श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १०-१३

श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १०-१३                            

श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १० – १३ नारायण से प्राकृत तथा वैकृत सृष्टि का विस्तार का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १०-१३


श्रीगरुडमहापुराणम् ब्रह्मकाण्डः (मोक्षकाण्डः) दशम एकादश द्वादश त्रयोदशोऽध्यायः

Garud mahapuran Brahmakand chapter 10-13

श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड दसवां ग्यारहवां बारहवां तेरहवां अध्याय  

गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १०-१३                         

गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १०-१३ का संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद

गरुडजी ने कहा- हे प्रभो ! देवताओं के द्वारा इस प्रकार स्तुति किये गये भगवान् विष्णु उन्हें आश्रय देकर स्वयं उन्हींमें किस प्रकार प्रविष्ट हुए और किस प्रकार सृष्टि हुई ? हे कृपालो ! आप इसे भलीभाँति बतायें।

श्रीकृष्ण ने कहा- वे भगवान् महाप्रभु उन सम्बन्धरहित तत्त्वों में प्रविष्ट हुए, इससे उनमें क्षोभ उत्पन्न हुआ। सबसे पहले भगवान्ने हिरण्मयात्मक ब्रह्माण्ड की सृष्टि की, जो पचास कोटियोजन में चारों ओर विस्तृत था । उसके ऊपर अवस्थित अत्यन्त सूक्ष्म भाग उतने ही विस्तार में फैला था, जितने में उस हिरण्मय अण्ड का विस्तार था। उसके भी ऊपर पचास कोटि भूतल था । वह सात आवरणों से चारों ओर परिधि द्वारा घिरा हुआ था । पहले आवरण का नाम कबन्ध है। दूसरा आवरण अग्निदेव का है, तीसरा आवरण महात्मा हर का है, चौथा आवरण आकाश का है, पाँचवाँ आवरण अहंकार का है, छठा आवरण महत्तत्त्वात्मक है और सातवाँ आवरण त्रिगुणात्मक है। इसके अनन्तर अव्याकृत आकाश है; इसके विस्तार की कोई सीमा नहीं है । इसी मण्डल के मध्य में अव्यय हरि विराजमान रहते हैं। आठवाँ आवरण आकाश का है। उसके मध्य में विरजा नदी है। इसकी परिधि पाँच योजन विस्तीर्ण है । यह अतिशय पुण्यवती नदी है। विरजा नदी में भलीभाँति स्नान करके लिंग – देह का भी परित्याग कर हरि के मोक्षपद की प्राप्ति होती है। प्रारब्ध कर्मों का क्षय हो जाने पर ही विरजा नदी में स्नान करना सम्भव होता है ।

हे खगेश्वर ! प्रलय में भी इस विरजा नदी का लय नहीं होता, उसे लक्ष्मीस्वरूपा समझें; क्योंकि वह प्राणियों के लिंगशरीर का नाश करनेवाली है। विरजा नदी के बाद व्याकृत आकाश है जो निःसीम है, उसकी अभिमानिनी देवता लक्ष्मी हैं। सृष्टि के समय उस ब्रह्माण्ड के अभिमानी देवता ब्रह्मा थे,जो विराट् नाम से कहे गये। इस प्रकार ब्रह्माण्ड आदि का सर्जन कर अव्ययात्मा भगवान् हरि उन- उन तत्त्वाभिमानी देवताओं के साथ उस ब्रह्माण्ड के ऊपर-नीचे - सर्वत्र व्याप्त होकर नित्य स्थित रहते हैं । हे पक्षिराज ! यह प्राकृत सृष्टि है, अव्यक्त आदि से लेकर पृथ्वीतक के जो भी तत्त्व इस अण्डरूप जगत् में बाह्यरूप से उत्पन्न हुए हैं, वे सभी प्राकृत सृष्ट कहे जाते हैं और ब्रह्माण्ड तथा ब्रह्माण्डान्तर्वर्ती सृष्टि वैकृत सृष्टि कही जाती है।

हे अण्डज ! जिन्हें पुरुष कहा गया है वे हरि तो साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम ही हैं। उन विष्णु उस हिरण्मय अण्ड के मध्य विद्यमान जलराशि में एक हजार वर्षतक शयन किया था। उस समय लक्ष्मी ही जलरूप में थीं, शय्यारूप में विद्या थीं, तरंगरूप में वायु थे और तम ही निद्रारूप में था । इसके अतिरिक्त वहाँ और कोई नहीं था । उसी उदक के मध्य में नारायण योगनिद्रा में स्थित थे । हे पक्षिश्रेष्ठ! उस समय लक्ष्मी ने उस जलगर्भ में शयन कर रहे हरि की स्तुति की। हरि की प्रकृति उस समय लक्ष्मी तथा धरा ( भूदेवी ) - इन दो रूपों को धारण कर लेती है और शेष वेद का रूप धारण करके जल के मध्य सोये हरि की स्तुति करते हैं । स्तुति से प्रसन्न हुए नित्य प्रबुद्ध वे महाविष्णु निद्रा का परित्याग कर प्रबुद्ध हो उठे। उस समय उनकी नाभि से सम्पूर्ण जगत्का आश्रयभूत हिरण्मय पद्म प्रादुर्भूत हुआ । इसे प्राकृत सृष्टि के रूप में समझना चाहिये। उस सृष्टि की अभिमानिनी देवता भूदेवी थीं। वह पद्म असंख्य सूर्यों के समान प्रकाशवाला कहा गया है। चिदानन्दमय विष्णु उससे भिन्न हैं, उस पद्म को भगवान्‌ के किरीट आदि आभूषणों के समान समझना चाहिये ।

हरि के किरीट आदि भी दो प्रकार के हैं- एक स्वरूपभूत तथा दूसरे स्वरूपभिन्न । उस पद्म से सभी लोकों के विधायक ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुई। उस हिरण्मय पद्म से चतुर्मुख ब्रह्मा प्रादुर्भूत हुए। किसने मेरी सृष्टि की है, वह प्रभु कौन है ? ऐसी जिज्ञासावश ब्रह्मा उस पद्म के नाल में प्रविष्ट हो गये। किंतु अज्ञानवश जब वे नारायण के विषय में कुछ जान न सके तब उस समय उन्हें 'तप', 'तप' इस प्रकार ये दो शब्द सुनायी दिये । उन शब्दों के अभिप्राय को ठीक-ठीक समझते हुए विष्णु में एकमात्र निष्ठा रखनेवाले ब्रह्मा ने हरि की प्रीति प्राप्त करने की इच्छा से दिव्य हजार वर्षतक तपस्या की । हे खगेन्द्र ! तपस्या से प्रसन्न होकर हरि भक्तश्रेष्ठ ब्रह्मा को दिव्य वर प्रदान करने के लिये प्रकट हो गये । भगवान् चतुर्भुजधारी थे, कमल के समान उनके नेत्र थे, वक्षःस्थल श्रीवत्स से सुशोभित था तथा गला कौस्तुभमणि की माला से अलंकृत था, वे अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में थे, उनके नेत्र करुणा से आर्द्र थे। ऐसे उन नारायण का ब्रह्मा को दर्शन हुआ।

भक्तों के वश में रहनेवाले, अत्यन्त दयालु परब्रह्मस्वरूप नारायण को अपने समक्ष देखकर ब्रह्मा ने बड़ी ही श्रद्धा-भक्ति से उनकी पूजा की और उनके पादतीर्थ को मस्तक पर धारण किया। तदनन्तर भक्तिमानों में श्रेष्ठ तथा महाभागवतों में प्रधान ब्रह्मा ने उन हरि की अनेक प्रकार से स्तुति की और उनके सामने वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये ।

श्रीकृष्ण ने पुनः कहाब्रह्माजी के द्वारा स्तुति किये जाने पर दया के सागर भगवान् मधुसूदन मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोले- हे ब्रह्मन् ! मेरे प्रसाद से इन देवताओं की वैसी ही सृष्टि आप करें, जिस प्रकार पूर्वकाल में आपके द्वारा हुई थी । यद्यपि इस सृष्टि कार्य से आपका कोई प्रयोजन नहीं है, फिर भी मेरी प्रसन्नता के लिये आप ऐसा करें । हरि के ऐसा कहने पर ब्रह्मा ने उन हरि की स्तुति करके उनकी प्रसन्नता के लिये मन में सृष्टि करने का निर्णय लिया। तब महत्तत्त्वात्मक ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जीव के अभिमानी देवता वायुदेव की सृष्टि की। हे गरुड ! वे ही प्रथम सृष्टि के पुरुषात्मा हैं। तदनन्तर ब्रह्मा ने अपने दाहिने हाथ से ब्रह्माणी तथा भारती नामक दो देवियों की सृष्टि की। बायें हाथ से सत्य के पुत्र महत्तत्त्वात्मक अनल को उत्पन्न किया । ब्रह्मा के दाहिने हाथ से ही अहंकारात्मक हर की सृष्टि हुई। इसी प्रकार गरुड, शेष, वायु, गायत्री, वारुणी, सौपर्णी, चन्द्र, इन्द्र, कामदेव, इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं, मनु-शतरूपा, दक्ष, नारदादि ऋषियों, कश्यप, अदितिदेवी, वसिष्ठ आदि ब्रह्मज्ञानी ऋषियों, कुबेर, विष्वक्सेन तथा पर्जन्य आदि देवसृष्टि का उनसे प्रादुर्भाव हुआ । हे खगेश्वर ! मेरी कृपा से ही ब्रह्मा इस सृष्टि कार्य में समर्थ हो सके।

गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय १०-१३ का मूलपाठ

गरुडपुराणम् ब्रह्मकाण्डः (मोक्षकाण्डः) अध्यायः १०

अध्यायः १० श्रीगरुडमहापुराणम्

गरुड उवाच ।

देवैरेवं स्तुतो विष्णुर्भगवान्सात्त्वतां पतिः ।

कीदृशं ह्याश्रयं दत्त्वैषां विवेश महाप्रभुः ॥ ३,१०.१ ॥

एतद्वेदितुमिच्छामि कृष्णकृष्ण महाप्रभो ।

सम्यग्ब्रूहि दयालो त्वं यदि मच्छ्रोत्रमर्हति ॥ ३,१०.२ ॥

श्रीकृष्ण उवाच ।

तेषु तत्त्वेषु भगवान्स विवेश महाप्रभुः ।

क्षोभयामास भगवान् संबन्धविधुरो हरिः ॥ ३,१०.३ ॥

अदौ ससर्ज भगवान् ब्रह्माण्डं कन कात्मकम् ।

पञ्चाशत्कोटिविस्तीर्णं योजनानां समन्ततः ॥ ३,१०.४ ॥

तदूर्ध्वमण्ववयवस्तावान्कनकरूपकः ।

वर्तते तत ऊर्ध्वं तु पञ्चाशत्कोटिभूतलम् ॥ ३,१०.५ ॥

एवं कोटिशतं तस्यावयवः परिकीर्तितः ।

ततश्च सप्तावरणैः समतात्परिधीकृतम् ॥ ३,१०.६ ॥

कबन्धावरणं ह्याद्यं कोट्या दशसहस्रकम् ।

द्वितीया वरणं ज्ञेयं पावकस्य महात्मनः ॥ ३,१०.७ ॥

अपां दशगुणैर्युक्तं समन्तात्परिधी (खी) कृतम् ।

तृतीयावरणं ज्ञेयं हरस्यैव महात्मनः ॥ ३,१०.८ ॥

दशाधिकं पावकाच्च समन्तात्परिवारितम् ।

चतुर्थावरणं ज्ञेयं नभसोपि महाप्रभो ॥ ३,१०.९ ॥

हराद्दशगुणैरेवं समन्तात्परिवारितम् ।

पञ्चमावरणं ज्ञेयमहङ्काराख्यमेवच ॥ ३,१०.१० ॥

व्योम्नो दशगुणैरेवं समन्तात्परिवारि तम् ।

षष्ठमावरणं प्रोक्तं महत्तत्त्वं खगेश्वर ॥ ३,१०.११ ॥

अहङ्काराद्दशगुणं समन्तात्परिवारितम् ।

सप्तमावरणं प्रोक्तं त्रिगुणावरणं प्रभो ॥ ३,१०.१२ ॥

महत्तत्त्वाद्दशगुणैरधिकं परिकीर्तितम् ।

महत्तत्त्वानन्तरं च तमो ह्यावरणं स्मृतम् ॥ ३,१०.१३ ॥

महत्तत्त्वात्पञ्चगुणैरधिकं परिकीर्तितम् ।

तस्माच्च द्विगुणं ज्ञेयंरजो ह्यावरणं स्मृतम् ॥ ३,१०.१४ ॥

ततश्च द्विगुणं ज्ञेयं सत्त्वावरणमुत्तमम् ।

त्रयश्चैवं मिलित्वा तु एकावरणमीरितम् ॥ ३,१०.१५ ॥

अव्याकृताख्यमाकाशं तदनन्तरमीरितम् ।

मर्यादारहितश्चैवं तत्रास्ते हरिरव्ययः ॥ ३,१०.१६ ॥

अष्टमावरणं व्योम्नोरं तरा विरजा नदी ।

पञ्चयोजनविस्तीर्णा समन्तात्परीधीकृता ॥ ३,१०.१७ ॥

अस्ति पुण्यतमा ज्ञेया लोकसंसारनाशिनी ।

एवं चतुर्मुखेनैव तदा हृष्यं ति चाण्डज ॥ ३,१०.१८ ॥

ते सर्वे विरजानद्यां सम्यक्स्नात्वा विसर्ज्य च ।

लिङ्गदेहं ततः पश्चान्मोक्षं विन्दन्ति ते हरेः ॥ ३,१०.१९ ॥

अपरोक्षदृशामेवं ब्रह्मणा सह गामिनाम् ।

विरजातरणं विद्धि नान्येषां विनतासुत ॥ ३,१०.२० ॥

अपरोक्षदृशां ब्रह्मन्व्यासादीनां खगेश्वर ।

विरजातरणं नास्ति भोक्तव्यत्वाच्च कर्मणः ॥ ३,१०.२१ ॥

विरिञ्चेनैव साकं तु कल्पेस्मिन्नधिकारिणाम् ।

तेषां तु नियमेनैव सर्वप्रारब्धसंक्षयः ॥ ३,१०.२२ ॥

भवत्येवं न संदेहो नान्येषां सर्वसंक्षयः ।

अतस्तु विरजातरणं तेषामेव भवेत्पटो ॥ ३,१०.२३ ॥

विरजातरणं नास्ति तेषां त (तयोस्त)त्संगिनां तथा ।

सर्वारब्धक्षयो नास्ति यतस्तेषां खगाधिप ॥ ३,१०.२४ ॥

अतश्च सर्वथा नास्ति विरजातरणं प्रभो ।

प्रलये विरजानद्या लयो नास्ति खगेश्वर ॥ ३,१०.२५ ॥

लक्ष्म्यात्मिका तु सा ज्ञेया लिङ्गदेहविदारिणी ।

ब्रह्मत्वयोग्या ऋजवो नाम देवाः प्रकीर्तिताः ॥ ३,१०.२६ ॥

तेपि प्रत्येकशः संति ह्यनन्ताश्च पृथग्गणाः ।

पृथक्पृथक्च तैः साकं मोक्षयोग्याः खगेश्वर ॥ ३,१०.२७ ॥

जीवाः संति ह्यनेके च प्रतिकल्पे सृजन्ति ते ।

द्वात्रिंशल्लक्षणैः सम्यग्युक्ता वायुत्वयोग्यकाः ॥ ३,१०. २८ ॥

अष्टाविंशल्लक्षणैश्च गिरीशपदयोगिनः ।

चतुर्विंशतिमारभ्याषोडशाच्च सुराः स्मृताः ॥ ३,१०.२९ ॥

अष्टका ऋषयः प्रोक्तास्तदूनाश्चक्रवर्तिनः ।

शतजन्म समारभ्य ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ॥ ३,१०.३० ॥

अपरोक्षमिति प्रोक्तं तथा ह्यारब्धसंक्षयः ।

एकेन शतकल्पेन वायुत्वं याति भो द्विज ॥ ३,१०.३१ ॥

शतजन्मनि ब्रह्मत्वं याति पश्चाद्धरेः पदम् ।

चत्वारिंशद्ब्रह्मकल्पं समारभ्य खगेश्वर ॥ ३,१०.३२ ॥

रुद्रस्याप्यापरोक्ष्यं स्यात्तथा प्रारब्धसंक्षयः ।

एकचत्वारिंशकल्पे शेषत्वं याति सुव्रत ॥ ३,१०.३३ ॥

ब्रह्मणा सह मोक्षं च याति सम्यङ्न चान्यथा ।

कल्पविंशतिमारभ्य ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ॥ ३,१०.३४ ॥

