श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३४

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३४  

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३४ इष्टापूर्तकर्म की महिमा तथा और्ध्वदैहिक कृत्य, दस पिण्डदान से आतिवाहिक शरीर के निर्माण की प्रक्रिया, एकादशाहादि श्राद्ध का विधान, शय्यादान की महिमा एवं सपिण्डीकरण – श्राद्ध का स्वरूप का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३४

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 34

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प चौंतीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३४                     

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३४ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ३४                

श्रीकृष्ण उवाच ।

शृणु तार्क्ष्य यथान्यायं धर्माधर्म्स्य लक्षणम् ।

श्रीकृष्ण ने कहा- हे गरुड ! शास्त्र के अनुसार धर्म और अधर्म का जो लक्षण किया गया है, उसको तुम सुनो।

सुकृतं दुष्कृतं नॄणामग्रे धावति धावताम् ॥ २,३४.१ ॥

कृते तपः प्रशंसन्ति त्रेतायां ज्ञानसाधनम् ।

द्वापरे यज्ञदाने च दानमेकं कलौ युगे ॥ २,३४.२ ॥

गृहस्थानां स्मृतो धर्म उत्तमानां विचक्षणैः ।

इष्टापूर्ते स्वशक्त्या हि कुर्वतां नास्ति पातकम् ॥ २,३४.३ ॥

वृक्षस्तु रोपितो येन खनिकूपजलाशयाः ।

यममार्गे सुखं तस्य व्रजतो नितरां भवेत् ॥ २,३४.४ ॥

अग्नितापप्रदातारे यैः शीतपीडिते द्विजे ।

तप्यमानाः सुखं यान्ति सर्व कामैः प्रपूरिताः ॥ २,३४.५ ॥

सुवर्णमणिमुक्तादि वस्त्राण्याभरणानि च ।

तेन सर्वमिदं दत्तं येन दत्ता वसुन्धरा ॥ २,३४.६ ॥

यानियानि च भूतानि दत्तानि भुवि मानवैः ।

यमलोकपथे तानि तिष्ठन्त्येषां समीपतः ॥ २,३४.७ ॥

व्यञ्जनानि विचित्राणि भक्ष्यभोज्यानि यानि च ।

ददाति विधिना पुत्र प्रेते तदु पतिष्ठति ॥ २,३४.८ ॥

प्राणियों के आगे-आगे उनका सत्कर्म और दुष्कर्म दौड़ता है। विद्वानों ने कृत (सत्य) – युग में तप, त्रेतायुग में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और दान तथा कलियुग में एकमात्र दान की प्रशंसा की है। मनीषियों ने उत्तम प्रकृतिवाले गृहस्थजनों के लिये इस धर्म को स्वीकार किया है कि वे यथाशक्ति इष्टापूर्तकर्म* करें, उसके करने से उन्हें पातक नहीं होता । जो मनुष्य वृक्षारोपण करता है, गुफा, कुआँ और जलाशय खुदवाता है, उसको यममार्ग में चलते समय अत्यधिक सुख की प्राप्ति होती है। जो लोग ठंडक से पीड़ित ब्राह्मण को तापने के लिये अग्नि प्रदान करते हैं, वे सभी कामनाओं को पूर्ण करके अतिशीतल यमलोक के मार्ग में अग्नि तापते हुए सुखपूर्वक जाते हैं। जिस मनुष्य ने पृथ्वी का दान दिया है, उसने मानो स्वर्ण, मणि मुक्तादि बहुमूल्य रत्न, वस्त्र और आभूषणादि का सम्पूर्ण दान दे दिया । इस पृथ्वी पर मानव जो कुछ दान में देते हैं, वे सब दिये गये पदार्थ यमलोक के महापथ में उनके समीप उपस्थित रहते हैं। पुत्र विधिपूर्वक अपने मृत पिता के लिये नाना प्रकार के जिन सुन्दर भोज्य पदार्थों का दान देता है, वे सभी पिता को प्राप्त होते हैं ।

* तालाब, कुआँ आदि खुदवाना तथा देवालय, औषधालय आदि बनवाना 'इष्टापूर्तकर्म' है ।

आत्मा वै पुत्रनामास्ति पुत्रस्त्राता यमालये ।

तारयेत्पितरं घोरात्तेन पुत्त्रः प्रवक्ष्यते ॥ २,३४.९ ॥

आत्मा (शरीर) ही पुत्र के रूप में प्रकट होता है । वह पुत्र यमलोक में पिता का रक्षक है । घोर नरक से पिता का उद्धार वही करता है, इसलिये उसको पुत्र कहा जाता है ।

अतो देयञ्च पुत्रेण श्राद्धमाजी वितावधि ।

अतिवाहस्तदा प्रेतो भोगान् वै लभते हि सः ॥ २,३४.१० ॥

दह्यमानस्य प्रेतस्य स्वजनैर्यो जलाञ्जलिः ।

दीयते प्रेतरूपोऽसौ प्रीतो याति यमालये ॥ २,३४.११ ॥

अपक्वे मृन्मये पात्रे दुग्धं दत्तं दिनत्रयम् ।

काष्ठत्रयं गुणैर्बद्ध्वा प्रीत्यै रात्रौ चतुष्पथे ॥ २,३४.१२ ॥

प्रथमेऽह्नि द्वितीये च तृतीये च तथा खग ।

आकाशस्थं पिबेद्दुग्धं प्रेतो वायुवपुर्धरः ॥ २,३४.१३ ॥

चतुर्थे सञ्चयः कार्यः चतुर्थे?वापि साग्निके ।

अस्थिसञ्चयनं कार्यं दद्यादापाञ्जलिं ततः ॥ २,३४.१४ ॥

न पूर्वाह्ने न मध्याह्ने नापराह्ने न सन्धिषु ।

याते प्रथमयामे तु दद्यादापजलाञ्जंलीन् ॥ २,३४.१५ ॥

पुत्त्रेण दत्ते ते सर्वे गोत्रिणो हितबान्धवाः ।

स्वजात्यैः परजात्यैश्च देयो नद्यां जलाञ्जलिः ॥ २,३४.१६ ॥

गन्तव्यं नैव विप्रेण दातुं शीघ्रं जलाञ्जलिम् ।

निवृत्ताश्च यदा नार्यो लोकाचारः सदाभवेत् ॥ २,३४.१७ ॥

अतः पुत्र को पिता के लिये आजीवन श्राद्ध करना चाहिये, तभी वह अतिवाहात्मक प्रेतरूप पिता पुत्र द्वारा दान में दिये गये पदार्थों के भोगों से सुख प्राप्त करता है। दग्ध हुए प्रेत के निमित्त परिजनों के द्वारा जो जलाञ्जलि दी जाती है, उससे प्रसन्न होकर वह प्रेत यमलोक में जाता है। प्रेत की संतृप्ति के लिये तीन दिन तक रात्रि में एक चौराहे पर रस्सी बाँधकर तीन लकड़ियों के द्वारा बनायी गयी तिगोड़िया के ऊपर कच्ची मिट्टी के पात्र में दूध भरकर रखना चाहिये। हे पक्षिन् ! वायुभूत वह प्रेत मृत्यु के दिन से लेकर तीन दिन तक आकाश में स्थित उस दूध का पान करता है । दाह से चौथे दिन अस्थि- संचय का कार्य करना चाहिये ।* उसके बाद जलाञ्जलि प्रदान करे, किंतु इन जलाञ्जलियों को पूर्वाह्ण, मध्याह्न, अपराह्न तथा उनकी संधिकालों में न दे, बल्कि दिन के प्रथम प्रहर के बीत जाने पर दे। नदी में पुत्र के द्वारा जलाञ्जलि दिये जाने के पश्चात् सभी सगोत्री, हितैषी और बन्धु-बान्धव-स्वजातियों तथा परजातियों के साथ जलदान करें। किसी भी कारण शीघ्रतावश मुख्य अधिकारी पुत्र के जलाञ्जलि देने के पूर्व ही जलाञ्जलि नहीं देनी चाहिये। जब स्त्रियाँ श्मशानभूमि से वापस हो जायँ तभी लोकाचार किया जाय ।

* अस्थि संचयन के विषय में संवर्त-वचन के अनुसार-

(क)  प्रथमेऽह्नि तृतीये वा सप्तमे नवमे तथा । अस्थिसञ्चयनं कार्य दिने तद्गोत्रजैः सह ॥

(ख) अपरेद्युस्तृतीये वा दाहानन्तरमेव वा ।

प्रथम दिन, तृतीय, सप्तम अथवा नवम दिन या दाह के पश्चात् ही चिता को जल से शान्त करके अपने गोत्रवालों के साथ अस्थि- संचयन करना चाहिये ।

