श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २०
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय
२० "अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोक पर्वत का वर्णन"
श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: विंश अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय
२०
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः
२०
श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ
स्कन्ध बीसवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २० श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ विंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अतः परं प्लक्षादीनां
प्रमाणलक्षणसंस्थानतो
वर्षविभाग उपवर्ण्यते ॥ १॥
जम्बूद्वीपोऽयं
यावत्प्रमाणविस्तारस्तावता क्षारोदधिना
परिवेष्टितो यथा मेरुर्जम्ब्वाख्येन
लवणोदधिरपि ततो
द्विगुणविशालेन प्लक्षाख्येन
परिक्षिप्तो यथा परिखा
बाह्योपवनेन प्लक्षो जम्बूप्रमाणो
द्वीपाख्याकरो हिरण्मय
उत्थितो यत्राग्निरुपास्ते
सप्तजिह्वस्तस्याधिपतिः
प्रियव्रतात्मज इध्मजिह्वः स्वं
द्वीपं सप्तवर्षाणि विभज्य
सप्तवर्षनामभ्य आत्मजेभ्य आकलय्य
स्वयमात्मयोगे-
नोपरराम ॥ २॥
शिवं यवसं सुभद्रं शान्तं क्षेमममृतमभयमिति
वर्षाणि तेषु गिरयो नद्यश्च
सप्तैवाभिज्ञाताः ॥ ३॥
मणिकूटो वज्रकूट इन्द्रसेनो
ज्योतिष्मान् सुपर्णो
हिरण्यष्ठीवो मेघमाल इति सेतुशैलाः
। अरुणा
नृम्णाङ्गिरसी सावित्री सुप्रभाता
ऋतम्भरा सत्यम्भरा
इति महानद्यः यासां
जलोपस्पर्शनविधूतरजस्तमसो
हंसपतङ्गोर्ध्वायनसत्याङ्गसंज्ञाश्चत्वारो
वर्णाः सहस्रायुषो
विबुधोपमसन्दर्शनप्रजननाः
स्वर्गद्वारं त्रय्या विद्यया
भगवन्तं त्रयीमयं सूर्यमात्मानं
यजन्ते ॥ ४॥
प्रत्नस्य विष्णो रूपं
यत्सत्यस्यर्तस्य ब्रह्मणः ।
अमृतस्य च मृत्योश्च
सूर्यमात्मानमीमहीति ॥ ५॥
प्लक्षादिषु पञ्चसु
पुरुषाणामायुरिन्द्रियमोजः सहो बलं
बुद्धिर्विक्रम इति च
सर्वेषामौत्पत्तिकी सिद्धिरविशेषेण
वर्तते ॥ ६॥
प्लक्षः स्वसमानेनेक्षुरसोदेनावृतो
यथा तथा द्वीपोऽपि
शाल्मलो द्विगुणविशालःसमानेन
सुरोदेनावृतः
परिवृङ्क्ते ॥ ७॥
यत्र ह वै शाल्मली प्लक्षायामा
यस्यां वाव किल
निलयमाहुर्भगवतश्छन्दः स्तुतः
पतत्त्रिराजस्य सा
द्वीपहूतये उपलक्ष्यते ॥ ८॥
तद्द्वीपाधिपतिः प्रियव्रतात्मजो
यज्ञबाहुः स्वसुतेभ्यः
सप्तभ्यस्तन्नामानि सप्तवर्षाणि
व्यभजत्सुरोचनं सौमनस्यं
रमणकं देववर्षं
पारिभद्रमाप्यायनमविज्ञातमिति ॥ ९॥
तेषु वर्षाद्रयो नद्यश्च
सप्तैवाभिज्ञाताः स्वरसः शतश्रृङ्गो
वामदेवः कुन्दो मुकुन्दः पुष्पवर्षः
सहस्रश्रुतिरिति
अनुमतिः सिनीवाली सरस्वती कुहू रजनी
नन्दा
राकेति ॥ १०॥
तद्वर्षपुरुषाः
श्रुतधरवीर्यधरवसुन्धरेषन्धरसंज्ञा भगवन्तं
वेदमयं सोममात्मानं वेदेन यजन्ते ॥
११॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
राजन्! अब परिमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार
प्लक्षादि अन्य द्वीपों के वर्ष विभाग का वर्णन किया जाता है। जिस प्रकार मेरु
पर्वत जम्बू द्वीप से घिरा हुआ है, उसी प्रकार जम्बू द्वीप
भी अपने ही समान परिमाण और विस्तार वाले खारे जल के समुद्र से परिवेष्टित है। फिर
खाई जिस प्रकार बाहर के उपवन से घिरी रहती है, उसी प्रकार
क्षार समुद्र भी अपने से दूने विस्तार वाले प्लक्ष द्वीप से घिरा हुआ है। जम्बू
द्वीप में जितना बड़ा जामुन का पेड़ है, उतने ही विस्तार
वाला यहाँ सुवर्णमय प्लक्ष (पाकर) का भी वृक्ष है। उसी के कारण इसका नाम प्लक्ष
द्वीप हुआ है। यहाँ सात जिह्वाओं वाले अग्नि देव विराजते हैं। इस द्वीप के अधिपति
प्रियव्रत पुत्र महाराज इध्मजिह्व थे। उन्होंने इसको सात वर्षों में विभक्त किया
और उन्हें उन वर्षों के समान ही नाम वाले अपने पुत्रों को सौंप दिया तथा स्वयं
अध्यात्म योग का आश्रय लेकर उपरत हो गये। इन वर्षों के नाम शिव, यवस, सुभद्र, शान्त, क्षेम, अमृत और अभय हैं। इनमें भी सात पर्वत और सात
नदियाँ ही प्रसिद्ध हैं।
वहाँ मणिकूट,
वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान्,
सुपर्ण, हिरण्यष्ठीव और मेघमाल- ये सात मर्यादा
पर्वत हैं तथा अरुणा, नृम्णा, आंगिरसी,
सावित्री, सुप्रभाता, ऋतम्भरा
और सत्यम्भरा- ये सात महानदियाँ हैं। वहाँ हंस, पतंग,
ऊर्ध्वायन और सत्यांग नाम के चार वर्ण हैं। उक्त नदियों के जल में
स्नान करने से इनके रजोगुण-तमोगुण क्षीण होते रहते हैं। इनकी आयु एक हजार वर्ष की
होती है। इनके शरीरों में देवताओं की भाँति थकावट, पसीना आदि
नहीं होता और संतानोत्पत्ति भी उन्हीं के समान होती है। ये त्रयीविद्या के द्वारा
तीनों वेदों में वर्णन किये हुए स्वर्ग के द्वारभूत आत्मस्वरूप भगवान् सूर्य की
उपासना करते हैं। वे कहते हैं कि ‘जो सत्य (अनुष्ठान योग्य
धर्म) और ऋत (प्रतीत होने वाले धर्म), वेद और शुभाशुभ फल के
अधिष्ठाता हैं-उन पुराणपुरुष विष्णु स्वरूप भगवान् सूर्य की हम शरण में जाते हैं’।
प्लक्ष आदि पाँच द्वीपों में सभी
मनुष्यों को जन्म से ही आयु, इन्द्रिय,
मनोबल, इन्द्रियबल, शारीरिक
बल, बुद्धि और पराक्रम समान रूप से सिद्ध रहते हैं। प्लक्ष
द्वीप अपने ही समान विस्तार वाले इक्षुरस के समुद्र से घिरा हुआ है। उसके आगे उससे
दुगुने परिमाण वाला शाल्मली द्वीप है, जो उतने ही विस्तार
वाले मदिरा के सागर से घिरा है। प्लक्ष द्वीप के पाकर के पेड़ के बराबर उसमें
शाल्मती (सेमर) का वृक्ष है। कहते हैं, यही वृक्ष अपने वेदमय
पंखों से भगवान् की स्तुति करने वाले पक्षिराज भगवान् गरुड़ का निवास स्थान है तथा
यही इस द्वीप के नामकरण का हेतु है। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज
