श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १९             

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १९ "किम्पुरुष और भारतवर्ष का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १९

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १९                                 

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः १९                                    

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ एकोनविंशोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

किम्पुरुषे वर्षे भगवन्तमादिपुरुषं लक्ष्मणाग्रजं

सीताभिरामं रामं तच्चरणसन्निकर्षाभिरतः

परमभागवतो हनुमान् सह किम्पुरुषैरविरत-

भक्तिरुपास्ते ॥ १॥

आर्ष्टिषेणेन सह गन्धर्वैरनुगीयमानां परमकल्याणीं

भर्तृभगवत्कथां समुपश्रृणोति स्वयं चेदं गायति ॥ २॥

ओं नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम आर्यलक्षणशील-

व्रताय नम उपशिक्षितात्मन उपासितलोकाय नमः

साधुवादनिकषणाय नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय

महाराजाय नम इति ॥ ३॥

यत्तद्विशुद्धानुभवमात्रमेकं

स्वतेजसा ध्वस्तगुणव्यवस्थम् ।

प्रत्यक्प्रशान्तं सुधियोपलम्भनं

ह्यनामरूपं निरहं प्रपद्ये ॥ ४॥

मर्त्यावतारस्त्विह मर्त्यशिक्षणं

रक्षोवधायैव न केवलं विभोः ।

कुतोऽन्यथा स्याद्रमतः स्व आत्मनः

सीताकृतानि व्यसनानीश्वरस्य ॥ ५॥

न वै स आत्माऽऽत्मवतां सुहृत्तमः

सक्तस्त्रिलोक्यां भगवान्वासुदेवः ।

न स्त्रीकृतं कश्मलमश्नुवीत

न लक्ष्मणं चापि विहातुमर्हति ॥ ६॥

न जन्म नूनं महतो न सौभगं

न वाङ् न बुद्धिर्नाकृतिस्तोषहेतुः ।

तैर्यद्विसृष्टानपि नो वनौकस-

श्चकार सख्ये बत लक्ष्मणाग्रजः ॥ ७॥

सुरोऽसुरो वाप्यथ वानरो नरः

सर्वात्मना यः सुकृतज्ञमुत्तमम् ।

भजेत रामं मनुजाकृतिं हरिं

य उत्तराननयत्कोसलान् दिवमिति ॥ ८॥

भारतेऽपि वर्षे भगवान् नरनारायणाख्य आकल्पान्त-

मुपचितधर्म ज्ञानवैराग्यैश्वर्योपशमोपरमात्मोपलम्भन-

मनुग्रहायात्मवतामनुकम्पया तपोऽव्यक्तगतिश्चरति ॥ ९॥

तं भगवान् नारदो वर्णाश्रमवतीभिर्भारतीभिः प्रजाभि-

र्भगवत्प्रोक्ताभ्यां साङ्ख्ययोगाभ्यां भगवदनुभावोपवर्णनं

सावर्णेरुपदेक्ष्यमाणः परमभक्तिभावेनोपसरति इदं

चाभिगृणाति ॥ १०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! किम्पुरुषवर्ष में श्रीलक्ष्मण जी के बड़े भाई, आदिपुरुष सीताहृदयाभिराम भगवान् श्रीराम के चरणों की सन्निधि के रसिक परमभागवत श्रीहनुमान जी अन्य किन्नरों के सहित अविचल भक्तिभाव से उनकी उपासना करते हैं। वहाँ अन्य गन्धर्वों के सहित आर्ष्टिषेण उनके स्वामी भगवान् राम की परम कल्याणमयी गुणगाथा गाते रहते हैं। श्रीहनुमान जी उसे सुनते हैं और स्वयं भी इस मन्त्र का जप करते हुए इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं- हम ॐकारस्वरूप पवित्र कीर्ति भगवान् श्रीराम को नमस्कार करते हैं। आपमें सत्पुरुषों के लक्षण, शील और आचरण विद्यमान हैं; आप बड़े ही संयतचित्त, लोकाराधन तत्पर, साधुता की परीक्षा के लिये कसौटी के समान और अत्यन्त ब्राह्मण भक्त हैं। ऐसे महापुरुष महाराज राम को हमारा पुनः-पुनः प्रणाम है

भगवन्! आप विशुद्ध बोधस्वरूप, अद्वितीय, अपने स्वरूप के प्रकाश से गुणों के कार्यरूप जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओं का निरास करने वाले, सर्वान्तरात्मा, परमशान्त, शुद्ध बुद्धि से ग्रहण किये जाने योग्य, नाम-रूप से रहित और अहंकार शून्य हैं; मैं आपकी शरण में हूँ।

