सतीखण्ड अध्याय ४
शिवमहापुराण
के द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीयखण्ड सतीखण्ड के अध्याय ४ में कामदेव के विवाह
का वर्णन किया गया है।
रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय ४
Sati
khand chapter 4
शिवपुराणम् संहिता २ (रुद्रसंहिता) खण्डः २ (सतीखण्डः) अध्यायः ४
शिवपुराणम्
रुद्रसंहिता सतीखण्डः चतुर्थोऽध्यायः
शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता द्वितीय-सतीखण्ड चौथा अध्याय
शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय
४
नारद उवाच।।
विष्णुशिष्य महाप्राज्ञ विधे लोककर
प्रभो ।।
अद्भुतेयं कथा प्रोक्ता शिवलीलामृतान्विता
।। १ ।।
ततः किमभवत्तात चरितं तद्वदाधुना ।।
अहं श्रद्धान्वितः श्रोतुं यदि
शम्भुकथाश्रयम् ।। २ ।। ।।
नारदजी बोले —
हे विष्णुशिष्य ! हे महाप्राज्ञ ! हे विधे ! संसार की रचना करनेवाले
हे प्रभो ! आपने शिवजी की लीलारूपी अमृत से युक्त यह अद्भुत कथा कही ॥ १ ॥ हे तात
! इसके बाद क्या हुआ ? यदि मैं शम्भु की कथा पर आश्रित उनके
चरित्र को सुनने में श्रद्धावान् होऊँ, तो उसे कहिये ॥ २ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
शंभौ गते निजस्थाने वेधस्यंतर्हिते
मयि ।।
दक्ष प्राहाथ कंदर्पं संस्मरन् मम
तद्वचः ।। ।। ३ ।। ।।
ब्रह्माजी बोले —
इस प्रकार शिवजी के अपने स्थान को चले जाने तथा मुझ ब्रह्मा के
अन्तर्धान हो जाने पर दक्षप्रजापति मेरी बात का स्मरण करते हुए कामदेव से कहने लगे
— ॥ ३ ॥
दक्ष उवाच ।।
मद्देहजेयं कंदर्प सद्रूपगुणसंयुता
।।
एनां गृह्णीष्व भार्यार्थं
भवतस्सदृशीं गुणैः ।। ४ ।।
एषा तव महा तेजास्सर्वदा सहचारिणी
।।
भविष्यति यथाकामं धर्मतो वशवर्तिनी
।। ५ ।।
दक्ष बोले —
हे काम ! सुन्दर रूप एवं गुणों से युक्त यह कन्या मेरे शरीर से
उत्पन्न हुई है, अतः तुम अपनी पत्नी बनाने के लिये इसे ग्रहण
करो, यह गुणों में तुम्हारे ही समान है ॥ ४ ॥ हे
महातेजस्विन् ! यह कन्या सदा तुम्हारे साथ रहेगी और धर्म के अनुरूप तुम्हारी इच्छा
के अनुसार तुम्हारे वश में रहेगी ॥ ५ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
इत्युक्त्वा प्रददौ तस्यै
देहस्वेदांबुसम्भवाम् ।।
कंदर्प्पायाग्रतः कृत्वा नाम कृत्वा
रतीति ताम् ।। ६ ।।
विवाह्य तां स्मरस्सोपि मुमोदातीव
नारद ।।
दक्षजां तनयां रम्यां मुनीनामपि
मोहिनीम् ।। ७ ।।
अथ तां वीक्ष्य मदनो रत्याख्यां
स्वस्त्रियं शुभाम् ।।
आत्मा गुणेन विद्धोसौ मुमोह
रतिरंजितः ।।८ ।।
ब्रह्माजी बोले —
[हे नारद!] यह कहकर दक्ष ने अपने स्वेद से उत्पन्न हुई कन्या का नाम
रति रखकर और उसे अपने आगेकर कामदेव को दे दिया ॥ ६ ॥ हे नारद ! वह कामदेव मुनियों
को भी मोहित करनेवाली उस परम सुन्दर दक्षकन्या से विवाह करके बड़ा प्रसन्न हुआ ॥ ७
