श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १७           

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १७ "गंगा जी का विवरण और भगवान् शंकरकृत संकर्षणदेव की स्तुति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १७

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: सप्तदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १७                               

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः १७                                  

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध सत्रहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १७ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तदशोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

तत्र भगवतः साक्षाद्यज्ञलिङ्गस्य विष्णोर्विक्रमतो

वामपादाङ्गुष्ठनखनिर्भिन्नोर्ध्वाण्डकटाहविवरेणा-

न्तःप्रविष्टा या बाह्यजलधारा तच्चरणपङ्कजा-

वनेजनारुणकिञ्जल्कोपरञ्जिताखिलजगदघ-

मलापहोपस्पर्शनामला साक्षाद्भगवत्पदी-

त्यनुपलक्षितवचोऽभिधीयमानातिमहता

कालेन युगसहस्रोपलक्षणेन दिवो

मूर्धन्यवततार यत्तद्विष्णुपदमाहुः ॥ १॥

यत्र ह वाव वीरव्रत औत्तानपादिः परमभागवतो-

ऽस्मत्कुलदेवताचरणारविन्दोदकमिति यामनुसवन-

मुत्कृष्यमाणभगवद्भक्तियोगेन दृढं क्लिद्यमानान्तर्हृदय

औत्कण्ठ्यविवशामीलितलोचनयुगलकुड्मल-

विगलितामलबाष्पकलयाभिव्यज्यमानरोमपुलक-

कुलकोऽधुनापि परमादरेण शिरसा बिभर्ति ॥ २॥

ततः सप्तर्षयस्तत्प्रभावाभिज्ञा यां ननु तपस

आत्यन्तिकी सिद्धिरेतावती भगवति सर्वात्मनि

वासुदेवेऽनुपरतभक्तियोगलाभेनैवोपेक्षितान्या-

र्थात्मगतयो मुक्तिमिवागतां मुमुक्षव इव सबहुमान-

मद्यापि जटाजूटैरुद्वहन्ति ॥ ३॥

ततोऽनेकसहस्रकोटिविमानानीकसङ्कुलदेवयानेना-

वतरन्तीन्दुमण्डलमावार्य ब्रह्मसदने निपतति ॥ ४॥

तत्र चतुर्धा भिद्यमाना चतुर्भिर्नामभिश्चतुर्दिश-

मभिस्पन्दन्ती नदनदीपतिमेवाभिनिविशति

सीतालकनन्दा चक्षुर्भद्रेति ॥ ५॥

सीता तु ब्रह्मसदनात्केसराचलादि गिरिशिखरेभ्यो-

ऽधोऽधःप्रस्रवन्ती गन्धमादनमूर्धसु पतित्वान्तरेण

भद्राश्ववर्षं प्राच्यां दिशि क्षारसमुद्रमभिप्रविशति ॥ ६॥

एवं माल्यवच्छिखरान्निष्पतन्ती ततोऽनुपरतवेगा

केतुमालमभिचक्षुः प्रतीच्यां दिशि सरित्पतिं

प्रविशति ॥ ७॥

भद्रा चोत्तरतो मेरुशिरसो निपतिता गिरिशिखरा-

द्गिरिशिखरमतिहाय श्रृङ्गवतः श्रृङ्गादवस्यन्दमाना

उत्तरांस्तु कुरूनभित उदीच्यां दिशि जलधि-

मभिप्रविशति ॥ ८॥

तथैवालकनन्दा दक्षिणेन ब्रह्मसदनाद्बहूनि

गिरिकूटान्यतिक्रम्य हेमकूटाद्धैमकूटान्यति-

रभसतररंहसा लुठयन्ती भारतमभिवर्षं दक्षिणस्यां

दिशि जलधिमभिप्रविशति यस्यां स्नानार्थं चागच्छतः

पुंसः पदे पदेऽश्वमेधराजसूयादीनां फलं न

दुर्लभमिति ॥ ९॥

