श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ५

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ५  

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ५ आशौच में विहित कृत्य, आशौच की अवधि, दशगात्रविधि, प्रथमषोडशी, मध्यमषोडशी तथा उत्तमषोडशी का विधान, नौ श्राद्धों का स्वरूप, वार्षिक कृत्य, जीव का यममार्ग निदान, मार्ग में पड़नेवाले षोडश नगरों में जीव की यातना का स्वरूप, यमपुरी में पापात्माओं और पुण्यात्माओं को घोर तथा सौम्यरूप में यमराज के दर्शन का वर्णन है।

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ५ 

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ५  

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 5

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प पांचवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ५ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) पञ्चमोऽध्यायः

श्रीकृष्ण उवाच ।

एवं दग्ध्वा नरं प्रेतं स्नात्वा कृत्वा तिलोदकम् ।

अग्रतः स्त्रीजनो गच्छेद्व्रजेयुः पृष्ठतो नराः ॥ २,५.१ ॥

प्राशयेन्निम्बपत्राणि रुदन्तो नामपूर्वकम् ।

विधातव्यं चाचमनं पाषाणोपरि संस्थिते ॥ २,५.२ ॥

ते प्रविश्य गृहं सर्वे सुताद्याश्च सपिण्डकाः ।

भवेयुर्दशरात्रं वै यत आशौचकं खग ॥ २,५.३ ॥

क्रीतलब्धाशनाः सर्वे स्वपेयुस्ते पृथक्पृथक् ।

अक्षारलवणान्नाः स्युर्निमज्जेयुश्च ते त्र्यहम् ॥ २,५.४ ॥

अमांसभोजनाश्चाधः शयीरन्ब्रह्मचारिणः ।

परस्परं न संस्पृष्टा दानाध्ययनवर्जिताः ॥ २,५.५ ॥

मलिनाश्चाधोमुखाश्च दीना भोगविवर्जिताः ।

अङ्गसंवाहनं केशमार्जनं वर्जयन्ति ते ॥ २,५.६ ॥

मृन्मये पत्रजे वापि भुञ्जीरंस्ते च भाजने ।

उवासन्तु ते कुर्युरेकाहमथ वा त्र्यहम् ॥ २,५.७ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे गरुड! इस प्रकार मृत पुरुष का दाह-संस्कार करके स्नान और तिलोदक कर्म कर स्त्रिया आगे-आगे तथा पुरुष उनके पीछे-पीछे घर आयें। द्वार पर पहुँचकर वे सभी मृत व्यक्ति का नाम लेकर रोते हुए नीम की पत्तियों का प्राशन कर पत्थर के ऊपर खड़े होकर आचमन करें। तदनन्तर सभी पुत्र-पौत्र आदि तथा सगोत्री परिजन घर में जाकर जो दस रात्रियों का अशौच कर्म है, उसको पूरा करें। इस काल में उन सभी को बाहर से खरीदकर भोजन करना चाहिये। रात्रि में वे अलग-अलग आसन पर सोयें। क्षार तथा नमक से रहित भोजन किया जाय। वे सभी तीन दिन तक शोक में डूबे रहें। ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करके अमांसभोजी होकर पृथ्वी पर ही सोयें उन सभी के बीच परस्पर शरीर का स्पर्श न हो। वे इस अशौचकाल के अन्तराल में दान एवं अध्ययन कर्म से दूर रहें। दुःख से मलिन, उत्साहहीन, अधोमुख कातर एवं भोग-विलास से दूर होकर वे अङ्गमर्दन और सिर धोना भी छोड़ दें। इस अशौच की अवधि में मिट्टी के बने पात्र या पत्तलों में भोजन करना चाहिये। एक या तीन दिन तक उपवास करे।

गरुड उवाच ।

आशौचिन इति प्रोक्तमाशौचस्य च वै प्रभो ।

लक्षणं किं कियत्कालं भाव्यं वा तद्युतैर्नरैः ॥ २,५.८ ॥

गरुड ने कहा- हे प्रभो! अशौचियों के अशौच के विषय में आपने कह दिया, पर वह अशौच कितने समय तक रहेगा? उसके लक्षण क्या हैं? उससे संलिप्त लोगों को उस काल में कैसा जीवन व्यतीत करना चाहिये? इन सभी बातों को भी आप बताने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

अपनोद्यन्त्विदं कालादिभिराशु निषेधकृत् ।

पिण्डाध्ययनदानादेः पुङ्गतोऽतिशयो हि तत् ॥ २,५.९ ॥

दशाहं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते ।

जननेऽप्येवमेव स्यान्निपुणं शुद्धिमिच्छताम् ॥ २,५.१० ॥

जन्मन्येकोदकानान्तुत्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते ।

शावस्य शेषाच्छुध्यन्ति त्र्यहादुदकदायिनः ॥ २,५.११ ॥

आदन्तजननत्सद्य आ चौलान्नैशिकी स्मृता ।

त्रिरात्रमा व्रतादेशाद्दशरात्रमतः परम् ॥ २,५.१२ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे खगेश! यह अशौच तो विधिसम्मत समय और क्रिया आदि के द्वारा शीघ्र ही समाप्त करने के योग्य होता है, क्योंकि प्राणी इस काल में पिण्डदान, अध्ययन और अन्य प्रकार के दान-पुण्यादिक सत्कर्मों से दूर हो जाता है। सपिण्डियों में मरणाशौच दस दिन का माना जाता है। जो लोग भलीभाँति शुद्धि प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं, उनके लिये पुत्रादि के जन्म लेने पर भी इसी प्रकार अशौच होता है। समानोदकों के जननाशौच में तीन रात्रि में शुद्धि होती है जो मृतक को जल देनेवाले हैं, वे मरणाशौच में भी तीन दिनों के पश्चात् शुद्ध हो जाते हैं। दाँत निकलने तक मरणाशौच होने पर वह सद्यः समाप्त हो जाता है। यदि चूडाकरण संस्कार हो जाने के बाद बालक की मृत्यु हो जाती है तो एक रात्रि का अशौच होता है। उपनयन (जनेऊ) संस्कार होने के पूर्व तक तीन दिन और उसके बाद दस दिन का अशौच होता है।

आशौचं ते समाख्यातं संक्षेपात्प्रकृतं ब्रुवे ।

जलं त्रिदिवमाकाशे स्थाप्यं क्षीरञ्च मृन्मये ॥ २,५.१३ ॥

अत्र स्नाहि पिबात्रेति मन्त्रेणानेन काश्यप ।

काष्ठत्रये गुणैर्बद्धे प्रीत्यै रात्रौ चतुष्पथे ॥ २,५.१४ ॥

प्रथमेऽह्नि तृतीये वा सप्तमे नवमे तथा ।

अस्थिसंचयनं कार्यं दिने तद्गोत्रजैः सह ॥ २,५.१५ ॥

तदूर्ध्वमङ्गसंस्पर्शः सपिण्डानां विधीयते ।

योग्याः सर्वक्रियाणां च समानसलिलास्तथा ॥ २,५.१६ ॥

प्रेतपिण्डं बहिर्दद्याद्दर्भमात्रविवर्जितम् ।

प्रागुदीच्यां चरुं कृत्वा स्नात्वा प्रयतमानसः ॥ २,५.१७ ॥

भूमावसंस्कृतानां च संस्कृतानां कुशेषु च ।

नवभिर्दिवसैः पिण्डान्नव दद्यात्समाहितः ॥ २,५.१८ ॥

दशमं पिण्डमुत्सृज्य रात्रिशेषे शुचिर्भवेत् ।

असगोत्रः सगोत्रो वा यदि स्त्री यति वा पुमान् ॥ २,५.१९ ॥

प्रथमेऽहनि यो दद्यात्स दशाहं समापयेत् ।

शालिना सक्तुभिर्वापि शाकैर्वाप्यथ निर्वपेत् ॥ २,५.२० ॥

प्रथमेऽहनि यद्द्रव्यं तदेव स्याद्दशाहिकम् ।

यावदाशौचमेकैकस्याञ्जलेर्दानमुच्यते ॥ २,५.२१ ॥

हे पक्षिन् ! तुम्हें मैंने अशौच बता दिया। अब मैं संक्षेप में प्रसंग प्राप्त अशौच के विषय में तुम्हें बताता हूँ। हे काश्यप ! सूत्र से बंधे हुए तीन काष्ठों की तिगोड़िया को रात्रि में आकाश के नीचे स्थापित करके चौराहे पर खड़ा कर दे और 'अत्र स्नाहि०' एवं 'पिबात्र०'* इस मन्त्रोच्चार के साथ उसके ऊपर मिट्टी के पात्र में जल और दूध रख दे। संस्कर्ता अपने सगोत्रियों के साथ पहले, तीसरे, सातवें अथवा नवें दिन अस्थि संचयन करे। जो सगोत्री हैं, वे मृतक के ऊर्ध्वभाग की अस्थियों का ही स्पर्श कर सकते हैं। समानोद की भी सभी क्रियाओं के योग्य हैं। प्रेत को पिण्डदान बाहर ही करे। इस क्रिया को करने के लिये सबसे पहले स्नान करके संयतमना होकर उत्तर दिशा में चरु का निर्माण कर असंस्कृत प्राणी के लिये भूमि पर तथा संस्कार-सम्पन्न के लिये कुश पर नौ दिनों में नौ पिण्ड देना चाहिये। उसके बाद दसवें दिन दसवाँ पिण्डदान करे। तदनन्तर चाहे सगोत्री हो अथवा असगोत्री, चाहे स्त्री हो या पुरुष वह रात्रि बीतने के पक्षात् पवित्र हो जाता है। पहले दिन जो पिण्डदान की क्रिया करता है, उसे ही दसवें दिन तक प्रेत की अन्य समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। चाहे चावल हो, चाहे सत्तू हो, चाहे शाक हो, पहले दिन जिससे पिण्डदान करे, उससे ही दस दिन तक पिण्डदान करना चाहिये।

