श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४८
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प अध्याय ४८ दुःखी गर्भस्थ जीव का विविध प्रकार का चिन्तन
करना, यम यातनाग्रस्त जीव का सदा सुकृत करने का उपदेश देना का
वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अष्टचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 48
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अड़तालिसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ४८
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ४८ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
४८
तार्क्ष्य उवाच ।
ये मर्त्यलोके निवसन्ति मानवास्ते
सर्वजातौ निधनं प्रयान्ति ।
काले स्वकीये निजपुण्यसंख्यया
वदन्ति लाक कथस्व तन्मे ॥ २,४८.१
॥
गच्छन्ति मार्गेण सुदुस्तरेण
विधातृनिष्पादितवर्त्मनि स्थिताः ।
केनैव पुण्येन मुदं प्रयान्ति
तिष्ठन्ति केनैव कुलं बलं वयः ॥ २,४८.२
॥
तार्क्ष्य ने कहा- हे प्रभो ! इस
मर्त्यलोक में अपने पुण्य की संख्या के अनुसार सभी जातियों में जो मनुष्य निवास
करते हैं,
वे अपना काल आ जाने पर मृत्यु को प्राप्त करते हैं- ऐसा लोक में
कहते हैं, इसके विषय में आप मुझे बतायें। विधाता के द्वारा
बनाये गये उस मार्ग में स्थित वे प्राणी अत्यन्त कठिन मार्ग से होकर गुजरते हैं।
किस पुण्य से वे प्रसन्नतापूर्वक जाते हैं और किससे वे यहाँ रहते हैं और कुल,
बल तथा आयु का लाभ प्राप्त करते हैं।
सूत उवाच ।
श्रुत्वाथ देवो गरुडं
त्ववोचत्स्मृत्वा वपुः कर्मभयञ्च रूपम् ।
सृष्टा धरा येन चराचरं जगत्स येन
शस्ता विहितो यमो विभुः ॥ २,४८.३
॥
सूतजी ने कहा- हे ऋषियो ! यह सुनकर,
जिनके द्वारा इस पृथ्वी का निर्माण हुआ है, जिन्होंने
समस्त चराचर जगत्की सृष्टि की है और समर्थ यम को अपने विहित कार्य में नियोजित
किया है, उन महाप्रभु ने मनुष्य के शरीर, कर्म, भय और रूप का स्मरण करके गरुड से इस प्रकार
कहा-
श्रीभगवानुवाच ।
धर्मार्थकामं चिरमोक्षसञ्चयमन्यं द्वितीयं
यममार्गगामिनाम् ।
प्रविश्यचाङ्गुष्ठसमे स तत्र वै तं
प्राप्य देहं स्वमन्दिरम्? ॥ २,४८.४ ॥
गृहीतपाशो रुदते पुनः पुनर्देशे
सुपुण्ये द्विज देहसंस्थितः ।
देवेन्द्रपूजा पितृदेवतृप्तिदं
मोहान्न चेष्टं न च पुत्त्रसन्ततिः ॥ २,४८.५
॥
न मेऽस्ति बन्धुर्यममार्गगामिनो मया
न कृत्यं द्विजदेहलिप्सया ।
सम्प्राप्य विप्रत्वमतीव दुर्लभं
नाधीतवान्वेदपुराणसंहिताः ।
प्राप्तं सुरत्नं करसंस्थितं गतं
देहन्क्वचिन्निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,४८.६
॥
भगवान्ने कहा- हे गरुड ! यम मार्ग में
गमन करनेवाले जीवात्माओं का ऐहिक शरीर नहीं, अपितु
धर्म, अर्थ, काम तथा चिरकालीन मोक्ष
