श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १५-१७

श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १५-१७                            

श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १५ – १७ परमात्मा हरि तथा देवी महालक्ष्मी के विभिन्न अवतारों का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १५-१७

श्रीगरुडमहापुराणम् ब्रह्मकाण्डः (मोक्षकाण्डः) पञ्चदश षोडश सप्तदशोऽध्यायः

Garud mahapuran Brahmakand chapter 15-17

श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड पंद्रह सोलह सत्रहवां अध्याय  

गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १५-१७

गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १५-१७ का संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद

हे पक्षिश्रेष्ठ! हरि पूर्णानन्दस्वरूप हैं। उनके समान किसी भी देश अथवा काल में कोई नहीं है । उन्हीं हरि ने लोककल्याण के लिये सम्पूर्ण सद्गुणों के सागर के रूप में अवतार ग्रहण किया। वे ही विष्णु समस्त अवतारों के बीजभूत हैं, वे ही वासुदेव कहलाते हैं, वे वासुदेव ही संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के रूप में प्रकट हुए। उन्हीं विष्णु ने स्थूल देह से ब्रह्मादि देवों की सृष्टि की। उन्हीं विष्णु ने सनत्कुमार आदि के रूप में शरीर धारण किया और तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा इन्द्रियनिग्रह की शिक्षा दी । उन्होंने ही पृथ्वी के तथा दैत्यराज हिरण्याक्ष के उद्धार हेतु एवं भूमि की स्थापना और सज्जनों की रक्षा के लिये वराह का अवतार धारण किया । पञ्चरात्र की शिक्षा देने के लिये भी उन्हींने स्वरूप धारण किया । बदरिकाश्रम में उन्होंने ही नारायण नाम से अवतार लिया। वे ही हरि कपिल मुनि के रूप में अवतरित हुए और उन्होंने ही कालकवलित चौबीस तत्त्वोंवाले सांख्यशास्त्र का आसुरि के लिये उपदेश किया। वे ही नारायण अत्रि पत्नी देवी अनसूया से दत्तात्रेय के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने ही राजा अलर्को आन्वीक्षिकी नामक तर्कविद्या का उपदेश दिया। वे ही सच्चिदानन्द हरि सूर्य के वंश आकूति गर्भ से प्रादुर्भूत हुए और उन्होंने ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में देवों के साथ प्रजा का पालन किया। वे ही विष्णु अग्नीध्रपुत्री मेरुदेवी के गर्भ से नाभि के पुत्र रूप में उरुक्रम नाम से अवतरित हुए। उन हरि ने ही देवता तथा असुरों द्वारा समुद्र के मन्थन के समय मन्दराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण करने के लिये कूर्मरूप धारण किया । पुनः वे ही हरि हरितमणि के समान द्युतिवाले महात्मा धन्वन्तरि के रूप में हाथ में अमृतकलश धारण किये अपथ्यजनित दोषों को दूर करने के लिये अवतरित हुए । विष्णु ही दितिपुत्र असुरों को मोहित करने के लिये मोहिनी का रूप धारण किया तथा पुनः नृसिंहरूप से अवतरित होकर उन्होंने ही हिरण्यकशिपु को अपने ऊरुओं पर रखकर नखों से विदीर्ण कर डाला। अनन्तर अदिति और कश्यप से वामनरूप में अवतरित हुए। बलि से अधिगृहीत सम्पूर्ण त्रैलोक्य के राज्य को पुनः इन्द्र को प्रदान करने की इच्छा से तथा बलि की दानशीलता का विस्तार करने के लिये उन्होंने यह रूप धारण किया । पुनः वे जमदग्नि के पुत्र परशुराम के रूप में विख्यात हुए और उन्होंने ब्रह्मद्वेषी क्षत्रियों से इस पृथ्वी को विहीन कर दिया । तदनन्तर उन हरि ने ही सूर्यवंश में रघुकुल में देवी कौसल्या से श्रीराम के रूप में अवतार धारण किया। समुद्रबन्धन तथा रावण आदि के वध आदि कार्य उन्होंने ही किये । तदनन्तर द्वापर में उन विष्णु ने ही व्यासरूप में अवतरित होकर वेदसंहिता को चार भागों में विभक्त कर अपने पैल, सुमन्तु आदि शिष्यों को ऋगादि वेदों को पढ़ाया। वे पराशर के द्वारा सत्यवती में प्रादुर्भूत हुए थे। तदनन्तर वे ही हरि वसुदेव के पुत्र रूप में देवकी से कृष्णरूप में अवतरित हुए। उन्होंने ही कंस आदि का वध किया और पाण्डवों की रक्षा की। तदनन्तर कलियुग की प्रवृत्ति होने पर वे ही असुरों को मोहित करने के लिये कीकट देश में बुद्ध नाम से प्रादुर्भूत हुए। बाद कलियुग की मध्यसंधि में वे हरि विष्णुगुप्त (विष्णुयश ) - के घर दस्युप्राय राजाओं का वध करने के लिये कल्कि नाम से अवतीर्ण होंगे।

इस प्रकार संकर्षण आदि ये सभी अवतार हरि के हुए। हरि के असंख्य अवतार हैं, उन्हें स्वयं नारायण ही जानते हैं। इन सभी अवतारों में बल की दृष्टि से, रूप की दृष्टि से और गुण की दृष्टि से किसी भी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता । अनन्त नाम-रूपवाले विष्णु अनन्त गुणों से सम्पन्न हैं।

