श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय ८

"गर्भ में परीक्षित् की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक"

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय ८

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १अध्यायः ८

{प्रथम स्कन्ध:}

अष्टम अध्याय:

सूत उवाच ।

(अनुष्टुप्)

अथ ते सम्परेतानां स्वानामुदकमिच्छताम् ।

दातुं सकृष्णा गङ्गायां पुरस्कृत्य ययुः स्त्रियः ॥। १ ॥

ते निनीयोदकं सर्वे विलप्य च भृशं पुनः ।

आप्लुता हरिपादाब्जः अजःपूतसरिज्जले ॥। २ ॥

तत्रासीनं कुरुपतिं धृतराष्ट्रं सहानुजम् ।

गान्धारीं पुत्रशोकार्तां पृथां कृष्णां च माधवः ॥। ३ ॥

सांत्वयामास मुनिभिः हतबंधून् शुचार्पितान् ।

भूतेषु कालस्य गतिं दर्शयन् अप्रतिक्रियाम् ॥। ४ ॥

साधयित्वाजातशत्रोः स्वं राज्यं कितवैर्हृतम् ।

घातयित्वासतो राज्ञः कचस्पर्शक्षतायुषः ॥। ५ ॥

याजयित्वाश्वमेधैस्तं त्रिभिरुत्तमकल्पकैः ।

तद्यशः पावनं दिक्षु शतमन्योरिवातनोत् ॥। ६ ॥

आमंत्र्य पाण्डुपुत्रांश्च शैनेयोद्धवसंयुतः ।

द्वैपायनादिभिर्विप्रैः पूजितैः प्रतिपूजितः ॥। ७ ॥

गन्तुं कृतमतिर्ब्रह्मन् द्वारकां रथमास्थितः ।

उपलेभेऽभिधावन्तीं उत्तरां भयविह्वलाम् ॥। ८ ॥

उत्तरोवाच

पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।

नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥ ९ ॥

अभिद्रवति मामीश शरस्तप्तायसो विभो ।

कामं दहतु मां नाथ मा मे गर्भो निपात्यताम् ॥ १० ॥

सूत उवाच ।

उपधार्य वचस्तस्या भगवान् भक्तवत्सलः ।

अपाण्डवमिदं कर्तुं द्रौणेरस्त्रमबुध्यत ॥ ११ ॥

तर्ह्येवाथ मुनिश्रेष्ठ पाण्डवाः पञ्च सायकान् ।

आत्मनोऽभिमुखान् दीप्तान् आलक्ष्यास्त्राण्युपाददुः ॥ १२ ॥

व्यसनं वीक्ष्य तत्तेषां अनन्यविषयात्मनाम् ।

सुदर्शनेन स्वास्त्रेण स्वानां रक्षां व्यधाद्विभुः ॥ १३ ॥

अन्तःस्थः सर्वभूतानां आत्मा योगेश्वरो हरिः ।

स्वमाययाऽऽवृणोद्‍गर्भं वैराट्याः कुरुतन्तवे ॥ १४ ॥

यद्यप्यस्त्रं ब्रह्मशिरः त्वमोघं चाप्रतिक्रियम् ।

वैष्णवं तेज आसाद्य समशाम्यद् भृगूद्वह ॥ १५ ॥

मा मंस्था ह्येतदाश्चर्यं सर्वाश्चर्यमयेऽच्युते ।

य इदं मायया देव्या सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ १६ ॥

ब्रह्मतेजोविनिर्मुक्तैः आत्मजैः सह कृष्णया ।

प्रयाणाभिमुखं कृष्णं इदमाह पृथा सती ॥ १७ ॥

कुन्त्युवाच ।

नमस्ये पुरुषं त्वाऽऽद्यं ईश्वरं प्रकृतेः परम् ।

अलक्ष्यं सर्वभूतानां अन्तर्बहिरवस्थितम् ॥ १८ ॥

मायाजवनिकाच्छन्नं अज्ञाधोक्षजमव्ययम् ।

न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा ॥ १९ ॥

तथा परमहंसानां मुनीनां अमलात्मनाम् ।

भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः ॥ २० ॥

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनंदनाय च ।

नंदगोपकुमाराय गोविंदाय नमो नमः ॥ २१ ॥

नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने ।

नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥ २२ ॥

(वंशस्थ)

