श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ७
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय ७ संतप्तक ब्राह्मण तथा पाँच प्रेतों की
कथा, सत्संगति तथा भगवत्कृपा से पाँच प्रेतों तथा ब्राह्मण का
उद्धार का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) सप्तमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 7
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प सातवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ७
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ७ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ७
गरुड उवाच ।
श्रुतं मे महादाख्यानं
वृषोत्सर्गफलं हरे ।
पुनरन्यां कथां ब्रूहि यत्र ते
महिमाद्भुतः ॥ २,७.१ ॥
गरुड ने कहा—हे प्रभो! आपने वृषोत्सर्ग नामक यज्ञ से प्राप्त होनेवाले फल से सम्बन्धित
जो आख्यान कहा, उसको मैंने सुन लिया है। अब आप पुनः किसी
अन्य कथा का वर्णन करें, जिसमें आपकी अद्भुत महिमा निहित हो
।
श्रीकृष्ण उवाच ।
अहं ते कथयाम्यद्य संवादं
परमाद्भुतम् ।
सन्तप्तकस्य च
प्रेतैस्तद्रूपज्ञापनाय वै ॥ २,७.२
॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे गरुड ! अब मैं
संतप्तकनामक ब्राह्मण तथा पाँच प्रेतों की कथा को बताता हूँ।
विप्रः सन्तप्तकः
कश्चित्तपसादग्धकिल्बिषः ।
संसारासारतां ज्ञात्वारण्यष्वेव
चचार ह ॥ २,७.३ ॥
वैखानसमुनिव्रातैः
प्राणिपातकृतेक्षणः ।
स कदाचित्तीर्थयात्रामुद्दिश्य
स्माटतिद्विजः ॥ २,७.४ ॥
प्रत्याकृष्टेन्द्रियत्वाच्च
बहिर्वृत्तिनिरोधकः ।
संस्कारमात्रगमनो मार्गभ्रष्टो बभूव
ह ॥ २,७.५ ॥
चलन्नेवं स्नानकाले
मध्याह्नेऽथाभिलाषुकः ।
जलस्योन्मील्य नयने दिशः सर्वा
न्यभीलयत् ॥ २,७.६ ॥
स ददर्श तदा
गुल्मैर्वोरुद्वृक्षशतैश्चितम् ।
त्वक्सारैः शाखिशाखाभिः संकुलं
गहनंवनम् ॥ २,७.७ ॥
तत्र तालास्तमालाश्च प्रियालाः
पनसास्तथा ।
श्रीपर्णो
शालशाखोटस्यन्दनास्तिन्दुकास्तथा ॥ २,७.८
॥
सर्जार्जुनाम्रातकाश्च श्लेष्मा
तकभिभीतकौ ।
पिचुमर्दश्चिञ्चिणी च
कर्कन्धूकर्णिकारकाः ॥ २,७.९ ॥
एते चान्ये च बहवो वृक्षास्तेषु न
दृश्यते ।
पक्षिणामपि वै पन्था मनुष्यस्य कुतः
पुनः ॥ २,७.१० ॥
तस्मिन् वने महाघोरे
सिंहव्याघ्रसमाकुले ।
तरक्षुगवयैरृक्षैर्महिषैश्च
निषेविते ॥ २,७.११ ॥
कुञ्ज रैरुरुभिर्नागैर्मर्कटैश्च
तथामृगैः ।
श्वापदैश्च तथा चान्यैः पिशाचै
राक्षसैर्वृते ॥ २,७.१२ ॥
हे पक्षिन् ! पूर्वकाल में संतप्तक
नामक एक ब्राह्मण था, जिसने तपस्या के बल
पर अपने को पापरहित कर लिया था। यह संसार असार है, ऐसा जानकर
वह वनों में वैखानस मुनियों के द्वारा आचरित वृत्ति का पालन करते हुए अरण्य में ही
विचरण करता था। किसी समय उस ब्राह्मण ने तीर्थ-यात्रा को लक्ष्य बनाकर अपनी यात्रा
प्रारम्भ की। संसार के प्रति इन्द्रियाँ स्वतः आकृष्ट हो जाती हैं, इस कारण से उसने अपनी बाह्य चित्तवृत्तियों को भी रोक लिया था, किंतु पूर्व संस्कारों के प्रभाव से वह मार्ग भूल गया और चलते-चलते
मध्याह्नकाल हो गया, स्नान के लिये जल की अभिलाषा से वह
चारों ओर देखने लगा । उसे उस समय सैकड़ों गुल्म-लता और बाँस के वृक्षों से घिरा
हुआ, वृक्षों की शाखाओं से व्याप्त, घनघोर
एक वन दिखायी पड़ा। वहाँ ताल, तमाल, प्रियाल,
कटहल, श्रीपर्णी, शाल,
शाखोट (सिहोर का वृक्ष), चन्दन, तिन्दुक, राल, अर्जुन, आमड़ा, लसोड़ा, बहेड़ा,
नीम, इमली, बैर और कनैल