यज्ञबाहु थे। उन्होंने इसके सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र,
आप्यायन और अविज्ञान नाम से सात विभाग किये और इन्हें इन्हीं नाम
वाले अपने पुत्रों को सौंप दिया। इनमें भी सात वर्ष पर्वत और सात नदियाँ प्रसिद्ध
हैं। पर्वतों के नाम स्वरस, शतश्रृंग, वामदेव,
कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष
और सहस्रश्रुति हैं तथा नदियाँ अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहू, रजनी, नन्दा और राका हैं। इन वर्षों में रहने वाले श्रुतधर, वीर्यधर, वसुन्धर और इषन्धर, नाम
के चार वर्ण वेदमय आत्मस्वरूप भगवान् चन्द्रमा की वेदमन्त्रों से उपासना करते हैं।
स्वगोभिः पितृदेवेभ्यो विभजन्
कृष्णशुक्लयोः ।
प्रजानां सर्वासां राजान्धः सोमो न
आस्त्विति ॥ १२॥
एवं सुरोदाद्बहिस्तद्द्विगुणः
समानेनावृतो घृतोदेन
यथा पूर्वः कुशद्वीपो यस्मिन्
कुशस्तम्बो देवकृत-
स्तद्द्वीपाख्याकरो ज्वलन इवापरः
स्वशष्परोचिषा
दिशो विराजयति ॥ १३॥
तद्द्वीपपतिः प्रैयव्रतो राजन्
हिरण्यरेता नाम
स्वं द्वीपं सप्तभ्यः स्वपुत्रेभ्यो
यथाभागं विभज्य स्वयं
तप आतिष्ठत
वसुवसुदानदृढरुचिनाभिगुप्तस्तुत्यव्रत-
विविक्तवामदेवनामभ्यः ॥ १४॥
तेषां वर्षेषु सीमागिरयो
नद्यश्चाभिज्ञाताः सप्त सप्तैव
चक्रश्चतुःश्रृङ्गः कपिलश्चित्रकूटो
देवानीक ऊर्ध्वरोमा
द्रविण इति । रसकुल्या मधुकुल्या
मित्रविन्दा
श्रुतविन्दा देवगर्भा घृतच्युता
मन्त्रमालेति ॥ १५॥
यासां पयोभिः कुशद्वीपौकसः
कुशलकोविदाभियुक्त-
कुलकसंज्ञा भगवन्तं जातवेदसरूपिणं
कर्मकौशलेन
यजन्ते ॥ १६॥
परस्य ब्रह्मणः साक्षाज्जातवेदोऽसि
हव्यवाट् ।
देवानां पुरुषाङ्गानां यज्ञेन
पुरुषं यजेति ॥ १७॥
तथा घृतोदाद्बहिः क्रौञ्चद्वीपो
द्विगुणः स्वमानेन
क्षीरोदेन परित उपकॢप्तो वृतो यथा
कुशद्वीपो
घृतोदेन यस्मिन् क्रौञ्चो नाम
पर्वतराजो
द्वीपनामनिर्वर्तक आस्ते ॥ १८॥
योऽसौ गुहप्रहरणोन्मथितनितम्बकुञ्जोऽपि
क्षीरोदेनासिच्यमानो भगवता
वरुणेनाभिगुप्तो
विभयो बभूव ॥ १९॥
तस्मिन्नपि प्रैयव्रतो घृतपृष्ठो
नामाधिपतिः स्वे द्वीपे
वर्षाणि सप्त विभज्य तेषु
पुत्रनामसु सप्त रिक्थादान्
वर्षपान् निवेश्य स्वयं भगवान्
भगवतः परमकल्याण-
यशस आत्मभूतस्य
हरेश्चरणारविन्दमुपजगाम ॥ २०॥
आमो मधुरुहो मेघपृष्ठः सुधामा
भ्राजिष्ठो
लोहितार्णो वनस्पतिरिति
घृतपृष्ठसुतास्तेषां
वर्षगिरयः सप्त सप्तैव
नद्यश्चाभिख्याताः
शुक्लो वर्धमानो भोजन उपबर्हिणो
नन्दो
नन्दनः सर्वतोभद्र इति अभया अमृतौघा
आर्यका तीर्थवती रूपवती पवित्रवती
शुक्लेति ॥ २१॥
यासामम्भः पवित्रममलमुपयुञ्जानाः
पुरुषऋषभ-
द्रविणदेवकसंज्ञा वर्षपुरुषा आपोमयं
देवमपां
पूर्णेनाञ्जलिना यजन्ते ॥ २२॥
आपः पुरुषवीर्याः स्थ
पुनन्तीर्भूर्भुवः सुवः ।
ता नः पुनीतामीव घ्नीः
स्पृशतामात्मना भुव इति ॥ २३॥