श्रीकृष्ण ने कहा- हे खगेश्वर ! जिस प्रकार हरि के अनन्त नाम-रूपात्मक अवतार हैं, उसी प्रकार हरिप्रिया भी विभिन्न अवतारों के रूप में प्रकट हुई हैं। वे लक्ष्मी ज्ञानस्वरूपा हैं। वे एकमात्र हरि के चरणों का आश्रय ग्रहण कर नित्य उनके साथ रहती हैं। वे ही पुरुष की पत्नी और प्रकृति की अभिमानिनी देवी हैं। जब ब्रह्माण्ड के सृजन की इच्छा हरि ने की थी, उस समय गुणों की सृष्टि करने के लिये ये प्रकृति नाम से प्रादुर्भूत हुई थीं । वासुदेव की पत्नी माया, संकर्षण की पत्नी जया, अनिरुद्ध की पत्नी शान्ता तथा प्रद्युम्न की पत्नी कृति के रूप में इन्हीं का अवतार हुआ। विष्णु की पत्नी सत्त्वाभिमानिनी श्रीदेवी, तमोगुण की अभिमानिनी देवी दुर्गा और रजोगुण की अभिमानिनी वराहपत्नी देवी भूदेवी तथा भगवान् वेद की अभिमानिनी देवी अन्नपूर्णा आदि सब इन्हीं देवी के अवतार हैं। साथ ही यज्ञपत्नी दक्षिणा, विदेहराजपुत्री सीता तथा रुक्मिणी, सत्यभामा आदि रूपों में भगवती लक्ष्मी का ही प्राकट्य हुआ है। इस प्रकार पृथक्-पृथक् देवी लक्ष्मी के अनन्त अवतार हुए हैं। ऐसे ही पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी भी शची आदि देवियों के रूप में उत्पन्न हुईं थीं ।

गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १५-१७ का मूलपाठ

गरुडपुराणम् ब्रह्मकाण्डः (मोक्षकाण्डः) अध्यायः १५

अध्यायः १५ श्रीगरुडमहापुराणम्

श्रीकृष्ण उवाच ।

अथावता रान्पुरुषाख्यो हरिश्च गतो ध्यानं कर्तुमीशो महात्मा ।

प्रादुर्बभूवाखिलसद्गुणार्णवः स एव विष्णुः स च बीजभूतः ॥ ३,१५.१ ॥

यो बीजभूतः पुरुषाख्य विष्णुः स एवाभूद्वासुदेवो महात्मा ।

सृष्टिं कर्तुं पुरुषाख्यस्य वायोर्मायाख्यायां मूलरूपो यथाऽस ॥ ३,१५.२ ॥

यो वासुदेवस्तु स एव जातः संकर्षणाख्यो खिलसद्गुणात्मा ।

सृष्टिं कर्तुं सूत्रभूतस्य वायोर्जयाख्यायं पूर्णसंवित्परात्मा ॥ ३,१५.३ ॥

स एवं संकर्षणनामधेयः प्रद्युम्ननामा च स एव विश्रुतः ।

सरस्वतीभारतीसर्जनार्थं स एव देव्या मूलरूपो बभूव ॥ ३,१५.४ ॥

सृष्ट्वा युक्तं षोडशभिः कलाभिर्महत्तत्त्वं सूक्ष्मरूपं स एव ।

साहङ्कारं क्रीडयामास देवः शृणु त्वं वै षोडशाख्याः कलाश्च ॥ ३,१५.५ ॥

भूतानि कर्मेन्द्रियपञ्चकानि ज्ञानेन्द्रियाणीह तथा मनश्च ।

ततो बभूव ह्यनिरुद्धसंज्ञको जीवांश्च संगृह्य सुपूर्णशक्तिः ॥ ३,१५.६ ॥

सोयं विरिञ्च्यादिसमस्तदेवान् स्थूलेन देहेन ससर्ज नाथः ।

तथा स विष्णुः पुरुषाभिधस्तु सनत्कुमारत्वमवाप वीन्द्र ॥ ३,१५.७ ॥

अनन्यसाध्यं ब्रह्मचर्यं च कर्तुं दशेन्द्रियाणां शोषणार्थं सदैव ।

सनन्दनादौ पठितः कुमारस्तस्मान्नान्यो नात्र विचार्यमस्ति ॥ ३,१५.८ ॥

स एव विष्णुः सूकरत्वं ह्यवाप क्षोपणीमुद्धर्तुं दैत्यवपुर्निहन्तुम् ।

हिरण्याक्षं सज्जनानां खगेन्द्र तथा भूमेः स्थापनार्थं च देवः ॥ ३,१५.९ ॥

ततो हरिर्मद्विदासत्वमापानृषेर्भार्यायां यामिन्यां यो महात्मा ।

तत्रावतारे पञ्चरात्रं समग्रमुपादेष्टुं नाप दानं स्वतन्त्रः ॥ ३,१५.१० ॥

स एव विष्णुः समभूद्ब्रदर्यां नारायणाख्यः शमलापहश्च ।

तपस्तप्तुं शिक्षयितुं त्वृषीणां तिरस्कर्तुं ह्यप्सरसां सहस्रम् ॥ ३,१५.११ ॥

ततो हरिः कपिलत्वं ह्यवाप्य तिरोहितान्कालबलेन तत्त्वान् ।

चतुर्विशतिं संशयं चोद्धरिष्यन्नुपादिशच्चासुरये महात्मा ॥ ३,१५.१२ ॥

स एव दतः समभूद्रमेशोनसूयायामत्रिरूपः परात्मा ।

आन्वीक्षिकिं नाम सुतर्कविद्यामलर्कनाम्ने प्रददात्तां महात्मा ॥ ३,१५.१३ ॥

स एव वंशेप्यभवद्रवेश्च आकूत्यां यः सच्चिदानन्दरूपः ।

स्वायंभुवं यत्तु मन्वन्तरं च देवैः साकं पालयामास वीन्द्र ॥ ३,१५.१४ ॥

स एव विष्णुः स उरुक्रमोभूदाग्नीध्रपुत्र्यां मेरुदेव्यां च नाभेः ।

विद्यारतानां मानिनां सर्वदैवमत्याश्चर्यं दर्शयितुं च वीन्द्र ॥ ३,१५.१५ ॥

ततो हरिर्जगृहे कूर्मरूपं सुरासुराणामुदधिं विमथ्नताम् ।

पृष्ठे धर्तुं मन्दरं पर्वतं च ब्रह्माण्डं वा धर्तुमीशो महात्मा ॥ ३,१५.१६ ॥

ततो हरिः प्रादुरभून्महात्मा धन्वन्तरिर्नाम हरिन्मणिद्युतिः ।

अपथ्यदोषान्परिहर्तुमेव हस्ते गृहीत्वा पूर्णकुभं सुधाभिः ॥ ३,१५.१७ ॥

ततो हरिर्जगृहे श्रीवपुश्च यन्मोहिनीति प्रवदन्ति लोके ।

उद्वृत्तानां दितिजानां महात्मा सम्यक्तेषां वञ्चयितुं हरिर्बलम् ॥ ३,१५.१८ ॥

ततो हरिः प्रादुरभून्महात्मा नृसिंहनामा भगवाननन्तः ।

दैत्यो हिरण्यकशिपुश्च तथोरुदेशे संस्थापितः करजैर्दारितश्च ॥ ३,१५.१९ ॥

ततो हरिर्भगवान्वामनोभूददित्यां वै कश्यपाद्दवदेवः ।

इन्द्रायेदं दातुकामः खगेन्द्र तदर्थं वै पावितुं सोवितुं च ॥ ३,१५.२० ॥

ततो हरिर्जमदग्नेः सुतोभूल्लोके सर्वे पर्शुरामं वदन्ति ।

ब्रह्मद्विषां क्षत्रियाणां च वीन्द्र भूमिं निः क्षत्रां कर्तुकामो महेशः ॥ ३,१५.२१ ॥

ततोभवद्व्यासरूपी स विष्णुश्चतुर्वारं राघवास्यापि पूर्णः ।

पराशरात्सत्यवत्यां बभूव पैलादिभिर्वेदभागांश्च कर्तुम् ॥ ३,१५.२२ ॥

ततो हरी रघुवंशेवतीर्णः कौसल्यायां राघवः सूर्यवंशे ।

समुद्रादोर्विग्रहं कर्तुमीशो हं तुं भूम्यां रावणादींश्च वीन्द्र ॥ ३,१५.२३ ॥

ततो हरिर्व्यासरूपी बभूव अष्टाविंशे द्वपरे ज्ञानरूपी ।

पराशरात्सत्यवत्यां महात्मा स्वयं वेदान् संविभक्तुं च देवः ॥ ३,१५.२४ ॥

ततो हरिः कृष्णरूपी बभूव देवक्यां वै वसुदेवात्स विष्णुः ।

कंसादीन्वै नितरां हन्तुकामः सम्यक्पातुं पाण्डवांश्चापि वीन्द्र ॥ ३,१५.२५ ॥

ततः कलौ संप्रवृत्ते हरिस्तु संमोहनार्थं चासुराणां खगेन्द्र ।

नाम्ना बुद्धो कीकटेषु प्रजातो वेदप्रमाणं निराकर्तुमेव ॥ ३,१५.२६ ॥

ततो हरिः कल्किसंज्ञश्च वीन्द्र उत्पत्स्यते युगयोर्मध्यसंधौ ।

दस्युप्रायान्भूमिपान्वै निहन्तुं नाम्ना हरिर्विष्णुगुप्तस्य गेहे ॥ ३,१५.२७ ॥

केशवाद्याश्चतुर्विंशतिर्वै संकर्षणादयः ।

विश्वादय सहस्रं च पराद्या अमिताः स्मृताः ॥ ३,१५.२८ ॥

अवतारा ह्यसंख्याता विष्णोर्नारायणस्य च ।

स्वयं नारायणास्ते ते नाणुमात्रं विभिद्यते ॥ ३,१५.२९ ॥

बलतोरूपतश्चापि गुणतश्च कथञ्चन ।

अनन्तोनन्तगुणतः पूर्णो विष्णुर्न चान्यथा ॥ ३,१५.३० ॥

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे विष्णोरवतारनिरूपणं नाम पञ्चदशोऽध्यायः॥

