श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय ९

"युधिष्ठिरादि का भीष्मजी के पास जाना और भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए भीष्मजी का प्राण त्याग करना"

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय ९

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १अध्यायः ९

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      नवम अध्याय:

सूत उवाच ।

(अनुष्टुप्)

इति भीतः प्रजाद्रोहात् सर्वधर्मविवित्सया ।

ततो विनशनं प्रागाद् यत्र देवव्रतोऽपतत् ॥। १ ॥

तदा ते भ्रातरः सर्वे सदश्वैः स्वर्णभूषितैः ।

अन्वगच्छन् रथैर्विप्रा व्यासधौम्यादयस्तथा ॥। २ ॥

भगवानपि विप्रर्षे रथेन सधनञ्जयः ।

स तैर्व्यरोचत नृपः कुवेर इव गुह्यकैः ॥। ३ ॥

दृष्ट्वा निपतितं भूमौ दिवश्च्युतं इवामरम् ।

प्रणेमुः पाण्डवा भीष्मं सानुगाः सह चक्रिणा ॥। ४ ॥

तत्र ब्रह्मर्षयः सर्वे देवर्षयश्च सत्तम ।

राजर्षयश्च तत्रासन् द्रष्टुं भरतपुङ्गवम् ॥। ५ ॥

पर्वतो नारदो धौम्यो भगवान् बादरायणः ।

बृहदश्वो भरद्वाजः सशिष्यो रेणुकासुतः ॥। ६ ॥

वसिष्ठ इन्द्रप्रमदः त्रितो गृत्समदोऽसितः ।

कक्षीवान् गौतमोऽत्रिश्च कौशिकोऽथ सुदर्शनः ॥। ७ ॥

अन्ये च मुनयो ब्रह्मन् ब्रह्मरातादयोऽमलाः ।

शिष्यैरुपेता आजग्मुः कश्यपाङ्‌गिरसादयः ॥। ८ ॥

तान् समेतान् महाभागान् उपलभ्य वसूत्तमः ।

पूजयामास धर्मज्ञो देशकालविभागवित् ॥ ९ ॥

कृष्णं च तत्प्रभावज्ञ आसीनं जगदीश्वरम् ।

हृदिस्थं पूजयामास माययोपात्त विग्रहम् ॥ १० ॥

पाण्डुपुत्रान् उपासीनान् प्रश्रयप्रेमसङ्गतान् ।

अभ्याचष्टानुरागाश्रैः अन्धीभूतेन चक्षुषा ॥ ११ ॥

अहो कष्टमहोऽन्याय्यं यद् यूयं धर्मनन्दनाः ।

जीवितुं नार्हथ क्लिष्टं विप्रधर्माच्युताश्रयाः ॥ १२ ॥

संस्थितेऽतिरथे पाण्डौ पृथा बालप्रजा वधूः ।

युष्मत्कृते बहून् क्लेशान् प्राप्ता तोकवती मुहुः ॥ १३ ॥

सर्वं कालकृतं मन्ये भवतां च यदप्रियम् ।

सपालो यद्वशे लोको वायोरिव घनावलिः ॥ १४ ॥

यत्र धर्मसुतो राजा गदापाणिर्वृकोदरः ।

कृष्णोऽस्त्री गाण्डिवं चापं सुहृत् कृष्णः ततो विपत् ॥ १५ ॥

न ह्यस्य कर्हिचित् राजन् पुमान् वेद विधित्सितम् ।

यत् विजिज्ञासया युक्ता मुह्यन्ति कवयोऽपि हि ॥ १६ ॥

तस्मात् इदं दैवतंत्रं व्यवस्य भरतर्षभ ।

तस्यानुविहितोऽनाथा नाथ पाहि प्रजाः प्रभो ॥ १७ ॥

एष वै भगवान् साक्षात् आद्यो नारायणः पुमान् ।

मोहयन् मायया लोकं गूढश्चरति वृष्णिषु ॥ १८ ॥

अस्यानुभावं भगवान् वेद गुह्यतमं शिवः ।

देवर्षिर्नारदः साक्षात् भगवान् कपिलो नृप ॥ १९ ॥

यं मन्यसे मातुलेयं प्रियं मित्रं सुहृत्तमम् ।

अकरोः सचिवं दूतं सौहृदादथ सारथिम् ॥ २० ॥

सर्वात्मनः समदृशो ह्यद्वयस्यानहङ्कृतेः ।

तत्कृतं मतिवैषम्यं निरवद्यस्य न क्वचित् ॥ २१ ॥

तथाप्येकान्तभक्तेषु पश्य भूपानुकम्पितम् ।

यत् मे असून् त्यजतः साक्षात् कृष्णो दर्शनमागतः ॥ २२ ॥

भक्त्यावेश्य मनो यस्मिन् वाचा यन्नाम कीर्तयन् ।

त्यजन् कलेवरं योगी मुच्यते कामकर्मभिः ॥ २३ ॥

(वंशस्थ)