(और कहते हैं-) ‘जो कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में
अपनी किरणों से विभाग करके देवता, पितर और सम्पूर्ण
प्राणियों को अन्न देते हैं, वे चन्द्र देव हमारे राजा (रंजन
करने वाले) हों’।
इसी प्रकार मदिरा के समुद्र से आगे
उससे दूने परिमाण वाला कुशद्वीप है। पूर्वोक्त द्वीपों के समान यह भी अपने ही समान
विस्तार वाले घृत के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमें भगवान् का रचा हुआ एक कुशों का
झाड़ है,
उसी से इन द्वीप का नाम निश्चित हुआ है। वह दूसरे अग्नि देव के समान
अपनी कोमल शिखाओं की कान्ति से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता रहता है।
राजन्! इस द्वीप के अधिपति
प्रियव्रत पुत्र महाराज हिरण्यरेता थे। उन्होंने इसके सात विभाग करके उनमें से
एक-एक अपने सात पुत्र वसु, वसुदान, दृढ़रुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत,
विवक्त और वामदेव को दे दिया और स्वयं तप करने चले गये। उनकी सीमाओं
को निश्चय करने वाले सात पर्वत हैं और सात ही नदियाँ हैं। पर्वतों के नाम चक्र,
चतुःश्रृंग, कपिल, चित्रकूट,
देवानीक, ऊर्ध्वरोमा और द्रविण हैं। नदियों के
नाम हैं- रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा,
श्रुतिविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता और मन्त्रमाला। इनके जल में स्नान करके कुशद्वीपवासी कुशल,
कोविद, अभियुक्त और कुलक वर्ण के पुरुष
अग्निस्वरूप भगवान् हरि का यज्ञादि कर्मकौशल के द्वारा पूजन करते हैं। (तथा इस
प्रकार स्तुति करते हैं-) ‘अग्ने! परब्रह्म को साक्षात् हवि
पहुँचाने वाले हैं; अतः भगवान् के अंगभूत देवताओं के यजन
द्वारा आप उन परम पुरुष का ही यजन करें’।
राजन्! फिर घृतसमुद्र से आगे उससे
द्विगुण परिमाण वाला क्रौंचद्वीप है। जिस प्रकार कुशद्वीप घृतसमुद्र से घिरा हुआ
है,
उसी प्रकार यह अपने ही समान विस्तार वाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ
है। यहाँ क्रौंच नाम का एक बहुत बड़ा पर्वत है, उसी के कारण
इसका नाम क्रौंचद्वीप हुआ है। पूर्वकाल में श्रीस्वामी कार्तिकेय जी के शस्त्र
प्रहार से इनका कटिप्रदेश और लता-निकुंजादि क्षत-विक्षत हो गये थे, किन्तु क्षीर समुद्र से सींचा जाकर और वरुणदेव से सुरक्षित होकर यह फिर
निर्भय हो गया। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज घृतपृष्ठ थे। वे बड़े
ज्ञानी थे। उन्होंने इस को सात वर्षों में विभक्त कर उनमें उन्हीं के समान नाम
वाले अपने सात उत्तराधिकारी पुत्रों को नियुक्त किया और स्वयं सम्पूर्ण जीवों के
अन्तरात्मा, परम मंगलमय कीर्तिशाली भगवान् श्रीहरि के पवन
पादारविन्दों की शरण ली।
महाराज घृतपृष्ठ के आम,
मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामा,
भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण और वनस्पति- ये सात
पुत्र थे। उनके वर्षों में सात वर्ष पर्वत और सात ही नदियाँ कही जाती हैं। पर्वतों
के नाम शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन और
सर्वतोभद्र हैं तथा नदियों के नाम हैं- अभया, अमृतौघा,
आर्यका, तीर्थवती, वृत्तिरूपपवती,
पवित्रवती और शुक्ला। इनके पवित्र और निर्मल जल का सेवन करने वाले
वहाँ के पुरुष, ऋषभ, द्रविण और देवक
नामक चार वर्ण वाले निवासी जल से भरी हुई अंजलि के द्वारा आपोदेवता (जल के देवता)
की उपासना करते हैं। (और कहते हैं-) ‘हे जल देवता! तुम्हें
परमात्मा से सामर्थ्य प्राप्त है। तुम भूः, भुवः और स्वः-
तीनों लोकों को पवित्र करते हो; क्योंकि स्वरूप से ही पापों
का नाश करने वाले हो। हम अपने शरीर से तुम्हारा स्पर्श करते हैं, तुम हमारे अंगों को पवित्र करो’।
एवं पुरस्तात्क्षीरोदात्परित
उपवेशितः शाकद्वीपो
द्वात्रिंशल्लक्षयोजनायामः समानेन च
दधिमण्डोदेन
परीतो यस्मिन् शाको नाम महीरुहः
स्वक्षेत्रव्यपदेशको
यस्य ह महासुरभिगन्धस्तं
द्वीपमनुवासयति ॥ २४॥
तस्यापि प्रैयव्रत एवाधिपतिर्नाम्ना
मेधातिथिः सोऽपि
विभज्य सप्त वर्षाणि पुत्रनामानि
तेषु स्वात्मजान्
पुरोजवमनोजवपवमानधूम्रानीक-चित्ररेफबहुरूप-
विश्वधारसंज्ञान् निधाप्याधिपतीन्
स्वयं भगवत्यनन्त
आवेशितमतिस्तपोवनं प्रविवेश ॥ २५॥
एतेषां वर्षमर्यादागिरयो नद्यश्च
सप्त सप्तैव ईशान
उरुश्रृङ्गो बलभद्रः शतकेसरः
सहस्रस्रोतो देवपालो
महानस इति अनघाऽऽयुर्दा
उभयस्पृष्टिरपराजिता
पञ्चपदी सहस्रस्रुतिर्निजधृतिरिति ॥
२६॥
तद्वर्षपुरुषा
ऋतव्रतसत्यव्रतदानव्रतानुव्रतनामानो
भगवन्तं वाय्वात्मकं
प्राणायामविधूतरजस्तमसः
परमसमाधिना यजन्ते ॥ २७॥
अन्तः प्रविश्य भूतानि यो
बिभर्त्यात्मकेतुभिः ।
अन्तर्यामीश्वरः साक्षात्पातु नो
यद्वशे स्फुटम् ॥ २८॥
एवमेव दधिमण्डोदात्परतः
पुष्करद्वीपस्ततो
द्विगुणायामः समन्तत उपकल्पितः
समानेन
स्वादूदकेन समुद्रेण बहिरावृतो
यस्मिन् बृहत्पुष्करं
ज्वलनशिखामलकनकपत्रायुतायुतं भगवतः
कमलासनस्याध्यासनं परिकल्पितम् ॥
२९॥
तद्द्वीपमध्ये मानसोत्तरनामैक
एवार्वाचीनपराचीन-
वर्षयोर्मर्यादाचलोऽयुतयोजनोच्छ्रायायामो
यत्र तु
चतसृषु दिक्षु चत्वारि पुराणि
लोकपालानामिन्द्रादीनां
यदुपरिष्टात्सूर्यरथस्य मेरुं
परिभ्रमतः संवत्सरात्मकं
चक्रं देवानामहोरात्राभ्यां
परिभ्रमति ॥ ३०॥
तद्द्वीपस्याप्यधिपतिः प्रैयव्रतो
वीतिहोत्रो नामैतस्यात्मजौ
रमणकधातकिनामानौ वर्षपती नियुज्य स
स्वयं पूर्वजव-
द्भगवत्कर्मशील एवास्ते ॥ ३१॥
तद्वर्षपुरुषा भगवन्तं ब्रह्मरूपिणं
सकर्मकेण
कर्मणाराधयन्तीदं चोदाहरन्ति ॥ ३२॥
यत्तत्कर्ममयं लिङ्गं ब्रह्मलिङ्गं
जनोऽर्चयेत् ।
एकान्तमद्वयं शान्तं तस्मै भगवते नम
इति ॥ ३३॥
इसी प्रकार क्षीर समुद्र से आगे
उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तार वाला शाकद्वीप है,
जो अपने ही समान परिमाण वाले मट्ठे के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमें
शाक नाम का एक बहुत बड़ा वृक्ष है, वही इस क्षेत्र के नाम का
कारण है। उसकी अत्यन्त मनोहर सुगन्ध से सारा द्वीप महकता रहता है। मेधातिथि नामक
उसके अधिपति भी राजा प्रियव्रत के ही पुत्र थे। उन्होंने भी अपने द्वीप को सात
वर्षों में विभक्त किया और उनमें उन्हीं के समान नाम वाले अपने पुत्र पुरोजव,
मनोजव, पवमान, धूम्रानीक,
चित्ररेफ, बहुरूप और विश्वधार को अधिपति रूप
से नियुक्त कर स्वयं भगवान् अनन्त में दत्तचित्त हो तपोवन को चले गये। इन वर्षों
में भी सात मर्यादा पर्वत और सात नदियाँ ही हैं। पर्वतों के नाम ईशान, ऊरुश्रृंग, बलभद्र, शतकेसर,
सहस्रस्रोत, देवपाल और महानस हैं तथा नदियाँ
अनघा, आयुर्दा, उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पंचपदी, सहस्रस्रुति
और निजधृति हैं।
उस वर्ष के ऋतव्रत,
सत्यव्रत, दानव्रत और अनुव्रत नामक पुरुष
प्राणायाम द्वारा अपने रजोगुण-तमोगुण को क्षीण कर महान् समाधि के द्वारा वायुरूप
श्रीहरि की आराधना करते हैं। (और इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं-) ‘जो प्राणादि वृत्तिरूप अपनी ध्वजाओ के सहित प्राणियों के भीतर प्रवेश करके
उनका पालन करते हैं तथा सम्पूर्ण दृश्य जगत् जिनके अधीन है, वे
साक्षात् अन्तर्यामी वायु भगवान् हमारी रक्षा करें’।
इसी तरह मट्ठे के समुद्र से आगे
उसके चारों ओर उससे दुगुने विस्तार वाला पुष्करद्वीप है। वह चारों ओर से अपने ही
समान विस्तार वाले मीठे जल के समुद्र से घिरा है। वहाँ अग्नि की शिखा के समान
देदीप्यमान लाखों स्वर्णमय पंखड़ियों वाला एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है,
जो ब्रह्मा जी का आसन माना जाता है। उस द्वीप के बीचोंबीच उसके
पूर्वीय और पश्चिमी विभागों की मर्यादा निश्चित करने वाला मानसोत्तर नाम का एक ही
पर्वत है। यह दस हजार योजन ऊँचा और उतना ही लम्बा है। इसके ऊपर चारों दिशाओं में
इन्द्रादि लोकपालों की चार पुरियाँ हैं। इन पर मेरु पर्वत के चारों ओर घूमने वाले
सूर्य के रथ का संवत्सररूप पहिया देवताओं के दिन और रात अर्थात् उत्तरायण और
दक्षिणायन के क्रम से सर्वदा घूमा करता है। उस द्वीप का अधिपति प्रियव्रत पुत्र
वीतिहोत्र भी अपने पुत्र रमणक और धातकि को दोनों वर्षों का अधिपति बनाकर स्वयं
अपने बड़े भाइयों के समान भगवत्सेवा में ही तत्पर रहने लगा था। वहाँ के निवासी
ब्रह्मारूप भगवान् हरि की ब्रह्म सालोक्यादि की प्राप्ति कराने वाले कर्मों से
आराधना करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं- ‘जो साक्षात्
कर्मफल रूप हैं और एक परमेश्वर में ही जिनकी पूर्ण स्थिति है तथा जिनकी सब लोग
