सतीखण्ड अध्याय १

सतीखण्ड अध्याय १

शिवमहापुराण के द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीयखण्ड सतीखण्ड है, जिसमें कि कुल ४३ अध्याय है। इस खंड के अध्याय १ में सती चरित्र, दक्षयज्ञविध्वंस का संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सती का पार्वतीरूप में हिमालय के यहाँ जन्म लेना का वर्णन किया गया है।

सतीखण्ड अध्याय १

रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय १

Sati khand chapter 1

शिवपुराणम् संहिता २ (रुद्रसंहिता) खण्डः २ (सतीखण्डः) अध्यायः ०१

शिवपुराणम् रुद्रसंहिता सतीखण्डः प्रथमोऽध्यायः

शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता द्वितीय-सतीखण्ड पहला अध्याय

अथ सतीखंडो द्वितीयः प्रारभ्यते ।।

नारद उवाच

विधे सर्वं विजानासि कृपया शंकरस्य च ।

त्वयाद्भुता हि कथिताः कथा मे शिवयोश्शुभाः ।। १।।

नारदजी बोले हे विधे ! भगवान् शंकर की कृपा से आप सब कुछ जानते हैं । आपने शिव और पार्वती की बहुत ही अद्भुत तथा मंगलकारी कथाएँ कही हैं ॥ १ ॥

त्वन्मुखांभोजसंवृत्तां श्रुत्वा शिवकथां पराम् ।

अतृप्तो हि पुनस्तां वै श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो।।२।।

आपके मुखारविन्द से निकली हुई शम्भु की श्रेष्ठ कथा को सुनकर मैं अतृप्त ही हूँ, हे प्रभो ! मैं उसे पुनः सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥

पूर्णांशश्शंकरस्यैव यो रुद्रो वर्णितः पुरा ।

विधे त्वया महेशानः कैलासनिलयो वशी ।।३।।

स योगी सर्वविष्ण्वादिसुरसे व्यस्सतां गतिः ।

निर्द्वंद्वः क्रीडति सदा निर्विकारी महाप्रभुः ।। ४ ।।

हे विधे ! पहले आपने शंकर के पूर्णांश महेशान, कैलासवासी तथा जितेन्द्रिय जिन रुद्र का वर्णन किया, वे योगी जितेन्द्रिय विष्णु आदि सभी देवताओं से सेवा के योग्य, संतों की परम गति, निर्विकार महाप्रभु निर्द्वन्द्व होकर सदैव क्रीड़ा करते रहते थे ॥ ३-४ ॥

सोऽभूत्पुनर्गृहस्थश्च विवाह्य परमां स्त्रियम् ।

हरिप्रार्थनया प्रीत्या मंगलां स्वतपस्विनीम् ।।५।।

विष्णु की प्रार्थना से प्रसन्न होकर वे मंगलमयी परमतपस्विनी तथा श्रेष्ठ स्त्री से विवाह करके गृहस्थ बन गये॥५॥

प्रथमं दक्षपुत्री सा पश्चात्सा पर्वतात्मजा ।

कथमेकशरीरेण द्वयोरप्यात्मजा मता।।६।।

सर्वप्रथम वे [शिवा] दक्षपुत्री हुईं और तत्पश्चात् पर्वतराज हिमालय की कन्या पार्वती के रूप में उन्होंने जन्म लिया । एक ही शरीर से वे दोनों की कन्या किस प्रकार से मानी गयीं ? ॥ ६ ॥

कथं सती पार्वती सा पुनश्शिवमुपागता ।

एतत्सर्वं तथान्यच्च ब्रह्मन् गदितुमर्हसि ।।७।।

वे सती पुनः पार्वती होकर शिव को कैसे प्राप्त हुईं ? हे ब्रह्मन् ! यह सब तथा अन्य बातों को भी आप कृपा करके बतायें ॥ ७ ॥

सूत उवाच ।।

इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरर्षेः शंकरात्मनः ।

प्रसन्नमानसो भूत्वा ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ।। ८ ।।

सूतजी बोले शिवभक्त देवर्षि नारद के इस वचन को सुनकर मन से [अत्यन्त] प्रसन्न होकर ब्रह्माजी कहने लगे ॥ ८ ॥