*(श्मशानानलदग्धोऽसि परित्यक्तोऽसि बान्धवैः । इदं नीरं इदं क्षीर अत्र स्नाहि इदं पिब)

यद्वा यस्मिन्दिने दानं तस्मिंस्तद्दिनसंख्यया ।

दशाहेऽञ्जलयः पक्षिन्पञ्चाशदन्तिमे ॥ २,५.२२ ॥

द्विवृद्ध्या वा भवेत्पक्षिन्नञ्जलीनां शतं पुनः ।

यदा हि त्र्यहमाशौचं तदा वाञ्जलयो दश ॥ २,५.२३ ॥

त्रयोऽञ्जलय एवं तु प्रथमेऽहनि वै तदा ।

चत्वारस्तु द्वितीयेऽह्नि तृतीये स्युस्त्रयस्तथा ॥ २,५.२४ ॥

शताञ्जलि यदा पक्षिन्नाद्ये त्रिंशत्तदाहनि ।

चत्वारिंशद्द्वितीयेऽह्नि त्रिंशदह्नि तृतीयके ॥ २,५.२५ ॥

हे गरुड ! जब तक यह प्रेतजन्य अशौच रहता है तब तक प्रेत को प्रतिदिन एक-एक अञ्जलि बढ़ाते हुए जल- दान देने का विधान है अथवा जिस दिन यह देना हो उस दिन की संख्या के अनुसार वर्धमानक्रम से उतनी अञ्जलि जल दान करे। इस प्रकार दसवें दिन पचपन अञ्जलि पूर्ण करे। यदि अशौच दो दिन बढ़ जाता है तो पुनः उसी क्रम के अनुसार सौ अञ्जलि जल और देना चाहिये। यदि वह अशौच तीन दिन का ही है तो दस अञ्जलि ही जल देना चाहिये। हे पक्षिन्! इस जलदान का क्रम यह है कि अशौच के पहले दिन तीन, दूसरे दिन चार और तीसरे दिन तीन अञ्जलि जल देना चाहिये। हे गरुड! जब शताञ्जलि जलदान की क्रिया सम्पन्न की जाती है तो उस विधान के अनुसार पहले दिन तीस, दूसरे दिन चालीस तथा तीसरे दिन तीस अञ्जलि जल दिया जाता है।

एवं जलस्याञ्जलयो विभाज्याः पक्षयोर्द्वयोः ।

सर्वेषु पितृकार्येषु पुत्रो मुख्योऽधिकारवान् ॥ २,५.२६ ॥

पिण्डप्रसेकस्तूष्णीञ्च पुष्पधूपादिकं तथा ।

दशमेऽहनि सम्प्राप्ते स्नानं ग्रामाद्बहिश्चरेत् ॥ २,५.२७ ॥

तत्र त्याज्यानि वासांसि केशश्मश्रुनखानि च ।

विप्रः शुध्यत्यपः स्पृष्ट्वा क्षत्त्रियो वाहनं तथा ॥ २,५.२८ ॥

वैश्यः प्रतोदं रश्मीन्वा शूद्रो यष्टिं कृतक्रियः ।

मृतादल्पवयोभिश्च सपिण्डैः परिवापनम् ॥ २,५.२९ ॥

इस प्रकार दोनों पक्षों में जलाञ्जलियों की संख्या का निर्धारण करना चाहिये। इन सभी पितृक्रियाओं को सम्पन्न करने का मुख्य अधिकारी पुत्र ही होता है। इस प्रेतश्राद्ध में दूध या जल से पिण्ड का सेचन तथा पुष्प-धूपादिक पदार्थ से पिण्ड का पूजन बिना मन्त्रोच्चार किये ही करना चाहिये। दसवें दिन केश, श्मश्रु नख और वस्त्र का परित्याग करके गाँव के बाहर स्नान करना चाहिये। ब्राह्मण जल, क्षत्रिय वाहन, वैश्य प्रतोद (चाबुक) अथवा रश्मि तथा शूद्र छड़ी का स्पर्श करके पवित्र होता है। मृत से अल्प वयवाले सपिण्डों को मुण्डन कराना चाहिये।* 

*(अन्यकर्मदीपक पृष्ठ ४० की टिप्पणी के अनुसार मृत व्यक्ति से अवस्था में जो लोग कनिष्ठ हैं, उन्हें मुण्डन कराना चाहिये- यह कुछ लोगों का मत है। कुछ लोगों का यह भी मत है कि जितने लोग मरण के दुःख का अनुभव करनेवाले हैं, उन सभी को मुण्डन कराना चाहिये। इन दोनों मतों को अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार स्वीकार किया जा सकता है।)

कार्यन्तु षोडशी षड्भिः पिण्डैर्दशभिरैव च ।

प्रथमा मलिना ह्येतैरादशाहं मृतेर्भवेत् ॥ २,५.३० ॥

दिनानि दश यान्पिण्डान्कुर्वन्त्यत्र सुतादयः ।

प्रत्यहं ते विभज्यन्ते चतुर्भागैः खगोत्तम ॥ २,५.३१ ॥

भागद्वयेन देहः स्यात्तृतीयेन यमानुगाः ।

तृप्यन्ति हि चतुर्थेन स्वयमप्युपजीवति ॥ २,५.३२ ॥

छ: और दस इस प्रकार सोलह पिण्डदान करके षोडशी कर्म सम्पन्न करने का विधान है। यह मलिनषोडशी मृत दिन से दस दिन में पूर्ण होती है। हे पक्षिश्रेष्ठ! पुत्रादि दस दिनों तक जो पिण्डदान करते हैं, वे प्रतिदिन चार भागों में विभाजित हो जाते हैं। उसमें प्रथम दो भाग से आतिवाहिक शरीर, तीसरे भाग से यमदूत और चौथे भाग वह मृतक स्वयं तृप्त होता है।

अहोरात्रैस्तु नवभिर्देहो निष्पत्तिमाप्नुयात् ।

शिरस्त्वाद्येन पिण्डेन प्रेतस्य क्रियते तथा ॥ २,५.३३ ॥

द्वितीयेन तु कर्णाक्षिनासिकं तु समासतः ।

गलांसभुजवक्षश्च तृतीयेन तथा क्रमात् ॥ २,५.३४ ॥

चतुर्थेन च पिण्डेन नाभिलिङ्गगुदं तथा ।

जानुजङ्घं तथा पादौ पञ्चमेन तु सर्वदा ॥ २,५.३५ ॥

सर्वमर्माणि षष्ठेन सप्तमेन तु नाडयः ।

दन्तलोमान्यष्टमेन वीर्यन्तु नवमेन च ॥ २,५.३६ ॥

दशमेन तु पूर्णत्वं तृप्तता क्षुद्विपर्ययः ।

नौ दिन और रात्रि में वह शरीर अपने अंगों से युक्त हो जाता है। प्रथम पिण्डदान से प्रेत के शिरोभाग का निर्माण होता है। दूसरे पिण्डदान से उसके कान नेत्र और नाक की सृष्टि होती है। तीसरे पिण्डदान से क्रमश:- कण्ठ, स्कन्ध, बाहु एवं वक्षःस्थल, चौथे पिण्डदान से नाभि, लिंग और गुदाभाग तथा पाँचवें पिण्डदान से जानु, जंघा और पैर बनते हैं। इसी प्रकार छठें पिण्डदान से सभी मर्मस्थल, सातवें पिण्डदान से नाड़ीसमूह, आठवें पिण्डदान से दाँत और लोम तथा नवें पिण्डदान से वीर्य एवं दसवें पिण्डदान से उस शरीर में पूर्णता, तृप्ति और भूख-प्यास का उदय होता है।