पञ्चत्वञ्च गते शूद्रे यः काष्ठं नयते चिताम् ।

अनुव्रजेद्यदा विप्रस्त्रिरात्रमशुचिर्भवेत् ॥ २,३४.१८ ॥

त्रिरात्रे च ततः पूर्णे नदीं गच्छेत्समुद्रगाम् ।

प्राणायामशतं कृत्वा घृतं प्राश्य विशुध्यति ॥ २,३४.१९ ॥

शूद्रो गच्छति सर्वत्र वैश्यस्त्रिषु द्वयोः परः ।

गच्छति स्वीयवर्णेषु दातुं प्रेते जलाञ्जलिम् ॥ २,३४.२० ॥

शूद्र की मृत्यु हो जाने पर जो ब्राह्मण उसकी चिता के लिये लकड़ी लेकर जाता है अथवा उसके पीछे-पीछे चलता है, वह तीन रात्रियों तक अशुद्ध रहता है। तीन रात्रियों के पश्चात् समुद्र में मिलनेवाली गङ्गा आदि पवित्र नदी के तट पर पहुँचकर वह स्नान करे । तदनन्तर सौ प्राणायाम करके गोघृत का प्राशन करे, तब उसकी शुद्धि होती है। शूद्र सभी वर्णों के शवों का अनुगमन कर उन्हें जलाञ्जलि दे सकता है, वैश्य तीन वर्गों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ) - के शवों का अनुगमन कर उन्हें जलाञ्जलि दे सकता है, क्षत्रिय दो वर्णों (ब्राह्मण और क्षत्रिय) - के शवों का अनुगमन कर उन्हें जलाञ्जलि दे सकता है और ब्राह्मण केवल अपने ही वर्ण के शव का अनुगमन कर उसे जलाञ्जलि दे सकता है।*

* इसका तात्पर्य यह है कि इस व्यवस्था के अनुसार शव का अनुगमन करने में किसी विशेष प्रकार की अशुचिता एवं उसकी शुद्धि के लिये किसी विशेष प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं होती। किसी तरह के आपत्काल में अथवा लोकसंग्रह की दृष्टि से या अन्य किसी सहायक के अनुपलब्ध होने पर जिस किसी भी जाति के शव की अन्त्येष्टि के लिये यथोचित सहयोग सबको ही करना चाहिये और ऐसा करने पर शास्त्रीय व्यवस्था के अनुसार अशुचिता के निराकरण के लिये यथाविधान प्रायश्चित्त भी कर लेना चाहिये।

दत्ते जलाञ्जलौ पश्चाद्विदध्याद्दन्तधावनम् ।

त्यजन्ति गोत्रिणः सर्वे दिनानि नव काश्यप ॥ २,३४.२१ ॥

जलाञ्जलिं तथा दातुं गच्छन्ति द्विजसत्तमाः ।

यत्र स्थाने मृतो यस्तु अध्वन्यपि गृहेऽपि वा ।

विश्लेषस्तु ततः स्थानान्न क्वचिद्विहितो बुधैः ॥ २,३४.२२ ॥

स्त्रीजनश्चाग्रतो गच्छेत्पृष्ठतो नवसञ्चयः ।

आचमनं विधातव्यं पाषाणोपरि संस्थितैः ॥ २,३४.२३ ॥

यवांश्च सर्षपान् दूर्वाः पूर्णपात्रे विलोकयेत् ।

प्राशयेन्निम्बपत्राणि स्नेहस्नानं समाचरेत् ॥ २,३४.२४ ॥

गोत्रिभिर्न च कर्तव्यं गृहान्नञ्च न भोजयेत् ।

भुञ्जीत मृन्मये पात्रे उत्तानञ्च विवर्जयेत् ॥ २,३४.२५ ॥

मृतकस्य गुणा ग्राह्या यमगाथां समुद्गिरेत् ।

शुभाशुभे च ध्यातव्ये पूर्वकर्मोपसञ्चिते ॥ २,३४.२६ ॥

हे काश्यप ! जलाञ्जलि देने के पश्चात् दन्तधावन करना चाहिये। सभी सगोत्री नौ दिनों तक दन्तधावन का परित्याग कर देते हैं तथा यथाविधान नौ दिन तक जलाञ्जलि देने के लिये जलाशय पर जाते हैं। विद्वानों का कहना है कि जो भी मनुष्य जिस स्थान, मार्ग अथवा घर में मृत्यु को प्राप्त करता है, उसको वहाँ से श्मशानभूमि के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र नहीं ले जाना चाहिये। दाह-संस्कार के पश्चात् स्त्रियों को आगे-आगे चलना चाहिये। उनके पीछे-पीछे अन्य व्यक्तियों के समूह को चलना चाहिये । वहाँ से आने के बाद उन सभी को एक पत्थर के ऊपर बैठकर आचमन करना चाहिये । तत्पश्चात् वे पूर्णपात्र में रखी गयी यव, सरसों और दूर्वा का दर्शन करें, नीम की पत्तियों का प्राशन करें तथा तेल लगाकर स्नान करें। सगोत्रियों में जिनके यहाँ मृत्यु हुई है, उनका भोजन नहीं करना चाहिये। अपने घर का अन्न नहीं खाना चाहिये और न ही खिलाना चाहिये। भोजन करने में मृत्पात्र का प्रयोग करना चाहिये एवं उस उच्छिष्ट पात्र को ऊपर मुख करके ही एकान्त स्थान में रख देना चाहिये। मृतक के गुणों का कीर्तन करे, 'यमगाथा' का पाठ करे और पूर्वजन्म में संचित शुभाशुभ का चिन्तन करे ।

लब्धेनैव च देहेन भुङ्क्ते सुकृतदुष्कृते ।

वायुरूपो भ्रमत्येव वायुरूर्ध्वं स गच्छति ॥ २,३४.२७ ॥

दशाहकर्मक्रियया कुटी निष्पाद्यते ध्रुवम् ।

नवकैः षोडशश्राद्धैः प्रयाति हि कुटीं नरः ॥ २,३४.२८ ॥

तिलैर्दर्भैश्च भूम्यां वै कुटी धातुमयी भवेत् ।

पञ्च रत्नानि वक्त्रे तु येन जीवः प्ररोहति ॥ २,३४.२९ ॥

यदा पुष्पं प्रनष्टं हि तदा गर्भं न धारयेत् ।

आदराच्च ततो भूमौ तिलदर्भान्विनिः क्षिपेत् ॥ २,३४.३० ॥

वह मृत प्राणी वायुरूप धारण करके इधर-उधर भटकता है और वायुरूप होने से ऊपर की ओर जाता है। वह प्राप्त हुए शरीर के द्वारा ही अपने पुण्य और पाप के फलों का भोग करता है । दशाह - कर्म करने से मृत मनुष्य के लिये शरीर का निर्माण होता है। नवक एवं षोडश श्राद्ध करने से जीव उस शरीर में प्रवेश करता है । भूमि पर तिल और कुश का निक्षेप करने पर वह कुटी धातुमयी हो जाती है। मरणासन्न प्राणी के मुख में पञ्चरत्न डाल देने से जीव ऊपर की ओर चल देता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो जीव को शरीर नहीं मिल पाता अर्थात् वह इधर-उधर भटकता रहता है। इसलिये आदरपूर्वक भूमि पर तिल और दर्भ को बिछाना चाहिये ।

पशुत्वे स्थावरत्वे च यत्र क्वापि स जायते ।

तत्रैव जन्तुरुत्पन्नः श्राद्धं तत्रोपतिष्ठति ॥ २,३४.३१ ॥

धन्विना लक्ष्यमुद्दिश्य मुक्तो बाणस्तदाप्नुयात् ।

यथा श्राद्धं यमुद्दिश्य कृतं तस्योपतिष्ठति ॥ २,३४.३२ ॥

यावन्नोत्पादितो देहस्तावच्छ्राद्धैर्न प्रीणनम् ।

क्षुधाविभ्रममापन्नो दशाहेन च तर्पितः ॥ २,३४.३३ ॥

पिण्डदानं न यस्याभूदाकाशे भ्रमते तु सः ।

जीव जहाँ-कहीं भी पशु या स्थावरयोनि में जन्म लेता है, जहाँ वह रहता है, वहीं पर उसके उद्देश्य से दी गयी श्राद्धीय वस्तु पहुँच जाती है। जिस प्रकार धनुर्धारी के द्वारा लक्ष्यवेध के लिये छोड़ा गया बाण उसी लक्ष्य को प्राप्त करता है, जो उसको अभीष्ट है; उसी प्रकार जिसके निमित्त श्राद्ध किया जाता है, वह उसीके पास पहुँच जाता है। जबतक मृतक के सूक्ष्म शरीर का निर्माण नहीं होता है, तबतक किये गये श्राद्धों से उसकी संतृप्ति नहीं होती है। भूख-प्यास से व्यथित होकर वायुमण्डल में इधर-उधर चक्कर काटता हुआ वह जीवात्मा, दशाह के श्राद्ध से संतृप्त होता है। जिस मृतक का पिण्डदान नहीं हुआ है, वह आकाश में भटकता ही रहता है।

