श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय २१

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय २१                                                        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २१ "वेणुगीत"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय २१

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं एकविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २१                                                                            

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श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध इक्कीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २१ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ एकविंशोऽध्यायः - २१ ॥

श्रीशुक उवाच

इत्थं शरत्स्वच्छजलं पद्माकरसुगन्धिना ।

न्यविशद्वायुना वातं सगोगोपालकोऽच्युतः ॥ १॥

कुसुमितवनराजिशुष्मिभृङ्ग-

द्विजकुलघुष्टसरःसरिन्महीध्रम् ।

मधुपतिरवगाह्य चारयन् गाः

सह पशुपालबलश्चुकूज वेणुम् ॥ २॥

तद्व्रजस्त्रिय आश्रुत्य वेणुगीतं स्मरोदयम् ।

काश्चित्परोक्षं कृष्णस्य स्वसखीभ्योन्ववर्णयन् ॥ ३॥

तद्वर्णयितुमारब्धाः स्मरन्त्यः कृष्णचेष्टितम् ।

नाशकन् स्मरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप ॥ ४॥

बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं

बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।

रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै-

र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः ॥ ५॥

इति वेणुरवं राजन् सर्वभूतमनोहरम् ।

श्रुत्वा व्रजस्त्रियः सर्वा वर्णयन्त्योऽभिरेभिरे ॥ ६॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! शरद ऋतु के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था। जल निर्मल था और जलाशयों में खिले हुए कमलों की सुगन्ध से सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। भगवान श्रीकृष्ण ने गौओं और ग्वालबालों के साथ उस वन में प्रवेश किया। सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से परिपूर्ण हरी-हरी वृक्ष-पंक्तियों में मतवाले भौंरे स्थान-स्थान पर गुनगुना रहे थे और तरह-तरह के पक्षी झुंड-के-झुंड अलग-अलग कलरव कर रहे थे, जिससे उस वन के सरोवर, नदियाँ और पर्वत-सब-के-सब गूँजते रहते थे।

मधुपति श्रीकृष्ण ने बलराम जी और ग्वालबालों के साथ उसके भीतर घुसकर गौओं को चराते हुए अपनी बाँसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी। श्रीकृष्ण की वह वंशी ध्वनि भगवान के प्रति प्रेमभाव को, उनके मिलन की आकांक्षा को जगाने वाली थी। वे एकान्त में अपनी सखियों से उनके रूप, गुण और वंशी ध्वनि के प्रभाव का वर्णन करने लगीं। व्रज की गोपियों ने वंशीध्वनि का माधुर्य आपस में वर्णन करना चाहा तो अवश्य; परन्तु वंशी का स्मरण होते ही उन्हें श्रीकृष्ण की मधुर चेष्टाओं की, प्रेमपूर्ण चितवन, भौहों के इशारे और मधुर मुस्कान आदि की याद हो आयी।

उनकी भगवान से मिलने की आकांक्षा और भी बढ़ गयी। उनका मन हाथ से निकल गया। वे मन-ही-मन वहाँ पहुँच गयीं, जहाँ श्रीकृष्ण थे। अब उनकी वाणी बोले कैसे? वे उसके वर्णन में असमर्थ हो गयीं। वे मन-ही-मन देखने लगीं कि श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं। उनके सिर पर मयूरपिच्छ है और कानों पर कनेर के पीले-पीले पुष्प; शरीर पर सुनहला पीताम्बर और गले में पाँच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी वैजयन्ती माला है।

रंगमंच पर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नट का-सा क्या ही सुन्दर वेष है। बाँसुरी के छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहे हैं। उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्ति का गान कर रहे हैं। इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ वह वृन्दावन धाम उनके चरणचिह्नों से और भी रमणीय बन गया है।

परीक्षित! यह वंशीध्वनि जड़, चेतन-समस्त भूतों का मन चुरा लेती है। गोपियों ने उसे सुना और सुनकर उनका वर्णन करने लगीं। वर्णन करते-करते वे तन्मय हो गयीं और श्रीकृष्ण को पाकर आलिंगन करने लगीं।

