श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३३

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३३ 

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३३ यमलोक, यममार्ग, यमराज के भवन तथा चित्रगुप्त के भवन का वर्णन, यमदूतों द्वारा पापियों को पीड़ित करना का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३३

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) त्रयस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 33

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प तैंतीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३३                    

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३३ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ३३               

गरुड उवाच ।

उत्पत्तिलक्षणं जन्तोः कथितं मयि पुत्त्रके ।

यमलोकः कियन्मात्रस्त्रैलोक्ये सचराचरे ।

विस्तरं तस्य मे ब्रूहि अध्वा चैव कियान् स्मृतः ॥ २,३३.१ ॥

कैश्च पापैः कृतैर्देव केन वा शुभकर्मणा ।

गच्छन्ति मानवास्तत्र कथयस्व विशेषतः ॥ २,३३.२ ॥

गरुड ने कहा- हे तात! आपने अपने इस पुत्र को जीव की उत्पत्ति का सम्पूर्ण लक्षण बता दिया, किंतु सचराचर इन तीनों लोकों के बीच यमलोक का कितना परिमाण है? उसका विस्तार मुझे बतायें। उसके मार्ग की कितनी दूरी है ? हे देव ! किन पापों के करने से अथवा किस शुभ कर्म के प्रभाव से मानवजाति वहाँ जाती है ? विशेष रूप से बताने की कृपा करें।

श्रीभगवानुवाच ।

षटशीतिसहस्राणि योजनानां प्रमाणतः ।

यमलोकस्य चाध्वानमन्तरा मानुषस्य च ॥ २,३३.३ ॥

ध्मातताम्रमिवातप्तो ज्वलद्दुर्गो महापथः ।

तत्र गच्छन्ति पापिष्ठा मानवा मूढचेतसः ॥ २,३३.४ ॥

कण्टकाश्च सुतीक्ष्णा वै विविधा घोरदर्शनाः ।

तैस्तुवालुक्षितिर्व्याप्ता हुताशश्च तथोल्बणः ॥ २,३३.५ ॥

वृक्षच्छाया न तत्रास्ति यत्र विश्रमते नरः ।

गृहीतः कालपाशैश्च कृतैः कर्मभिरुल्बणैः ॥ २,३३.६ ॥

तस्मिन्मार्गे न चान्नाद्यं येन प्राणान् प्रपोषयेत् ।

न जलं दृश्यते तत्र तृषा येन विलीयते ॥ २,३३.७ ॥

क्षुधया पीडितो याति तृष्णया च महापथे ।

शीतेन कम्पते क्वापि यममार्गेऽतिदुर्गमे ॥ २,३३.८ ॥

यद्यस्य यादृशं पापं स पन्थास्तस्य तादृशः ।

सुदीनाः कृपणा मूढा दुः खैर्व्याप्तास्तरन्ति तम् ॥ २,३३.९ ॥

रुदन्ति दारुणं केचित्केचिद्द्रोहं वदन्ति च ।

आत्मकर्मकृतैर्देषैः पच्यमाना मुहुर्मुहुः ॥ २,३३.१० ॥

श्रीभगवान्ने कहा- हे पक्षिराज ! प्रमाणतः यमलोक का विस्तार छियासी हजार योजन है । मनुष्यलोक के बीच से ही उस लोक का मार्ग है, जो धौकनी से दहकाये गये ताँबे के समान प्रज्वलित और दुर्गम महापथ है। पापी तथा मूर्ख व्यक्ति वहाँ जाते हैं । अत्यन्त तेज, देखने में महाभयंकर लगनेवाले अनेक प्रकार के काँटे उस महापथ में हैं। उन्हीं काँटों से परिव्याप्त, ऊँची-नीची, अग्नि के समान दहकती हुई उस महापथ की भूमि है । वहाँ वृक्षों की कोई छाया भी नहीं है, जहाँ पर ऐसा मनुष्य रुक करके विश्राम कर सके। उस मार्ग में अन्नादि की भी व्यवस्था नहीं है, जिसके द्वारा प्राणी अपने प्राणों की रक्षा कर सके। वहाँ जल भी नहीं दिखायी देता है, जिससे उसकी प्यास बुझ जाती हो । भूख-प्यास से पीड़ित वह पापी उसी महापथ में चलता है । अत्यन्त दुर्गम उस यममार्ग में वह ठंडक से काँपने लगता है। जिसका जितना और जिस प्रकार का पाप है, उसका उतना वैसा ही मार्ग है। अत्यन्त दीन-हीन- कृपण और मूर्ख तथा दुःख से व्याप्त प्राणी उसी मार्ग को पार करते हैं। आत्मकृत दोषों से बारम्बार संतप्त कुछ लोग वहाँ के असह्य कष्ट से व्यथित होकर करुण चीत्कार करते हैं, कुछ लोग वहाँ की कुव्यवस्था के प्रति विद्रोह कर देते हैं ।