इन्द्रस्याप्यापरोक्ष्यं स्यात्तथा प्रारब्धसंक्षयः ।

ब्रह्मणैव सहायाति हरिं नारायणं परम् ॥ ३,१०.३५ ॥

गरुड उवाच ।

पञ्चाशीतिब्रह्मकल्पं समारभ्य महाप्रभो ।

रुद्रस्याप्यापरोक्ष्यं स्यात्तथा प्रारब्धसंक्षयः ॥ ३,१०.३६ ॥

इति श्रुतं मया ब्रह्मन्ब्रह्मणोक्तं हरेः प्रियात् ।

इत्थं त्वयोक्तं श्रीकृष्ण संशयोबाधते मम ॥ ३,१०.३७ ॥

अतो मे संशयं छिन्धि यथा न स्यात्तथा पुनः ।

इति तद्वचनं श्रुत्वा कृष्णो वचनमब्रवीत् ॥ ३,१०.३८ ॥

श्रीकृष्ण उवाच ।

ब्रह्मोक्तस्य मयोक्तस्य विवादो नास्ति सर्वथा ।

संदेहस्त्वज्ञदृष्टीनां ज्ञानिनां नास्ति सर्वथा ॥ ३,१०.३९ ॥

अशीतिह्यष्टका प्रोक्ता अष्टपञ्च खगेश्वर ।

चत्वारिंशद्ब्रह्मकल्प एवं प्राह चतुर्मुखः ॥ ३,१०.४० ॥

तत्त्वानां बहुगोप्यत्वात्तथोक्तं ब्रह्मणा पुरा ।

अभिप्रायस्त्वेवमेव ज्ञातव्यो नात्र संशयः ॥ ३,१०.४१ ॥

पञ्चा शीतिब्रह्मकल्पं ये विजानन्ति भो द्विज ।

तेन्धं तमः प्रविशन्ति सत्यंसत्यं मयोदितम् ॥ ३,१०.४२ ॥

विरजानन्तरं विप्रं तथा व्याकृतमंबरम् ।

अनन्तपारं तदपि लक्ष्मीस्तस्याभिमानिनी ॥ ३,१०.४३ ॥

संख्यानुगणनं नाम यस्य नास्ति महाप्रभो ।

न दानं जातिप्रोक्तं सर्वदा नास्ति संशयः ॥ ३,१०.४४ ॥

अण्डाभिमानी ब्रह्मा तु विराडाख्यो ह्यभूत्तदा ।

एवं मतं स निर्माय भगवान्हरिख्ययः ॥ ३,१०.४५ ॥

विशेषात्तत्र गरुड देवैस्तत्त्वाभिमानिभिः ।

अधश्चोर्ध्वं तदाक्रम्य हरिस्तिष्ठति सर्वदा ॥ ३,१०.४६ ॥

एवं प्राकृतसर्गोक्तिर्वैकृतं शृणु पक्षिराट् ॥ ३,१०.४७ ॥

गरुड उवाच ।

सृष्टिरुक्ता त्वया पूर्वं श्रुता सम्यङ्मया हरे ॥ ३,१०.४८ ॥

किं नाम प्राकृतं ज्ञेयं तथा किं वैकृतं प्रभो ।

एतद्विस्तीर्य मे ब्रूहि श्रोतुं कौतूहलं हि मे ॥ ३,१०.४९ ॥

श्रीकृष्ण उवाच ।

अव्यक्ताद्याः पृथिव्यन्ता अण्डाच्च बहिरुद्भवाः ।

ते सर्वे प्राकृताः प्रोक्तास्तेषां ज्ञानाद्विमच्यते ॥ ३,१०.५० ॥

ब्रह्माडं विकृतं ज्ञेयं ब्रह्माण्डान्तः खगेश्वर ।

या सृष्टिरुच्यते सद्भिः सैवोक्ता विकृतेति च ॥ ३,१०.५१ ॥

सृष्टिश्च प्रलयश्चैव संसारो भक्तिरेव च ।

देवता ऋषिमुख्याश्च लोका भूरादयस्तथा ॥ ३,१०.५२ ॥

अनाद्यनन्तकालीनाः सर्वदैकप्रकारकाः ।

जगत्प्रवाहः सत्योऽयं नैव मिथ्या कथञ्चन ॥ ३,१०.५३ ॥

यत्त्वेतदन्यथा ब्रूयुः सर्वहन्तार एव ते ।

जगत्प्रवाहः सत्योऽयं हरिसेवेतिसाथा ॥ ३,१०.५४ ॥

सत्यं सत्यं पुनः सत्यमुद्धत्य भुजमुत्यते ।

वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति न देवः केशवात्परः ॥ ३,१०.५५ ॥

सर्वोत्कृष्टं केशवं च विहायान्यमुपासते ।

तेषामन्धं तमो ज्ञेयं पितॄणां गरुणामपि ॥ ३,१०.५६ ॥

इदानीं शृणु पक्षीन्द्र वैकृतं सर्गमुत्तमम् ।

सम्यग्जानाति यो लोके स याति परमं पदम् ॥ ३,१०.५७ ॥

इति श्रीगारुडे महापुराणे श्रीकृष्णगरुडसंवादे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे ब्रह्माण्डादिवैकृतैकदेश प्राकृतसृष्टिनिरूपणं नाम दशमोऽध्यायः॥