यथा हृषीकेश खलेन देवकी

     कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।

विमोचिताहं च सहात्मजा विभो

     त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्‍गणात् ॥ २३ ॥

विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनाद्

     असत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः ।

मृधे मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो

     द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः ॥ २४ ॥

(अनुष्टुप्)

विपदः सन्तु ताः शश्वत् तत्र तत्र जगद्‍गुरो ।

भवतो दर्शनं यत्स्याद् अपुनर्भवदर्शनम् ॥ २५ ॥

जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिः एधमानमदः पुमान् ।

नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वां अकिञ्चनगोचरम् ॥ २६ ॥

नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।

आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः ॥ २७ ॥

मन्ये त्वां कालमीशानं अनादिनिधनं विभुम् ।

समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः ॥ २८ ॥

(वंशस्थ)

न वेद कश्चिद् भगवंश्चिकीर्षितं

     तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् ।

न यस्य कश्चिद् दयितोऽस्ति कर्हिचिद्

     द्वेष्यश्च यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम् ॥ २९ ॥

(अनुष्टुप्)

जन्म कर्म च विश्वात्मन् अजस्याकर्तुरात्मनः ।

तिर्यङ् नृषिषु यादःसु तद् अत्यन्तविडम्बनम् ॥ ३० ॥

(वसंततिलका)

गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद्

     या ते दशाश्रुकलिल अञ्जन संभ्रमाक्षम् ।

वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य

     सा मां विमोहयति भीरपि यद्‌बिभेति ॥ ३१ ॥

(अनुष्टुप्)

केचिद् आहुः अजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये ।

यदोः प्रियस्य अन्ववाये मलयस्येव चन्दनम् ॥ ३२ ॥

अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात् ।

अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम् ॥ ३३ ॥

भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ ।

सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थितः ॥ ३४ ॥

भवेऽस्मिन् क्लिश्यमानानां अविद्याकामकर्मभिः ।

श्रवण स्मरणार्हाणि करिष्यम् इति केचन ॥ ३५ ॥

(वंशस्थ)

श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः

     स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः ।

त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं

     भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥ ३६ ॥

अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो

     जिहाससि स्वित् सुहृदोऽनुजीविनः ।

येषां न चान्यत् भवतः पदाम्बुजात्

     परायणं राजसु योजितांहसाम् ॥ ३७ ॥

(अनुष्टुप्)

के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः ।

भवतोऽदर्शनं यर्हि हृषीकाणां इव ईशितुः ॥ ३८ ॥

नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर ।

त्वत्पदैः अङ्‌किता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः ॥ ३९ ॥

इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिवीरुधः ।

वनाद्रि नदी उदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः ॥ ४० ॥

अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।

स्नेहपाशं इमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु ॥ ४१ ॥

त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् ।

रतिं उद्वहतात् अद्धा गङ्गेवौघं उदन्वति ॥ ४२ ॥

(वसंततिलका)

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्णि ऋषभावनिध्रुग्

     राजन्यवंशदहन अनपवर्ग वीर्य ।

गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार

     योगेश्वराखिलगुरो भगवन् नमस्ते ॥ ४३ ॥ 

सूत उवाच ।

(अनुष्टुप्)