मध्यमां षोडशीं वच्मि वैनतेय शृणुष्व मे ॥ २,५.३७ ॥

हे वैनतेय! अब मैं मध्यमषोडशी विधि का वर्णन करता हूँ। उसको सुनो।

विष्णवादिविष्णुपर्यन्तान्येकादश तथा खग ।

श्राद्धानि पञ्च देवानामित्येषां मध्यषोडशी ॥ २,५.३८

निमित्तं दुर्मतिं कृत्वा यदि नारायणो बलिः ।

एकादशाहे कर्तव्यो वृषोत्सर्गोऽपि तत्र वै ॥ २,५.३९ ॥

एकादशाहे प्रेतस्य यस्योत्सृज्येत नो वृषः ।

प्रेतत्वं सुस्थिरं तस्य दत्तैः श्राद्धशतैरपि ॥ २,५.४० ॥

अकृत्वा यद्वृषोत्सर्गं कृतं वै पिण्डपातनम् ।

निष्फलं सकलं विद्यात्प्रमीताय न तद्भवेत् ॥ २,५.४१ ॥

वृषोत्सर्गादृते नान्यत्किञ्चिदस्ति महीतले ।

पुत्रः पत्न्यथ दौहित्रः पिता वा दुहिताथ वा ॥ २,५.४२ ॥

मृतादनन्तरं तस्य ध्रुवं कार्यो वृषोत्सवः ।

चतुर्वत्सतरीयुक्तो यस्योत्सृज्येत वा वृषः ॥ २,५.४३ ॥

अलङ्कृतो विधानेन प्रेतत्वं तस्य नो भवेत् ।

एकादशेऽह्नि सम्प्राप्ते वृषालाभो भवेद्यदि ॥ २,५.४४ ॥

दर्भैः पिष्टैस्तु सम्पाद्य तं वृषं मोचयेद्वुधः ।

वृषोत्सर्जनवेलायां वृषाभाव (लाभ) कथञ्चन ॥ २,५.४५ ॥

मृत्तिकाभिस्तु दर्भैर्वा वृषं कृत्वा विमोचयेत् ।

यदिष्टं जीवतस्तस्य दद्यादेकादशेऽहनि ॥ २,५.४६ ॥

मृतमुद्दिश्य दातव्यं शय्याधेन्वादिकं तथा ।

विप्रान्बहून् भोजयीत प्रेतस्य क्षुद्विशान्तये ॥ २,५.४७ ॥

विष्णु से आरम्भ करके विष्णु पर्यन्त एकादश श्राद्ध तथा पाँच देवश्राद्ध इस प्रकार षोडश श्राद्ध किये जाते हैं। इन्हींका नाम मध्यमषोडशी है। यदि प्रेतकल्याण के निमित्त 'नारायणबलि' की जाय तो उसको एकादशाह के दिन करना चाहिये और उसी दिन वहीं पर वृषोत्सर्ग भी करना चाहिये। जिस जीव का ग्यारहवें दिन वृषोत्सर्ग नहीं होता, सैकड़ों श्राद्ध करने पर भी उस जीव की प्रेतत्व से मुक्ति नहीं होती है। वृषोत्सर्ग बिना किये ही जो पिण्डदान किया जाता है, वह पूर्णतया निष्फल होता है। उससे प्रेत का कोई उपकार नहीं होता। इस पृथ्वी पर वृषोत्सर्ग के बिना कोई अन्य उपाय नहीं है, जो प्रेत का कल्याण करने में समर्थ हो। अतः पुत्र, पत्नी, दौहित्र (नाती), पिता अथवा पुत्री को स्वजन की मृत्यु के पश्चात् निश्चित ही वृषोत्सर्ग करना चाहिये। चार बछियों से युक्त, विधानपूर्वक अलंकृत वृष, जिसके निमित्त छोड़ा जाता है उसको प्रेतत्व की प्राप्ति नहीं होती। यदि एकादशाह के दिन यथाविधान साँड़ उत्सर्ग करने के लिये उपलब्ध नहीं है तो विद्वान् ब्राह्मण कुश या चावल चूर्ण से साँड़ का निर्माण करके उसका उत्सर्ग कर सकता है। यदि बाद में भी वृषोत्सर्ग के समय किसी प्रकार साँड़ नहीं मिल रहा है तो मिट्टी या कुश से ही साँड़ का निर्माण करके उसका उत्सर्ग करना चाहिये। जीवनकाल में प्राणी को जो भी पदार्थ प्रिय रहा हो उसका भी दान इसी एकादशाह श्राद्ध के दिन करना उचित है। इसी दिन मरे हुए स्वजन को उद्देश्य बनाकर शय्या, गौ आदि का दान भी करना चाहिये। इतना ही नहीं उस प्रेत की क्षुधा शान्ति के लिये बहुत से ब्राह्मणों को भोजन भी कराना चाहिये।

तृतीयां षोडशीं वच्मि वैनतेय शृणुष्व ताम् ।

हे विनतापुत्र गरुड ! अब मैं तृतीय षोडशी (उत्तम-षोडशी)- श्राद्ध का वर्णन कर रहा हूँ, उसे सुनो।

द्वादश प्रतिमास्यानि आद्यं षाण्मासिकं तथा ॥ २,५.४८ ॥

प्रत्येक बारह मास के बारह पिण्ड, ऊनमासिक (आद्य) त्रिपाक्षिक, ऊनषाण्मासिक एवं ऊनाब्दिक- इन्हें मतभेद से तृतीय अथवा उत्तमषोडशी भी कहा जाता है।

सपिण्डीकरणं चैव तृतीया षोडशी मता ।

द्वादशाहे त्रिपक्षे च षण्मासे मासिकेऽब्दिके ॥ २,५.४९ ॥

तृतीयां षोडशीमेनां वदन्ति मतभेदतः ।

यस्यैतानि न दत्तानि प्रेतश्राद्धानि षोडश ॥ २,५.५० ॥

पिशाचत्वं स्थिरं तस्य दत्तैः श्राद्धशतैरपि ।

एकादशे द्वादशे वा दिने आद्यं प्रकीर्तितम् ॥ २,५.५१ ॥

मासादौ प्रतिमासञ्च शुद्धं मृततिथौ खग ।

एकेनाह्ना त्रिभिर्वापि हीनेषु विनतासुत ॥ २,५.५२ ॥

मासषण्मासवर्षेषु त्रिपक्षेषु भवन्ति हि ।

श्राद्धान्यथस्यात्सापिण्ड्यं पूर्णे वर्षे तदर्धके ॥ २,५.५३ ॥

त्रिपक्षेऽभ्युदये वापि द्वादशाहेऽथ वा नृणाम् ।

आनन्त्यात्कुलधर्माणां पुंसाञ्चैवायुषः क्षयात् ॥ २,५.५४ ॥

अस्थिरत्वाच्छरीरस्य द्वादशाहे प्रशस्यते ।

बारहवें दिन, तीन पक्ष में, छः महीने में अथवा वर्ष के अन्त में सपिण्डीकरण करना चाहिये। जिस मृतक के निमित्त इन षोडश श्राद्धों को सम्पन्न करके ब्राह्मणों को दान नहीं दिया जाता है, उस प्रेत के लिये अन्य सौ श्राद्ध करने पर भी मुक्ति प्राप्त नहीं होती। हे खगेश! मृतक व्यक्ति के एकादशाह अथवा द्वादशाह तिथि में आद्यश्राद्ध करने का विधान माना गया है। प्रतिमास का श्राद्ध मास के आद्यतिथि में मृत तिथि पर होना चाहिये। ऊनश्राद्ध (ऊनमासिक, ऊनषाण्मासिक तथा ऊनाब्दिक) मास, छठें मास और वर्ष में एक, दो अथवा तीन दिन कम रहने पर करना चाहिये।* सपिण्डीकरण वर्ष पूर्ण होने के बाद अथवा छः महीने बाद करना चाहिये अथवा आभ्युदयिक (विवाहादि मङ्गल कार्य अनिवार्य रूप से उपस्थित होने पर) कार्य आने पर तीन पक्ष अथवा बारह दिन के बाद करना चाहिये। मनुष्यों के कुलधर्म असंख्य हैं, उनकी आयु भी क्षरणशील है और शरीर अस्थिर है। अतः बारहवें दिन सपिण्डीकरण करना उत्तम है।

* (क) एकद्वित्रिदिनैरुने त्रिभागेनोन एव वा ।

श्राद्धान्यूनाब्दिकादीनि कुर्यादित्याह गौतमः ॥

नन्दायां भार्गवदिने चतुर्दश्यां त्रिपुष्करे ।

ऊनश्राद्धं न कुर्वीत गृही पुत्रधनक्षयात् ॥ (गार्ग्य)

द्विपुष्करे च नन्दायां सिनीवाल्यां भृगोर्दिने ।

चतुर्दश्यां च नो तानि कृतिकासु त्रिपुष्करे ॥

एक, दो, तीन अथवा दस दिन कम रहने पर नन्दा तिथि को, शुक्रवार को चतुर्दशी तिथि, त्रिपुष्कर और द्विपुष्कर योग, अमावास्या तिथि, कृत्तिका, रोहिणी तथा मृगशिरा तिथियों में ऊनश्राद्ध (ऊनमासिक, ऊनषाण्मासिक, ऊनाब्दिक) नहीं करना चाहिये।

(ख) 'सपिण्डीकरणं चैव' इस वाक्य से तृतीय षोडशी के अन्तर्गत सपिण्डी में किये जानेवाले प्रेतश्राद्ध की गणना करने पर 'शतार्द्धेन तु मेलयेत्' इस वाक्य से विरोध होता है। सपिण्डीकरण में किये जानेवाले प्रेतश्राद्ध को तृतीय षोडशी के अन्तर्गत कात्यायन ने माना है। इसका 'शतार्द्धेन तु मेलयेत्' से विरोध है।

श्राद्धकल्पलता में तथा आचार्य गोभिल, लौगाक्षि पैठिनसि के मत में सपिण्डन श्राद्ध तृतीय षोडशी के बाहर है।

(ग) 'द्वादशप्रतिमास्यानि' इस पद से प्रथम मासिक का बोध हो जाने के कारण आद्य पद के अर्थ में उनमासिक उपलक्षण है। इसी प्रकार 'षाण्मासिक' पद का ऊनषाण्मासिक और ऊनाब्दिक अर्थ में लाक्षणिक प्रयोग है।