अध्यायः ११ श्रीगरुडमहापुराणम्

श्रीकृष्ण उवाच ।

पुरुषाख्यो हरिः साक्षाद्भगवान्पुरुषोत्तमः ।

शिश्येत्वण्डोदक विष्णुर्नृणां साहस्रवत्सरम् ।

लक्ष्मीश्चोदकरूपेण शय्यारूपेण भोण्डजा ॥ ३,११.१ ॥

विद्या तरङ्गरूपेण वायुरूपेण भोण्डज ॥ ३,११.२ ॥

तमोरूपेण सैवासी न्नान्यदासीत्कथञ्चन ।

असीद्गर्भोदके चैव नान्यदासीत्कथञ्चन ॥ ३,११.३ ॥

लक्ष्मीस्तुष्टाव च हरिं गर्भोदे पक्षिसत्तम ।

लक्ष्मीधराभ्यां रूपाभ्यां प्रकृतिर्हरिणा तथा ॥ ३,११.४ ॥

शेत श्रुतिस्वरूपेण स्तौति गर्भोदके हरिम् ।

नारायण नमस्तेऽस्तु शृणु विज्ञापनं मम ॥ ३,११.५ ॥

अजां जहि महाभाग योग्यानां मुक्तिमावह ।

अजा तु प्रकृतिः प्रोक्ता चापरा प्रकृतिः परा ॥ ३,११.६ ॥

शततोवरा तु ब्रह्माणी ब्रह्मपत्नी वरानना ।

उमा शच्यवरा तस्या अवराः संप्रकीर्तिताः ॥ ३,११.७ ॥

एतासां हननं नैव प्रार्थयामः सदा हरे ।

अस्ति प्रतिनृषु ब्रह्म प्रकृती द्वे व्यवस्थिते ॥ ३,११.८ ॥

एका तु नित्यसंसारा त्वजशब्दाभिधायिका ।

द्वितीया तु तमोऽपोह्या अजशब्दाभिधायिका ॥ ३,११.९ ॥

अत एव त्वजे ज्येष्ठे इति लोके प्रकीर्तिते ।

सुखदुः खप्रदा चैव अपरा दुः खदैव तु ॥ ३,११.१० ॥

मोक्षाधिकारिणामेव ज्ञानैश्वर्यादयो गणाः ।

तेषामाच्छादिका होका तमोङ्गा सा प्रकीर्तिता ॥ ३,११.११ ॥

जीवं प्रति महाविष्णुं पाह्याच्छादयति प्रभो ।

सा परा प्रकृतिर्ज्ञेया परमाच्छादिका स्मृता ॥ ३,११.१२ ॥

एवं सा परमा दुष्टा होका तमोङ्गा तु प्रकीर्तिता ।

जीववर्गेष्वेव खग ब्रह्मादेर्नास्ति सा क्वचित् ॥ ३,११.१३ ॥

पिशाचवत्समुद्दिष्टा जीवस्येत्यधिकारिणः ।

प्रेरिका तु तयोर्देव्यो स्त्वहमाद्या सुखात्मिका ॥ ३,११.१४ ॥

तत्र विष्णो महाभाग सगुणाच्छादको हितः ।

परमाच्छादिकां दुष्टां व्यामुच्यैव महाप्रभो ॥ ३,११.१५ ॥

मोक्षं देहि महादेव त्वद्भक्तानां महाप्रभो ।

परमाच्छादिका ह्यस्मान्नित्य संसारिणो यतः ॥ ३,११.१६ ॥

अत एव च नित्यत्वात्तस्मात्तदपसारणम् ।

कुरु देव महाभाग इति विज्ञायतां मम ॥ ३,११.१७ ॥

एवं स्तुतो हरिः कृष्णो सुप्रबुद्धोऽपि सर्बदा ।

उद्वुद्धवन्महा विष्णुरभूदज्ञपरीक्षया ॥ ३,११.१८ ॥

तस्य नाभेरभूत्पद्मं सौवर्णं भुवनाश्रयम् ।

तत्प्राकृतं च विज्ञेयं भूदेवी त्वभिमानिनी ॥ ३,११.१९ ॥

अनन्तसूर्यवच्चैव प्रकाशकरमीरितम् ।

चिदानन्दमयो विष्णुस्तस्माद्भिन्नो न संशयः ॥ ३,११.२० ॥

विष्णोः स्वरूपभूतं च ये विजानन्ति ते नराः ।

ते यान्ति ह्यधरं लोकं तथा तत्संगिसंगिनः ॥ ३,११.२१ ॥

किरीटादिकवच्चैव ज्ञातव्यं च खगेश्वर ।

किरीटाद्या अपि हरेर्द्विधा संति न संशयः ॥ ३,११.२२ ॥

स्वरूपा ह्यस्वरूपाश्च स्वस्वरूपनि दर्शने ।

गृहीता इति विज्ञेया न स्वरूपाः खगेश्वर ॥ ३,११.२३ ॥

भ्माण्डं ह्यसृजत्तत्र सर्वलोकविधायकम् ।

प्रलये मुक्तिहीनश्च सुप्त इत्युच्यते बुधः ॥ ३,११.२४ ॥

तस्य समिवस्त्रिवं च न ज्ञातव्या खगेश्वर ।

प्रलयोपि महाभाग ब्रह्मवाय्वोर्न चास्ति हि ॥ ३,११.२५ ॥

वृत्तिरूपं परं ज्ञानं पाद्यार्घ्यं नात्र संशयः ।

इन्द्रियाणामुपरतिः सुप्तिरित्युच्यते बुधैः ॥ ३,११.२६ ॥

ब्रह्मवाय्वोश्च पासग्नि वास्तवं स्यात्खगेश्वर ।

कथं तर्हि तयोर्वर्ते ह्यविलत्यत्वमुच्यते ॥ ३,११.२७ ॥

तस्मात्तद्वास्तवं नास्ति ब्रह्मवाय्वोः खगेश्वर ।

स्वप्नावस्थायाः सदृशी ह्यवस्था सुप्तिसंज्ञिका ॥ ३,११.२८ ॥

ब्रह्मण्यमुख्यया वृत्त्या ह्यस्तीत्येवं निबोध मे ।

अतो न वास्तवमिदमङ्गीकार्यं खगेश्वर ॥ ३,११.२९ ॥

वास्तवं ये विजानन्ति तेषां नित्यं धनं तपः ।

श्रीगरुड उवाच ।

सुप्तिस्त्वज्ञानकार्यत्वात्सुप्तिर्नास्तीत्युदीरिता ॥ ३,११.३० ॥

यदा हि कारणं चास्ति तदा कार्यमिति प्रभो ।

इत्यभिप्रायगर्भेण त्वं समाधास्य ते यदि ॥ ३,११.३१ ॥

तर्हि तस्य महाभाग कथं ब्रूहि भयादिकम् ।

भयादिकं ह्यस्तु नाम का वास्माकं क्षतिर्भवेत् ॥ ३,११.३२ ॥

एवमुक्तस्तु गोविन्दोब्रवीत्तत्रापि कारणम् ।

भयं त्वज्ञानकार्यं स्यात्कार्याकारणमत्र हि ॥ ३,११.३३ ॥

प्रीयते मत्वा ब्रह्म तस्मात्सुप्तिश्च तत्र हि ।

अज्ञादिकं यदि ब्रह्म तस्य न स्यात्कथञ्चन ॥ ३,११.३४ ॥

कथं सुखी प्रदृश्येत न कथञ्चित्करिष्यति ।

कथं वा मुक्तिपर्यन्तं ज्ञानव्यक्तिर्वदस्व मे ॥ ३,११.३५ ॥

यद्यज्ञानं तस्य सत्यं न स्यात्तर्हि महाप्रभो ।

अत्यादरात्कथं ब्रह्मञ्छ्रवणं कुरुते वद ॥ ३,११.३६ ॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा कृष्णो वचनमब्रवीत् ।

भयं च वास्तवं तस्य न जानीहि महामते ॥ ३,११.३७ ॥

दृश्यते मद्भयं तस्य हरिप्रीत्यर्थमेव च ।

भयाकामवतीवानमुवास्तवमीरितम् ॥ ३,११.३८ ॥

प्राप्तप्राब्धलेशस्त तस्य नास्ति खगेश्वर ।

दुः खाज्ञानादिकं किञ्चित्कथं तस्मिन् भविष्यति ॥ ३,११.३९ ॥

विष्णोराज्ञानुसारेण भयायानुकरोत्यसौ ।

तेन प्रीणाति च हरिस्तस्य नास्त्यत्र संशयः ॥ ३,११.४० ॥

शृणोति सततं ब्रह्मा न चिन्त्यात्तावताज्ञता ।

कदाचिद्दृश्यते ब्रह्मा दुः खी न च खगेश्वर ॥ ३,११.४१ ॥

यद्ब्रह्म च न जानीयाद्धरिप्रीत्यर्थमेव च ।

दुः खिवद्दृश्यते ब्रह्मा आज्ञानां मोहनाय च ॥ ३,११.४२ ॥

योग्यतामनतिक्रम्य यावज्ज्ञानं च तिष्ठति ।

ब्रह्मणस्तावदेवास्ति नात्र कार्या विचारणा ॥ ३,११.४३ ॥

ज्ञानस्य व्यक्तता नाम विद्यमानस्य चादरात् ।

ज्ञानस्यासादनं चैव ज्ञानव्यक्तिरिति स्मृता ॥ ३,११.४४ ॥

अतो ज्ञानादिकं नास्ति ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।

पद्माद्धिरण्म याज्जातो ब्रह्मा तु चतुराननः ॥ ३,११.४५ ॥

सर्वदाऽलोचनायुक्तस्तेन स्वालोचनं कृतम् ।

अज्ञानां मोहनार्थाय हरिप्रीत्यर्थमेव च ॥ ३,११.४६ ॥

संकल्पोपि तथैवास्ति न ह्यज्ञानात्कृतस्तथा ।

को वा मां सृष्टवानत्र इति ह्यालोच्य स प्रभुः ॥ ३,११.४७ ॥

तं विचारयितुं ब्रह्मा पद्मनाडीं विवेश ह ॥ ३,११.४८ ॥

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे श्रीकृथ्णगरुडसंवादेऽज्ञानहेतुनिरूपणं नामैकादशोऽध्यायः॥

अध्यायः १२ श्रीगरुडमहापुराणम्

श्रीकृष्ण उवाच ।

नाडीं समाविश्य महानुभावः श्रीविष्णुभक्तो त्वथ पुष्करस्थः ।

विचारयामास गुरुं स्वमूलं नारायणं निर्गुणमद्वितीयम् ॥ ३,१२.१ ॥

एतावता हरिभक्तस्य तस्याप्यच्छिन्नभक्तस्य चतुर्मुखस्य ।

विचारकाले च विचिन्तनीयो ह्यज्ञानलेशस्तु खगेश्वरेश्वर ॥ ३,१२.२ ॥

यथास्ति विष्णोर्मनः सङ्कल्प एव तथैव सोपि प्रकरोति नित्यम् ।

आलोचने तस्य सदास्ति भूमन्स्वयोग्यतामनतिक्रम्य चैव ॥ ३,१२.३ ॥

हरेः स्वरूपे च तथा प्रपञ्चः स्वस्मिन्स्वरूपे च खगास्ति ज्ञानम् ।

यथापि नित्यं परिचारवारि च अज्ञातवद्दृश्यते विष्णुना च ॥ ३,१२.४ ॥

हरेः प्रीत्यर्थं कुरुतेऽसौ कदाच्चित्तत्रापि कश्चिद्विशेषोऽस्ति वीन्द्र ।

शृणुष्व सम्यङ्निगृहीतचित्तो यथा प्रोवाच स विजानाति देवः ॥ ३,१२.५ ॥

सदा त्वदोषं प्रविशेषैश्च मुक्तवेदास्तथा वा पविजानन्ति नित्यम् ।

तस्य स्वरूपं न तथा हरिं च स्वयोग्यतामनतिक्रम्य वेधाः ॥ ३,१२.६ ॥

हरेः स्वरूपं न विजानाति सर्वं स्वयोग्यरूपं सर्वदा वेत्ति विष्णोः ।

तत्राज्ञानं नास्ति किञ्चिद्द्विजेन्द्र यावत्स्वरूपं च तथैव लक्ष्म्याः ॥ ३,१२.७ ॥

वेधा न जानाति कुतस्तदन्ये तयोः स्वरूपं न विजानाति सर्वम् ।

तथापि वेदानेकदेशेन वेद जानाति लक्ष्मीर्हरिरूपं च यावत् ॥ ३,१२.८ ॥

तावन्न जानाति विधिः खगेन्द्र ज्ञाने विधातुश्च स्वयोग्यभूते ।

अतो विरिञ्चस्य न चिन्तनीयो ह्यज्ञानलेशः क्वापि देशे च काले ॥ ३,१२.९ ॥

नाडीं समाविश्य तदा विरिञ्चो न वेद नारायणमेकवच्च ।

तदाऽशृणोत्तं कमलासनं प्रभुस्तपस्तप द्व्यक्षरं सादरेण ॥ ३,१२.१० ॥

अभिप्रायं तस्य सम्यग्विदित्त्वा तपः कुरु त्वं हरितुष्ट्यर्थमेव ।

तपोऽकरोद्धरिपादैक निष्ठो हरेः प्रीत्यर्थं दिव्यसहस्रवर्षम् ॥ ३,१२.११ ॥

ततो हरिः प्रादुरासीत्खगेन्द्र वरं दातुं भक्तवरस्य दिव्यम् ।

सदा विष्णुं देवदेवो ददर्श चतुर्भुजं तं जलजायताक्षम् ॥ ३,१२.१२ ॥

श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं संपश्यन्तं सुप्रसन्नार्द्रदृष्ट्या ।

