श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १८            

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १८ "भिन्न-भिन्न वर्षों का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १८                                

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः १८                                   

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध अट्ठारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ अष्टादशोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

तथा च भद्रश्रवा नाम धर्मसुतस्तत्कुलपतयः

पुरुषा भद्राश्ववर्षे साक्षाद्भगवतो वासुदेवस्य

प्रियां तनुं धर्ममयीं हयशीर्षाभिधानां परमेण

समाधिना सन्निधाप्येदमभिगृणन्त उपधावन्ति ॥ १॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! भद्राश्व वर्ष में धर्मपुत्र भद्रश्रवा और उनके मुख्य-मुख्य सेवक भगवान् वासुदेव की हयग्रीवसंज्ञक धर्ममयी प्रिय मूर्ति को अत्यन्त समाधि निष्ठा के द्वारा हृदय में स्थापित कर इस मन्त्र का जप करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं।

भद्रश्रवस ऊचुः

ओं नमो भगवते धर्मायात्मविशोधनाय नम इति ॥ २॥

अहो विचित्रं भगवद्विचेष्टितं

घ्नन्तं जनोऽयं हि मिषन्न पश्यति ।

ध्यायन्नसद्यर्हि विकर्म सेवितुं

निर्हृत्य पुत्रं पितरं जिजीविषति ॥ ३॥

वदन्ति विश्वं कवयः स्म नश्वरं

पश्यन्ति चाध्यात्मविदो विपश्चितः ।

तथापि मुह्यन्ति तवाज मायया

सुविस्मितं कृत्यमजं नतोऽस्मि तम् ॥ ४॥

विश्वोद्भवस्थाननिरोधकर्म ते

ह्यकर्तुरङ्गीकृतमप्यपावृतः ।

युक्तं न चित्रं त्वयि कार्यकारणे

सर्वात्मनि व्यतिरिक्ते च वस्तुतः ॥ ५॥

वेदान् युगान्ते तमसा तिरस्कृतान्

रसातलाद्यो नृतुरङ्गविग्रहः ।

प्रत्याददे वै कवयेऽभियाचते

तस्मै नमस्तेऽवितथेहिताय इति ॥ ६॥

हरिवर्षे चापि भगवान् नरहरिरूपेणास्ते

तद्रूपग्रहणनिमित्तमुत्तरत्राभिधास्ये तद्दयितं

रूपं महापुरुषगुणभाजनो महाभागवतो

दैत्यदानवकुलतीर्थीकरणशीलाचरितः

प्रह्लादोऽव्यवधानानन्यभक्तियोगेन सह

तद्वर्षपुरुषैरुपास्ते इदं चोदाहरति ॥ ७॥

ओं नमो भगवते नरसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे

आविराविर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र कर्माशयान्

रन्धय रन्धय तमो ग्रस ग्रस ओं स्वाहा

अभयमभयमात्मनि भूयिष्ठा ओं क्ष्रौम् ॥ ८॥

स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खलः प्रसीदतां

ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथो धिया ।

मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे

आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी ॥ ९॥

मागारदारात्मजवित्तबन्धुषु

सङ्गो यदि स्याद्भगवत्प्रियेषु नः ।

यः प्राणवृत्त्या परितुष्ट आत्मवान्

सिद्ध्यत्यदूरान्न तथेन्द्रियप्रियः ॥ १०॥

भद्रश्रवा और उनके सेवक कहते हैं ;- ‘चित्त को विशुद्ध करने वाले ओंकारस्वरूप भगवान् धर्म को नमस्कार हैं

अहो! भगवान् की लीला बड़ी विचित्र है, जिसके कारण यह जीव सम्पूर्ण लोकों का संहार करने वाले काल को देखकर भी नहीं देखता और तुच्छ विषयों का सेवन करने के लिये पापमय विचारों की उधेड़-बुन में लगा हुआ अपने ही हाथों अपने पुत्र और पितादि की लाश को जलाकर भी स्वयं जीते रहने की इच्छा करता है। विद्वान् लोग जगत् को नश्वर बताते हैं और सूक्ष्मदर्शी आत्मज्ञानी ऐसा ही देखते भी हैं; तो भी जन्मरहित प्रभो! आपकी माया से लोग मोहित हो जाते हैं। आप अनादि हैं तथा आपके कृत्य बड़े विस्मयजनक हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