प्राप्त करने की अभिलाषा रखनेवाला अंगुष्ठमात्र परिमाण में स्थित दूसरा शरीर होता
है । वह उसी रूप में अपने पाप-पुण्य के अनुसार लोक एवं निवासगृह प्राप्त करता है ।
हे द्विज ! उस यातना – शरीर में स्थित होकर यम- पाश से बँधा हुआ वह जीव पुनः पुनः
रोदन करता है- अत्यन्त पवित्र देश में द्विज का शरीर प्राप्त करके भी मैंने न
भगवान् विष्णु की पूजा की, न पितरों एवं देवताओं को तृप्त
किया, न मैंने याग, दान आदि किया और न
योग्य पुत्रादि संतति ही । मुझ यम मार्गगामी का कोई बन्धु नहीं है। मुझे पुनः
द्विज का शरीर प्राप्त हो इस इच्छा से कोई पुण्य कार्य भी नहीं किया है। अत्यन्त
दुर्लभ ब्राह्मणत्व प्राप्त करके वेद और पुराण की संहिताओं का भी अध्ययन मैंने
नहीं किया है। इस प्रकार रुदन करते हुए देही से यमदूत कहते हैं कि हे देहिन् ! हाथ
में आये हुए ब्राह्मण शरीर, पवित्र देश आदि रूपी अनमोल रत्न
भी तुमने खो दिये । हे देहिन् ! तुम उसी के अनुसार अपना निर्वाह करो, जैसा कि तुमने किया है। '
यः क्षत्त्रियो बाहुबलेन संयुगे
ललाटदेशाद्रुधिरं मुखे पपौ ।
तत्सोमपानं हि कृतं महामखे
जीवन्मृतः सोऽपि हि याति मुक्तिक् ॥ २,४८.७
॥
स्थानान्यनेकानि कृतानि तानि
पीतान्यनेकान्यपि गर्हितानि ।
शस्त्रं गृहीत्वा समरे रिपूणां यः
संमुखं याति स मुक्तपापः ॥ २,४८.८
॥
क्षत्त्रान्वयो वापि विशोन्वयो वा
शूद्रान्वयो वापि हि नीचवर्णः ।
संग्रामदेवद्विजबालघाती
स्त्रीवृद्धहा दीनतपस्विहन्ता ॥ २,४८.९
॥
उपद्रुतेष्वेषु पराङ्मुखो यः
स्युस्तस्य देवाः सकलाः पराङ्मुखाः ।
तिलोदकं नैव पिबन्ति पूर्वे हुतं न
गृह्णाति हुताशनोपि तत् ॥ २,४८.१०
॥
द्वेषाद्भयाद्वा समरे समागते
शस्त्रं गृहीत्वा परसैन्यसंमुखः ।
न याति पक्षीन्द्र मृश्च
पश्चात्क्षात्त्रं बलं तस्य गतं तथैव ।
मनुष्य क्षत्रियवंश का हो अथवा
वैश्यवंश का हो, वह शूद्र हो या नीचवर्ण का हो,
किंतु यदि वह देवता, ब्राह्मण, बालक, स्त्री, वृद्ध, दीन और तपस्वियों का हन्ता है अथवा इन्हें उपद्रवग्रस्त देखकर (इनके
संरक्षण से) पराङ्मुख हो जाता है तो उसके सभी इष्टदेव उससे विमुख हो जाते हैं ।
पितृगण उसके द्वारा दिये गये तिलोदक का पान नहीं करते हैं और अग्निदेव उसके द्वारा
दिये गये हव्य को भी नहीं स्वीकार करते हैं । हे पक्षीन्द्र ! संग्राम के उपस्थित
होने पर शस्त्र लेकर जो क्षत्रिय शत्रु-सेना के समक्ष द्वेष और भयवश नहीं जाता है
तथा बाद में मारा जाता है तो उसका क्षात्रबल मानो व्यर्थ ही हो गया।
द्विजाय दत्त्वा कनकं महीमिमां भूयः
स पश्चाद्भवतीह लोके ॥ २,४८.११ ॥
दानं प्रदत्तं ग्रहणे द्विजेन्द्रे
स्नानं कृतं तेन सदा सुतीर्थे ।
गत्वा गयायां पितृपिण्डदानं कृतं
सदा यो म्रियते तु युद्धे ॥ २,४८.१२