अध्यायः १६ श्रीगरुडमहापुराणम्

श्रीकृष्ण उवाच ।

महालक्ष्म्याः स्वरूपं च अवतारान्खगेश्वर ।

शृणु सम्यङ्महाभाग तज्ज्ञानस्य विनिर्णयम् ॥ ३,१६.१ ॥

ईशादन्यस्य जगतो ह्यात्मो लोचन एव तु ।

विषयीकुरुते तत्स्याज्ज्ञानं लक्ष्म्याः प्रकीर्तितम् ॥ ३,१६.२ ॥

नित्यावियोगिनी देवी हरिपादैकसंश्रया ।

नित्यमुक्ता नित्यबुद्धा महालक्ष्मीः प्रकीर्तिता ॥ ३,१६.३ ॥

मूलस्य च हरेर्भार्या लक्ष्मीः संप्रकीर्तिता ।

पुंसो हि भार्या प्रकृतिः प्रकृतेश्चाभिमानिनी ॥ ३,१६.४ ॥

सृष्टिं कर्तुं गुणान्वीन्द्र पुरुषेण सह प्रभो ।

तमः पानं तथा कर्तुं प्रकृत्याख्या तदाभवत् ॥ ३,१६.५ ॥

वासुदेवस्य भार्या तु माया नाम्नी प्रकीर्तिता ।

संकर्षणस्य भार्या तु जयेति परिकीर्तिता ॥ ३,१६.६ ॥

अनिरुद्धस्य भार्या तु शान्ता नाम्नीति कीर्तिता ।

कृतिः प्रद्युम्नभार्यापिं सृष्टिं कर्तुं बभूव ह ॥ ३,१६.७ ॥

विष्णुपत्नी कीर्तिता च श्रीदेवी सत्त्वमानिनी ।

तमोभिमानिनी दुर्गा कन्यकेति प्रकीर्तिता ॥ ३,१६.८ ॥

कृष्णावतारे कन्येव नन्दपुत्रानुजा हि सा ।

रजोभिमानिभूदेवी भार्या सा सूकरस्य च ॥ ३,१६.९ ॥

वेदाभिमानिनी वीन्द्र अन्नपूर्णा प्रकीर्तिता ।

नारायणस्य भार्या तु लक्ष्मीरूपा त्वजा स्मृता ॥ ३,१६.१० ॥

यज्ञाख्यस्य हरेर्भार्या दक्षिणा संप्रकीर्तिता ॥ ३,१६.११ ॥

जयन्ती वृषभस्यैव पत्नी संपरिकीर्तिता ।

विदेहपुत्री सीता तु रामभार्या प्रकीर्तिता ॥ ३,१६.१२ ॥

रुक्मिणीसत्यभामा च भार्ये कृष्णस्य कीर्तिते ।

इत्यादिका ह्यनन्ताश्चाप्यावताराः पृथग्विधाः ॥ ३,१६.१३ ॥

रमायाः संति विप्रेन्द्र भेदहीनाः परस्परम् ।

अनन्तानन्तगुणकाद्विष्णोर्न्यूनाः प्रकीर्तिताः ॥ ३,१६.१४ ॥

अथ ब्रह्मा च वायुश्च श्रियः कोटिगुणाधमौ ।

वक्ष्ये च ब्रह्मणो रूपं शृणु पक्षीन्द्रसत्तम ॥ ३,१६.१५ ॥

वासुदेवात्समुत्पन्नो मायायां च खगेश्वर ।

स एव पुरुषोनाम विरिञ्च इति कीर्तितः ॥ ३,१६.१६ ॥

अनिरुद्धात्तु शान्तायां महत्तत्त्वतनुस्त्वभूत् ।

तदा महान्विरिञ्चेति संज्ञामाप खगेश्वर ॥ ३,१६.१७ ॥

रजसात्र समुत्पन्नो मायायां वासुदेवतः ।

विधिसंज्ञो विरिञ्चः स ज्ञातव्यः पक्षिसत्तम ॥ ३,१६.१८ ॥

ब्रह्माण्डान्तः पद्मनाभो यो जातः कमलासनः ।

स चर्तुमुखसंज्ञां चाप्यवाप खगसत्तम ॥ ३,१६.१९ ॥

एवं चत्वारिरूपाणि ब्रह्मणः कीर्तितानि च ।

वायोर्नामानि वक्ष्येहं शृणु पक्षीन्द्रसत्तम ॥ ३,१६.२० ॥

संकर्षणाच्च गरुड जयायां यो वभूव ह ।

स वायुः प्रथमो ज्ञेयो प्रधान इति कीर्तितः ॥ ३,१६.२१ ॥

लोकचेष्टाप्रदत्वात्स सूत्रनाम्नापि कीर्तितः ।

बदरीस्थस्य विष्णोश्च धैर्येण स्तवनाय सः ॥ ३,१६.२२ ॥

धृतिरूपं ययौ वायुस्तस्माद्धृतिरिति स्मृतः ।

योग्यानां हरिभक्तानां धृतिरूपेण संस्थितः ॥ ३,१६.२३ ॥

यतो हृदि स्थितो वायुस्ततो वै धृतिसंज्ञकः ।

सर्वेषां च हृदि स्थित्वा स्मरते सर्वदा हरिम् ॥ ३,१६.२४ ॥

अतो वायुःस्थितिर्नाम बभूव खगसत्तम ।

अथवा वायुरेवैकः श्वेतद्वीपगतं हरिम् ॥ ३,१६.२५ ॥

सदा स्मरति वै वीन्द्र अतोसौ स्मृतिसंज्ञकः ।

सर्वेषां च हृदिस्थित्वा ज्ञातो विष्णोरुदीरणात् ॥ ३,१६.२६ ॥

अतो मे मुक्तिनामाभूद्वायुरेव न संशयः ।

ज्ञानद्वारेण भक्तानां मुक्तिदो मदनुज्ञया ॥ ३,१६.२७ ॥

यतो सौ वायुरेवैको मुक्तिनामा भूवह ।

विष्णौ भक्तिं वर्ध्यति भक्तानां हृदि संस्थितः ॥ ३,१६.२८ ॥

अतोसौ विष्णुभक्तश्च कीर्तितो नात्र संशयः ।

एषोसौ सर्वजीवानां चित्तसंज्ञानमेव च ॥ ३,१६.२९ ॥

चित्तरूपो यतो वायुरतश्चित्तमिति स्मृतः ।

प्रभुः प्रभूणां गरुड सोदराणां च सर्वशः ॥ ३,१६.३० ॥

अतस्तु वायुरेवैको महाप्रभुरिति स्मृतः ।

सर्वेषां च हृहि स्थित्वा बलं पश्यति सत्तम ॥ ३,१६.३१ ॥

अतो बलमिति ह्याख्यामवाप विनतासुत ।

सर्वेषां च हृदि स्थित्वा पुत्रपौत्रादिकैर्जनैः ॥ ३,१६.३२ ॥

याजनं कुरुते नित्यमतोसौ यष्टृसंज्ञकः ।

अनन्तकल्पमारभ्य वायुपर्यन्तमेव च ॥ ३,१६.३३ ॥

वक्रत्वं नास्ति योगस्य ऋजुर्योग्य इति स्मृतः ।

योगस्य वक्रता नाम काम्यता हरिपूजने ।

ईशरुद्रादिकानां च काम्येन हरिपूजनम् ॥ ३,१६.३४ ॥

कस्यचित्त्वथ पक्षीन्द्र ह्यतस्त्वनृजवः स्मृताः ॥ ३,१६.३५ ॥

ऋष्यादीनां च मध्येपि काम्येन हरिपूजनम् ।

अतो न ऋजवो ज्ञेया मनुष्याणां च का कथा ॥ ३,१६.३६ ॥

यावत्काम्यसपर्यां वै न जहाति नरोत्तमः ।

तथा ऋष्यादयश्चैव मोक्षस्य परिपन्थिनीम् ॥ ३,१६.३७ ॥

अनादिकालमारभ्य कर्मजन्या च वासना ।

मोक्षाधिकारिणः सर्वे कुर्वते कस्य पूजनम् ॥ ३,१६.३८ ॥

नष्टप्रायं च तत्सर्वं गुरोः संज्ञानबोधकात् ।

प्राप्ययोगं समाचर्य अन्ते मोक्षमवाप्नुयात् ॥ ३,१६.३९ ॥