पृथयेत्थं कलपदैः परिणूताखिलोदयः ।

मन्दं जहास वैकुण्ठो मोहयन्निव मायया ॥ ४४ ॥

तां बाढं इति उपामंत्र्य प्रविश्य गजसाह्वयम् ।

स्त्रियश्च स्वपुरं यास्यन् प्रेम्णा राज्ञा निवारितः ॥ ४५ ॥

व्यासाद्यैरीश्वरेहा ज्ञैः कृष्णेनाद्‍भुतकर्मणा ।

प्रबोधितोऽपि इतिहासैः नाबुध्यत शुचार्पितः ॥ ४६ ॥

आह राजा धर्मसुतः चिन्तयन् सुहृदां वधम् ।

प्राकृतेनात्मना विप्राः स्नेहमोहवशं गतः ॥ ४७ ॥

अहो मे पश्यताज्ञानं हृदि रूढं दुरात्मनः ।

पारक्यस्यैव देहस्य बह्व्यो मेऽक्षौहिणीर्हताः ॥ ४८ ॥

बालद्विजसुहृन् मित्र पितृभ्रातृगुरु द्रुहः ।

न मे स्यात् निरयात् मोक्षो ह्यपि वर्ष अयुत आयुतैः ॥ ४९ ॥

नैनो राज्ञः प्रजाभर्तुः धर्मयुद्धे वधो द्विषाम् ।

इति मे न तु बोधाय कल्पते शासनं वचः ॥ ५० ॥

स्त्रीणां मत् हतबंधूनां द्रोहो योऽसौ इहोत्थितः ।

कर्मभिः गृहमेधीयैः नाहं कल्पो व्यपोहितुम् ॥ ५१ ॥

यथा पङ्केन पङ्काम्भः सुरया वा सुराकृतम् ।

भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञैः मार्ष्टुमर्हति ॥ ५२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

प्रथमस्कन्धे कुन्तीस्तुतिर्युधिष्ठिरानुतापो नाम अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अष्टम अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

सूतजी कहते हैं ;- इसके बाद पाण्डव श्रीकृष्ण के साथ जलांजलि के इच्छुक मरे हुए स्वजनों का तर्पण करने के लिये स्त्रियों को आगे करके गंगातट पर गये । वहाँ उन सबने मृत बन्धुओं को जलदान दिया और उनके गुणों का स्मरण करके बहुत विलाप किया। तदनन्तर भगवान के चरण-कमलों की धूलि से पवित्र गंगाजल में पुनः स्नान किया । वहाँ अपने भाइयों के साथ कुरुपती महाराज युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र, पुत्र शोक से व्याकुल गान्धारी, कुन्ती और द्रौपदीसब बैठकर मरे हुए स्वजनों के लिये शोक करने लगे।

    भगवान श्रीकृष्ण ने धौम्यादि मुनियों के साथ उनको सान्त्वना दी और समझाया कि संसार के सभी प्राणी काल के अधीन हैं, मौत से किसी को कोई बचा नहीं सकता । इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर को उनका वह राज्य, जो धूर्तों ने छल से छीन लिया था, वापस दिलाया तथा द्रौपदी के केशों का स्पर्श करने से जिनकी आयु क्षीण हो गयी थी, उन दुष्ट राजाओं का वध कराया । साथ ही युधिष्ठिर के द्वारा उत्तम सामग्रियों से तथा पुरोहितों से तीन अश्वमेध यज्ञ कराये। इस प्रकार युधिष्ठिर के पवित्र यश को सौ यज्ञ करने वाले इन्द्र के यश की तरह सब ओर फैला दिया । इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ से जाने का विचार किया। उन्होंने इसके लिये पाण्डवों से विदा ली और व्यास आदि ब्राम्हणों का सत्कार किया। उन लोगों ने भी भगवान का बड़ा ही सम्मान किया। तदनन्तर सात्यकि और उद्धव के साथ द्वारका जाने के लिये वे रथ पर सवार हुए। उसी समय उन्होंने देखा कि उत्तरा भय से विह्वल होकर सामने से दौड़ी चली आ रही है ।