ईदृग्विधः स वै पन्था विज्ञेयो दारुणः खग ।

वितृष्णा ये नरा लोके सुखं तस्मिन् व्रजन्ति ते ॥ २,३३.११ ॥

यानियानि च दानानि दत्तानि भुवि मानवैः ।

तानितान्युपतिष्ठन्ति यमलोके पुरः पथि ॥ २,३३.१२ ॥

पापिनो नोपतिष्ठन्ति दाहश्राद्धजलाञ्जलि ।

भ्रमन्ति वायुभूतास्ते ये क्षुद्राः पापकर्मिणः ॥ २,३३.१३ ॥

हे खगेश ! उस कठोर मार्ग को ऐसा ही जानना चाहिये। जो लोग इस संसार के प्रति किसी प्रकार की तृष्णा नहीं रखते हैं, वे उस मार्ग पर सुखपूर्वक जाते हैं। पृथ्वी पर मनुष्य जिन-जिन वस्तुओं का दान देता है, वे सभी वस्तुएँ यमलोक तथा उस महापथ में उसके सामने उपस्थित रहती हैं। जिस पापी को श्राद्ध और जलाञ्जलि नहीं प्राप्त होती है, वे पाप-कर्म करनेवाले क्षुद्र प्राणी वायु बनकर भटका करते हैं।

ईदृशं वर्त्म तद्रौद्रं कथितं तव सुव्रत ।

पुनश्च कथयिष्यामि यममार्गस्य या स्थितिः ॥ २,३३.१४ ॥

हे सुव्रत ! मैंने इस प्रकार के उस रौद्र पथ को तुम्हें बता दिया है। अब मैं पुनः यममार्ग की स्थिति बताऊँगा ।

याम्यनैरृतयोर्मध्ये पुरं वैवस्वतस्य तु ।

सर्वं वज्रमयं दिव्यमभेद्यं तत्सुरासुरैः ॥ २,३३.१५ ॥

चतुरश्रं चतुर्द्वारं सप्तप्राकारतोरणम् ।

स्वयं तिष्ठति वै यस्यां यमो दूतैः समन्वितः ॥ २,३३.१६ ॥

योजनानां सहस्रं वै प्रमाणेन तदुच्यते ।

सर्वरत्नमयं दिव्यं विद्युज्ज्वालार्कतैजसम् ॥ २,३३.१७ ॥

तद्गुहं धर्मराजस्य विस्तीर्णं काञ्चनप्रभम् ।

योजनानां पञ्चशतप्रमाणेन समुच्छ्रितम् ॥ २,३३.१८ ॥

वृतं स्तम्भसहस्रैस्तु वैदूर्यमणिमण्डितम् ।

मुक्ताजालगवाक्षं च पताकाशतभूषितम् ॥ २,३३.१९ ॥

घण्टाशतनिनादाढ्यं तोरणानां शतैर्वृतम् ।

एवमादिभिरन्यैश्च भूषणैर्भूषितं सदा ॥ २,३३.२० ॥

दक्षिण और नैर्ऋत दिशा के मध्य में विवस्वत्पुत्र यमराज की पुरी है । वह सम्पूर्ण नगर वज्रमय तथा दिव्य है। देवता और असुर भी उसका भेदन नहीं कर सकते हैं। वह चौकोर है, उसमें चार द्वार तथा सात चहारदीवारी एवं तोरण हैं । यमराज स्वयं अपने दूतों के साथ उसी में निवास करते हैं । प्रमाणत: उसका विस्तार एक हजार योजन है । सभी प्रकार के रत्नों से परिव्याप्त, चमकती हुई बिजली तथा सूर्य के तेजस्वी स्वरूप के समान वह पुरी दिव्य है । उस पुरी में धर्मराज का जो भवन है, वह स्वर्ण के समान कान्तिमान् है । उसका विस्तार पाँच सौ योजन ऊँचा है । हजार खंभोंवाले उस भवन को वैदूर्य मणियों से सुसज्जित किया गया है। उसके जालमार्ग अर्थात् गवाक्ष मुक्तामणियों से बने हैं। सैकड़ों पताकाएँ उसकी शोभा बढ़ाती हैं। घण्टों की सैकड़ों ध्वनियाँ उस भवन में होती रहती हैं। उसमें सैकड़ों तोरण द्वार बनाये गये हैं । इसी प्रकार से वह भवन अन्यान्य आभूषणों से विभूषित रहता है ।