तथा अन्य बहुत-से वृक्षों की सघनता के कारण पक्षियों के लिये भी मार्ग नहीं दीखता
था। फिर मनुष्य के लिये उस वन में कहाँ मार्ग मिल सकता था? वह
वन तो सिंह, व्याघ्र, तरक्षु (एक छोटी
जाति का बाघ), नीलगाय, रीछ, महिष, हाथी, कृष्णमृग, नाग और बंदर तथा अन्यान्य प्रकार के हिंसक जीव-जन्तु, राक्षस एवं पिशाचों से परिव्याप्त था ।
सन्तप्तको द्विजः
किञ्चिद्भयसन्त्रस्तमानसः ।
कान्दिशीकः समभवढ्यद्भविष्यो ययौ
पुनः ॥ २,७.१३ ॥
झङ्कारेषु च झिल्लीनां घूकानां
घूत्कृतेष्वपि ।
दत्तकर्णः कुनीलाङ्गश्चचाल
पदपञ्चकम् ॥ २,७.१४ ॥
स तत्र वटवृक्षाग्रे स्नायुबद्धं
शवं तथा ।
ददर्श तद्भुजश्चैव पञ्च प्रेतान्
सुदारुणान् ॥ २,७.१५ ॥
शिरास्थिचर्मशेषाङ्गान्
पृष्ठलग्नोदरान् खग ।
त्यक्तान्नासिकया नेत्रकूपपातभयादिव
॥ २,७.१६ ॥
सूचीक्रककचकव्रातघातपातितकीकसान् ।
वसाक्तनवमस्तिष्कस्वादनित्यमहोत्सवान्
॥ २,७.१७ ॥
रणत्कोटिमहादंष्ट्रानस्थिग्रन्थ्यवघट्टितान्
।
तान्दृष्ट्वा त्रस्तहृदयो
गतिमाकुञ्च्य संस्थितः ॥ २,७.१८
॥
ते विलोक्यागतं विप्रमटवीं
जनवर्जिताम् ।
अहं पूर्वमहं पूर्वं यामीत्याक्त्वा
प्रदुद्रुवुः ॥ २,७.१९ ॥
तेषु द्वौद्वावगृह्णीतामस्य
हस्तावथापरे ।
द्वौद्वौ पादावगृह्णीतां मूर्धानं
पञ्चमोऽग्रहीत् ॥ २,७.२० ॥
स्वजात्युचितवाक्येन
स्फुटवर्णवताब्रुवन् ।
अहं जक्षाम्यहं भक्षामीति
कर्षणतत्पराः ॥ २,७.२१ ॥
सहसैव सहैवामुं गृहीत्वा
व्यगमन्वियत् ।
कियत्स्थितं वटौ मांसं क्रियन्नेति
न्यभालयन् ॥ २,७.२२ ॥
तेऽपश्यन्निजदंष्ट्रायः
पाटितान्त्रमिमं शवम् ।
अवतीर्य ततो व्योम्नो गृहीत्वा
चरणैः शवम् ॥ २,७.२३ ॥
संतप्तक उस प्रकार के घनघोर भयावह
वन को देखकर भयाक्रान्त हो उठा। भयभीत वह अब किस दिशा में जाय,
इसका निर्णय नहीं कर सका। फिर जो होगा, देखा
जायगा — यह सोचकर वह वहाँ से पुनः चल पड़ा । झींगुरों की
झंकार तथा उल्लुओं की धूतकार ध्वनियों पर कान लगाये वह पाँच ही डग चला था कि सामने
बरगद के वृक्ष में बँधा एक शव लटका हुआ उसे दिखायी दिया, जिसे
पाँच महाभयंकर प्रेत खा रहे थे । हे खगेश ! उन प्रेतों के शरीर में मात्र शिराओं से
युक्त हड्डी और चमड़ा ही शेष था । उनका पेट पीठ में धँसा हुआ था। नेत्ररूपी कुओं में
गिरने के भय से नासिका ने उनका साथ छोड़ दिया था । वसा से भरे हुए ताजे शव के मस्तिष्क-भाग
का स्वाद लेकर जो नित्य अपना महोत्सव मनाते थे और हड्डी की गाँठों को तोड़ने में
लगे हुए जिनके बड़े-बड़े दाँत किटकिटाते थे, ऐसे प्रेतों को
देखकर घबड़ाये हुए हृदयवाला वह ब्राह्मण वहीं ठिठक गया। उस निर्जन वन में आ रहे
ब्राह्मण को उन प्रेतों ने देख लिया था । अतः 'मैं उसके पास
पहले जाऊँगा, मैं उसके पास पहले जाऊँगा - इस प्रकार की
प्रतिस्पर्धा में वे सभी प्रेत दौड़ पड़े। उनमें से दो प्रेतों ने इस ब्राह्मण के
दोनों हाथ पकड़ लिये, दो प्रेतों ने दोनों पैर पकड़ लिये ।
एक प्रेत शेष बचा था, उसने इसका सिर पकड़ लिया । तदनन्तर वे
सभी कहने लगे कि 'मैं इसे डकारूँगा, मैं
इसे खाऊँगा ।' ऐसा कहते हुए वे पाँचों प्रेत ब्राह्मण को
खींचने लगे। फिर उसे साथ लेकर वे सहसा आकाश में चले गये। किंतु उस बरगद पर शव का
अभी कितना मांस शेष है और कितना नहीं, इस बात को भी वे सोच
रहे थे। उसी समय उन लोगों ने देखा कि दाँतों के द्वारा नोंचे जाने के कारण वह शव
तो अभी फटी हुई आँत से युक्त है। इसलिये वे आकाश से नीचे उतर आये और शव को अपने
पैरों से बाँधकर पुनः आकाश में ही उड़ गये।
स्वखण्डितशरीरन्तु पुनर्व्योमैव