प्रभो! आपका मनुष्यावतार केवल राक्षसों के वध के लिये ही नहीं है, इसका मुख्य उद्देश्य तो मनुष्यों को शिक्षा देना है। अन्यथा, अपने स्वरूप में ही रमण करने वाले साक्षात् जगदात्मा जगदीश्वर को सीता जी के वियोग में इतना दुःख कैसे हो सकता था। आप धीर पुरुषों के आत्मा और प्रियतम भगवान् वासुदेव हैं; त्रिलोकी की किसी भी वस्तु में आपकी आसक्ति नहीं है। आप न तो सीता जी के लिये मोह को ही प्राप्त हो सकते हैं और न लक्ष्मण जी का त्याग ही कर सकते हैं। आपके ये व्यापार केवल लोक शिक्षा के लिये ही हैं।

लक्ष्मणाग्रज! उत्तम कुल में जन्म, सुन्दरता, वाकचातुरी, बुद्धि और श्रेष्ठ योनि-इनमें से कोई भी गुण आपकी प्रसन्नता का कारण नहीं हो सकता, यह बात दिखाने के लिये ही आपने इन सब गुणों से रहित हम वनवासी वानरों से मित्रता की है। देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य-कोई भी हो, उसे सब प्रकार से श्रीरामरूप आपका ही भजन करना चाहिये; क्योंकि आप नर रूप में साक्षात् श्रीहरि ही हैं और थोड़े किये को भी बहुत अधिक मानते हैं। आप ऐसे आश्रितवत्सल हैं कि जब स्वयं दिव्यधाम को सिधारे थे, तब समस्त उत्तर कोसलवासियों को भी अपने साथ ही ले गये थे

भारतवर्ष में भी भगवान् दयावश नर-नारायणरूप धारण करके संयमशील पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये अव्यक्त रूप से कल्प के अन्त तक तप करते रहते हैं। उनकी यह तपस्या ऐसी है कि जिससे धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, शान्ति और उपरति की उत्तरोत्तर वृद्धि होकर अन्त में आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो सकती है। हाँ भगवान् नारद जी स्वयं श्रीभगवान् के ही कहे हुए सांख्य और योगशास्त्र के सहित भगवन्महिमा को प्रकट करने वाले पांचरात्र दर्शन का सावर्णी मुनि को उपदेश करने के लिये भारतवर्ष की वर्णाश्रम-धर्मावलम्बिनी प्रजा के सहित अत्यन्त भक्तिभाव से भगवान् श्रीनर-नारायण की उपासना करते और इस मन्त्र का जप तथा स्तोत्र को गाकर उनकी स्तुति करते हैं।