गोप्य ऊचुः

अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः

सख्यः पशूननु विवेशयतोर्वयस्यैः ।

वक्त्रं व्रजेशसुतयोरनुवेणुजुष्टं

यैर्वा निपीतमनुरक्तकटाक्षमोक्षम् ॥ ७॥

चूतप्रवालबर्हस्तबकोत्पलाब्ज-

मालानुपृक्तपरिधानविचित्रवेषौ ।

मध्ये विरेजतुरलं पशुपालगोष्ठ्यां

रङ्गे यथा नटवरौ क्व च गायमानौ ॥ ८॥

गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणु-

र्दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम् ।

भुङ्क्ते स्वयं यदवशिष्टरसं ह्रदिन्यो

हृष्यत्त्वचोऽश्रु मुमुचुस्तरवो यथाऽऽर्यः ॥ ९॥

वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्तिं

यद्देवकीसुतपदाम्बुजलब्धलक्ष्मि ।

गोविन्दवेणुमनु मत्तमयूरनृत्यं

प्रेक्ष्याद्रिसान्वपरतान्यसमस्तसत्त्वम् ॥ १०॥

धन्याः स्म मूढगतयोऽपि हरिण्य एता

या नन्दनन्दनमुपात्तविचित्रवेषम् ।

आकर्ण्य वेणुरणितं सहकृष्णसाराः

पूजां दधुर्विरचितां प्रणयावलोकैः ॥ ११॥

कृष्णं निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपशीलं

श्रुत्वा च तत्क्वणितवेणुविचित्रगीतम् ।

देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसारा

भ्रश्यत्प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः ॥ १२॥

गावश्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीत-

पीयूषमुत्तभितकर्णपुटैः पिबन्त्यः ।

शावाः स्नुतस्तनपयःकवलाः स्म तस्थु-

र्गोविन्दमात्मनि दृशाश्रुकलाः स्पृशन्त्यः ॥ १३॥

गोपियाँ आपस में बातचीत करने लगीं - अरी सखी! हमने तो आँख वालों के जीवन की और उनकी आँखों की बस, यही - इतनी ही सफलता समझी है; और तो हमें कुछ मालूम ही नहीं है। वह कौन-सा लाभ है? वह यही है कि जब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम ग्वालबालों के साथ गायों को हाँककर वन में ले जा रहे हो या लौटकर व्रज में ला रहे हों, उन्होंने अपने अधरों पर मुरली धर रखी हो और प्रेमभरी तिरछी चितवन से हमारी ओर देख रहे हों, उस समय हम उनकी मुख-माधुरी का पान करती रहें।

अरी सखी! जब वे आम की नयी कोंपलें, मोरों के पंख, फूलों के गुच्छे, रंग-बिरंगे कमल और कुमुद की मालाएँ धारण कर लेते हैं, श्रीकृष्ण के साँवरे शरीर पर पीताम्बर और बलराम के गोरे शरीर पर नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा ही विचित्र बन जाता है। ग्वालबालों की गोष्ठी में वे दोनों बीचो-बीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीत की तान छेड़ देते हैं। मेरी प्यासी सखी! उस समय ऐसा जान पड़ता है मानों दो चतुर नट रंगमंच पर अभिनय कर रहे हों। मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है।

अरी गोपियों! यह वेणु पुरुष जाति का होने पर भी पूर्वजन्म में न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियों की अपनी सम्पत्ति - दामोदर के अधरों की सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हम लोगों के लिये थोडा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा। इस वेणु को अपने रस से सींचने वाले हृदय आज कमलों के मिल रोमांचित हो रहे हैं और अपने वंश में भगवत्प्रेमी सन्तानों को देखकर श्रेष्ठ पुरुषों के समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर आँखों से आनन्दाश्रु बहा रहे हैं।

अरी सखी! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिह्नों से यह चिह्नित हो रहा है! सखि! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनि जन मोहिनी मुरली बजाते हैं तब मोर मतवाले होकर उसकी ताल पर नाचने लगते हैं। यह देखकर पर्वत की चोटियों पर विचरने वाले सभी पशु-पक्षी चुपचाप - शान्त होकर खड़े रह जाते हैं।

अरी सखी! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, जब मूढ़ बुद्धिवाली ये हिरनियाँ भी वंशी की तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगों के साथ नन्दनन्दन के पास चली आती हैं और अपनी प्रेम भरी बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें निरखने लगती हैं। निरखती क्या हैं, अपनी कमल के समान बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्ण के चरणों पर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्ण की प्रेमभरी चितवन के द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।

वास्तव में उनका जीवन धन्य है! अरी सखी! हिरनियों की तो बात ही क्या है - स्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनन्दित करने वाले सौन्दर्य और शील के खजाने श्रीकृष्ण को देखती हैं और बाँसुरी पर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनतीं हैं, तब उनके चित्र-विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमान पर ही सुध-बुध खो बैठती हैं - मूर्च्छित हो जाती हैं।

