सतीखण्ड अध्याय २

सतीखण्ड अध्याय २  

शिवमहापुराण के द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीयखण्ड सतीखण्ड के अध्याय २ में सदाशिव से त्रिदेवों की उत्पत्ति, ब्रह्माजी से देवता आदि की सृष्टि के पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेव का प्राकट्य का वर्णन किया गया है।

सतीखण्ड अध्याय २

रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय २  

Sati khand chapter 2

शिवपुराणम् संहिता २ (रुद्रसंहिता) खण्डः २ (सतीखण्डः) अध्यायः २

शिवपुराणम् रुद्रसंहिता सतीखण्डः द्वितीयोऽध्यायः

शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता द्वितीय-सतीखण्ड दूसरा अध्याय

सूत उवाच ।।

इत्याकर्ण्य वचस्तस्य नेमिषारण्यवासिनः ।।

पप्रच्छ च मुनिश्रेष्ठः कथां पापप्रणाशिनीम् ।। १ ।।

सूतजी बोले हे नैमिषारण्यनिवासी मुनियो ! [ब्रह्मा के] इस वचनको सुनकर नारद ने पुनः पापों को नष्ट करनेवाली कथा पूछी ॥ १ ॥

नारद उवाच ।।

विधेविधे महा भाग कथां शंभोश्शुभावहाम् ।।

शृण्वन् भवन्मुखांभोजान्न तृप्तोस्मि महाप्रभो ।।२।।

नारदजी बोले हे विधे ! हे विधे ! हे महाभाग ! हे महाप्रभो ! आपके मुखकमल से कही जानेवाली कल्याणकारिणी कथा को सुनकर मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ॥ २ ॥

अतः कथय तत्सर्वं शिवस्य चरितं शुभम् ।।

सतीकीर्त्यन्वितं दिव्यं श्रोतुमिच्छामि विश्वकृत् ।। ३ ।।

सती हि कथमुत्पन्ना दक्षदारेषु शोभना ।।

कथं हरो मनश्चक्रे दाराहरणकर्मणि ।। ४ ।।

हे विश्वस्रष्टा ! सती की कीर्ति से युक्त शिवजी के कल्याणमय तथा दिव्य उस सम्पूर्ण चरित्र को कहिये, मैं उसे सुनना चाहता हूँ । दक्ष की अनेक पत्नियों में से शोभामयी सती किस प्रकार उत्पन्न हुईं और हर ने किस प्रकार स्त्री से विवाह करने का विचार किया ? ॥ ३-४ ॥

कथं वा दक्षकोपेन त्यक्तदेहा सती पुरा ।।

हिमवत्तनया जाता भूयो वाकाशमागता ।। ५ ।।

पूर्वकाल में सती ने दक्ष पर क्रोध से किस प्रकार अपने शरीर का त्याग किया ? पुनः किस प्रकार हिमालय की कन्या पार्वती हुईं और किस प्रकार से प्रकाश में आयीं ? ॥ ५ ॥

पार्वत्याश्च तपोऽत्युग्रं विवाहश्च कथं त्वभूत् ।।

कथमर्द्धशरीरस्था बभूव स्मरनाशिनः ।। ६ ।।

पार्वती का कठोर तप तथा उनका विवाह किस प्रकार हुआ ? फिर वे कामदेव का नाश करनेवाले शिव की अर्धांगिनी कैसे हुईं ? ॥ ६ ॥

एतत्सर्वं समाचक्ष्व विस्तरेण महामते ।।

नान्योस्ति संशयच्छेत्ता त्वत्समो न भविष्यति ।। ७ ।।

हे महामते ! इन सब बातों को आप विस्तार के साथ कहिये; आपके समान संशयों को दूर करनेवाला कोई दूसरा न तो है और न ही होगा ॥ ७ ॥