ब्रह्मोवाच

शृणु तात मुनिश्रेष्ठ कथयामि कथां शुभाम् ।

यां श्रुत्वा सफलं जन्म भविष्यति न संशयः।।९।।

ब्रह्माजी बोले हे तात ! हे मुनिश्रेष्ठ ! सुनिये, अब मैं शिव की मंगलकारिणी कथा कह रहा हूँ, जिसको सुनकर जन्म सफल हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥

पुराहं स्वसुतां दृष्ट्वा संध्याह्वां तनयैस्सह ।

अभवं विकृतस्तात कामबाणप्रपीडितः ।। १० ।।

हे तात ! पुराने समय की बात है अपनी सन्ध्या नामक पुत्री को देखकर पुत्रों सहित मैं कामदेव के बाणों से पीड़ित होकर विकारग्रस्त हो गया ॥ १० ॥

धर्मः स्मृतस्तदा रुद्रो महायोगी परः प्रभुः।

धिक्कृत्य मां सुतैस्तात स्वस्थानं गतवानयम् ।। ११ ।।

हे तात ! उस समय धर्म के द्वारा स्मरण किये गये महायोगी और महाप्रभु रुद्र पुत्रोंसहित मुझे धिक्कारकर अपने घर चले गये ॥ ११ ॥

यन्मायामोहितश्चाहं वेदवक्ता च मूढधीः ।

तेनाकार्षं सहाकार्य परमेशेन शंभुना ।। १२ ।।

जिनकी माया से मोहित हुआ मैं वेदवक्ता होने पर भी मूढ़ बुद्धिवाला हो गया, उन्हीं परमेश्वर शंकर के साथ मैं अकरणीय कार्य करने लगा ॥ १२ ॥

तदीर्षयाहमाकार्षं बहूपायान्सुतैः सह ।

कर्तुं तन्मोहनं मूढः शिवमाया विमोहितः ।। १३ ।।

शिव की माया से मोहित हुआ मैं मूढ़ अपने पुत्रों के सहित ईर्ष्यावश उन्हीं को मोहित करने के लिये अनेक उपाय करने लगा ॥ १३ ॥

अभवंस्तेऽथ वै सर्वे तस्मिञ् शंभो परप्रभो ।

उपाया निष्फलास्तेषां मम चापि मुनीश्वर ।। १४ ।।

हे मुनीश्वर ! उन परमेश्वर शिव के ऊपर किये गये मेरे तथा मेरे उन पुत्रों के सभी उपाय निष्फल हो गये ॥ १४ ॥

तदाऽस्मरं रमेशानं व्यथोपायस्तुतैस्सह ।

अबोधयत्स आगत्य शिवभक्तिरतस्सुधीः ।। १५ ।।

तब अपने पुत्रोंसहित उपायों को करने में विफल हुए मैंने लक्ष्मीपति विष्णु का स्मरण किया । शिवभक्तिपरायण तथा श्रेष्ठ बुद्धिवाले भगवान् विष्णु ने आकर मुझे समझाया ॥ १५ ॥

प्रबोधितो रमेशेन शिवतत्त्वप्रदर्शिना ।

तदीर्षामत्यजं सोहं तं हठं न विमोहितः ।। १६ ।।

शिवतत्त्व को भली-भाँति जाननेवाले भगवान् रमापति के द्वारा समझाये जाने पर भी विमोहित मैं अपनी ईर्ष्या और हठ को नहीं छोड़ सका ॥ १६ ॥

शक्तिं संसेव्य तत्प्रीत्योत्पादयामास तां तदा ।

दक्षादशिक्न्यां वीरिण्यां स्वपुत्राद्धरमोहने ।। १७ ।।

तब मैंने शक्ति की सेवाकर उन्हें प्रसन्न किया । उनकी ही कृपा से शिव को मोहित करने के लिये अपने पुत्र दक्ष से वीरण की कन्या असिक्नी के गर्भ से कन्या को उत्पन्न कराया ॥ १७ ॥