उत्तरा ने कहा ;- देवाधिदेव! जगदीश्वर! आप महायोगी हैं। आप मेरी रक्षा कीजिये; रक्षा कीजिये। आपके अतिरिक्त इस लोक में मुझे अभय देने वाला और कोई नहीं है; क्योंकि यहाँ सभी परस्पर एक-दूसरे की मृत्यु के निमित्त बन रहे हैं । प्रभो! आप सर्व-शक्तिमान् हैं। यह दहकते हुए लोहे का बाण मेरी ओर दौड़ा आ रहा है। स्वामिन्! यह मुझे भले ही जला डाले, परन्तु मेरे गर्भ को नष्ट न करेऐसी कृपा कीजिये ।

सूतजी कहते हैं ;- भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण उसकी बात सुनते ही जान गये कि अश्वत्थामा ने पाण्डवों के वंश को निर्बीज करने के लिये ब्रम्हास्त्र का प्रयोग किया है । शौनकजी! उसी समय पाण्डवों ने भी देखा कि जलते हुए पाँच बाण हमारी ओर आ रहे हैं। इसलिये उन्होंने भी अपने-अपने अस्त्र उठा लिये । सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अनन्य प्रेमियों परशरणागत भक्तों पर बहुत बड़ी विपत्ति आयी जानकर अपने निज अस्त्र सुदर्शन चक्र से उन निज जनों की रक्षा की । योगेश्वर श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान आत्मा हैं। उन्होंने उत्तरा के गर्भ को पाण्डवों की वंश परम्परा चलाने के लिये अपनी माया के कवच से ढक दिया । शौनकजी! यद्यपि ब्रम्हास्त्र अमोघ है और उसके निवारण का कोई उपाय भी नहीं है, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण के तेज के सामने आकर वह शान्त हो गया ।

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि भगवान तो सर्वाश्चर्यमय हैं, वे ही अपनी निज शक्ति माया से स्वयं अजन्मा होकर भी इस संसार की सृष्टि रक्षा और संहार करते हैं । जब भगवान श्रीकृष्ण जाने लगे, तब ब्रम्हास्त्र की ज्वाला से मुक्त अपने पुत्रों के और द्रौपदी के साथ सती कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्ण की इस प्रकार स्तुति की ।

कुन्ती ने कहा ;- आप समस्त जीवों के बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियों से देखे नहीं जाते; क्योंकि आप प्रकृति से परे आदि पुरुष परमेश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ । इन्द्रियों से जो कुछ जाना जाता है, उसकी तह में आप विद्यमान रहते हैं और अपनी ही माया के परदे से अपने को ढके रहते हैं। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तम को भला कैसे जान सकती हूँ ? जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नट को प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दीखते हुए भी नहीं दीखते । आप शुद्ध ह्रदय वाले विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसो के ह्रदय में अपनी प्रेममयी भक्ति अक सृजन करने के लिये अवतीर्ण हुए हैं। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं । आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्द गोप के लाड़ले लाल गोविन्द को हमारा बारंबार प्रणाम है ।

जिनकी नाभि से ब्रम्हा का जन्म स्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरणकमलों में कमल का चिन्ह हैश्रीकृष्ण! ऐसे आपको मेरा बार-बार नमस्कार है । हृषीकेश! जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की हुई और चिरकाल से शोकग्रस्त देवकी की रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रों के साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियों से रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं। श्रीकृष्ण! कहाँ तक गुनाऊँविष से, लाक्षागृह की भयानक आग से, हिडिम्ब आदि राक्षसों की दृष्टि से, दुष्टों की द्युतसभा से, वनवास की विपत्तियों से और अनेक बार के युद्धों में अनेक महारथियों के शस्त्रास्त्रों से और अभी-अभी इस अश्वत्थामा के ब्रम्हास्त्र से भी आपने ही हमारी रक्षा की है । जगद्गुरो! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियाँ आती रहें; क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चितरूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके ही दर्शन हो जाने पर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता । ऊँचे कुल में जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्ति के कारण जिसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगों को दर्शन देते हैं जो अकिंचन है । आप निधनों के परम धन हैं। माया का प्रपंच आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप अपने-आपमें ही विहार करने वाले, परम शान्तस्वरुप हैं। आप ही कैवल्य मोक्ष के अधिपति हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ । मैं आपको अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सबके नियन्ता, कालरूप, परमेश्वर समझती हूँ। संसार के समस्त पदार्थ और प्राणी आपस में टकराकर विषमता के कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परंतु आप सबमें समान रूप से विचर रहे हैं ।