ओं नमो भगवते उपशमशीलायोपरतानात्म्याय

नमोऽकिञ्चनवित्ताय ऋषिऋषभाय नरनारायणाय

परमहंस परमगुरवे आत्मारामाधिपतये नमो नम इति ॥ ११॥

गायति चेदम् ।

कर्तास्य सर्गादिषु यो न बध्यते

न हन्यते देहगतोऽपि दैहिकैः ।

द्रष्टुर्न दृग्यस्य गुणैर्विदूष्यते

तस्मै नमोऽसक्तविविक्तसाक्षिणे ॥ १२॥

इदं हि योगेश्वर योगनैपुणं

हिरण्यगर्भो भगवाञ्जगाद यत् ।

यदन्तकाले त्वयि निर्गुणे मनो

भक्त्या दधीतोज्झितदुष्कलेवरः ॥ १३॥

यथैहिकामुष्मिककामलम्पटः

सुतेषु दारेषु धनेषु चिन्तयन् ।

शङ्केत विद्वान् कुकलेवरात्यया-

द्यस्तस्य यत्नः श्रम एव केवलम् ॥ १४॥

तन्नः प्रभो त्वं कुकलेवरार्पितां

त्वन्माययाहम्ममतामधोक्षज ।

भिन्द्याम येनाशु वयं सुदुर्भिदां

विधेहि योगं त्वयि नः स्वभावमिति ॥ १५॥

भारतेऽप्यस्मिन् वर्षे सरिच्छैलाः सन्ति बहवो

मलयो मङ्गलप्रस्थो मैनाकस्त्रिकूटऋषभः कूटकः

कोल्लकः सह्यो देवगिरिरृष्यमूकः श्रीशैलो वेङ्कटो

महेन्द्रो वारिधारो विन्ध्यः शुक्तिमान् ऋक्षगिरिः

पारियात्रो द्रोणश्चित्रकूटो गोवर्धनो रैवतकः ककुभो

नीलो गोकामुख इन्द्रकीलः कामगिरिरिति चान्ये

च शतसहस्रशः शैलास्तेषां नितम्बप्रभवा नदा

नद्यश्च सन्त्यसङ्ख्याताः ॥ १६॥

एतासामपो भारत्यः प्रजा नामभिरेव पुनन्तीना-

मात्मना चोपस्पृशन्ति ॥ १७॥

चन्द्रवसा ताम्रपर्णी अवटोदा कृतमाला वैहायसी

कावेरी वेणी पयस्विनी शर्करावर्ता तुङ्गभद्रा कृष्णा

वेण्या भीमरथी गोदावरी निर्विन्ध्या पयोष्णी तापी

रेवा सुरसा नर्मदा चर्मण्वती सिन्धुरन्धः शोणश्च

नदौ महानदी वेदस्मृतिरृषिकुल्या त्रिसामा कौशिकी

मन्दाकिनी यमुना सरस्वती दृषद्वती गोमती सरयू

रोधस्वती सप्तवती सुषोमा शतद्रूश्चन्द्रभागा मरुद्वृधा

वितस्ता असिक्नी विश्वेति महानद्यः ॥ १८॥

अस्मिन्नेव वर्षे पुरुषैर्लब्धजन्मभिः शुक्ललोहित-

कृष्णवर्णेन स्वारब्धेन कर्मणा दिव्यमानुषनारक-

गतयो बह्व्य आत्मन आनुपूर्व्येण सर्वा ह्येव सर्वेषां

विधीयन्ते यथा वर्णविधानमपवर्गश्चापि भवति ॥ १९॥

योऽसौ भगवति सर्वभूतात्मन्यनात्म्येऽनिरुक्ते-

ऽनिलयने परमात्मनि वासुदेवेऽनन्यनिमित्त-

भक्तियोगलक्षणो नानागतिनिमित्ताविद्याग्रन्थि-

रन्धनद्वारेण यदा हि महापुरुषपुरुषप्रसङ्गः ॥ २०॥

एतदेव हि देवा गायन्ति -

अहो अमीषां किमकारि शोभनं

प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः ।

यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे

मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि नः ॥ २१॥

 ‘ओंकारस्वरूप, अहंकार से रहित, निर्धर्नों के धन, शान्तस्वभाव ऋषिप्रवर भगवान् नर-नारायण को नमस्कार है। वे परमहंसों के परमगुरु और आत्मारामों के अधीश्वर हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है। यह गाते हैं- जो विश्व की उत्पत्ति आदि में उनके कर्ता होकर भी कर्तृत्व के अभिमान से नहीं बँधते, शरीर में रहते हुए भी उसके धर्म भूख-प्यास आदि के वशीभूत नहीं होते तथा द्रष्टा होने पर भी जिनकी दृष्टि दृश्य के गुण-दोषों से दूषित नहीं होती-उन असंग एवं विशुद्ध साक्षिस्वरूप भगवान् नर-नारायण को नमस्कार है।

योगेश्वर! हिरण्यगर्भ भगवान् ब्रह्मा जी ने योग साधन की सबसे बड़ी कुशलता यही बतलायी है कि मनुष्य अन्तकाल में देहाभिमान को छोड़कर भक्तिपूर्वक आपके प्राकृत गुणरहित स्वरूप में अपना मन लगावे। लौकिक और पारलौकिक भोगों के लालची मूढ़ पुरुष जैसे पुत्र, स्त्री और धन की चिन्ता करके मौत से डरते हैं-उसी प्रकार यदि विद्वान् को भी इस निन्दनीय शरीर के छूटने का भय ही बना रहा, तो उसका ज्ञान प्राप्ति के लिये किया हुआ प्रयत्न केवल श्रम ही है। अतः अधोक्षज! आप हमें अपना स्वाभाविक प्रेमरूप भक्तियोग प्रदान कीजिये, जिससे कि प्रभो! इस निन्दनीय शरीर में आपकी माया के कारण बद्धमूल हुई दुर्भेद्य अहंता-ममता को हम तुरंत काट डालें