दृष्ट्वा हरिं ब्रह्म नारायणं च पुरः स्थितं भक्तवश्यं दयालुम् ॥ ३,१२.१३ ॥

समर्चयामास महाविभूत्या भक्त्या हरेः पादतीर्थं दधार ।

अस्तौन्महाभागवतप्रधानो हरिं गुरुं भक्तिविवर्धितात्मा ॥ ३,१२.१४ ॥

ब्रह्मोवाच ।

रमेश लोकेश जगन्निवास तव स्वरूपं न विजानाति देवी ।

तव प्रसादात्सुविजानाति देवी गुणान्वेदोक्तान्सर्वदा वीन्द्र सर्वान् ॥ ३,१२.१५ ॥

तथापि सा न विजानाति देवी साकल्येनाशेषितः सद्गुणांश्च ।

यद्यप्यनुक्तं पञ्चभिर्नास्ति वेदैस्तथापि देवेऽत्र विशेष आस्ते ॥ ३,१२.१६ ॥

तत्त्वेच्छवः प्रविजानन्ति नित्यं वेदे सूक्तान्क्वाप्यनुक्तांश्च सर्वान् ।

आदौ जानन्त्यत्र वेदा मुरारे ऋगादयः सुष्ठु चत्वार एव ॥ ३,१२.१७ ॥

वेदा ह्येते वेदयन्तीति देव तथा पुराणं भारतं पञ्चरात्रम् ।

क्रमादितो विचिन्त्य सा विष्णुगुणान्स्वयोग्यान्सदा विजानाति रमापि देवी ॥ ३,१२.१८ ॥

विशेषतो ह्युक्तगुणा नृगादिषु स्वयोग्यभूतान्संविजानाति देवी ।

सामान्यतः प्रविजानाति देवी हरेर्गुणान्न विशेषाच्च नित्यम् ॥ ३,१२.१९ ॥

अहं विजानामि रमाप्रसादात्तव प्रसादाच्च गुणान्सदैव ।

स्वयोग्यभूताञ्छ्रुतिषूक्तान् गुणांश्च कांश्चिद्विजानाति हरेर्न कश्चित् ॥ ३,१२.२० ॥

तव प्रसादाच्च मम प्रसादात्कालान्तरे तांश्च जानाति शेषः ।

दुष्कर्मलेशान्न तिरोहितान् गुणान्यानेव पूर्वं विदितान् स्वयोग्यान् ॥ ३,१२.२१ ॥

तानेव ज्ञात्वा पुनरेव शेषस्तिरो हितांल्लब्धगुणस्ततः स्मृतः ।

सदा स्वयोग्यांश्च हरेर्गुणांश्च उमापतिश्चापि तव प्रसादात् ॥ ३,१२.२२ ॥

यदा विजानाति हरे मुरारे अप्राप्तलब्धेति तदोच्यते हरः ।

ममापि लोकं च यदा मुरारे तदा विजानाति तव स्वरूपम् ॥ ३,१२.२३ ॥

गोविन्द नित्याव्यय चित्सुपूर्ण तव प्रसादान्नास्ति शतेषु तन्मम।

येये हि देवाश्च शरीरधारिणस्ते ज्ञानहीना विषयेषु निष्ठाः ॥ ३,१२.२४ ॥

येये देवा विषयेषु निष्ठास्तेते देवा बहिरर्थभावाः ।

येये देवा बहिरर्थभावा मोक्षादन्ये प्रलपन्तः सदैव ॥ ३,१२.२५ ॥

तव स्वरूपे च जगत्स्वरूपे तवासमानं नास्ति विष्णो सदैव ।

यतस्तव प्राकृतो नास्ति देहो यतो ज्ञानं नास्ति नास्त्येव नित्यम् ॥ ३,१२.२६ ॥

पूर्णानन्दज्ञानदेहोऽपि नित्यं सदा शरीरी भाष्यते भक्तिमद्भिः ।

यतस्तव प्राकृतो नास्ति देहो ह्यतोपि नित्यमशरीरीति च स्मृतः ॥ ३,१२.२७ ॥

नतोऽहं सर्वदास्मिञ्शरीरेऽहंममेत्यभिमानेन शून्यः ।

अत्तोऽप्यहं त्वशरीरी सदैव तथैव नित्यं बहिरर्थैश्च शून्यः ॥ ३,१२.२८ ॥

स्वभोगभार्यासत्यलोकादिभोगः स्वयोग्यभोगो वस्त्रमाल्यादिभोगः ।

एते हि सर्वे बहिरर्थसंज्ञकाः नैसर्गकामाः सर्वदा मे हि विष्णो ॥ ३,१२.२९ ॥

तथाप्यहं कामहीनो हि नित्यं रुद्रादयः कामवन्तो यतोतः ।

शरीरिणस्ते बहिरर्थभावा अज्ञानवन्तोऽपि च संस्मृताः खग ॥ ३,१२.३० ॥

स्वदारभोगे केवलां प्रीतिमेवं हरेरेवं सर्वदाहं करोति ।

स्तम्बास्त्रादीन्धारियिष्ये सदैव विष्णोः प्रीत्यर्थं नैव गात्रार्थमेव ॥ ३,१२.३१ ॥