भगवन्! आप जब मनुष्यों की-सी लीला करते हैं, तब आप क्या करना चाहते हैंयह कोई नहीं जानता। आपका कभी कोइ न प्रिय है और न अप्रिय। आपके सम्बन्ध में लोगों की बुद्धि ही विषम हुआ करती है । आप विश्व के आत्मा हैं, विश्वरूप हैं। न आप जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं। फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर आदि में आप जन्म लेते हैं और उन योनियों के अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं। यह आपकी लीला ही तो है । जब बचपन में आपने दूध की मटकी फोड़कर यशोदा मैया को खिझा दिया था और उन्होंने आपको बाँधने के लिये हाथ में रस्सी ली थी, तब आपकी आँखों में आँसू छलक आये थे, काजल कपोलों पर बह चला था, नेत्र चंचल हो रहे थे और भय की भावना से आपने अपने मुख को नीचे की ओर झुका लिया था! आपकी उस दशा कालीला-छवि का ध्यान करके मैं मोहित हो जाती हूँ।

 भला, जिससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा! आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों लिया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जैसे मलयाचल की कीर्ति का विस्तार करने के लिये उसमें चन्दन प्रकट होता है, वैसे ही अपने प्रिय भक्त पुण्यश्लोक राजा यदु की कीर्ति का विस्तार करने के लिये ही आपने उनके वंश में अवतार ग्रहण किया है । दूसरे लोग यों कहते हैं कि वसुदेव और देवकी ने पूर्व जन्म में (सुतपा और पृश्नि के रूप में) आपसे यही वरदान प्राप्त किया था, इसलिये आप अजन्मा होते हुए भी जगत् के कल्याण और दैत्यों के नाश के लिये उनके पुत्र बने हैं । कुछ और लोग यों कहते हैं कि यह पृथ्वी दैत्यों के अत्यन्त भार समुद्र में डूबते हुई जहाज की तरह डगमगा रही थीपीड़ित हो रही थी, तब ब्रम्हा की प्रार्थना से उसका भार उतारने के लिये ही आप प्रकट हुए । कोई महापुरुष कहते है कि जो लोग इस संसार में अज्ञान, कामना और कर्मों के बन्धन में जकड़े हुए पीड़ित हो रहे हैं उन लोगों के लिये श्रवण और स्मरण करने योग्य लीला करने के विचार से ही आपने अवतार ग्रहण किया है । भक्तजन बार-बार आपके चरित्र का श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनन्दित होते रहते हैं; वे ही अविलम्ब आपके उस चरणकमल का दर्शन कर पाते हैं; जो जन्म-मृत्यु के प्रवाह को सदा के लिये रोक देता है । भक्तवाञ्छा कल्प तरु प्रभो! क्या अब आप अपने आश्रित और सम्बन्धी हम लोगों को छोड़कर जाना चाहते हैं। आप जानते हैं कि आपके चरणकमलों के अतिरिक्त हमें और किसी का सहारा नहीं है। पृथ्वी के राजाओं के तो हम यों ही विरोधी हो गये हैं । जैसे जीव के बिना इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, वैसे ही आपके दर्शन बिना यदुवंशियों के और हमारे पुत्र पाण्डवों के नाम तथा रूप का अस्तित्व ही क्या रह जाता है । गदाधर! आपके विलक्षण चरणचिन्ह से चिन्हित यह कुरुजांगल-देश कि भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आपके चले जाने के बाद न रहेगी ।