परमात्मन्! आप अकर्ता और माया के आवरण से रहित हैं तो भी जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय- ये आपके ही कर्म माने गये हैं। सो ठीक ही है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि सर्वात्मरूप से आप ही सम्पूर्ण कार्यों के कारण हैं और अपने शुद्धस्वरूप में इस कार्य-कारण भाव से सर्वथा अतीत हैं। आपका विग्रह मनुष्य और घोड़े का संयुक्त रूप है। प्रलयकाल में जब तमःप्रधान दैत्यगण वेदों को चुरा ले गये थे, तब ब्रह्मा जी के प्रार्थना करने पर आपने उन्हें रसातल से लाकर दिया। ऐसे अमोघ लीला करने वाले सत्यसंकल्प आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

हरिवर्षखण्ड में भगवान् नृसिंह रूप से रहते हैं। उन्होंने यह रूप जिस कारण से धारण किया था, उसका आगे (सप्तम स्कन्ध में) वर्णन किया जायेगा। भगवान् के उस प्रिय रूप की महाभागवत प्रह्लाद जी उस वर्ष के अन्य पुरुषों के सहित निष्काम एवं अनन्य भक्तिभाव से उपासना करते हैं। ये प्रह्लाद जी महापुरुषोंचित गुणों से सम्पन्न हैं तथा इन्होंने अपने शील और आचरण से दैत्य और दानवों के कुल को पवित्र कर दिया है। वे इस मन्त्र तथा स्तोत्र का जप-पाठ करते हैं। ओंकारस्वरूप भगवान् श्रीनृसिंहदेव को नमस्कार है। आप अग्नि आदि तेजों के भी तेज हैं, आपको नमस्कार है। हे वज्रनख! हे वज्रदंष्ट्र! आप हमारे समीप प्रकट होइये, प्रकट होइये; हमारी कर्म-वासनाओं को जला डालिये, जला डालिये। हमारे अज्ञानरूप अन्धकार को नष्ट कीजिये, नष्ट कीजिये। ॐ स्वाहा। हमारे अन्तःकरण में अभयदान देते हुए प्रकाशित होइये। ॐ क्ष्रौम्नाथ! विश्व का कल्याण हो, दुष्टों की बुद्धि शुद्ध हो, सब प्राणियों में परस्पर सद्भावना हो, सभी एक-दूसरे का हितचिन्तन करें, हमारा मन शुभ मार्ग में प्रवृत्त हो और हम सबकी बुद्धि निष्काम-भाव से भगवान् श्रीहरि में प्रवेश करे।

प्रभो! घर, स्त्री, पुत्र, धन और भाई-बन्धुओं में हमारी आसक्ति न हो; यदि हो तो केवल भगवान् के प्रेमी भक्तों में ही। जो संयमी पुरुष केवल शरीर-निर्वाह के योग्य अन्नादि से सन्तुष्ट रहता है, उसे जितनी शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है, वैसी इन्द्रिय-लोलुप पुरुष को नहीं होती।