सपिण्डीकरणेष्वेवं विधिं पक्षीन्द्र मे शृणु ॥ २,५.५५ ॥

हे पक्षिराज! सपिण्डीकरण श्राद्धों के सम्पादकीय विधि भी मुझसे सुनो।

एकोद्दिष्टविधानेन कार्यं तदपि काश्यप ।

तिलगन्धोदकैर्युक्तं कुर्यात्पात्रचतुष्टयम् ॥ २,५.५६ ॥

पात्रं प्रेतस्य तत्रैकं पित्र्यं पात्रत्रयं तथा ।

सेचयेत्पितृपात्रेषु प्रेतपात्रं खग त्रिषु ॥ २,५.५७ ॥

चतुरो निर्वपेत्पिण्डान्पूर्वन्तेषु समापयेत् ।

ततः प्रभृति वै प्रेतः पितृसामान्यमश्नुते ॥ २,५.५८ ॥

ततः पितृत्वमापन्ने तस्मिन्प्रेते खगेश्वर ।

श्राद्धधर्मैरशेषैस्तु तत्पूर्वानर्चयेत्पितॄन् ॥ २,५.५९ ॥

एकचित्यारोहणे च एकाह्नि मरणे तथा ।

सापिण्ड्यन्तु स्त्रिया नास्ति मृते भर्तुः स्त्रियो भवेत् ॥ २,५.६० ॥

पाकैक्यमथ कालैक्यं कर्त्रैक्यञ्च भवेत्खग ।

श्राद्धादौ सह दाहे च पतिपत्न्योर्न संशयः ॥ २,५.६१ ॥

भर्तुर्मृततिथेरन्यतिथौ चितिमथारुहेत् ।

तांमृताहनि तु सम्प्राप्ते पृथक्पिण्डेन योजयेत् ॥ २,५.६२ ॥

हे काश्यप ! एकोद्दिष्ट विधान के अनुसार यह कार्य करना चाहिये।* तिल, गन्ध और जल से परिपूर्ण चार पात्रों की व्यवस्था करके एक पात्र प्रेत के निमित्त और शेष तीन पात्र पितृगणों के लिये निश्चित करना चाहिये। तदनन्तर उन तीन पात्रों में प्रेतपात्र के जल का सेचन करे। चार पिण्ड बनाये और प्रेत पिण्ड का उन तीन पिण्डों में मेलन कर दे। तबसे वह प्रेत पितर के रूप में हो जाता है। हे खगेश्वर! उस प्रेत में पितृत्वभाव के आ जाने के बाद उस प्रेत तथा अन्य उसके पितृ-पितामह आदि पितरों का समस्त श्राद्धकृत्य श्राद्ध की सामान्य विधि के अनुसार ही करना चाहिये। मृत पति के साथ एक ही चिता में प्रवेश और एक ही दिन दोनों की मृत्यु होने पर स्त्री का सपिण्डीकरण नहीं होता है। उसके पति के सपिण्डीकरण श्राद्ध से ही स्त्री का सपिण्डीकरण श्राद्ध सम्पन्न हो जाता है। हे खगेश ! पति के मरने के बाद स्त्री की मृत्यु होने पर स्त्री का सपिण्डन पति के साथ होगा और सहमृत्यु की दशा में दोनों के श्राद्ध के लिये एक पाक, एक समय तथा एक कर्ता होगा। किंतु श्राद्ध पति-पत्नी का पृथक् पृथक् ही किया जाना चाहिये। यदि स्त्री पति के साथ चिता में सती न होकर अन्य किसी दिन सती होती है तो उस स्त्री की मृत तिथि के आने पर उसके लिये पृथक् रूप से पिण्डदान करना चाहिये।

*( सपिण्डीकरण के अन्तर्गत किये जानेवाले केवल प्रेतश्राद्ध के उद्देश्य से एकोदिष्ट विधि का उल्लेख है। इसके अन्तर्गत किया जानेवाला प्रेत के पिता आदि का श्राद्ध सदैव पार्वण विधि से किया जाना चाहिये।)

प्रत्यब्दञ्च युगपत्तु समापयेत् ॥ २,५.६३ ॥

यस्य संवत्सरादर्वाक्सपिण्डीकरणं भवेत् ।

मासिकञ्चोदकुम्भञ्च देयं तस्यापि वत्सरम् ॥ २,५.६४ ॥

नवश्राद्धं सपिण्डत्वं श्राद्धान्यपि च षोडश ।

एकेनैव तु कार्याणि संविभक्तधनेष्वपि ॥ २,५.६५ ॥

पितामहीभिः सापिण्ड्यं तथा मातामहैः सह ।

उक्तं भर्त्रापि सापिण्ड्यं स्त्रिया वेषयभेदतः ॥ २,५.६६ ॥

हे गरुड ! सहमृत्यु की दशा में प्रत्येक वर्ष नवश्राद्ध एक साथ करना चाहिये। जिस मृतक का वार्षिक श्राद्ध से पूर्व सपिण्डीकरण हो जाता है, उसके लिये भी वर्षभर मासिक श्राद्ध और जलकुम्भ दान करना चाहिये। धन का बँटवारा हो जाने पर भी नव श्राद्ध, सपिण्डन श्राद्ध और षोडश श्राद्ध करने का अधिकार एक ही व्यक्ति को है।

नवश्राद्धस्य ते कालं वक्ष्यामि शृणु काश्यप ।

हे कश्यपपुत्र! अब मैं तुम्हें नवश्राद्ध करने का काल बताऊँगा। उसको सुनो।

मरणाह्नि मृतिस्थाने श्राद्धं पक्षिन्प्रकल्पयेत् ॥ २,५.६७ ॥

द्वितीयञ्च ततो मार्गे विश्रामो यत्र कारितः ।

ततः सञ्चयनस्थाने तृतीयं श्राद्धमुच्यते ॥ २,५.६८ ॥

पञ्चमे सप्तमे तद्वदष्टमे नवमे तथा ।

दशमैकादशे चैव नव श्राद्धानि वै खग ॥ २,५.६९ ॥

श्राद्धानि नव चैतानि तृतीया षोडशी स्मृता ।

एकोद्दिष्टविधानेन कार्याणि मनुजैस्तथा ॥ २,५.७० ॥

प्रथमेऽह्नि तृतीये वा पञ्चमे सप्तमे तथा ।

नवमैकादशे चैव नवश्राद्धं प्रकीर्तितम् ॥ २,५.७१ ॥

उच्यन्ते षडिमानीह नव स्युरपि यागेतः ।

उक्तानि ते मया तानि ऋषीणां मतभेदतः ॥ २,५.७२ ॥

हे पक्षिन् ! मृत्यु के दिन मृतस्थान पर पहला श्राद्ध करना चाहिये। उसके बाद दूसरा श्राद्ध मार्ग में उस स्थान पर करना चाहिये जहाँ पर शव रखा गया था। तदनन्तर तीसरा श्राद्ध अस्थिसंचयन के स्थान पर होता है। इसके बाद पाँचवें, सातवें, आठवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें दिन श्राद्ध होता है। इसलिये इन्हें नवश्राद्ध कहा जाता है। ये नवश्राद्ध तृतीया षोडशी कहे जाते हैं। इनको एकोद्दिष्ट विधान के अनुसार ही करना चाहिये। पहले, तीसरे, पाँचवें, सातवें, नवें और ग्यारहवें दिन होनेवाले श्राद्धों को नवश्राद्ध कहा जाता है। दिन की संख्या छः ही है पर छः दिन में ही नवश्राद्ध हो जाते हैं। इस विषय में ऋषियों के बीच मतभेद हैं,इसी कारण मैंने उनको भी तुम्हें बता दिया।

रूढिपक्षो ममाभीष्टो योगः कैश्चिदिहेष्यते ।

आद्ये द्वितीये दातव्यस्तथैवैकं पवित्रकम् ॥ २,५.७३ ॥

प्रेताय पिण्डो दातव्यो भुक्तवत्सु द्विजातिषु ।

प्रश्रस्तत्राभिरण्येति यजमानद्विजन्मना ॥ २,५.७४ ॥

अक्षय्यममुकस्येति वक्तव्यं विरतौ तथा ।

श्राद्धों का जो योग रूढिगत रूप से है, वही मुझे भी अभीष्ट है। किसी को नव शब्द का यौगिक अर्थ अभीष्ट है। आद्य और द्वितीय श्राद्ध में एक ही पवित्रक देना चाहिये। जब ब्राह्मण भोजन कर चुके हों तो उसके बाद प्रेत को पिण्डदान देना उचित होता है।* वहाँ पर यजमान और ब्राह्मण के बीच प्रश्नोत्तर भी होना चाहिये। जिसमें यजमान ब्राह्मण से यह प्रश्न करे कि आप मेरी सेवा से प्रसन्न हैं? उसका उत्तर ब्राह्मण दे कि हाँ हम आप पर प्रसन्न हैं। आपके उस मृत स्वजन को अक्षय लोक की प्राप्ति हो ।

*( यह प्राय: सपाक्षिकश्राद्ध की विधि है।)

एकोद्दिष्टं मे निबोध चेत्थमावत्सरं स्मृतम् ॥ २,५.७५ ॥

हे पक्षिराज! अब तुम मुझसे एकोद्दिष्ट श्राद्ध के विषय में भी सुनो। जिसको वर्ष पर्यन्त करना चाहिये।