चक्रमुः ।
स नीयमानमात्मानं विलोक्य वियति
द्विजः ॥ २,७.२४ ॥
जगाम मनसा मां स शरणं भयविह्वलः ।
नमश्चक्रे चक्रधरं चेतसा चिन्मयं
समम् ॥ २,७.२५ ॥
आकाश में ले जाये जा रहे उस
प्रेतरूप में स्वयं को ही समझकर वह भयार्त ब्राह्मण पूर्ण मन से मेरी शरण में आ
गया। देवाधिदेव, चिन्मय, सुदर्शनचक्रधारी
मुझ हरि को प्रणाम कर वह इस प्रकार स्तुति करने लगा-
वक्रं नक्रं चक्रपातेन दूरे कृत्वा
हृत्वा तस्य दुःखं मुकुन्दः ।
मातङ्गं
योऽमूमुचन्नक्रवक्त्रात्पाशं सोऽसौ कर्मणां मे लुनातु ॥ २,७.२६ ॥
रुद्धाञ्शुद्धान् भूपतीन्मागधेन
भीमेनैनं घातयित्वा मुरारिः ।
निर्बद्धान्यो भर्गयज्ञाय
मुक्तश्चक्रो मेऽसौ कर्मपाशं लुनातु ॥ २,७.२७ ॥
जिन भगवान् ने अपने चक्र के प्रहार से
ग्राह के मुख को विदीर्णकर उसके दुःख को नष्ट किया था,
जो ग्राह के मुख में फँसे हुए गजराज को मुक्त करानेवाले हैं,
वे श्रीहरि मेरे कर्मपाश को काटकर मुझे मुक्त करें। मगधनरेश जरासन्ध
ने निर्दोष राजाओं को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया था, जिन
मुरारि श्रीकृष्ण राजसूययज्ञ के लिये पाण्डुपुत्र भीमसेन के द्वारा उस दुष्ट को
मल्लयुद्ध में मरवाकर राजाओं को मुक्त किया था। वे इस समय मेरे कर्मपाश को काटकर
मेरा दुःख दूर करें।
मनसैवैह
मामस्तौत्स्तूयमानोऽहमुत्थितः ।
अगच्छं सहसा तत्र यत्र प्रेतैः स
नीयते ॥ २,७.२८ ॥
दृष्ट्वा तैर्नीयमानन्तु कौतुकं
मेऽभवत्खग ।
पप्रच्छ न कियन्तं वै कालं
तान्पृष्ठतोऽन्वगाम् ॥ २,७.२९ ॥
मम सन्निधिमात्रेण द्विजातिं तञ्च
सर्पहन् ।
तत्कालं शिविकासुप्तभूपालसुखमाविशत्
॥ २,७.३० ॥
मणिभद्रस्ततो मेरुं गच्छन्दृष्टो
मया पथि ।
निकोच्याक्षि स्वपार्श्वं स नीतो वै
यक्षराण्मया ॥ २,७.३१ ॥
गरुड ! उस समय दत्तचित्त होकर जब वह
मेरी स्तुति में लग गया तो उसे सुनते ही मैं भी उठ खड़ा हुआ और सहसा वहाँ जा
पहुँचा,
जहाँ प्रेत उसको लेकर जा रहे थे । उन लोगों के द्वारा ले जाते हुए
उस ब्राह्मण को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। कुछ काल तक बिना पूछे मैं भी उनके
पीछे-पीछे चलने लगा। मेरी संनिधिमात्र से उस ब्राह्मण को पालकी में सोये हुए के
समान सुख प्राप्त हुआ। इसके बाद मैंने मार्ग में सुमेरु पर्वत पर जा रहे मणिभद्र
नामक यक्षराज को देखा। मैंने नेत्रों के संकेत से उन्हें अपने पास बुलाया और कहा—
तमवोचं महायक्षं त्वं हि प्रतिभटो
भव ।
प्रेतान्नाशय तद्भूयः शवञ्च हर
तद्गतम् ॥ २,७.३२ ॥
हे यक्षराज ! तुम इस समय इन प्रेतों
को विनष्ट करने के लिये प्रतिद्वन्द्वी योद्धा बन जाओ । युद्ध में इन्हें मारकर इस
शव को अपने अधिकार में करो ।
इत्युक्तः स महाघोरं कृत्वा रोषं
सुदुःसहम् ।
जग्राह प्रेतरूपं तत्प्रेतानामपि
दुःखदम् ॥ २,७.३३ ॥
स विवृत्य स्वकौ बाहू सृक्किणी
परिलेलिहन् ।
भेदयन्नुरुवातेन
प्रेतांस्तान्संमुखो ययौ ॥ २,७.३४
॥
बाहुभ्यां द्वौ द्वौ च पद्भ्यां
मूर्ध्नैकं च समाहरत् ।
प्रेतानथापि सहसा जघान दृढमुष्टिना
॥ २,७.३५ ॥
ते विवर्णमुखाः सर्वे तं द्विजञ्च
शवं तथा ।
एकैकं हस्तपादैश्च गृहीत्वा
युद्धमारभन् ॥ २,७.३६ ॥
ते नखैस्तलघातैश्च पादघातैस्तथैव च
।
दंष्ट्राघातैश्च सर्वे तमेकं प्रेतं
व्यदारयन् ॥ २,७.३७ ॥
तेषां प्रहारान्विफलान्कृत्वा
संप्रति तानथ ।
जीवं न तु शवं तेषां जह्रे
प्राणमिवान्तकः ॥ २,७.३८ ॥
हृतमात्रे शवे ते तु पारियात्रे
गिरौ द्विजम् ।
मुक्त्वाधावन् प्रमुदिता एकं प्रेतं
सुदारुणाः ॥ २,७.३९ ॥