यत्सङ्गलब्धं निजवीर्यवैभवं

तीर्थं मुहुः संस्पृशतां हि मानसम् ।

हरत्यजोऽन्तःश्रुतिभिर्गतोऽङ्गजं

को वै न सेवेत मुकुन्दविक्रमम् ॥ ११॥

यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना

सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः ।

हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा

मनोरथेनासति धावतो बहिः ॥ १२॥

हरिर्हि साक्षाद्भगवान् शरीरिणा-

मात्मा झषाणामिव तोयमीप्सितम् ।

हित्वा महांस्तं यदि सज्जते गृहे

तदा महत्त्वं वयसा दम्पतीनाम् ॥ १३॥

तस्माद्रजोरागविषादमन्यु-

मानस्पृहाभयदैन्याधिमूलम् ।

हित्वा गृहं संसृतिचक्रवालं

नृसिंहपादं भजताकुतोभयमिति ॥ १४॥

केतुमालेऽपि भगवान् कामदेवस्वरूपेण लक्ष्म्याः

प्रियचिकीर्षया प्रजापतेर्दुहितॄणां पुत्राणां तद्वर्षपतीनां

पुरुषायुषाहोरात्रपरिसङ्ख्यानानां यासां गर्भा महापुरुष-

महास्त्रतेजसोद्वेजितमनसां विध्वस्ता व्यसवः

संवत्सरान्ते विनिपतन्ति ॥ १५॥

अतीव सुललितगतिविलासविलसितरुचिरहास-

लेशावलोकलीलया किञ्चिदुत्तम्भितसुन्दरभ्रूमण्डल-

सुभगवदनारविन्दश्रिया रमां रमयन्निन्द्रियाणि

रमयते ॥ १६॥

तद्भगवतो मायामयं रूपं परमसमाधियोगेन

रमादेवी संवत्सरस्य रात्रिषु प्रजापतेर्दुहितृभि-

रुपेताहःसु च तद्भर्तृभिरुपास्ते इदं चोदाहरति ॥ १७॥

ओं ह्रां ह्रीं ह्रूं ओं नमो भगवते हृषीकेशाय

सर्वगुणविशेषैर्विलक्षितात्मने आकूतीनां चित्तीनां

चेतसां विशेषाणां चाधिपतये षोडशकलाय

च्छन्दोमयायान्नमयायामृतमयाय सर्वमयाय

सहसे ओजसे बलाय कान्ताय कामाय नमस्ते

उभयत्र भूयात् ॥ १८॥

स्त्रियो व्रतैस्त्वा हृषीकेश्वरं स्वतो

ह्याराध्य लोके पतिमाशासतेऽन्यम् ।

तासां न ते वै परिपान्त्यपत्यं

प्रियं धनायूंषि यतोऽस्वतन्त्राः ॥ १९॥

स वै पतिः स्यादकुतोभयः स्वयं

समन्ततः पाति भयातुरं जनम् ।

स एक एवेतरथा मिथो भयं

नैवात्मलाभादधि मन्यते परम् ॥ २०॥

उन भगवद्भक्तों के संग से भगवान् के तीर्थतुल्य पवित्र चरित्र सुनने को मिलते हैं, जो उनकी असाधारण शक्ति एवं प्रभाव के सूचक होते हैं। उनका बार-बार सेवन करने वालों के कानों के रास्ते से भगवान् हृदय में प्रवेश कर जाते हैं और उनके सभी प्रकार के दैहिक और मानसिक मलों को नष्ट कर देते हैं। फिर भला, उन भगवद्भक्तों का संग कौन न करना चाहेगा? जिस पुरुष की भगवान् में निष्काम भक्ति है, उसके हृदय में समस्त देवता धर्म-ज्ञानादि सम्पूर्ण सद्गुणों के सहित सदा निवास करते हैं। किन्तु जो भगवान् का भक्त नहीं है, उसमें महापुरुषों के वे गुण आ ही कहाँ से सकते हैं? वह तो तरह-तरह के संकल्प करके निरन्तर तुच्छ बाहरी विषयों की ओर ही दौड़ता रहता है।

जैसे मछलियों को जल अत्यन्त प्रिय-उनके जीवन का आधार होता है, उसी प्रकार साक्षात् श्रीहरि ही समस्त देहधारियों के प्रियतम आत्मा हैं। उन्हें त्यागकर यदि कोई महत्त्वाभिमानी पुरुष घर में आसक्त रहता है तो उस दशा में स्त्री-पुरुषों का बड़प्पन केवल आयु को लेकर ही माना जाता है; गुण की दृष्टि से नहीं। अतः असुरगण! तुम तृष्णा, राग, विषाद, क्रोध, अभिमान, इच्छा, भय, दीनता और मानसिक सन्ताप के मूल तथा जन्म-मरणरूप संसारचक्र का वहन करने वाले गृह आदि को त्यागकर भगवान् नृसिंह के निर्भय चरणकमलों का आश्रय लो