ब्रह्मोवाच ।।

शृणु त्वं च मुने सर्वं सतीशिवयशश्शुभम् ।।

पावनं परमं दिव्यं गुह्याद्गुह्यतमं परम् ।। ८ ।।

एतच्छंभुः पुरोवाच भक्तवर्याय विष्णवे ।।

पृष्टस्तेन महाभक्त्या परोपकृतये मुने ।। ।। ९ ।।

ब्रह्माजी बोले हे मुने ! शिव तथा सती के परमपावन, दिव्य एवं गुह्य से गुह्यतम तथा परम कल्याणकारी चरित्र को सुनिये । हे मुने ! पूर्वकाल में परोपकार के लिये विष्णु द्वारा महान् भक्ति से पूछे जाने पर शिवजी ने भक्तवर विष्णु से इसका वर्णन किया था ॥ ८-९ ॥

ततस्सोपि मया पृष्टो विष्णुश्शैववरस्सुधीः ।।

प्रीत्या मह्यं समाचख्यौ विस्तरान्मुनिसत्तम ।। १० ।।

अहं तत्कथयिष्यामि कथामेतां पुरातनीम् ।।

शिवाशिवयशोयुक्तां सर्वकामफलप्रदाम् ।। ११ ।।

हे मुनिश्रेष्ठ ! उसके बाद मैंने भी यह कथा शिवभक्तों में श्रेष्ठ बुद्धिमान् विष्णु से पूछी, तब उन्होंने प्रीतिपूर्वक विस्तार से मुझसे कहा था । मैं सभी कामनाओं का फल प्रदान करनेवाली एवं शिव के यश से युक्त उस प्राचीन कथा को आपसे कहूँगा ॥ १०-११ ॥

पुरा यदा शिवो देवो निर्गुणो निर्विकल्पकः ।।

अरूपश्शक्तिरहितश्चिन्मात्रस्सदसत्परः ।। १२ ।।

अभवत्सगुणस्सोपि द्विरूपश्शक्तिमान्प्रभुः ।।

सोमो दिव्याकृतिर्विप्र निर्वि कारी परात्परः ।। १३ ।।

पहले भगवान् शिव निर्गुण, निर्विकल्प, रूपहीन, शक्ति से रहित, चिन्मात्र एवं सत्-असत् से परे थे; फिर हे विप्र! वे प्रभु सगुण, द्विरूप, शक्तिमान्, उमासहित, दिव्य आकृतिवाले, विकाररहित तथा परात्पर हो गये ॥१२-१३॥

तस्य वामांगजो विष्णुर्ब्रह्माहं दक्षिणांगजः ।।

रुद्रो हृदयतो जातोऽभवच्च मुनिसत्तम ।। १४ ।।

सृष्टिकर्ताभवं ब्रह्मा विष्णुः पालनकारकः ।।

लयकर्ता स्वयं रुद्रस्त्रिधाभूतस्सदाशिवः ।।१५।।

हे मुनिसत्तम ! उनके वामांग से विष्णु, दक्षिणांग से मैं ब्रह्मा तथा हृदय से रुद्र की उत्पत्ति हुई । मैं ब्रह्मा सृष्टि करनेवाला और विष्णु पालन करनेवाले तथा रुद्र स्वयं लय करनेवाले हुए । इस प्रकार सदाशिव के तीन रूप हुए ॥ १४-१५ ॥

तमेवाहं समाराध्य ब्रह्मा लोकपितामहः।।

प्रजा ससर्ज सर्वास्तास्सुरासुरनरादिकाः ।। १६ ।।

सृष्ट्वा प्रजापतीन् दक्षप्रमुखान्सुरसत्तमान् ।।

अमन्यं सुप्रसन्नोहं निजं सर्वमहोन्नतम् ।।१७।।

लोकपितामह मुझ ब्रह्मा ने उन्हीं सदाशिव की आराधनाकर देव, दैत्य, मनुष्य आदि समस्त प्रजाओं की सृष्टि की । दक्ष आदि प्रमुख प्रजापतियों की तथा देवश्रेष्ठों की रचनाकर मैं बड़ा ही प्रसन्न हुआ तथा अपने को सबसे महान् समझने लगा ॥ १६-१७ ॥

