श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ८

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ८     

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ८ और्ध्वदैहिक क्रिया के अधिकारी तथा जीवित – श्राद्ध की संक्षिप्त विधि का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ८

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अष्टमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प आठवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ८   

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ८ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ८   

गरुड उवाच ।

स्वामिन्कस्याधिकारोऽत्र सर्व एवौर्ध्वदेहिके ।

क्रियाः कतिविधाः प्रोक्ता वदैतत्सर्वमेव मे ॥ २,८.१ ॥

गरुड ने कहाहे स्वामिन्! इस सम्पूर्ण और्ध्वदैहिक कार्य को सम्पन्न करने का अधिकारी कौन है ? यह क्रिया कितने प्रकार की है ? यह सब मुझे बताने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रो वा तद्भ्राता भ्रातृसन्ततिः ।

सपिण्डसन्ततिर्वापि क्रियार्हाः खग ज्ञातयः ॥ २,८.२ ॥

तेषामभावे सर्वेषां समानोदकसन्ततिः ।

कुलद्वयेऽपि चोच्छिन्ने स्त्रीभिः कार्याः क्रियाः खग ॥ २,८.३ ॥

इच्छयोच्छिन्नबन्धश्च कारयेदवनीपतिः ।

श्रीकृष्ण ने कहा- हे खगेश ! [ जो मनुष्य मर जाता है, उसका और्ध्वदैहिक कार्य] पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, भाई, भाई की संतान अथवा सपिण्ड या जाति के लोग कर सकते हैं। इन सभी के अभाव में समानोदक संतान इस कार्य को करने का अधिकारी है। यदि दोनों कुलों (मातृकुल एवं पितृकुल) - के पुरुष समाप्त हो गये हों तो स्त्रियाँ इस कार्य को कर सकती हैं। यदि मनुष्य ने इच्छापूर्वक अपने सभी सगे-सम्बन्धियों से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया है तो उसका और्ध्वदैहिक कार्य राजा को कराना चाहिये ।

पूर्वाः क्रिया मध्यमाश्च तथा चैवोत्तराः क्रियाः ॥ २,८.४ ॥

प्रतिसंवत्सरं पक्षिन्नेकोद्दिष्टविधानतः ।

श्राद्धं तत्र प्रकर्तव्यं फलं तस्य शृणुष्व मे ॥ २,८.५ ॥

यह क्रिया तीन प्रकार की है, जिनको पूर्व, मध्यम एवं उत्तर क्रियाओं की संज्ञा दी गयी है । हे पक्षिन् ! इस क्रिया को प्रतिसंवत्सर एकोद्दिष्ट – विधान से करना अपेक्षित है। इस श्राद्ध-क्रिया के फल को तुम मुझसे सुनो।

ब्रह्मेन्द्ररुद्रनासत्यसूर्याग्निवसुमारुतान् ।

विश्वेदेवान्पितृ गणान्वयांसि मनुजान्पशून् ॥ २,८.६ ॥

सरीसृपान्मातृगणान्यच्चान्यद्भूतसंज्ञितम् ।

श्राद्धं श्रद्धान्वितः कुर्वन्प्रीणयत्यखिलं जगत् ॥ २,८.७ ॥

ते तृप्तास्तर्पयन्त्येनं पुत्रदारधनैस्तथा ।

अधिकारः क्रियाभेदः समासात्ते निरूपितः ॥ २,८.८ ॥

ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अश्विनीकुमार, सूर्य, अग्नि, वसु, मरुद्गण, विश्वेदेव, पितृगण, पक्षी, मनुष्य, पशु, सरीसृप, मातृगण और इनके अतिरिक्त जो भी प्राणी इस संसार में उत्पन्न हैं, उन सभी को श्रद्धापूर्वक किये जा रहे श्राद्ध से मनुष्य प्रसन्न कर सकता है। ऐसे श्राद्ध से तो सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न हो उठता है । जो लोग अपने सगे-सम्बन्धियों के द्वारा किये गये श्राद्ध से संतृप्त हो जाते हैं, वे श्राद्धकर्ता को पुत्र, स्त्री और धन आदि के द्वारा तृप्त करते हैं। हे गरुड! इस प्रकार मैंने संक्षेप में अधिकार और क्रिया –भेद का निरूपण किया।

गरुड उवाच ।

उक्तेष्वेकोऽपि चेन्न स्यादधिकारी सुरोत्तम ।

कर्तव्यं किं तदा विष्णो पुरुषेण विजानता ॥ २,८.९ ॥

गरुड ने कहा हे देवश्रेष्ठ ! यदि पहले कहे गये अधिकारियों में से एक भी न हो तो उस समय मनुष्य को क्या करना चाहिये ?