॥
यः क्षात्त्रदेहन्तु विहाय शोचते
रणाङ्गणे स्वामिवधे च गोग्रहे ।
स्त्रीबालघाते पथि सार्थहेतवे मया
स्वकोशं न हतं न पातितम् ॥ २,४८.१३
॥
वैश्यः स्वकर्माणि विशोचते तदा
गृहीतपाशो न मयापि सञ्चितम् ।
सत्यं न चोक्तं क्रय विक्रयेण
मोहाद्विमूढेन कुटुम्बहेतवे ॥ २,४८.१४
॥
शूद्रं वपुः प्राप्य यशस्करं सदा
दानं द्विजेभ्यो न कृतं द्विजार्चनम् ।
च्दृदद्यत्दद्वड्ढ
ढद्धदृथ्र्ददृध्ड्ढथ्र्डड्ढद्ध
जलाशयो नैव कृतो धरातले असंस्कृतो
विप्रवरो न संस्कृतः ॥ २,४८.१५ ॥
त्यक्त्वा स्वकर्माणि मदेन सुस्थितं
मया सुतीर्थे स्ववपुर्न चोज्झितम् ।
धर्मोर्जितो नैव न देवपूजनं कृतं
मया चैव विमुक्तिहेतवे ॥ २,४८.१६
॥
देहं समासाद्य तथैव पिण्डजं
वर्णांस्तथैवान्त्यजम्लेच्छसंज्ञितान् ।
मरुन्मयं देहमिमे विशन्ति
नैवेहमानाः पथि धर्मसंकुले ॥ २,४८.१७
॥
परस्परं धर्मकृन्तं स्वकीयं
सम्पाद्य लक्ष्यं पथि सञ्चरन्त्स्वम् ।
पक्षीन्द्र वाक्यानि शृणुष्व तानि
मनोरमाणि प्रवदन्ति यानि ॥ २,४८.१८
॥
जो युद्ध में वीरगति प्राप्त करता
है। उसने मानो चन्द्र एवं सूर्यग्रहण के अवसर पर श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान दे दिया,
श्रेष्ठ तीर्थों में जाकर सदा स्नान कर लिया, गयातीर्थ
में पहुँचकर सदा पितरों को पिण्डदान दे दिया। जो क्षत्रिय अपने कर्तव्यों का पालन
बिना किये हुए शरीर को छोड़ता है, वह सदा चिंता करता रहता है
कि समरभूमि में मारे गये स्वामी के लिये, बलात् अपहृत गौ के
लिये, स्त्री – बालक की हत्या रोकने के लिये तथा मार्ग में
लूटे जानेवाले साथियों के लिये अपने प्राणों का परित्याग मैंने नहीं किया। यमपाश में
आबद्ध वैश्य अपने किये हुए कर्मों के विषय में सोचता है कि मैंने किसी प्रकार का
पुण्य संचय नहीं किया, कुटुम्ब के लिये मोहान्ध होकर
क्रय-विक्रय में मैंने सत्य का भी प्रयोग नहीं किया। ऐसे ही शूद्र का शरीर प्राप्त
करनेवाला भी अपने कर्तव्य से विमुख रहते हुए यदि शरीर त्याग करता है तो वह भी यह
चिंता करता है कि मैंने ब्राह्मणों को न तो यशस्कर दान दिया है और न उनकी पूजा की
है। मेरे द्वारा इस पृथ्वी पर जलाशय का निर्माण नहीं करवाया गया है। मैंने किसी
संस्कारहीन ब्राह्मणश्रेष्ठ का संस्कार कराने में योगदान भी नहीं किया है।
शास्त्रविहित अपने कर्मों का परित्याग करके मदान्ध होकर मैं जीवित रहा। श्रेष्ठ
तीर्थ में जाकर अपने शरीर का परित्याग भी नहीं किया। मैंने धर्मार्जन भी नहीं किया
है। कभी सद्गति प्राप्त करने के लिये मैंने देवताओं की पूजा भी नहीं की है।
सारा हि लोकेषु भवेत्त्रिलोकी
द्वीपेषु सर्वेषु च जम्बुकाख्यम् ।
देशेषु सर्वेष्वपि देवदेशः जीवेषु
सर्वेषु मनुष्य एव ॥ २,४८.१९ ॥