स वायुगमनः प्रेतः प्राप्तस्तैः
क्षणमात्रतः ।
अदृश्यतां ययौ तेऽथ हताशा
विप्रमागमन् ॥ २,७.४० ॥
प्रारब्धमात्रे विप्रस्य पाटने तत्र
पर्वते ।
मम स्थानस्य विप्रस्य महिम्नेव च
तत्क्षणे ॥ २,७.४१ ॥
सद्यः स्मृतिः समुत्पन्ना तेषां
पूर्वस्य जन्मनः ।
विप्रं प्रदक्षिणीकृत्य
द्विजर्षभमथाब्रुवन् ॥ २,७.४२ ॥
ऐसा सुनते ही उस मणिभद्र ने प्रेतों
को दुःख पहुँचानेवाले प्रेतरूप को धारण कर लिया। दोनों भुजाओं को फैलाकर ओठों को
जीभ से चाटते हुए और अपनी लम्बी-लम्बी निःश्वासों से उन प्रेतों को दहलाते हुए वह
मणिभद्र उनके सम्मुख जाकर डट गया। उसने दो को अपनी दोनों भुजाओं से,
दो को दोनों पैरों से और एक को सिर से पकड़ लिया। उसके बाद अपने
शक्तिशाली मुक्के से उन प्रेतों पर ऐसा प्रहार किया कि वे सभी विवर्णमुख हो गये।
वे उस ब्राह्मण तथा शव को एक हाथ और एक पैर से पकड़कर युद्ध करने लगे। उन लोगों ने
अपने नख-थप्पड़, लात एवं दाँतों से उस पर प्रहार किये,
पर मणिभद्र ने उनके प्रहार को विफल कर उनसे शव को ले लिया। उस यक्ष के
द्वारा शव को छीन लिये जाने पर पारियात्र पर्वत पर उस ब्राह्मण को छोड़कर वे सभी
प्रेत अत्यन्त उत्साह से भरे हुए पुनः प्रेतरूप मणिभद्र की ओर दौड़ पड़े।
क्षणमात्र में ही उन लोगों ने वायु के समान द्रुतगामी मणिभद्र को घेर लिया,
किंतु वह अदृश्य हो गया। ऐसी स्थिति देखकर हताश होकर वे प्रेत उस
ब्राह्मण के पास जा पहुँचे। उस पर्वत पर पहुँचकर उन लोगों ने ब्राह्मण को ज्यों ही
मारना प्रारम्भ किया, त्यों ही मेरी उपस्थिति और ब्राह्मण के
प्रभाव से तत्काल उनमें पूर्वजन्म की स्मृति जाग्रत् हो उठी। इसके बाद ब्राह्मण की
प्रदक्षिणा करके उन प्रेतों ने ब्राह्मणश्रेष्ठ से कहा-
अद्य नः क्षन्तुमर्होऽसीत्युक्त्वा
ते सुरदाम्भिकाः ।
गिरेरिव परावर्तं समुद्रस्येव
शोषणम् ॥ २,७.४३ ॥
तेषां तद्वचनं श्रुत्वापृच्छत्के
यूयमित्यथ ।
किं माया किमु वा स्वप्न उताहो चित्तविभ्रमः
॥ २,७.४४ ॥
हे विप्रदेव ! आप हमें क्षमा करें।
उनके दीन वचनों को सुनकर ब्राह्मण ने पूछा- आप लोग कौन हैं?
यह क्या कोई माया है अथवा यह मैं स्वप्न देख रहा हूँ या यह मेरे
चित्त का विभ्रम है ?
प्रेता ऊचुः ।
अवेहि तत्त्वमेवैतत्प्रेता वै
कर्मजा वयम् ।
प्रेतों ने कहा- हम सब प्रेत हैं और
पूर्वजन्म के दुष्कर्मों के प्रभाव से इस योनि को प्राप्त हुए हैं ।
ब्राह्मण उवाच ।
किंनामानः किमाचाराः कथञ्चेमां दशां
गताः ॥ २,७.४५ ॥
अविनीताः कथं पूर्वं विनीताः
साम्प्रतं कथम् ।
ब्राह्मण ने कहा- हे प्रेतो!
तुम्हारे क्या नाम हैं ? तुम सब क्या करते
हो? तुम्हें कैसे इस दशा की प्राप्ति हुई ? पहले मेरे प्रति तुम लोगों का व्यवहार कैसे अविनयी था और इस समय कैसे
विनयी हो गया है ।
प्रेता ऊचुः ।
शृणु विप्रेन्द्र वक्ष्यामः
प्रश्नानामनुपूर्वशः ॥ २,७.४६ ॥
उत्तराणि
महायोगिंस्त्वद्दर्शनगतांहसः ।
अहं पर्युषितो नाम्ना एष सूचीमुखः
स्मृतः ॥ २,७.४७ ॥
तृतीयः शीघ्रगस्तुर्यो रोधको लेखकः
परः ।
प्रेतों ने कहा- हे द्विजराज ! आप
यथाक्रम अपने प्रश्नों का उत्तर सुनें । हे योगिराज ! हम आपके दर्शन से निष्पाप हो
गये हैं। हमारे नाम क्रमशः पर्युषित, सूचीमुख,
शीघ्रग, रोधक और लेखक हैं।
ब्राह्मण उवाच ।
प्रेतानां कर्मजातानां कुतो नाम
निरर्थकम् ॥ २,७.४८ ॥
निरुक्तिमेषां नाम्नां वै प्रेता
वदत मा चिरम् ।
ब्राह्मण ने कहा- हे प्रेतो!
पूर्वकर्म से उत्पन्न प्रेतों का नाम कैसे निरर्थक हो सकता है ?