अन्ये च नदा नद्यश्च वर्षे वर्षे सन्ति बहुशो

मेर्वादिगिरिदुहितरः शतशः ॥ १०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! जब राजा बलि की यज्ञशाला में साक्षात् यज्ञमूर्ति भगवान् विष्णु ने त्रिलोकी को नापने के लिए अपना पैर फैलाया, तब उनके बायें अँगूठे के नख से ब्रह्माण्डकटाह का ऊपर का भाग फट गया। उस छिद्र में होकर जो ब्रह्माण्ड से बाहर के जल की धारा आयी, वह उस चरणकमल को धोने से उसमें लगी हुई केसर के मिलने से लाल हो गयी। उस निर्मल धारा का स्पर्श होते ही संसार के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, किन्तु वह सर्वथा निर्मल ही रहती है। पहले किसी और नाम से न पुकारकर उसे भगवदत्पदीही कहते थे। वह धारा हजारों युग बीतने पर स्वर्ग के शिरोभाग में स्थित ध्रुवलोक में उतरी, जिसे विष्णुपदभी कहते हैं।

वीरव्रत परीक्षित! उस ध्रुवलोक में उत्तानपाद के पुत्र परम भागवत ध्रुवजी रहते हैं। वे नित्यप्रति बढ़ते हुए भक्तिभाव से यह हमारे कुल देवता का चरणोंदक हैऐसा मानकर आज भी उस जल को बड़े आदर से सिर पर चढ़ाते हैं। उस समय प्रेमोवेश के कारण उनका हृदय अत्यन्त गद्गद हो जाता है, उत्कण्ठावश बरबस मुँदे हुए दोनों नयनकमलों से निर्मल आँसुओं की धारा बहने लगती है और शरीर में रोमांच हो आता है। इसके पश्चात् आत्मनिष्ठ सप्तर्षिगण उनका प्रभाव जानने के कारण यही तपस्या की आत्यन्तिक सिद्धि हैऐसा मानकर उसे आज भी इस प्रकार आदरपूर्वक अपने जटाजूट पर वैसे ही धारण करते हैं, जैसे मुमुक्षुजन प्राप्त हुई मुक्ति को। यों ये बड़े ही निष्काम हैं; सर्वात्मा भगवान् वासुदेव की निश्चल भक्ति को ही अपना परम धन मानकर इन्होंने अन्य सभी कामनाओं को त्याग दिया है, यहाँ तक कि आत्मज्ञान को भी ये उसके सामने कोई चीज नहीं समझते। वहाँ से गंगाजी करोड़ों विमानों से घिरे हुए आकाश में होकर उतरती हैं और चन्द्रमण्डल को आप्लावित करती मेरु के शिखर पर ब्रह्मपुरी में गिरती हैं। वहाँ ये सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नाम से चार धाराओं में विभक्त हो जाती हैं तथा अलग-अलग चारों दिशाओं में बहती हुई अन्त में नद-नदियों के अधीश्वर समुद्र में गिर जाती हैं।

इनमें सीता ब्रह्मपुरी से गिरकर केसराचलों के सर्वोच्च शिखरों में होकर नीचे की ओर बहती गन्धमादन के शिखरों पर गिरती है और भद्राश्ववर्ष को प्लावित कर पूर्व की ओर खारे समुद्र में मिल जाती है। इसी प्रकार चक्षु माल्यवान् के शिखर पर पहुँचकर वहाँ से बरोक-टोक केतुमाल वर्ष में बहती पश्चिम की ओर क्षार समुद्र में जा मिलती है। भद्रा मेरु पर्वत के शिखर से उत्तर की ओर गिरती है तथा एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर जाती अन्त में श्रृंगवान् के शिखर से गिरकर उत्तर कुरु देश में होकर उत्तर की ओर बहती हुई समुद्र में मिल जाती है।