यह कैसे मालूम हुआ सखी? सुनो तो, जब उनके हृदय में श्रीकृष्ण से मिलने की तीव्र आकांक्षा जग जाती है तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं। उन्हें इस बात का भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियों में गुँथे हुए फूल पृथ्वी पर गिर रहे हैं। यहाँ तक कि उन्हें अपनी साड़ी का भी पता नहीं रहता, वह कमर से खिसककर जमीन पर गिर जाती है।

अरी सखी! तुम देवियों की बात क्या-क्या कह रही हो, इन गौओं को नहीं देखती? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुख से बाँसुरी में स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानों के दोने सम्हाल लेती हैं - खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीत का रस लेने लगती हैं? ऐसा क्यों होता है सखी?

अपने नेत्रों के द्वार से श्यामसुन्दर को हृदय में ले जाकर वे उन्हें वहीं विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिंगन करती हैं। देखती नहीं हो, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसू छलकने लगते हैं! और उनके बछड़े, बछड़ों की तो दशा ही निराली हो जाती है। यद्यपि गायों के थनों से अपने-आप दूध झरता रहता है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशी ध्वनि सुनते हैं तब मुँह में लिया हुआ दूध का घूँट न उगले पाते हैं और न निगल पाते हैं। उनके हृदय में भी होता है भगवान का संस्पर्श और नेत्रों में छलकते होते हैं आनन्द के आँसू। वे ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं।

प्रायो बताम्ब विहगा मुनयो वनेऽस्मिन्

कृष्णेक्षितं तदुदितं कलवेणुगीतम् ।

आरुह्य ये द्रुमभुजान् रुचिरप्रवालान्

श‍ृण्वन्त्यमीलितदृशो विगतान्यवाचः ॥ १४।

नद्यस्तदा तदुपधार्य मुकुन्दगीत-

मावर्तलक्षितमनोभवभग्नवेगाः ।

आलिङ्गनस्थगितमूर्मिभुजैर्मुरारेः

गृह्णन्ति पादयुगलं कमलोपहाराः ॥ १५॥

दृष्ट्वाऽऽतपे व्रजपशून् सह रामगोपैः

सञ्चारयन्तमनु वेणुमुदीरयन्तम् ।

प्रेमप्रवृद्ध उदितः कुसुमावलीभिः

सख्युर्व्यधात्स्ववपुषाम्बुद आतपत्रम् ॥ १६॥

पूर्णाः पुलिन्द्य उरुगायपदाब्जराग-

श्रीकुङ्कुमेन दयितास्तनमण्डितेन ।

तद्दर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेन

लिम्पन्त्य आननकुचेषु जहुस्तदाधिम् ॥ १७॥

हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो

यद्रामकृष्णचरणस्पर्शप्रमोदः ।

मानं तनोति सह गोगणयोस्तयोर्यत्

पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः ॥ १८॥

अरी सखी! गौएँ और बछड़े तो हमारी घर की वस्तु हैं। उनकी बात तो जाने ही दो। वृन्दावन के पक्षियों को तुम नहीं हो! उन्हें पक्षी कहना ही भूल है! सच पूछो तो उनमें से अधिकांश बड़े-बड़े ऋषि-मुनि हैं। वे वृन्दावन के सुन्दर-सुन्दर वृक्षों की नयी और मनोहर कोंपलों वाली डालियों पर चुपचाप बैठ जाते हैं और आँखें बंद नहीं करते, निर्निमेष नयनों से श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी तथा प्यार-भरी चितवन देख-देखकर निहाल होते रहते हैं, तथा कानों से अन्य सब प्रकार के शब्दों को छोड़कर केवल उन्हीं की मोहनी वाणी और वंशी का त्रिभुवन मोहन संगीत सुनते रहते हैं। मेरी प्यासी सखी! उनका जीवन कितना धन्य है!