सपिण्डीकरणादूर्ध्वं यानि श्राद्धानि षोडश ।

एकोद्दिष्टविधानेन चरेद्वा पार्वणादृते ॥ २,५.७६ ॥

प्रत्यब्दं यो यथा कुर्यात्तथा कुर्यात्स तान्यपि ।

एकादशे द्वादशेऽह्नि प्रेतो भुङ्क्ते दिनद्वयम् ॥ २,५.७७ ॥

योषितः पुरुषस्यापि पिण्डं प्रेतेति निर्वपेत् ।

सापिण्ड्ये तु कृते तस्य प्रेतशब्दो निवर्तते ॥ २,५.७८ ॥

दीपदानं प्रकर्तव्यमावर्षन्तु गृहाद्बहिः ।

अन्नं दीपो जलं वस्त्रमन्यद्वादीयते च यत् ॥ २,५.७९ ॥

तृप्तिदं प्रेतशब्देन सपिण्डीकरणावधि ।

सपिण्डीकरण के बाद में किये जानेवाले षोडश श्राद्धों का सम्पादन एकोद्दिष्ट विधान के अनुसार ही होना चाहिये, किंतु पार्वण श्राद्ध में उक्त नियम का प्रयोग नहीं होता है। जिस प्रकार से प्रत्येक वर्ष में होनेवाला प्रत्यब्द श्राद्ध* होता है, उसी प्रकार उन षोडश श्राद्धों को भी करना चाहिये। एकादशाह और द्वादशाह में जो श्राद्ध किया जाता है उन दिनों में स्वयं प्रेत भी भोजन करता है। अतः स्त्री और पुरुष के लिये जो पिण्डदान इन दिनों में दिया जाय उसको अमुक प्रेत के निमित्त दिया जा रहा है, ऐसा कहकर पिण्डदान देना चाहिये। सपिण्डीकरण श्राद्ध होने के पश्चात् प्रेत शब्द का प्रयोग नहीं होता है। एक वर्ष तक घर के बाहर प्रतिदिन दीपक जलाना चाहिये। अन्न, दीप, जल, वस्त्र और अन्य जो कुछ भी वस्तुएँ दान में दी जाती हैं, वे सभी सपिण्डीकरण तक प्रेत शब्द के सम्बोधन से संकल्पित होने पर ही प्रेत को तृप्ति प्रदान करती हैं।

*(वार्षिक तिथि पर होनेवाला श्राद्ध।)

अब्दकृत्यं मयोक्तन्ते समासाद्विनतासुत ॥ २,५.८० ॥

हे वैनतेय! संक्षिप्त रूप में मैंने वार्षिक कृत्य कह दिया। अब तुम विवस्वान् पुत्र यमराज के घर जिस प्रकार जीव का गमन होता है, उसका वर्णन सुनो।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ५

वैवस्वतगृहे यानं यथा तत्तु निबोधमेः ।

त्रयोदशेऽह्नि श्रवणाकर्मणोनन्तरन्तु सः ॥ २,५.८१ ॥

त्वग्गृहीताहिवत्तार्क्ष्य गृहीतो यमकिङ्करैः ।

तस्मिन्मार्गे व्रजत्येको गृहीत इव मर्कटः ॥ २,५.८२ ॥

वाय्वग्रसारिवद्रूपं देहमन्यत्प्रपद्यते ।

तत्पिण्डजं पातनार्थमन्यत्तु पितृसम्भवम् ॥ २,५.८३ ॥

तत्प्रमाणवयोऽवस्थासंस्थानां प्रग्भवो यथा ।

षडशीति सहस्राणि योजनानां प्रमाणतः ॥ २,५.८४ ॥

अध्वान्तरालिको ज्ञेयो यममानुषलोकयोः ।

साधिकार्धक्रोशयुतं योजनानां शतद्वयम् ॥ २,५.८५ ॥

चत्वारिं शत्तथा सप्त प्रत्यहं याति तत्र सः ।

अष्टाचत्वारिंशता च त्रैंशता दिवसैरिति ॥ २,५.८६ ॥

वैवस्वतपुरं याति कृष्यमाणो यमानुगैः ।

एवं क्रमेण यातब्ये मार्गे पापरतैस्तु यत् ॥ २,५.८७ ॥

जायते सप्रपञ्चं तच्छृणु त्वमरुणानुज ।

हे अरुणानुज! त्रयोदशाह अर्थात् तेरहवें दिन श्राद्धकृत्य एवं गरुडपुराण के श्रवण के अनन्तर वह जीव, तुम्हारे द्वारा पकड़े गये सर्प के समान यमदूतों के द्वारा पकड़ लिया जाता है और पकड़े गये बन्दर के समान अकेला ही उस यमलोक के मार्ग में चलता जाता है। उसके बाद वायु के द्वारा अग्रसारित वह जीव दूसरे शरीर में प्रविष्ट होता है, दूसरे शरीर में जाने के पूर्व का जो शरीर है वह पिण्डज (दिये गये पिण्डों से निर्मित) है। दूसरी योनियों का शरीर तो पितृसम्भव (माता-पिता के रज वीर्य से उत्पन्न होनेवाला) होता है। इन शरीरों के प्रमाण, वय, अवस्था एवं संस्थान (आकृतिविशेष) आदि श्राद्ध करनेवाले की श्रद्धा एवं देह प्राप्त करनेवाले के कर्मानुसार होते हैं। प्रमाणतः यम और मर्त्यलोक के बीच छियासी हजार योजन का अन्तराल है। वह जीव प्रतिदिन अधिक-से-अधिक दो सौ सैंतालिस योजन और आधा कोस का मार्ग तय करता है। इस प्रकार उस जीव की यात्रा तीन सौ अड़तालीस दिनों में पूरी होती है। इस यमलोक की यात्रा में जीव को यमदूत खींचते हुए ले जाते हैं जो प्राणी अपने जीवनभर पाप में अनुरक्त थे, उनको इस मार्ग में जो कष्ट भोगना पड़ता है, उसको विस्तारपूर्वक सुनो-

त्रयोदशदिने दत्तः पाशैर्बद्ध्वातिदारुणैः ॥ २,५.८८ ॥

यमस्याङ्कुशहस्तो वै भृकुटीकुटिलाननः ।

दण्डप्रहारसम्भ्रान्तः कृष्यते दक्षिणां दिशम् ॥ २,५.८९ ॥

कुशकण्टकवल्मीकशङ्कुपाषाणकर्कशे ।

तथा प्रदीप्तज्वलने क्वचिच्छ्वभ्रशतोत्कटे ॥ २,५.९० ॥

प्रदीप्तादित्यतप्ते च दह्यमानः सदंशके ।

कृष्यते यमदूतैश्च शिवावन्नादभीषणैः ॥ २,५.९१ ॥

प्रयातिः दारुणे मार्गे पापकर्मा यमालये ।

कलेवरे दह्यमाने महान्तं क्षयमृच्छति ॥ २,५.९२ ॥

भक्ष्यमाणे तथैवाङ्गे भिद्यमाने च दारुणम् ।

छिद्यमाने चिरतरं जन्तुर्दुः खमवाप्नुते ॥ २,५.९३ ॥

मृत्यु के तेरहवें दिन वह पापी यमदूतों के कठोर पाशों में बाँध लिया जाता है। हाथ में अंकुश लिये हुए क्रोधावेश में तनी हुई भौहों से युक्त दण्डप्रहार करते हुए यमदूत उसको खींचते हुए दक्षिण दिशा में स्थित अपने लोक को ले जाते हैं। यह मार्ग कुश, काँटों, बाँबियों, कीलों और कठोर पत्थरों से परिव्याप्त रहता है। कहीं-कहीं उस मार्ग में अग्नि जलती रहती है और कहीं-कहीं सैकड़ों दरारों से दुर्गम भूमि होती है। प्रचंड सूर्य की गर्मी और मच्छरों से परिव्याप्त उस मार्ग में प्राणी सियारों के समान वीभत्स चीत्कार करते हुए यमदूतों के द्वारा खींचे जाते हैं। यमलोक के दारुण मार्ग में पापी जाता है और शरीर के जलने के कारण अत्यन्त क्षीणता को प्राप्त होता है। अपने कर्मानुसार विभिन्न जंतुओं के द्वारा अङ्गों के खाये जाने, भेदन एवं छेदन किये जाने के कारण जीव अत्यधिक दारुण दुःख प्राप्त करता है।

स्वेन कर्मवि पाकेन देहान्तरगतोऽपि सन् ।

पुराणि षोडशामुष्मन्मार्गे तानि च मे शृणु ॥ २,५.९४ ॥

याम्यं सौरिपुरं नगेद्वभवनं गन्धर्वशैलागमौ क्रौञ्चं क्रूरपुरं विचित्रभवनं बह्वापदं दुः खदम् ।

नानाक्रन्दपुरं सुतप्तभवनं रौद्रं पयोवर्षणं शीताढ्यं बहुभीतिषोडशपुराण्येतान्यदृष्टनि ते ॥ २,५.९५ ॥

तत्र याम्य पुरं गच्छन्पुत्रपुत्रेति च ब्रुवन् ।

हाहेति क्रन्दते नित्यं स्वकृतं दुष्कृतं स्मरन् ॥ २,५.९६ ॥

अष्टादशोदिने तार्क्ष्य तत्पुर प्राप्नुयादसौ ।

पुष्पभद्रा नदी यत्र न्यग्रोधः प्रियदर्शनः ॥ २,५.९७ ॥

विश्रामेच्छां करोत्यत्र कारयन्ति न ते भटाः ।

क्षितौ दत्तं सुतैस्तस्य स्नेहाद्वा कृपया तथा ॥ २,५.९८ ॥

मासिकं पिण्डमश्नाति ततः सौरिपुरं व्रजेत् ।

व्रजन्नेवं प्रलपते मुद्गराहतिपीडितः ॥ २,५.९९ ॥

हे तार्क्ष्य! जीव अपने कर्मानुसार दूसरे शरीर को प्राप्त करके यमलोक में नाना प्रकार का कष्ट भोगता है। यमलोक के इस मार्ग में सोलह पुर पड़ते हैं। उनके विषय में भी सुनो- याम्य, सौरिपुर, नगेन्द्रभवन, गन्धर्वपुर, शैलागम, क्रौंच, क्रूरपुर, विचित्रभवन, बह्वापद, दुःखद, नानाक्रन्दपुर, सुतप्तभवन, रौद्र, पयोवर्षण, शीताढ्य और बहुभीति- ये सोलह पुर हैं, भयंकर होने से ये दुर्दर्शन हैं। याम्यपुर के मार्ग में प्रविष्ट होकर जीव 'हे पुत्र ! हे पुत्र ! मेरी रक्षा करो' ऐसा करुणक्रन्दन करता हुआ अपने द्वारा किये गये पापों का स्मरण करता है और अठारहवें दिन वह यमराज के उस नगर में पहुँच जाता है। वहाँ पुष्पभद्रा नामक नदी प्रवाहित होती है। वहाँ देखने में अत्यन्त सुन्दर वटवृक्ष है जहाँ पर जीव विश्राम करना चाहता है, किंतु यमदूत उसको वहाँ विश्राम नहीं करने देते। उसके पुत्रों के द्वारा स्नेहपूर्वक अथवा अन्य किसी के द्वारा कृपापूर्वक पृथ्वी पर जो मासिक पिण्डदान दिया जाता है, उसी को वह वहाँ पर खाता है। तदनन्तर वहाँ से उसकी यात्रा सौरिपुर के लिये होती है। चलता हुआ वह मार्ग में यमदूतों के द्वारा मुद्गरों से पीटा जाता है। उस दुःख से अत्यधिक पीड़ित होकर वह इस प्रकार विलाप करता है-