दिनत्रयं वसंस्तोये अग्नावपि दिनत्रयम् ।

आकाशे वसते त्रीणि दिनमेकन्तु वासके ॥ २,३४.३४ ॥

वह क्रमशः - तीन दिन जल, तीन दिन अग्नि, तीन दिन आकाश और एक दिन ( अपने प्रिय जनों के ममतावश ) अपने घर में निवास करता है।

दग्धे देहे च वह्नौ च जलेनैव तु तर्पितः ।

स्नेहस्नानं जलेनैव पूपकैः कृशरैर्गृहे ॥ २,३४.३५ ॥

प्रथमेऽह्नि तृतीये च पञ्चमे सप्तमेऽपि वा ।

नवमैकादशे चैव श्राद्धं नवकमुच्यते ॥ २,३४.३६ ॥

गृहद्वारे श्मशाने वा तीर्थे देवालयेऽपि वा ।

यत्राद्यो दीयते पिण्डस्तत्र सर्वान् समापयेत् ॥ २,३४.३७ ॥

एकादशाहे यच्छ्राद्धं तत्सामान्यमुदाहृतम् ।

चतुर्णामेकवर्णानां शुद्ध्यर्थं स्नानमुच्यते ॥ २,३४.३८ ॥

कृत्वा चैकादशाहञ्च पुनः स्नात्वा शुचिर्भवेत् ।

दद्याद्विप्राय यः शय्यां यथोक्तं प्रेतमोक्षदाम् ॥ २,३४.३९ ॥

न भवेत्यदा स गोत्रो परोऽपि विधिमाचरेत् ।

भार्या वा पुरुषः कश्चित्तुष्टश्च कुरुते स्त्रियः ॥ २,३४.४० ॥

प्रथमेऽहनि यः पिण्डो दीयते विधिपूर्वकम् ।

अन्नाद्येन च तेनैव सर्वश्राद्धानि कारयेत् ॥ २,३४.४१ ॥

अमन्त्रं कारयेच्छ्राद्धं दशाहं नामगोत्रतः ।

श्राद्धं कृतन्तु यैर्वस्त्रैस्तानि त्यक्त्वा गृहं विशेत् ॥ २,३४.४२ ॥

असगोत्रः सगोत्रो वा यदि स्त्री यदि वा पुमान् ।

प्रथमेऽहनि यः कुर्यात्स दशाहं समापयेत् ॥ २,३४.४३ ॥

अग्नि में शरीर के भस्म हो जाने पर प्रेतात्मा को जल से ही तृप्त करना चाहिये । इसके बाद जल से ही उसकी तेल-स्नान की क्रिया पूर्ण करे तथा घर में पूआ और कृशर अन्न से श्राद्ध करे । मृत्यु के पहले, तीसरे, पाँचवें, सातवें, नवें अथवा ग्यारहवें दिन जो श्राद्ध होता है, उसको नवक श्राद्ध कहा जाता है। गृहद्वार, श्मशान, तीर्थ या देवालय अथवा जहाँ-कहीं भी प्रथम पिण्डदान दिया जाता है, वहीं पर अन्य सभी पिण्डदान करने चाहिये । एकादशाह के दिन जिस श्राद्ध को करने का विधान है, उसको सामान्य श्राद्ध कहा गया है। ब्राह्मणादि चारों वर्णों की शरीर शुद्धि के लिये स्नान ही एकमात्र साधन है। एकादशाह-संस्कार के पूर्ण हो जाने के पश्चात् पुनः स्नान करके शुद्ध होना चाहिये । अनन्तर शय्यादान करना चाहिये, क्योंकि शय्यादान से प्रेत को मुक्ति मिलती है । यदि प्रेत का कोई सगोत्री न हो तो उसके अन्त्येष्टि कार्य को किसी और को करना चाहिये अथवा उसकी भार्या करे या किसी ऐसे पुरुष को करना चाहिये, जो मृत व्यक्ति से तुष्ट अर्थात् उसके सद्व्यवहार से उपकृत हो। पहले दिन विधिपूर्वक श्राद्ध योग्य जिस अन्नादि से पिण्डदान दिया जाता है, उसी अन्नादि से सभी श्राद्ध करने चाहिये।  दशाह – श्राद्ध का कर्म मन्त्रों का प्रयोग बिना किये ही नाम गोत्रोच्चार से हो जाता है । जिन वस्त्रों को धारण करके संस्कर्ता श्राद्धकर्म करता है, अशौच का दिन बीतने के बाद उन्हें त्याग करके ही घर में प्रविष्ट होना चाहिये। पहले दिन जो और्ध्वदैहिक कर्म आरम्भ करे, उसी को दस दिन तक समस्त श्राद्धकृत्य सम्पन्न करना चाहिये। वह क्रिया करनेवाला चाहे सगोत्री हो या दूसरे गोत्र से सम्बन्धित हो, स्त्री हो अथवा पुरुष हो ।

जीवस्य दशभिः पिण्डैर्देहो निष्पाद्यते ध्रुवम् ।

वृद्धिश्च दशभिर्मासैर्गर्भस्थस्य यथा भवेत् ॥ २,३४.४४ ॥

आशौचं यावदेतस्य तावत्पिण्डोदकक्रिया ।

चतुर्णामपि वर्णानामेष एव विधिः स्मृतः ॥ २,३४.४५ ॥

यत्र त्रिरात्रमाशौचं तत्रादौ त्रीन् प्रदापयेत् ।

चतुरस्तु द्वितीयेऽह्नि तृतीये त्रींश्तथैव च ॥ २,३४.४६ ॥

पृथक्शरावयोर्दद्यादेकाहं क्षीरमम्बु च ।

एकोद्दिष्टन्तु वै श्राद्धं चतुर्थेऽहनि कारयेत् ॥ २,३४.४७ ॥

जिस प्रकार गर्भ में स्थित प्राणी शरीर का पूर्ण विकास दस मास में होता है, उसी प्रकार दस दिन तक दिये गये पिण्डदान से जीव के उस शरीर की संरचना होती है जिस शरीर से उसे यमलोक आदि की यात्रा करनी है। जबतक घर में इसका अशौच होता है, तबतक पिण्डोदक-क्रिया करनी चाहिये। यह विधि ब्राह्मणादि चारों वर्णों के लिये मानी गयी है । पुत्र के अभाव में जिनके लिये अशौच तीन रातों का ही माना जाता है, वे पहले दिन तीन, दूसरे दिन चार और तीसरे दिन तीन पिण्डदान करें । प्रेत के लिये पृथक् पृथक् मिट्टी के पात्र में दूध तथा जल और चौथे दिन उसे एकोद्दिष्ट - श्राद्ध करना चाहिये ।

प्रथमेऽहनि यः पिण्डस्तेन मूर्धा प्रजायते ।

चक्षुः श्रोत्रञ्च नासा च द्वितीयेऽह्नि प्रजायते ॥ २,३४.४८ ॥

गण्डौ वक्त्रं तथा ग्रीवा तृतीयेऽहनि जायते ।

हृदयं कुक्षिरुदरं चतुर्थे तद्वदेव हि ॥ २,३४.४९ ॥

कटिपृष्ठं गुदञ्चापि पञ्चमेऽहनि जायते ।

षष्ठे ऊरू च विज्ञेये सप्तमे गुल्फसम्भवः ॥ २,३४.५० ॥

अष्टमे दिवसे प्राप्ते जङ्घे च भवतोऽण्डज ।

पादौ च नवमे ज्ञेयौ दशमे बलवत्क्षुधा ॥ २,३४.५१ ॥

हे अण्डज ! पहले दिन जो पिण्डदान दिया जाता है, उससे जीव की मूर्द्धा का निर्माण होता है । दूसरे दिन के पिण्डदान से आँख, कान और नाक की रचना होती है। तीसरे दिन के पिण्डदान द्वारा दोनों गण्डस्थल, मुख तथा ग्रीवाभाग बनकर तैयार होता है । उसी प्रकार चौथे दिन उसके हृदय, कुक्षिप्रदेश एवं उदरभाग, पाँचवें दिन कटिप्रदेश, पीठ और गुदा का आविर्भाव होता है। तत्पश्चात् छठे दिन उसके दोनों ऊरु, सातवें दिन गुल्फ, आठवें दिन जंघा, नौवें दिन पैर तथा दसवें दिन पिण्डदान देने से प्रबल क्षुधा की उत्पत्ति होती है।