पूजा करते हैं, ब्रह्मज्ञान के साधनरूप उन अद्वितीय और
शान्तस्वरूप ब्रह्म मूर्ति भगवान् को मेरा नमस्कार है’।
ऋषिरुवाच
ततः परस्ताल्लोकालोकनामाचलो
लोकालोकयो-
रन्तराले परित उपक्षिप्तः ॥ ३४॥
यावन्मानसोत्तरमेर्वोरन्तरं तावती
भूमिः काञ्चन्य-
न्यादर्शतलोपमा यस्यां प्रहितः
पदार्थो न कथञ्चित्पुनः
प्रत्युपलभ्यते
तस्मात्सर्वसत्त्वपरिहृताऽऽसीत् ॥ ३५॥
लोकालोक इति समाख्या यदनेनाचलेन
लोकालोकस्यान्तर्वर्तिनावस्थाप्यते
॥ ३६॥
स लोकत्रयान्ते परित ईश्वरेण विहितो
यस्मात्सूर्यादीनां ध्रुवापवर्गाणां
ज्योतिर्गणानां
गभस्तयोऽर्वाचीनांस्त्रीन्
लोकानावितन्वाना
न कदाचित्पराचीना भवितुमुत्सहन्ते
तावदुन्नहनायामः ॥ ३७॥
एतावान् लोकविन्यासो मानलक्षणसंस्थाभिर्विचिन्तितः
कविभिः स तु पञ्चाशत्कोटिगणितस्य
भूगोलस्य
तुरीयभागोऽयं लोकालोकाचलः ॥ ३८॥
तदुपरिष्टाच्चतसृष्वाशास्वात्मयोनिनाखिलजगद्गुरुणा-
धिनिवेशिता ये द्विरदपतय ऋषभः
पुष्करचूडो
वामनोऽपराजित इति सकललोकस्थितिहेतवः
॥ ३९॥
तेषां स्वविभूतीनां लोकपालानां च
विविधवीर्यो-
पबृंहणाय भगवान् परममहापुरुषो
महाविभूतिपति-
रन्तर्याम्यात्मनो विशुद्धसत्त्वं
धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्या-
द्यष्टमहासिद्ध्युपलक्षणं
विष्वक्सेनादिभिः स्वपार्षदप्रवरैः
परिवारितो
निजवरायुधोपशोभितैर्निजभुजदण्डैः
सन्धारयमाणस्तस्मिन् गिरिवरे
समन्तात्सकललोक-
स्वस्तय आस्ते ॥ ४०॥
आकल्पमेवं वेषं गत एष
भगवानात्मयोगमायया
विरचितविविधलोकयात्रागोपीयायेत्यर्थः
॥ ४१॥
योऽन्तर्विस्तार एतेन ह्यलोकपरिमाणं
च व्याख्यातं
यद्बहिर्लोकालोकाचलात्ततः
परस्ताद्योगेश्वरगतिं
विशुद्धामुदाहरन्ति ॥ ४२॥
अण्डमध्यगतः सूर्यो
द्यावाभूम्योर्यदन्तरम् ।
सूर्याण्डगोलयोर्मध्ये कोट्यः स्युः
पञ्चविंशतिः ॥ ४३॥
मृतेऽण्ड एष एतस्मिन् यदभूत्ततो
मार्तण्ड इति
व्यपदेशः हिरण्यगर्भ इति
यद्धिरण्याण्डसमुद्भवः ॥ ४४॥
सूर्येण हि विभज्यन्ते दिशः खं
द्यौर्मही भिदा ।
स्वर्गापवर्गौ नरका रसौकांसि च
सर्वशः ॥ ४५॥
देवतिर्यङ् मनुष्याणां
सरीसृपसवीरुधाम् ।
सर्वजीवनिकायानां सूर्य आत्मा
दृगीश्वरः ॥ ४६॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
राजन्! इसके आगे लोकालोक नाम का पर्वत है। यह पृथ्वी के सब ओर सूर्य
आदि के द्वारा प्रकाशित और अप्रकाशित प्रदेशों के बीच में उनका विभाग करने के लिये
स्थित है। मेरु से लेकर मानसोत्तर पर्वत तक जितना अन्तर है, उतनी
ही भूमि शुद्धोदक समुद्र के उस ओर है। उसके आगे सुवर्णमयी भूमि है, जो दर्पण के समान स्वच्छ है। इसमें गिरी हुई कोई वस्तु फिर नहीं मिलती,
इसलिये वहाँ देवताओं के अतिरिक्त और कोई प्राणी नहीं रहता। लोकालोक
पर्वत सूर्य आदि से प्रकाशित और अप्रकाशित भूभागों के बीच में है, इससे इसका यह नाम पड़ा है।
उसे परमात्मा ने त्रिलोकी के बाहर