सोमा भूत्वा दक्षसुता तपः कृत्वा तु दुस्सहम् ।

रुद्रपत्न्यभवद्भक्त्या स्वभक्तहितकारिणी ।। १८ ।।

अपने भक्तों का हित करनेवाली वही उमा दक्षपुत्री नाम से प्रसिद्ध होकर दुःसह तप करके अपनी दृढभक्ति से रुद्र की पत्नी हो गयीं ॥ १८ ॥

सोमो रुद्रो गृही भूत्वाऽकार्षील्लीलां परां प्रभुः ।

मोहयित्वाथ मां तत्र स्वविवाहेऽविकारधीः ।। ।। १९ ।।

विकाररहित बुद्धिवाले वे प्रभु रुद्र अपने विवाहकाल में मुझे मोहितकर उमा के साथ गृहस्थ होकर उत्तम लीला करने लगे ॥ १९ ॥

विवाह्य तां स आगत्य स्वगिरौ सूतिकृत्तया ।

रेमे बहुविमोहो हि स्वतंत्रस्स्वात्तविग्रहः ।। २० ।।

उमा के साथ विवाहकर सन्तान उत्पन्न करने की इच्छा से अपने कैलास पर्वत पर आकर स्वेच्छा से शरीर धारण करनेवाले तथा सदा स्वतन्त्र रहनेवाले सदाशिव अत्यन्त विमोहित होकर उनके साथ रमण करने लगे ॥ २० ॥

तया विहरतस्तस्य व्यातीयाय महान् मुने ।

कालस्सुखकरश्शभोर्निर्विकारस्य सद्रतेः ।। २१ ।।

ततो रुद्रस्य दक्षेण स्पर्द्धा जाता निजेच्छया ।

महामूढस्य तन्मायामोहितस्य सुगर्विणः ।। २२ ।।

हे मुने ! उनके साथ विहार करते हुए निर्विकार शिव का वह सुखकारी बहुत-सा समय बीत गया । तदनन्तर किसी निजी इच्छा के कारण रुद्र की दक्ष से स्पर्धा हो गयी । उस समय शिव की माया से दक्ष मोह से ग्रस्त, महामूढ़ और अहंकार से युक्त हो गया ॥ २१-२२ ॥

तत्प्रभावाद्धरं दक्षो महागर्वी विमूढधीः ।

महाशांतं निर्विकारं निनिxद बहुमोहितः ।। २३ ।।

उनके ही प्रभाव से महान् अहंकारी, मूढ़बुद्धि और अत्यन्त विमोहित हुआ वह दक्ष उन्हीं महाशान्त तथा निर्विकार भगवान् हर की निन्दा करने लगा ॥ २३ ॥

ततो दक्षः स्वयं यज्ञं कृतवान्गर्वितोऽहरम् ।

सर्वानाहूय देवादीन् विष्णुं मां चाखिलाधिपः ।।२४।।

तदनन्तर गर्व में भरे हुए सर्वाधिप दक्ष ने मुझे, विष्णु को तथा सभी देवताओं को बुलाकर, किंतु शिवजी को बिना बुलाये ही स्वयं यज्ञ कर डाला ॥ २४ ॥

नाजुहाव तथाभूतो रुद्रं रोषसमाकुलः ।

तथा तत्र सतीं नाम्ना स्वपुत्रीं विधिमोहितः ।।२५।।

[किसी कारणवश] रुद्र पर असन्तुष्ट, क्रोध से भरे हुए उस दक्ष प्रजापति ने उन्हें उस यज्ञ में नहीं बुलाया और दुर्भाग्यवश न तो उसने अपनी पुत्री को ही उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये आहूत किया ॥ २५ ॥

यदा नाकारिता पित्रा मायामोहित चेतसा ।

लीलां चकार सुज्ञाना महासाध्वी शिवा तदा ।।२६।।

अथागता सती तत्र शिवाज्ञामधिगम्य सा ।

अनाहूतापि दक्षेण गर्विणा स्वपितुर्गृहम् ।। २७ ।।

जब माया से मोहित चित्तवाले दक्ष प्रजापति ने शिवा को [यज्ञमें] आमन्त्रित नहीं किया, तो ज्ञानस्वरूपा उन महासाध्वी ने अपनी लीला प्रारम्भ की । वे शिवजी की आज्ञा प्राप्तकर गर्वयुक्त दक्ष के द्वारा आमन्त्रित न होनेपर भी अपने पिता दक्ष के घर पहुँच गयीं ॥ २६-२७ ॥