केतुमाल वर्ष में लक्ष्मी जी का तथा संवत्सर नामक प्रजापति के पुत्र और पुत्रियों का प्रिय करने के लिये भगवान् कामदेवरूप से निवास करते हैं। उन रात्रि की अभिमानी देवतारूप कन्याओं और दिवसाभिमानी देवतारूप पुत्रों की संख्या मनुष्य की सौ वर्ष की आयु के दिन और रात के बराबर अर्थात् छत्तीस-छत्तीस हजार वर्ष है और वे ही उस वर्ष के अधिपति हैं। वे कन्याएँ परमपुरुष श्रीनारायण के श्रेष्ठ अस्त्र सुदर्शन चक्र के तेज से डर जाती हैं; इसलिये प्रत्येक वर्ष के अन्त में उनके गर्भ नष्ट होकर गिर जाते हैं। भगवान् अपने सुललित गति-विलास से सुशोभित मधुर-मधुर मन्द-मुसकान से मनोहर लीलापूर्ण चारु चितवन से कुछ उलझ के हुए सुन्दर-सुन्दर भ्रूमण्डल की छबीली छटा के द्वारा वदनारविन्द राशि-राशि सौन्दर्य ऊँडेलकर सौन्दर्यदेवी श्रीलक्ष्मी को अत्यन्त आनन्दित करते और स्वयं भी आनन्दित होते रहते हैं। श्रीलक्ष्मी जी परम समाधियोग के द्वारा भगवान् के उस मायामय स्वरूप की रात्रि के समय प्रजापति संवत्सर की कन्यायों सहित और दिन में उनके पतियों के सहित आराधना और वे इस मन्त्र का जप करती हुई भगवान् की स्तुति करती हैं।

जो इन्द्रियों के नियन्ता और सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओं के आकर हैं, क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति और संकल्प-अध्यवसाय आदि चित्त के धर्मों तथा उनके विषयों के अधीश्वर हैं, ग्यारह इन्द्रिय और पाँच विषय-इन सोलह कलाओं से युक्त हैं, वेदोक्त कर्मों से प्राप्त होते हैं तथा अन्नमय, अमृतमय और सर्वमय हैं-उन मानसिक, ऐन्द्रियक एवं शारीरिक बल स्वरूप परमसुन्दर भगवान् कामदेव को ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूंइन बीजमन्त्रों के सहित सब ओर से नमस्कार है

भगवन्! आप इन्द्रियों के अधीश्वर हैं। स्त्रियाँ तरह-तरह के कठोर व्रतों से आपकी ही आराधना करके अन्य लौकिक पतियों की इच्छा किया करती हैं। किन्तु वे उनके प्रिय पुत्र, धन और आयु की रक्षा नहीं कर सकते; क्योंकि वे स्वयं ही परतन्त्र हैं। सच्चा पति (रक्षा करने वाला या ईश्वर) वही है, जो स्वयं सर्वथा निर्भय हो और दूसरे भयभीत लोगों की सब प्रकार से रक्षा कर सके। ऐसे पति एकमात्र आप ही हैं; यदि एक से अधिक ईश्वर माने जायें, तो उन्हें एक-दूसरे से भय होने की सम्भावना है। अतएव आप अपनी प्राप्ति से बढ़कर और किसी लाभ को नहीं मानते।