वर्णाश्च चत्वार इह प्रशस्ताः
वर्णेषु धर्मिष्ठनराः प्रशस्ताः ।
धर्मेण सौख्यं समुपैति सर्वं ज्ञानं
समाप्नोति महापथे स्थितः ॥ २,४८.२०
॥
देहं परित्यज्य यदा गतायुः पक्षिन्
स्थितोऽहं कृमिकीटसंस्थितः ।
सरीसृपोऽहं मशको
विनिर्मितश्चतुष्पदोऽहं वनसूकरोऽहम् ॥ २,४८.२१ ॥
सर्वं विजानाति हि गर्भसंस्थितो
जातश्च सद्यस्तदिदञ्च विस्मरेत् ।
यच्चिन्तितं गर्भसमागतेन वै बालो
युवा वृद्धवया बभूव ॥ २,४८.२२ ॥
मोहाद्विनाष्टं यदि गर्भचिन्तितं
स्मृतं पुनर्मृत्युगते चदेहे ।
तस्मिन्प्रनष्टे हृदि चिन्तितं गतं
स्मृतं पुनर्गर्भगते च देहे ॥ २,४८.२३
॥
तस्मिन्प्रनष्टे हृदि चिन्तितं
पुनर्मया स्वकोशे परवञ्चनं कृतम् ।
द्यूतैश्छलेनापि च चौर्यवृत्त्या
धर्मं व्यतिक्रम्य शरीररक्षणे ॥ २,४८.२४
॥
समस्त लोकों में पृथ्वी,
स्वर्ग और पाताल—- तीन लोक सारभूत हैं। सभी
द्वीपों में जम्बूद्वीप, समस्त देशों में देवदेश अर्थात्
भारतवर्ष और सभी जीवों में मनुष्य ही सार है। इस जगत्के सभी वर्णों में
ब्राह्मणादि चार वर्ण तथा उन वर्णों में भी धर्मनिष्ठ व्यक्ति श्रेष्ठ हैं । इस
लोकयात्रा के मार्ग में स्थित जीवात्मा धर्म से सभी प्रकार का सुख और ज्ञान
प्राप्त करता है। हे पक्षिन् ! गर्भस्थ जीव को अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान रहता है,
वह वहाँ स्मरण करता है कि आयु के समाप्त होनेपर शरीर का परित्याग
करके अब मैं मलादि में रहनेवाले छोटे- छोटे कृमि या कीटाणुओं की एक विशेष योनि में
स्थित हूँ, मैं सरककर चलनेवाले सर्पादि की योनि में पहुँचा,
मच्छर हो गया था, चार पैरोंवाला अश्व या वृषभ
नामक पशु बन गया था अथवा जंगली सूकर की योनि में प्रविष्ट था । इस प्रकार गर्भ में
रहते हुए उस जीवात्मा को पूर्ण ज्ञान रहता है, किंतु उत्पन्न
होते ही वह तत्काल उसे भूल जाता है । गर्भ में पहुँचकर जो जीवात्मा चिन्तन करता है,
शरीरधारी वैसा ही जन्म लेकर बालक, युवा और
वृद्ध होता है। यदि गर्भ में सोची गयी बात सांसारिक व्यामोह के कारण विस्मृत हो
जाती है तो पुनः मृत्युकाल में उसकी याद आ जाती है। यदि शरीर के नष्ट होनेपर वह
हृदय में ही रह गयी है तो पुनः गर्भ में जानेपर उसका स्मरण होना निश्चित है। उसे
याद आता है कि मैं दूसरे को छलने का विचार करता रहा। मैंने शरीर की रक्षा के लिये
धर्म का परित्याग करके द्यूत, छल-कपट और चोरवृत्ति का आश्रय
लिया।
कृच्छ्रेण लक्ष्मीः समुपार्जिता
स्वयं मया न भुक्तं मनसेप्सितं धनम् ।
ताम्बूलमन्नं मधुरं सगोरसं
दत्त्वाग्निदेवातिथिबन्धुवर्गे ॥ २,४८.२५
॥
सोमग्रहे सूर्यसमागमेपि वा न सेवितं
तीर्थवरिष्ठमुत्तमम् ।
कोशं स्वकीयं मलमूत्रपूरितं
देहिन्क्वचिन्निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,४८.२६ ॥