विलोक्य रुद्रभागं नो प्राप्यावज्ञां च ताततः ।

विनिंद्य तत्र तान्सर्वान्देहत्यागमथाकरोत् ।। २८ ।।

उन देवी ने यज्ञ में रुद्र के भाग को न देखकर और अपने पिता से अपमानित होकर वहाँ [उपस्थित] सभी की निन्दा करके [योगाग्निसे] अपने शरीर को त्याग दिया ॥ २८ ॥

तच्छुत्वा देव देवेशः क्रोधं कृत्वा तु दुस्सहम् ।

जटामुत्कृत्य महतीं वीरभद्रमजीजनत् ।।२९।।

यह सुनकर देवदेवेश्वर रुद्र ने दुःसह क्रोध करके अपनी महान् जटा उखाड़कर वीरभद्र को उत्पन्न किया ॥ २९ ॥

सगणं तं समुत्पाद्य किं कुर्य्या मिति वादिनम् ।

सर्वापमानपूर्वं हि यज्ञध्वंसं दिदेश ह ।।३०।।

गणोंसहित उसे उत्पन्न करके मैं क्या करूँ’ — ऐसा कहते हुए उस वीरभद्र को शिवजी ने आज्ञा दी कि [हे वीरभद्र ! दक्ष के यज्ञ में आये हुए] सभी का अपमान करते हुए तुम यज्ञ का विध्वंस करो ॥ ३० ॥

तदाज्ञां प्राप्य स गणाधीशो बहुबलान्वितः ।

गतोऽरं तत्र सहसा महाबलपराक्रमः ।।३१।।

शिवजी की इस आज्ञा को पाकर महाबलवान् तथा पराक्रमी वह गणेश्वर वीरभद्र अपनी बहुत-सी सेना लेकर [यज्ञविध्वंस के लिये] वहाँ शीघ्र ही पहुँचा ॥ ३१ ॥

महोपद्रवमाचेरुर्गणास्तत्र तदाज्ञया ।

सर्वान्स दंडयामास न कश्चिदवशेषितः।।३२।।

उसकी आज्ञा से उन गणों ने वहाँ महान् उपद्रव प्रारम्भ किया । उस वीरभद्र ने सबको दण्डित किया, [दण्ड पाने से] कोई भी न बचा ॥ ३२ ॥

विष्णुं संजित्य यत्नेन सामरं गणसत्तमः ।

चक्रे दक्षशिरश्छेदं तच्छिरोग्नौ जुहाव च ।। ३३ ।।

यज्ञध्वंसं चकाराशु महोपद्रवमाचरन् ।

ततो जगाम स्वगिरिं प्रणनाम प्रभुं शिवम् ।। ३४ ।।

वीरभद्र ने देवताओं के साथ विष्णु को भी जीतकर दक्ष का सिर काट लिया और उस सिर को अग्नि में हवन कर दिया । इस प्रकार महान् उपद्रव करते हुए उसने यज्ञ को विनष्ट कर दिया । तत्पश्चात् वह कैलास पर गया और उसने शिव को प्रणाम किया ॥ ३३-३४ ॥

यज्ञध्वंसोऽभवच्चेत्थं देवलोके हि पश्यति ।

रुद्रस्यानुचरैस्तत्र वीरभद्रादिभिः कृतः।।३५।।

इस प्रकार यज्ञ का विध्वंस हो गया, देवताओं के देखते-देखते रुद्र के अनुचर वीरभद्र आदि ने यज्ञ को विनष्ट कर दिया ॥ ३५ ॥

मुने नीतिरियं ज्ञेया श्रुतिस्मृतिषु संमता ।

रुद्रे रुष्टे कथं लोके सुखं भवति सुप्रभो ।।३६।।

हे मुने ! श्रुतियों तथा स्मृतियों से प्रतिपादित यह नीति जान लेनी चाहिये कि श्रेष्ठ प्रभु रुद्र के रुष्ट हो जाने पर लोक में सुख कैसे हो सकता है ! ॥ ३६ ॥