उसके चारों ओर सीमा के रूप में स्थापित किया है। यह इतना ऊँचा और लम्बा है कि इसके
एक ओर से तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाली सूर्य से लेकर ध्रुवपर्यन्त समस्त
ज्योतिर्मण्डल की किरणें दूसरी ओर नहीं जा सकतीं।
विद्वानों ने प्रमाण,
लक्षण और स्थिति के अनुसार सम्पूर्ण लोकों का इतना ही विस्तार
बतलाया है। यह समस्त भूगोल पचास करोड़ योजन है। इसका चौथाई भाग (अर्थात् साढ़े
बारह करोड़ योजन विस्तार वाला) यह लोकालोक पर्वत है। इसके ऊपर चारों दिशाओं में
समस्त संसार के गुरु स्वयम्भू श्रीब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिये
ऋषभ, पुष्करचूड, वामन और अपराजित नाम
के चार गजराज नियुक्त किये हैं। इन दिग्गजों की और अपने अंशस्वरूप इन्द्रादि
लोकपालों की विविध शक्तियों की वृद्धि तथा समस्त लोकों के कल्याण के लिये परम
ऐश्वर्य के अधिपति सर्वान्तर्यामी परमपुरुष श्रीहरि अपने विष्वक्सेन आदि पार्षदों
के सहित इस पर्वत पर सब ओर विराजते हैं। वे अपने विशुद्ध सत्त्व (श्रीविग्रह) को
जो धर्म, ज्ञान वैराग्य और ऐश्वर्य आदि आठ महासिद्धियों से
सम्पन्न है धारण किये हुए हैं। उनके करकमलों में शंख-चक्रादि आयुध सुशोभित हैं।
इस प्रकार योगमाया से रचे हुए विविध
लोकों की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिये वे इसी लीलामयरूप से कल्प के अन्त तक
वहाँ सब ओर रहते हैं। लोकालोक के अन्तरवर्ती भूभाग का जितना विस्तार है,
उसी से उसके दूसरी ओर के अलोक प्रदेश के परीमाण की भी व्याख्या समझ
लेनी चाहिये। उसके आगे तो केवल योगेश्वरों की ही ठीक-ठीक गति हो सकती है।
राजन्! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में
जो ब्रह्माण्ड का केन्द्र है, वही सूर्य की
स्थिति है। सूर्य और ब्रह्माण्ड गोलक के बीच में सब ओर से पच्चीस करोड़ योजन का
अन्तर है। सूर्य इस मृत अर्थात् मरे हुए (अचेतन) अण्ड में वैराज रूप से विराजते
हैं, इसी से इनका नाम ‘मार्तण्ड’
हुआ है। ये ‘हिरण्यमय (ज्योतिर्मय) ब्रह्माण्ड
से प्रकट हुए हैं, इसलिये इन्हें 'हिरण्यगर्भ’
भी कहते हैं। सूर्य के द्वारा ही दिशा, आकाश,
द्युलोक (अन्तरिक्ष लोक), भूर्लोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश, नरक और रसातल तथा अन्य
समस्त भोगों का विभाग होता है। सूर्य ही देवता, त्रिर्यक्,
मनुष्य, सरीसृप और लता-वृक्षादि समस्त जीव
समूहों के आत्मा और नेत्रेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने
समुद्रवर्षसन्निवेश-परिमाणलक्षणो नाम विंशोऽध्यायः ॥ २०॥
।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण
पञ्चम स्कन्ध के २० अध्याय समाप्त हुआ ।।
शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय २१
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