मया न दृष्टा न नता न पूजिता
त्रैविक्रमी मूर्तिरिह स्थिता भुवि ।
प्रभासनाथो न च भक्तिसंस्तुतो
देहिन्क्वचिन्निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,४८.२७ ॥
गत्वा वरिष्ठे भुवि तीर्थसन्निधौ
धनं न दत्तं विदुषां करे मया ।
आप्लुत्य देहं विधिना द्विजे गुरौ
दिहिन्क्वचिन्निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,४८.२८ ॥
न मातृपूजा न च विष्णुशङ्करौ
गणेशचणड्यौ न च भास्करोऽपि वा ।
यञ्चोपचारैर्बलियुक्तचन्दनैर्देहिन्क्वचिन्निस्तर
यत्त्वया कृतम् ॥ २,४८.२९ ॥
लब्धा मया मानवदेवतोपमा मोहाद्गता
सर्वमिदञ्च पार्थिव ।
गतिं न वीक्षेत स वै
विमूढधीर्देहिन्क्वचिन्निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,४८.३० ॥
अत्यन्त कष्ट से मैंने स्वयं
लक्ष्मी को एकत्र किया था, किंतु अभिलषित धन का
उपभोग मैं नहीं कर सका। अग्निदेव, अतिथि और बन्धु-बान्धवों को
स्वादिष्ट अन्न, फल, गोरस तथा ताम्बूल दे
करके मैं उन्हें संतुष्ट करने में असफल रहा । चन्द्रग्रहण हो या मेष - मकर राशियों
पर सूर्य के प्रवेश का पुण्यकाल हो, ऐसे अवसर पर भी श्रेष्ठ
तीर्थों का सेवन मैंने नहीं किया । इसलिये हे देहिन् ! तुम मल-मूत्र से भरे हुए
अपने इस कोश को परिपुष्ट-करने में लगे रहे। अतः तुम्हारा उद्धार कहाँ हो सकता है ?
इस पृथ्वी पर स्थित त्रिविक्रम भगवान् विष्णु की प्रतिमा का दर्शन
मैंने नहीं किया, उन्हें प्रणाम नहीं किया और न तो उनकी पूजा
की है। प्रभासक्षेत्र में विराजमान भगवान् सोमनाथ की भक्तिपूर्वक पूजा एवं वन्दना
भी मेरे द्वारा नहीं हुई है । जब ऐसी चिंता मृत प्राणी करता है, तब यमदूत उससे कहते हैं कि हे देहधारिन् ! जैसा तुमने किया है, उसके अनुसार अपना निस्तार करो । हे देहिन् ! पृथ्वी के श्रेष्ठतम तीर्थों की
संनिधि में जाकर उनमें स्नानकर तुम्हारे द्वारा विद्वानों, ब्राह्मणों
एवं गुरुजनों के हाथ में कुछ नहीं दिया गया, अतः जैसा तुमने
किया है, वैसा भोगो। हे जीव ! तुमने चन्दन और नैवेद्यादि
पञ्चोपचार से और चन्दनादियुक्त बलि प्रदान करके मातृकापूजा नहीं की, न तो तुम्हारे द्वारा विष्णु, शिव, गणेश, चण्डी अथवा सूर्यदेव ही पूजे गये हैं। अत:
तुमने जो कर्म किया है, उसी में अपना निर्वाह करो । हे
देहिन्! तुम्हें तो देवत्व प्राप्त करने योग्य मानवयोनि की प्राप्ति हुई थी,
किंतु (लौकिक आसक्ति में) मोहवश यह सब समाप्त हो गया। विमूढबुद्धि
तुमने अपनी गति को नहीं देखा, इसलिये जो तुमने किया है,
अब उसी में निस्तार करो ।
एतानि पक्षिन्मनसा विचिन्त्य
वाक्यानि धर्मार्थयशस्कराणि ।
मुक्तिं समायान्ति मनुष्यलोके
वसन्ति ये धर्मरताः सुदेशे ॥ २,४८.३१
॥
हे पक्षिन् ! धर्म,
अर्थ तथा यश को प्रदान करनेवाले, ऐसे