राजन्! इस भारतवर्ष में भी बहुत-से पर्वत और नदियाँ हैं-जैसे मलय, मंगलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कूटक, कोल्लक, सह्य, देवगिरी, ऋष्यमूक, श्रीशैल, वेंकट, महेन्द्र, वारिधार, विन्ध्य, शुक्तिमान्, ऋक्षगिरी, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, रैवतक, कुकुभ, नील, गोकामुख, इन्द्रकील और कामगिरि आदि। इसी प्रकार और भी सैकड़ों-हजारों पर्वत हैं। उनके तट प्रान्तों से निकलने वाले नद और नदियाँ भी अगणित हैं। ये नदियाँ अपने नामों से ही जीव को पवित्र कर देती हैं और भारतीय प्रजा इन्हीं के जल में स्नानादि करती है। उनमें से मुख्य-मुख्य नदियाँ ये हैं- चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी, अवटोदा, कृतमाला, वैहायसी, कावेरी, वेणी, पयस्विनी, शर्करावर्ता, तुंगभद्रा, कृष्णा, वेण्या, भीमरथी, गोदावरी, निर्विन्ध्या, पयोष्णी, तापी, रेवा, सुरसा, नर्मदा, चर्मण्वती, सिन्धु, अन्ध और शोण नाम के नद, महानदी, वेदस्मृति, ऋषिकुल्या, त्रिमासा, कौशिकी, मन्दाकिनी, यमुना, सरस्वती, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधस्वती, सप्तवती, सुषोमा, शतद्रू, चन्द्रभागा, मरूद्वृधा, वितस्ता, असिक्नी और विश्वा।

इस वर्ष में जन्म लेने वाले पुरुषों को ही अपने किये हुए सात्त्विक, राजस और तामस कर्मों के अनुसार क्रमशः नाना प्रकार की दिव्य, मानुष और नार की योनियाँ प्राप्त होती हैं; क्योंकि कर्मानुसार सब जीवों को सभी योनियाँ प्राप्त हो सकती हैं। इसी वर्ष में अपने-अपने वर्ण के लिये नियत किये हुए धर्मों का विधिवत् अनुष्ठान करने से मोक्ष तक की प्राप्ति हो सकती है।

परीक्षित! सम्पूर्ण भूतों के आत्मा, रागादि दोषों से रहित, अनिर्वचनीय, निराधार परमात्मा भगवान् वासुदेव में अनन्य एवं अहैतुक भक्तिभाव ही यह मोक्ष पद है। यह भक्तिभाव तभी प्राप्त होता है, जब अनेक प्रकार की गतियों को प्रकट करने वाली अविद्यारूप हृदय की ग्रन्थि कट जाने पर भगवान् के प्रेमी भक्तों का संग मिलता है। देवता भी भारतवर्ष में उत्पन्न हुए मनुष्यों की इस प्रकार महिमा गाते हैं- अहा! जिन जीवों ने भारतवर्ष में भगवान् की सेवा के योग्य मनुष्य-जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है? अथवा इन पर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं? इस परम सौभाग्य के लिये तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं।