मरीचिमत्रिं पुलहं पुलस्त्यांगिरसौ क्रतुम् ।।

वसिष्ठं नारदं दक्षं भृगुं चेति महाप्रभून् ।।१८।।

ब्रह्माहं मानसान्पुत्रानसर्जं च यदा मुने ।।

तदा मन्मनसो जाता चारुरूपा वरांगना ।।१९।।

हे मुने ! जिस समय मुझ ब्रह्मा ने मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वसिष्ठ, नारद, दक्ष एवं भृगु इन महान् प्रभुतासम्पन्न मानस पुत्रों की सृष्टि की, उसी समय मेरे मन से एक सुन्दर रूपवाली श्रेष्ठ युवती भी उत्पन्न हुई॥१८-१९॥

नाम्ना संध्या दिवक्षांता सायं संध्या जपंतिका ।।

अतीव सुन्दरी सुभ्रूर्मुनिचेतोविमोहिनी ।।२०।।

वह सन्ध्या के नाम से प्रसिद्ध हुई, जो प्रातः-सन्ध्या तथा सायं-सन्ध्या के रूप में क्रमशः दिवाक्षान्ता तथा जपन्तिका कही गयी । वह अत्यन्त सुन्दरी, सुन्दर भौंहोंवाली तथा मुनियों के मन को मोहित करनेवाली थी ॥ २० ॥

न तादृशी देवलोके न मर्त्ये न रसातले ।।

कालत्रयेपि वै नारी सम्पूर्णगुणशालिनी ।।२१।।

सम्पूर्ण गुणों से युक्त वैसी स्त्री देवलोक, मृत्युलोक और पाताललोक में न उत्पन्न हुई, न है और न तो होगी । वह सम्पूर्ण गुणों से परिपूर्ण थी ॥ २१ ॥

दृष्ट्वाहं तां समुत्थाय चिन्तयन्हृदि हृद्गतम् ।।

दक्षादयश्च स्रष्टारो मरीच्याद्याश्च मत्सुताः ।।२२।।

एवं चिंतयतो मे हि ब्रह्मणो मुनिसत्तम ।।

मानसः पुरुषो मंजुराविर्भूतो महाद्भुतः ।। २३ ।।

उस कन्या को देखते ही उठ करके उसे हृदय में धारण करने के लिये मैं मन में सोचने लगा । दक्ष तथा मरीचि आदि लोकस्रष्टा मेरे पुत्र भी सोचने लगे । हे मुनिसत्तम ! मैं ब्रह्मा अभी इस प्रकार सोच ही रहा था कि उसी समय एक अत्यन्त अद्भुत एवं मनोहर मानस पुरुष उत्पन्न हुआ ॥ २२-२३ ॥