अरी सखी! देवता, गौओं और पक्षियों की बात क्यों करती हो? वे तो चेतन हैं। इन जड़ नदियों को नहीं देखतीं? इसमें जो भँवर दीख रहे है, उनसे इनके हृदय से श्यामसुन्दर से मिलने की तीव्र आकांक्षा का पता चलता है? उसके वेग से ही तो इनका प्रवाह रुक गया है। इन्होंने भी प्रेमस्वरूप श्रीकृष्ण की वंशीध्वनि सुन ली है। देखो, देखो! ये अपनी तरंगों के हाथों से उनके चरण पकड़कर कमल के फूलों का उपहार चढ़ा रही हैं, और उनका आलिंगन कर रही हैं; मानो उसके चरणों पर अपना हृदय ही निछावर कर रही हैं।

अरी सखी! ये नदियाँ ये हमारी पृथ्वी की, हमारे वृन्दावन की वस्तुएँ हैं; तनिक इन बादलों को भी देखो! जब वे देखते हैं कि व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण और बलराम जी ग्वालबालों के साथ धूप में गौएँ चरा रहे हैं और साथ-साथ बाँसुरी भी बजाते जा रहे हैं, तब उनके हृदय में प्रेम उमड़ आता है। वे उनके ऊपर मँडराने लगते हैं और वे श्यामघन अपने सखा घनश्याम के ऊपर अपने शरीर को ही छाता बनाकर तान देते हैं। इतना ही नहीं सखी! वे जब उनपर नन्हीं-नन्हीं फुहियों की वर्षा करने लगते हैं तब ऐसा जान पड़ता है कि वे उनके ऊपर सुन्दर-सुन्दर श्वेत कुसुम चढ़ा रहे हैं। नहीं सखी, उनके बहाने वे तो अपना जीवन ही निछावर कर देते हैं।

अरी भटू! हम तो वृन्दावन की इन भीलनियों को ही धन्य और कृतकृत्य मानती हैं। ऐसा क्यों सखी ? इसलिये कि इनके हृदय में बड़ा प्रेम है। जब ये हमारे कृष्ण-प्यारे को देखती हैं, तब इनके हृदय में भी उनसे मिलने की तीव्र आकांक्षा जाग उठती है। इनके हृदय में भी प्रेम की व्याधि लग लग जाती है। उस समय ये क्या उपाय करती हैं, यह भी सुन लो। हमारे प्रियतम की प्रेयसी गोपियाँ अपने वक्षःस्थलों पर जो केसर लगाती हैं, वह श्यामसुन्दर के चरणों में लगी होती है और वे जब वृन्दावन के घास-पात पर चलते हैं, तब उनमें भी लग जाती है। ये सौभाग्यवती भीलनियाँ उन्हें उन तनिकों पर से छुड़ाकर अपने स्तनों और मुखों पर मल लेतीं हैं और इस प्रकार अपने हृदय की प्रेम-पीड़ा शान्त करती हैं ।

अरी गोपियों! यह गिरिराज गोवर्धन तो भगवान के भक्तों में बहुत ही श्रेष्ठ है। धन्य हैं इसके भाग्य! देखती नहीं हो, हमारे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण और नयनाभिराम बलराम के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त करके यह कितना आनन्दित रहता है। इसके भाग्य की सहारना कौन करे? यह तो उन दोनों का - ग्वालबालों और गौओं का बड़ा ही सत्कार करता है। स्नान-पान के लिये झरनों का जल देता है, गौओं के लिये सुन्दर हरी-हरी घास प्रस्तुत करता है, विश्राम करने के लिये कन्दराएँ और खाने के लिये कन्द-मूल फल देता है। वास्तव में यह धन्य है!

गा गोपकैरनुवनं नयतोरुदार-

वेणुस्वनैः कलपदैस्तनुभृत्सु सख्यः ।

अस्पन्दनं गतिमतां पुलकस्तरूणां

निर्योगपाशकृतलक्षणयोर्विचित्रम् ॥ १९॥

एवं विधा भगवतो या वृन्दावनचारिणः ।

वर्णयन्त्यो मिथो गोप्यः क्रीडास्तन्मयतां ययुः ॥ २०॥

परी सखी! इन साँवरे-गोरे किशोरों की तो गति ही निराली है। जब वे सिरपर नोवना लपेटकर और कंधो पर फंदा रखकर गायों को एक वन से दूसरे वन में हाँककर ले जाते हैं, साथ में ग्वालबाल भी होते हैं और मधुर-मधुर संगीत गाते हुए बाँसुरी की तान छेड़ते हैं, उस समय मनुष्यों की तो बात ही क्या अन्य शरीरधारियों में भी चलने वाले चेतन पशु-पक्षी और जड़ नदी आदि तो स्थिर हो जाते हैं, तथा अचल-वृक्षों को भी रोमांच हो आता है। जादू भरी वंशी का और क्या चमत्कार सुनाऊँ।

परीक्षित! वृन्दावन विहारी श्रीकृष्ण की ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएँ हैं। गोपियाँ प्रति-दिन आपस में उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं। भगवान लीलाएँ उनके हृदय में स्फुरित होने लगतीं।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे वेणुगीतं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 22

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