श्रीकृष्ण उवाच ।

अधिकारो यदा नास्ति यदि नास्ति च निश्चयः ।

जीविते सति जीवाय दद्याच्छ्राद्धंस्वयं नरः ॥ २,८.१० ॥

कृतोपवासः सुस्नातः कृष्णासङ्गः समाहितः ।

कर्तारमथ भोक्तारं विष्णुं सर्वेश्वरं यजेत् ॥ २,८.११ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- जब अधिकारी व्यक्ति न हो और न तो किसी के अधिकार का निश्चय ही हो रहा हो तो वैसी स्थिति में मनुष्य को स्वयं अपने जीवनकाल में ही जीवित - श्राद्ध कर लेना चाहिये । उपवासपूर्वक स्नान करके भगवान् कृष्ण के प्रति आसक्त-हृदय होकर मनुष्य एकाग्र मन से उस कर्ता, भोक्ता, सर्वेश्वर विष्णु की पूजा करे ।

सदक्षिणाश्च सतिलास्तिस्त्रश्च जलधेनवः ।

निवेदयेत्पितृभ्यश्च स्वधेति सुसमाहितः ॥ २,८.१२ ॥

अग्नये कव्यवाहनाय स्वधा नम इति स्मरन् ।

सोमायत्वा पितृमते स्वधा नम इति स्मरन् ॥ २,८.१३ ॥

दक्षिणेन तु दद्याच्च तृतीयां दक्षिणायुताम् ।

यमायाङ्गिरसे चाथ स्वधा नम इति स्मरन् ॥ २,८.१४ ॥

तयोर्मध्ये तु निः क्षिप्य विप्रान्संमन्त्र्य भो जयेत् ।

प्रथमामुत्तरे न्यस्य द्वितीयां दक्षिणे न्यसेत् ॥ २,८.१५ ॥

मध्ये तृतीयां विन्यस्य पश्चादावाहनादिकम् ।

आवाहनादिना पूर्वं विश्वेदेवान्प्रपूज्यच ॥ २,८.१६ ॥

उसके बाद वह अपने पितृगणों के लिये तिल एवं दक्षिणा सहित तीन जलधेनु* ॐ पितृभ्यः स्वधा' कहकर निवेदित करे और धेनुदान करते समय 'ॐ अग्नये कव्यवाहनाय स्वधा नमः' तथा 'ॐ सोमाय त्वा पितृमते स्वधा नमः' ऐसा स्मरण करता हुआ वह दक्षिणाभिमुख होकर दक्षिणासहित तीसरी जलधेनु देते समय विशेषरूप से 'यमायाङ्गिरसे स्वधा नमः' यह स्मरण करता रहे । भगवान् विष्णु के यजन एवं जलधेनुदान के मध्य ही ब्राह्मणों का आवाहन करके उन्हें भोजन कराना चाहिये। वह पहली जलधेनु उत्तर दिशा में तथा दूसरी जलधेनु दक्षिण दिशा में रखे और उन दोनों धेनुओं के मध्य में तीसरी धेनु रखकर आवाहन आदि श्राद्धसम्बन्धी कार्य करे। इस आवाहनादि क्रिया के पूर्व में सर्वप्रथम आवाहनपूर्वक विश्वेदेवों के प्रतिनिधिभूत ब्राह्मणों की भलीभाँति पूजा कर वह यह कहे-