स देवदेवो भगवान् प्रतीक्षतां

     कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम् ।

प्रसन्नहासारुणलोचनोल्लसन्

     मुखाम्बुजो ध्यानपथश्चतुर्भुजः ॥ २४ ॥

सूत उवाच ।

(अनुष्टुप्)

युधिष्ठिरः तत् आकर्ण्य शयानं शरपञ्जरे ।

अपृच्छत् विविधान् धर्मान् ऋषीणां चानुश्रृण्वताम् ॥ २५ ॥

पुरुषस्वभावविहितान् यथावर्णं यथाश्रमम् ।

वैराग्यराग उपाधिभ्यां आम्नात उभयलक्षणान् ॥ २६ ॥

दानधर्मान् राजधर्मान् मोक्षधर्मान् विभागशः ।

स्त्रीधर्मान् भगवत् धर्मान् समास व्यास योगतः ॥ २७ ॥

धर्मार्थकाममोक्षांश्च सहोपायान् यथा मुने ।

नानाख्यान इतिहासेषु वर्णयामास तत्त्ववित् ॥ २८ ॥

धर्मं प्रवदतस्तस्य स कालः प्रत्युपस्थितः ।

यो योगिनः छन्दमृत्योः वाञ्छितस्तु उत्तरायणः ॥ २९ ॥

(वंशस्थ)

तदोपसंहृत्य गिरः सहस्रणीः

     विमुक्तसङ्गं मन आदिपूरुषे ।

कृष्णे लसत्पीतपटे चतुर्भुजे

     पुरः स्थितेऽमीलित दृग् व्यधारयत् ॥ ३० ॥

विशुद्धया धारणया हताशुभः

     तदीक्षयैवाशु गतायुधश्रमः ।

निवृत्त सर्वेन्द्रिय वृत्ति विभ्रमः

     तुष्टाव जन्यं विसृजन् जनार्दनम् ॥ ३१ ॥

श्रीभीष्म उवाच ।

(पुष्पिताग्रा)

इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा

     भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि ।

स्वसुखमुपगते क्वचित् विहर्तुं

     प्रकृतिमुपेयुषि यद्‍भवप्रवाहः ॥ ३२ ॥

त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं

     रविकरगौरवराम्बरं दधाने ।

वपुरलककुलावृत आननाब्जं

     विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥ ३३ ॥

युधि तुरगरजो विधूम्र विष्वक्

     कचलुलितश्रमवारि अलङ्कृतास्ये ।

मम निशितशरैर्विभिद्यमान

     त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥ ३४ ॥

सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये

     निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य ।

स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा

     हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु ॥ ३५ ॥

व्यवहित पृतनामुखं निरीक्ष्य

     स्वजनवधात् विमुखस्य दोषबुद्ध्या ।

कुमतिम अहरत् आत्मविद्यया यः

     चश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु ॥ ३६ ॥

स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञां

     ऋतमधि कर्तुमवप्लुतो रथस्थः ।

धृतरथ चरणोऽभ्ययात् चलद्‍गुः

     हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ॥ ३७ ॥

शितविशिखहतो विशीर्णदंशः

     क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।

प्रसभं अभिससार मद्वधार्थं

     स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥ ३८ ॥

विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे

     धृतहयरश्मिनि तत् श्रियेक्षणीये ।

भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोः

     यमिह निरीक्ष्य हता गताः स्वरूपम् ॥ ३९ ॥

ललित गति विलास वल्गुहास

     प्रणय निरीक्षण कल्पितोरुमानाः ।

कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः

     प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः ॥ ४० ॥

मुनिगण नृपवर्यसङ्कुलेऽन्तः

     सदसि युधिष्ठिर राजसूय एषाम् ।

अर्हणं उपपेद ईक्षणीयो

     मम दृशिगोचर एष आविरात्मा ॥ ४१ ॥

तमिममहमजं शरीरभाजां

     हृदि हृदि धिष्ठितमात्म कल्पितानाम् ।

प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं

     समधिगतोऽस्मि विधूत भेदमोहः ॥ ४२ ॥

सूत उवाच ।

(अनुष्टुप्)