काम्येन पूजनं विष्णोरैश्वर्यं प्रददाति च ।

ज्ञानं च विपरीतं स्यात्तेन यात्यधरं तमः ॥ ३,१६.४० ॥

तदेव विपरीतं चेज्ज्ञानाय परिकीर्तितम् ।

शिलायां विष्णुबुद्धिस्तु विष्णुबुद्धिर्द्विजे तथा ॥ ३,१६.४१ ॥

सलिले तीर्थबुद्धिस्तु रोणुकायां तथैव च ।

शिवे सूर्ये षण्मुखे च विष्णुबुद्धिः खगेश्वर ॥ ३,१६.४२ ॥

इत्याद्यमखिलं ज्ञानं विपरीतमिति स्मृतम् ।

शिलाद्येषु च सर्वेषु ऐक्येनैव विचिन्तनम् ॥ ३,१६.४३ ॥

विष्णुबुद्धिरिति प्रोक्तं न तु तत्रस्थवेदनम् ।

अनाद्यनन्तकालेपि काम्येन हरिपूजनम् ॥ ३,१६.४४ ॥

यतो नास्ति ततो वायुर्ऋजुर्योग्यः प्रकीर्तितः ।

अन्येषां सर्वदा नास्ति अतो न ऋजवः स्मृताः ॥ ३,१६.४५ ॥

हरिं दर्शयते वापि अपरोक्षेण सर्वदा ।

मोक्षाधिकारिणां काले अतः प्रज्ञेति कथ्यते ॥ ३,१६.४६ ॥

परोक्षेणापि सर्वेषां हरिं दर्शयते सदा ।

अतो वायुः सदा वीन्द्र ज्ञानमित्येव कीर्तितः ॥ ३,१६.४७ ॥

हिताहितोपदेष्टृत्वाद्भक्तानां हृदये स्थितः ।

ततश्च गुरुसंज्ञां चाप्यवाप स च मारुतः ॥ ३,१६.४८ ॥

योगिनां हृदये स्थित्वा सध्यायति हरिं परम् ।

पार्थक्येनापि तं ध्यायन्महाध्यातेति स स्मृतः ॥ ३,१६.४९ ॥

यद्योग्यतानुसारेण विजानाति परं हरिम् ।

रुद्रादौ विद्यमानांश्च गुणाञ्जानाति सर्वदा ॥ ३,१६.५० ॥

अतो वै विज्ञनामासौ प्रोक्तो हि खगसत्तम ।

काम्यानां कर्मणां त्यागाद्विराग इति स स्मृतः ॥ ३,१६.५१ ॥

अथवायोगिनां नित्यं हृदि स्थित्वा स मारुतः ।

वैराग्यं संजनयति विराग इति स स्मृतः ॥ ३,१६.५२ ॥

देवानां पुण्यपापाभ्यां सुखमेवोत्तरोत्तरम् ।

तत्सुखं तूत्तरेषां च वायुपर्यन्तमेव च ॥ ३,१६.५३ ॥

देवानां च ऋषीणां च उत्तमानां नृणां तथा ।

सुखांशं जनयेद्वायुर्यतोतः सुखसंज्ञकः ॥ ३,१६.५४ ॥

भुनक्ति सर्वदा वीद्रं तत्र मुख्यस्तु मारुतः ।

दुः खशोकादिकं किञ्चिद्देवानां भवति प्रभो ॥ ३,१६.५५ ॥

तच्चासुरावेशवशादित्यवेहि न संशयः ।

तज्जीवस्य भवेत्किञ्चिद्दैत्यानां क्रमशो भवेत् ॥ ३,१६.५६ ॥

यतः कलिश्चाधिकः स्यादतो दुः खीति स स्मृतः ।

दैत्यानां पुण्यपापाभ्यां दुःखमेवोत्तरोत्तरम् ॥ ३,१६.५७ ॥

तद्दुःखमुत्तरेषां च कलिपर्यन्तमेव च ।

भुनक्ति सर्वदा वीन्द्र ततः कलिरिति स्मृतः ॥ ३,१६.५८ ॥

सुखहर्षादिकं किंचिद्दैत्यानां भवति प्रभो ।

देवावेशो भवेत्तस्य नात्र कार्या विचारणा ॥ ३,१६.५९ ॥

देवानां निरयो नास्ति दैत्यानां विनतासुत ।

सुखस्वरूपं तन्नास्ति विषयोत्थमपि द्विज ॥ ३,१६.६० ॥

विषयोत्थं किञ्चिदपि देवावेशादुदीरितम् ।

तमो नास्त्येव देवानां दुःखं नास्ति स्वरूपतः ॥ ३,१६.६१ ॥

विषयोत्थं महादुःखं देवानां नास्ति सर्वदा ।

दुःखशोकादिकं किं चिदसुरावेशतो भवेत् ॥ ३,१६.६२ ॥

अतः कलिः सदा दुःखी सुखी वायुस्तु सर्वदा ।

मनुष्याणामृषीणां च सुखं दुःखं खगेश्वर ॥ ३,१६.६३ ॥

भवेत्तत्पुण्यपापाभ्यां पुण्यभोगी च मारुतः ।

कष्टभङ्गः कलिलयो नात्र कार्या विचारणा ॥ ३,१६.६४ ॥

प्राणादिसुखपर्यन्ता अंशा एकोनविंशतिः ।

प्रविष्टाः संति लोकेषु पृथक्संति खगेश्वर ॥ ३,१६.६५ ॥

मारुतरेवतारांश्च शृणु पक्षीन्द्रसत्तम ।

चतुर्दशसु चन्द्रेषु द्वितीयौ यो विरोचनः ॥ ३,१६.६६ ॥

स वायुरिति संप्रोक्त इन्द्रादीनां खगेश्वर ।

हरितत्त्वेषु सर्वेषु स विष्वग्याव्यतेक्षणः ॥ ३,१६.६७ ॥

अतो रोचननामासौ मरुदंशः प्रकीर्तितः।

रामावतारे हनुमान्रामकार्यार्थसाधकः ।

स एव भीमसेनस्तु जातो भूम्यां महाबलः ॥ ३,१६.६८ ॥

कृष्णावतारे विज्ञेयो मरुदंशः प्रकीर्तितः ॥ ३,१६.६९ ॥

मणिमान्नाम दैत्यस्तु संकराख्यो भविष्यति ।

सर्वेषां संकरं यस्तु करिष्यति न संशयः ॥ ३,१६.७० ॥

तेन संकरनामासौ भविष्यति खगेश्वर ।

धर्मान्भागवतान्सर्वान्विनाशयति सर्वथा ॥ ३,१६.७१ ॥

तदा भूमौ वासुदेवो भविष्यति न संशयः ।

यज्ञार्थैः सदृशो यस्य नास्ति लोके चतुर्दशे ॥ ३,१६.७२ ॥

अतः स प्रज्ञया पूर्णो भविष्यति न संशयः ।

अवतारास्त्रयो वायोर्मतं भागवताभिधम् ॥ ३,१६.७३ ॥

स्थापनं दुष्टदमनं द्वयमेव प्रयोजनम् ।

नान्यत्प्रयोजनं वायोस्तथा वैरोचनात्मके ॥ ३,१६.७४ ॥

अवतारत्रये वीन्द्र दुःखं गर्भादिसंभवम् ।

नास्ति नास्त्येव वायोस्तु तथा वैरोचनादिके ॥ ३,१६.७५ ॥

शुक्रशोणितसंबन्धो ह्यवतारचतुष्टये ।

नास्ति नास्त्येव पक्षीन्द्र यतो नास्त्यशुभं ततः ॥ ३,१६.७६ ॥

पूर्वं गर्भं समाशोष्य समये प्रभवस्य च ।

प्रादुर्भवति देवेशी ह्यवतारचतुष्टये ॥ ३,१६.७७ ॥

त्रयोविंशतिरूपाणां वायोश्चैव खगेश्वर ।

रूपैर्ऋजुस्वरूपैश्च ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ॥ ३,१६.७८ ॥