जलाशयो नैव कृतो मया तदा

मनुष्यतृप्त्यै पशुपक्षितृप्तये ।

गोतृप्तिहेतोर्न च गोचरः कृतः

शरीर हे निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,५.१०० ॥

उस जन्म में मनुष्य और पशु-पक्षियों की संतुष्टि के लिये मैंने जलाशय नहीं खुदवाया। गौओं की क्षुधा शान्ति के लिये गोचरभूमि का दान भी मैंने नहीं दिया। अतः हे शरीर! जैसा तुमने किया है, उसी के अनुसार अब तुम अपना निस्तार करो।

तत्र नाम्ना तु राजासौ जङ्गमः कामरूपधृक् ।

भयात्तद्दर्शनाज्जाताद्भुङ्क्ते पिण्डं स शङ्कितः ॥ २,५.१०१ ॥

त्रिपक्षे जलसंयुक्तं क्षितौ दत्तं ततो व्रजेत् ।

व्रजन्नेवं प्रलपते खड्गाघातप्रपीडितः ॥ २,५.१०२ ॥

उस सौरिपुर में कामरूपधारी इच्छानुसार स्थितिशील एवं गतिशील राजा राज्य करता है। उसका दर्शनमात्र करने से जीव भय से काँप उठता है और अपने अनिष्ट की शंका से प्रस्त होकर त्रिपक्ष में पुत्रादिक स्वजनों के द्वारा पृथ्वी पर दिये गये जलयुक्त पिण्ड को खाकर आगे बढ़ता है। वहाँ से वह आगे बढ़ता हुआ मार्ग में यमदूतों के खड्गप्रहार से अत्यन्त पीड़ित होकर इस प्रकार प्रलाप करता है-

न नित्यदानं न गवाह्निकं कृतं

पुस्तं च दत्तं न हि वेदशास्त्रयोः ।

पुराणदृष्टो न हि सेवितोऽध्वा

शरीर हे निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,५.१०३ ॥

हे शरीर! मैंने जलादि का सदा दान नहीं दिया है, न तो नियम से प्रतिदिन गाय के लिये अपेक्षित गोग्रास आदि कृत्य किया है और न तो वेदशास्त्र की पुस्तक का ही दान किया है। पुराण में देखे हुए मार्ग (तीर्थयात्रा आदि ) - का मैंने सेवन नहीं किया है, इसलिये जैसा तुमने किया है, उसी में अपना निस्तार करो।

नगेन्द्रनगरं गत्वा भुक्त्वा चान्नं तथाविधम् ।

मासि द्वितीये यद्दत्तं बान्धवैस्तु ततो व्रजेत् ॥ २,५.१०४ ॥

व्रजन्नेवं प्रलपते कृपाणत्सरुताडितः ।

इसके बाद जीव 'नगेन्द्रनगर' में जाता है वहाँ पर वह अपने बन्धु बान्धवों के द्वारा दूसरे महीने में दिये गये अन्न को खाकर आगे की ओर प्रस्थान करता है। चलते हुए उसके ऊपर यमदूतों द्वारा कृपाण की मुठियों से प्रहार किये जाने पर वह इस प्रकार प्रलाप करता है-

पराधीनमभूत्सर्वं मम मूर्खशिरोमणेः ॥ २,५.१०५ ॥

महता पुण्ययोगेन मानुष्यं लब्धवानहम् ।

बहुत बड़े पुण्यों को करने के पश्चात् मुझे मनुष्य योनि प्राप्त हुई थी, किंतु मुझ मूर्खाधिराज का सब कुछ पराधीन हो गया अर्थात् मनुष्य योनि प्राप्त करके भी मैं कुछ सत्कर्म न कर सका।

तृतीये मासि सम्प्राप्ते गन्धर्वनगरे शुभम् ॥ २,५.१०६ ॥

तृतीयमासिकं पिण्डं तत्र भुक्त्वा ब्रजत्यसौ ।

व्रजन्नेवं विलपते तदग्रेणाहतः पथि ॥ २,५.१०७ ॥

इस प्रकार विलाप करता हुआ जीव तीसरे मास के पूरा होते ही गन्धर्वनगर में पहुँच जाता है। तदनन्तर समर्पित किये गये तृतीय मासिक पिण्ड को वहाँ खाकर वह पुनः आगे की ओर चल देता है। मार्ग में यमदूत उसको कृपाण के अग्रभाग से मारते हैं, जिससे आहत होकर वह पुन: इस प्रकार विलाप करता है-

मया न दत्तं न हुतं हुताशने

तपो न तप्तं हिमशैलगह्वरे ।

न सेवितं गाङ्गमहो महाजलं

शरीर हे निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,५.१०८ ॥

मैंने कोई दान नहीं दिया, अग्नि में आहुति नहीं डाली और न तो हिमालय की गुफा में जाकर तप ही किया है। अरे! मैं तो इतना नीच हूँ कि गङ्गा के परम पवित्र जल का भी सेवन नहीं किया, इसलिये हे शरीर जैसा तुमने कर्म किया है, उसी के अनुसार अपना निस्तार करो।

तुर्ये शैलागमं मासि प्राप्नुयात्तत्र वर्षणम् ।

तस्योपरि भवेत्पक्षिन्पाषाणानां निरन्तरम् ॥ २,५.१०९ ॥

चतुर्थमासिकं श्राद्धं भुक्त्वा तत्र प्रसर्पति ।

स पतन्नेव विलपन्पाषाणाद्यतिपीडितः ॥ २,५.११० ॥

हे पक्षिन् ! चौथे मास में जीव शैलागमपुर पहुँच जाता है। यहाँ उसके ऊपर निरन्तर पत्थरों की वर्षा होती है। पुत्र के द्वारा दिये गये चतुर्थ मासिक श्राद्ध को प्राप्तकर वह जीव सरकते हुए चलता है किंतु पत्थरों के प्रहार से अत्यन्त पीड़ित होकर वह गिर पड़ता है और रोते हुए यह कहता है-

न ज्ञानमार्गो न च योगमार्गो

न कर्ममार्गो न च भक्तिमार्गः ।

न साधुसङ्गात्किमपि श्रुतं मया

शरीर हे निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,५.१११ ॥

मैंने न तो ज्ञानमार्ग का सेवन किया, न योगमार्ग का, न कर्ममार्ग और न ही भक्तिमार्ग को अपनाया और न साधु- सन्तों का साथ करके उनसे कुछ हितैषी बातें ही सुनी हैं। अतः हे शरीर। तब जैसा तुमने किया है, उसी के अनुसार अपना निस्तार करो।

ततः क्रूरपुर मासि पञ्चमे याति काश्यप ।

भुवि दत्तं पिण्डजलं भुक्त्वा क्रूरपुरं व्रजेत् ॥ २,५.११२ ॥

व्रजन्नेवं विलपते पट्टिशैः पातितः पथि ।

मृत्यु के पाँचवें मास में कुछ कम दिनों में वह 'क्रौंचपुर' पहुँच जाता है, उस समय पुत्रादि के द्वारा दिये गये ऊनषाण्मासिक श्राद्ध के पिण्ड और जल का सेवन करके वहाँ एक घड़ी विश्राम करता है। हे कश्यपपुत्र ! इसके बाद छठे मास में जीव 'क्रूरपुर' की ओर चल देता है। मार्ग में वह पृथ्वी पर दिये गये पञ्चम मासिक पिण्ड को खाकर जलपान करता है। तत्पश्चात् वह क्रूरपुर की ओर फिर बढ़ता है, किंतु यमदूत मार्ग में उसको पट्टिशों (अस्त्रविशेष) द्वारा मारते हैं, जिससे वह गिर पड़ता है और इस प्रकार विलाप करता है-

हा मातर्हा पितर्भ्रातः सुता हा हा मम स्त्रियः ॥ २,५.११३ ॥

युष्माभिर्नोपदिष्टोऽहमवस्थां प्राप्त ईदृशीम् ।

हे मेरे माता-पिता और भाई-बन्धु ! हे मेरे पुत्र ! हे मेरी स्त्रियो! आप लोगों ने मुझे कोई ऐसा उपदेश नहीं दिया, जिससे मैं उन दुष्कृत्यों से बच सकता, जिनके कारण मेरी इस प्रकार की अवस्था हो गयी।