वसुभ्यस्त्वामहं विप्र रुद्रेभ्यस्त्वामहं ततः ।

सूर्येभ्यस्त्वामहं विप्र भोजयामीति तान्वदेत् ॥ २,८.१७ ॥

*(दान के लिये कृत्रिम धेनु का विधान है। इसे गोदान प्रसंग में वराहपुराण आदि में जलधेनुदानविधि के अन्तर्गत देखना चाहिये ।)

आवाहनादिकं शेषं कुर्याच्च पितृशेषवत् ।

साम्यां धेनुं ततो दद्याद्वसूद्देशं द्विजाय तु ॥ २,८.१८ ॥

आग्नेय्यां चाथ रौद्राय याम्यां सूर्यद्विजाय तु ।

विश्वेभ्यश्चाथ देवेभ्यस्तिलपात्रं निवेदयेत् ॥ २,८.१९ ॥

स्वस्तीत्येव तथाक्षय्यं जलं दत्त्वाथ तान्द्विजान् ।

विसर्जयेत्स्मरन्विष्णुं देवमष्टाक्षरं विभुम् ॥ २,८.२० ॥

तदनन्तर आवाहनादिक जो शेष कार्य हैं, उन्हें पितृ-शेष कार्यों की तरह सम्पादित करे । उसके बाद वह वसु के उद्देश्य से ब्राह्मण को एक सुशील धेनु का दान दे। तत्पश्चात् आग्नेय कोण में रुद्रदेव तथा दक्षिण दिशा में सूर्यदेव के निमित्त स्थित ब्राह्मणों को भी एक-एक गाय देनी चाहिये तथा विश्वेदेवों के लिये तिलपूर्ण पात्र का निवेदन करे। तदनन्तर ब्राह्मणों को अक्षयोदक दान करना चाहिये एवं ब्राह्मण 'ॐ स्वस्ति' इस प्रतिवचन से श्राद्धकृत्य की सम्पूर्णता का आशीर्वाद दें। इसके बाद अष्टाक्षर- मन्त्र से भगवान् विष्णु का स्मरण करते हुए उनका विसर्जन करे।

ततः कामं कुलेशानीं शिवं नारायणं स्मरेत् ।

चतुर्दश्यां ततो गच्छेद्यथाप्राप्तां सरिद्वराम् ॥ २,८.२१ ॥

वस्त्राणि लोहखण्डानि जितं त इति संजपन् ।

दक्षिणाभिमुखो वह्निं ज्वालयेत्तत्र च स्वयम् ॥ २,८.२२ ॥

पञ्चाशता कुशैर्ब्राह्मीं कृत्वा प्रतिकृतिं दहेत् ।

हुत्वा श्माशानिकं होमं पूर्णाहुत्यन्तमेव हि ॥ २,८.२३ ॥

निरग्रिमथ वा भूमिं यमं रुद्रञ्च संस्मरेत् ।

हुत्वा प्राधानिके स्थाने पश्चादावाहयेच्च तम् ॥ २,८.२४ ॥

श्रपयेच्चापरं वह्नौ मुद्गमिश्रं चरुं ततः ।

तिलतण्डुलमिश्रञ्च द्वितीयं सपवित्रकम् ॥ २,८.२५ ॥

इसके पश्चात् स्वस्थचित्त होकर कुलदेवी, ईशानी, शिव तथा भगवान् नारायण का स्मरण करे । तदनन्तर चतुर्दशी तिथि को सुगमता से उपलब्ध होनेवाली श्रेष्ठ नदी के तट पर जाय । वहाँ वस्त्र तथा लौहखण्डों का दान करे एवं 'ॐ जितं ते' इस मन्त्र का जप करता हुआ स्वयं दक्षिणाभिमुख होकर अग्नि को प्रज्वलित करे। तदनन्तर वह पचास कुशों से ब्राह्मीप्रतिकृति (पुत्तल) बना करके उसका दाह करे। इसके बाद श्मशान में विहित होम करके अन्त में पूर्णाहुति की क्रिया सम्पन्न करे । तत्पश्चात् निरग्नि भूमि, यम तथा रुद्रदेव का स्मरण करे। हवन करने के बाद प्रधान स्थान पर उक्त देवों का आवाहन करना चाहिये। उसके बाद वह अग्नि में मूँगमिश्रित चरु पकाये। तदनन्तर तिल- तण्डुल- - मिश्रित दूसरा चरु पकाये।