॥ प्रेमासक्त कामदेव भी परम कल्याणकारिणी रति नामक अपनी स्त्री को देखकर उसके
गुणों से आकृष्ट होकर उसपर अत्यन्त मोहित हो गया ॥ ८ ॥
रति के स्वरूप का वर्णन
क्षणप्रदाऽभवत्कांता गौरी मृगदृशी
मुदा ।।
लोलापांग्यथ तस्यैव भार्या च सदृशी
रतौ ।। ९ ।।
तस्या भ्रूयुगलं वीक्ष्य संशयं
मदनोकरोत् ।।
उत्सादनं मत्कोदण्डं विधात्रास्यां
निवेशितम् ।। १० ।।
कटाक्षाणामाशुगतिं दृष्ट्वा तस्या
द्विजोत्तम।।
आशु गन्तुं निजास्त्राणां श्रद्दधे
न च चारुताम् ।। ११ ।।
तस्याः स्वभावसुरभिधीरश्वासानिलं
तथा ।।
आघ्राय मदनः श्रद्धां त्यक्तवान्
मलयांतिके ।। १२ ।
पूर्णेन्दुसदृशं वक्त्रं दृष्ट्वा
लक्ष्मसुलक्षितम् ।।
न निश्चिकाय मदनो भेदं
तन्मुखचन्द्रयोः ।। १३ ।।
गौरवर्णवाली,
हरिणाक्षी तथा चंचल नेत्रप्रान्तवाली वह रति भी काम के सदृश होने के
कारण उसे परम आह्लाद प्रदान करने लगी ॥ ९ ॥ उसकी चपल भौंहों को देखकर कामदेव संशय
में पड़ जाता था कि विधाता ने सबको वश में करनेवाले मेरे धनुष को इसके नेत्रों में
सन्निविष्ट कर दिया है क्या ? ॥ १० ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! उस
रति के कटाक्षों की शीघ्र गति तथा उसकी सुन्दरता को देखकर कामदेव को अपने अस्त्रों
की शीघ्र गति पर विश्वास नहीं रह गया ॥ ११ ॥ उसके स्वाभाविक रूप से सुगन्धित तथा
मन्द श्वासवायु को सूँघकर कामदेव ने मलय-पवन के प्रति अपनी श्रद्धा का त्याग कर
दिया ॥ १२ ॥ सुन्दर लक्षणों से युक्त तथा पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान उसके
मुखमण्डल को देखकर कामदेव उसके मुख और चन्द्रमा का भेद करने में असमर्थ हो गया ॥ १३
॥
सुवर्ण पद्मकलिकातुल्यं तस्याः
कुचद्वयम् ।।
रेजे चूचुकयुग्मेन भ्रमरेणेव
वेष्टितम् ।। १४ ।।
दृढपीनोन्नतं तस्यास्तनमध्यं
विलंबिनीम् ।।
आनाभिप्रतलं मालां तन्वीं
चन्द्रायितां शुभाम् ।। १५।।
ज्यां पुष्पधनुषः कामः
षट्पदावलिसंभ्रमाम् ।।
विसस्मार च यस्मात्तां विसृज्यैनां
निरीक्षते ।।१६।।
सुवर्णकमल की कली के समान उसका
वक्षःस्थल भ्रमर से वेष्टित कमल की भाँति सुशोभित हो रहा था ॥ १४ ॥ उसका कठोर,
स्थूल एवं उन्नत वक्षःस्थल का मध्यभाग नाभिपर्यन्त लटकनेवाली,
लम्बी, पतली तथा चन्द्रमा के समान स्वच्छ माला
धारण किये हुए था । वह कामदेव भ्रमर की पंक्तियों से घिरी अपने पुष्पधनुष की
प्रत्यंचा को भी भूल गया और उसे देखना छोड़कर बार-बार उसी रति की ओर एकटक देखने
लगा ॥ १५-१६ ॥
गम्भीरनाभिरंध्रांतश्चतुःपार्श्वत्वगादृतम्
।।
आननाब्जेऽक्षणद्वंद्वमारक्तकफलं यथा
।। १७ ।।
मध्येन वपुषा निसर्गाष्टापदप्रभा ।।
रुक्मवेदीव ददृशे कामेन रमणी हि सा
।। १८ ।।
रंभास्तंभायतं स्निग्धं यदूरुयुगलं
मृदु ।।
निजशक्तिसमं कामो वीक्षांचक्रे