एवं लालप्यमानं ते यमदूता वदन्तिहि ॥ २,५.११४ ॥

क्व माता क्व पिता मूढ क्व जाया क्व सुतः सुहृत् ।

स्वकर्मोपार्जिते भुङ्क्ष्वं मूर्ख याताश्चिरं पथि ॥ २,५.११५ ॥

जानासि शम्बलमलं बलमध्वगानां नोऽशम्बलः प्रयतते परलोकगत्यै ।

गन्तव्यमस्ति तव निश्चितमेव तेन मार्गेण येन न भवेत्क्रयविक्रयोऽपि ॥ २,५.११६ ॥

ऊनषाण्मासिके क्रौञ्चे भुक्त्वा पिण्डन्तु सोदकम् ।

घटीमात्रन्तु विश्रम्य विचित्रनगरं व्रजेत् ॥ २,५.११७ ॥

व्रजन्नेवं विलपते शूलाग्रेण विदारितः ॥ २,५.११८ ॥

इस प्रकार का विलाप करते हुए उस जीव से यमदूत कहते हैं - अरे मूर्ख! तेरी कहाँ माता है, कहाँ पिता है, कहाँ स्त्री है, कहाँ पुत्र है और कहाँ मित्र है? तू अकेला ही चलते हुए इस मार्ग में अपने द्वारा किये गये दुष्कृत्यों के फल का उपभोग कर। हे मूर्ख! तू जान ले इस मार्ग में चलनेवाले लोगों को दूसरे की शक्ति का आश्रय करना व्यर्थ है। परलोक में जाने के लिये पराये आश्रय की आवश्यकता नहीं होती है। वहाँ (स्वकर्मार्जित) पुण्य ही साथ देता है। तुम्हारा तो उसी मार्ग से गमन निश्चित है, जिस मार्ग में किसी क्रय-विक्रय के द्वारा भी अपेक्षित सुख साधन का संग्रह नहीं किया जा सकता।

इसके बाद वह जीव 'विचित्रनगर के लिये चल देता है। रास्ते में यमदूत उसको शूल के प्रहार से आहत कर देते हैं, जिसके कारण वह दुखित होकर इस प्रकार का विलाप करता है-

कुत्र यामि न हि गामि जीवितं हा मृतस्य मरणं पुनर्न वै ।

हाय! मैं कहाँ चल रहा हूँ, मैं तो निश्चित ही अब जीवित नहीं रहना चाहता, फिर भी जीवित हूँ मरे हुए प्राणी की मृत्यु पुनः नहीं होती।

इत्थमेव विलपन् प्रयात्यसौ यातनार्हधृतविग्रहः पति ॥ २,५.११९ ॥

विचित्रनगरे तत्र विचित्रो नाम पारिथिवः ।

तत्र षण्मासपिण्डेन तृप्तः सन् व्रजते पुरः ॥ २,५.१२० ॥

व्रजन्नेवं विलपते प्रासाग्रेण प्रपीडितः ॥ २,५.१२१ ॥

इस प्रकार का विलाप करता हुआ वह जीव यातना- शरीर को धारण करके 'विचित्रनगर' में जाता है जहाँ पर विचित्र नाम का राजा राज्य करता है। वहाँ पर वह षाण्मासिक पिण्ड से अपनी क्षुधा को शान्त कर आगे आने वाले नगर की ओर चल देता है। मार्ग में यमदूत भाले से प्रहार करते हैं, जिससे संत्रस्त होकर वह इस प्रकार विलाप करता है-

माता भ्राता पिता पुत्रः कोऽपि मे वर्तते न वा ।

यो मामुद्धरते पापं पतन्तं दुःखसागरे ॥ २,५.१२२ ॥

मेरे माता-पिता, भाई, पुत्र कोई है अथवा नहीं है, जो इस दुःख के सागर में गिरे हुए मुझ पापी का उद्धार कर सके।

व्रजतस्तत्र मार्गे तु तत्र वैतरणी शुभा ।

शतयोजनविस्तीर्णा पूयशोणितसंकुला ॥ २,५.१२३ ॥

आयाति तत्र दृश्यन्ते नाविका धीवरादयः ।

ते वदन्ति प्रदत्ता गौर्यदि वैतरणी त्वया ।

नावमेनां समारोह सुकेनोत्तर वै नदीम् ॥ २,५.१२४ ॥

तत्र येन प्रदत्ता गौः स सुखेनैव तां तरेत् ।

अदायी तत्र घृष्येत करग्राहन्तु नाविकैः ॥ २,५.१२५ ॥

उखैः काकैर्बकोलूकैस्तीक्ष्णतुण्डैर्वितुद्यते ।

मनुजानां हितं दानमन्ते वैतरणी खग ॥ २,५.१२६ ॥

दत्ता पापं दहेत्सर्वं मम लोकन्तु सा नयेत् ।

ऐसा विलाप करता हुआ वह जीव मार्ग में चलता रहता है उसी मार्ग में 'वैतरणी' नाम की एक नदी पड़ती है, जो सौ योजन चौड़ी है और रक्त तथा पीब से भरी हुई है। जैसे ही मृतक उस नदी के तट पर पहुँचता है, वैसे ही वहाँ पर नाववाले - मल्लाह आदि उसको देखकर यह कहते हैं कि यदि तुमने वैतरणी गौ का दान दिया है तो इस नाव पर सवार हो जाओ और सुखपूर्वक इस नदी को पार कर लो। जिसने वैतरणी नामक गौ का दान दिया है, वही सुखपूर्वक इस नदी को पार कर सकता है। जिस व्यक्ति ने वैतरणी गौ का दान नहीं दिया है, उसको नाविक हाथ पकड़कर घसीटते हुए ले जाते हैं। तेज और नुकीली चोंच से कौआ, बगुला तथा उलूक नामक पक्षी अपने प्रहार से उसे अत्यन्त व्यथित करते हैं। हे पक्षिन् ! अन्त समय आने पर मनुष्यों के लिये वैतरणी का दान ही हितकारी है। यदि प्राणी अपने जीवनकाल में वैतरणी नामक गौ का दान देता है तो वह गौ जीवनकाल में वैतरणी नामक गौ का दान देता है तो वह गौ समस्त पापों को विनष्ट कर देती है और उसको यमलोक न ले जाकर विष्णुलोक को पहुँचा देती है।

मप्तमे मासि सम्प्राप्ते पुरं बह्वापदं मृतः ॥ २,५.१२७ ॥

व्रजेत्तु सोदकं भुक्त्वा पिण्डं वै सप्तमासिकम् ।

व्रजन्नेवं विलपते परिघाहतिपीडितः ॥ २,५.१२८ ॥

सातवाँ मास आ जाने पर मृतक 'बह्वापद' नामक पुर में आ जाता है वहाँ पर सप्तमासिक सोदक पिण्ड का सेवन करके आगे बढ़ते हुए परिघ के आघात से पीड़ित होकर वह इस प्रकार विलाप करता है-

न दत्तं न हुतं तप्तं न स्नातं न कृतं हितम् ।

यादृशं चरितं कर्म मूढात्मन् भुङ्क्ष्व तादृशम् ॥ २,५.१२९ ॥

हे शरीर मैंने दान, आहुति, तप, तीर्थस्नान तथा परोपकार आदि सत्कृत्य जीवनपर्यन्त नहीं किया है। हे मूर्ख! अब जैसा तुमने कर्म किया है, वैसा ही भोग करो।

मास्यष्टमे दुः खदे तु परे भुक्त्वाथ सोदकम् ।

पिण्डं प्रयात्सयौ तार्क्ष्य नानाक्रन्दपुरं ततः ॥ २,५.१३० ॥

प्रयाणे च प्रवदते मुसलाघातपीडितः ।

हे तार्क्ष्य। इसके बाद वह जीव आठवें मास में 'दुःखदपुर' पहुँचता है। वहाँ स्वजनों के द्वारा दिये गये अष्टमासिक पिण्ड और जल का सेवन करके 'नानाक्रन्द' नामक पुर की ओर प्रस्थान कर देता है। मार्ग में चलते हुए मुसलाघात से पीड़ित होकर वह इस प्रकार विलाप करता है-

क्व जायाचटुलैश्चाटुपटुभिर्वचनैर्मम ॥ २,५.१३१ ॥

भोजनं भल्लभल्लीभिर्मुसलैश्च क्व मारणम् ।

हाय! कहाँ चंचल नेत्रोंवाली पत्नी के चापलूसी भरे वचनों के द्वारा किये गये मनोविनोदों के बीच मेरा भोजन होता था और कहाँ भाला बर्छियों तथा मुसलों के द्वारा मुझे मारा जा रहा है।

नवमे मासि दत्तं वै नानाक्रन्दपुरे ततः ॥ २,५.१३२ ॥

पिण्डमश्राति करुणं नानाक्रन्दान् करोत्यपि ।

दशमे मासि दत्तं वै सुतप्तभवनं ततः ॥ २,५.१३३ ॥

सरन्नेवं विलपते हलाहतिहतः पथि ।

इस प्रकार विलाप करता हुआ वह जीव नवें मास में 'नानाक्रन्दपुर पहुँच जाता है। तदनन्तर नवें मास में पुत्र द्वारा दिये गये पिण्ड का भोजन करके वह नाना प्रकार का विलाप करता है। तत्पश्चात् यमदूत दसवें मास में उसको सुतप्तभवन' ले जाते हैं। मार्ग में वे उसको हल से मारते-पीटते हैं, जिससे आहत होकर वह इस प्रकार विलाप करता है-

क्व सूनुपेशलकरैः पादसंवाहनं मम ॥ २,५.१३४ ॥

क्व दूतवज्रप्रतिमकैर्मत्पदकर्षणम् ।

हाय! कहाँ पुत्रों के कोमल-कोमल हाथों से मेरे पैर दाबे जाते थे और कहाँ आज इन यमदूतों के वज्रसदृश कठोर हाथों से पैर पकड़कर मुझे निर्दयतापूर्वक घसीटा जा रहा है।