किं दुष्करैर्नः क्रतुभिस्तपोव्रतै-

र्दानादिभिर्वा द्युजयेन फल्गुना ।

न यत्र नारायणपादपङ्कज-

स्मृतिः प्रमुष्टातिशयेन्द्रियोत्सवात् ॥ २२॥

कल्पायुषां स्थानजयात्पुनर्भवात्

क्षणायुषां भारतभूजयो वरम् ।

क्षणेन मर्त्येन कृतं मनस्विनः

सन्न्यस्य संयान्त्यभयं पदं हरेः ॥ २३॥

न यत्र वैकुण्ठकथासुधापगा

न साधवो भागवतास्तदाश्रयाः ।

न यत्र यज्ञेशमखा महोत्सवाः

सुरेशलोकोऽपि न वै स सेव्यताम् ॥ २४॥

प्राप्ता नृजातिं त्विह ये च जन्तवो

ज्ञानक्रियाद्रव्यकलापसम्भृताम् ।

न वै यतेरन्नपुनर्भवाय ते

भूयो वनौका इव यान्ति बन्धनम् ॥ २५॥

यैः श्रद्धया बर्हिषि भागशो हवि

र्निरुप्तमिष्टं विधिमन्त्रवस्तुतः ।

एकः पृथङ् नामभिराहुतो मुदा

गृह्णाति पूर्णः स्वयमाशिषां प्रभुः ॥ २६॥

सत्यं दिशत्यर्थितमर्थितो नृणां

नैवार्थदो यत्पुनरर्थिता यतः ।

स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छता-

मिच्छापिधानं निजपादपल्लवम् ॥ २७॥

यद्यत्र नः स्वर्गसुखावशेषितं

स्विष्टस्य सूक्तस्य कृतस्य शोभनम् ।

तेनाजनाभे स्मृतिमज्जन्म नः स्या-

द्वर्षे हरिर्यद्भजतां शं तनोति ॥ २८॥

हमें बड़े कठोर यज्ञ, तप, व्रत और दानादि करके जो तुच्छ स्वर्ग का अधिकार प्राप्त हुआ है-इससे क्या लाभ है? यहाँ तो इन्द्रियों के भोगों की अधिकता से कारण स्मृतिशक्ति छिन जाती है, अतः कभी श्रीनारायण के चरणकमलों की स्मृति होती ही नहीं। यह स्वर्ग तो क्या-जहाँ के निवासियों की एक-एक कल्प की आयु होती है, किन्तु जहाँ से फिर संसारचक्र में लौटना पड़ता है, उन ब्रह्मलोकादि की अपेक्षा भी भारतभूमि में थोड़ी आयु वाले होकर जन्म लेना अच्छा है; क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षण में ही अपने इस मर्त्य शरीर से किये हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान् को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है।

जहाँ भगवत्कथा की अमृतमयी सरिता नहीं बहती, जहाँ उसके उद्गमस्थान भगवद्भक्त साधुजन निवास नहीं करते और जहाँ नृत्य-गीतादि के साथ बड़े समारोह से भगवान् यज्ञपुरुष की पूजा-अर्चा नहीं की जाती-वह चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिये। जिन जीवों ने इस भारतवर्ष में ज्ञान (विवेक बुद्धि), तदनुकुल कर्म तथा उस कर्म के उपयोगी द्रव्यादि सामग्री से सम्पन्न मनुष्य जन्म पाया है, वे यदि आवागमन के चक्र से निकलने का प्रयत्न नहीं करते, तो व्याध की फाँसी से छूटकर भी फलादि के लोभ से उसी वृक्ष पर विहार करने वाले वनवासी पक्षियों के समान फिर बन्धन में पड़ जाते हैं।

अहो! इन भारतवासियों का कैसा सौभाग्य है। जब ये यज्ञ में भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से अलग-अलग भाग रखकर विधि, मन्त्र और द्रव्यादि के योग से श्रद्धापूर्वक उन्हें हवि प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार इन्द्रादि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाने पर सम्पूर्ण कामनाओं के पूर्ण करने वाले स्वयं पूर्णकाम श्रीहरि ही प्रसन्न होकर उस हवि को ग्रहण करते हैं।

यह ठीक है कि भगवान् सकाम पुरुषों के माँगने पर उन्हें अभीष्ट पदार्थ देते हैं, किन्तु यह भगवान् का वास्तविक दान नहीं है; क्योंकि उन वस्तुओं को पा लेने पर भी मनुष्य के मन में पुनः कामनाएँ होती ही रहती हैं। इसके विपरीत जो उनका निष्काम भाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात् अपने चरणकमल ही दे देते हैं-जो अन्य समस्त इच्छाओं को समाप्त कर देने वाले हैं। अतः अब तक स्वर्गसुख भोग लेने के बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ, प्रवचन और शुभ कर्मों से यदि कुछ भी पुण्य बचा हो, तो उसके प्रभाव से हमें इस भारतवर्ष में भगवान् की स्मृति से युक्त मनुष्य जन्म मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करने वाले का सब प्रकार से कल्याण करते हैं

श्रीशुक उवाच

जम्बूद्वीपस्य च राजन्नुपद्वीपानष्टौ हैक उपदिशन्ति

सगरात्मजैरश्वान्वेषण इमां महीं परितो निखनद्भि-

रुपकल्पितान् ॥ २९॥

तद्यथा स्वर्णप्रस्थश्चन्द्रशुक्ल आवर्तनो रमणको

मन्दरहरिणः पाञ्चजन्यः सिंहलो लङ्केति ॥ ३०॥

एवं तव भारतोत्तम जम्बूद्वीपवर्षविभागो

यथोपदेशमुपवर्णित इति ॥ ३१॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! राजा सगर के पुत्रों ने अपने यज्ञ के घोड़े को ढूँढ़ते हुए इस पृथ्वी को चारो ओर से खोदा था। उससे जम्बू द्वीप के अन्तर्गत ही आठ उपद्वीप और बन गये, ऐसा कुछ लोगों का कथन है। वे स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण, पांचजन्य, सिंहल और लंका हैं।

भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार जैसा मैंने गुरुमुख से सुना था, ठीक वैसा ही तुम्हें यह जम्बू द्वीप के वर्षो का विभाग सुना दिया।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे जम्बूद्वीपवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के १९ अध्याय समाप्त हुआ ।।

शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय २०  

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