एकादशाहे यः पिण्डस्तं दद्यादामिषेण तु ।

सिद्धान्नं तस्य दातव्यं कृशराः पूपकाः पयः ।

प्रक्षाल्य विप्रचरणावर्घ्यं धूपञ्च दीपक्रम् ॥ २,३४.५२ ॥

एकादशाह में जो पिण्डदान होता है, उसको पायस आदि मधुर अन्नसहित प्रदान करें । निमन्त्रित ब्राह्मण के दोनों पैर धोकर तथा उन्हें अर्घ्य, धूप, दीपादि से पूजकर और सिद्धान्न, कृशर, अपूप एवं दूध आदि से परिपूर्ण भोजन कराकर संतृप्त किया जाय।

द्वादश प्रतिमास्यानि श्राद्धान्यैकादशे तथा ।

त्रिपक्षञ्चापि षण्मासे द्वे श्राद्धानि च षोडश ॥ २,३४.५३ ॥

द्वादश मासिक श्राद्ध तथा ऊनमासिक, त्रिपाक्षिक, ऊनषाण्मासिक तथा ऊनाब्दिक- ये षोडश श्राद्ध कहे जाते हैं। ( ग्यारहवें दिन इन श्राद्धों को करने की विधि है ।)

प्रति मासं प्रदातव्यं मृताहे या तिथिर्भवेत् ।

स मासः प्रथमो ज्ञेय इति वेदविदो विदुः ॥ २,३४.५४ ॥

शवहस्ते च यच्छ्राद्धं मृतिस्थाने द्विजासने ।

तदेव प्रथमं श्राद्धं तत्स्यादेकादशेऽहनि ॥ २,३४.५५ ॥

सा तिथिर्मासिके श्राद्धे मृतो यस्मिन् दिने नरः ।

रिक्तयोश्च त्रिपक्षे च सा तिथिर्नाद्रियेत वै ॥ २,३४.५६ ॥

पौर्णमास्यां मृतो योऽसौ चतुर्थी तस्य चोनका ।

चतुर्थ्यान्तु मृतो यस्तु नवमी तस्य चोनका ॥ २,३४.५७ ॥

नवम्याञ्च मृतो यश्च रिक्ता तस्य चतुर्दशी ।

एता रिक्ताश्च विज्ञेया अन्त्येष्टौ कुशलेन च ॥ २,३४.५८ ॥

प्राणी की जो मृत्यु- तिथि हो, उसी तिथि पर प्रतिमास श्राद्ध करना चाहिये । प्रथम मासिक श्राद्ध मृताह के दिन न करके एकादशाह के दिन करना चाहिये । जिस तिथि को मनुष्य मरता है, वही तिथि (अन्य ) मासिक श्राद्ध के लिये प्रशस्त होती है। ऊनमासिक, ऊनषाण्मासिक और ऊनाब्दिक तथा त्रिपाक्षिकइन श्राद्धों के लिये मृत्यु – तिथि का विचार नहीं करना चाहिये । उदाहरणार्थ- पूर्णिमा तिथि में जो व्यक्ति मरता है, उसके लिये अगली चतुर्थी तिथि को ऊनमासिक श्राद्ध करना चाहिये। जिसकी मृत्यु चतुर्थी तिथि को होती है, उसके लिये ऊनमासिक श्राद्ध नवमी को होना चाहिये और जो मनुष्य नवमी तिथि को मरता है, उसके लिये चतुर्दशी ऊनमासिक श्राद्ध की तिथि है । अतः अन्त्येष्टि – कर्म कुशल विद्वान्‌ को यह जान लेना चाहिये कि ये सभी तिथियाँ यथाविहित मृत्यु-तिथि के अनुसार रिक्ता ही होंगी।

एकादशाहे यच्छ्राद्धं नवकं तत्प्रकीर्तितम् ।

चतुष्पथे त्यजेदन्नं पुनः स्नानं समाचरेत् ॥ २,३४.५९ ॥

एकादशाहादारभ्य घटस्यान्नं जलान्वितम् ।

दिनेदिने च दातव्यमब्दं यावद्द्विजोत्तमे ॥ २,३४.६० ॥

मानुषस्य शरीरे तु विद्यते ह्यस्थिसञ्चयः ।

तत्संख्यः सर्वदेहेषु षष्ट्यधिकशतत्रयम् ॥ २,३४.६१ ॥

उदकुम्भेन पुष्टानि तान्यस्थीनि भवन्ति हि ।

एतस्माद्दीयते कुम्भः प्रीतिः प्रेतस्य जायते ॥ २,३४.६२ ॥

यस्मिन् दिने मृतो जन्तुरटव्यां विषमेऽपि वा ।

यदा तदा भवेद्दाहः सूतकं मृतवासरात् ॥ २,३४.६३ ॥

एकादशाह को जो श्राद्ध किया जाता है, उसका नाम नवक है। इस दिन चौराहे पर प्रेत के निमित्त भोजन रख करके श्राद्धकर्ता पुनः स्नान करे । एकादशाह से वर्षपर्यन्त श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रतिदिन सान्नोदक घट का दान करना चाहिये। मानव- शरीर में जो अस्थियों का एक समूह विद्यमान है, जिसमें उनकी कुल संख्या तीन सौ साठ है। जलपूर्ण घट का दान देने से उन अस्थियों को पुष्टि मिलती है। इसलिये जो घट-दान दिया जाता है, उससे प्रेत को प्रसन्नता प्राप्त होती है। जंगल या किसी विषम परिस्थिति में जीव की मृत्यु जिस दिन होती है, उस दिन से घर में सूतक होता है और उसी के अनुसार दशाहादि क्रियाएँ करनी चाहिये, दाह-संस्कार जब कभी भी हो ।

तिलपात्रं तथान्नाद्यं गन्धधपादिकञ्च यत् ।

एकादशाहे दातव्यं तेन शूद्धो द्विजो भवेत् ॥ २,३४.६४ ॥

क्षत्त्रियो द्वादशाहे तु वैश्यः पञ्चदशे तथा ।

शुद्धिः शूद्रस्य मासेन मृतके जातसूतके ॥ २,३४.६५ ॥

मासत्रये त्रिरात्रं स्यात्षण्मासेन तु पक्षिणी ।

अहः संवत्सरादर्ब्वाक्पूर्णे दत्त्वोदकं शुचिः ।

अनेनैवा नुसारेण शुद्धिः स्यात्सार्ववर्णिकी ॥ २,३४.६६ ॥

तिलपात्र, अन्नादिक भोज्यपदार्थ, गन्ध, धूपादि एवं पूजन-सामग्री का जो दान है, उसको एकादशाह में देना चाहिये। उससे ब्राह्मण की शुद्धि होती है । मृत्यु और जन्म में घर में होनेवाले सूतक से क्रमश:- क्षत्रिय बारहवें दिन, वैश्य पंद्रहवें दिन तथा शूद्र एक मास में शुद्ध होता है । मृत्यु के तीन मास होने पर त्रिरात्र, छः मास होने पर पक्षिणी, संवत्सर पूर्ण होने से पूर्व अहोरात्र तथा संवत्सर पूर्ण होने पर जलदान की क्रिया करने से शुद्धि होती है । इसी के अनुसार सभी वर्णों की शुद्धि होती है। कलियुग में सूतक की समाप्ति दशाह में ही है।

एकादशाहप्रभृति पुरतः प्रतिवत्सरम् ।

विश्वेदेवांस्तु सम्पूज्य पिण्डमेकञ्च निर्वपेत् ॥ २,३४.६७ ॥

यथा तारागणाः सर्वे च्छाद्यन्ते रविरश्मिभिः ।

एवं प्रच्छाद्यते सर्वं न प्रेतो भवति क्वचित् ॥ २,३४.६८ ॥

एकादशाह से * लेकर सांवत्सरिक आदि सभी श्राद्धों के अवसर पर विश्वेदेवों की पूजा करके अन्य पिण्डदान करना चाहिये। जैसे सूर्य की किरणें अपने तेज से सभी तारागणों को ढक देती हैं, उसी प्रकार प्रेतत्व पर इन क्रियाओं का आच्छादन होने से भविष्य में पुनः प्रेतत्व नहीं मिलता है। अतः सपिण्डन के अनन्तर कहीं 'प्रेत' शब्द प्रयोग नहीं होता ।

* एकादशाह – श्राद्ध के अनन्तर वर्षपर्यन्त किया जानेवाला एकोद्दिष्ट श्राद्ध तथा प्रति सांवत्सरिक एकोद्दिष्ट- श्राद्ध विश्वेदेव पूजन पूर्वक करने की परम्परा नहीं है।