या तस्य ते पादसरोरुहार्हणं

निकामयेत्साखिलकामलम्पटा ।

तदेव रासीप्सितमीप्सितोऽर्चितो

यद्भग्नयाच्ञा भगवन् प्रतप्यते ॥ २१॥

मत्प्राप्तयेऽजेशसुरासुरादय-

स्तप्यन्त उग्रं तप ऐन्द्रिये धियः ।

ऋते भवत्पादपरायणान्न मां

विन्दन्त्यहं त्वद्धृदया यतोऽजित ॥ २२॥

स त्वं ममाप्यच्युत शीर्ष्णि वन्दितं

कराम्बुजं यत्त्वदधायि सात्वताम् ।

बिभर्षि मां लक्ष्म वरेण्य मायया

क ईश्वरस्येहितमूहितुं विभुरिति ॥ २३॥

रम्यके च भगवतः प्रियतमं मात्स्यमवताररूपं

तद्वर्षपुरुषस्य मनोप्राक्प्रदर्शितं स इदानीमपि

महता भक्तियोगेनाराधयतीदं चोदाहरति ॥ २४॥

ओं नमो भगवते मुख्यतमाय नमः सत्त्वाय

प्राणायौजसे सहसे बलाय महामत्स्याय नम इति ॥ २५॥

अन्तर्बहिश्चाखिललोकपालकै-

रदृष्टरूपो विचरस्युरुस्वनः ।

स ईश्वरस्त्वं य इदं वशेऽनय-

न्नाम्ना यथा दारुमयीं नरः स्त्रियम् ॥ २६॥

यं लोकपालाः किल मत्सरज्वरा

हित्वा यतन्तोऽपि पृथक्समेत्य च ।

पातुं न शेकुर्द्विपदश्चतुष्पदः

सरीसृपं स्थाणु यदत्र दृश्यते ॥ २७॥

भवान् युगान्तार्णव ऊर्मिमालिनि

क्षोणीमिमामोषधिवीरुधां निधिम् ।

मया सहोरुक्रमतेज ओजसा

तस्मै जगत्प्राणगणात्मने नम इति ॥ २८॥

हिरण्मयेऽपि भगवान् निवसति कूर्मतनुं

बिभ्राणस्तस्य तत्प्रियतमां तनुमर्यमा सह

वर्षपुरुषैः पितृगणाधिपतिरुपधावति

मन्त्रमिमं चानुजपति ॥ २९॥

ओं नमो भगवते अकूपाराय सर्वसत्त्वगुण-

विशेषणायानुपलक्षितस्थानाय नमो वर्ष्मणे

नमो भूम्ने नमो नमोऽवस्थानाय नमस्ते ॥ ३०॥

यद्रूपमेतन्निजमाययार्पित-

मर्थस्वरूपं बहुरूपरूपितम् ।

सङ्ख्या न यस्यास्त्ययथोपलम्भना-

त्तस्मै नमस्तेऽव्यपदेशरूपिणे ॥ ३१॥

जरायुजं स्वेदजमण्डजोद्भिदं

चराचरं देवर्षिपितृभूतमैन्द्रियम् ।

द्यौः खं क्षितिः शैलसरित्समुद्र-

द्वीपग्रहर्क्षेत्यभिधेय एकः ॥ ३२॥

भगवन्! जो स्त्री आपके चरणकमलों का पूजन ही चाहती है और किसी वस्तु की इच्छा नहीं करती-उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं; किन्तु जो किसी एक कामना को लेकर आपकी उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं। और जब भोग समाप्त होने पर वह नष्ट हो जाती है तो उसके लिये उसे सन्तप्त होना पड़ता है।

अजित! मुझे पाने के लिये इन्द्रिय-सुख के अभिलाषी ब्रह्मा और रुद्र आदि समस्त सुरासुरगण घोर तपस्या करते रहते हैं; किन्तु आपके चरणकमलों का आश्रय लेने वाले भक्त के सिवा मुझे कोई पा नहीं सकता; क्योंकि मेरा मन तो आपमें ही लगा रहता है।

अच्युत! आप अपने जिस वन्दनीय करकमल को भक्तों के मस्तक पर रखते हैं, उसे मेरे सिर पर भी रखिये। वरेण्य! आप मुझे केवल श्रीलांछन रूप से अपने वक्षःस्थल में ही धारण करते हैं; सो आप सर्वसमर्थ हैं, आप अपनी माया से जो लीलाएँ करते हैं, उनका रहस्य कौन जान सकता है? रम्यकवर्ष में भगवान् ने वहाँ के अधिपति मनु को पूर्वकाल में अपना परमप्रिय मत्स्यरूप दिखाया था। मनु जी इस समय भी भगवान् के उसी रूप की बड़े भक्तिभाव से उपासना करते हैं और इस मन्त्र का जप करते हुए स्तुति करते हैं- सत्त्वप्रधान मुख्य प्राण सूत्रात्मा तथा मनोबल, इन्द्रियबल और शरीरबल ओंकार पद के अर्थ सर्वश्रेष्ठ भगवान् महामत्स्य को बार-बार नमस्कार है