नित्यानन्दादन्यकामो न मेस्ति अतः सदा बहिरर्थैश्च शून्यः ।

ममापि भार्या बहिरर्थशून्या अमूढभावा मूढवतीव दृश्यते ॥ ३,१२.३२ ॥

अमूढभूता ज्ञानिनां सर्वदैव तथाज्ञानां ज्ञानहीनेति भाति ।

यावज्ज्ञानं चास्ति मे वास्तुदेव तावज्ज्ञानं वासुदेवस्य चास्ति ॥ ३,१२.३३ ॥

यावज्ज्ञानं वासुदेवस्य चास्ति तावज्ज्ञानं ज्ञानवतामृजूनाम् ।

क्रमेणैवाज्ञानिनां वानृजूनामस्पष्टरूपो ज्ञानगतो विशेषः ॥ ३,१२.३४ ॥

सौरिप्रकाशे च यथैव दर्शनं तथा मम ज्ञानगतो विशेषः ।

दीपप्रकाशे च यथैव दर्शनं तथा ज्ञानं वासुदेवस्य चास्ति ॥ ३,१२.३५ ॥

अस्पष्टपरूपा न्यूनता ह्यस्ति वायौ तथा ज्ञानं नैव संचिन्तनीयम् ।

एतादृशी ज्ञानशक्तिर्मुरारेर्वाय्वादीनां मोक्षपर्यन्तमस्ति ॥ ३,१२.३६ ॥

ज्ञानं त्वृजूनां मोक्षकालेपि पञ्चवाय्वादीनां प्रलयेनाद्रादीर्न ।

वायोर्मम प्रलये सृष्टिकाले तथा गायत्र्या नास्तिनास्त्येव मोहः ॥ ३,१२.३७ ॥

गायत्रीवद्भारत्या देवदेव ज्ञातव्यमेवं हरितत्त्ववेदिभिः ।

ममाज्ञानं दृश्यते यत्र कुत्र दैत्यादीनां मोहनार्थ सदैव ॥ ३,१२.३८ ॥

तेन प्रीतिर्देवदेवस्य विष्णोर्भविष्यतीत्येव विनिश्चितात्मा ।

प्रश्रादिकं त्वज्ञवत्सर्वदैवं करिष्येहं मोहनायाधमानाम् ॥ ३,१२.३९ ॥

सूर्योदये नास्ति यथा तमश्च तथाज्ञानं नास्तिनास्त्येव देव ।

करोम्यहं श्रवणं सर्वदैव हरिप्रीत्यर्थं निश्चतार्थं सतां हि ॥ ३,१२.४० ॥

शतजन्मगतानां त्वनृजूनां पूर्वमेव तु ।

अपरोक्षाभाव एव ह्यज्ञानं समुदीरितम् ॥ ३,१२.४१ ॥

अपरोक्षानन्तरं तु नास्त्यज्ञानं न संशयः ।

शतजन्मसु देवेश अपरोक्षेण सर्वदा ॥ ३,१२.४२ ॥

पूर्णज्ञानं ममास्त्येव नात्र कार्या विचारणा ।

शतजन्मसु पूर्वं तु परोक्षेण मम प्रभो ॥ ३,१२.४३ ॥

पूर्णं ज्ञानं सदाप्यस्तीत्येवमाहुर्महर्षयः ।

संज्ञाजन्मगतायाश्च सरस्वत्या महाप्रभो ॥ ३,१२.४४ ॥

नाज्ञानं चिन्तनीयं हि ब्रह्माय्वोश्च देव हि ।

अत्र कश्चिद्विशेषोस्ति ज्ञातव्यस्तत्वमिच्छुभिः ॥ ३,१२.४५ ॥

अवतारेषु भारत्याः कदाचिज्ज्ञानपूर्वकम् ।

सर्वदा ज्ञानरूपा सा सर्वदुःखविवर्जिता ॥ ३,१२.४६ ॥

दैत्यानां मोहनार्थाय अंशे दुःखीव दृश्यते ।

तस्या दुःखादिकं किञ्चिन्नास्तिनास्त्येव सर्वथा ॥ ३,१२.४७ ॥

अपरोक्षतिरोभाव ईषत्काले प्रदृश्यते ।

तावन्मात्रेण वाज्ञानं तस्यां नैवाहितं च यत् ॥ ३,१२.४८ ॥

मूलरूपे तु नास्त्येव भारत्या ज्ञानविस्मृतिः ।

भारत्यास्तु यथा नास्ति सरस्वत्यास्तु किं पुनः ॥ ३,१२.४९ ॥

अंशावतरणं नास्ति सरस्वत्याः कदाचन ।

अंशावतरणं नास्ति ममापि मधुसूदन ॥ ३,१२.५० ॥

तथैव ज्ञानमस्त्येव हरेर्नारायणस्य च ।

वायोरंशावतारोस्ति यथा मूले तथैव च ॥ ३,१२.५१ ॥

बलज्ञानादिकं सर्वं चिन्तनीयं न संशयः ।

तथापि वायौ दृश्यन्ते बलज्ञानादिव्यक्तयः ॥ ३,१२.५२ ॥

अवतारेषु वायोस्तु सम्यक्शक्त्यात्मनास्ति हि ।

अपरोक्षतिरोभावौ नांशावतरणेष्वपि ॥ ३,१२.५३ ॥

बलज्ञानादिकं यावन्मूलरूपे प्रदृश्यते ।

त्रेतायुगस्वरूपे च न दर्शयति तादृशम् ॥ ३,१२.५४ ॥

त्रेतायुगस्वरूपे च यादृक्चादर्शयत्प्रभो ।

द्वापरस्थे स्वरूपे तत्तद्दर्शयति तादृशम् ।

त्रेतायुगस्वरूपे च यादृक्चादर्शयत्प्रभो ॥ ३,१२.५५ ॥

द्वापरस्थे वायुरूपे यादृग्वा दर्शयत्प्रभुः ।

वायुः कलियुगे रूपे तद्दर्शयति तादृशम् ॥ ३,१२.५६ ॥

तथा दर्शयते वायुर्दैत्यानां मोहनाय च ।

अवतारेषु वायोश्च अन्तरं ये विदुः प्रभो ॥ ३,१२.५७ ॥

तेऽधं तमः प्रविशन्ते ते दैत्या न च ते सुराः ।

वायावप्यन्तरं नास्ति हरितत्त्वविनिर्णये ॥ ३,१२.५८ ॥

निन्दां कुर्वन्ति ये विष्णोर्जिह्वाछेदं करोम्यहम् ।

तदर्थमेव वायोश्च अवतारः सदा भुवि ॥ ३,१२.५९ ॥

गुणपूर्णस्य विष्णोस्तु निर्गुणत्वविचिन्तनम् ।

जातानन्दादिपूर्णाङ्ख्यं सोहमित्यादिचिन्तनम् ॥ ३,१२.६० ॥

चिदानन्दात्मके देहे उत्पत्त्यादिविचिन्तनम् ।

अच्छेद्याभेद्यगात्रेषु च्छेदभेदादिचिन्तनम् ॥ ३,१२.६१ ॥

देव्या नित्यावियोगिन्या वियोगादिविचिन्तनम् ।

क्लेशशोकादिशून्यस्य हरेः क्लेशादिचिन्तनम् ॥ ३,१२.६२ ॥

व्यासरामादिरूपेष्वनृषिविप्रत्वचिन्तनम् ।

कृष्णरामादिरूपेषु अन्तरस्य विचिन्तनम् ॥ ३,१२.६३ ॥

रामकृष्णादिरूपेषु अन्तरस्य विचिन्तनम् ।

रामकृष्णादिरूपेषु पराजयविचिन्तनम् ॥ ३,१२.६४ ॥

सन्तानार्थं तु कृष्णे न शिवपूजादिचिन्तनम् ।

रामेण दुः खयुक्तेन लिङ्गस्य स्थापनं कृतम् ॥ ३,१२.६५ ॥

पञ्चधातुमये कृष्णे हरिरूपविचिन्तनम् ।

स्वयं व्यक्तस्थले चापि चिदानन्दत्वकल्पनम् ॥ ३,१२.६६ ॥

पितृमातृद्विजातीनां हरिरूपत्वचिन्तनम् ।

अस्वतन्त्रेण रुद्रेण हरेरैक्यदिचिन्तनम् ॥ ३,१२.६७ ॥

विष्णोः सूर्येण साकं च अभेदा दिविचिन्तनम् ।

सर्वोत्तमः सूर्य एव विष्ण्वाद्यास्तस्य किङ्कराः ॥ ३,१२.६८ ॥

इत्यादिचिन्तनं दोषो हरिनिन्देति चोच्यते ।

अस्वयं व्यक्तिलिङ्गेषु अश्वत्थतुलसीषु च ॥ ३,१२.६९ ॥

शालग्रामं विहायैव नमनं ये प्रकुर्वते ।