तुम सब अपने इन विचित्र नामों के विषय में विस्तार से मुझे बताओ ।
श्रीकृष्ण उवाच ।
एवमुक्तास्तु विप्रेण
पृथगुत्तरमब्रुवन् ॥ २,७.४९ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- ब्राह्मण के
द्वारा ऐसा कहे जाने पर पृथक्-पृथक् रूप से प्रेतों ने कहा-
पर्युषित उवाच ।
कदाचिच्छ्राद्धकाले वै मया विप्रो
निमन्त्रितः ॥ २,७.५० ॥
स च कृत्वा विलम्बेन वृद्धो
मद्गृहमागतः ।
अकृतश्राद्धकर्माहं तं पाकं
भुक्तवान् क्षुधा ॥ २,७.५१ ॥
अददामन्नमाकृष्य विप्रे पर्युषितं
कियत् ।
तस्मात्पापान्मृतः पापो योनिं वै
कुत्सितां गतः ॥ २,७.५२ ॥
यतः पर्युषितं दत्तं ततः पर्युषितः
स्मृतः ।
पर्युषित ने कहा –
किसी समय मैंने श्राद्ध के सुअवसर पर ब्राह्मण को निमन्त्रित किया
था, वह वृद्ध ब्राह्मण मेरे घर विलम्ब से पहुँचा । बिना
श्राद्ध किये ही भूख के कारण मैंने उस पाक को खा लिया। कुछ पर्युषित (बासी) अन्न
लाकर मैंने उस ब्राह्मण को दे दिया। मरने पर मुझे उसी पाप के कारण इस दुष्टयोनि की
प्राप्ति हुई । मैंने ब्राह्मण को जो बासी भोजन दिया था, उसी
से मेरा नाम पर्युषित हो गया ।
सूचीमुख उवाच ।
कदाचिद्ब्राह्मणी काचित्तीर्थं
भद्रवटं ययौ ॥ २,७.५३ ॥
पञ्चवर्षसुता वृद्धा
पुत्रमात्रैकजीविता ।
अहं क्षत्त्रियदायादस्तस्या
रोधमकारिषम् ॥ २,७.५४ ॥
वने तु विजने तत्र पापाध्वगगतिं गतः
।
तस्याः सवस्त्रं पाथेयं
तत्सूनोर्वसनानि च ॥ २,७.५५ ॥
गृहीतानि मया विप्र शिरस्यापीड्य
मुष्टिना ।
तृषार्तस्तत्क्षणं बालः पात्रसंस्थं
जलं पिबन् ॥ २,७.५६ ॥
तावन्मात्रोदके देशे मया हुङ्कृत्य
वारितः ।
मयाथ सकलं पीतं जलं पात्रात्तृषावता
॥ २,७.५७ ॥
बालोऽपि भयसन्त्रस्तः
पिपासुर्व्यसुरापतत् ।
पुत्रशोकान्मृता माता कूपे प्रास्य
निजं वपुः ॥ २,७.५८ ॥
एतस्मात्पातकाद्विप्र प्रेतत्वं
प्राप्तवानहम् ।
सूच्यग्रप्रायविवरमुखः पर्वतदेहवान्
॥ २,७.५९ ॥
यद्यपि प्राप्नुयां भक्ष्यं
भक्षितुन्तु न शक्यते ।
मया क्षुधानलेनापि ज्वलतास्यं
निकोचितम् ॥ २,७.६० ॥
अत आस्ये तु विवरं सूच्यग्रेण समं
मम ।
एतस्मात्कारणाद्विप्र नाम्ना
सूचीमुखोऽस्म्यहम् ॥ २,७.६१ ॥
सूचीमुख ने कहा- किसी समय कोई
ब्राह्मणी तीर्थस्नान के लिये भद्रवट तीर्थ में गयी। उसके साथ उसका पाँच वर्षीय
पुत्र भी था, जिसके सहारे वह जीवित थी । मैं
उस समय क्षत्रिय था । मैं उसके मार्ग का अवरोधक बन गया और निर्जन वन में मैंने
राहजनी की। हे विप्र ! उस लड़के के सिर पर मुष्टि- प्रहार कर मैंने दोनों के
वस्त्र और राह में खाने योग्य सामान छीन लिया। वह लड़का प्यास से व्याकुल हो उठा
था । अतः वह माता के पास स्थित जल लेकर पीने लगा। उस पात्र में उतना ही जल था।
मैंने उसको डाँटकर जल पीने से रोक दिया और स्वयं उस पात्र का सारा जल पी गया।
भयसंत्रस्त, प्यास से व्याकुल उस बालक की वहीं पर मृत्यु हो
गयी । पुत्रशोक से व्यथित उसकी माँ ने भी कुएँ में कूदकर अपना प्राण त्याग दिया।
इसी पाप से मुझको यह प्रेतयोनि प्राप्त हुई है। पर्वताकार शरीर होने पर भी इस समय
मैं सुई की नोंक समान मुखवाला हूँ । यद्यपि खाने योग्य पदार्थ मैं प्राप्त कर लेता
हूँ, फिर भी यह मेरा सुई के छिद्र के समान मुख उसको खाने में
असमर्थ है। मैंने क्षुधाग्नि से जलते हुए ब्राह्मणी के बालक का मुँह बंद किया था,
उसी पाप से मेरे मुँह का छिद्र भी सुई की नोंक के समान हो गया है।
इसी कारण मैं आज सूचीमुख नाम से प्रसिद्ध हूँ ।
शीघ्रग उवाच ।
पुराहं वैश्यजातीयः साकं सख्या च
केनचित् ।
वाणिज्यं कर्तुमगमं देशमन्यं महाधनः
॥ २,७.६२ ॥
मित्रं च मे बहुधनं तस्य लोभो
महांस्ततः ।
जातोऽप्यदृष्टवैमुख्यान्मे नष्टं