कामदेव का स्वरूप वर्णन

कांचनीकृतजाताभः पीनोरस्कस्सुनासिकः ।।

सुवृत्तोरुकटीजंघो नीलवेलितकेसरः ।।२४।।

लग्नभ्रूयुगलो लोलः पूर्णचन्द्रनिभाननः ।।

कपाटायतसद्वक्षो रोमराजीवराजितः ।।२५।।

अभ्रमातंगकाकारः पीनो नीलसुवासकः ।।

आरक्तपाणिनयनमुखपादकरोद्भवः।।२६।।

क्षीणमध्यश्चारुदन्तः प्रमत्तगजगंधनः।।

प्रफुल्लपद्मपत्राक्षः केसरघ्राणतर्पणः ।।२७।।

कंबुग्रीवो मीनकेतुः प्रांशुर्मकरवाहनः ।।

पंचपुष्पायुधो वेगी पुष्पकोदंडमंडितः ।।२८।।

कांतः कटाक्षपातेन भ्रामयन्नयनद्वयम् ।।

सुगंधिमारुतो तात शृंगाररससेवितः ।। २९ ।।

हे तात ! वह पुरुष तप्त सुवर्ण के समान कान्तिवाला, स्थल वक्षःस्थलवाला. सुन्दर नासिकावाला. सुन्दर तथा गोल ऊरु-कमर-जंघावाला, काले तथा घुँघराले बालोंवाला, आपस में मिली हुई भौंहोंवाला, पूर्ण चन्द्रमा के समान मुखवाला, कपाट के समान विस्तीर्ण छातीवाला, रोमराजि से सुशोभित, बादलपर्यन्त ऊँचे गजराज के समान आकृतिवाला, महास्थूल तथा नीलवर्ण का सुन्दर वस्त्र धारण किये, रक्तवर्ण के हाथ, नेत्र, मुख, पैर और अँगुलियोंवाला, पतली कमरवाला, सुन्दर दाँतोंवाला, मतवाले हाथी की-सी गन्धवाला, खिले हुए कमल के पत्रसदृश नेत्रोंवाला, अंगों पर लगे हुए केसर से नासिका को तृप्त करनेवाला, शंख के समान गरदनवाला, मछली के चिह्न से अंकित ध्वजावाला, अत्यन्त ऊँचा, मकर के वाहनवाला, पुष्पों के पाँच बाणों से युक्त, वेगवान्, पुष्पधनुष से सुशोभित, कटाक्षपात से अपने नेत्रों को घुमाते हुए मनोहर प्रतीत होनेवाला, सुगन्धित श्वास से युक्त और श्रृंगाररस से सेवित था ॥ २४-२९ ॥

तं वीक्ष्य पुरुषं सर्वे दक्षाद्या मत्सुताश्च ते ।।

औत्सुक्यं परमं जग्मुर्विस्मयाविष्टमानसाः ।। ३० ।।

उस पुरुष को देखकर मेरे दक्ष आदि पुत्रों का मन आश्चर्य से भर गया और वे उसे जानने के लिये अत्यन्त उत्सुक हो गये ॥ ३० ॥

अभवद्विकृतं तेषां मत्सुतानां मनो द्रुतम् ।।

धैर्यं नैवालभत्तात कामाकुलितचेतसाम् ।।३१।।

वासना से आकुल चित्तवाले मेरे उन पुत्रों का मन शीघ्र ही विकृत हो गया, हे तात ! उन्हें थोड़ा भी धैर्य नहीं प्राप्त हुआ ॥ ३१ ॥

मां सोपि वेधसं वीक्ष्य स्रष्टारं जगतां पतिम् ।।

प्रणम्य पुरुषः प्राह विनयानतकंधरः ।। ३२ ।।

वह पुरुष स्रष्टा तथा जगत्पति मुझ ब्रह्मा को देखकर विनयभाव से सिर झुकाकर प्रणाम करके मुझसे कहने लगा ॥ ३२ ॥

पुरुष उवाच ।।

किं करिष्याम्यहं कर्म ब्रह्मंस्तत्र नियोजय ।।

मान्योद्य पुरुषो यस्मादुचितः शोभितो विधे ।।३३।।

पुरुष बोला हे ब्रह्मन् ! मैं कौन-सा कार्य करूँ ? [मुझे जो कर्म करणीय हो,] उस कर्म में मुझे नियुक्त कीजिये । हे विधाता ! आप मेरे मान्य पुरुष हैं, मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँ, यही उचित है तथा इसीसे मेरी शोभा भी होगी ॥ ३३ ॥

अभिमानं च योग्यं च स्थानं पत्नी च या मम ।।

तन्मे वद त्रिलोकेश त्वं स्रष्टा जगतां पतिः ।।३४।।

मेरे लिये जो अभिमानयोग्य स्थान हो तथा जो मेरी पत्नी हो, उसे मुझे बताइये । हे त्रिलोकेश ! आप जगत् के पति हैं ॥ ३४ ॥