शय्यादानं प्रशंसन्ति सर्वदैव द्विजोत्तमाः ।

अनित्यं जीवनं य्समात्पश्चात्को नु प्रदास्यति ॥ २,३४.६९ ॥

तावद्वन्धुः पिता तावद्यावज्जीवति मानवः ।

मृते मृत इति ज्ञात्वा क्षणात्स्नेहो निवर्तते ॥ २,३४.७० ॥

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरेवं ज्ञात्वा मुहुर्मुहुः ।

जीवन्नपीति सञ्चिन्त्य स्वीयं हितमनुस्तमरेत् ॥ २,३४.७१ ॥

मृतानां कः सुतो दद्याद्द्विजेशय्यां सतूलिकाम् ।

एवं जानन्निदं सर्वं स्वहस्तेनैव दापयेत् ॥ २,३४.७२ ॥

तस्माच्छय्यां समासाद्य सारदारुमर्यो दृढाम् ।

दन्तादिरुचिरां रम्यां हेमपट्टै रलङ्कृताम् ।

तस्यां संस्थाप्य हैमञ्च हरिं लक्ष्म्या समन्वितम् ॥ २,३४.७३ ॥

घृतपूर्णञ्च कलशं परिकल्पयेत् ।

विज्ञेयो गरुड प्रीत्यै स निद्राकलशो बुधैः ॥ २,३४.७४ ॥

ताम्बूलकुङ्कुमक्षोदकर्पूरागुरुचन्दनम् ।

दीपिकोपानहच्छत्रचामरासनभाजनम् ॥ २,३४.७५ ॥

पार्श्वेषु स्थापयेच्छक्त्या सप्तधान्यानि चैवहि ।

शयनस्थस्य भवति यच्चान्यदुपकारकम् ॥ २,३४.७६ ॥

भृङ्गारकरकादर्शं पञ्चवर्णं वितानकम् ।

शय्यामेवंविधां कृत्वा ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥ २,३४.७७ ॥

श्रेष्ठ ब्राह्मण सर्वदा शय्यादान की प्रशंसा करते हैं। यह जीवन अनित्य है, उसे मृत्यु के बाद कौन प्रदान करेगा ? जबतक यह जीवन है, तबतक अपने बन्धु बान्धव हैं और अपने पिता हैं । मृत्यु हो जाने पर यह मर गया है, ऐसा जान करके क्षणभर में ही वे अपने हृदय से स्नेह को दूर कर देते हैं। इसलिये आत्मा ही अपना बन्धु है, ऐसा बारम्बार विचार करके जीते हुए ही अपने हित के कार्य कर लेना चाहिये । इस संसार में मरे हुए प्राणी का कौन पुत्र है, जो बिस्तर के सहित शय्या का दान ब्राह्मण को दे सकता है ? ऐसा सब कुछ जानते हुए मनुष्य को अपने जीवनकाल में ही अपने हाथों से शय्यादानादि सभी दान कर देना चाहिये । अतः अच्छी एवं मजबूत लकड़ी की सुन्दर शय्या बनवा करके उसे हाथी के दाँत तथा सोने की पट्टियों से अलंकृत करके उस शय्या के ऊपर लक्ष्मी के सहित विष्णु की स्वर्णमयी प्रतिमा को स्थापित करे । उसके बाद उसी शय्या संनिकट घी से परिपूर्ण कलश रखे। हे गरुड! वह कलश अपने सुख के लिये ही होता है। विद्वानों ने तो उसको निद्राकलश कहा है। ताम्बूल, केशर, कुंकुम, कपूर, अगुरु, चन्दन, दीपक, पादुका, छत्र, चामर, आसन, पात्र तथा यथाशक्ति सप्तधान्य उसी शय्या के बगल में स्थापित करे। इन वस्तुओं के अतिरिक्त शयन करनेवाले के लिये जो अन्य उपयोगी वस्तु हो, उसको भी वहाँ रखे। सोने-चाँदी या अन्य धातु से बनी झारी, करक (करवा), दर्पण और पञ्चरंगी चाँदनी से उस शय्या को संयुक्त करके उसे ब्राह्मण को दान दे दे।

सपत्नीकाय सम्पूज्य स्वर्लोकसुखदायिनीम् ।

वस्त्रैः सुशोभनैः पूज्य चैलकं परिधापयेत् ॥ २,३४.७८ ॥

कर्णकण्ठाङ्गुलीबाहुभूषणैश्चित्रभूषणैः ।

गृहोपकरणैर्युक्तं गृहं धेन्वा समन्वितम् ॥ २,३४.७९ ॥

ततोर्ऽघः सम्प्रदातव्यः पञ्चरत्नफलाक्षतैः ॥ २,३४.८० ॥

कल्याण के लिये यजमान स्वर्ग में सुख प्रदान करनेवाली शय्या की विधिवत् रचना करके सपत्नीक द्विज-दम्पति की पूजा करके उसका दान करे । कर्णफूल, कण्ठहार, अंगूठी, भुजबंद तथा चित्रकादि आभूषण एवं गौ से युक्त घरेलू उपकरणों से परिपूर्ण घर उसको दान में दे । तदनन्तर पञ्चरत्न, फल और अक्षत से समन्वित अर्घ्य उस ब्राह्मण को देकर यह प्रार्थना करनी चाहिये-

यथा न कृष्णशयनं शून्यं सागरकन्यया ।

शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथा जन्मनि जन्मनि ॥ २,३४.८१ ॥

जिस प्रकार समुद्र की पुत्री लक्ष्मी से भगवान् विष्णु की शय्या शून्य नहीं होती है, उसी प्रकार जन्म-जन्मान्तर में मेरी शय्या भी शून्य न हो ।

दत्त्वैवं तल्पममलं क्षमाप्य च विसर्जयेत् ।

तथा चैकादशाहे तु विधिरेष प्रकीर्तितः ॥ २,३४.८२ ॥

इस प्रकार ब्राह्मण को उस निर्मल शय्या का दान देकर क्षमापन करके उसे विदा करे। यही प्रेतशय्या की विधि एकादशाह-संस्कार में बतायी गयी है ।

ददाति यो हि धर्मार्थे बान्धवो बान्धवे मृते ।

विशेषमत्र पक्षे तु कथ्यमानं मया शृणु ॥ २,३४.८३ ॥

हे गरुड ! अपने बान्धव की मृत्यु होने पर उनके निमित्त बन्धुजन धर्मार्थ जो दान देते हैं, उसके विषय में विशेष बात मैं कह रहा हूँ, उसको तुम सुनो।

उपयुक्तञ्च तस्यासीत्यत्किञ्चित्स्वगृहे पुरा ।

तस्य यद्गात्रसं लग्नं वस्त्रं भाजनवाहनम् ।

यदभीष्टञ्च तस्यासीत्तत्सर्वं परिकल्पयेत् ॥ २,३४.८४ ॥

स्थापयेत्पुरुषं हैमं शय्योपरि शुभं बुधः ।

पूजयित्वा प्रदातव्या मृतशय्या यथोदिता ॥ २,३४.८५ ॥

हे पक्षिराज ! अपने घर में पहले से जो कुछ उपयुक्त वस्तु हो, उस मृतक के शरीर से सम्बन्धित जो वस्त्र, पात्र और वाहन हो, जो कुछ उसको अभीष्ट रहा हो, वह सब एकत्र करे। शय्या के ऊपर भगवान् विष्णु की स्वर्णमयी प्रतिमा को स्थापित करके विद्वान् व्यक्ति उनकी पूजा करे और जैसा पहले कहा गया है, उसी के अनुसार ब्राह्मण को उस मृतशय्या का दान कर दे।