प्रभो! नट जिस प्रकार कठपुतलियों को नचाता है, उसी प्रकार आप ब्राह्मणादि नामों की डोरी से सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करके नचा रहे हैं। अतः आप ही सबके प्रेरक हैं। आपको ब्रह्मादि लोकपालगण भी नहीं देख सकते; तथापि आप समस्त प्राणियों के भीतर प्राणरूप से और बाहर वायुरूप से निरन्तर संचार करते रहते हैं। वेद ही आपका महान् शब्द हैं।

एक बार इन्द्रादि इन्द्रियाभिमानी देवताओं को प्राणस्वरूप आपसे डाह हुआ। तब आपके अलग हो जाने पर वे अलग-अलग अथवा आपस में मिलकर भी मनुष्य, पशु, स्थावर-जंगम आदि जितने शरीर दिखाई देते हैं-उनमें से किसी की बहुत यत्न करने पर भी रक्षा नहीं कर सके।

अजन्मा प्रभो! आपने मेरे सहित समस्त औषध और लताओं की आश्रयरूपा इस पृथ्वी को लेकर बड़ी-बड़ी उत्ताल तरंगों से युक्त प्रलयकालीन समुद्र में बड़े उत्साह से विहार किया था। आप संसार के समस्त प्राणसमुदाय के नियन्ता हैं; मेरा आपको नमस्कार है

हिरण्मय वर्ष में भगवान् कच्छप रूप धारण करके रहते हैं। वहाँ के निवासियों के सहित पितृराज अर्यमा भगवान् की उस प्रियतम मूर्ति की उपासना करते हैं और इस मन्त्र को निरन्तर जपते हुए स्तुति करते हैं- 'जो सम्पूर्ण सत्त्वगुण से युक्त हैं, जल में विचरते रहने के कारण जिनके स्थान का कोई निश्चय नहीं है तथा जो काल की मर्यादा के बाहर हैं, उन ओंकारस्वरूप सर्वव्यापक सर्वाधार भगवान् कच्छप को बार-बार नमस्कार है

भगवन्! अनेक रूपों में प्रतीत होने वाला यह दृश्यप्रपंच यद्यपि मिथ्या ही निश्चय होता है, इसलिये इसकी वस्तुतः कोई संख्या नहीं है; तथापि यह माया से प्रकाशित होने वाला आपका ही रूप है। ऐसे अनिर्वचनीय रूप आपको मेरा नमस्कार है। एकमात्र आप ही जरायुज, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जंगम, स्थावर, देवता, ऋषि, पितृगण, भूत, इन्द्रिय, स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप, ग्रह और तारा आदि विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हैं।