आपकी दृष्टि के प्रभाव से ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-वृक्षों से समृद्ध हो रहा है। ये वन, पर्वत, नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टि से ही वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं । आप विश्व के स्वामी हैं, विश्व के आत्मा हैं और विश्वरूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवों में मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह की दृढ़ फाँसी को काट दीजिये । श्रीकृष्ण! जैसे गंगा की अखण्ड धारा समुद्र में गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही निरन्तर प्रेम करती रहे । श्रीकृष्ण! अर्जुन के प्यारे सखा यदुवंशशिरोमणे! आप पृथ्वी के भार रूप राज वेष धारी दैत्यों को जलाने के लिये अग्नि-स्वरुप हैं। आपकी शक्ति अनन्त है। गोविन्द! आपका यह अवतार गौ, ब्राम्हण और देवताओं का दुःख मिटाने के लिये ही है। योगेश्वर! चराचर के गुरु भगवन्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ।

सूतजी कहते हैं ;- इस प्रकार कुन्ती ने बड़े मधुर शब्दों में भगवान की अधिकांश लीलाओं का वर्णन किया। यह सब सुनकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी माया से उसे मोहित करते हुए-से मन्द-मन्द मुसकुराने लगे । उन्होंने कुन्ती से कह दिया—‘अच्छा ठीक हैऔर रथ के स्थान से वे हस्तिनापुर लौट आये। वहाँ कुन्ती और सुभद्रा आदि देवियों से विदा लेकर जब वे जाने लगे, तब राजा युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम से उन्हें रोक लिया । राजा युधिष्ठिर को अपने भाई-बन्धुओं के मरे जाने का बड़ा शोक हो रहा था। भगवान की लीला का मर्म जानने वाले व्यास आदि महर्षियों ने और स्वयं अद्भुत चरित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने भी अनेकों इतिहास कहकर उन्हें समझाने की बहुत चेष्टा की; परन्तु उन्हें सान्त्वना न मिली, उनका शोक न मिटा । शौनकादि ऋषियों! धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर को अपने स्वजनों के वध से बड़ी चिन्ता हुई।

     वे अविवेकयुक्त चित्त से स्नेह और मोह के वश में होकर कहने लगेभला, मुझ दुरात्मा के ह्रदय में बद्धमूल हुए इस अज्ञान को तो देखो; मैंने सियार-कुत्तों के आहार इस अनात्मा शरीर के लिये अनेक अक्षौहिणी सेना का नाश कर डाला । मैंने बालक, ब्राम्हण, सम्बन्धी, मित्र, चाचा-ताऊ, भाई-बन्धु और गुरुजनों से द्रोह किया है। करोंड़ो बरसों से भी नरक से मेरा छुटकारा नहीं हो सकता । यद्यपि शास्त्र का वचन है कि राजा यदि प्रजा का पालन करने के लिये धर्मयुद्ध में शत्रुओं को मारे तो उसे पाप नहीं लगता, फिर भी इससे मुझे संतोष नहीं होता ।स्त्रियों के पति और भाई-बन्धुओं को मारने से उसका मेरे द्वारा यहाँ जो अपराध हुआ है। उसका मैं गृहस्थोचित यज्ञ-यागादिकों के द्वारा मार्जन करने में समर्थ नहीं हूँ । जैसे कीचड़ से गँदला जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता, मदिरा से मदिरा की पवित्रता नहीं मिटायी जा सकती, वैस ही बहुत-सी हिंसाबहुल यज्ञों के द्वारा एक भी प्राणी की हत्या का प्रायश्चित नहीं किया जा सकता ।

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का  पारमहंस्या संहिताया प्रथमस्कन्ध व्यासनारदसंवाद कुन्तीस्तुतिर्युधिष्ठिरानुताप नाम अष्टमोऽध्याय समाप्त हुआ ॥ ८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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