तत्रस्थो भगवान् धर्म आसने तु समे शुभे ।

दशयो जनविस्तीर्णे नीलजीमूतसन्निभे ॥ २,३३.२१ ॥

धर्मज्ञो धर्मशीलश्च धर्मयुक्तो हितो यमः ।

भयदः पापयुक्तानां धार्मिकाणां सुखप्रदः ॥ २,३३.२२ ॥

मन्दमारु तसंयोगैरुत्सवैर्विविधैस्तथा ।

व्याख्यानैर्विविधैर्युक्तः शङ्खवादित्रनिः स्वनैः ॥ २,३३.२३ ॥

वहाँ दस योजन में विस्तृत नीले मेघ के समान शोभा-सम्पन्न, सम एवं शुभ आसन पर भगवान् धर्मराज स्थित रहते हैं । ये धर्मज्ञ, धर्मशील, धर्मयुक्त और कल्याणकारी हैं। ये ही पापियों को भय देनेवाले तथा धार्मिकों को सुख देनेवाले हैं। यहाँ पर शीतल मन्द वायु बहती रहती है, अनेक प्रकार के उत्सव और व्याख्यान होते रहते हैं, सदैव शंख आदि माङ्गलिक वाद्यों की ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। उन्हींके बीच धर्मराज का सम्पूर्ण समय बीतता है।

पुरमध्यप्रवेशे तु चित्रगुप्तस्य वै गृहम् ।

पञ्चविंशतिसंख्यानां योजनानां सुविस्तरम् ॥ २,३३.२४ ॥

दशोच्छ्रितं महादिव्यं लोहप्राकारवोष्टितम् ।

प्रतोलीशतसंचारं पतताकाशतशोभितम् ॥ २,३३.२५ ॥

दीपिकाशतसङ्कीर्णं गीतध्वनिसमाकुलम् ।

विचित्रचित्रकुशलैश्चित्रगुप्तस्य वै गृहम् ॥ २,३३.२६ ॥

मणिमुक्तामये दिव्ये आसने परमाद्भुते ।

तत्रस्थो गणयत्यायुर्मानुषेष्वितरेषु च ॥ २,३३.२७ ॥

न मुह्यति कदाचित्स सुकृते दुष्कृतेऽपि वा ।

यद्येनोपार्जितं यावत्तावद्वै वेत्ति तस्य तत् ॥ २,३३.२८ ॥

दशाष्टदोषरहितं कृत कर्म लिखत्यसौ ।

उस पुर के मध्यभाग में प्रवेश करने पर चित्रगुप्त का भवन पड़ता है, जिसका विस्तार पचीस योजन है। उसकी ऊँचाई दस योजन है। वह लोहे की परिखा के द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ एक महादिव्य भवन है। इसमें आने-जाने के लिये सैकड़ों गलियाँ हैं और सैकड़ों पताकाओं से यह सुशोभित रहता है। सैकड़ों दीपक इस भवन में प्रज्वलित रहते हैं । बंदीजनों के द्वारा गाये - बजाये गीत और वाद्य-यन्त्रों की ध्वनियों से यह भवन गुञ्जायमान रहता है। चित्रगुप्त के इस भवन को सुन्दरतम चित्रों से सजाया गया है। इस भवन में मुक्तामणियों से निर्मित, परम विस्मयकारी एक दिव्य आसन है, जिसके ऊपर बैठकर चित्रगुप्त मनुष्यों अथवा अन्य प्राणियों की आयु गणना करते हैं। किसी के पुण्य और पाप के प्रति कभी उनमें मोह नहीं होता है। जिसने जबतक जो कुछ अर्जित किया है, वे उसको जानते हैं; वे अठारह दोषों से रहित जीव द्वारा किये गये कर्म को लिखते हैं ।