सत्यमेव न संदेहो नित्यानन्दसुखादिषु ।

एवमेव विजानीयान्नान्यथा तु कथञ्चन ॥ ३,१६.७९ ॥

एतस्य श्रवणादेव मोक्षं यान्ति न संशयः ।

तदनन्तरजान्वक्ष्ये शृणु पक्षीन्द्रसत्तम ॥ ३,१६.८० ॥

कृतौ प्रद्युम्नतश्चैव समुत्पन्ने खगेश्वर ।

स्त्रियौ द्वे यमले चैव तयोर्मध्ये तु यद्यिका ॥ ३,१६.८१ ॥

वाणीतिसंज्ञकां वीन्द्र ब्रह्माणीसंज्ञकां विदुः ।

पुरुषाख्यविरिञ्चस्य भार्या सावित्रिका मता ।

चतुर्मुखस्य भार्या तु कीर्तिता सा सरस्वती ॥ ३,१६.८२ ॥

एवं त्रिरूपं विज्ञेयं वाण्याश्च खगसत्तम ।

वक्ष्येऽवतारान् भारत्याः समाहितमनाः शृणु ॥ ३,१६.८३ ॥

सर्ववेदाभिमानित्वात्सर्ववेदात्मिका स्मृता ।

महाध्यातुश्च वायोस्तु भार्या सा परिकीर्तिता ॥ ३,१६.८४ ॥

ज्ञानरूपस्य वायोस्तु भार्या सा परिकीर्तिता ।

सदा सुखस्वरूपत्वाद्भारती तु सुखात्मिका ॥ ३,१६.८५ ॥

सुखस्वरूप वायोस्तु भार्या सा परिकीर्तिता ।

गुरुस्तु वायुरेवोक्तस्तस्मिन् भक्तियुता सती ॥ ३,१६.८६ ॥

ततस्तु भारती नित्या गुरुभक्तिरिति स्मृता ।

महागुरोर्हि वायोश्च भार्या वै परिकीर्तिता ॥ ३,१६.८७ ॥

हरौ स्नेहयुतत्वाच्च हरिप्रीतिरिति स्मृता ।

धृतिरूपस्य वायोश्च भार्या सा परिकीर्तिता ॥ ३,१६.८८ ॥

सर्वमन्त्राभिमानित्वात्सर्वमन्त्रात्मिका स्मृता ।

महाप्रभोश्च वायोश्च भार्या वै सा प्रकीर्तिता ॥ ३,१६.८९ ॥

भुज्यन्ते सर्वभोगास्तु विष्णुप्रीत्यर्थमेव च ।

अतस्तु भारती ज्ञेया भुजिनाम्ना प्रकीर्तिता ॥ ३,१६.९० ॥

चित्ररूपस्य वायोस्तु भार्या सा परिकीर्तिता ।

रोचनेन्द्रस्य भार्या च श्रद्धाख्या परिकीर्तिता ॥ ३,१६.९१ ॥

हनुमांश्च तदा जज्ञे त्रेतायां पक्षिसत्तम ।

तदा शिवाख्यविप्राच्च जज्ञे सा भारती स्मृता ॥ ३,१६.९२ ॥

न केवलं भारती सा शच्याद्यैश्चैव संयुता ।

तस्मिन्संजनिताः सर्वाः प्रापुर्योगं स्वभर्तृभिः ॥ ३,१६.९३ ॥

अन्यगेति च विज्ञेया कन्या तन्मतिसंज्ञिका ।

त्रेतान्ते सैव पक्षीन्द्र शच्याद्यैश्चैव संयुता ॥ ३,१६.९४ ॥

दमयन्त्यनलाज्जाता इन्द्रसेनेति चोच्यते ।

नलं नन्दयते यस्मात्तस्माच्च नलनन्दिनी ॥ ३,१६.९५ ॥

तत्र स्वभर्तृसंयोगं नैव चाप खगेश्वर ।

तत्रान्यगात्वं विज्ञेयं पुरुषस्थेन वायुना ॥ ३,१६.९६ ॥

किञ्चित्कालं तथा स्थित्वा कन्यैव मृतिमाप सा ।

शच्यादिसंयुता सैव द्रुपदस्य महात्मनः ॥ ३,१६.९७ ॥

वेदिमध्यात्समुद्भूता भीमसेनार्थमेव च ।

तत्रान्यगात्वं नास्त्येव योगश्च सह भर्तृभिः ॥ ३,१६.९८ ॥

केवला भारती ज्ञेया काशिराजस्य कन्यका ।

काली नाम्ना तु सा ज्ञेया भीमसेनप्रिया सदा ॥ ३,१६.९९ ॥

वाच्यादिभिः संयुतैव द्रौपदी द्रुपदात्मजा ।

देहं त्यक्त्वाविशिष्टैव कारटीग्रामसंज्ञकै ॥ ३,१६.१०० ॥

संकरस्य गृहे वीन्द्र भविष्यति कलौ युगे ।

वायोस्तृतीयरूपार्थं सा कन्यैव मृतिं गता ॥ ३,१६.१०१ ॥

इत्याद्या वायुभार्याश्च ब्रह्मभार्याश्च सत्तम ।

स्वभर्तृभ्यां च पक्षीन्द्र गुणैश्चैव शताधमाः ॥ ३,१६.१०२ ॥

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे महालक्ष्म्यवतारादिनिरूपणं नाम षोडशोऽध्यायः॥