पुरन्दरगृहे सर्वं सूर्यपुत्रालये तथा ।

उपतिष्ठेत्सुखं जन्तोः शय्यादानप्रभावतः ॥ २,३४.८६ ॥

पीडयन्ति न तं याम्याः पुरुषा भीषणाननाः ।

न घर्मेण न शीतेन बाध्यते स नरः क्वचित् ॥ २,३४.८७ ॥

शय्यादानप्रभावेण प्रेतो मुच्यते बन्धनात् ।

अपिः पापसमायुक्तः स्वर्गलोकं स गच्छति ॥ २,३४.८८ ॥

विमानवरमारूढः सेव्यमानोऽप्सरोगणैः ।

आभूतसंप्लवं यावत्तिष्ठेत्पातकवर्जितः ॥ २,३४.८९ ॥

नवकं षोडशश्राद्धं शय्या सांवत्सरं तथा ।

भर्तुर्या कुरुते नारी तस्याः श्रेयो ह्यनन्तकम् ॥ २,३४.९० ॥

उपकाराय सा भर्तुर्जीवन्ती न मृता तथा ।

उद्धरेज्जीवमाना सा सती सत्यवती प्रियम् ॥ २,३४.९१ ॥

स्त्रिया दध्यन्नशयने हेमकुङ्कुममञ्जनम् ।

वस्त्रभूषा तथा शय्या सर्वमेतद्धि दापयेत् ॥ २,३४.९२ ॥

उपकारकरं स्त्रीणां यद्भवोदिह किञ्चन ।

भूषणं गात्रलग्नञ्च वस्तु भोग्यादिकञ्च यत् ॥ २,३४.९३ ॥

तत्सर्वं मेलयित्वा तु स्वेस्वे स्थाने नियोजयेत् ।

पूजयेल्लोकपालांश्च ग्रहान् देवीं विनायकम् ॥ २,३४.९४ ॥

ततः शुक्लाम्बरधरो गृहीतकुसुमाञ्जलिः ।

इममुच्चारयेन्मन्त्रं विप्रस्य पुरतो बुधः ॥ २,३४.९५ ॥

शय्यादान के प्रभाव से प्राणी को प्राप्त होनेवाला सम्पूर्ण सुख इन्द्र और यमराज के घर में विद्यमान रहता है। इसके प्रभाव से महाभयंकर मुखवाले यमदूत उसको पीड़ित नहीं करते हैं। वह मनुष्य यमलोक में कहीं धूप और ठंडक से कष्ट नहीं पाता है । शय्यादान के प्रभाव से प्रेत बन्धनमुक्त हो जाता है । इस दान से पापी व्यक्ति भी स्वर्गलोक चला जाता है। जो प्राणी पाप से रहित है, वह अप्सराओं से सेवित विमान पर चढ़कर प्रलयपर्यन्त स्वर्ग में रहता है। जो नारी अपने पति के लिये नवक, षोडश और सांवत्सरिक श्राद्ध तथा शय्यादान करती है, उसको अनन्त फल प्राप्त होता है। मृत पति का उपकार करने के लिये जो स्त्री जीवित रहती है, उसके साथ मरती नहीं तो वह सती जीवित रहते हुए भी अपने पति का उद्धार कर सकती है। स्त्री को अपने मृत पति के लिये दधि, अन्न, शयन, अञ्जन, कुंकुम, वस्त्राभूषण तथा शय्यादि सभी प्रकार के दान देना चाहिये । स्त्रियों के लिये इस लोक में जो कुछ वस्तुएँ उपकारक हों, जो कुछ शरीर पर प्रयोग किये जाने योग्य वस्त्राभूषण और भोग्य वस्तुएँ हों, उन सभी को मिला करके प्रेत की प्रतिमा बनाकर उन्हें यथास्थान पर नियोजित करके लोकपाल, इन्द्रादि देवगण, सूर्यादिक ग्रह, गौरी तथा गणेश की पूजा करे। उसके बाद श्वेत वस्त्र धारण करके पुष्पाञ्जलि सहित ब्राह्मण के समक्ष इस मन्त्र का उच्चारण करे-

प्रेतस्य प्रतिमा ह्येषा सर्वोपकरणैर्युता ।

सर्वरत्नसमायुक्ता तव विप्रनिवेदिता ॥ २,३४.९६ ॥

आत्मा शम्भुः शिवा गौरी शक्रः सुरगणैः सह ।

तस्माच्छय्याप्रदानेन सैष आत्मा प्रसीदतु ॥ २,३४.९७ ॥

विप्रदेव ! प्रेत की यह प्रतिमा सभी उपकरणों और समस्त रत्नों से युक्त है। मैं आपको इसे प्रदान करता हूँ। आत्मा ही शिव है। यही शिवा और गौरी है। यही सभी देवताओं के साथ इन्द्र है। अतः इस शय्यादान से यह आत्मा प्रसन्न हो ।

आचार्याय प्रदातव्या ब्राह्मणाय कुटुम्बिने ।

गृहीते ब्राह्मणस्तत्र कोऽदादिति च कीर्तयेत् ॥ २,३४.९८ ॥

ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रणिपत्य विसर्जयेत् ।

इसके बाद उस शय्या को परिवारवाले आचार्य ब्राह्मण को प्रदान करे। ब्राह्मण उसको ग्रहण करने के बाद 'कोऽदात०' इत्यादि मन्त्र का पाठ करे । तत्पश्चात् उस ब्राह्मण की प्रदक्षिणा करके प्रणाम करे और उन्हें वहाँ से विदा करे ।

विधिनानेन वै पक्षिन् दानमेकस्य दापयेत् ॥ २,३४.९९ ॥

बहुभ्यो न प्रदेयानि गौर्गृहं शयनं स्त्रियः ।

विभक्तदक्षिणा ह्येते दातारं पातयन्ति हि ॥ २,३४.१०० ॥

हे पक्षिन् ! इस विधि से एक शय्या का एक ही ब्राह्मण को दान देना चाहिये। एक गौ, एक गृह, एक शय्या और एक स्त्री का दान बहुतों के लिये नहीं होता है । विभाजित करके दिये गये ये दान दाता को पाप की कोटि में गिरा देते हैं ।

एवं यो वितरेत्तार्क्ष्य शृणु तस्य च यत्फलम् ।

हे तार्क्ष्य ! इस प्रकार बतायी गयी विधि के अनुसार जो प्राणी शय्यादि का दान करे तो उसे जो फल प्राप्त होता है, उसको तुम सुनो।

साग्रं वर्षशतं दिव्यं स्वर्गलोके महीयते ॥ २,३४.१०१ ॥

यत्पुण्यन्तु व्यतीपाते कार्तिक्यामयनद्वये ।

द्वारकायान्तु यत्पुण्यं चन्द्रसूर्यग्रहे तथा ॥ २,३४.१०२ ॥

प्रयागे नैमिषे यच्च कुरुक्षेत्रे तर्थाबुदे ।

गङ्गायां यमुनायाञ्च सिन्धुसागरसंगमे ॥ २,३४.१०३ ॥

तेषु यद्दीयते दानं तस्मादप्यधिकन्त्विदम् ।

एतच्छय्याप्रदानस्य नाप्नोति षोडशीं कलाम् ॥ २,३४.१०४ ॥

यत्रासौ जायते प्राणी भुङ्क्ते तत्रैव तत्फलम् ।

कर्मक्षये क्षितौ याति मानुषः शुभदर्शनः ॥ २,३४.१०५ ॥

महाधनी च धर्मज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः ।

पुनः स याति वैकुण्ठं मृतोऽसौ नरपुङ्गवः ॥ २,३४.१०६ ॥

दिव्यं विमानमारुह्य अप्सरोभिः समावृतः ।

अहोऽसौ हव्यकव्येषु पितृभिः सह मोदते ॥ २,३४.१०७ ॥

इस दान से दाता सौ दिव्य वर्षों तक स्वर्गलोक में निवास करता है । व्यतीपात योग, कार्तिक पूर्णिमा, मकर तथा कर्क की संक्रान्ति में, सूर्य-चन्द्रग्रहण में, द्वारका, प्रयाग, नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र, अर्बुद (आबू) पर्वत, गङ्गा, यमुना तथा सिन्धु नदी और सागर के संगम तटपर जो दान दिया जाता है, यह उससे भी बड़ा दान है। इस शय्यादान के सोलहवें अंश को भी वे सभी दान प्राप्त नहीं कर पाते हैं। वह प्राणी जहाँ जन्म लेता है, वहीं उस पुण्य का फल भोगता है । स्वर्ग में रहनेयोग्य पुण्य के क्षय होने के बाद वह सुन्दर स्वरूप धारण करके पृथ्वी पर पुनः जन्म लेता है । वह महाधनी, धर्मज्ञ तथा सर्वशास्त्रों का निष्णात पण्डित होता है और मृत्यु होने के बाद वह नरश्रेष्ठ पुनः वैकुण्ठलोक चला जाता है। अद्भुत है ! अप्सराओं से चारों ओर घिरा हुआ वह प्राणी दिव्य विमान पर चढ़कर स्वर्ग में अपने पितरों के साथ हव्य-कव्य ग्रहण करते हुए प्रसन्न रहता है।

