेर रहा है’।
त्वं तात नार्हसि च मां कृपणामनाथां
त्यक्तुं विचक्ष्व पितरं तव
शोकतप्तम् ।
अञ्जस्तरेम भवताप्रजदुस्तरं यद्-
ध्वान्तं न याह्यकरुणेन यमेन दूरम्
॥ ५६॥
उत्तिष्ठ तात त इमे शिशवो वयस्या-
स्त्वामाह्वयन्ति नृपनन्दन
संविहर्तुम् ।
सुप्तश्चिरं ह्यशनया च भवान् परीतो
भुङ्क्ष्व स्तनं पिब शुचो हर नः
स्वकानाम् ॥ ५७॥
नाहं तनूज ददृशे हतमङ्गला ते
मुग्धस्मितं मुदितवीक्षणमाननाब्जम्
।
किं वा गतोऽस्यपुनरन्वयमन्यलोकं
नीतोऽघृणेन न श्रृणोमि कला गिरस्ते
॥ ५८॥
फिर वे अपने मृत पुत्र की ओर देखकर
कहने लगीं- ‘बेटा! मैं तुम्हारे बिना अनाथ और
दीन हो रही हूँ। मुझे छोड़कर इस प्रकार चले जाना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। तनिक
आँख खोलकर देखो तो सही, तुम्हारे पिताजी तुम्हारे वियोग में
कितने शोक-सन्तप्त हो रहे हैं।
बेटा! जिस घोर नरक को निःसन्तान
पुरुष बड़ी कठिनाई से पार कर पाते हैं, उसे
हम तुम्हारे सहारे अन्यास ही पार कर लेंगे। अरे बेटा! तुम इस यमराज के साथ दूर मत
जाओ। यह तो बड़ा निर्दयी है।
मेरे प्यारे लल्ला! ओ राजकुमार!
उठो! बेटा! देखो, तुम्हारे साथी बालक
तुम्हें खेलने के लिये बुला रहे हैं। तुम्हें सोते-सोते बहुत देर हो गयी, अब भूख लगी होगी। उठो, कुछ खा लो और कुछ नहीं तो
मेरा दूध ही पी लो और अपने स्वजन-सम्बन्धी हम लोगों का शोक दूर करो।
प्यारे लाल! आज मैं तुम्हारे
मुखारविन्द पर वह भोली-भाली मुसकराहट और आनन्द भरी चितवन नहीं देख रही हूँ। मैं
बड़ी अभागिनी हूँ। हाय-हाय! अब भी मुझे तुम्हारी सुमधुर तोतली बोली नहीं सुनायी दे
रही है। क्या सचमुच निष्ठुर यमराज तुम्हें उस परलोक में ले गया,
जहाँ से फिर कोई लौटकर नहीं आता?
श्रीशुक उवाच
विलपन्त्या मृतं पुत्रमिति
चित्रविलापनैः ।
चित्रकेतुर्भृशं तप्तो मुक्तकण्ठो
रुरोद ह ॥ ५९॥
तयोर्विलपतोः सर्वे
दम्पत्योस्तदनुव्रताः ।
रुरुदुः स्म नरा नार्यः
सर्वमासीदचेतनम् ॥ ६०॥
एवं कश्मलमापन्नं नष्टसंज्ञमनायकम्
।
ज्ञात्वाङ्गिरा नाम मुनिराजगाम
सनारदः ॥ ६१॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! जब सम्राट् चित्रकेतु ने देखा कि मेरी रानी अपने मृत
पुत्र के लिये इस प्रकार भाँति-भाँति से विलाप कर रही है, तब
वे शोक से अत्यन्त सन्तप्त हो फूट-फूटकर रोने लगे। राजा-रानी के इस प्रकार विलाप
करने पर उनके अनुगामी स्त्री-पुरुष भी दुःखित होकर रोने लगे। इस प्रकार सारा नगर
ही शोक से अचेत-सा हो गया।
राजन्! महर्षि अंगिरा और देवर्षि
नारद ने देखा कि राजा चित्रकेतु पुत्रशोक के कारण चेतनाहीन हो रहे हैं,
यहाँ तक कि उन्हें समझाने वाला भी कोई नहीं है। तब वे दोनों वहाँ
आये।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चित्रकेतुविलापो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥
शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्यायः
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