मूलमप्युत ॥ २,७.६३ ॥
ततस्तस्मात्तु निष्क्रान्तावावां
नावाथ निम्नगाम् ।
मार्गगां तर्तुमारब्धौ लोहितायति
भास्करे ॥ २,७.६४ ॥
सखा स च मदुत्सङ्गे
सुष्वापाध्वक्लमाकुलः ।
अभूत्तदाति पापस्य क्रूरा मतिरतीव
मे ॥ २,७.६५ ॥
तमुत्सङ्गगतं सूरे नष्टे
पूरेऽक्षिपं तदा ।
तत्कृत्यं कुर्वतो नावि लोकैस्तु
ज्ञातमेव न ॥ २,७.६६ ॥
तस्य यद्वस्तु तत्सर्वं
मणिमुक्तादिकाञ्चनम् ।
आदाय
शीघ्रगस्तस्माद्देशात्स्वगृहमागतः ॥ २,७.६७
॥
तत्सर्वं स्वगृहे मुक्त्वा तस्य
पत्न्यै न्यवेदयम् ।
दस्युभिर्मे हतो भ्राता धनमाच्छिद्य
वै पथि ॥ २,७.६८ ॥
प्रजावति प्रद्रुतोऽहं मा
रोदीत्येवमब्रवम् ।
शोकार्ता सापि तत्कालं ममत्वं
गृहबन्धुषु ॥ २,७.६९ ॥
त्यक्त्वा चाति
प्रियान्प्राणाञ्जुहावाग्नौ यथाविधि ।
ततो निष्कण्टकं तद्धि वीक्ष्य
हृष्टो गतो गृहम् ॥ २,७.७० ॥
अभुञ्जं सर्वमागत्य यावज्जीवं तु
तद्धनम् ।
मित्रं पूरे हि निःक्षिप्य यदहं
शीघ्रमागतः ॥ २,७.७१ ॥
एतस्मात्कारणात्प्रेतः शीघ्रगोऽहं
तु नामतः ।
शीघ्रग ने कहा- हे विप्रवर! मैं
पहले एक धनवान् वैश्य था । उस जन्म में अपने मित्र के साथ व्यापार करने के लिये
मैं एक दूसरे देश में जा पहुँचा । मेरे मित्र के पास बहुत धन था । अतः उस धन के
प्रति मेरे मन में लोभ आ गया । अदृष्ट के विपरीत होने से वहाँ मेरा मूल धन समाप्त
हो चुका था। हम दोनों ने वहाँ से निकलकर मार्ग में स्थित नदी को नाव से पार करना
प्रारम्भ किया। उस समय आकाश में सूर्य लाल हो गया था। राह की थकान से व्याकुल मेरा
वह मित्र मेरी गोद में अपना सिर रखकर सो गया। उस समय लोभवश मेरी बुद्धि अत्यन्त
क्रूर हो उठी। अतः सूर्यास्त हो जाने पर गोद में सोये हुए अपने मित्र को मैंने जल-
प्रवाह में फेंक दिया। मेरे द्वारा नाव में किये गये उस कृत्य को अन्य लोग भी न
जान सके। उस व्यक्ति के पास जो कुछ बहुमूल्य हीरे-जवाहरात,
मोती तथा सोने की वस्तुएँ थीं, वह सब लेकर मैं
शीघ्र ही उस देश से अपने घर लौट आया । घर में वह सब सामान रखकर मैंने उस मित्र की
पत्नी के पास जाकर कहा कि मार्ग में डाकुओं ने मेरे उस मित्र को मारकर सब सामान
छीन लिया और मैं भाग आया हूँ। मैंने उससे फिर कहा कि हे पुत्रवती नारी ! तुम रोना
नहीं। शोक से व्यथित उस स्त्री ने तत्काल घर के बन्धु-बान्धवों की ममता का
परित्याग कर अपने प्राणों की भेंट अग्नि को यथाविधि चढ़ा दिया । उसके बाद
निष्कण्टक स्थिति देखकर मैं प्रसन्नचित्त अपने घर चला आया। घर आकर जब तक मेरा जीवन
रहा, तब तक उस धन का मैंने उपभोग किया । मित्र को नदी के जल
प्रवाह में फेंककर मैं शीघ्र ही अपने घर लौट आया था, उसी पाप
के कारण मुझे प्रेतयोनि मिली और मेरा नाम शीघ्रग हो गया।
रोधक उवाच ।
अहन्तु शूद्रजातीयः पुराभूवं
मुनीश्वर ॥ २,७.७२ ॥
राजप्रसादाप्तमहाशतग्रामाधिकारवान्
।
वृद्धौ मे पितरावास्तां लघुरेकः
सहोदरः ॥ २,७.७३ ॥
शीघ्रं स च मया भ्राता लुब्धेनैकः
पृथक्कृतः ।
आप्तवान्परमं दुःखं
सोन्नवस्त्रविवर्जितः ॥ २,७.७४ ॥
अदत्तां पितरौ च्छन्नं
किञ्चित्किञ्चित्तु तस्य च ।
तस्मै पितृभ्यां
यद्दत्तमाप्तेभ्यस्तन्मया श्रुतम् ॥ २,७.७५
॥
तत्सर्वं तत्त्वतो ज्ञात्वा पित्रो
रोधमकारयम् ।
शून्यमन्दिर एकस्मिन्बद्ध्वा तु
निगडैर्दृढैः ॥ २,७.७६ ॥
ततस्तौ जहतुः प्राणान्दुःखितौ
विषपानतः ।
सोसौ बालोऽपि बभ्राम पितृभ्यां
रहितो द्विज ॥ २,७.७७ ॥
पुरः पत्तनखर्वाटान् खेटानपि मृतः
क्षुधा ।
एतस्मात्पातकाद्विप्र मृतः
प्रेतत्वमागतः ॥ २,७.७८ ॥
रुद्धौ तु पितरौ यस्मान्नाम्नाहं
रोधकस्ततः ।