अष्टकासु कृतं श्राद्धममावास्यादिने तथा ।

मघासु पितृपर्वाणि यानियानि च तेषु च ॥ २,३४.१०८ ॥

शृणु तार्क्ष्य यथान्यायं प्रेतत्वे पितरो यदि ।

नोपतिष्ठन्ति श्राद्धानि सपिण्डीकरणं विना ॥ २,३४.१०९ ॥

सपिण्डीकरणं कार्यं पूर्णे वर्षे न संशयः ।

आद्यन्तु शवशुद्ध्यर्थं कृत्वा चैवाक्ष षोडशीम् ॥ २,३४.११० ॥

पितृपाङ्क्तिविशुर्ध्यं शतार्धेन? तु योजयेत् ।

वृद्धिं प्राप्याग्रतः कुर्याच्छूद्रस्य स्वच्छयैव हि ॥ २,३४.१११ ॥

साम्प्रतं साग्निके कार्यं द्वादशाहे सपिण्डनम् ।

न चासौ कुरुते यावत्प्रेत एव स वह्निमान् ।

द्वादशाहे ततः कार्यं साग्निकेन सपिण्डनम् ॥ २,३४.११२ ॥

अस्थिपोक्षे गयाश्राद्धं श्राद्धञ्चापरपक्षिकम् ।

अब्दमध्ये न कुर्वीत सपिण्डीकरणं विना ॥ २,३४.११३ ॥

सपत्न्यो यदि बह्व्यः स्युरेका पुत्रवती भवेत् ।

सर्वास्ताः पुत्रवत्यः स्युस्तेनैकेनात्मजेन हि ॥ २,३४.११४ ॥

हे तार्क्ष्य ! यदि पितर प्रेतत्व को प्राप्त हैं तो सपिण्डीकरण के बिना अष्टका, अमावास्या, मघा नक्षत्र तथा पितृपर्व में किये गये जो-जो श्राद्ध हैं, वे पितरों को नहीं प्राप्त होते हैं। सपिण्डीकरण का कार्य वर्ष पूरा हो जाने पर करना चाहिये । इसमें संशय नहीं है। शव की शुद्धि के लिये आद्य श्राद्ध करके षोडशी का सम्पादन करे। तदनन्तर पितृपंक्ति की( पितरों की पंक्ति में प्रवेश के लिये) शुद्धि के लिये पचासवें प्रेतपिण्ड का अन्य पिण्डों के साथ मेलन करे । वृद्धि श्राद्ध की सम्भावना होने पर एक वर्ष के पहले ही (छः अथवा तीन माह या डेढ़ माह में एवं बारहवें दिन सपिण्डीकरण श्राद्ध कर देना चाहिये । शूद्र का श्राद्ध स्वेच्छापूर्वक हो सकता है। अग्निहोत्री ब्राह्मण की मृत्यु होने पर द्वादशाह को सपिण्डन- कर्म होना चाहिये। जबतक वह कर्म नहीं किया जाता है, तबतक वह मृत अग्निहोत्री ब्राह्मण प्रेतयोनि में ही रहता है । अतः अग्निहोत्र करनेवाले ब्राह्मण को द्वादशाह में ही सपिण्डीकरण की क्रिया कर देनी चाहिये। गङ्गा आदि महानदियों में अस्थि- क्षेपण, गयातीर्थ - श्राद्ध, पितृपक्ष में होनेवाले श्राद्ध सपिण्डीकरण के बिना वर्ष के मध्य में नहीं करना चाहिये। यदि बहुत-सी सपत्नियाँ हों और उनमें से एक भी स्त्री पुत्रवती हो जाय तो उसी एक पुत्र से ही वे सभी पुत्रवती होती हैं।

नासपिण्डोग्निमान् पुत्रः पितृयज्ञं समाचरेत् ।

समाचाराद्भवेत्पापी पितृहा चापि जायते ॥ २,३४.११५ ॥

मृते भर्तरि या नारी प्राणांश्चैव परित्यजेत् ।

भर्त्रैव हि समं तस्याः प्रकुर्वीत सपिण्डनम् ॥ २,३४.११६ ॥

अस्थानिकापि या व्यूढा वैश्या वा क्षत्त्रियापि वा ।

याः पत्न्यो वै पितुः कश्चित्कुर्यात्पुत्रः सपिण्डनम् ॥ २,३४.११७ ॥

विप्रेणैव यदा शूद्रा परिणीता प्रमादतः ।

एकोद्दिष्टन्तु तच्छ्राद्ध सा तु तेनैव युज्यते ॥ २,३४.११८ ॥

अन्ये तु दश ये पुत्रा जाता वर्ण चतुष्टये ।

ते तासुतासु योक्त्वयाः सपिण्डीकरणे सदा ॥ २,३४.११९ ॥

असपिण्ड अग्निहोत्री पुत्र को पितृयज्ञ नहीं करना चाहिये । यदि वह ऐसा आचरण करता है तो पापी होगा और उसे पितृहत्या का भी पाप लगेगा । पति की मृत्यु होने पर जो स्त्री अपने प्राणों का परित्याग कर देती है तो पति के साथ ही उसका भी सपिण्डीकरण कर देना चाहिये। पिता की अनुचित रूप से लायी गयी विवाहिता वैश्यवर्णा अथवा क्षत्रिया जो भी पत्नियाँ हों, उनका सपिण्डन कोई भी पुत्र कर सकता है। जब प्रमादवश ब्राह्मण किसी शूद्रा कन्या से ही विवाह कर लेता है तो मरने के बाद उसके लिये एकोद्दिष्ट- श्राद्ध बताया गया है और सपिण्डीकरण- श्राद्ध उसी के साथ करना चाहिये । अन्य चारों वर्णों से ब्राह्मण के चाहे दसों पुत्र हों, किंतु उन्हें अपनी- अपनी माँ के सपिण्डीकरण की क्रिया में नियुक्त होना चाहिये ।

अन्वष्टकासु यच्छ्राद्ध यच्छ्राद्धं वृद्धिहेतुकम् ।

पितुः पृथक्प्रदाव्यं स्त्रियाः पिण्डं सपिण्डने ॥ २,३४.१२० ॥

अन्वष्टका पौष, माघ और फाल्गुनमास के कृष्णपक्ष की नवमी तिथि (जो साग्नियों का मातृक श्राद्ध होता है) - को होनेवाला तथा वृद्धिहेतु श्राद्ध एवं सपिण्डन- श्राद्ध में पिता से पृथक् माता का पिण्ड प्रदान करना चाहिये ।

पितामह्या समं मातुः पितुः सहपितामहैः ।

सपिण्डीकरणं कार्यमिति तार्क्ष्य मतं मम ॥ २,३४.१२१ ॥

अपुत्रायां मृतायां तु पतिः कुर्यात्सपिण्डनम् ।

मात्रादितिसृभिः सार्धमेवं धर्मेण योजयेत् ॥ २,३४.१२२ ॥

हे तार्क्ष्य ! पितामही के साथ माता और पितामह के साथ पिता का सपिण्डन अपेक्षित है, ऐसा मेरा अभिमत है। यदि स्त्री पुत्रहीन ही मर जाती है तो उसका सपिण्डन पति करे । धर्मतः पति को अपनी माता, पितामही एवं प्रपितामहीइन तीनों के साथ अपनी पत्नी का सपिण्डन करना चाहिये ।

पुत्रो नास्ति न भर्ता च स्त्रीणां तार्क्ष्य सपिण्डनम् ।

कारयेद्वृद्धिसमये भ्रातृदायाददेवरैः ॥ २,३४.१२३ ॥

पतिपुत्रविहीनानां गोत्री नास्ति न देवरः ।

एकोद्दिष्टेन दातव्यं परेण सह भ्रातृभिः ॥ २,३४.१२४ ॥

अज्ञानाद्विघ्नतो वापि न कृतञ्चेत्सपिण्डनम् ।

नवकं षोडशश्राद्धमाब्दिकं कारयेत्ततः ॥ २,३४.१२५ ॥

हे गरुड! यदि स्त्रियों के पुत्र तथा पति दोनों नहीं हैं तो वृद्धिकाल के आने पर स्त्री का भाई अथवा दायभाग का गृहीता या देवर उसका सपिण्डन करें। यदि पति एवं पुत्ररहित स्त्रियों के न तो कोई सगोत्री हो और न देवर ही हो तो उस समय अन्य व्यक्ति उसके भाइयों के साथ उसका एकोद्दिष्ट विधान से श्राद्ध कर सकता है। यदि भूलवश अथवा विघ्न के कारण सपिण्डन-क्रिया किसी की नहीं हो सकी है तो उसके पुत्र या बन्धु-बान्धव को चाहिये कि वे नवक श्राद्ध, षोडश श्राद्ध तथा आब्दिक श्राद्ध करे ।