ते सर्वे हरिनिन्दायामविकारिण एव हि ॥ ३,१२.७० ॥

मोक्षाधिकारिणो ये तु अज्ञानात्परमेश्वरम् ।

पार्थक्यनयनं येषु कुर्वन्ति यर्हि वा प्रभो ॥ ३,१२.७१ ॥

तर्हि तेषां हि कालेषु दुः खं याति न संशयः ।

अतः प्रार्थक्यनयनं ये कुर्वन्त्येषु सर्वदा ॥ ३,१२.७२ ॥

ते सर्वे त्वबुधा ज्ञेया नात्र कार्या विचारणा ।

अस्वयंव्यक्तलिङ्गेषु नमनं ये प्रकुर्वते ॥ ३,१२.७३ ॥

ते सर्वे ह्यसुरा ज्ञेया नान्यथा तु कथञ्चन ।

विहाय शून्यमश्वत्थं नमनं ये प्रकुर्वते ॥ ३,१२.७४ ॥

द्विमासहीनां तुलसीमप्रसूतां च गां नवाम् ।

ते सर्वे ह्यसुरा ज्ञेया नात्र कार्या विचारणा ॥ ३,१२.७५ ॥

गुल्माद्याश्च मनुष्यान्तास्ते ज्ञेया ब्रह्मबाहवः ।

अस्मच्छतायुः पर्यन्तमेक एव कलिः स्मृतः ॥ ३,१२.७६ ॥

कलौ संति कल्पमानं कलेरन्ते संति च ।

तस्मिन्दिने ब्रह्मरूपे गच्छन्ति च तमोन्तिकम् ॥ ३,१२.७७ ॥

तत्र स्थित्वा लोकमार्गं प्रतीक्षन्ते न संशयः ।

साधकैर्विष्णुकार्याणां वायुदासैः प्रपीडिताः ॥ ३,१२.७८ ॥

शतवर्षानन्तरं च सर्वेषां कलिना सह ।

वायोर्गदाप्रहारेण लिङ्गभङ्गो भविष्यति ॥ ३,१२.७९ ॥

तमोन्धं प्रविशन्त्येते तारतम्येन सर्वशः ।

तमस्यन्धेपि संसारे नात्र कार्या विचारणा ॥ ३,१२.८० ॥

सर्वेषामुत्तमोन्ते यः कलिरेव न संशयः ।

दूषको विष्णुभक्तानां तत्समो नास्ति सर्वदा ॥ ३,१२.८१ ॥

संसारे वान्धतमसि सर्वत्र हरिदूषकः ।

मिथ्यादाने ज्ञानबुद्धिर्दुः खे च सुखबुद्धिमान् ॥ ३,१२.८२ ॥

तस्मात्कलिसमो लोके शिवभक्तो न कुत्रचित् ।

दुर्योधनः स एवोक्तो दुः खानन्त्यस्वरूपवान् ॥ ३,१२.८३ ॥

तस्माच्छतगुणांशेन कलिभार्या तु सर्वदा ।

अलक्ष्मीरिति विख्याता सा लोके मन्थरा स्मृता ॥ ३,१२.८४ ॥

तस्माद्दशगुणांशोनो विप्रचित्तिस्तु सर्वदा ।

जरासंधः स एवोक्तः कालनेमिस्ततः परम् ॥ ३,१२.८५ ॥

तस्माच्छतगुणांशोनः स तु कंसेति विश्रुतः ।

तस्मात्पञ्चगुणैर्हीनौ मधुकैटभसंज्ञकौ ॥ ३,१२.८६ ॥

तावेव हंसहिडंबकौ ज्ञेयौ तौ च जनार्दन ।

विप्रचित्तिसमो ज्ञेयो भौमो वै भूतले स्मृतः ॥ ३,१२.८७ ॥

तस्मादष्ट गुणैरुच्यो हरिण्यकशिषुः स्मृतः ।

तस्माच्च त्रिगुणैर्हीनो हिरण्याक्षो महासुरः ॥ ३,१२.८८ ॥

मणिमांस्तत्समो ज्ञेयः किञ्चिदूनो बकः स्मृतः ।

तस्माद्विंशद्गुणैर्हीनस्तारकाख्यो महासुरः ॥ ३,१२.८९ ॥

तस्मात्षड्गुणतो हीनः शंबरो लोककण्टकः ।

शंबरस्य समो ज्ञेयः शाल्वो दैत्येषु चाधमः ॥ ३,१२.९० ॥

शंबरात्तु द्विगुणतो हिडिंबो न्यून उच्यते ।

बाणस्ततोऽधमो ज्ञेयः स तु कीचकनामतः ॥ ३,१२.९१ ॥

द्वापारख्यो महाहासो बाणासुरसमः स्मृतः ।

तस्माद्दशगुणैर्हीनो नमुचिर्दैत्यसत्तमः ॥ ३,१२.९२ ॥

नमुचेस्तु समौ ज्ञेयौ पाक इल्वल इत्युभौ ।

तस्माच्चतुर्गुणैर्हीनो वातापिर्दानवाधमः ॥ ३,१२.९३ ॥

तस्मात्सार्धगुणैर्हीनो धेनुको नाम दैत्यराट् ।

धेनुकादर्धगुणतः केशी दैत्यस्तु चावरः ॥ ३,१२.९४ ॥

केशीदैत्यसमो ज्ञेयस्तृणावर्तो महासुरः ।

तस्माद्दशगुणैर्हीनो हंसो नामरमापते ॥ ३,१२.९५ ॥

त्रिरिकस्तु समो ज्ञेयस्तत्समः पौरुकस्मृतः ।

वेतः स एव विज्ञेयः पूर्वजन्मनि सत्तम ॥ ३,१२.९६ ॥

तस्मादेकगुणैर्हीनौ कुंभाण्डककुपर्णकौ ।

दुः शासनस्तु विज्ञेयो जरासंधसमः प्रभो ॥ ३,१२.९७ ॥

कंसेन तुल्यो विज्ञेयो विकर्णो दैत्यसत्तमः ।

कुंभकर्णाच्छतगुणैर्हीनौ क्रध्येति विश्रुतः ॥ ३,१२.९८ ॥

तस्माच्छतगुणैर्हीनः शतधन्वा महासुरः ।

समानस्तस्य विज्ञेयः कर्मारिर्दैत्यसत्तमः ॥ ३,१२.९९ ॥

कालकेयस्तु विज्ञेयः सदा वेनसमो मतः ।

अधमानां तु दैत्यानामुत्तमैः साम्यमुच्यते ॥ ३,१२.१०० ॥

तत्रावेशाच्च विज्ञेयं देवानां नात्र संशयः ।

तस्माच्छतगुर्णैहीनश्चित्तमानसुरो महान् ॥ ३,१२.१०१ ॥

तच्छरीराभिमानी तु तस्माच्छतगुणैर्वरः ।

तस्माच्छतगुणैहींनो हस्तमानसुरो महान् ॥ ३,१२.१०२ ॥

तस्माच्छतगुणैर्हीनः पादमानसुरो महान् ।

नेत्रेन्द्रियाभिमानी तु तस्माच्छतगुणो वरः ॥ ३,१२.१०३ ॥

चक्षुरिन्द्रियमानी तु तस्माच्छतगुणो वरः ।

तस्माच्छगुणैर्हीनः स्पर्शमानसुरो महान् ॥ ३,१२.१०४ ॥

तस्माच्छतगुर्णैहीनश्चण्डमानसुरो महान् ।

तस्माच्छतगुर्णैर्हीनः शिश्रमानसुरो महान् ॥ ३,१२.१०५ ॥

तस्माच्छतगुणैर्हीनः कर्ममानसुरः स्मृतः ।

कल्पाद्यैः प्रेरिताः सर्वे रुद्राद्या अधिकारिणः ॥ ३,१२.१०६ ॥

कदाचित्सुविरुद्धं च कुर्वन्ति तव सत्तम ।

कदाप्यहं च वायुश्च विरुद्धं नाचरेव भोः ॥ ३,१२.१०७ ॥

मूलेष्वंशावतारेषु रुद्रादीना महाप्रभो ।

बुद्धिर्विनश्यते यस्मात्तस्माच्छिन्ना हि तेऽखिलाः ॥ ३,१२.१०८ ॥

महीपते च मद्बुद्धिस्तस्मादच्छिन्नसंज्ञिकः ।

एतादृशोप्यहं देव न च शक्तिस्तु नस्तवे ॥ ३,१२.१०९ ॥

मह्यमच्छिन्नभक्ताय दयां कुरु महाप्रभो ।

इति स्तुत्वा हरिं ब्रह्मा स्थितः प्राञ्ज लिरग्रतः ॥ ३,१२.११० ॥

इति श्रीगारुडे महापुराणे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे श्रीकृष्णगरुडसंवादे ब्रह्मस्तुतिवर्णनं नाम द्वादशोऽद्यायः॥