कृष्ण एवं भगवति मनोवाक् दृष्टिवृत्तिभिः ।

आत्मनि आत्मानमावेश्य सोऽन्तःश्वास उपारमत् ॥ ४३ ॥

सम्पद्यमानमाज्ञाय भीष्मं ब्रह्मणि निष्कले ।

सर्वे बभूवुस्ते तूष्णीं वयांसीव दिनात्यये ॥ ४४ ॥

तत्र दुन्दुभयो नेदुः देवमानव वादिताः ।

शशंसुः साधवो राज्ञां खात्पेतुः पुष्पवृष्टयः ॥ ४५ ॥

तस्य निर्हरणादीनि सम्परेतस्य भार्गव ।

युधिष्ठिरः कारयित्वा मुहूर्तं दुःखितोऽभवत् ॥ ४६ ॥

तुष्टुवुर्मुनयो हृष्टाः कृष्णं तत् गुह्यनामभिः ।

ततस्ते कृष्णहृदयाः स्वाश्रमान्प्रययुः पुनः ॥ ४७ ॥

ततो युधिष्ठिरो गत्वा सहकृष्णो गजाह्वयम् ।

पितरं सान्त्वयामास गान्धारीं च तपस्विनीम् ॥ ४८ ॥

पित्रा चानुमतो राजा वासुदेवानुमोदितः ।

चकार राज्यं धर्मेण पितृपैतामहं विभुः ॥ ४९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

प्रथमस्कन्धे युधिष्ठिरराज्यप्रलम्भो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध नवम अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

सूतजी कहते हैं ;- इस प्रकार राजा युधिष्ठिर प्रजाद्रोह से भयभीत हो गये। फिर सब धर्मों का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से उन्होंने कुरुक्षेत्र की यात्रा की, जहाँ भीष्मपितामह शरशय्या पर पड़े हुए थे । शौनकादि ऋषियों! उस समय उन सब भाईयों ने स्वर्णजटित रथों पर, जिनमें अच्छे-अच्छे घोड़े जुते हुए थे, सवार होकर अपने भाई युधिष्ठिर का अनुगमन किया। उनके साथ व्यास, धौम्य आदि ब्राम्हण भी थे । शौनकजी! अर्जुन के साथ भगवान श्रीकृष्ण भी रथ पर चढ़कर चले। उन सब भाइयों के साथ महाराज युधिष्ठिर की ऐसी शोभा हुई, मानो यक्षों से घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हों । अपने अनुचरों और भगवान श्रीकृष्ण के साथ वहाँ जाकर पाण्डवों ने देखा कि भीष्मपितामह स्वर्ग से गिरे हुए देवता के समान पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। उन लोगों ने उन्हें प्रणाम किया । शौनकजी! उसी समय भरतवंशियों के गौरव रूप भीष्म पितामह को देखने के लिये सभी ब्रम्हर्षि, देवर्षि और राजर्षि वहाँ आये । पर्वत, नारद, धौम्य, भगवान व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, शिष्यों के साथ परशुरामजी, वसिष्ठ, इन्द्प्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान्, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, सुदर्शन तथा और भी शुकदेव आदि शुद्ध-ह्रदय महात्मागण एवं शिष्यों के सहित कश्यप, अंगिरा-पुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहाँ पधारे । भीष्मपितामह धर्म को और देश-काल के विभाग कोकहाँ किस समय क्या करना चाहिये, इस बात को जानते थे। उन्होंने उन बड़भागी ऋषियों को सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया । वे भगवान श्रीकृष्ण का प्रभाव भी जानते थे। अतः उन्होंने अपनी लीला से मनुष्य का वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वर के रूप में ह्रदय में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण की बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की । पाण्डव बड़े विनय और प्रेम के साथ भीष्मपितामह के पास बैठ गये। उन्हें देखकर भीष्मपितामह की आँखें प्रेम से आँसुओं से भर गयीं।