मनोहरम् ।। १९ ।।
आरक्तपार्ष्णिपादाग्रप्रांतभागं
पदद्वयम् ।।
अनुरागमिवाऽनेन मित्रं तस्या मनोभवः
।। २० ।।
तस्याः करयुगं रक्तं नखरैः
किंशुकोपमैः ।।
वृत्ताभिरंगुलीभिश्च
सूक्ष्माग्राभिर्मनोहरम् ।।२१।।
तद्बाहुयुगुलं कांतं मृणालयुगलायतम्
।।
मृदु स्निग्धं चिरं
राजत्कांतिलोहप्रवालवत् ।।२२।।
नीलनीरदसंकाशः केशपाशो मनोहरः ।।
चमरीवाल भरवद्विभाति स्म स्मरप्रियः
।।२३।।
एतादृशीं रतिं नाम्ना प्रालेयाद्रिसमुद्भवाम्।।
गंगामिव महादेवो
जग्राहोत्फुल्ललोचनः ।।२४।।
चारों ओर त्वचा से परिवेष्टित उसकी
नाभि का रन्ध्र अत्यन्त गम्भीर था । उसके मुखकमल पर दोनों नेत्र लाल कमल के समान
प्रतीत हो रहे थे ॥ १७ ॥ उस कामदेव ने कृश कटिप्रदेशवाले शरीर से सुशोभित,
स्वभावतः सुवर्ण की आभावाली उस रमणी को सुवर्णवेदी के समान देखा ॥
१८ ॥ कदलीस्तम्भ के सदृश विस्तृत, स्निग्ध, कोमल तथा मनोहर उसकी जंघाओं को कामदेव ने अपनी शक्ति के समान देखा ॥ १९ ॥
लाल-लाल पादाग्र तथा प्रान्तभागवाले उसके दोनों पैर रँगे हुए-से थे, इससे कामदेव अनुरक्त होकर उसका मित्र बन गया । पलाशपुष्प के समान लाल नखों
से युक्त, सूक्ष्म अग्रभागवाले तथा गोलाकार अँगुलियों से
युक्त उसके दोनों हाथ अत्यन्त मनोहर प्रतीत हो रहे थे । उसकी दोनों भुजाएँ
कान्तिमय, मृणाल के समान लम्बी, कोमल,
स्निग्ध और कान्तियुक्त लाल मूँगे के समान शोभित हो रही थीं । उसका
मनोहर केशपाश काले-काले बादलों के समान शोभा पा रहा था, इससे
वह कामप्रिया चमरी के बालों को धारण करनेवाले चँवर की भाँति सुशोभित हो रही थी ।
[सौन्दर्ययुक्त] ऐसी रति को हर्षित नेत्रोंवाले कामदेव ने उसी प्रकार ग्रहण किया,
जिस प्रकार हिमालय से उत्पन्न गंगा को महादेवजी ने ग्रहण किया था ॥
२०-२४ ॥
चक्रपद्मां चारुबाहुं
मृणालशकलान्विताम् ।।
भ्रूयुग्मविभ्रमव्राततनूर्मिपरिराजिताम्
।। २५ ।।
कटाक्षपाततुंगौघां
स्वीयनेत्रोत्पलान्विताम् ।।
तनुलोमांबुशैवालां
मनोद्रुमविलासिनीम् ।। २६ ।।
निम्ननाभिह्रदां क्षामां
सर्वांगरमणीयिकाम् ।।
सर्वलावण्यसदनां शोभमानां रमामिव ।।
२७ ।।
द्वादशाभरणैर्युक्तां शृंगारैः
षोडशैर्युताम् ।।
मोहनीं सर्वलोकानां भासयंतीं दिशो
दश ।।२८।।
चक्र तथा पद्म के चिह्नों से युक्त,
मृणालखण्ड के समान मनोहर हाथों से युक्त वह रति गंगा नदी के समान
प्रतीत हो रही थी । उस रति की दोनों भौंहों की चेष्टाएँ नदी की सूक्ष्म लहरों के
समान प्रतीत हो रही थीं ॥ २५ ॥ उसके कटाक्षपात ही नदी की वेगवती धारा थे और विशाल
नेत्र कमल के समान प्रतीत हो रहे थे । उसकी सूक्ष्म रोमावली शैवाल थी और वह अपने
मनरूपी वृक्षों से विलास कर रही थी ॥ २६ ॥ उसकी गम्भीर नाभि ह्रद के समान शोभा पा
रही थी । वह कृशगात्रा रति अपने सर्वांग को रमणीयता तथा लावण्यमयी शोभा से बारह