ओं पृथिव्यै नमस्तुभ्यमिति चैकं निवेदयेत् ।

ओं यमाय नमश्चेति द्वितीयं तदनन्तरम् ॥ २,८.२६ ॥

ओं नमश्चाथ रुद्राय श्माशानपतये नमः ।

ततो दीप्ते समिद्धेऽग्नौ भूमौ प्रकृतिदारुणे ॥ २,८.२७ ॥

सप्तभ्यो यमसंज्ञेभ्यो दद्यात्सप्त जलाञ्जलीन् ।

यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च ॥ २,८.२८ ॥

वैवस्वताय कालाय सर्वप्राणहराय च ।

स्वधाकारनमस्कारप्रणवैः सह सप्तधा ॥ २,८.२९ ॥

'ॐ पृथिव्यै नमस्तुभ्यं०'इस मन्त्र से प्रथम चरु निवेदित करे। ॐ यमाय नमश्च०' इस मन्त्र से यम को द्वितीय चरु निवेदित करे । 'ॐ नमश्चाथ रुद्राय श्मशानपतये नमः' इस मन्त्र से श्मशानपति रुद्र को निवेदित करे । उसके बाद श्राद्धकर्ता सात नामवाले यमराज के लिये निम्न मन्त्रों से सात जलाञ्जलियाँ छोड़े- 'ॐ यमाय स्वधा तस्मै नमः', 'ॐ धर्मराजाय स्वधा तस्मै नमः', 'ॐ मृत्यवे स्वधा तस्मै नमः', 'ॐ अन्तकाय स्वधा तस्मै नमः', 'ॐ वैवस्वताय स्वधा तस्मै नमः', 'ॐ कालाय स्वधा तस्मै नमः' और 'ॐ सर्वप्राणहराय स्वधा तस्मै नमः।'

अमुकामुकगौत्रैतत्तुभ्यमस्तु तिलोदकम् ।

प्रदद्याद्दश पिण्डांस्तु अर्घपुष्पसमन्वितान् ॥ २,८.३० ॥

धूपो दीपो बलिर्गन्धः सर्वेषामस्तु चाक्षयः ।

दश पिण्डांस्तु दान्दत्त्वा विष्णोः सौम्यं मुखं स्मरेत् ॥ २,८.३१ ॥

इसके बाद श्राद्धकर्ता 'तुम सब अमुक-अमुक गोत्र से सम्बन्धित हो, यह तिलोदक तुम्हारे लिये होवे'। ऐसा कहते हुए अर्घ्य – पुष्प से युक्त दस पिण्ड-दान दे। उसके बाद उन्हें धूप, दीप, बलि, गन्ध तथा अक्षय जल प्रदान करे। उक्त दस पिण्डों का दान देने के पश्चात् भगवान् विष्णु के सुन्दर सुभग मुख का ध्यान करना चाहिये ।

कुर्याच्च मासिकं मासि सपिण्डीकरणं ततः ।

आशौचान्ते ततः कुर्यादात्मनो वा मरस्य तु ॥ २,८.३२ ॥

कुर्यादस्थिरतां ज्ञात्वा शक्त्यारोग्यधनायुषम् ।

एतत्ते सर्वमाख्यातं जीवच्छ्राद्धं मया खग ॥ २,८.३३ ॥

इस कृत्य को करने के बाद आशौच के अन्त में प्रतिमास मासिक श्राद्ध और सपिण्डीकरण करना चाहिये । श्राद्ध चाहे अपने लिये हो या दूसरे के लिये यही नियम है। शक्ति, आरोग्य, धन और आयु ये चारों अस्थिर होते हैं, अतः ऐसा जानकर जीवित- श्राद्ध करना चाहिये। मैंने इस जीवित – श्राद्ध के विषय में तुम्हें सब कुछ बता दिया है।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्ण गरुडसंवादे श्राद्धकर्त्रात्म श्राद्धयोर्निरूपणं नामाष्टमोऽध्यायः॥

 जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 9

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