उन्होंने कहा ;- ‘धर्मपुत्रों! हाय! हाय! यह बड़े कष्ट और अन्याय की बात है कि तुम लोगों को ब्राम्हण, धर्म और भगवान के आश्रित रहने पर भी इतने कष्ट के साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे । अतिरथी पाण्डु की मृत्यु के समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी। उन दिनों तुम लोगों के लिये कुन्तीरानी को और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत-से कष्ट झेलने पड़े । जिस प्रकार बादल वायु के वश में रहते हैं, वैसे ही लोकपालों के सहित सारा संसार काल भगवान के अधीन है। मैं समझता हूँ कि तुम लोगों के जीवन में ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सब उन्हीं की लीला है । नहीं तो जहाँ साक्षात् धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षा का काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण सुहृद् होंभला, वहाँ भी विपत्ति की सम्भावना है ? ये कालरूप श्रीकृष्ण कब क्या करना चाहते हैं, इस बात को कभी कोई नहीं जानता। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जानने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं ।

युधिष्ठिर! संसार की ये सब घटनाएँ ईश्वरेच्छा के अधीन हैं। उसी का अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजा का पालन करो; क्योंकि अब तुम्हीं इसके स्वामी और इसे पालन करने में समर्थ हो । ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान हैं। ये सबके आदिकारण और परम पुरुष नारायण हैं। अपनी माया से लोगों को मोहित करते हुए ये यदुवंशियों में छिपकर लीला कर रहे हैं । इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है। युधिष्ठिर! उसे भगवान शंकर, देवर्षि नारद और स्वयं भगवान कपिल ही जानते हैं । जिन्हें तुम अपना ममेरा, भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथि तक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं । इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहंकार-रहित और निष्पाप परमात्मा में उन ऊँचे-नीचे कार्यों के कारण कभी किसी प्रकार की विषमता नहीं होती । युधिष्ठिर! इस प्रकार सर्वत्र सम होने पर भी देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तों पर कितनी कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समय में जबकि मैं अपने प्राणों का त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है । भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभाव से इनमें अपना मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं और कामनाओं से तथा कर के बन्धन से छूट जाते हैं । वे ही देवदेव भगवान अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमल के समान औरन नेत्रों से उल्लासित मुखवाले चतुर्भुतरूप से, जिसका और लोगों को केवल ध्यान में दर्शन होता है, तब तक यही स्थित रहकर प्रतीक्षा करें जब तक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें जब तक मैं इस शरीर का त्याग न कर दूँ ।

सूतजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ने उनकी यह बात सुनकर शरशय्या पर सोये हुए भीष्मपितामह से बहुत-से ऋषियों के सामने ही नाना प्रकार के धर्मों के सम्बन्ध में अनेकों रहस्य पूछे । तब तत्वेत्ता भीष्मपितामह ने वर्ण और आश्रमों के अनुसार पुरुष के स्वाभाविक धर्म और वैराग्य तथा राग के कारण विभिन्न रूप से बतलाये हुए निवृत्ति और प्रवृत्ति रूप द्विध धर्म, दान धर्म, राज धर्म, मोक्ष धर्म, स्त्री धर्म और भगद्धर्मइन सबका अलग-अलग संक्षेप और विस्तार से वर्णन किया। शौनकजी! इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्षइन चारों पुरुषार्थों का तथा इनकी प्राप्ति के साधनों का अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागशः वर्णन किया । भीष्मपितामह इस प्रकार धर्म का प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायण का समय आ पहुँचा जिसे मृत्यु को अपने अधीन रखने वाले भगवत्परायण योगी लोग चाहा करते हैं । उस समय हजारों रथियों के नेता भीष्मपितामह ने वाणी का संयम करके मन को सब ओर से हटाकर अपने सामने स्थित आदिपुरुष भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर चतुर्भुज विग्रह पर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था। भीष्मजी की आँखें उसी पर एकटक लग गयीं । उनको शस्त्रों की चोट से जो पीड़ा हो रही थी वह तो भगवान के दर्शनमात्र से ही तुरंत दूर हो गयी तथा भगवान की विशुद्ध धारणा से उनके जो कुछ अशुभ शेष थे वे सभी नष्ट हो गये। अब शरीर छोड़ने के समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों के वृत्तिविलास को रोक दिया और बड़े प्रेम से भगवान की स्तुति की ।    