अलकनन्दा ब्रह्मपुरी से दक्षिण की ओर गिरकर अनेकों गिरिशिखरों को लाँघती हेमकूट पर्वत पर पहुँचती है, वहाँ से अत्यन्त तीव्र वेग से हिमालय के शिखरों को चीरती हुई भारतवर्ष में आती है और फिर दक्षिण की ओर समुद्र में जा मिलती है। इसमें स्नान करने के लिये आने वाले पुरुषों को पद-पद पर अश्वमेध और राजसूय आदि यज्ञों का फल भी दुर्लभ नहीं है। प्रत्येक वर्ष में मेरु आदि पर्वतों से निकली हुई और भी सैकड़ों नद-नदियाँ हैं।

तत्रापि भारतमेव वर्षं कर्मक्षेत्रमन्यान्यष्ट-

वर्षाणि स्वर्गिणां पुण्यशेषोपभोगस्थानानि

भौमानि स्वर्गपदानि व्यपदिशन्ति ॥ ११॥

एषु पुरुषाणामयुतपुरुषायुर्वर्षाणां देवकल्पानां

नागायुतप्राणानां वज्रसंहननबलवयोमोदप्रमुदित-

महासौरतमिथुनव्यवायापवर्गवर्षधृतैकगर्भकलत्राणां

तत्र तु त्रेतायुगसमः कालो वर्तते ॥ १२॥

यत्र ह देवपतयः स्वैः स्वैर्गणनायकैर्विहितमहार्हणाः

सर्वर्तुकुसुमस्तबकफलकिसलयश्रियाऽऽनम्यमान-

विटपलताविटपिभिरुपशुम्भमानरुचिरकाननाश्रमा-

यतनवर्षगिरिद्रोणीषु तथा चामलजलाशयेषु

विकचविविधनववनरुहामोदमुदितराजहंस-

जलकुक्कुटकारण्डवसारसचक्रवाकादिभिः

मधुकरनिकराकृतिभिरुपकूजितेषु जलक्रीडादिभि-

र्विचित्रविनोदैः सुललितसुरसुन्दरीणां

कामकलिलविलासहासलीलावलोकाकृष्टमनोदृष्टयः

स्वैरं विहरन्ति ॥ १३॥

नवस्वपि वर्षेषु भगवान् नारायणो महापुरुषः

पुरुषाणां तदनुग्रहायात्मतत्त्वव्यूहेनात्मनाद्यापि

सन्निधीयते ॥ १४॥

इलावृते तु भगवान् भव एक एव पुमान् न ह्यन्य-

स्तत्रापरो निर्विशति भवान्याः शापनिमित्तज्ञो

यत्प्रवेक्ष्यतः स्त्रीभावस्तत्पश्चाद्वक्ष्यामि ॥ १५॥

भवानीनाथैः स्त्रीगणार्बुदसहस्रैरवरुध्यमानो

भगवतश्चतुर्मूर्तेर्महापुरुषस्य तुरीयां तामसीं

मूर्तिं प्रकृतिमात्मनः सङ्कर्षणसंज्ञामात्मसमाधि-

रूपेण सन्निधाप्यैतदभिगृणन् भव उपधावति ॥ १६॥

इन सब वर्षों में भारतवर्ष ही कर्मभूमि है। शेष आठ वर्ष तो स्वर्गवासी पुरुषों के स्वर्गभोग से बचे हुए पुण्यों को भोगने के स्थान हैं। इसलिये इन्हें भूलोक के स्वर्ग भी कहते हैं। वहाँ के देवतुल्य मनुष्यों की मानवी गणना के अनुसार दस हजार वर्ष की आयु होती है। उनमें दस हजार हाथियों का बल होता है तथा उनके वज्रसदृश सुदृढ़ शरीर में जो शक्ति, यौवन और उल्लास होते हैं-उनके कारण वे बहुत समय तक मैथुन आदि विषय भोगते रहते हैं। अन्त में जब भोग समाप्त होने पर उनकी आयु का केवल एक वर्ष रह जाता है, तब उनकी स्त्रियाँ गर्भ धारण करती हैं। इस प्रकार वहाँ सर्वदा त्रेतायुग के समान समय बना रहता है। वहाँ ऐसे आश्रम, भवन और वर्ष, पर्वतों की घाटियाँ हैं, जिनके सुन्दर वन-उपवन सभी ऋतुओं के फूलों के गुच्छे, फल और नूतन पल्लवों की शोभा के भार से झुकी हुई डालियों और लताओं वाले वृक्षों से सुशोभित हैं; वहाँ निर्मल जल से भरे हुए ऐसे जलाशय भी हैं; जिनमें तरह-तरह के नूतन कमल खिले रहते हैं और उन कमलों की सुगन्ध से प्रमुदित होकर राजहंस, जलमुर्ग, कारण्डव, सारस और चकवा आदि पक्षी, मतवाले भौंरे मधुर-मधुर गुंजार करते रहते हैं।