अध्यायः १७ श्रीगरुडमहापुराणम्

गरुड उवाच ।

चतुर्जन्मसु वै कृष्ण शच्याद्यैः सह भारती ।

एकदेह विशिष्टैव भुवि जातेति चोक्तवान् ॥ ३,१७.१ ॥

कारणं ब्रूहि मे ब्रह्मन् शिष्याय तव सुव्रत ।

गरुडेनैवमुक्तस्तमुवाच मधुसूदनः ॥ ३,१७.२ ॥

श्रीकृष्ण उवाच ।

विशिष्टदेहसं प्राप्तौ भारत्याः पक्षिसत्तम ।

वक्ष्यामि कारणं वीन्द्र सावधानमनाः शृणु ॥ ३,१७.३ ॥

पुरा कृतयुगे वीन्द्र रुद्रभार्या च पार्वती ।

इन्द्रभार्या शची देवी यम भार्याच शामला ॥ ३,१७.४ ॥

अश्विभार्या उषा देवी भर्तृभिः सहिता खग ।

ब्रह्मलोकं ययुस्तत्र ब्रह्माणं ददृशुस्तदा ॥ ३,१७.५ ॥

हावं भावं विलासं च दर्शयामासुरञ्जसा ।

दृष्ट्वा ता उद्धता ब्रह्मा शशाप खगसत्तम ॥ ३,१७.६ ॥

उद्धताश्च यतो यूयं मानुषीं योनिमाप्स्यथ ।

तत्र स्वभर्तृसंयोगमवाप्स्यथ खगेश्वर ॥ ३,१७.७ ॥

एवं शप्तास्तु ताः सर्वा आजग्मुर्मेरुपर्वतम् ।

तत्रोपविष्टं ब्रह्माणं वञ्चयामासुरञ्जसा ॥ ३,१७.८ ॥

तूष्णीमेव स्थिते वीन्द्र वञ्चयन्त्यः स्थिताः पुनः ।

ततस्तूष्णीं स्थितं वीन्द्र वञ्चयामासुरञ्जसा ॥ ३,१७.९ ॥

त्रिवारानन्तरं ब्रह्मा शप्तवांस्ता महाप्रभुः ।

त्रिवारं वञ्चनं यस्मादेकवारं च दर्शनम् ॥ ३,१७.१० ॥

किं चाश्रुत्वातः पश्चाच्चतुर्जन्मसु भूतले ।

एकदेहान्मानुषत्वं भविष्यति न संशयः ॥ ३,१७.११ ॥

द्वितीये जन्मनि तथा अन्यगात्वमवाप्स्यथ ।

तृतीये जन्मनि तथा भर्तृसंयोग माप्स्यथ ॥ ३,१७.१२ ॥

जन्मन्याद्ये चतुर्थे च नान्यगात्वमवाप्स्यथ ।

तथा स्वभर्तृसंयोगं नावाप्स्यथ च सर्वशः ॥ ३,१७.१३ ॥

एवं शप्तास्तु ताः सर्वा ब्रह्मणा पक्षिसत्तम ।

तदा विचारयामासुर्मिलित्वा मेरुमूर्धनि ॥ ३,१७.१४ ॥

ब्रह्मशापस्त्वनिर्वाय उपायैः शतशोपि च ।

नीचैः समागमो निन्द्यस्तथैव च विपत्तिदः ॥ ३,१७.१५ ॥

उत्तमेन च संगेन दैवेनाप्यर्थदो भवेत् ।

देवानामुत्तमो वायुस्तदर्थं संगमाचरेत् ॥ ३,१७.१६ ॥

विचार्यैवमुमाद्या भारत्याः सेवां तु चक्रिरे ।

सहस्रवत्सरान्ते सा भारती तोषिताब्रवीत् ॥ ३,१७.१७ ॥

मत्सेवां च किमर्थं वै ह्याचरिष्यन्ति सुव्रताः ।

तस्यां रक्ताश्च ता देव्यस्त्वब्रुवन्स्वचिकीर्षितम् ॥ ३,१७.१८ ॥

पुरा वयं तु शप्ताः स्म ब्रह्मणा क्रोधरूपिणा ।

एकदेहान्मानुषत्वमवाप्स्यथ वराङ्गनाः ॥ ३,१७.१९ ॥

चतुर्थजन्मन्यप्येवं द्वितीये जन्मनि प्रभो ।

समाप्स्यथान्यगात्वं चेत्येवं शप्ता ह भामिनि ॥ ३,१७.२० ॥

अस्माकं वायुना देवेनान्यगात्वं न दोषभाक् ।

अतस्त्वयैकदेहत्वमिच्छामो देवि जन्मसु ॥ ३,१७.२१ ॥

हत्युक्ता ताभिरथ च तथैत्युक्त्वा द्विजोत्तम ।

सा पार्वत्यादिभिर्युक्ता भारतीत्यभवद्भुवि ॥ ३,१७.२२ ॥

शिवनाम्नो द्विजस्यैव गृहे सा तु कुमारिका ।

कर्मैक्यार्थं तपश्चक्रेः विष्णोश्च शिवसंज्ञिनः ॥ ३,१७.२३ ॥

तपसा तोषिता विष्णुः शिव संज्ञो महाप्रभुः ।

वरं प्रादात्तृतीयेस्मिन्कृष्णजन्मनि भो स्त्रियः ॥ ३,१७.२४ ॥

सम्यक्त्वभर्तृसंयोगो भविष्यति विना भवम् ।

यतोनया च पार्वत्या प्रेरिता एव सर्वशः ॥ ३,१७.२५ ॥