अदाहे न च कर्तव्यं सदाहे कारयेद्बुधः ।

दर्भपुत्तलकं कृत्वा वह्निना दाहयेच्छवम् ॥ २,३४.१२६ ॥

पितुः पुत्रेण कर्तव्यं न कुर्ब्वीत पिता सुते ।

अतिस्नेहान्न कर्तव्यं सपिण्डीकरणं सते ॥ २,३४.१२७ ॥

बहवोऽपि यदा पुत्रा विधिमेकः समाचरेत् ।

नवश्राद्धं सपिण्डत्वं श्राद्धान्यन्यानि षोडश ॥ २,३४.१२८ ॥

एकेनैव तु कार्यांणि अविभक्तधनेष्वपि ।

अन्त्येष्टिं कुरुते ह्येको मुनिभैः समुदाहृतम् ॥ २,३४.१२९ ॥

विभक्तैश्च पृथक्कार्या क्रिया सांवत्सरादिका ।

एकैकेन च कर्तव्या पुत्रेण च स्वयंस्वयम् ॥ २,३४.१३० ॥

यस्यैतानि न दत्तानि प्रेतश्राद्धानि षोडश ।

पिशाचत्वंस्थिरं तस्य कृतैः श्राद्धशतैरपि ॥ २,३४.१३१ ॥

जिसका दाह नहीं हुआ है, उसके लिये श्राद्ध नहीं करना चाहिये। दर्भ का पुत्तल बनाकर अग्नि से उसे जलाकर ही श्राद्ध करना चाहिये । पुत्र के द्वारा पिता का सपिण्डीकरण किया जा सकता है, किंतु पुत्र में पिता का पिण्डमेलन नहीं किया जा सकता । प्रेमाधिक्य के कारण भी पिता को पुत्र में सपिण्डीकरण नहीं करना चाहिये। जब बहुत-से पुत्र हों, तब भी ज्येष्ठ पुत्र ही उस क्रिया को सम्पन्न करे । नवक, सपिण्डन तथा षोडशादि अन्य सभी श्राद्धों को करने का अधिकारी वही एक है । धन का बँटवारा न होने पर भी एक ही पुत्र को पिता के समस्त और्ध्वदेहिक कृत्य करना चाहिये। मुनियों ने भी इस बात को कहा है कि पिता की अन्त्येष्टि एक ही पुत्र करता है। यदि पुत्रों में परस्पर बँटवारा हो गया है तो उन सभी पुत्रों को पृथक्-पृथक् सांवत्सरादिक क्रिया करनी चाहिये । स्वयं प्रत्येक पुत्र को अपने पिता का श्राद्ध करना चाहिये। जिनके निमित्त ये षोडश प्रेतश्राद्ध सम्पन्न नहीं किये जाते हैं, उनका अन्य सैकड़ों श्राद्ध करने पर भी पिशाचत्व स्थिर रहता है।

भ्राता वा भ्रातृपुत्रो वा सपिण्डः शिष्य एव वा ।

सपिण्डीकरणं कुर्यात्पुत्रहीने खगेश्वर ॥ २,३४.१३२ ॥

सर्वेषां पुत्रहीनानां पत्री कुर्यात्सपिण्डनम् ।

ऋत्विजं करायेद्वाथ पुरोहितमथापि वा ॥ २,३४.१३३ ॥

मृते पितर्यब्दमध्ये ह्युपरागो यदा भवेत् ।

पार्वणं न सुतैः कार्यं श्राद्धं नान्दीमुखं न च ॥ २,३४.१३४ ॥

तीर्थश्राद्धं गयाश्राद्धं श्राद्धमन्यच्च पैतृकम् ।

अब्दमध्ये न कुर्वीत महागुरुविपत्तिषु ॥ २,३४.१३५ ॥

यमके च गजच्छायामन्वादिषु युगादिषु ।

पितृपिण्डो न दातव्यः सपिण्डीकरणं विना ॥ २,३४.१३६ ॥

यज्ञपुरुषस्य यद्दानं देवादीनाञ्च यत्तथा ।

अपूर्णेऽप्यब्दमध्येपि कर्तव्यमिति के च न ॥ २,३४.१३७ ॥

पितृभ्योपि हि यद्दत्तमर्घपिण्डविवर्जितम् ।

कर्तव्यं तच्च वै सर्वमेष एव विधिः स्मृतः ॥ २,३४.१३८ ॥

हे खगेश्वर ! पुत्रहीन का सपिण्डीकरण उसके भाई, भतीजे, सपिण्ड अथवा शिष्य को करना चाहिये। सभी पुत्रहीन पुरुषों का सपिण्डन पत्नी करे अथवा ऋत्विज् या पुरोहित से उस कार्य को सम्पन्न कराये । पिता की मृत्यु हो जाने पर वर्ष के मध्य जब सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण हों तो पुत्रों को पार्वणश्राद्ध, नान्दीश्राद्ध नहीं करना चाहिये। माता-पिता और आचार्य की मृत्यु होने पर वर्ष के मध्य में तीर्थश्राद्ध, गया श्राद्ध तथा अन्य पैतृक श्राद्ध नहीं करना चाहिये । पितृपक्ष, गजच्छाया योग, मन्वादि और युगादि तिथियों में सपिण्डीकरण के बिना पिता को पिण्डदान नहीं देना चाहिये। कुछ लोगों का विचार है कि वर्ष के मध्य में भी यज्ञपुरुष तथा देवतादि के लिये जो देय है, उसका दान देना चाहिये । पितरों को भी अर्घ्य और पिण्ड से रहित जो कुछ देय है, वह सब दिया जा सकता है। यही विधि कही गयी है।

देवानां पितरो देवा पितॄणामृषयस्तथा ।

ऋषीणां पितरो देवाः पिता जयति तेन वै ॥ २,३४.१३९ ॥

देवों के लिये पितर देवता हैं, पितरों के पितर ऋषि हैं, ऋषियों के पितर देवता हैं, इस कारण पिता सर्वश्रेष्ठ है ।

पितृदेवमनुष्याणां यज्ञनथो विभुर्भवेत् ।

यज्ञनाथस्य यद्दत्तं तद्दत्तं सर्वदेहिनाम् ॥ २,३४.१४० ॥

पितर, देवतागण और मनुष्यों के यज्ञनाथ भगवान् विभु हैं। यज्ञनाथ को जो कुछ दिया जाता है, वह समस्त शरीरधारियों को दिया हुआ माना जाता है।

मृते पितर्यब्दमध्ये यः श्राद्धं कारयेत्सुतः ।

सप्तजन्मकृता धर्माथीयते नात्र संशयः ॥ २,३४.१४१ ॥

प्रेतीभूतास्तु पितरो लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ।

भ्रमन्ति वायुना सर्वे क्षुत्तृड्भ्यां परिपीडिताः ॥ २,३४.१४२ ॥

पितरि प्रेततापन्ने लुप्यते पैतृकी क्रिया ।

अथ मातुर्विपत्तिः स्यात्पितृकार्यं न लुप्यते ॥ २,३४.१४३ ॥

मृता माता पिता तिष्ठेज्जीवन्ती च पितामही ।

सपिण्डनन्तु कर्तव्यं पितामह्या सहैव तु ॥ २,३४.१४४ ॥

सत्यंसत्यं पुनः सत्यं श्रूयतां वचनं मम ।

न पिण्डो मिलितो येषां मृतानान्तु नृणां भुवि ॥ २,३४.१४५ ॥

उपतिष्ठेन्न वे तेषां पुत्रैर्दत्तमनेकधा ।

हन्तकारस्तदुद्देशे श्राद्धं नैव जलाञ्जलिः ॥ २,३४.१४६ ॥

पिता के मरने पर वर्ष के मध्य जो पुत्र अन्य श्राद्ध करता है,निस्संदेह सात जन्मों में किये गये अपने धर्म से हीन हो जाता है। पिण्डोदक क्रियादि से रहित प्राणी प्रेत हो जाते हैं, वे इसी रूप में भूख-प्यास से अत्यन्त पीड़ित होकर वायु के साथ चक्कर काटते हैं। यदि पिता प्रेतत्वयोनि में पहुँच जाता है तो पुत्र के द्वारा की गयी समस्त पैतृकी क्रिया नष्ट हो जाती है। यदि माता की मृत्यु हो जाती है तो पितृकार्य नष्ट नहीं होता है। माता मृत्यु हो जाय, पिता और पितामही अर्थात् दादी जीवित रहती है तो माता का सपिण्डन प्रपितामही के * साथ ही करना चाहिये। हे गरुड ! मेरे इस वचन को सुनो। यह सर्वथा सत्य है । इस पृथ्वी पर जिन मरे हुए मनुष्यों का पिण्डमेलन अर्थात् सपिण्डीकरण नहीं होता है, उनके लिये पुत्रों के द्वारा अनेक प्रकार से दिया गया हन्तकार, उपहार, श्राद्ध तथा जलाञ्जलि उन्हें प्राप्त नहीं होती है ।

* 'विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा लोपो वाच्य : - इस वार्तिक से 'प्र' शब्द का लोप हो जाने से मूल में पितामही पद को 'प्रपितामही' समझना चाहिये।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे और्ध्वदेहिकादिनिरूपणं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 35 

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