आभूषणों से युक्त तथा सोलह श्रृंगारों से शोभायमान होकर सम्पूर्ण लोकों को
मोहनेवाली और अपनी कान्ति से दसों दिशाओं को प्रज्वलित करती हुई महालक्ष्मी-जैसी
प्रतीत हो रही थी ॥ २७-२८ ॥
इति तां मदनो वीक्ष्य रतिं जग्राह
सोत्सुकः ।।
रागादुपस्थितां लक्ष्मीं हृषीकेश
इवोत्तमाम् ।।२९।।
नोवाच च तदा दक्षं कामो मोदभवात्ततः
।।
विस्मृत्य दारुणं शापं विधिदत्तं
विमोहितः।। ३०।।
तदा महोत्सवस्तात बभूव सुखवर्द्धनः
।।
दक्षः प्रीततरश्चासीन्मुमुदे तनया
मम ।। ३१ ।।
कामोतीव सुखं प्राप्य सर्वदुःखक्षयं
गतः ।।
दक्षजापि रतिः कामं प्राप्य चापि
जहर्ष ह ।।३२।।
रराज चेतयासार्द्धं भिन्नश्चारुवचः
स्मरः ।।
जीमूत इव संध्यायां सौदामन्या
मनोज्ञया ।। ३३ ।।
इस प्रकार परम सुन्दरी रति को देखकर
कामदेव ने इसे बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण किया, जिस
प्रकार कि स्वयं राग से उपस्थित हुई महालक्ष्मी को भगवान् नारायण ने ग्रहण किया था
॥ २९ ॥ उस समय कामदेव ने आनन्द होने के कारण विमोहित होकर ब्रह्माजी के द्वारा
दिये गये दारुण शाप को भूलकर दक्ष से कुछ नहीं कहा ॥ ३० ॥ हे तात ! उस समय [सबके]
सुख को बढ़ानेवाला महान् उत्सव हुआ । दक्ष प्रजापति अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और
कन्या रति भी परम प्रसन्न हो गयी ॥ ३१ ॥ अत्यधिक सुख पाकर काम का समस्त दुःख
विनष्ट हो गया और इधर दक्षतनया रति भी काम को पतिरूप में प्राप्तकर परम हर्षित हुई
॥ ३२ ॥ रति से मोहित हुआ गद्गद कण्ठवाला वह मधुरभाषी काम सायंकाल में मनोहर बिजली
से युक्त मेघ के समान दक्षकन्या रति के साथ शोभा पाने लगा ॥ ३३ ॥
इति रतिपतिरुच्चैर्मोहयुक्तो रतिं
तां
हृदुपरि जगृहे वै योगदर्शीव
विद्याम् ।।
रतिरपि पतिमग्र्यं प्राप्य सा चापि
रेजे
हरिमिव कमला वै पूर्णचन्द्रोपमास्या
।।३४।।
इस प्रकार रतिपति काम ने अत्यन्त
मोहित होकर उस रति को इस प्रकार अपने हृदय में ग्रहण किया,
जिस प्रकार योगी ब्रह्मविद्या को ग्रहण करता है और वह रति भी
श्रेष्ठ काम को प्राप्तकर इस प्रकार प्रसन्न हुई, जिस प्रकार
पूर्णचन्द्र के समान मुखवाली महालक्ष्मी विष्णु को पतिरूप में प्राप्तकर प्रसन्न
हुई थीं ॥ ३४ ॥
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां द्विती- स० कामविवाहवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ।।४।।
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत
द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में कामविवाहवर्णन नामक चौथा अध्याय पूर्ण
हुआ ॥ ४ ॥
शेष जारी .............. शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय 5
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