पूर्वोक्त परलोकपथ के पथिक जीवों के पश्चात्ताप-वाक्य का विचार करके इस मनुष्यलोक में
जो धर्माचरण करते हुए पुण्य देश में निवास करते हैं, वे इसी
मनुष्यलोक में जीवन्मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।
इति ब्रुवाणैर्यमधूतवर्गैर्विहन्यते
कालमयैश्च मुद्गरैः ।
हा दैव हा दैव इति स्मरन् वै धनं न
दत्तं स्वयमर्जितं यत् ॥ २,४८.३२
॥
न भूमिदानं न च गोप्रदानं न
वारिदानं न च वस्त्रदानम् ।
फलं सताम्बूलविलेपनं वा त्वया न
दत्तं भुवि शोचसे कथम् ॥ २,४८.३३
॥
पिता मृतस्ते च पितामहः सा यया धृतो
वाप्युदरे स्वकीये ।
मृतोऽप्यसौ बन्धुजनः समस्तो दृष्टं
त्वया सर्वमिदं गतायः ॥ २,४८.३४ ॥
कोशं त्वदीयं ज्वलितञ्च वह्निना
पुत्त्रैर्गृहीतो धनधान्य सञ्चयः ।
सुभाषितं धर्मचयं कृतञ्च यत्तदेव
गच्छेत्तव पृष्ठसंस्थम् ॥ २,४८.३५
॥
न दृश्यते कोऽपि मृतः समागतो राजा
यतिर्वा द्विजपुङ्गवोऽपि वा ।
यो वै मृतः साहसिकः स मर्त्यको नाशं
योऽपि धरातले स्थितः ॥ २,४८.३६ ॥
एवं गणास्ते ब्रुवते सकिन्नरा
धैर्यं समालम्ब्य विपादपूरितः ।
श्रुत्वा गणानां वचनं महाद्भुतं
ब्रवीति पक्षीन्द्र मनुष्यतां गतः ॥ २,४८.३७
॥
ऊपर किये हुए वर्णन के अनुसार विलाप
करते हुए प्रेत को यमदूत अपने कालस्वरूप मुद्गरों से बहुत मारते हैं। वह 'हा दैव ! हा दैव !' यह स्मरण करता हुआ अपने को कोसते
हुए कहता है कि तुमने अपनी कमायी से जो धन अर्जित किया था, उसमें
से किसी को दान नहीं दिया। पृथ्वी पर रहते हुए तुमने भूमिदान, गोदान, जलदान, वस्त्रदान,
फलदान, ताम्बूलदान अथवा गन्धदान भी नहीं किया
तो अब भला क्या सोच रहे हो ? तुम्हारे पिता और पितामह मर गये,
जिसने तुमको अपने गर्भ में धारण किया वह तुम्हारी माता भी मर गयी,
तुम्हारे सभी बन्धु भी नहीं रहे, ऐसा तुमने
देखा है । तुम्हारा पाञ्चभौतिक शरीर अग्नि में जलकर भस्म हो गया । तुम्हारे द्वारा
एकत्र किया गया सम्पूर्ण धन-धान्य पुत्रों ने हस्तगत कर लिया। जो कुछ तुम्हारा
सुभाषित है और जो कुछ तुमने धर्मसंचय किया है, वह तुम्हारे
साथ है। इस पृथ्वी पर जन्म लेनेवाला राजा हो अथवा संन्यासी या कोई श्रेष्ठतम
ब्राह्मण हो, वह मरने के बाद पुनः आया हुआ नहीं दिखायी देता
है। जो भी इस धरातल पर उत्पन्न हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित
है। हे पक्षीन्द्र ! दूतों के सहित धर्मराज के पार्षद जब प्रेत से इस प्रकार से
कहते हैं तो दुःखी वह प्रेत उन गणों की महान् आश्चर्यपूर्ण बात को सुनकर मनुष्य की
वाणी में कहने लगता है—
दानप्रभावेण विमानसंस्थितो धर्मः
पिता मातृदयानुरूपिणी ।
वाणी कलत्रं मधुरार्थभाषिणी स्नानं
सुतीर्थे च सुबन्धवर्गः ॥ २,४८.३८
॥
करार्पितं यत्सुकृतं समस्तं