विलासं दर्शयामास ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।

अतः सा पार्वाती श्रेष्ठा ब्रह्मदेहे न संशयः ॥ ३,१७.२६ ॥

कृष्णदेहेपि तस्यास्तु न भविष्यति संगमः ।

अन्यगात्वं द्वितीयेस्मिन्भविष्यति न संशयः ॥ ३,१७.२७ ॥

रुद्रान्तः स्थो हरिश्चैव वहं दत्त्वा स्त्रियां प्रभुः ।

अन्तर्धानं ययौ श्रीमान्स्वलोकं गतवानभूत् ॥ ३,१७.२८ ॥

विसृज्य ताश्च तं देहं बभूवुर्नलकन्यकाः ।

इन्द्रसेनेति संज्ञां च लब्ध्वा ताश्च तपोवनम् ॥ ३,१७.२९ ॥

ययुस्तत्र चरन्त्यस्ता ददृशुर्मुद्गलं त्वृषिम् ।

तस्य दर्शनमात्रेण बभूवुः काममोहिताः ॥ ३,१७.३० ॥

मुद्गलस्याभिमानं हि नाशयित्वा च मारुतः ।

रमयामास तत्रस्था भारत्यादिवराङ्गनाः ॥ ३,१७.३१ ॥

तद्देहेन विसृष्टा सा बभूव द्रौपदीति च ।

यस्मात्सा द्रुपदाज्जाता तस्मात्सा द्रौपदी स्मृता ॥ ३,१७.३२ ॥

वेदिमध्यात्समुद्भूता तस्मात्सायोनिजा स्मृता ।

कृष्णवर्णा यतस्तस्मात्सा कृष्णा भूतले स्मृता ॥ ३,१७.३३ ॥

कृष्णादेहपि भारत्या अभिमानः सदा स्मृतः ।

शच्यादेरभिमानस्तु तस्मिन्देहे कदाचन ॥ ३,१७.३४ ॥

यस्याः स्वभर्तृसंयोगकाले च खगसत्तम ।

अभिमानस्तदैव स्यात्तस्या एव न चान्यथा ॥ ३,१७.३५ ॥

एतासां रमणे काले उमायाः पक्षिसत्तम ।

अभिमानश्च नास्त्येव स्वाप एव रताः सदा ॥ ३,१७.३६ ॥

पार्थस्य रमणे काले द्रौपद्याश्च कलेवरे ।

भारत्याश्च तथा शच्या अभिमानद्वयं स्मृतम् ॥ ३,१७.३७ ॥

उमादेः श्याम लादेश्च अभिमानक्षतिस्तदा ।

सर्वासां स्वाप एव स्यान्नात्र कार्या विचारणा ॥ ३,१७.३८ ॥

अर्जुनं वीररूपेण प्रविष्टो वायुरेव च ।

भारतीं रमते नित्यं शामलां च युधिष्ठिरः ॥ ३,१७.३९ ॥

सुंदरेण च रूपेण प्रविष्टो नकुले मरुत् ।

रमते भारतीं नित्यं नकुलश्चाप्युषां खग ॥ ३,१७.४० ॥

नीतिरूपेण चाविष्टो सहदेवे च मारुतः ।

द्रौपदीं रमते नित्यं सहदेवोप्युषां खग ॥ ३,१७.४१ ॥

शच्याद्या द्रौपदीदेहे नापुः संगं च मारुतः ।

तासामतोन्यगामित्वं कृष्णादेहे न चिन्तयेत् ॥ ३,१७.४२ ॥

धर्मादिदेहसंगं च भारत्या नैव चिन्तयेत् ।

मनुजस्य च देहस्य तासां संगं चिन्तयेत् ॥ ३,१७.४३ ॥

अपरोक्षवतीनां तु तासां लेपो न सर्वथा ।

अथवा मुद्गलस्येव रतिकाले खगेश्वर ॥ ३,१७.४४ ॥

रमणं चक्रुरेवं ता अतो दोषो न विद्यते ।

एकस्मिन्दिवसे वीन्द्र धर्मो वायुश्च तावुभौ ॥ ३,१७.४५ ॥

रमणं चक्रतुः सम्यक्कृष्णादेहेऽपि मानद ।

तथाप्यनन्यागामित्वं चिन्तनीयं न संशयः ॥ ३,१७.४६ ॥

सुराणां सुरभोग्याश्च भोगं जानन्ति देवताः ।

न जानन्त्येव मर्त्यांस्तु तेषु देहेषु ते पुनः ॥ ३,१७.४७ ॥

नीरक्षीरविविकं च हंसो वेत्ति न चापरः ।

अतः स्वभर्तृसंयोगं कृष्णादेहेन चिन्तयेत्कृष्णादेहेन्यगामित्वं नैव चिन्त्यं खगेश्वर ॥ ३,१७.४८ ॥

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे भारत्या विशिष्टदेह संप्राप्त्यै कारणनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय 18

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