ततो रुद्रः प्रसन्नोभूत्स्तुतिमाकर्ण्य तां पराम् ।

विज्ञप्तिं सफलां चक्रे सर्वेषां दीनवत्सलः ।।३७।।

[उसके बाद सभी देवताओं ने यज्ञ की पूर्णता के लिये भगवान् रुद्र की स्तुति की] उस उत्तम स्तुति को सुनकर रुद्र प्रसन्न हो गये । उन दीनवत्सल [भगवान् रुद्र]-ने सबकी प्रार्थना को सफल बना दिया ॥ ३७ ॥

पूर्ववच्च कृतं तेन कृपालुत्वं महात्मना ।

शंकरेण महेशेन नानालीलावि हारिणा ।।३८।।

जीवितस्तेन दक्षो हि तत्र सर्वे हि सत्कृताः ।

पुनस्स कारितो यज्ञः शंकरेण कृपालुना ।।३९।।

अनेक प्रकार की लीला करनेवाले महात्मा शंकर महेश ने पूर्ववत् कृपालुता की । उन्होंने दक्षप्रजापति को जीवित कर दिया और सभी लोगों का सत्कार किया, तदुपरान्त कृपालु शंकर ने [दक्ष से] पुनः यज्ञ करवाया ॥ ३८-३९ ॥

रुद्रश्च पूजितस्तत्र सर्वैर्देवैर्विशेषतः ।

यज्ञे विश्वादिभिर्भक्त्या सुप्रसन्नात्मभिर्वने ।।४०।।

हे मुने ! उस यज्ञ में विष्णु आदि सभी देवताओं ने बड़े प्रसन्नमन से भक्ति के साथ रुद्र का विशेष रूप से पूजन किया ॥ ४० ॥

सतीदेहसमुत्पन्ना ज्वाला लोकसुखावहा ।

पतिता पर्वते तत्र पूजिता सुखदायिनी ।। ४१ ।।

सती के शरीर से उत्पन्न तथा सभी लोगों को सुख देनेवाली वह ज्वाला पर्वत पर गिरी, वह लोगों के द्वारा पूजित होने पर सुख प्रदान करती है ॥ ४१ ॥

ज्वालामुखीति विख्याता सर्वकामफलप्रदा ।

बभूव परमा देवी दर्शनात्पापहारिणी ।। ४२ ।।

इदानीं पूज्यते लोके सर्वकामफलाप्तये ।

संविधाभिरनेकाभिर्महोत्सवपरस्परम् ।। ४३ ।।

ज्वालामुखी के नाम से प्रसिद्ध वे परमा देवी कामनाओं को पूर्ण करनेवाली तथा दर्शन से समस्त पापों को विनष्ट करनेवाली हैं । सम्पूर्ण कामनाओं के फल की प्राप्तिहेतु लोग इस समय अनेकों विधि-विधानों से महोत्सवपूर्वक उनकी पूजा करते हैं ॥ ४२-४३ ॥

ततश्च सा सती देवी हिमालयसुता ऽभवत् ।

तस्याश्च पार्वतीनाम प्रसिद्धमभवत्तदा ।। ४४ ।।

तदनन्तर वे सती देवी हिमालय की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुईं । तब उनका पार्वती-यह नाम विख्यात हुआ॥४४॥

सा पुनश्च समाराध्य तपसा कठिनेन वै ।

तमेव परमेशानं भर्त्तारं समुपाश्रिता ।। ४५ ।।

उन देवी ने पुनः कठिन तपस्या के द्वारा उन्हीं परमेश्वर शिव की आराधना करके उन्हें पतिरूप में प्राप्त किया ॥ ४५ ॥

एतत्सर्वं समाख्यातं यत्पृष्टोहं मुनीश्वर ।

यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ।। ४६ ।।

हे मुनीश्वर ! जो आपने मुझसे पूछा था, वह सब मैंने कह दिया, जिसे सुनकर मनुष्य सभी पापों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है ॥ ४६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये सतीसंक्षेपचरित्रवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सतीचरित्रवर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥

शेष जारी .............. शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय 2    

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