स्वर्गस्तदा स्यात्तव किङ्करोपमः ।
यो धर्मवान् प्राप्स्यति
सोऽतिसौख्यं पापी समस्तं विविधञ्च दुःखम् ॥ २,४८.३९ ॥
यो धर्मशीलो जितमानरोषो
विद्याविनीतो न परोपतापी ।
स्वदारतुष्टः परदारदूरःस वै नरो नो
भुवि वन्दनीयः ॥ २,४८.४० ॥
मिष्टान्नदाता चरिताग्निहोत्रो
वेदान्तविच्चन्द्रसहस्रजीवी ।
मासोपवासी च पतिव्रता चषड्जीवलोके
मम वन्दनीयाः ॥ २,४८.४१ ॥
एवं समाचारयुतो नरोऽपि वापीं सकूपां
सजलं तडागम् ।
प्रपाशुभं हृद्गृहदेवमन्दिरं कृतं
नरेणैव स धर्मौत्तमः ॥ २,४८.४२ ॥
वर्षाशनं वेदविदे च दत्तं
कन्याविवाहस्त्वृणमोचनं द्विजे ।
भूमिः सुकृष्टापि
तृषार्तिहेतोस्तदेवमेतं सुकृतत्समस्तम् ॥ २,४८.४३ ॥
जब दान के प्रभाव से व्यक्ति
विमानपर आरूढ़ होता है, उस समय धर्म उसका
पिता है, दया उसकी माता है, मधुर एवं
अर्थगाम्भीर्ययुक्त वाणी उसकी पत्नी है और सुन्दर तीर्थ में किया गया स्नान उसका
हितैषी बन्धु है। जब मनुष्य अपने हाथ से सुकृत करके उसको भगवान् के चरणों में
अर्पित कर देता है, तब उसके लिये स्वर्ग किंकर की भाँति हो
जाता है। जो प्राणी धर्मनिष्ठ है वह अत्यन्त सुख-सुविधाओं को प्राप्त करता है और
जो पापी है वह नाना दुःखों का भोग करता है। जो धर्मशील, मान-सम्मान
तथा क्रोध को जीतनेवाला, विद्या विनय से युक्त, दूसरे को कष्ट न देनेवाला, अपनी पत्नी में संतुष्ट
और परायी स्त्री से दूर रहनेवाला है, वह पृथ्वी पर हमारे
लिये वन्दनीय है। जो मिष्टान्नदाता, अग्निहोत्री, वेदान्ती, हजारों चान्द्रायणव्रत करनेवाला, मासपर्यन्त उपवास रखने में समर्थ पुरुष तथा पतिव्रता नारी है— ये छ: इस जीवलोक में मेरे लिये वन्दनीय हैं। इस प्रकार का सम्यक् आचरण
करते हुए जो मनुष्य वापी, कूप और जल से पूर्ण तालाब बनवाता
है, जो प्याऊ, जलकुण्ड, धर्मशाला तथा देवमन्दिर का निर्माण कराता है, वह
उत्तम धर्म करनेवाला है । वेदज्ञ ब्राह्मण को दिया गया वर्षाशन, कन्या का विवाह, ऋणी ब्राह्मण की ऋणमुक्ति, सुगमता से बोयी-जोती जानेवाली भूमि का दान तथा प्यास से दुःखी प्राणियों के
लिये उसी के अनुकूल कूप, तडागादि का निर्माण ये ही सब सुकृत
हैं।
अध्यायमेनं सुकृतस्य सारं शृणोति
गायत्यपि भावशुद्ध्या ।
स वै कुलीनः स च धर्मयुक्तो
विश्वालयं याति परं स नूनम् ॥ २,४८.४४
॥
शुद्ध भाव से जो प्राणी इस
सुकृतसाररूप अध्याय को सुनता और पढ़ता भी है वह कुलीन है। वह धर्मनिष्ठ व्यक्ति
मृत्यु के बाद निश्चित ही उस अनन्त ब्रह्माण्ड के एकमात्र आश्रय नारायण को प्राप्त
करता है।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे मनुष्यस्य
सुखदुःख प्रापकधर्माधर्मनिरूपणं नामाष्टचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 49
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