दशमे मासि पिण्डादि तत्र भुक्त्वा प्रसर्पति ॥ २,५.१३५ ॥

मासे चैकादशे पूर्णे पुरं रौद्रं स गच्छति ।

गच्छन्नेव विलपते यथा पृष्ठे प्रपीडितः ॥ २,५.१३६ ॥

दसवें मास में वहाँ पर पिण्ड और जल का उपभोग करके वह (जीव) पुनः आगे की ओर सरकने लगता है। ग्यारहवाँ मास पूर्ण होते ही वह 'रौद्रपुर' पहुँच जाता है। मार्ग में यमदूत जैसे ही उसकी पीठ पर प्रहार करते हैं, वह चिल्लाते हुए इस प्रकार विलाप करता है-

क्वाहं सतूलीशयने परिवर्तन् क्षणे क्षणे ।

भटहस्तभ्रष्टयष्टिकृष्टपृष्ठः क्व वा पुनः ॥ २,५.१३७ ॥

कहाँ मैं रूई से बने हुए अत्यन्त कोमल गद्दे पर लेटकर प्रतिक्षण करवटें बदलता था और कहाँ आज यमदूतों के हाथों से निर्दयतापूर्वक मारी जा रही लाठियों के प्रहार से कटी पीठ से करवट बदल रहा हूँ।

क्षितौ दत्तञ्च पिण्डादि भुक्त्वा तत्र ततो व्रजेत् ।

पयोवर्षणमित्येतन्नामकं पुरमण्डज ॥ २,५.१३८ ॥

व्रजन्नेवं विलपते कुठारैर्मूर्ध्नि ताडितः ।

हे द्विज! इसके पश्चात् वह जीव पृथ्वी पर दिये गये जलसहित पिण्ड को खाकर 'पयोवर्षण' नामक नगर की ओर प्रस्थान करता है। रास्ते में यमदूत कुल्हाड़ी से उसके सिर पर प्रहार करते हैं। हताहत होकर वह इस प्रकार का विलाप करता है-

क्व भृत्यकोमलकरैर्गन्धतैलावसेचनम् ॥ २,५.१३९ ॥

क्व कीनाशानुगैः क्रोधात्कुठारैः शिरसि व्यथा ।

हाय! कहाँ भृत्यों के कोमल-कोमल हाथों से मेरे सिर पर सुवासित तेल की मालिश होती थी और कहाँ आज क्रोध से परिपूर्ण यमदूतों के हाथों से मेरे इस सिर पर कुल्हाड़ियों का प्रहार हो रहा है!

ऊनाब्दिकञ्च यच्छ्राद्धं तत्र भुङ्क्ते सुदुः खितः ॥ २,५.१४० ॥

संपूर्णे तु ततो वर्षे शीताढ्यं नगरं व्रजेत् ।

गच्छन्नेवं छुरिकया च्छिन्नजिह्वस्तु रोदिति ॥ २,५.१४१ ॥

इस पयोवर्षण नामक नगर में वह मृतक ऊनाब्दिक श्राद्ध का दुःखपूर्वक उपभोग करता है। तदनन्तर वर्ष बीतते ही वह 'शीताढ्य नगर की ओर चल देता है। मार्ग में बढ़ते हुए उस मृतक की जिह्वा को यमदूत छूरी से काट डालते हैं, जिससे दुःखित होकर वह इस प्रकार विलाप करता है-

प्रियालापैः क्व च रसमधुरत्वस्य वर्णनम् ।

उक्तमात्रेऽसिपत्रादिजिह्वाच्छेदः क्व चैव हि ॥ २,५.१४२ ॥

अरे! कहाँ परस्पर प्रिय वार्तालापों के द्वारा इस जिह्वा के रसमाधुर्य की प्रशंसा की जाती थी, कहाँ आज मुँह खोलने मात्र पर ही तलवार के समान तीक्ष्ण छूरी आदि के द्वारा मेरी उसी जिह्वा को काट दिया जा रहा है!

वार्षिकं पिण्डदानादि भुक्त्वा तत्र प्रसर्पति ।

बहुभीतिकरं तत्तत्पिण्डजं देवमास्थितः ॥ २,५.१४३ ॥

प्रकाशयति पाप्पानमात्मानञ्च विनिन्दति ।

योषिदप्येवमेतस्मिन्मार्गे वै परिदेवति ॥ २,५.१४४ ॥

ततो याम्यं नातिदूरे नगरं स हि गच्छति ।

चत्वारिंशद्योजनानि चतुर्युक्तानिविस्तृतम् ॥ २,५.१४५ ॥

त्रयोदश प्रतीहाराः श्रवणा नाम तत्र वै ।

श्रवणाकर्मतस्तुष्यन्त्यन्यथा क्रोधमाप्नुयुः ॥ २,५.१४६ ॥

ततस्तत्राशु रक्ताक्षं भिन्नाञ्जनचयोपमम् ।

मृत्युकालान्तकादीनां मध्ये पश्यति वै यमम् ॥ २,५.१४७ ॥

दंष्ट्राकरालवदनं भृकुटीदारुणाकृतिम् ।

विरूपैर्भोषणैर्वक्त्रैर्वृतं व्याधिशतैः प्रभुम् ॥ २,५.१४८ ॥

दण्डासक्तमहाबाहुं पाशहस्तं सुभैरवम् ।

तदनन्तर उसी नगर में वह मृतक वार्षिक पिण्डोदक तथा श्राद्ध में दिये गये अन्य पदार्थों का सेवन कर आगे की ओर बढ़ता है। पिण्डज शरीर में प्रविष्ट होकर वह 'बहुभीति' नामक नगर में जाता है। वह मार्ग में अपने पाप का प्रकाशन और स्वयं की निन्दा करता है। यमपुरी के इस मार्ग में स्त्री भी इसी इसी प्रकार का विलाप करती है। इसके बाद वह मृतक अत्यन्त निकट ही स्थित यमपुरी में जाता है। वह याम्यलोक चौवालीस योजन में विस्तृत है। उसमें श्रवण नामक तेरह प्रतीहार हैं। उन प्रतीहारों को श्रवणकर्म करने से प्रसन्नता होती है। अन्यथा वे क्रुद्ध होते हैं। ऐसे लोक में पहुँचने के पश्चात् प्राणी मृत्युकाल तथा अन्तक आदि के मध्य में स्थित क्रोध से लाल-लाल नेत्रोंवाले काले पहाड़ के समान भयंकर आकृति से युक्त यमराज को देखता है। विशाल दाँतों से उनका मुखमण्डल बड़ा ही भयानक लगता है। उनकी भू-भंगिमाएँ तनी रहती हैं, जिससे उनकी आकृति भयानक प्रतीत होती है। अत्यन्त विकृत मुखाकृतियों से युक्त सैकड़ों व्याधियाँ उनको चारों ओर से घेरे रहती हैं। उनके एक हाथ में दण्ड और दूसरे हाथ में भैरव पाश रहता है।

तन्निर्दिष्टां ततो जन्तुर्गतिं याति शुभाशुभाम् ॥ २,५.१४९ ॥

पापी पापां गतिं याति यथा ते कथितं पुरा ।

छत्रोपानहदातारो ये च वेश्मप्रदायकाः ॥ २,५.१५० ॥

ये तु पुण्यकृतस्तत्र ते पश्यन्ति यमं तदा ।

सौम्याकृतिं कुण्डलिनं मौलिमन्तं धृतश्रियम् ॥ २,५.१५१ ॥

यमलोक में पहुँचा हुआ जीव यम के द्वारा बतायी गयी शुभाशुभ गति को प्राप्त करता है जैसा मैंने तुमसे पहले कहा है, उसी प्रकार की पापात्मक गति पापी जीव को प्राप्त होती है। जो लोग छत्र, पादुका और घर का दान देते हैं, जो लोग पुण्यकर्म करते हैं, वे वहाँ पर पहुँचकर सौम्य स्वरूपवाले, कानों में कुण्डल और सिर पर मुकुट धारण किये हुए शोभासम्पन्न यमराज का दर्शन करते हैं।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ५

एकादशे द्वादशे हि षण्मासे आब्दिके तथा ।

विप्रान् बहून् भोजयेत्तत्र यन्महती क्षुधा ॥ २,५.१५२ ॥

जीवन् पुत्रकलत्रादिप्रदिष्टमितरैः खग ।

यो न साधयति स्वार्थमेवं पश्चाद्धिखिद्यते ॥ २,५.१५३ ॥

चूँकि वहाँ जीव को बहुत भूख लगती है, इसलिये एकादशाह, द्वादशाह, षण्मास तथा वार्षिक तिथि पर बहुत- से ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। हे खगश्रेष्ठ! जो व्यक्ति पुत्र, स्त्री तथा अन्य सगे-सम्बन्धियों के द्वारा कहे गये उनके स्वार्थ को ही जीवनपर्यन्त सिद्ध करता है और अपने परलोक को बनाने के लिये पुण्यकर्म नहीं करता, वही अन्त में कष्ट प्राप्त करता है।

एतत्ते सर्वमाख्यातं संयमिन्यां यथागति ।

प्रोक्तमावर्षकृत्यं ते किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ २,५.१५४ ॥

हे गरुड! मृत्यु के पश्चात् संयमनीपुर को जानेवाले प्राणी की जो गति होती है और वर्षपर्यन्त जो कृत्य किये जाते हैं, उसको मैंने कहा, अब और क्या सुनना चाहते हो?

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे वर्षकृत्य यमलोक मार्गयातनादि निरूपणं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 6

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