रोधक ने कहा- हे मुनीश्वर ! मैं पूर्व जन्म में शूद्र जाति का था । राजभवन से मुझे जीवन-यापन के लिये उपहार में बहुत बड़े-बड़े सौ गाँवों का अधिकार प्राप्त था। मेरे परिवार में बूढ़े माता-पिता थे और एक छोटा सगा भाई था । लोभवश मैंने शीघ्र ही अपने उस भाई को अलग कर दिया जिसके कारण अन्न-वस्त्र से रहित उस भाई को अत्यधिक दुःख भोगना पड़ा। उसके दुःख को देखकर मेरे माता-पिता लुक-छिपकर कुछ-न-कुछ उसको दे देते थे। जब मैंने भाई को माता-पिता के द्वारा दी जा रही उस सहायता की बात विश्वस्त पुरुषों से सुनी तो एक सूने घर में माता-पिता को जंजीर से रुद्ध कर दिया। कुछ दिनों के बाद दुःखी उन दोनों ने विष पीकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली । हे द्विज ! माता-पिता से रहित होकर मेरा भाई भी इधर-उधर भटकने लगा। ग्राम तथा नगर में भटकता हुआ एक दिन वह भी भूख से पीड़ित होकर मर गया । हे ब्राह्मण ! मरने के बाद उसी पाप के कारण मुझे यह प्रेतयोनि मिली। माता-पिता को मैंने बंदी बनाया था, इसी कारण मेरा नाम रोधक पड़ा।
लेखक उवाच ।
अहं विप्र पुराभूवमवन्त्यां
द्विजसत्तमः ॥ २,७.७९ ॥
भद्रस्य राज्ञो देवानां पूजनेऽधिकृतो
ह्यहम् ।
बह्व्यस्तु प्रतिमास्तत्र
बभूवुर्बहुनामिकाः ॥ २,७.८० ॥
हेम्नस्तदङ्गेषु बहु रत्नजातं बभूव
ह ।
तासां मे कुर्वतः पूजां पापा
मतिरजायत ॥ २,७.८१ ॥
अखिलं तीक्ष्णलोहेन तासामङ्गं
विशीर्य च ।
उल्लेखनञ्च रत्नानां नेत्रादिभ्यः
कृतं मया ॥ २,७.८२ ॥
तथाकृतान्यथाङ्गानि प्रतिमानां
निरीक्ष्य च ।
नेत्राणि च विरत्नानि नृपश्चुक्रोध
वह्निवत् ॥ २,७.८३ ॥
प्रतिजज्ञे नृपः पश्चादेष
ब्राह्मणपुङ्गवः ।
आभ्यो रत्नं सुवर्णञ्च हृतं येन
भविष्यति ॥ २,७.८४ ॥
ज्ञातश्च स हि मे वध्यो भविष्यति न
संशयः ।
अहं तत्सकलं ज्ञात्वा रात्रावसिधरो
गृहम् ॥ २,७.८५ ॥
राज्ञः प्रविश्य राजानं
पशुमारममारयम् ।
गृहीत्वाथ मणीन् स्वर्णं निशीथेऽहं
गतोऽन्यतः ॥ २,७.८६ ॥
व्याघ्रेण महातारण्ये
नखटङ्कैर्विटङ्कितः ।
लेखनात्प्रतिमाया यन्मया लोहेन
कर्तितम् ॥ २,७.८७ ॥
एतस्मात्पातकात्प्रेतो लेखको
नामतोऽस्म्यहम् ।
आसीन्नरकभोगान्ते नः प्रेतत्वमिदं
द्विज ॥ २,७.८८ ॥
लेखक ने कहा- हे विप्रदेव ! मैं
पूर्वजन्म में उज्जैन नगर का ब्राह्मण था । वहाँ के राजा ने मेरी नियुक्ति देवालय में
पुजारी के पद पर की थी । उस मन्दिर में विभिन्न नामवाली बहुत-सी मूर्तियाँ थीं। स्वर्णनिर्मित
उन प्रतिमाओं के अङ्गों में बहुत-सा रत्न भी लगा हुआ था । उनकी पूजा करते हुए मेरी
बुद्धि पापासक्त हो गयी। अतः मैंने एक तेज धारवाले लोहे से उन मूर्तियों के
नेत्रादि से रत्नों को निकाल लिया । क्षत-विक्षत और रत्नरहित नेत्रों को देखकर
राजा प्रज्वलित अग्नि के समान क्रोध से तमतमा उठा। उसके बाद राजा ने यह प्रतिज्ञा
की कि चोर चाहे श्रेष्ठ ब्राह्मण ही क्यों न हो यदि उसने मूर्तियों से रत्न और
सोना चुराया होगा तो ज्ञात होने पर निश्चित ही मेरे द्वारा मारा जायगा । वह सब
सुनकर मैंने रात्रि में तलवार उठायी और राजा के घर में जाकर उसका पशु की तरह वध कर
दिया । तदनन्तर चुरायी गयी मणियों तथा सोने को लेकर मैं रात्रि में ही अन्यत्र
जाने लगा,
किंतु मार्ग में स्थित घनघोर जंगल में एक व्याघ्र ने मुझे मार डाला
। मैंने लोहे से प्रतिमा-छेदन एवं काटने का जो कार्य किया था, उस पाप से आज मैं लेखक नाम का प्रेत हूँ। नरकभोग करने के पश्चात् मुझे यही
प्रेत-योनि प्राप्त हुई ।
ब्राह्मण उवाच ।
संज्ञास्तादृश्य आख्याता यथैता भवता
दशाः ।
वदन्त्वाचारमात्रं मे प्रेता
आहारमप्युत ॥ २,७.८९ ॥
ब्राह्मण ने कहा- हे प्रेतगणो! आप
लोगों ने अपनी जैसी दशाएँ बतायी हैं, वैसे
ही आप सबके नाम भी हैं। वर्तमान समय में तुम लोगों का आचरण और आहार क्या है?