यस्मिन्नसङ्ख्येयविशेषनाम-

रूपाकृतौ कविभिः कल्पितेयम् ।

सङ्ख्या यया तत्त्वदृशापनीयते

तस्मै नमः साङ्ख्यनिदर्शनाय ते इति ॥ ३३॥

उत्तरेषु च कुरुषु भगवान् यज्ञपुरुषः

कृतवराहरूप आस्ते तं तु देवी हैषा भूः

सह कुरुभिरस्खलितभक्तियोगेनोपधावति

इमां च परमामुपनिषदमावर्तयति ॥ ३४॥

ओं नमो भगवते मन्त्रतत्त्वलिङ्गाय

यज्ञक्रतवे महाध्वरावयवाय महापुरुषाय

नमः कर्मशुक्लाय त्रियुगाय नमस्ते ॥ ३५॥

यस्य स्वरूपं कवयो विपश्चितो

गुणेषु दारुष्विव जातवेदसम् ।

मथ्नन्ति मथ्ना मनसा दिदृक्षवो

गूढं क्रियार्थैर्नम ईरितात्मने ॥ ३६॥

द्रव्यक्रियाहेत्वयनेशकर्तृभि-

र्मायागुणैर्वस्तुनिरीक्षितात्मने ।

अन्वीक्षयाङ्गातिशयात्मबुद्धिभि-

र्निरस्तमायाकृतये नमो नमः ॥ ३७॥

करोति विश्वस्थितिसंयमोदयं

यस्येप्सितं नेप्सितमीक्षितुर्गुणैः ।

माया यथायो भ्रमते तदाश्रयं

ग्राव्णो नमस्ते गुणकर्मसाक्षिणे ॥ ३८॥

प्रमथ्य दैत्यं प्रतिवारणं मृधे

यो मां रसाया जगदादिसूकरः ।

कृत्वाग्रदंष्ट्रे निरगादुदन्वतः

क्रीडन्निवेभः प्रणतास्मि तं विभुमिति ॥ ३९॥

आप असंख्य नाम, रूप और आकृतियों से युक्त हैं; कपिलादि विद्वानों ने जो आप में चौबीस तत्त्वों की संख्या निश्चित की है- वह जिस तत्त्वदृष्टि का उदय होने पर निवृत्त हो जाती है, वह भी वस्तुतः आपका ही स्वरूप है। ऐसे सांख्यसिद्धान्तस्वरूप आपको मेरा नमस्कार है

उत्तर कुरुवर्ष में भगवान् यज्ञपुरुष वराह मूर्ति धारण करके विराजमान हैं। वहाँ के निवासियों के सहित साक्षात् पृथ्वी देवी उनकी अविचल भक्तिभाव से उपासना करती और इस परमोत्कृष्ट मन्त्र का जप करती हुई स्तुति करती हैं- जिनका तत्त्व मन्त्रों से जाना जाता है, जो यज्ञ और क्रतुरूप हैं तथा बड़े-बड़े यज्ञ जिनके अंग हैं- उन ओंकारस्वरूप शुक्लकर्ममय त्रियुगमूर्ति पुरुषोत्तम भगवान् वराह को बार-बार नमस्कार है

ऋत्विज्गण जिस प्रकार अरणिरूप काष्ठ खण्डों में छिपी हुई अग्नि को मन्थन द्वारा प्रकट करते हैं, उसी प्रकार कर्मासक्ति एवं कर्मफल की कामनाओं से छिपे हुए जिनके रूप को देखने की इच्छा से परम प्रवीण पण्डितजन अपने विवेकयुक्त मनरूप मन्थन काष्ठ से शरीर एवं इन्द्रियादि को बिलो डालते हैं। इस प्रकार मन्थन करने पर अपने स्वरूप को प्रकट करने वाले आपको नमसकर है।

विचार तथा यम-नियमादि योगांगों के साधन से जिनकी बुद्धि निश्चयात्मिक हो गयी है- वे महापुरुष द्रव्य (विषय), क्रिया (इन्द्रियों के व्यापार), हेतु (इन्द्रियाधिष्ठाता देवता), अयन (शरीर), ईश, काल और कर्ता (अहंकार) आदि माया के कार्यों को देखकर जिनके वास्तविक स्वरूप का निश्चय करते हैं और ऐसे मायिक आकृतियों से रहित आपको बार-बार नमस्कार है। जिस प्रकार लोहा जड होने पर भी चुम्बक की सन्निधिमात्र से चलने-फिरने लगता है, उसी प्रकार जिन सर्वसाक्षी की इच्छामात्र से- जो अपने लिये नहीं, बल्कि समस्त प्राणियों के लिए होती है- प्रकृति अपने गुणों के द्वारा जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करती रहती है; ऐसे सम्पूर्ण गुणों एवं कर्मों के साक्षी आपको नमस्कार है।

आप जगत् के कारणभूत आदि सूकर हैं। जिस प्रकार एक हाथी दूसरे हाथी को पछाड़ देता है, उसी प्रकार गजराज के समान क्रीड़ा करते हुए आप युद्ध में अपने प्रतिद्वन्दी हिरण्याक्ष दैत्य को दलित करके मुझे अपनी दाढ़ों की नोक पर रख कर रसातल से प्रलयपयोधि के बाहर निकले थे। मैं आप सर्वशक्तिमान् प्रभु को बार-बार नमस्कार करती हूँ

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भुवनकोशवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के १८ अध्याय समाप्त हुआ ।।

शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय १९ 

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