चित्रगुप्तालयाताच्यां ज्वरस्यास्ति महागृहम् ॥ २,३३.२९ ॥

दक्षिणे चापि शूलस्य लताविस्फोटकस्य च ।

पश्चिमे काल पाशस्य अजीर्णस्यारुचेस्तथा ॥ २,३३.३० ॥

मध्यपीठोत्तरे ज्ञेयो तथा चान्या विषचिका ।

ऐशन्यां वै शिरोऽर्तिश्च आग्नेय्याञ्चैव मृकता ॥ २,३३.३१ ॥

अतिसारश्च नैरृत्यां वायव्यां दाहसंज्ञकः ।

एभिः परिवृतो नित्यं चित्रगुप्तः स तिष्ठति ॥ २,३३.३२ ॥

चित्रगुप्त भवन ज्वर का बहुत बड़ा भवन है। उनके भवन से दक्षिण शूल और लताविस्फोटक के भवन हैं। पश्चिम में कालपाश, अजीर्ण तथा अरुचि के भवन हैं। मध्य पीठ के उत्तर में विषूचिका, ईशानकोण में शिरोऽर्ति, आग्नेयकोण में मूकता, नैर्ऋत्यकोण में अतिसार, वायव्यकोण में दाहसंज्ञक रोग का घर है। चित्रगुप्त इन सभी से नित्य परिवृत रहते हैं।

यत्कर्म कुरुते कश्चित्तत्सर्वं विलखत्यसौ ।

धर्मराजगृहद्वारि दूतास्तार्क्ष्य तथा निशि ।

तिष्ठन्ति पापकर्माणः पच्यमाना नराधमाः ॥ २,३३.३३ ॥

यमदूतैर्महापाशैर्हन्यमानाश्च मुद्गरैः ।

वध्यन्ते विविधैः पापैः पूर्वकर्मकृतैर्नराः ॥ २,३३.३४ ॥

नानाप्रहारणाग्रैश्च नानायन्त्रैस्तथा परे ।

छिद्यन्ते पापकर्माणः क्रकचैः काष्ठवद्द्विधा ॥ २,३३.३५ ॥

अन्ये ज्वलद्भिरङ्गारैर्वेष्टिताः परितो भृशम् ।

पूर्वकर्मविपाकेन ध्मायन्ते लोहपिण्डवत् ॥ २,३३.३६ ॥

क्षिप्त्वान्ये च धरापृष्ठे कुठारेणावकर्तिताः ।

क्रन्दमानाश्च दृश्यन्ते पूर्वकर्मविपाकतः ॥ २,३३.३७ ॥

केचिद्गुडमयैः पाकैस्तैलपाकैस्तथा परे ।

पीड्यन्ते यमदूतैश्च पापिष्ठाः सुभृशं नराः ॥ २,३३.३८ ॥

क्षणाह्नि प्रार्थयन्त्यन्ये देहिदेहीति कोटिशः ।

यमलोके मया दृष्टा ममस्वं भक्षितं त्वया ॥ २,३३.३९ ॥

इत्येवं बहुशस्तार्क्ष्य नरकाः पापिनां स्मृताः ।

कर्मभिर्बहुभिः प्रोक्तैः सर्वशास्त्रेषु भाषितैः ।

दानोपकारं वक्ष्यामि यथा तत्र सुखं भवेत् ॥ २,३३.४० ॥

हे तार्क्ष्य ! कोई भी प्राणी जो कुछ कर्म करता है, वह सब कुछ चित्रगुप्त लिखते हैं। धर्मराज के भवन के द्वार पर रात-दिन दूतगण उपस्थित रहते हैं। यमदूतों के महापाश से बँधे पापी और नीच व्यक्ति मुद्गरों से मार खाते हैं। वहाँ नाना प्रकार के पूर्वकृत पापकर्मों से युक्त मनुष्यों को विभिन्न धारदार अस्त्र-शस्त्रों तथा अनेक यन्त्रों से मारा जाता है। पापियों को दहकते हुए अंगारों के द्वारा घेर दिया जाता है। पूर्वकर्मो के अनुसार लौह- पिण्ड के समान वे उसी में दग्ध किये जाते हैं। अन्य बहुत-से पापियों को पृथ्वी पर पटक करके कुल्हाड़े से उन्हें काटा जाता है। पूर्वकर्म के फलानुसार वे चिल्लाते हुए दिखायी देते हैं। कुछ पापियों को गुड़पाक और कुछ को तैलपाक में डालकर पकाया जाता है। इस प्रकार उन यमदूतों से पापियों को अत्यधिक कष्ट भोगना पड़ता है। अन्य पापी उन अत्यन्त निर्दयी दूतों से बार-बार क्षमादान की प्रार्थना करते हैं; पर यमदूत उनकी एक नहीं सुनते हैं । हे तार्क्ष्य ! इस प्रकार पापियों के लिये कर्मानुसार बहुत-से नरक कहे गये हैं ।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे यमलोकविस्तृतिदृवर्णनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 34  

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box