भीष्मजी ने कहा ;- अब मृत्यु के समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करने से अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंशशिरोमणि अनन्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरुप में स्थित रहते हुए ही कही विहार करने कीलीला करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती है । जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमाल के समान सांवला है, जिस पर सूर्यरश्मियों के समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुख पर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्ण में मेरी निष्कपट प्रीति हो । मुझे युद्ध के समय की उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है। उनके मुख पर लहराते हुए घुन्घ्राले बाल घोंड़ो की टॉप की धूल से मटमैले हो गये थे और पसीने की छोटी-छोटी बूँधें शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणों से उनकी त्वचा को बींध रहा था। उन सुन्दर कवच मण्डित भगवान श्रीकृष्ण के प्रति मेरा शरीर, अन्तःकरण और आत्मा समर्पित हो जायँ । अपने मित्र अर्जुन की बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव-सेना और कौरव-सेना के बीच में अपना रथ ले आये और वहाँ स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टि से ही शत्रुपक्ष के सैनिकों की आयु छीन ली, उन पार्थ सखा भगवान श्रीकृष्ण में मेरी परम प्रीति हो । अर्जुन ने जब दूर से कौरवों की सेना के मुखिया हम लोगों को देखा तब पाप समझकर वह अपने स्वजनों के वध से विमुख हो गया। उस समय जिन्होंने गीता के रूप में आत्माविद्या का उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञान का नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रीति बनी रहे ।

      मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्ण को शस्त्र ग्रहण कराकर छोडूँगा; उसे सत्य एवं ऊँची करने के लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा तोड़ दी। उस समय वे रथ से नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथी को मारने के लिये उस पर टूट पड़ता है, वैसे ही रथ का पहिया लेकर मुझ पर झपट पड़े। उस समय वे इतने वेग से दौड़े कि उनके कंधे का दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी काँपने लगी। मुझ आततायी ने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीर का कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुन के रोकने पर भी वे बलपूर्वक मुझे मारने के लिये मेरी ओर दौड़े आ रहे थे। वे ही भगवान श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलता से परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति होंआश्रय हों । अर्जुन के रथ की रक्षा में सावधान जिन श्रीकृष्ण के बायें हाथ में घोडों की रास थी और दाहिने हाथ में चाबुक, इन दोनों की शोभा से उस समय जिनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारत युद्ध में मरने वाले वीर जिनकी इस छवि का दर्शन करते रहने के कारण सारुप्य मोक्ष को प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थ सारथि भगवान श्रीकृष्ण में मुझ मरणासन्न की परम प्रीति हो ।

जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भाव युक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवन से अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीला में उनके अन्तर्धान हो जाने पर प्रेमोन्माद से मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण में मेरा परम प्रेम हो । जिस समय युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ हो रहा था, मुनीयों और बड़े-बड़े राजाओं से भरी हुई सभा में सबसे पहले सबकी ओर से इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान श्रीकृष्ण की मेरी आँखों के सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्यु के समय मेरे सामने खड़े हैं । जैसे एक एक ही सूर्य अनेक आँखों से अनेक रूपों में दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रहित अनेक शरीरधारियों के हृदय में अनेक रूप-से जान पड़ते हैं; वास्तव में तो वे एक और सबके ह्रदय में विराजमान हैं ही। उन्हीं इन भगवान श्रीकृष्ण को मैं भेद-भ्रम से रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ।

सूतजी कहते हैं ;- इस प्रकार भीष्मपितामह ने मन, वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से आत्मस्वरुप भगवान श्रीकृष्ण में अपने-आपको लीन कर दिया। उनके प्राण वहीं पर विलीन हो गये और वे शान्त हो गये । उन्हें अनन्त ब्रम्ह में लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप गये, जैसे दिन बीत जाने पर पक्षियों का कलरव शान्त हो जाता है । उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे। साधुस्वभाव के राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी । शौनकजी! युधिष्ठिर ने उनके मृत शरीर की अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समय के लिये शोकमग्न हो गये । उस समय मुनियों ने बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण की उनके रहस्यमय नाम ले-लेकर स्तुति की। इसके पश्चात् अपने हृदयों को श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमों को लौट गये । तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण के साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी को ढाढ़श बँधाया । फिर धृतराष्ट्र की आज्ञा और भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंश परम्परागत साम्राज्य का धर्मपूर्वक शासन करने लगे ।

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का  पारमहंस्या संहिताया प्रथमस्कन्ध युधिष्ठिरराज्यप्रलम्भ नाम नवमोऽध्याय समाप्त हुआ ॥ ९ ॥           

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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