इन आश्रमों, भवनों, घाटियों तथा जलाशयों में वहाँ के देवेश्वरगण परम सुन्दरी देवांगनाओं के साथ उनके कामोन्माद सूचक हास-विलास और लीला-कटाक्षों से मन और नेत्रों के आकृष्ट हो जाने के कारण जलक्रीड़ादि नाना प्रकार के खेल करते हुए स्वच्छन्द विहार करते हैं तथा उनके प्रधान-प्रधान अनुचरगण अनेक प्रकार की सामग्रियों से उनका आदर-सत्कार करते रहते हैं। इन नवों वर्षों में परमपुरुष भगवान् नारायण वहाँ के पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये इस समय भी अपनी विभिन्न मूर्तियों से विराजमान रहते हैं।

इलावृत वर्ष में एकमात्र भगवान् शंकर ही पुरुष हैं। श्रीपार्वती जी के शाप को जानने वाला कोई दूसरा पुरुष वहाँ प्रवेश नहीं करता; क्योंकि वहाँ जो जाता है, वही स्त्रीरूप हो जाता है। इस प्रसंग का हम आगे (नवम स्कन्ध में) वर्णन करेंगे। वहाँ पार्वती एवं उनकी अरबों-खरबों दासियों से सेवित भगवान् शंकर परमपुरुष परमात्मा की वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण संयज्ञ चतुर्व्यूह-मूर्तियों में से अपनी कारणरूपा संकर्षण नाम की तमःप्रधान चौथी मूर्ति का ध्यानस्थित मनोमय विग्रह के रूप में चिन्तन करते हैं और इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं

श्रीभगवानुवाच

ओं नमो भगवते महापुरुषाय सर्वगुणसङ्ख्यानाया-

नन्तायाव्यक्ताय नम इति ॥ १७॥

भजे भजन्यारणपादपङ्कजं

भगस्य कृत्स्नस्य परं परायणम् ।

भक्तेष्वलं भावितभूतभावनं

भवापहं त्वा भवभावमीश्वरम् ॥ १८॥

न यस्य मायागुणचित्तवृत्तिभि-

र्निरीक्षतो ह्यण्वपि दृष्टिरज्यते ।

ईशे यथा नोऽजितमन्युरंहसां

कस्तं न मन्येत जिगीषुरात्मनः ॥ १९॥

असद्दृशो यः प्रतिभाति मायया

क्षीबेव मध्वासवताम्रलोचनः ।

न नागवध्वोऽर्हण ईशिरे ह्रिया

यत्पादयोः स्पर्शनधर्षितेन्द्रियाः ॥ २०॥

यमाहुरस्य स्थितिजन्मसंयमं

त्रिभिर्विहीनं यमनन्तमृषयः ।

न वेद सिद्धार्थमिव क्वचित्स्थितं

भूमण्डलं मूर्धसहस्रधामसु ॥ २१॥

यस्याद्य आसीद्गुणविग्रहो महान्

विज्ञानधिष्ण्यो भगवानजः किल ।

यत्सम्भवोऽहं त्रिवृता स्वतेजसा

वैकारिकं तामसमैन्द्रियं सृजे ॥ २२॥

एते वयं यस्य वशे महात्मनः

स्थिताः शकुन्ता इव सूत्रयन्त्रिताः ।

महानहं वैकृततामसेन्द्रियाः

सृजाम सर्वे यदनुग्रहादिदम् ॥ २३॥

यन्निर्मितां कर्ह्यपि कर्मपर्वणीं

मायां जनोऽयं गुणसर्गमोहितः ।

न वेद निस्तारणयोगमञ्जसा

तस्मै नमस्ते विलयोदयात्मने ॥ २४॥

भगवान् शंकर कहते हैं ;- ‘ॐ जिनसे सभी गुणों की अभिव्यक्ति होती है, उन अनन्त और अव्यक्तमूर्ति ओंकारस्वरूप परमपुरुष श्रीभगवान् को नमस्कार है।’ ‘भजनीय प्रभो! आपके चरणकमल भक्तों को आश्रय देने वाले हैं तथा आप स्वयं सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के परम आश्रय हैं। भक्तों के सामने आप अपना भूतभावनस्वरूप पूर्णतया प्रकट कर देते हैं तथा उन्हें संसारबन्धन से भी मुक्त कर देते हैं, किन्तु अभक्तों को उस बन्धन में डालते रहते हैं। आप ही सर्वेश्वर हैं, मैं आपका भजन करता हूँ।

प्रभो! हम लोग क्रोध के आवेग को नहीं जीत सके हैं तथा हमारी दृष्टि तत्काल पाप से लिप्त हो जाती है। परन्तु आप तो संसार का नियमन करने के लिये निरन्तर साक्षीरूप से उसके सारे व्यापारों को देखते रहते हैं। तथापि हमारी तरह आपकी दृष्टि पर उन मायिक विषयों तथा चित्त की वृत्तियों का नाममात्र को भी प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी स्थिति में अपने मन को वश में करने की इच्छा वाला कौन पुरुष आपका आदर न करेगा?

आप जिन पुरुषों को मधु-आसवादि पाने के कारण अरुण नयन और मतवाले जान पड़ते हैं, वे माया के वशीभूत होकर ही ऐसा मिथ्या दर्शन करते हैं तथा आपके चरणस्पर्श से ही चित्त चंचल हो जाने के कारण नागपत्नियाँ लज्जावश आपकी पूजा करने में असमर्थ हो जाती हैं।

वेदमन्त्र आपको जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण बताते हैं; परन्तु आप स्वयं इन तीनों विकारों से रहित हैं; इसलिये आपको अनन्तकहते हैं। आपके सहस्र मस्तकों पर यह भूमण्डल सरसों के दाने के समान रखा हुआ है, आपको तो यह भी नहीं मालूम होता कि वह कहाँ स्थित है। जिनसे उत्पन्न हुआ मैं अहंकाररूप अपने त्रिगुणमय तेज से देवता, इन्द्रिय और भूतों की रचना करता हूँ-वे विज्ञान के आश्रय भगवान् ब्रह्मा जी भी आपके ही महत्तत्त्वसंयज्ञ प्रथम गुणमय स्वरूप हैं।

महात्मन्! महत्तत्त्व, अहंकार-इन्द्रियाभिमानी देवता, इन्द्रियाँ और पंचभूत आदि हम सभी डोरी में बँधे हुए पक्षी के समान आपकी क्रियाशक्ति के वशीभूत रहकर आपकी ही कृपा से इस जगत् की रचना करते हैं। सत्त्वादि गुणों की सृष्टि से मोहित हुआ यह जीव आपकी ही रची हुई तथा कर्मबन्धन में बाँधने वाली माया को कदाचित् जान भी लेता है, किन्तु उससे मुक्त होने का उपाय उसे सुगमता से नहीं मालूम होता। इस जगत् की उत्पत्ति और प्रलय भी आपके ही रूप हैं। ऐसे आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के १७ अध्याय समाप्त हुआ ।।

शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय १८  

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