उसको भी मुझे बताओ।
प्रेता ऊचुः ।
वेदमार्गानुसरणं लज्जा धर्मो दमः
क्षमा ।
धृतिर्ज्ञानं नैव यत्र वयं तत्र
वसामहे ॥ २,७.९० ॥
तस्य पीडां वपं कुर्मो नैव श्राद्धं
न तर्पणम् ।
यस्य गेहे तदङ्गात्तु मांसञ्च
रुधिरं क्रमात् ॥ २,७.९१ ॥
जक्षामश्च पिबामश्च उक्त आचार एष नः
।
शृणु चाहारमस्माकं
सर्वलोकविगर्हितम् ॥ २,७.९२ ॥
दृष्टस्त्वया च किञ्चिद्वै
ब्रूमोज्ञातं त्वयानघ ।
वमनं विडू दूषिका च श्लेष्मा
मूत्राश्रुणी तथा ॥ २,७.९३ ॥
एतद्भक्ष्यञ्च पानञ्च मा पृच्छातः
परं द्विज ।
लज्जा नो जायते स्वामिन्नाहारं
वदतां स्वकम् ॥ २,७.९४ ॥
अज्ञानास्तामसा मन्दा कान्दिशीका
वयं विभो ।
अकस्माज्जन्मनां विप्र स्मृतिः
प्राप्ता तु पौर्विकी ॥ २,७.९५ ॥
विनीतत्वाविनीतत्वे जानीमो नैव नः
प्रभो ।
प्रेतों ने कहा- हे द्विजराज ! जहाँ
पर वेदमार्ग का अनुसरण होता है, जहाँ लज्जा,
धर्म, दम, क्षमा,
धृति और ज्ञान- ये सब रहते हैं, वहाँ हम सब
वास नहीं करते। जिसके घर में श्राद्ध तथा तर्पण का कार्य नहीं किया जाता, उसके शरीर से मांस और रक्त बलात् अपहृत करके हम उसे पीड़ा पहुँचाते हैं।
मांस खाना और रक्त पीना यही हमारा आचरण है। हे निष्पाप! सभी लोगों के द्वारा
निन्दनीय हमारे आहार को सुनें। कुछ तो आपने देख लिया है और जो आपको मालूम नहीं है,
उसको हम बता रहे हैं । हे विप्र ! वमन, विष्ठा,
कीचड़, कफ, मूत्र और
आँसुओं के साथ निकलनेवाला मल, हमारा भक्ष्य और पान है। इसके
आगे न पूछें, क्योंकि अपने आहार को बताते हुए हमें बहुत
लज्जा आ रही है । हे स्वामिन्! हम सब अज्ञानी, तामसी,
मन्दबुद्धि और भय से भागनेवाले हैं। हे विप्र ! हममें पूर्वजन्म की
स्मृति एकाएक आ गयी है। अपने विनय या अविनय के संदर्भ में हम कुछ नहीं जानते हैं।
श्रीकृष्ण उवाच ।
एवं वदत्सु प्रेतेषु तथा श्रुतवति
द्विजे ॥ २,७.९६ ॥
अदर्शयमहं रूपं तदा तार्क्ष्येदमेव
वै ।
स तु दृष्ट्वा द्विजश्रेष्ठो
हृद्गतं पुरुषं पुरः ॥ २,७.९७ ॥
स्तोत्रैस्तुष्टाव पक्षीश
दण्डवत्प्रणनाम माम् ।
तेऽपि तेपुस्ततः प्रेता
आश्चर्योत्फुल्लचक्षुषः ॥ २,७.९८
॥
प्रणयेन स्खलद्वाचः खग नोचुः
किमप्युत ।
श्रीकृष्ण ने कहा- हे गरुड !
प्रेतों के ऐसा कहने एवं ब्राह्मण के सुनने के समय मैंने उन्हें दर्शन दिया । हृदय
में निवास करनेवाले अन्तर्यामी पुरुष के स्वरूप को सामने देखकर उस श्रेष्ठ
ब्राह्मण ने पृथ्वी पर साष्टाङ्ग प्रणाम किया और स्तुतियों से मुझे संतुष्ट किया। आश्चर्य
से उत्फुल्ल नेत्रवाले उन प्रेतों ने तपस्या की । हे खगराज ! प्रेमाधिक्य होने से
उनकी वाणी रुक गयी। उस समय उनके मुख से कुछ भी नहीं निकल पा रहा था । स्खलित वाणी में
वह ब्राह्मण कहने लगा—
रजसा गोरचित्तानां तमसा मूढचेतसाम्
।
कृपया यः समुद्धारं कुरुषे वै
नमोऽस्त ते ॥ २,७.९९ ॥
हे प्रभो! आप कृपा करके रजोगुण के
कारण घोर चित्तवाले और तमोगुण से मूढ चित्तवाले प्राणियों का उद्धार करते हैं।
आपको नमस्कार है ।
एवं द्विजातौ ब्रुवति प्रभू
तप्रभैश्च मुख्यांबरचारियुक्तैः ।
तदा मदिच्छाप्रभवैर्विमानैः षड्भिः
समन्ताद्रुरुचे गिरिः सः ॥ २,७.१००
॥
इत्थं विमानेन मदीयलोकं गतो
द्विजरसोऽप्यथ पञ्चमिस्तैः ।
प्रेता ययुः स्वर्गमगण्यपुण्यं
सत्सङ्गसंसर्गवशात्सुपर्णम् ॥ २,७.१०१
॥
प्रेताः संगवशेन नाकमवन्सन्तप्तको
ब्राह्मणो विष्वक्सन इति प्रसिद्धविभवो नाम्ना गणे मेऽभवत् ।
एतत्ते सकलं मया निगादितं
यश्चैतदुत्कीर्तयेद्यश्चेदं शृणुयान्न सोऽपि पुरुषः प्रेतत्वमाप्नोति हि ॥ २,७.१०२ ॥
ब्राह्मण ने जैसे ही यह कहा,
उसी समय मेरी इच्छा से अत्यन्त तेजस्वी, श्रेष्ठ
आकाशचारी गन्धर्व एवं अप्सराओं से युक्त छः विमान वहाँ आ पहुँचे। उन विमानों की
प्रभा से वह पर्वत चतुर्दिक् आलोकित हो गया। उन पाँचों के साथ वह ब्राह्मण विमान पर
चढ़कर मेरे लोक को चला गया।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे श्रीकृष्णगरुडसंवादे प्रेतकल्पे
पञ्चप्रेतोपाख्यानं नाम सप्तमोऽद्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 8
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