ब्रह्मोवाच ।।

एवं तस्य वचः श्रुत्वा पुरुषस्य महात्मनः ।।

क्षणं न किंचित्प्रावोचत्स स्रष्टा चातिविस्मितः ।।३५।।

अतो मनस्सुसंयम्य सम्यगुत्सृज्य विस्मयम् ।।

अवोचत्पुरुषं ब्रह्मा तत्कामं च समावहन् ।।३६।।

ब्रह्माजी बोले उस महात्मा पुरुष के इस वचन को सुनकर मैं ब्रह्मा अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गया और थोड़ी देरतक कुछ नहीं बोला, फिर मन को नियन्त्रित कर और आश्चर्य का परित्याग करके उस कामदेव को बताते हुए कहने लगा ॥ ३५-३६ ॥

।। ब्रह्मोवाच ।। ।।

अनेन त्वं स्वरूपेण पुष्पबाणैश्च पंचभिः ।।

मोहयन् पुरुषान् स्त्रीश्च कुरु सृष्टिं सनातनीम् ।। ३७ ।।

अस्मिञ्जीवाश्च देवाद्यास्त्रैलोक्ये सचराचरे ।।

एते सर्वे भविष्यन्ति न क्षमास्त्यवलंबने ।। ३८ ।।

ब्रह्माजी बोले तुम अपने इस स्वरूप से और पुष्पों के पाँच बाणों से सभी स्त्री तथा पुरुषों को मोहित करते हुए सनातन सृष्टि की रचना करो । इस चराचर त्रिलोकी में जीव तथा देवता आदि कोई भी तुम्हारा लंघन करने में समर्थ नहीं होंगे ॥ ३७-३८ ॥

अहं वा वासुदेवो वा स्थाणुर्वा पुरुषोत्तमः ।।

भविष्यामस्तव वशे किमन्ये प्राणधारकाः ।।३९।।

हे पुरुषोत्तम ! मैं, वासुदेव अथवा शंकर भी तुम्हारे वश में रहेंगे, अन्य प्राणधारियों की तो बात ही क्या ?॥३९॥

प्रच्छन्नरूपो जंतूनां प्रविशन्हृदयं सदा ।।

सुखहेतुः स्वयं भूत्वा सृष्टिं कुरु सनातनीम् ।।४०।।

तुम गुप्त रूप से प्राणियों के हृदय में प्रवेश करते हुए स्वयं सबके सुख के कारण बनकर सनातन सृष्टि करो ॥४०॥

त्वत्पुष्पबाणस्य सदा सुखलक्ष्यं मनोद्भुतम् ।।

सर्वेषां प्राणिनां नित्यं सदा मदकरो भवान् ।।४१।।

समस्त प्राणियों का विचित्र मन तुम्हारे पुष्पबाणों का सुखपूर्वक भेदने योग्य लक्ष्य होगा; तुम सभी को सदा उन्मत्त करनेवाले होगे ॥ ४१ ॥

इति ते कर्म कथितं सृष्टिप्रावर्तकं पुनः ।।

नामान्येते वदिष्यंति सुता मे तव तत्त्वतः ।। ४२ ।।

मैंने सृष्टि में प्रवृत्त करनेवाला यह तुम्हारा कर्म कह दिया । ये मेरे पुत्र तत्त्वपूर्वक तुम्हारे नामों का वर्णन करेंगे ॥ ४२ ॥

ब्रह्मोवाच ।।

इत्युक्त्वाहं सुरश्रेष्ठ स्वसुतानां मुखानि च।।

आलोक्य स्वासने पाद्मे प्रोपविष्टोऽभवं क्षणम् ।।४३।।

ब्रह्माजी बोले हे सुरश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर अपने पुत्रों के मुख की ओर देखकर क्षणभर के लिये मैं अपने पद्मासन पर बैठ गया ॥ ४३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये सतीखंडे कामप्रादुर्भावो नाम द्वितीयोऽध्यायः ।।२।।

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में कामप्रादुर्भाव का वर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥

शेष जारी .............. शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय 3

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