अध्यायः १३ श्रीगरुडमहापुराणम्

श्रीकृष्ण उवाच ।

इति स्तुतः स भगवान् स्वपूत्रेण दयानिधिः ।

मेधगंभीरया वाचा प्रोवाच मधुसूदनः ॥ ३,१३.१ ॥

सृज ब्रह्मन्निमान्देवान्मत्प्रसादात्क्रमेण च ।

यथा वै प्राक्क्षणेतद्वत्सृज सर्वं महाप्रभो ॥ ३,१३.२ ॥

नास्ति प्रयोजनं तेन तव मत्प्रीतये सृज ।

एवमुक्तस्तु हारिणा ब्रह्मा स्तुत्वा हरिं परम् ॥ ३,१३.३ ॥

सृष्टिं कर्तुं मनो दध्रे प्रीणयन्नेव माधवम् ।

महत्तत्वात्मको ब्रह्मा वायुं जीवभिमानिनम् ॥ ३,१३.४ ॥

आदौ ससर्ज गरुड पुरुषात्मा स एव च ।

ततो दक्षिणहस्तात्तु ब्रह्माणीं भारन्ती तथा ॥ ३,१३. ५ ॥

असृजत्ते महाभागे अव्यक्तस्य नियामिके ।

वामहस्तात्सत्यपुत्रो महत्तत्वात्मकोऽनलः ॥ ३,१३.६ ॥

ब्रह्मणो दक्षिणाद्धस्तादहङ्कारात्मको हरः ।

आदौ शेषस्ततो जज्ञे गरुडतदनन्तरम् ॥ ३,१३.७ ॥

तदनन्तरजो रुद्रः स एवं सृष्टवान्प्रभुः ।

स्वोत्पत्त्यनन्तरं ब्रह्मा दशवर्षान्महाप्रभुः ॥ ३,१३.८ ॥

वायुमुत्त्पाद्रयामास वत्सरानन्तरे प्रभुः ।

गायत्रीं जनयामास वायोरुत्पत्त्यनन्तरम् ॥ ३,१३.९ ॥

संवत्सरानन्तरे तु भारतीमसृजत्प्रभुः ।

भारत्यनन्तरं शें दिव्यसाहस्रवत्सरात् ॥ ३,१३.१० ॥

अनन्तरं संबभूव गरुडस्तु ततः परम् ।

दिव्यसाहस्रवर्षात्तु तथा रुद्रञ्च सृष्टवान् ॥ ३,१३.११ ॥

शेषस्यानन्तरं देवीं वारुणीं च महाप्रभुः ।

दशवर्षानन्तरं तु ह्यसृजत्कमलासनः ॥ ३,१३.१२ ॥

गरुडानन्तरं देवीं सौपर्णीमसृजत्प्रभुः ।

दशवर्षानन्तरं च पार्वतीं च तथैव सः ॥ ३,१३.१३ ॥

पार्वत्यनन्तरं चन्द्रं मनस्तत्त्वनियामकम् ।

दशवर्षानन्तरं तु वासवं ह्यसृजत्ततः ॥ ३,१३.१४ ॥

अभिमानी दक्षिणस्य बाहोश्च परमेष्ठिनः ।

दशवर्षानन्तरं तु शची तामसृजत्प्रभुः ॥ ३,१३.१५ ॥

इन्द्रस्यानन्तरं कामं त्रिंशद्वर्षादनन्तरम् ।

असृजद्वामबाहोश्चमनस्तत्वाभिमानिनम् ॥ ३,१३.१६ ॥

तदनन्तरजां देवीं दशवर्षादनन्तरम् ।

रतिं स जनयामास कामभार्यां महाप्रभुः ॥ ३,१३.१७ ॥

कामस्याप्यभिमानी तु स एव परिकीर्तितः ।

ब्रह्माहङ्कारिकं प्राणं कार्योत्पत्तेरनन्तरम् ॥ ३,१३.१८ ॥

दशवर्षानन्तरं तु निर्ममे नासिक ततः ।

तस्य भार्यां नासिकस्यः पञ्चवर्षादनन्तरम् ॥ ३,१३.१९ ॥

निर्ममे नासिकां वामां ब्रह्मा लोकपितामहः ।

अहङ्कारादनु ब्रह्मा सज्ञानं च बृहस्पतिम् ॥ ३,१३.२० ॥

निर्ममे च वर्षयुग्मपञ्चवर्षादनन्तरम् ।

पञ्चवर्षानन्तरं तु तारां भार्यां विनिर्ममे ॥ ३,१३.२१ ॥

गुरोरनन्तरं ब्रह्मा पञ्चविंशादनन्तरम् ।

स्वायंभुवं मनुं चैव निर्ममे मनसा विभुः ॥ ३,१३.२२ ॥

पञ्चवर्षानन्तरं तु शतरूपां विनिर्ममे ।

शतरूपानन्तरं तु विंशद्वर्षदिनान्तरम् ॥ ३,१३.२३ ॥

दक्षः शिष्यात्मको जज्ञे दक्षिणाङ्गुष्ठतः प्रभोः ।

पञ्चवर्षानन्तरं तु वामाङ्गुष्ठाच्चतुर्मुखः ॥ ३,१३.२४ ॥

प्रसूतिमसृजद्ब्रह्मा सृष्ट्यर्थं परमादरात् ।

दक्षस्यानन्तरं ब्रह्मा पञ्चविंशादनन्तरम् ॥ ३,१३.२५ ॥

निर्ममे ह्यनिरुद्धं च मध्यमाङ्गुलिपर्वतः ।

पञ्चवर्षानन्तरं तु ससर्ज भगवानजः ॥ ३,१३.२६ ॥

विराजसंज्ञकां भार्यां मध्यमाङ्गुलिपर्वतः ।

अनिरुद्धानन्तर तु शतवर्षादनन्तरम् ॥ ३,१३.२७ ॥

निर्ममे प्रवहं वायुं कनिष्ठाङ्गुलिपर्वतः ।

दशवर्षानन्तरं तु प्रवाहीं निर्ममे प्रभुः ॥ ३,१३.२८ ॥

कनिष्ठाङ्गुलिपर्वाच्च वामदेवं न संशयः ।

प्रवहानन्तरं तब्रह्मा शतवर्षादनन्तरम् ॥ ३,१३.२९ ॥

यमं विनिर्ममे पृष्ठादष्टवर्षादनन्तरम् ।

तद्भार्यां शामलां देवीं तस्मादेव महाप्रभुः ॥ ३,१३.३० ॥

यमस्यानन्तरं चन्द्रं त्रिंशद्वर्षादनन्तरम् ।

असृजद्दक्षिणाच्छोत्राच्छोत्रतत्त्वनियामकम् ॥ ३,१३.३१ ॥

नववर्षानन्तरं तु रोहिणीसमृजत्प्रभुः ।

वामश्रोत्राच्च गरुडं वामश्रोत्राभिमानिनम् ॥ ३,१३.३२ ॥

चन्द्रस्यानन्तरं सूर्यं विंशद्वर्षादनन्तरम् ।

सम्यग्विनिर्ममे ब्रह्मा दक्षिणाक्ष्णश्च देवताम् ॥ ३,१३.३३ ॥

वामाक्ष्णो निर्ममे संज्ञां षड्वर्षानन्तरं प्रभुः ।

सूर्यस्यानन्तरं ब्रह्मा शतवर्षादनन्तरम् ॥ ३,१३.३४ ॥

रसनेन्द्रियाच्च वरुणं निर्ममे तस्य मानिनम् ।

विंशद्वर्षानन्तरं तु तस्मादेवेद्रियात्प्रभुः ॥ ३,१३.३५ ॥

गङ्गां विनिर्ममे ब्रह्मा रसनेन्द्रियदेवताम् ।

वरुणस्यानन्तरं तु दशवर्षादनन्तरम् ॥ ३,१३.३६ ॥

उत्संगान्निर्ममे ब्रह्मा नारदं भगवत्प्रियम् ।

नारदस्यानन्तरं तु षष्टिवर्षादनन्तरम् ॥ ३,१३.३७ ॥

अग्निं विनिर्ममे ब्रह्मात्वगिन्द्रियतः प्रभुः ।

अतो वागभिमानी सं पञ्चवर्षादनन्तरम् ॥ ३,१३.३८ ॥

स्वाहां विनिर्ममे ब्रह्मा तामाहुर्मन्त्रदेवताम् ।

अग्नेरनन्तरं वीन्द्र भृगुं ब्रह्मर्षिसत्तमम् ॥ ३,१३.३९ ॥

दशवर्षानन्तरं तु भ्रुवोर्मध्याद्विनिर्ममे ।

संवत्सरानन्तरं तु भृगुभार्यां विनिर्ममे ॥ ३,१३.४० ॥

भृगोरनन्तरं ब्रह्मा शतवर्षादनन्तरम् ।

कश्यपञ्जनयामास मनसा च स्वयं प्रभुः ॥ ३,१३.४१ ॥

संवत्सरानन्तरं तु अदितिं निर्ममे प्रभुः ।

कश्यपानन्तरं चात्रिं दशवर्षादनन्तरम् ॥ ३,१३.४२ ॥

अत्रेरनन्तरं ब्रह्मा दशवर्षादनन्तरम् ।

अजीजनद्भरद्वाजं वसिष्ठ तदनतरम् ॥ ३,१३.४३ ॥

दशवर्षानन्तरं तु तेषां भार्याः क्रमेण तु ।

संवत्सरानन्तरेण असृजत्कमलासनः ॥ ३,१३.४४ ॥

वसिष्ठस्यानन्तरं तु गौतमं ह्यसृजत्प्रभुः ।

दशवर्षानन्तरेण जमदग्निं ततोऽसृजत् ॥ ३,१३.४५ ॥

दशवर्षानन्तरेण मनुर्वैवस्वतोऽभवत् ।

मनोरनन्तरं जज्ञे शतवर्षादनन्तरम् ॥ ३,१३.४६ ॥

विष्वक्सेनो महाभागो वायुपुत्रो महाबलः ।

तस्माच्चतुर्दशे वर्षे गणपो ह्यभवद्विभोः ॥ ३,१३.४७ ॥

तदनन्तरजो वीन्द्र अष्टवर्षादनन्तरम् ।

धनपो ह्यभवत्तत्र तद्भार्या वत्सरे परे ॥ ३,१३.४८ ॥

विष्वक्सेनानन्तरं तु दशवर्षादनन्तरम् ।

जयादीन्भ गवद्भक्तान्सृष्टवान् कमलासनः ॥ ३,१३.४९ ॥

जयाद्यानन्तरं ब्रह्मा वल्लाद्याः कर्मदेवताः ।

शतवर्षानन्तरं तु सृष्टवाञ्छिववाहनम् ॥ ३,१३.५० ॥

कर्मदेवानन्तरं तु त्रिंशद्वर्षादनन्तरम् ।

पर्जन्यमसृजद्ब्रह्मा मन्त्रयन्त्राभिमानिनम् ॥ ३,१३.५१ ॥

पर्जन्यानन्तरं ब्रह्मा दशवर्षादनन्तरम् ।

पुष्करं जनयामास कर्मतत्त्वाभिमानिनम् ॥ ३,१३.५२ ॥

एवं विनिर्ममे ब्रह्मा मत्प्रसादात्खगेश्वर ।

एवं ज्ञात्वा मोक्षमेति नान्यथा तु कथञ्चन ॥ ३,१३.५३ ॥

इति श्रीगारुडे महापुराणे श्रीकृष्णगरुडसंवादे उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे देवोत्पत्तिनिरूपणं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय 14 

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box